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Saturday, March 23, 2013

पुरस्कार का कारोबार


इन दिनों उत्तर प्रदेश में साहित्यिक पुरस्कारों की बाढ़ आई हुई है । मायावती के शासनकाल के दौरान रुके या रोके गए साहित्यक पुरस्कारों को अर्पित किया जा रहा है । मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इन पुरस्कार अर्पण समारोह में शिरकत कर रहे हैं और गाजे बाजे के साथ पुरस्कृत साहित्यकारों का सम्मान किया जा रहा है । पुरस्कार समारोह में युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की उपस्थिति से उम्मीद भी जगती है कि अब उत्तर प्रदेश की समृद्ध साहित्यक विरासत को इस शासनकाल में फिर से अहमियत मिलेगी । मुख्यमंत्री ने पिछले शासनकाल में पुरस्कारों के बंद होने को दुर्भाग्यपूर्ण करार देते हुए अगले साल से सम्मान राशि बढ़ाने का भी ऐलान किया । अखिलेश यादव ने यह भी कहा कि साहित्य शाश्वत होता है और वो समाज को रास्ता भी दिखाता है । यह सब तो ठीक था, उम्मीद भी जगा गया । लेकिन इन पुरस्कारों से कई सवाल भी खड़े हो गए हैं । इस बार का यश भारती पुरस्कार हंस के यशस्वी संपादक राजेन्द्र यादव को दिया गया है और सम्मान स्वरूप उन्हें ग्यारह लाख रुपए भी मिलेंगे । आमतौर पर यादव जी पुरस्कार नहीं लेते लेकिन लखटकिया पुरस्कारों से उन्हें परहेज भी  नहीं है । उनका तर्क होता है कि पुरस्कार राशि को वो हंस में लगा देते हैं और हंस पत्रिका को चलाने के लिए वो कहीं से भी राशि ले सकते हैं । तमाम विरोध के बावजूद बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का गुणगान करनेवाले विज्ञापन तो वो छापते ही रहते हैं । लेकिन यह एक अवांतर प्रसंग हैं । लेकिन यादव जी के अलावा जिन दो लेखकों को यह पुरस्कार दिया गया है, साहित्य जगत अबतक उनसे अपरिचित है । यह उसी तरह से है जब साहित्य अकादमी के जनरल काउंसिल में प्रोफेसरों के कॉकस एक दूसरे को चुनते हैं जिनका साहित्य में कोई योगदान नहीं है ।
बात हिंदी में पुरस्कारों की हो रही थी । हिंदी में पुरस्कारों की महत्ता और प्रतिष्ठा लगातार कम होती जा रही है । हिंदी में सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार साहित्य अकादमी सम्मान को माना जाता था लेकिन पिछले एक दशक से जिस तरह से साहित्य अकादमी पुरस्कारों की बंदरबांट हुई है उससे अकादमी पुरस्कारों की साख पर बट्टा लगा है । दो हजार एक से लेकर दो हजार दस तक की साहित्य अकादमी पुरस्कारों के लिए बनाई गई पुस्तकों की आधार सूची पर नजर डालने से यह बात और साफ हो जाती है । दो हजार तीन में जब कमलेश्वर को उनके उपन्यास - कितने पाकिस्तान - पर साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था तो उस वक्त की आधार सूची में इकतीस लेखकों के नाम थे जिसे मृदुला गर्ग ने तैयार किया था । इस सूची में तेजिन्दर, गौरीनाथ, हरि भटनागर, संजना कौल और जयनंदन आदि के नाम शामिल थे । तब अकादमी पर यह आरोप लगा था कि कमलेश्वर का नाम पहले से तय था । कई अखबारों ने तो उस वक्त पुरस्कारों के ऐलान के पहले ही उनके नाम का खुलासा कर दिया था । दो हजार चार में तो और भी आरोप लगे थे । पुरस्कार मिला था वरिष्ठ और चर्चित कवि वीरेन डंगवाल को उनके कविता संग्रह दुश्चक्र में स्रष्टा पर। उस वक्त के संयोजक थे उपन्यासकार गिरिराज किशोर और आधार सूची तैयार की थी कहानीकार प्रियंवद ने । हद तो तब हो गई थी जब निर्णायक मंडल के तीन सदस्यों में से दो कमलेश्वर और श्रीलाल शुक्ल बैठक में उपस्थित ही नहीं हो सके थे । अपनी टिप्पणी में निर्णायक मंडल के तीसरे सदस्य से रा यात्री ने लिखा- दुश्चक्र में स्रष्टा- काव्य कृति को हम सभी निर्णायक मंडल के सदस्य एक समान प्रथम वरीयता देते हैं और साहित्य अकादमी के दो हजार चार के पुरस्कार के लिए सहर्ष प्रस्तुत करते हैं । लेकिन संस्तुति पत्र पर सिर्फ उनके ही दस्तखत हैं । उसी जगह हिंदी भाषा के तत्कालीन संयोजक गिरिराज किशोर ने लिखा- श्री श्रीलाल शुक्ल एवं कमलेश्वर जी उपस्थित नहीं हो सके । उन्होंने अपनी लिखित संस्तुति बंद लिफाफे में भेजी है । श्रीलाल जी ने ज्यूरी के उपस्थित सदस्य से रा यात्री से फोन पर लंबी बातकर दुश्चक्र में स्रष्टा को 2004 के पुरस्कार के लिए समर्थन दिया । हलांकि साहित्य अकादमी के दस्तावेजों में श्रीलाल जी की संस्तुति मौजूद नहीं है । कमलेश्वर का बीस दिसंबर खत है जो इक्कीस दिसंबर की बैठक के पहले प्राप्त हो गया था । इस तरह की जल्दबाजी ने सवाल भी खड़े किए । वीरेन डंगवाल की प्रतिष्ठा पर किसी को कोई शक नहीं है । वो साहित्य अकादमी पुरस्कार डिजर्व भी करते थे लेकिन जिस तरह की अफरातफरी में उन्हें पुरस्कार देने का ऐलान किया गया उससे उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध हो गई । कालांतर में अकादमी पुरस्कारों के चयन को लेकर कई गंभीर आरोप लगे । नतीजा यह हुआ कि अकादमी पुरस्कार को हिंदी जगत में उस तरह का उत्साह नहीं रहा जो नब्बे के दशक में हुआ करता था । अब अकादमी में पहली बार हिंदी भाषा के प्रतिनिधि प्रोफेसर विश्वनाथ तिवारी अध्यक्ष बने हैं । उनपर यह महती जिम्मेदारी है कि अकादमी पुरस्कारों की विश्वसनीयता और साख बहाल करें ।
इसके अलावा भी हिंदी में कई पुरस्कार दिए जाते हैं । कुछ पुरस्कार तो ऐसे हैं जो बकायदा लेखकों से एक निश्चित राशि के बैंक ड्राफ्ट के साथ आवेदन मांगते हैं । हिंदी के पुरस्कार पिपासु लेखक बड़ी संख्या में इस तरह के पुरस्कारों के लिए आवेदन भेजते हैं । कहना नहीं होगा कि हिंदी के बहुतायत लेखकों में बगैर काम किए या यों कहे कि हल्का काम करके भी प्रसिद्धि की ललक ऐसे पुरस्कारों को प्राणवायु प्रदान करती है । उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में कई ऐसे पुरस्कार हैं जिनकी धनराशि तो पांच से दस हजार रुपए तक होती है लेकिन उन पुरस्कारों की आड़ में साहित्य का खेल खेला जाता है । जिस पत्रिका की कोई पहचान नहीं बन पाती है या उसके दो एक अंक निकले होते हैं वह भी अपने नाम पर शॉल श्रीफल देकर साहित्याकारों और लेखकों को उपकृत करते हैं और उसके एवज में जाने क्या क्या होता है । लेकिन जो भी होता है वह हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठा को धूमिल करता है । सवाल यह उठता है कि हिंदी के लेखकों में पुरस्कार को लेकर इतनी भूख क्यों है । क्योंकर वो हजार दो हजार के पुरस्कार के लिए सारे दंद फंद और पुरस्कार देनेवालों की चापलूसी पर उतारू है । अगर हम विस्तार से इसकी पड़ताल करते हैं तो जो तस्वीर सामने आती है वह बेहद निराशाजनक है । हिंदी के लेखकों जिस एक प्रवृत्ति का लागातार क्षय हो रहा है वह है मेहनत से दूर भागने का । बगैर व्यापक शोध के और कल्पना के आधार पर यथार्थ लिखने की प्रवृत्ति ने साहित्य का बड़ा नुकसान किया है । विचारधारा वाली साहित्य ने तो नुकसान किया ही । इसके अलावा जो एक और प्रवृत्ति नई पीढ़ी के साहित्यकारों लेखकों में दिख रहा है वह है जल्दबाजी, धैर्य की कमी, कम वक्त में सारा आकाश छेक लेने की तमन्ना और वह भी किसी कीमत पर । इसी मानसिकता का फायदा उठाकर कुछ साहित्य के कारोबारी पुरस्कारों का कारोबार करते हैं और उसमें फंसा कर लेखकों को उलझा देते हैं । नवोदित लेखक तो कोंपल की तरह होता है जिसे बहुत सावधानी से विकसित किया जाता है लेकिन हिंदी के नए लेखक तो शुरू से ही आसमान पर चढ़ने की तमन्ना पाले बैठे रहते हैं । महात्वाकांक्षी होना बुरी बात नहीं है।  हर किसी को महात्वाकांक्षी होना चाहिए लेकिन उसमें अति के जुड़ने से जो बेचैनी आ जाती है वह एक खतरनाक संकेत है और पुरस्कार देनेवाले इस प्रवृत्ति को बढ़ाकर खतरा और बढ़ा देते हैं । हिंदी के कर्ता धर्ताओं की यह जिम्मेदारी है कि वो इस वक्त आगे आएं और टुटपुंजिए पुरस्कारों को चिन्हित कर उसके बहिष्कार का विरोध करें ताकि हिंदी से पुरस्कारों के कारोबार पर रोक लगाई जा सके ।

Saturday, March 9, 2013

Mela of Powerful Discourse also

The Jaipur Literature Festival, the biggest in south Asia has earned a reputation among world literary circle as a platform for serious dialogue. But in India some feudal intellectuals see it as a useless platform and label it ‘Tamasha’. Leading this criticism is the learned Ex judge of Supreme court of India and currently the Chairman of Press Council of India – Justice Katju. The critics of Jaipur Lit Fest think that there was only sound and fury and it had no significance. They borrow this phrase from Shakespeare.  But in criticism they show so much excitement and make a comment that puts a big question mark on the contemaporary creative writing. While questioning the ability of the contemporary writers and their writings it is said that there is hardly any worthwhile literature to be read nowadays and there was certainly none at the festival. Everything has become commercialized. This generalized statement of retired Justice  Katju is most bizarre statement coming from a person of his repute. It also reflects his ambit of knowledge of the Indian writing as well as the world literary writing. He is looking for writers like Premchand and Sharat Chandra. He made the very objectionable statement that writers often write only to earn money and there is hardly any artistic value in what they produce. At the same time this statement also shows that he doesn’t have  iota of idea about the contemporary writing of Hindi, Marathi, Bengoli and to some extent Kannada language. The Dalit writing movement in Marathi not only makes ripples among the literary world but it made remarkable impact on the life of Dalits. How can anybody forget the feminist movement run by Rajendra Yadav, the Editor of Hindi literary magazine. The argument that the writers often write only for the money is a juvenile one as he did not gave any fact to support it. Katju was a learned judge of the apex court and it was expected of him that the selection of the words in his writing must be near perfect. But in the above example he said that writers often write ONLY for money. This word ONLY is an insult to the whole writing community of our country.  
Katju is in the Habit of dropping names of world philosophers and writers like Victor Hugo, Voltaire and many more in support of his argument. On the surface this makes his articles more serious but in the process he loses the focus and gives logic which is of no relevance.
Justice Katju also advised the writers of the country to join those who are fighting to make India free from the socio economic evils. He also preaches the writers community to inspire the people and also write against oppression and backword mentality. This advise also shows that he doesn’t have any iota of idea about the progressive Hindi writing after the sixties. The almost entire writing of that period is in support of the downtrodden and the oppressed classs of the society. Even before that the famous Hindi writer Yashpal wrote a novel in 1941 in which he advocated socialism. How can anybody forget the writing of Amrit Lal Nagar, Ramdhari Singh Dinkar. Fanishwar nath Renu, Shiv Prasad Singh, Nagarjun, Raghubir Sahay, Mahasweta Devi, Rambriksha Benipuri and many more.
Katju preaches that there is hardly any great art and literature in our country today. Again by making this generalized statement in his scholarly article Katju  shows his limitations and less knowledge about the Indian writing.
 In criticizing the literati of the country he turned his gun on Jaipur Literature festival and said that the elite of this country descended at Diggi Palace of Jaipur and discussed Sex and Kamsutra. Here again he is misinformed or rather ill-informed. Sessions were there on  sex and Kamsutra but they were a part of whole Lit Fest. There was a  session on the films and the songs where speakers showed their worry on the wordings used in the item songs thses days. Mahasweta Devi was present in one of the inaugural sessions. Has anybody any doubt about the writings of Mahashweta Devi . She is the classical case of making the impact on oppressed class by of her writing, which Katju missed. She worked and wrote for more than four decades for the oppressed class. The need is to read her work and than make comments.
But one must praise Katju who is very kind in comparing the Indian literature with other countries and here also delivered a judgment that in other countries also hardly any great literature is being written. The question is that how can anybody in a sentence say like this. Has he heard about the works of British Writer Howard Jacobson or does he know about the works of so many Latin American writers who attended the lit Fest. Doesn’t seem so. If Freedom, the Masterpiece written by Jonathan Frenzen of America was taken into consideration, such statement cant be made. The list is very long but these are some examples which proves Katju wrong. We can not forget the contribution of JLF that it showed the path and now in many big or small country there is lit Fest. This is a good sign for cultural revival of the country. And despite of controversies involving Ashish Nandy and Salman Rushdie, Jaipur lit fest was a great platform for serious discourse. So by saying it a Tamasha or sound and fury shows the feudal or orthodox mindset which has to be intellectually fought.

Sunday, March 3, 2013

साहित्य का मीना बाजार


पिछले कई सालों से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ने ना सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया के साहित्यक मानचित्र पर अपनी एक अलग पहचान बनाई है । बेहद छोटे स्तर से शुरु हुए इस लिटरेचर फेस्टिवल ने छह सालों में एक लंबा सफर तय किया है । इन छह सालों में इस फेस्टिवल में विश्व के अनेक भाषाओं के लेखकों ने शिरकत की और साहित्य से जुड़े गंभीर विषयों पर विमर्श किया । लेकिन समय बदला तो इस महोत्सव का स्वरूप भी बदला । पिछले साल सलमान रश्दी के जयपुर आने को लेकर मचे बवाल ने लिटरेचर फेस्टिवल को लोकप्रियता और चर्चा के शीर्ष पर पहुंचा दिया था । सलमान रश्दी के नहीं आने से भी कोई फर्क नहीं पड़ा था क्योंकि विवाद फिर भी हुआ था । जीत थाईल, रुचिर शर्मा और हरि कुंजरू ने सलमान रश्दी की विवादित किताब के अंश पढ़ दिए थे । उसके बाद जीत थाईल पर जयपुर और अजमेर में आठ केस दर्ज किए गए थे । यह अलग बात है कि साल भर बीत जाने के बाद भी इन केस की अबतक फाइल खुली ही नहीं है । जीत थाईल इस साल भी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में पहुंचे और उन्हें उनके उपन्यास नारकोपोलिस पर प्रतिष्ठित डीएससी पुरस्कार भी मिला ।
अपने छठे एडिशन तक आते आते जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल साहित्यक उत्सव से अपना फलक बड़ा करते हुए साहित्य के मीना बाजार में तब्दील होता नजर आया । मैं पिछले कई सालों से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को देखता आ रहा हूं । इस बार इस साहित्य मेले में कई नई चीजें देखने को मिली । पहले जयपुर के दिग्गी पैलेस में आयोजित इस मेले में साहित्य पर गंभीर विमर्श हुआ करते था, इस बार भी हुआ लेकिन विमर्श के साथ साथ मेले में कारोबार का भी प्रवेश हो गया । शुरुआत में जब इस साहित्यक उत्सव की कल्पना की गई होगी तब भी उसके पीछे साहित्य पर गंभीर चिंतन के अलावा लाभ कमाने का भी उद्देश्य रहा होगा । लेकिन पिछले पांच मेलों तक यह थोड़ा ढंके छुपे तौर पर चल रहा था । इस बार मेले में खुलकर कारोबार हो रहा था । इस साल मेले में हर मंडप के पास तरह तरह के खाने पीने के स्टॉल लगे थे । कुल्हड़वाली चाय जो इस मेले की खासियत हुआ करती है उसके दाम में पिछले साल की तुलना में सौ फीसदी का इजाफा करते हुए उसे बीस रुपए प्रति कुल्हड़ कर दिया गया । खाने-पीने तक तक अगर यह मामला रुका रहता तब भी बात समझ में आती वेकिन इस बार तो विदेशी मेहमानों को ध्यान में रखते हुए हैंडीक्राफ्ट की भी कई दुकानें वहां लगाई गई थी जिसनें जयपुरी बलॉक प्रिंट के कपड़ों से लेकर थैले और टोपियां मिल रही थी । सबसे हैरानी की बात तो यह थी कि इस बार मेले में पहली बार गहनों की भी एक दुकान थी । साहित्यक मेले में गहनों की दुकान का मतलब समझ में नहीं आया । क्या आयोजकों को यह लगता है कि लिटरेचर फेस्टिवल में आनेवाले लोग वहां साहित्य सुनने और अलग अलग सत्रों में होनेवाले विमर्श में शामिल होने के अलावा पिकनिक और मौज मस्ती और शॉपिंग के लिए आते हैं । या फिर लिटरेचर फेस्टिवल की लोकप्रियता को भुनाते हुए आयोजक ज्यादा से ज्यादा लाभ कमा लेना चाहते हैं । इन सवालों के जबाव अबतक अनुत्तरित हैं । हलांकि इस बार जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के प्रोड्यूसर संजॉय रॉय के हवाले से खबरें छपी कि मेले के आयोजन में तकरीबन डेढ़ करोड़ रुपए का नुकसान होगा । आयोजकों की दलील थी कि एकदम आखिरी वक्त में दो बड़े प्रायोजकों ने हाथ खींच लिया । साहित्यक मेले का इस साल का बजट तकरीबन साढ़े पांच करोड़ का था और प्रायोजकों से चार करोड़ रुपए मिले थे । इस लिहाज से मोटे तौर पर जो बैलेंस शीट बनती है उसमें डेढ करोड़ का नुकसान है ।
मैंने इस मेले को साहित्य का मीना बाजार इस वजह से कहा क्योंकि इस बार मेले में मीना बाजार में मौजूद तकरीबन हर चीज वहां मौजूद थी एक सिर्फ चरखी को छोड़कर । इस मेले के पहले इस साल रायल्स इलेवन और लेखकों की टीम के बीच एक क्रिकेट मै भी खेला गया । मेले को सफल बनाने के लिए कई फिल्मी सितारों को भी बुलाया गया । इस बार पहली बार शाम को होनेवाले म्यूजिकल कार्यक्रम को आयोजन स्थल, दिग्गी पैलेस से हटाकर एक अलग होटल के लॉल में आयोजित किया गया । जहां शामिल होने के लिए तीन सौ रुपए का टिकट भी था । लेकिन ऐसा नहीं है कि जयपुर साहित्य उत्सव सिर्फ कारोबार है, सिर्फ चकल्लस का अड्डा है । जैसा कि हमारे कई बुद्धिजीवी और बुद्दिजीवी होने का भ्रम पाले बैठे लोग सोचते हैं । जयपुर लिट फेस्ट में कई गंभीर मुद्दों पर भी चर्चा हुई । कई लोगों को इस बात पर आपत्ति है कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में साहित्यक विमर्श के नाम पर हल्की चर्चा हुई । यह मानसिकता उन लोगों की है जो पूर्वग्रह से ग्रसित हैं और समाज में कुछ भी अच्छा और रचनात्मक घटित होना, उनके हिसाब से देश की अस्सी फीसदी गरीब जनता के साथ छल है ।
इस तरह के तर्क देनावाले लोग यह भूल जाते हैं कि इसी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के सत्र ऑफ वुमन आुटकास्ट्स प्रजेंट्स एंड रिबेल्स में में अपने जीवन काल में ही महान लेखिका का दर्जा हासिल कर चुकी महाश्वेता देवी ने कहा था कि सपने देखना इंसान का पहला और मूलभूत अधिकार है । नक्सलवादी भी सपने देखते हैं । उनका अपराध यही तो है कि उन्होंने सपने देखने का सहस किया, तो उनको फिर यह अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए । महाश्वेता देवी के इस बयान पर लंबा विमर्श चला । अखबारों में विशेष संपादकीय लिखे गए । एक ओर जहां महाश्वेता यह बात कह रही थी वहीं दूसरी ओर इसी मेले में किनशिप्स ऑफ फेश नाम के सत्र में तिब्बती धर्मगुरू और नोबेल पुरस्कार प्राप्त दलाई लामा ने शांति की जमर वकालत की । दलाई लामा ने कहा कि जो लोग मैं मैं के बारे में सोचते हैं उन्हें दिल का दौरा पड़ने की संभावना ज्यादा रहती है । दिल पर ऐसा दबाव ना बनाएं । दूसरों के बारे में भी सोचें । यही इस तरह के साहित्यक उत्सव की खूबसूरती है । उसी मेले में पाकिस्तान की उर्दू साहित्यकार और महिलावादी लेखिका फहमीदा रियाज का दर्द भी झलक आया, जब उन्होंने पूछा कि कहां जाऊं- उस पार जाऊं तो लोग मुझे भारत का एजेंट कहते हैं और यहां आती हूं तो विरोध की धमकी दी जाती है । धर्म में औरतों की हालात पर गीतकार जावेद अख्तर और फहमीदा के बीच जमकर तकरार हुई । जावेद का मानना था कि हर धर्म औरतों के खिलाफ है जिसका  फहमीदा ने जमकर विरोध किया और कहा कि इस तरह किसी भी मसले का सरलीकरण नहीं किया जा सकता है ।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जो और बात रेखांकित की जा सकती है वह यह है कि इसमें युवाओं की भागीदारी ने पिछले कई सालों के कीर्तिमान तोड़ दिए । इस बार के साहित्योत्सव में स्कूली छात्रों ने भी जमकर हिस्सा लिया । स्कूली छात्रों की भीड़ को देखकर ब्रिटिश लेखक एच जैक्ब्सन ने मजाक में कहा- हमारे मुल्क में मेरे श्रोताओं की औसत उम्र नब्बे साल से ज्यादा रहती है लेकिन यहां जयपुर में मुझे औसतन चौदह साल की बच्चियां प्रशंसक के रूप में मिली । मजाक में कही इस बात पर गंभीरता से चिंतन किया जा सकता है । हम इसको अपने देश के किशोर और नौजवानों के साहित्य में झुकाव के तौर पर देख सकते हैं । कई हिंदी लेखकों को यह अंग्रेजीवालों का जमावड़ा लगता है लेकिन इस बार एक और बात साफ हो गई कि हिंदी और उर्दू के सत्रों में अंग्रेजी साहित्य के सत्रों से ज्यादा श्रोता मौजूद थे । यह भी तो कुछ ना कुछ कहता ही है जिसको डिकोड किया जाना चाहिए । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल साहित्य का मीना बाजार तो बन गया है लेकिन अगर इस मीना बाजार से देऎश के किशोरों और युवाओं के बीच साहित्य के सवालों को सुनने और उससे टकराने की रुचि जागती है तो इस मीनाबाजर का स्वागत किया जाना चाहिए । इस मीना बाजार से अगर देश के किसी भी हिस्से में नई पीढ़ी में साहित्य का संस्कार विकसित होता है तो हमें तमाम विरोध के बावजूद इसका समर्थन करना चाहिए ।

 

Saturday, March 2, 2013

साहित्येत्तर विवाद की 'ज्योति

हर साल आयोजित होने के फैसले के बाद पहली बार आयोजित दिल्ली विश्व पुस्तक मेला इस बार कई मायनों में अहम है । नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक एम ए सिकंदर ने पिछले साल ये ऐलान किया था और कहा था कि उन्हें कुछ वक्त दिया जाए तो वो बेहतर आयोजन कर सकते हैं । उस वक्त सिकंदर ने एनबीटी का पदभार ग्रहण ही किया था । दिल्ली के प्रगति मैदान में रविवार को खत्म हुए विश्व पुस्तक मेले का यह आयोजन पहले के पुस्तक मेलों से ज्यादा व्यवस्थित और नियोजित रहा । पिछले  सालों में आयोजित पुस्तक मेलों को अव्यवस्था और लोकार्पणों के रेला के तौर पर याद किया जाता था । प्रकाशकों को भी इस बात की शिकायत रहती थी कि उन्हें कोई ऐसी जगह मुहैया नहीं करवाई जाती है जहां लेखकों का पाठकों के साथ संवाद हो सके । बड़े प्रकाशक तो कई स्टॉल को जोड़कर अपनी दुकान सजाते थे जहां विमोचन आदि में काफी सहूलियत होती थी लेकिन छोटे प्रकाशकों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था । इस बार मेले के आयोजक ने इस दिक्कत को दूर कर दिया है । प्रगति मैदान के हॉल नंबर 12 में एक बड़ा सा ऑथर्स कॉर्नर बना दिया है जहां हर घंटे लेखक अपनी बात रखते हैं । कभी कहानी पाठ होता है तो कभी कविता पाठ, कभी बुजुर्ग लेखक अपने अनुभवों को बांटते हैं तो कभी युवा लेखक अपनी लेखन प्रक्रिया को साझा करते हैं । पाठकों और लेखकों के बीच संवाद से हमेशा साहित्य का भला हुआ है । पाठकों के मन में उठने वाले सवालों का भी जवाब मिलता है और लेखकों को भी पाठकों की नब्ज पर हाथ रखने का मौका मिलता है । इसका लाभ लेखकों को कुछ भी रचते समय होता है ।
इस बार का पुस्तक मेला हिंदी के पाठकों, प्रकाशकों और लेखकों के लिए एक दुखद विवाद लेकर भी आया । हिंदी की बिल्कुल नवोदित कहानीकार ज्योति कुमारी ने हिंदी के प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह राजकमल प्रकाशन और उसके मालिक अशोक महेश्वरी पर बेहद सनसनीखेज आरोप लगाए । इस विवाद को समझने के लिए हमें थोड़ा विस्तार देना होगा । ज्योति कुमारी ने कुछ कहानियां हंस में लिखी और राजेन्द्र यादव की सरपरस्ती में हिंदी कहानी जगत में प्रवेश किया । लेकिन सिर्फ सरपरस्ती से किसी रचनाकार के आगे बढने में हमेशा से संशय रहता है । इस बार भी था । ज्योति की कहानियां हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने लगी तो लगा कि सरपरस्ती से इतर उसमें प्रतिभा भी है  । कई कहानियां छप जाने के बाद हर कथाकार की तरह उसके मन में भी आया होगा कि एक संग्रह छपे । लेकिन संग्रह छपने के पहले जिस तरह का अप्रिय विवाद हुआ, वैसा विवाद कोई भी संवेदऩशील और नवोदित रचनाकार नहीं चाहता है । अपवाद हर जगह होते हैं । ज्योति कुमारी के मुताबिक प्रकाशक ने उसके सामने कुछ साहित्येत्तर शर्तें रखी जिस वजह से उसने राजकमल प्रकाशन से अपना संग्रह नहीं छपवाने का फैसला लिया । ज्योति के बयान के मुताबिक प्रकाशक ने उनके संग्रह का नाम दस्तखत और अन्य कहानियां की जगह शरीफ लड़की रखने का प्रस्ताव दिया था । शरीफ लड़की भी ज्योति की ही एक अन्य कहानी है । कहानीकार के मुताबिक प्रकाशक का यह तर्क था कि शरीफ लड़की शीर्षक ज्यादा सेलेबल है ।  इसके अलावा ज्योति यह चाहती थी कि उसके संग्रह में राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह की लिखी भूमिका प्रकाशित की जाए । इसपर भी प्रकाशक को एतराज था । प्रकाशक यह चाहते थे कि कवर पर नामवर सिंह की कोई एक पंक्ति और बैक कवर पर राजेन्द्र जी की लिखी भूमिका से चार पांच पंक्तियां प्रकाशित कर दी जाए । ज्योति को प्रकाशक की दोनों शर्तें मंजूर नहीं थी । ज्योति कुमारी ने राजकमल प्रकाशन के मालिक पर यह भी आरोप जड़ा है कि उन्होंने उसे नाम बदलने की नसीहत दी । ज्योति के मुताबिक अशोक महेश्वरी के मुताबिक ज्योति कुमारी नाम सेलेबल नहीं है लिहाजा उसको बदलकर ज्योतिश्री या कुछ और दिया जाना चाहिए । कोई ऐसा नाम जो पाठकों को आकर्षित कर सके । ज्योति को प्रकाशक का यह तर्क भी नहीं रुचा । ज्योति का कहना है कि मेरा लेखन उस बाजारवाद के खिलाफ रहा है जो जरूरत नहीं जेब देखकर तय होता है । जो औरत को एक उत्पाद, प्रेजेंटेशन की तरह पेश करता है, अपने लाभ के लिए । तो सिर्फ इसलिए कि किताब की बिक्री यह नाम सहायक होगा और इस नाम से सेंसे्शन फैलेगा, जो बाजार की दृष्टिकोण से लाभदायक है , मैं इस नाम पर सहमत नहीं हो सकी । यह बात ठीक है, लेखिका को अपनी किताब कहीं से भी छपवाने का हक है । लेकिन अगर इस पूरे् विवाद को प्रकाशक की नजर से देखें तो इसमें कुछ बुराई नहीं है । प्रकाशक कारोबार के लिए बैठा है और वह बाजार का दोस्त है । अगर वो बाजार से दुश्मनी मोल लेगा या बाजार के नियमों के खिलाफ जाएगा तो फिर क्या खाक कारोबार करेगा । प्रकाशक की इन दोनों सलाहों में किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं है । ये दो ऐसी सलाह है जो कोई भी प्रकाशक दे सकता है । इस पर इतना बड़ा वितंडा खड़ा करने की जरूरत नहीं थी ।
अशोक माहेश्वरी ने इस बात को स्वीकार किया है कि उन्होंने राजेन्द्र यादव से व्यक्तिगत बातचीत में कुछ सुझाव दिए थे । उनका कहना है पुस्तक मेले के अवसर पर वो तीन युवा कथाकारो- ज्योति, आकांक्षा और इंदिरा की किताबें छाप रहे थे और उनमें से किसी भी संग्रह में भूमिका नहीं थी लिहाजा उन्होंने ज्योति को परोक्ष रूप से यह सलाह दी । राजेन्द्र यादव का भी कहना है कि अशोक महेश्वरी ने कुछ भी गलत नहीं किया और चूंकि वो इस पूरे मामले में बीच में थे लिहाजा उनको पूरी जानकारी है । लेकिन यहां अशोक महेश्वरी को यह समझना चाहिए था कि कहानीकार या कहानियां कितनी अहम रही होंगी जिसके लिए नामवर सिंह को भी कलम उठानी पड़ी । राजेन्द्र यादव तो गाहे बगाहे लेखकों-लेखिकाओं को आशीर्वचन देते ही रहते हैं ।
लेकिन जिस तरह की चर्चा पुस्तक मेले में चल रही है और मीडिया में इस पूरे विवाद को कास्टिंग काऊच की तरह से पेश किया जा रहा है । हमारे लिए वो चिंता का विषय है । ज्योति कुमारी ने एक पत्र जारी कर लेखकों से साथ मांगा है और इस तरह की अनैतिक साहित्यिक हथकंडो के पुरजोर विरोध का आह्वान भी किया है । ज्योति की इन बातों की व्याख्या हर कोई अपने तरीके से कर रहा है । लेकिन चाहे जो भी एक नवोदित लेखक और हिंदी के शीर्ष प्रकाशक के बीच विश्व पुस्तक मेले के दौरान इस तरह के अप्रिय विवाद से हिंदी की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है । दरअसल अगर हम इस विवाद के बहाने से हिंदी प्रकाशन जगत पर गौर करें तो एक बेहद तकलीफदेह तस्वीर उभर कर सामने आती है । राजकमल प्रकाशन जैसा शीर्ष प्रकाशक ज्योति कुमारी जैसी बिल्कुल नई लेखिका की किताब बगैर किसी एग्रीमेंट के छापने को क्यों तैयार हो जाता है । दूसरा सवाल यह है कि ज्योति कुमारी, आज जिस स्त्री शक्ति की दुहाई दे रही हैं और जिस तरह से अपने और राजकमल के बीच के विवाद को एक बड़ा फलक देने की कोशिश कर रही हैं,  ने भी बगैर एग्रीमेंट के अपने संग्रह की पांडुलिपि राजकमल प्रकाशन को क्यों सौंपी । क्या उसे राजकमल प्रकाशन पर इतना भरोसा था या फिर कोई और वजह थी जिसने उसे एग्रीमेंट के बगैर किताब छपवाने के लिए राजी कर लिया था । ज्योति को इन वजहों, अगर कोई थी, तो खुलासा करना चाहिए । अगर उसने बगैर किसी अन्य वजह की, अनुभवहीनता के चलते ऐसा किया था तो उसको भविष्य में सतर्क रहने की जरूरत है । इस मामले में वाणी प्रकाशन ने बेहद प्रोफेशनल रवैया अख्तियार किया और ज्योति-राजकमल विवाद के बीच में पहले ज्योति कुमारी से प्रकाशन एग्रीमेंट किया और फिर उसके संग्रह को छापा । अगर राजकमल ने भी किताब छपने से पहले ज्योति कुमारी से एग्रीमेंट किया होता तो बेहतर होता, शर्तें पहले ही साफ हो जाती । राजकमल प्रकाशन जैसे संस्थान से इस तरह के अनप्रोफेशनल एप्रोच की अपेक्षा नहीं की जा सकती है ।
साहित्य में इस तरह से लेखकों-प्रकाशकों के बीच पहले भी कई अप्रिय प्रसंग सामने आते रहे हैं । लेकिन इस बार इस विवाद में जिस तरह से साहित्येत्तर शब्द का इस्तेमाल हुआ है उसने हिंदी प्रेमियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी है । हिंदी में प्रकाशक और लेखक का संबंध बहुत कुछ विश्वास की बुनियाद पर चलता है । अगर इस छोटे से विवाद ने इस विश्वास की बुनियाद में छोटा सा भी दरार पैदा कर दिया तो लेखक-प्रकाशक संबंधों पर इसका दूरगामी असर होगा । आज जरूरत इस बात की है कि हिंदी के बड़े लेखक इस पूरे विवाद में दखल दें और अगर कोई साहित्येतर वजह है तो उसको बातचीत से हल करें । हिंदी को बदनामी से बचाने के लिए यह बेहद जरूरी है, जरूरी तो अशोक महेश्वरी को प्रोफेशन एप्रोच अपनाने की है