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Sunday, March 29, 2015

अलविदा विजय मोहन सिंह

हिंदी कथा साहित्य की आलोचना को लेकर पिछले लगभग एक दशक या उससे ज्यादा वक्त से समकालीन आलोचना में बहुत शिद्दत से या कह सकते हैं कि योजनाबद्ध तरीके से काम नहीं हुआ है । कथालोचना को लेकर लेखकों ने कई बार सवाल भी उठाए हैं, आलोचना पद्धति को कठघरे में खड़ा भी किया गया है । यह सही भी है कि क्योंकि समकालीन परिदृश्य में गंभीरता के साथ कहानी और उपन्यास पर काम करनेवाले आलोचक कम ही दिखाई देते हैं । पुस्तक समीक्षा को हिंदी आलोचवना माल लेने या मनवा लेने की एक जिद दिखाई देती है । हिंदी कथा साहित्य पर नामवर सिंह, देवीशंकर अवस्थी, सुरेन्द्र चौधरी, मलयज के अलावा विजय मोहन सिंह ने गंभीरता से विचार किया । मलयज अपेक्षाकृत कम चर्चित रहे जिसके साहित्येत्तर कारण थे । कथा आलोचना के एक प्रमुख हस्ताक्षर और कहानीकार,उपन्यासकार , संपादक विजयमोहन सिंह का गुजरात में निधन हो गया । उनके निधन से आलोचना की दुनिया में सन्नाटा और बढ़ गया । विजय मोहन सिंह ने साहित्य की दुनिया में कहानी के मार्फत प्रवेश किया था और उनकी कई कहानियां खासी चर्चित रही थी । साढोत्तरी कहानी के दौर में उन्होंने जो कहानियां लिखी उसने उस वक्त की कहानी को एक नई दिशा देने में अपना सार्थक योगदान किया था, हलांकि एरक कहानीकार के तौर पर विजय  मोहन सिंह का मूल्यांकन नहीं हो पाया है । संभवत अब किसी की नजर उनपर जाए औप कहानीकार विजय मोहन सिंह का मूल्यांकन हो सके । बाद में विजय मोहन सिंह ने एक उपन्यास कोई वीरानी से वीरानी है भी लिखी लेकिन इस उपन्यास से भी उनको कोई ख्याति नहीं मिली । विजय मोहन सिंह के कई कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए जिनमें शेरपुर पंद्रह मील सबसे ज्यादा चर्चित रहा । विजय मोहन सिंह ने बाद में अज्ञेय पर गंभीरता से विचार किया जिसकी परिणति अज्ञेय कथाकार और विचारक नाम की किताब में हुई । इसके अलावा विजय मोहन सिंह ने हिंदी उपन्यासों में प्रेम की परिकल्पना और आज की कहानी नाम की दो महत्वपूर्ण किताबें लिखीं ।

बिहार के शाहाबाद में एक जनवरी उन्नीस सौ छत्तीस को जमींदार परिवार में पैदा होनेवाले विजय मोहन सिंह ने बनारस से शिक्षा ग्रहण किया । साहित्य में ये चर्चा होती रही है कि विजय मोहन सिंह का परिवार इतना समृद्ध था कि जब वो पढ़ने के लिए बनारस आए तो उनके लिए वहां एक घर खरीदा गया जहां रहकर बाबू साहब ने पढ़ाई की। कई बार विजय मोहन सिंह के व्यक्तित्व में उनकी या पारिवारिक पृष्ठभूमि  की सामंती प्रवृत्ति दृष्टिगोटर भी होती थी । विजय मोहन सिंह कहीं लंबे समय तक टिककर नहीं रहे और अपने जीवन काल में उन्होंने कई जगह नौकरियां की । बिहार के आरा से लेकर हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कॉलेजों में अध्यापन किया । उन्होंने बिहार से निकलनेवाली ऐतिहासिक पत्रिका नई धारा का भी कई सालों तक संपादन किया । विजय मोहन सिंह ने दिल्ली की हिंदी अकादमी के सचिव का पद भी संभाला । हिंदी साहित्य के जानकारों का कहना है कि हिंदी अकादमी में विजय मोहन सिंह का कार्यकाल बेहतर रहा था । उन्होंने इस संस्था को सरकारी ढर्रे से मुक्त कर उसको साहित्य की मुख्यधारा में लाने की कोशिश की थी । उनके समय में हिंदी अकादमी की पत्रिका इंद्रपस्थ भारती भी चर्चित हो गई थी। उन्होंने अकादमी से कई महत्वपूर्ण लेखकों को जोड़ा और कई संग्रह प्रकाशित करवाए । अब हिंदी की स्थिति की कल्पना करिए कि अकादमी के सचिव से जो अपेक्षा की जाती है उस काम को कर देने भर से वो स्वर्णकाल हो जाता है । तो अगर सचमुच में पहल आदि लेकर महत्वपूर्ण काम किए जाते तो वो कौन सा काल होता । खैर ये एक अवांतर प्रसंग है इसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी । फिलहाल इतना तो कहा ही जा सकता है कि विजय मोहन सिंह के जाने से हिंदी आलोचना का कोना और सूना हो गया है ।  

राजभाषा पुरस्कारों की बंदरबांट

हिंदी में पुरस्कारो की हालत बेहद विवादित रही है । खासकर सरकारी साहित्यक पुरस्कारों की हालत तो और भी बदतर है । पिछले दिनों बिहार सरकार के राजभाषा पुरस्कारों के एलान पर भारी विवाद हुआ है । निर्णायक मंडल की एक सदस्य ने आरोप लगाया है कि एक अफसर ने सूची बनाई और उस पर दस्तखत करने का दवाब डाला गया । निर्णायक मंडल के अध्यक्ष प्रोफेसर नामवर सिंह का एक बयान अखबारों में छपा है जिसमें उन्होंने कहा है कि उन्होंने तो पुरस्कारों की सूची भी नहीं देखी है । इन विवादों के बीच राजभाषा विभाग के निदेशक का भी एक बयान आया है जो काफी आपत्तिजनक और हिंदी साहित्य को अपमानित करनेवाला है । बिहार राजभाषा विभाग के निदेशक रामविलास पासवान ने कहा है कि हम सभी चयनित लोगों को पत्र भेजेंगे, जिनको लेना होगा वो लेंगे और जो नहीं लेंगे तो हम क्या करें । पुरस्कार नहीं लेंगे तो पैसा बचेगा ही और वो पैसा जनहित के काम आएगा । अब इस तरह के गैरजिम्मेदाराना बयान से राजभाषा के निदेशक की साहित्य को लेकर समझ को तो समझा ही जा सकता है सरकार की संवेदहीनता भी उजागर होती है । अगर जनहित के काम में ही पैसा लगाना था तो पुरस्कारों का एलान क्यों किया गया । सबसे बड़ी बात है कि राम निरंजन परिमलेंदु को बिहार सरकार के राजभाषा विभाग का सबसे बड़ा पुरस्कार यानि डॉ राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान का एलान हुआ और समाजवादी चिंतक डॉ सच्चिदानंद सिन्हा को सबसे छोटा सम्मान यानि फादर कामिल बुल्के पुरस्कार देने की घोषणा की गई । रामनिरंजन परिमलेंदु के साहित्य के योगनाम के बारे में वृहत्तर हिंदी समाज को जानना अभी शेष है जबकि सच्चिदानंद सिन्हा को देश ही नहीं विदेश में भी लोग उनके विचारों की वजह से जानते हैं ।  पुरस्कार के लिए चयनित प्रो सच्चिदानंद सिन्हा ने अपने नाम का एलान होने पर आश्चर्य जताते हुए इसको लेने से मना कर दिया । उनका कहना है कि वो साहित्यकार हैं ही नहीं लिहाजा वो ये पुरस्कार नहीं लेंगे । उधर आलोचक कर्मेन्दु शिशिर ने भी पुरस्कार लेने से मना कर बिहार सरकार की सूची को संदिग्ध कर दिया है । पिछले कुछ सालों से बिहार सरकार ने साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कई बेहतर काम किए थे । कविता समारोह से लकर कई अन्य महत्वपूर्ण पहल । हलांकि ये संस्कृति विभाग की पहल थी । अब जिस तरह से राजभाषा विभाग ने पुरस्कारों का चयन किया, उसका एलान किया और उसके बाद सवाल उठने पर निदेशक ने जिस तरह का बयान दिया है उससे साफ है कि सरकार की प्राथमिकता में साहित्य नहीं है वो तो बस इसको रूटीन सरकारी काम की तरफ निबटाना चाहती है । बिहार सरकार के राजभाषा विभाग के इन पुरस्कारों और उस पर उठे विवाद को देखेंगे तो मामला छोटा लग सकता है लेकिन अगर वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में इसका विश्लेषण करें तो यह बड़े सवाल खड़ी करती है । बिहार का राजभाषा विभाग वहां के मुख्यमंत्री के अधीन आता है । साहित्य और संस्कृति को लेकर नीतीश कुमार की छवि एक संजीदा राजनेता की रही है । उनके कार्यकाल में या उनके मातहत विभाग में इस तरह का वाकया होना हैरान करनेवाला है । कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस तरह से उन्होंने सरकार चलाने की मजबूरियों के लिए लालू यादव से हाथ मिला लिया उसी तरह से वो साहित्य और संस्कृति को भी चलाना चाह रहे हैं । अगर ऐसा होता है तो यह नीतीश कुमार की छवि पर बुरा असर डालेगा ही सूबे की समृद्ध साहित्यक विरासत को चोट भी पहुंचाएगा । दरअसल सत्तर के दशक के बाद से ही सरकारी पुरस्कारों की हालत बद से बदतर होती जा रही है । थोक के भाव से बांटे जानेवाले इन पुरस्कारों का चयन अफसरों की मर्जी से होता है उन अफसरों की मर्जी से जिनका साहित्य से कोई लेना देना नहीं है । कम से कम बिहार राजभाषा के निदेशक रामविलास पासवान के बयान से तो यही झलकता है ।
कुछ महीने पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने साहित्य और संस्कृति के लिए थोक के भाव से पुरस्कार बांटे । इतने लोगों को पुरस्कृत कर दिया गया कि लगा कि जो भी रचेगा वो पुरस्कृत होने से नहीं बचेगा । बिहार में पचास हजार से लेकर तीन लाख तक की रवड़ी बंटने का एलान हुआ है तो यू पी में पांच लाख से लेकर चालीस पचास हजार के पुरस्कार बंटे । सरकारी पुरस्कारों की जुगाड़ सूची में कुछ लेखकों का नाम बार बार आता है । पुरस्कार लेने का ये कौशल हिंदी की कुछ लेखिकाओं ने भी विकसित किया है । एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त हिंदी में सरकारी पुरस्कारों के अलावा छोटे बड़े मिलाकर कुल तीन से चार सौ पुरस्कार तो दिए ही जा रहे होंगे । हर राज्य सरकारों का पुरस्कार फिर वहां की अलग अलग अकादमियों का पुरस्कार और उसके बाद साहित्यक संगठनों का पुरस्कार और फिर सबसे अंत में व्यक्तिगत पुरस्कार । इन सबको मिलाकर अगर देखें तो हिंदी के लेखकों पर पुरस्कारों की बरसात हो रही है । इन पुरस्कारों के लिए यह जरूरी नहीं है कि वो कृतियों पर ही दिए जाएं । कृति है तो ठीक नहीं है तो भी ठीक । आपके साहित्यक अवदान पर आपको पुरस्कृत कर दिया जाएगा । हिंदी के वरिष्ठ लेखक ह्रषिकेश सुलभ ने एक बार बाकचीत में साहित्यक पुरस्कारों के संदर्भ में कुछ बातें कहीं थीं । उनका कहना था कि पुरस्कार देने वाले की मंशा लेखन को सम्मानित करने का है तो बहुत अच्छा है लेकिन अगर मंशा पुरस्कार के बहाने खुद यानि आयोजकों का स्वीकृत होना है तो ये सम्मान के साथ छल है । उन्होंने ये बात कहकर ये इशारा किया था कि हिंदी में ये प्रवृत्ति भी इन दिनों जोरों पर है । बड़े लेखकों को सम्मानित कर कुछ संगठन अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की फिराक में लगे होते हैं । यह स्थिति साहित्य के लिए बेहद चिंताजनक है । उससे भी अधिक चिंताजनक है वरिष्ठ साहित्यकारों का इसपर खामोश रहना । वरिष्ठ लेखकों की खामोशी से इस तरह के आयोजकों का हौसला बढ़ता है ।  
हिंदी में पुरस्कारों को लेकर बहुधा विवाद होते रहे हैं । हिंदी में पुरस्कार पिपासु लेखकों की एक पूरी पौध है । तभी तो हिंदी साहित्य में पुरस्कार देने का खेल लगातार फल फूल रहा है । पुरस्कारों के इस खेल से निजी संस्थान भी अछूता नहीं रहा है । अभी हाल ही में राजकमल प्रकाशन ने दो पुरस्कार दिए । अगर उनके ही पहले के पुरस्कारों पर नजर डालेंगे तो इस बार का चयन संदिग्ध हो जाता है । चूंकि ये निजी संस्थान का पुरस्कार है लिहाजा वो इसके कर्ताधर्ताओं पर निर्भर करता है वो किसे पुरस्कृत करें । लेकिन इन वजहों से ही हिंदी में पुरस्कारो की साख नहीं बन पाती है, जबकि पुरस्कार की धनराशि अच्छी खासी होती है । हिंदी में पांच से दस हजार रुपए तक के कई पुरस्कार हैं जो लेखक लेखिकाओं को अपनी ओर लुभाते हैं । पुरस्कारों के पीछे कई तरह के खेल खेले जाते हैं जिनसे हिंदी साहित्य परिचित है लेकिन वो खेल खुलकर सामने नहीं आ पाते हैं । कभी कभार तो ये देखकर बहुत कोफ्त होती है कि हिंदी के लेखक हजार दो हजार के पुरस्कार के लिए तमाम तरह के दंद फंद करते हैं । हिंदी में पुरस्कारों के कारोबारी इस दंद फंद का अपने तरीके से फायदा उठाते हैं । कहना ना होगा कि इन्हीं वजहों से पुरस्कारों की महत्ता और प्रतिष्ठा लगातार कम होती जा रही है । हिंदी के कुछ नए लेखकों में पुरस्कृत होने की होड़ भी दिखाई देती है जो साहित्य के अच्छे भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है ।
हिंदी में सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार साहित्य अकादमी सम्मान को माना जाता था लेकिन पिछले एक दशक से जिस तरह से साहित्य अकादमी पुरस्कारों की बंदरबांट हुई है उससे अकादमी पुरस्कारों की साख पर बट्टा लगा था । पिछले एक दो सालों से इस पुरस्कार की साख को वापस लाने की कोशिश हो रही है । वर्ना जबतक साहित्य अकादमी पर विचारधारा के लोगों का कब्जा था तबतक वहां जमकर रेवड़ियां बांटी गईें । उसके बाद जब गोपीचंद नारंग अकादमी के अध्यक्ष बने तब भी हिंदी के पुरस्कारों की सौदेबाजी की बातें सामने आई थी । वहां तब भी आधार सूची वगैरह बनाने का ड्रामा होता रहा लेकिन पूरे साहित्य जगत को मालूम होता था कि अमुक वर्ष में किसको पुरस्कार मिलना चाहिए । तकरीन दो साल पहले लमही सम्मान को लेकर भी शर्मनाक विवाद उठा था । विवाद इतना बढ़ा था कि पुरस्कृत लेखिका ने सम्मान लेने से मना कर दिया था । हिंदी में पुरस्कारों की बहुतायत पर मशहूर कवयित्री कात्यायनी की कविता की एक कविता का स्मरण हो रहा है - दो कवि थे/बचे हुए अंत तक/वे भी पुरस्कृत हो गए/इस वर्ष/इस तरह जितने कवि थे/सभी पुरस्कृत हुए/और कविता ने खो दिया /सबका विश्वास । चुनौती इसी विश्वास को बचाने की है ।




Sunday, March 22, 2015

आलोचना पर सवाल

शुक्रिया तुम्हारा । निर्मला जी ( निर्मला जैन) या मर्दतंत्र के कुछ समर्थक अपने विद्वतापूर्ण भाषण से मेरे उपन्यास चाक की बिक्री और पाठकों में ऐसे ही इजाफा कर देते हैं जैसे किरन बेदी का एक इंटरव्यू आप की कई सीटों पर जीत मुकर्रर कर देता था । संदर्भ साहित्य गोष्ठियां । ये लिखा है हिंदी की वरिष्ठ लेखिका और उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा ने अपने फेसबुक वॉल पर । अब इस फेसबुक पोस्ट में जिस तरह से तुलना की गई है वह बेहद दिलचस्प है । एक उपन्यासकार यानी मैत्रेयी पुष्पा ने एक आलोचक को एक राजनीतिक शख्सियत के बरक्श खड़ा कर दिया । अपने उपन्यास को दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सफलता से जोड़ते हुए उन्होंने आलोचक निर्मला जैन को किरन बेदी से जोड़ दिया । आलोचक निर्मला जैन पर तंज कसते हुए मैत्रेयी ने साफ कर दिया कि उनकी आलोचनाओं से उनके उपन्यास की बिक्री और पाठक दोनों में इजाफा होता है । उपर से देखने पर यह बात छोटी और सामान्य लगती है लेकिन अगर हम गहराई से समकालीन साहित्यक परिदृश्य पर नजर डालें तो मैत्रेयी ने अपने तंज के माध्यम से बड़े सवाल खड़े किए हैं । अब अगर उनके शब्दों पर गौर करें निर्मला जी या मर्दतंत्र के कुछ समर्थक । मैत्रेयी ने अपने शब्दों से हिंदी आलोचना को कठघरे में खड़ा किया है । उन्होंने अपने उपन्यास के आलोचना के बहाने से वरिष्ठ आलोचकों की वाचिक परंपरा पर भी सवाल खड़ा किया है । दो तीन साल पहले ही निर्मला जैन ने आलोचना के वर्तमान परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि किसी कृति पर सच कहने में डर लगता है क्योंकि लेखक बुरा मान जाते हैं । ये बात स्मृति के आधार पर लिखी जा रही है लिहाजा शब्दों का हेरफेर हो सकता है लेकिन भाव बिल्कुल वही हैं । अब देखिए निर्मला जी ने जाने अनजाने वर्तमान आलोचना की स्थिति को अपने इस वक्तव्य से सामने रख दिया । सवाल तब भी उठे थे और सवाल अब भी उठे हैं कि हिंदी आलोचना क्या इतनी डरपोक हो गई है कि वो लेखकों के नाराज हो जाने के डर से कृतियों पर टिप्पणी करना छोड़ देगी । क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कही जाएगी । दरअसल अगर हम समकालीन साहित्य के पिछले बीस तीस साल के परिदृश्य पर नजर डालते हैं तो कथा आलोचना के नाम पर लगभग सन्नाटा दिखाई देता है । आलोचना के नाम पर समीक्षात्मक लेख लिखे जा रहे हैं जिनमें कृतियों पर परिचयात्मक लेख होते हैं । तिस पर से आलोचकों का तुर्रा ये कि वही हिंदी साहित्य की दशा और दिशा तय करते हैं । आलोचकों की इस प्रवृत्ति को कई लेखकों ने भी बढ़ावा दिया जब वो फैरी सफलता और चर्चा के लिए आलोचकों के आगे हाथ बांधे खड़े होने लगे । आलोचकों में जैसे जैसे यह प्रवृत्ति बढ़ी तो होने यह लगा कि हिंदी में उखाड़-पछाड़ का खेल शुरू हो गया । सबने अपने अपने गढ और मठ बना लिए और आलोचक मठाधीश की भूमिका में आ गए । सेंसेक्स की तरह कृतियों को उठाने और गिराने का खेल शुरू हो गया । साहित्य बाजार में तब्दील हो गया । नामवर जी ने हिंदी में आलोचना की जिस वाचिक परंपरा को आगे बढ़ाया उसको कई लोगों ने लपक लिया । बजाए गंभीर अध्ययन, मनन और चिंतन के इस परंपरा को आगे बढ़ाने से हिंदी आलोचना की छवि को ठेस लगी है । नामवर जी का तो अध्ययन इतना गहरा है कि वो जब कुछ कहते हैं तो उसमें एक संदर्भ भी होता है और मूल्यांकन की दृष्टि भी होती है । नामवर सिंह जिस तरह से लगातार नई पीढ़ी के लेखन से खुद को अपडेट करते हैं वह उनकी ताकत है । लिहाजा जब वो बोलते हैं तो पूरा हिंदी साहित्य सुनता है । नामवर जी ने कहीं कहा भी है- मुझ पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि आलोचना में मैं रणनीति अपनाता हूं । यह भी कहा जाता है कि यदि मैं किसी लेखक का नाम ले लूं या उसके बारे में कुछ कह हूं तो वह मुख्यधारा में स्थापित हो जाता है । जिसे छोड़ देता हूं वह यूं ही पड़ा रहता है । दरअसल राजनीति में तो हाशिए पर चले जाने से नुकसान होता है पर साहित्य में हाशिया बहुत महत्वपूर्ण होता है । हमने देखा है कि हिंदी ही नहीं, उर्दू और प्राय: सभी भाषाओं में जो लेखक हाशिए पर रहे थे, आज महत्वपूर्ण लेखक हैं । त्रिलोचन, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह की बात छोड़ भी दें तो निराला और गालिब के साथ यही हुआ । प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि मिल्टन ने तो लिखा भी है दे ऑल्सो सर्व हू स्टैंड एंड वेट । नामवर सिंह के उनके बाद की पीढ़ी के आलोचक इस हैसियत को हासिल नहीं कर पाए,खासकर कथा आलोचना में तो बिल्कुल ही नहीं ।  हाशिए को महत्वपूर्म बताना कोई हंसी ठट्ठा नहीं है यह तो अनुभव और अध्ययन से ही संभव है  ।

अब अगर हम मैत्रेयी पुष्पा के कथन पर गौर करें तो वो आलोचना में उन लोगों पर भी निशाना साधती हैं जो मर्दतंत्र के समर्थक हैं । फेसबुक पोस्ट पर मैत्रेयी पुष्पा से कई लोगों ने यह जानने की भी कोशिश की ये मर्दतंत्र समर्थक कौन हैं । जवाब नहीं मिला। अपनी रचनाओं की नायिकाओं के माध्यम से स्त्री विमर्श के नए आयाम गढ़नेवाली मैत्रेयी पुष्पा जब आलोचना में मर्दतंत्र की बात करती हैं तो वो बड़े सवाल खड़ी करती हैं । हिंदी आलोचना में मर्दतंत्र के उन समर्थकों की पहचान होनी चाहिए । इस पहचान की तलाश में अगर आगे बढ़ते हैं तो मर्दतंत्र की जड़ें देशभर के हिंदी विश्वविद्लायों के हिंदी विभागों के आचार्यों के कमरों में मिलती हैं । इन कमरों में बैठे आचार्य विद्वान आलोचक है । विद्वान आलोचक( स्कॉलर क्रिटिक) शब्द पहली बार ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी से निकलनेवाले जर्नल- एसेज ऑन क्रिटिसिज्म, में सामने आया था और एफ डब्ल्यू वीटसन ने इसका प्रयोग किया था । हमारे देश के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में बैठे आलोचक सच में स्कॉलर क्रिटिक यानी विद्वान आलोचक हैं, उनसे पाठालोचन की अपेक्षा ठीक है, वो किताबों का संपादन कर सकते हैं लेकिन उनसे सर्जनात्मक आलोचना की अपेक्षा नहीं की जा सकती है । हिंदी विभागों के ये स्कॉलर क्रिटिक अपनी महत्ता साबित करने और अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए बहुधा बयानों का सहारा लेते रहते हैं । हिंदी विभागों के इन आलोचकों का समकालीन साहित्य के भी वास्ता रह गया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता । उनके लिए डॉ रामविलास शर्मा आदर्श हैं जो कहा करते थे कि वो दूसरों का लिखा नहीं पढ़ते हैं । पढ़े बगैर अपने पूर्व के अध्ययन के आधार पर ज्ञान देकर आज के आलोचक अपने आपको ही एक्सपोज करते हैं । अब वक्त आ गया है कि हिंदी आलोचना खासकर कथा आलोचना के बारे में उसके औजारों और सिद्धांतों के बारे में गंभीरता से विचार हो । मार्क्सवादी आलोचना के औजार भोथरे हो चुके हैं । दुनिया की अलग अलग भाषाओं में आलोचना की सैद्धांतिकी पर गंभीर बातें होती रही हैं, नए नए औजार विकसित किए जा रहे हैं जिसके अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं । पश्चिम में फेमिनिस्ट क्रिटिसिज्म ने शेक्सपीयर को नए सिरे से एक नई दृष्टि के साथ उद्घाटित किया । वहां से होते हुए जब ये स्त्री विमर्श के रूप में हिंदी साहित्य में पहुंचा तो राजेन्द्र यादव ने उसको एक अलग ही दिशा में मोड़ दिया । स्त्री विमर्श के आदार पर किसी रचना का समग्रता से मूल्यांकन नहीं सका क्योंकि हमने स्त्री विमर्श के नाम पर कुछ और ही शुरू किया । ये कुछ ऐसा था जिसमें विमर्श नाम का रह गया । आज की आलोचना के सामने सबसे बड़ा संकट अपने साख को बचाए रखने की है । आलोचकों को एक ऐसी दृष्ठि विकसित करनी होगी जिससे वो रचनाकारों की तरह से कृतियों के पार जाकर उसको देख सकें । आलोचकों के सामने ये संकट होता है कि वो रचनाकारों की तरह रचना के पार जाकर देख नहीं पाते हैं वो तो पाठके आधार पर अपनी दृष्टि गढ़ते हैं और फिर उसी गढ़ी हुई दृष्टि के आधार पर रचनाओं का मूल्यांकन करते हैं । इसका नतीजा यह होता है कि बहुधा आलोचक कृतियों को खोलने से चूक जाते हैं और जबतक इस चूक को सुधारा जाता है या उसकी कोशिश होती है तबतक बहुत देर हो चुकी होती है । अब भी वक्त है कि आलोचना अपनीएक नई शैली नई दृष्टि विकसित करे और व्यक्तिगत आग्रहों और दुराग्रहों से उपर उठकर रचना को रचना के स्तर पर देखें और उसका मूल्यांकन करें ।इससे कम से कम आलोचना की साख तो बची रहेगी ।और अगर साख बची रहेगी तो फिर एरक विधा के रूप में और मजबूत और समकालीन होने में देर नहीं लगेगी ।  

समाज का दरकता विश्वास

नगालैंड में बालात्कार के आरोप में एक शख्स को जेल से निकालकर भीड़ ने बेरहमी से कत्ल कर दिया। इस खबर के सामने आने के बाद पूरा देश सन्न रह गया था । इसके बाद अब आगरा में भी एक लड़के को छेड़खानी के आरोप में पीट पीट कर मार डाला गया । दोनों मामलों में एक समानता भी देखने को मिली कि भीड़ जब हत्या पर उतारू थी तो कुछ लोग पूरी वारदात का वीडियो बनाने में जुटे थे । कत्ल के बाद इस वीडियो को व्हाट्सएप और अन्य सोशल मीडिया पर शेयर किया गया । अब ये दोनों प्रवत्ति खतरनाक है । हमारे संविधान में भीड़ के इंसाफ की कोई जगह नहीं है किसी को भी किसी की जान लेने का हक नहीं है । गुनाह चाहे जितना भी बड़ा हो फैसला अदालतें करती हैं । अदालत में आरोप और अभियोग तय होने के बाद एक निश्चित प्रक्रिया के तहत इंसाफ किया जाता है । लेकिन जिस तरह से भीड़ ने कानून को अपने हाथ में लिया यह समाज में बढ़ते असहिष्णुता का परिणाम है या फिर लोगों का कानून से भरोसा उठते जाने का । और ये दोनों ही स्थितियां हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं । भीड़ के इंसाफ की गंभीर समाजशास्त्रीय व्याख्या की आवश्यकता है । जिस तरह से दिल्ली के निर्भया बलात्कार कांड में फास्ट ट्रैक कोर्ट आदि से गुजर कर पूरा केस सुप्रीम कोर्ट में लटका है उससे कानूनी प्रक्रिया में लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है । निर्भया के गुनहगारों को को फांसी की सजा में देरी से लोग हताश हैं । जनता को लगता है कि उतने बड़े देशव्यापी आंदोलन और सरकार और पुलिस की तमाम कोशिशों को बावजूद बलात्कारियों को सजा नहीं मिल पाई । जिस वारदात के बाद देश का कानून बदल गया हो जिसके बाद बलात्कार की परिभाषा में आमूल चूल बदलवा किया गया हो उसके बाद भी इंसाफ में देरी देश की जनता का मुंह चिढा रहा है । यह ठीक है कि कानून अपनी रफ्तार से इंसाफ करता है लेकिन देरी से मिला न्याय, न्यायिक व्यवस्था को कठघरे में तो खड़ा करता ही है । मामला सिर्फ निर्भया केस का नहीं है ऐसी कई निर्भया देश की अलग अलग अदालतों में इंसाफ की आस में कराह रही हैं । न्याय के बारे में कहा भी गया है कि न्याय होने से ज्यादा जरूरी है न्याय होते दिखना । न्यायिक प्रक्रिया में हो रही देरी से भारत का असहिष्णु समाज बेसब्र होने लगा है । नतीजे में भीड़ का ये इंसाफ देखने को मिल रहा है । हम इन दोनों घटनाओं को साधारण घटना समझ कर नजरअंदाज नहीं कर सकते । इसके बेहद खतरनाक और दूरगामी परिणाम हो सकते हैं जो हमारी मजबूत होती लोकतंत्र की जड़ें कमजोर कर सकती है । वक्त रहते समाज को, सरकार को इसपर ध्यान देना होगा । कानून बनाना ठीक है, कानून का पालन भी अपनी जगह है लेकिन कानून के राज में जनता का भरोसा सबसे बुनियादी और बड़ा है । 
दूसरी एक जो खतरनाक प्रवृत्ति इन दोनों घटनाओं में देखने को मिली है वो है वीडियो और फोटो का व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर पर वायरल होना । गांधी का देश जिसने अहिंसा से ब्रिटिश शासकों को हिला दिया था उसी समाज में हिंसा का उत्सव हो यह समझ से परे हैं । इस तरह के वीभत्स वीडियो और फोटो को साझा करके हम हासिल क्या करना चाहते हैं इस मानसिकता को समझने की भी जरूरत है । ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब व्हाट्सएप पर रेप की वारदात का एक वीडियो वायरल हुआ था। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था लेकिन कोर्ट के आदेश के बावजूद अबतक कार्रवाई नहीं हो पाई है । सोशल मीडिया का फैलाव ठीक है उससे किसी को कोई भी एतराज नहीं है लेकिन जिस तरह से इन माध्यमों के बाइप्रोडक्ट के रूप में अराजकता सामने आ रही है वह चिंता जनक है । दरअसल इस तरह के मामलों में अदालतें, पुलिस , सरकार से ज्यादा दायित्व समाज का है जहां इस तरह के कृत्यों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए । किसी हत्या या बलात्कार के वीडियो का शेयर होना हमारे समाज के बुनियादी उसूलों से हटने के संकेत दे रहा है । भारत में कभी भी हिंसा को महिमामंडित नहीं किया गया और ना ही इसको लोगों ने मजे के लिए इस्तेमाल किया । इन संकेतों को समझकर फौरन आवश्यक कदम उठाने होंगे ताकि हमारा देश, हमारा समाज बचा रह सके । और बची रह सके उसकी आत्मा भी । जब देश आजाद हुआ था तो हमारे महान नेताओं ने ऐसे भारत की कल्पना नहीं की थी । संविधान सभा की बहसों को अगर पढ़े तो साफ है कि उन महान नेताओं ने एक ऐसे देश का सपना देखा था जिसमें हर शख्स एक दूसरे का आदर करे । समाज सहिष्णु बने । देश में कानून का राज हो और कानून में लोगों की आस्था बढ़े । हमें यह नहीं भूलना चाहिए अगर भीड़ ने इंसाफ करना शुरू कर दिया और इस प्रवृत्ति को फौरन नहीं रोका गया तो भारत को पाकिस्तान बनने से नहीं रोका जा सकेगा । यह देश की जनता को तय करना है कि वो कैसे समाज में रहना चाहती है ।

गद्य की गद्दी पर कविता

हिंदी समाज से या यों कहें कि हिंदी प्रदेशों से कॉफी हाउस संस्कृति के लगभग खत्म हो जाने से साहित्य विमर्शों के लिए जगह बची नहीं थी । राजेन्द्र यादव के निधन से तो हिंदी साहित्य की जीवंतता भी लगभग खत्म हो गई । फिलहाल कोई ऐसा साहित्यकार नहीं दिखता है जो अपने लेखन से या फिर अपने वक्तव्यों से आसमान की तरफ कोई पत्थर तबीयत से उछाल सके । लिहाजा साहित्य में वैचारिक उष्मा होने के बाद उसकी आंच महसूस नहीं की जा रही है। इसी स्तंभ में पहले भी इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि हिंदी साहित्य ने तकनीक के साथ दोस्ती कर ली है ।फेसबुक पर तो साहित्यक बहसें होती ही हैं लेकिन वहां कमेंट करने की अराजकता ने लेखकों को व्हाट्सएप कीओर मोड़ दिया । इन दिनों व्हाट्सएप पर मेरे जानते कई साहित्यक ग्रुप चल रहे हैं जहां जमकर विषय विशेष पर बहसें होती हैं । ऐसे ही एक साहित्यक ग्रुप रचनाकार में कविता को लेकर गर्मागर्म बहस हुई । कविता की कम होती लोकप्रियता या खराब कविता की बहुतायत में अच्छी कविताओं के ढंक जाने जाने के मेरे तर्क पर वहां मौजूद कवियों ने जोरदार प्रतिवाद किया । इस विमर्श के बीच एक और बात उभर कर आई कि नई पीढ़ी के कवियों पर पुरानी पीढ़ी के कवियों का प्रभाव दिखाई देता है । कविता पर प्रभाव की बात तो मानी जा सकती है, होनी भी चाहिए लेकिन जब कविता खुद को दुहराने लगती है तो फिर वो निस्तेज भी होने लगती है । पूर्ववर्ती कवियों के प्रभाव से ही तो कविता की एक परंपरा का निर्माण होता है । जैसे रघुवीर सहाय की कविताओं में राजनीति के स्वर दिखाई देते हैं तो दशकों बाद वही स्वर संजय कुंदन की कविताओं में भी सुनाई पड़ते हैं । स्वर का होना उस परंपरा को आगे बढ़ाने जैसा है लेकिन उन्हीं बिंबों और उन्हीं शब्दों से कविता गढ़ना पुरानी पीढ़ी के कवि का प्रभाव तो कतई नहीं माना जा सकता है । इस तरह के प्रभाव के लिए अभी हिंदी साहित्य को शब्द तलाशना होगा ।  नयी कविता वाद मुक्त होकर साहित्य में आई, प्रगतिवाद तो मार्क्सवाद की पीठ पर सवार होकर अपनी यात्रा पर निकली और प्रयोगवादी कविताएं वैज्ञानिक चेतना के आधार पर सामने आने का दावा करती रहीं । पहले कविता समग्रता में नयेपन के साथ सामने आती रही लेकिन अब जिस प्रकार से कविता बदल रही है वो पहले के जैसा नहीं है । ऐसा प्रतीत हो रहा है कि नयेपन की जो अवधारणा या प्रस्तावना महावीर प्रसाद द्विवेदी ने की थी उसके अंजाम तक पहुंचने का वक्त आ गया है ।

अब वक्त आ गया है कि हिंदी के कवियों को स्थिर होकर सोचना चाहिए कि वो क्या और कैसा लिख रहे हैं । मेरा यह दुराग्रह नहीं है कि कविता किसी वाद या चेतना के प्रभाव में ही लिखी जाए, ना ही यह कि परंपरा का निषेध हो । मेरा सिर्फ मानना यह है कि फैशन या मैनेरिज्म का जो रोग हिंदी कविता को लगा है उसका इलाज होना चाहिए । ये इलाज कोई आलोचक नहीं करेगा ये इलाज कवियों को ही करना होगा अंत में शायर आलोक श्रीवास्तव कीकुछ पंक्तियां-मुझ जैसे कविता प्रेमी को वो नई कविता पढ़वाएं जिसका पथ निराला, नागार्जुन और शलभ श्रीराम सिंह जैसे दिग्गज बना, दिखा गए थे और जो सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय और कुंवर नारायण या केदारनाथ सिंह के यहां दिखती, मिलती है । विचार की आड़ में, विमर्श के पर्दे में, सरोकार के खेल में गद्य की भाषा में नई कविता के नाम पर बाबा और निराला की आत्मा ना दुखाइए । नई कविता के नाम पर शॉर्टकट ना अपनाइए और बड़े कवियों की छायाओं से प्रेरित कविताएं बिल्कुल ना सुनाइए । पहले नई कविता का व्याकरण सीख कर आइए । 

Tuesday, March 17, 2015

शानदार आगाज, बेहतर विमर्श

पिछले कुछ वर्षों के साहित्यक परिदृश्य पर अगर हम नजर डालते हैं तो ये पाते हैं कि पूरे देश में लिटरेचर फेस्टिवल की संख्या में इजाफा हुआ है । ऐसा नहीं है कि ये लिटरेचर फेस्टिवल सिर्फ अंग्रेजी या हिंदी में ही हो रहे हैं । ये भारत की अन्य भाषाओं में भी आयोजित होने लगे हैं । लिटरेचर फेस्टिवल की लोकप्रियता इतनी बढ़ी है कि अब ये महानगरों से निकलकर शहरों में पहुंचने लगा है । कई बड़े अखबार समूहों ने भी अपने नाम के साथ लिटरेचर फेस्टिवल शुरू कर दिए हैं । साहित्यक हलचलों पर नजर रखनेवालों का मानना है कि लिटरेचर फेस्टिवल की लोकप्रियता की वजह जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता है । देश के जिस भी कोने में लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित होता है लगभग सभी के लिए आदर्श जयपुर लिट फेस्ट ही होता है । उसी की तर्ज पर आयोजन होते हैं यानि समांतर सत्र चलते हैं । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता के पीछे कम से कम तीन शख्सियतों का बड़ा हाथ है । अंग्रेजी की मशहूर लेखिका नमिता गोखले, मशहूर इतिहास लेखक विलियम डेलरिंपल और इस आयोजन को सफल बनाने में महती भूमिका निभाने वाले संजोय रॉय । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल भी जब शुरू हुआ तो दिग्गी पैलेस होटल के फ्रंट लॉन में श्रोताओं की संख्या बहुत कम थी । कालांतर में आयोजकों की मेहनत, नया कांस्पेट, मशहूर शख्सियतों का उसमें शिरकत करना और फिर कई साल यहां होने वाले विवाद ने जयपुर लिट फेस्ट को विश्व प्रसिद्ध बना दिया । अब तो यह माना जाता है कि भारत में लिटरेचर का नया साल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजन के साथ शुरू होता है । अट्ठाइस फरवरी और एक मार्च को मुंबई के मशहूर जे जे कॉलेज ऑफ फाइन आर्ट्स में लिट ओ फेस्ट के नाम से दो दिनों का साहित्यक जलसा हुआ । कई सत्र समांतर रूप से चले । कई पुस्तकों का विमोचन हुआ । गुलजार, जावेद सिद्दिकी से लेकर आशुतोष की किताब वहां रिलीज की गई । मुंबई में आयोजित इस लिट ओ फेस्ट में सत्रों का कैनवस बहुत बड़ा था । कार्यक्रम का शुभारंभ राजनीति से हुआ और फिर सिनेमा, साहित्य, प्रगतिशील आंदोलन, आत्मकथा और जीवनी लेखन में समस्याएं, हिंदी की मौजूदा स्थिति से लेकर मीडिया मंडी के बदलते नियम तक को दो दिनों में समेटा गया । गुलजार तो अब इस तरह के साहित्यक आयोजनों में स्थायी मेहमान के तौर पर मौजूद रहते हैं । यहां भी थे ।  उनकी उपस्थिति लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों को संबल देता है । उनकी लोकप्रियता की वजह से श्रोता भी जुट जाते हैं ।
मीडिया मंडी के बदलते नियम को लेकर सत्र में बेहद गर्मागर्म बहस हुई । इस बात पर सहमति थी कि सोशल मीडिया के आने की वजह से न्यूजरूम का एजेंडा बदल रहा है । लेकिन इस बात को लेकर बेहद गहरे मतभेद थे कि सोशल मीडिया के आने से मुख्यधारा की मीडिया का अंत हो जाएगा । दरअसल सोशल मीडिया के आगमन के बाद से ही मुख्य धारा की मीडिया का मर्सिया लिखा जाने लगा है । विशेषज्ञ इस दोष के बहुधा शिकार होते रहे हैं । जब देश में कंप्यूटर आया तो इस बात को लेकर खूब हो हल्ला मचा कि अब लोग बेरोजगार हो जाएंगे । लेकिन कंप्यूटर के आने के बाद इस देश में किस तरह की क्रांति हुई वो सबके सामने है । किस तरह से कंप्यूटर ने देश के नौजवानों के लिए नौकरियां बढाई इसके लिए तफसील में जाने की जरूरत नहीं है और ना ही वो इस लेख का विषय है । इसी तरह से देश में जब निजी न्यूज चैनलों का फैलाव शुरू हुआ तो फिर कुछ विशेषज्ञ छाती कूटने लगे कि अब तो अखबारों का बंद हो जाना तय है । उस वक्त यह तर्क दिया गया था कि दिनभर जो खबरें चलती रहेंगी उसको लोग अगले दिन क्यों कर पढ़ना चाहेंगे । रात को दर्शक अगर वही खबर देख लेगा तो सुबह अखबार का इंतजार क्यों करेगा । लेकिन तमाम आशंकाओं के विपरीत हुआ यह कि न्यूज चैनलों के फैलाव के साथ साथ अखबारों की प्रसार संख्या और पाठक संख्या दोनों बढ़े । साल दर साल आने वाले इंडियन रीडरशिप सर्वे और नेशनल रीडरशिप सर्वे के आंकड़े इस बात की चीख चीख कर गवाही देते हैं । तो हर नए बदलाव के साथ पुरानी व्यवस्था के अंत की घोषणा करना बेहद आसान होता है क्योंकि वो भावुकता और अपने विचारों की पूर्वग्रहों से जकड़ा होता है । इस बात का भी एलान किया गया कि आनेवाले दिनों में भारत के बड़े प्रकाशन संस्थान बंद हो जाएंगे क्योंकि जनता अब इंटरनेट पर किताबें पढ़ेगी । यहां बेहद विनम्रता पूर्वक यह बताना जरूरी है कि फ्रांस और जर्मनी के अलावा यूरोप और अमेरिका में किताबों की बिक्री पर ईबुक्स के बढ़ते चलन का असर लगभग नगण्य है ।
सोशल मीडिया के बढ़तेचले जाने से एक अच्छी बात यह अवश्य हुई है कि वहां जो ट्रेंड करने लगता है उसको मुख्यधारा की मीडिया में जगह मिलने लगी है । बेवसाइट्स पर सबसे ज्यादा, न्यूज चैनलों में उससे कम और अखबारों में सबसे कम । सोशल मीडिया की वजह से एक और बात हुई है जिसको रेखांकित करना आवश्यक है वह ये कि अब पाठकों की फौरन प्रतिक्रिया मिल जाती है या ये भी फौरन पता चल जाता है कि किस टॉपिक को पाठक सबसे ज्यादा पसंद कर रहे हैं । इस सहूलियत का लाभ मीडिया संस्थान उठाने लगे हैं ।  दरअसल अगर हम देखें तो भारत में इस वक्त तकरीबन नब्बे करोड़ मोबाइल उपभोक्ता है । एक अनुमान के मुताबिक इन उपभोक्ताओं में से करीब तीस करोड़ के मोबाइल में इंटरनेट मौजूद है । वो टू जी या थ्री जी कोई भी हो सकता है । इसका मतलब यह हुआ कि ये तीस करोड़ लोग इंटरनेट पर एक साथ मौजूद हैं । इतनी बड़ी संख्या किसी भी विशेषज्ञ को आशावान बना सकती है लेकिन किसी के लिए आशा करना अलहदा बात है लेकिन उस आशा और अपेक्षा के बोझ तले दबकर किसी अन्य की मृत्यु की घोषणा कर देना पूरे परिदृश्य को नहीं समझ पाने का नतीजा है ।

गैर हिंदी प्रदेश मुंबई में आयोजित लिट ओ फेस्ट में हिंदी को लेकर कई सत्र थे । यह बात खौस तौर पर रेखांकित की जानी चाहिए कि चाहे वो हिंदी कविता पाठ का सत्र हो या फिर हिंदी कितनी लोकप्रिय नामक सत्र हो, सबमें श्रोताओं की खासी उपस्थिति रही । सत्र के पहले दिन की शुरुआत राजनीतिक विषयों से हुई तो दूसरे दिन कविता रसिकों के लिए गगन गिल से लेकर सुंदर ठाकुर और स्मिता पारिख से लेकर अशोक चक्रधर तक अपनी कविताओं के साथ मंच पर जमे थे । कवियों में भी रेंज काफी बड़ा था । रविवार की सुबह सभागार लगभग भरा हुआ था । हिंदी कविता को लेकर गैर हिंदी प्रदेश में श्रोताओं की उपस्थिति आश्वस्ति कारक रही क्योंकि हिंदी में तो यह माना जाने लगा है कि कविता के पाठक नहीं हैं । प्रकाशकों ने कविता पुस्तकें छापने से कन्नी काटनी शुरू कर दी है । हिंदी की लोकप्रियता के सत्र में अरुण माहेश्वरी ने हिंदी और भारतीय भाषाओं को लेकर कई जरूरी सवाल उठाए । इस सत्र का विषय था कि क्या प्रकाशक हिंदी के लेखकों को समान अवसर देते हैं । यह सवाल वहां अवश्य उठा लेकिन इसको लिट ओ फेस्ट से बाहर ले जाकर बड़े फलक पर देखने की आवश्यकता है । इस विषय के आलोक में अगर हम विदेशी प्रकाशकों को देखें तो साफ झलकता है कि हिंदी के लेखक वहां दोयम दर्जे के माने जाते हैं । उनकी प्राथमिकता अंग्रेजी होती है। अंग्रेजी में भी वो वैसे लेखकों को तरजीह देते हैं जिनके नाम या पद से किताबें बिक जाएं । अंग्रेजी की पुस्तकों के बरक्श अगर हम भारत में काम कर रहे विदेशी प्रकाशकों या मूल रूप से अंग्रेजी के प्रकाशकों की बात करें तो यह साफ दिखाई देता है कि वो ना सिर्फ हिंदी बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं को भी तरजीह नहीं देते हैं । लिट ओ फेस्ट में एक और मह्वपूर्ण सत्र रहा जिसने साहित्य जगत को झकझोरा और जिसने फिर से बड़े सवाल खड़े कर दिए । प्रगतिशील लेखक आंदोलन को लेकर जावेद सिद्दिकि, रक्षंदा जलील और सलीम आरिफ अवश्य प्रगतिशील लेखक आंदोलन पर उठ रहे सवालों से टकराते रहे । जावेद सिद्दिकि ने तो यहां तक कह दिया कि अदब जमाने का मोहताज नहीं होता लेकिन इस सत्र में इस बात को लेकर वक्ता कन्नी काटते रहे कि क्या वजह रही कि प्रगतिशील लेखकों का आंदोलन की सांसे फूल रही हैं । क्या वजहें रही है प्रगतिशील आंदोलन लगातार बिखरते चला गया । गुलजार ने बांबे के जमाने में डबल डेकर बस में लेखकों की बैठकी के किस्से सुनाए लेकिन प्रगतिशील आंदोलन पर कोई भी गंभीर बात नहीं की । इस तरह के लिटरेचर फेस्टिवल में श्रोताओं की यह अपेक्षा रहती है कि विषय विशेष पर बड़े लेखकों की राय जानें । संस्मरणों को सुनना अच्छा लगता है लेकिन वैचारिकी के स्तर पर उससे ज्यादा कुछ हासिल नहीं होता है । 

Sunday, March 15, 2015

मंटो के साथ अन्याय

सआदत हसन मंटो जिनका नाम साहित्य की दुनिया में बेहद गंभीरता और एक ऐसे कालजयी लेखक के तौर पर लिया जाता है जिसने साहित्य की प्रचलित मर्यादाओं को ना केवल छिन्न भिन्न किया बल्कि उसको एक नया रास्ता भी दिखाया । मंटो के बारे में दस्तावेज के संपादक बलराम मेनरा और शरद दत्त लिखते हैं मंटो एक आदमी था । वह एक विजय, एक संज्ञान, एक तलाश, एक शक्ति, हवा के झोंके की तरह चिंतन की एक शाश्वत लहर भी था । इस लहर के सफर का सिलसिला अटूट है...मंटो जानता था कि आदमी सबसे बड़ा सच है, और सच अटूट होता है । इसलिए मंटो ने आदमी को खानों में बांटने का कोई जतन नहीं किया । वह जानता था कि आदमी अपने आप में एक ऐसी सृष्टि है, एक माइक्रोकॉज्म है, जिसमें समय के तमाम आयाम अपना केंद्रबिंदु पाते हैं ।  यह बिल्कुल सही बात है कि मंटो की इसी साफगोई और अंधेरी दुनिया के प्रसंगों को अपनी रचनाओं में लाने की वजह से उन्हें उर्दू का सबसे बदनाम साहित्यकार तक कह दिया गया लेकिन समय बदलने के साथ साथ मंटो की रचनाएं क्रांकितारी रटनाओं के रूप में स्थापित होती चली गईं और मंटो अपने समय से आगे देखने वाला रचनाकार बन गया । मंटो को मुजरिमों की तरह साहित्यक कठघरे में भी खड़े करने की कोशिश की गई । उनको किया भी गया लेकिन कालांतर में सारे जतन इतिहास के पन्नों में दफन हो गए । मंटो की रचनाओं के इन दिनों विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद हो रहे हैं, उनके नए पाठक बन रहे हैं लेकिन पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला ने एमए पंजाबी के कोर्स से मंटो के लेखन को हटा दिया है । मंटो की रचनाओं को हटाने के पीछे ये तर्क दिया जा रहा है कि छात्रों को विश्व की अन्य भाषाओं की रचनाओं से परिचय करवाने की कोशिश है । पंजाबी विभाग का यह तर्क गले नहीं उतरता है क्योंकि  मंटो के लेखन को इस कोर्स में चंद साल पहले ही शामिल किया गया था । छात्रों को पहले अपने देश में लिखे गए साहित्य की जानकारी होनी चाहिए फिर विदेशी साहित्य से परिचय करवाना चाहिए क्योंकि तभी वो तुलनात्मक अध्ययन कर सकेगा ।

मंटो की रचनाओं को सिलेबस से उसी राज्य की विश्वविद्याल ने हटाया जहां उनका जन्म हुआ था । उसी राज्य में ये काम हुआ जिसने विभाजन की पीड़ा सबसे ज्यादा झेली । मंटो इसी विभाजन की पीडा के कुशल चितेरे हैं लेकिन विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों को कौन समझा सकता है । विश्वविद्लायलय स्वायत्त हैं और प्रोफेसर स्वतंत्र । तभी तो राजेन्द्र यादव विश्वविद्यालयों के साहित्यक विभागों को हिंदी की प्रतिभाओं की कब्रगाह कहा करते थे । दरअसव सिलेबस विश्वविद्लायों की एक बड़ी समस्या है जिसपर ध्यान देने की जरूरत है । अब यह सोचिए कि मंटो की रचनाओं को हटाकर एक अनाम जापानी कहानीकार की रचनाओं को लगा देना यह कहां तक जायज है । जायज तब होता जब इसके पीछे कोई तार्किक वजह होती । विश्वविद्लाय में बैठे कर्ताधर्ता साहित्य के मठाधीश हैं और भाषा विभाग उनके मठ । इन मठों में वही होता है जो मठाधीश चाहते हैं । मठाधीशों को छात्रों की चिंता नहीं होती है वो अपनी स्वायत्तता का बेजा फायदा उठाते हुए तमाम तरह के हड़बोड़ मचाते रहते हैं ताकि उनकी प्रासंगिकता बनी रहे । प्रासंगिकता बचाए या बनाए रखने के इस हथकंडे में ही मंटो जैसे महान लेखक की रचना को दरकिनार कर दिया जाता है । कम से कम पंजाबी विश्वविद्लाय से ये अपेक्षा नहीं की जा सकती थी । अब भी अगर वक्त बचा हो तो इसपर पुनर्विचार हो ।   

Sunday, March 8, 2015

मीडिया मंडी के बदलते नियम ?

मुबई में आयोजित लिट ओ फेस्ट के एक सत्र- मीडिया मंडी के बदलते नियम- सोशल मीडिया के बढ़ते कदम के आलोक में था । इस सत्र में इस बात लेकर जबरदस्त मतभेद थे कि सोशल मीडिया के आने से मुख्यधारा की मीडिया का अंत हो जाएगा । एक विद्वान लेखक ने तो उत्साह में यह तक कह डाला कि आने वाले दिनों में सोशल मीडिया और इंटरनेट का उपयोग इतना बढ़ जाएगा कि अखबारों पर बंद होने का संकट आएगा और राजकमल और वाणी प्रकाशन जैसे संस्थान बंद हो जाएंगें । लेकिन अमूमन ये होता है कि जोश में कही गई बातें आंशिकक रूप में ही सही होती हैं । वही यहां भी हुआ । सोशल मीडिया के चंद पैरोकारों ने इसके आगमन के बाद से ही मुख्य धारा की मीडिया का मर्सिया पढ़ना शुरू कर दिया है । पाठकों को याद होगा कि जब नब्बे के दशक में हमारे देश में टीवी चैनलों का आना शुरू हुआ तो कई तरह की आशंकाएं जताई जाने लगी । कालांतर में जब इक्कीसवीमं सदी की शुरुआत में निजी न्यूज चैनलों का विस्तार होने लगा तो फिर कुछ विशेषज्ञों ने फैसला सुना दियाकि अखबार उद्योग गंभीर संकट में है और उसका बंद हो जाना तय है । उस वक्त यह तर्क दिया गया था कि दिनभर जो खबरें चलती रहेंगी उसको लोग अगले दिन क्यों कर पढ़ना चाहेंगे । तमाम आशंकाओं के विपरीत अखबारों की प्रसार संख्या और पाठक संख्या दोनों बढ़े । यहां यह बताना आवश्यक है कि फ्रांस और जर्मनी के अलावा यूरोप और अमेरिका में किताबों की बिक्री पर ईबुक्स के बढ़ते चलन का कोई खास असर पड़ा नहीं है । दूसरे इस सत्र में सोशल मीडियाकी अराजकता के बारे में चर्चा कम हुई । सोशल मीडिया पर जो आजादी है वो लगभग अराजक है । अभी हाल ही में तीसरी बार ट्विटर पर दिलीप कुमार साहब की मौत की खबर आम हो गई थी । बाद में पता चला कि खबर गलत थी । इसी तरह से मन्ना डे की मौत की खबर भी चल पड़ी थी । दरअसल सोशल मीडिया पर अकांउटिबिलिटी का कोई सिस्टम अभी तक बन नहीं पाया है । यहां की अराजकता को समझना और उसको संभलना मुख्य धारा की मीडिया के लिए चुनौती है ।

गैर हिंदी प्रदेश में आयोजित लिट ओ फेस्ट में गगन गिल, सुंदर ठाकुर, स्मिता पारिख और अशोक चक्रधर को सुनने के लिए सुबह का सत्र खचाखच भरा था । हिंदी कविता को लेकर गैर हिंदी प्रदेश में श्रोताओं की उपस्थिति आश्वस्ति कारक रही क्योंकि हिंदी में तो यह माना जाने लगा है कि कविता के पाठक नहीं हैं । प्रकाशकों ने कविता पुस्तकें छापने से मना करना शुरू कर दिया है । हिंदी की लोकप्रियता के सत्र में अरुण माहेश्वरी ने हिंदी और भारतीय भाषाओं को लेकर कई जरूरी सवाल उठाए । इस सत्र का विषय था कि क्या प्रकाशक हिंदी के लेखकों को समान अवसर देते हैं । यह सवाल वहां अवश्य उठा लेकिन इसको लिट ओ फेस्ट से बाहर ले जाकर बड़े फलक पर देखने की आवश्यकता है । अगर हम विदेशी प्रकाशकों को देखें तो साफ हैकि उनकी प्राथमिकता अंग्रेजी और उस भाषा के लेखक हैं । अंग्रेजी में भी वो वैसे लेखकों को तरजीह देते हैं जिनके नाम या पद से किताबें बिक जाएं । अंग्रेजी की पुस्तकों के बरक्श अगर हम भारत में काम कर रहे विदेशी प्रकाशकों या मूल रूप से अंग्रेजी के प्रकाशकों की बात करें तो यह साफ दिखाई देता है कि वो ना सिर्फ हिंदी बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं को भी तरजीह नहीं देते हैं । इस तरह के सवालों से मुठभेड़ करता मुंबई का लिट ओ फेस्ट खत्म हो गया लेकिन दो दिनों तक मुंबई की साहित्यक फिजां को विचारों के स्तर पर उत्तेजित कर गया ।