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Sunday, April 26, 2015

बिहार के साहित्यिक हकीम

मशहूर व्यंग्यकार और हिंदी साहित्य जगत के अपने तरह के अनूठे रचनाकार हरिशंकर परसाईं ने साहित्य और नंबर दो का कारोबार में लिखा है मैं भी सांस्कृतिक क्रांति के दौर से गुजर लिया । पहले अपना कमाया पैसा भी अपना नहीं लगता था । अब सिर्फ दूसरों का खाया पैसा ही अपना कमाया लगता है । सारे मूल्यों में क्रांति हो गई । पहले समारोहों में फूल माला पहनते खुशी होती थी । अब वह गर्दन में लटका फालतू बोझ मालूम होती है । सांस्कृतिक क्रांति ने फूलों की सुगंध छीन ली है और मैं माला पहनते हिसाब लगाता रहता हूं कि अगर हर फूल की जहग नोट होता तो रहर वक्त कितने रुपए मेरे गले में लिपटे होते । मैं माला से उस लिफाफे की रकम का अंदाज लगाता रहता हूं जो कि बाद में दिया जाएगा । मुझे गुलाब की माला पहनाओ, चाहे गेंदे की, चाहे भटकटैया की सब एक ही हैं । फूल की पंखुड़ी सिक्के का एहसास देती है । बीच में मूल्यों का विघटन हो गया था. अब वे सिक्के से जुड़ गए हैं । अपना मूल्यहीनता का युग समाप्त। जिनका चल रहा है वो इस पुरानी बीमारी का इलाज कराएं । साहित्य में अच्छे अच्छे अनुभवी हकीम मौजूद हैं ।  बिहार के कला संस्कृति और युवा विभाग द्वारा आयोजित अखिल भारतीय हिंदी कथा समारोह के बारे में जानकर परसाईं जी की उक्त पंक्तियां शिद्दत से याद आईं । बिहार में मूल्यहीनता का युग समाप्त हो चुका है । वहां साहित्य के एक से एक अच्छे और अनुभवी हकीमों ने मूल्यहीनता का एक ऐसा वातावरण बना दिया है कि फूल की पंखुड़ी सिक्कों से जुड़ती चली जा रही हैं । बिहार में साहित्य कला और संस्कृति के क्षेत्र में पिछले दिनों जिस तरह से विवाद और गिरावट आई है उससे कम से कम इस धारणा की पुष्टि अवश्य होती है । हालिया उदाहरण है अखिल भारतीय हिंदी कथा समारोह के आयोजन का । पच्चीस से लेकर सत्ताइस अप्रैल तक चलनेवाले तीन दिनों के इस कथा समारोह में लेखकों के चयन को लेकर साहित्यक हकीमों ने जबरदस्त खेल खेला । इस आयोजन के लिए जिम्मेदार लोगों में बिहार में जेडीयू कोटे से विधान परिषद के सदस्य रामबचन राय, एक जमाने में क्रांति की कविता लिखने वाले आलोक धन्वा, हाल ही में पद्मश्री से सम्मानित उषा किरण खान के अलावा सूबे के सांस्कृतिक कार्य निदेशालय के निदेशक, संगीत नाटक अकादमी बिहार के सचिव और संस्कृति विभाग के सहायक निदेशक को जिम्मा सौंपा गया । सबसे पहली गड़बड़ी इसके सहभागियों के चयन को लेकर हुई । आयोजन समिति के दो सदस्यों ने अपने रिश्तेदारों को प्रतिभागी बना दिया । रामबचन राय की पत्नी इंदु मौआर को बतौर कहानीकार प्रतिभागी बना दिया गया और उषाकिरण खान की बेटी कनुप्रिया को अपनी मां द्वारा लिखित रचना पर नाटक के मंचन की जिम्मेदारी दी गई । बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नैतिकता की दुहाई देते नहीं थकते लेकिन इतने बड़े आयोजन में नैतिकता की धज्जियां उड़ी और उनका पूरा अमला खामोशी के साथ देखता रहा । बिहार संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष और क्रांतिवीर आलोक धन्वा ने इसका बचाव करते हुए कहा मार्ग्रेट थैचर का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि उन्होंने अपने बेटे को लाइसेंस दिया था क्योंकि वो योग्य था । यहां आलोक धन्वा पता नहीं क्यों ब्रिटेन चले गए बल्कि उनको तो इंदिरा गांधी और संजय गांधी का उदाहरण देना चाहिए था क्योंकि जिस क्रांति की विचारधारा के वो समर्थक हुआ करते थे उसने इमरजेंसी में इंदिका गांधी का समर्थन किया था । इंदु मौआर के चयन को वो नामवर सिंह और काशीनाथ सिंह के उदाहरण से भी सही ठहराने की कोशिश करते हैं लेकिन आलोक धन्वा यह भूल जाते हैं कि इंदु मौआर जी की कहानीकार के रूप में हिंदी के वृहत्तर जगत से परिचय होना शेष है । इसके अलावा की इस समारोह के चयन पर सवाल खड़े हुए । एक और राजनेता पद्माशा को भी कथाकार बना दिया गया । उसी तरह से हिंदी के मशहूर कथाकार और साहित्यक पत्रिका तद्भव के यशस्वी संपादक अखिलेश को समीक्षक बनाकर आमंत्रित किया गया । यह एक कथाकार का अपमान और चयन समिति के सदस्यों की अज्ञानता भी है क्योंकि अखिलेश को डॉ खगेन्द्र ठाकुर, रविभूषण, चकुण कुमार जैसे आलोचकों के साथ रखा गया है । हलांकि कुछ लोगों का कहना है कि यह किसी तरह से एडजस्टकरने का मामला भी है । दरअसल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन दिनों सियासी उलझनों में फंसे हैं और साहित्य कला संस्कृति के उन्होंने आलोक धन्वा, रामबचन राय और ऊषाकिरण खान के हवाले कर दिया है । कथा समारोह में कथाकारों और समीक्षकों के चयन में गड़बड़ियों के लिए जिम्मेदारी तय हो पाएगी इसमें संदेह है ।
इसी तरह से अगर देखें तो पहले राजभाषा पुरस्कारों को लेकर विवाद हुआ था । उस विवाद की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि अब वहां कला पुरस्कारों के चयन को लेकर सवाल खड़े हो गए । कला पुरस्कार के लिए चयनित वरिष्ठ कथाकार और रंगसमीक्षक ह्रषिकेश सुलभ ने एलान के बाद पुरस्कार ठुकरा दिया । सुलभ के पुरस्कार ठुकराने के बाद चयन पर ही सवाल खड़े होने लगे । संस्कृतिकर्मियों ने इस पुरस्कार के एलान के बाद इसके खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाया हुआ है । बिहार के रंगकर्मी कला पुरस्कारों में हुई धांधली के आरोपों की जांच की मांग भी कर रहे हैं । कला पुरस्कारों की चयन समिति में भी आलोक धन्वा, ऊषाकिरण खान हैं । उनके अलावा परवेज अख्तर और आनदी बादल हैं । कला पुरस्कारों के चयन पर उठे विवादों की पृष्ठभूमि बहुत दिलचस्प है । निर्णायक मंडल ने नियमों को शिथिल करते हुए रेवड़ियां बांटने का फैसला लिया । बिहार के कला पुरस्कारों के चयन का नियम यह है कि रंगकर्मी या कलाकार अपने बयोडाटा के साथ आवेदन करते हैं और उस आवेदन के साथ वो अनुशंसाएं भी नत्थी करते हैं । कला पुरस्कार के चयन समिति के सदस्य उन आवेदनों पर विचार करते हैं और फिर उसमें से नामों को चुना जाता है । इस बार इन नियमों को दरकिनार कर पुरस्कार देने की बातें सामने आई हैं । कला पुरस्कार ठुकराते हुए ह्रषिकेश सुलभ ने लिखा कि बिहार में कला संस्कृति और राजभाषा विभागों के पुरस्कार का बंटवारा दिनों दिन अश्लील होता जा रहा है । बिहार में सरकारें हमेशा संस्कृति और साहित्य को लेकर असंवेदनशील रही हैं । सरकार को चाहिए कि वो रेवड़ियां बांटना बंद करे । सुलभ ने आगे लिखा- मैंने ना तो इस पुरस्कार के लिए आवेदन किया था और ना ही अपना बॉयोडाटा भेजा था । सरकार को पुरस्कार घोषित करने से पहले मुझसे स्वीकृति लेनी चाहिए थी । बहुत संभव है कि चयन समिति को योग्य लोगों के आवेदन नहीं मिले हों लेकिन क्या पुरस्कार देना इतना जरूरी था । इसी तरह की एक और गड़बड़ी रंगकर्मी अनीश अंकुर के साथ भी की गई । उनके नाम का भी एलान जूनियर पुरस्कार के लिए कर दिया गया जबकि उनकी उम्र आर्हता से ज्यादा है । यह कलाकारों का अपमान भी है । चयन समिति के सदस्य पुरस्कारों को अपनी जमींदारी की तरह चलाते प्रतीत होते हैं और पुरस्कारों को खैरात की तरह बांटते । यह सामंती मानसिकता है । फिल्मों की समीक्षा पर दिए जानेवाले राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए भी आवेदन मंगाए जाते हैं । वहां कभी ऐसा नहीं होता है कि नियमों में ढील देकर किसी को पुरस्कृत कर दिया जाए । अगर श्याम बेनेगल ने भी आवेदन नहीं किया हो तो उनको पुरस्कार नहीं दिया जाता है । फिर बिहार के कला पुरस्कारों में नियमों को शिथिल कर लेखकों कलाकारों को अपमानित करने की आवश्यकता क्यों पड़ी है । हो सकता है कि नियमों में यह प्रावधान हो कि स्तरीय आवेदन नहीं मिलने पर निर्णायक समिति की अनुशंसा को मानते हुए पुरस्कारों के नामों का एलान हो । अगर ऐसा है तो  यह बात तो साफ होनी चाहिए कि जिन्होंने आवेदन किया था उनके नाम स्तरीय नहीं थे । किस आधार पर उनके आवेदन को खारिज किया गया । सामने तो वो परिस्थितियां भी आनीं चाहिए जिसमें निर्णायक मंडल के चारो सदस्य में से किसने किसके नाम की सिफारिश की और कमेटी उस पर एकमत हो गई ।

दरअसल बिहार के वर्तमान साहित्यक परिदृश्य में सरकारी विभागों में जबरदस्त अराजकता है । मुख्यमंत्री की प्राथमिकता सूची में साहित्य संस्कृति आती नहीं क्योंकि इनका कोई वोट बैंक होता नहीं है । लेकिन नीतीश कुमार जैसे समझदार नेता शायद यह भूल गए हैं कि इन चीजों से परसेप्शन बनता है । परसेप्शन के इस दौड़ में वो पिछड़ते नजर आ रहे हैं क्योंकि साहित्य और संस्कृति की कमान उन्होंने जिन दो तीन नामों के हाथ में सौप रखी है वो अपनी भूमिका के विर्वहन में लगातार फेल होते नजर आ रहे हैं और चुनावों की आहट ने उनको बेलगाम भी कर दिया है । बिहार के इन साहित्यक हकीमों को इस बात का अंदाज है कि नीतीश कुमार इन दिनों अपनी खोई सियासी जमीन वापस हासिल करने में जुटे हैं लिहाजा ये हकीम अपनी मनमानी कर नीतीश का नुकसान पहुंचाने में जुटे हुए हैं ।  

Sunday, April 19, 2015

स्मृति को नमन

हिंदी साहित्य के लिए यह साल काल का साल जैसा होता प्रतीत हो रहा है । पहले विजय मोहन सिंह जी का निधन हो गया, फिर काल के क्रूर हाथों ने हमसे कैलाश वाजपेयी जैसे दिग्गज लेखक को छीन लिया और अब अवध नारायण मुद्गल जी हमसे बिछड़ गए । इस वक्त की जो युवा पीढ़ी है वो अवध जी को जरा कम जानती है । विनोद अनुपम से उनको श्रद्धांजलि देते हुए लिखा है कि मुद्गल जी जिस चुप्पी और निष्ठा के साथ हिंदी साहित्य में उपस्थित रहे उसी चुप्पी के साथ गुजर गए । चुप्पी की यह इंतहां ही थी कि वो ना तो विकीपीडिया पर हैं और ना ही इंटरनेट पर उनकी तस्वीर देखी जा सकती है । पुरस्कारों सम्मानों की तो बात ही अलग है । हिंदी साहित्य में अगर सारिका का नाम आज भी अक्षुण्ण है तो उसका श्रेय अवध नारायण मुद्गल जी को ही जाता है । उनके संपादन में सारिका वैचारिक रूप से उदार और साहित्य निष्ठ हुई थी । इन तीन चार पंक्तियों में अवध नारायण मुद्गल जी के बारे में लगभग सब कह दिया गया । वो लगभग दस वर्षों तक सारिका पत्रिका के संपादक रहे । इसके अलावा अवध जी अपने समय कीमशहूर और हर घर की जरूरी पत्रिका पराग का भी संपादन किया । वामा और छाया मयूर के भी संपादक रहे । अपने संपादन कौशल से अवध जी ने अस्सी के दशक के कई कहानीकारों को ना केवल मंच दिया बल्कि हौसला बढ़ा कर उनको स्थापित भी किया । संपादन के पहले अवध नारायण मुद्गल हिंदी साहित्य में कथाकार के तौर पर स्थापिक हो चुके थे । मात्र सत्रह साल की उम्र में उनकी पहली कहानी प्रकाशित हो गई थी । साठ के दशक में उन्होंने कई कहानियां लिखी जो आज भी पढ़ते हुए समकालीन लगती है । अवध जी ने कहानियां ही नहीं लिखी । उनकी कविताओं को भी अभी मूल्यांकन होना शेष है । अपनी कविताओं में मिथकों का प्रयोग करके उसको अलग ऊंचाई देना कवि अवध नारायण मुद्गल की ऐसी प्रतिभा थी जिससे उस वक्त के पाठक चमत्कृत थे ।

अवध नारायण जी से मेरी पहली मुलाकात दिल्ली के पोलैंड एंबेसी में छाया मयूर त्रैमासिक के विमोचन के अवसर पर हुई थी । उसके बाद दो मुलाकात हुई लेकिन उनसे बात संभव नहीं हो पाई । मैंने छाया मयूर की समीक्षा लिखी थी जो 28 मार्च 1995 के स्वतंत्र भारत में प्रकाशित हुई थी । उस वक्त भी उनसे संभवत फोन पर बात हुई थी । फिर एक बार चित्रा मुद्गल जी का इंटरव्यू करने के दौरान अवध जी को प्रणाम कर सका तब वो बहुत बीमार थे । आखिरी मुलाकात पिछले दिल्ली विधानसभा  चुनाव के दौरान हुई थी । मैं मयूर विहार के पोलिंग बूथ से निकल रहा था तो चित्रा मुद्गल जी उनको व्हील चेयर पर लेकर वोट डलवाने जा रही थी । उन्होंने रुक कर कहा था कि अवध ये अनंत है, आदि आदि । मैंने उनको प्रणाम किया तो उनका हाथ आशीर्वाद के लिए उठा लेकिन वो कुछ बोले नहीं । उनकी ये आखिरी स्मृति मेरे मानस पर अब भी है । छाया मयूर के संपादकीय में उन्होंने कई सवाल उठाए थे । एव सवाल जो अब भी मौजूं है । अवध जी ने लिखा था- अधिकांश साहित्य संपादक ऐसे हैं जिन्हें संपादन और संकलन में अंतर करने का शऊर भी नहीं । कुछ ऐसे भी हैं जो पत्रिका के बहाने अपनी साहित्यक नेतागीरी की दुकान खोलकर बैठ गए हैं और अपने एकाधिकारवादी तेवर दिखा रहे हैं ।' ये बेबाकी थी अवध नारायण मुद्गल की । ये साहस था एक संपादक का जो अपनी बिरादरी को आईना दिखा सकता था । अवध जी की स्मृति को नमन ।  

अलविदा गुंटर ग्रास

यह साल जब शुरू हुआ था तब किसी को अंदाज नहीं था कि इसको साहित्यक क्षति के साल के तौर पर याद किया जाएगा ।  हिंदी साहित्य के साथ साथ विश्व साहित्य के कई मूर्धन्य हस्तियों के निधन से शून्य लगातार बड़ा होता जा रहा है । विजय मोहन सिंह, कैलाश वाजपेयी, अवध नारायण मुद्गल के जाने से हिंदी साहित्य में बड़ा सन्नाटा पैदा हो गया है । उसी तरह से नोबेल पुरस्कार विजेता जर्मनी के लेखक गुंटर ग्रास भी सतासी साल की उम्र में दुनिया छोड़ गए । मृत्यु और उसके बाद का दुख या शोक हर जगह समान होता है , लेकिन हिंदी साहित्य या हिंदी समाज में लंबे समय से परंपरा चली आ रही है कि मृत्यु के बाद हम लेखक को महान सिद्ध करते रहे हैं । उसकी नाकामियां या कमजोरियों पर लिखना गलत माना जाता है । लिखते भी नहीं है । इस मामले में पश्चिमी भाषाओं के साहित्य और हिंदी साहित्य में फर्क है खासकर अंग्रेजी, जर्मन और फ्रेंच में जहां साहित्यकारों के दिवगंत होने पर उनका मूल्यांकन किया जाता है । उनकी कमजोरियों और गलतियों का जिक्र भी ऑबिच्युरी में लिखा जाता है । अभी हाल ही में जर्मनी के मशहूर लेखक गुटंकर ग्रास के निधन के बाद उनपर दुनिया में उनपर कई श्रद्धांजलि लेख छपे । उनमें यह साफ तौर पर रेखांकित किया जा सकता है । गुंटर ग्रास जर्मनी के उन लेखकों में थे जिनके लेखन में नाजीवाद के दौर की ज्यादतियां लगातार उपस्थित है । माना जाता है है कि दूसरे विश्व युद्द के बाद के लेखन को गुंटर ग्रास ने अपनी लेखनी से गहरे प्रभावित किया और कांलातर में नाजियों की ज्यादतियों का पूरा इतिहास ही गुंटर ग्रास के लेखन के इर्द गिर्द घूमता रहा । अपने शोक संदेश में जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्कल ने भी यही लिखा कि युद्ध के बाद के जर्मनी के इतिहास और संस्कृति को गुंटर ग्रास ने अपनी लेखनी से आकार दिया। किसी भी लेखक के लिए ये बहुत बड़ी उपलब्धि होती है कि वो अपने समाज को अपने देश को, अपने देश के इतिहास को प्रभावित करे ।
उन्नीस सौ उनसठ में प्रकाशित अपने पहले उपन्यास - द टिन ड्रम- में उन्होंने जिस तरह से हिटलर की क्रूरता को उजागर किया, उसका जो नैरेटिव रचा या फिर जिस तरह से पाठकों को उस दौरे से रूबरू कराते हैं, वह अद्धभुत है । यह अपने कथानाक से पाठकों को शॉक देता है । यह उपन्यास उस स्थापित मान्यता का निषेध भी करता है कि नाजी कैंपों में क्रूरता चंद फासिस्टों का फितूर था । इस उपन्यास के चरित्रों में और गुटंर ग्रास के चरित्र और परिवेश में काफी समानता देखी जा सकती है । उपन्यास का केंद्रीय पात्र आस्कर, उसका पिता नाजी पार्टी का सदस्य । फिर उसके बच्चे के साथ काल का ऐसा चक्र घूमता है कि वो अकेला होता है और उसको तोहफे में एक ड्रम मिलता है । उस ड्रम को तोहफे में पाकर उसकी इच्छा होती है कि उसकी उम्र ठहर जाए और वो बड़ा ना हो । उस बच्चे की मानसिकता के आधार पर, उसके नजरिए से गुंटर ग्रास पूरा एक परिदृश्य रचते हैं । गुंटर ग्रास का ये उपन्यास काफी लोकप्रय हुआ था और उसपर वोल्कर ने उन्नीस सौ उनासी में एक फिल्म भी बनाई थी जिसको उन्नीस सौ अस्सी में ऑस्कर पुरस्कार भी मिला था । इस उपन्यास की लोक्रियता ने गुंटर ग्रास को स्थापित कर दिया । उसके बाद उन्होंने उन्नीस सौ इकसठ में - कैट एंड माउस और उन्नीस सौ तिरसठ में- डॉग इयर्स लिखा । इस उपन्यास त्रयी से गुंटर ग्रास, साहित्य के वैश्विक परिदृश्य पर लगभग छा गए । उन्नीस सौ निन्यानबे में गुंटर ग्रास को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला । जब उनको नोबेल पुरस्कार मिला तो उनकी प्रशस्ति में स्वीडिश अकादमी ने कहा था कि अपने उपन्यास द टिन ड्रम में गुंटर ग्रास ने समकालीन इतिहास को नए सिरे से देखने और परखने का साहस दिखाया । उन्होंने जर्मनी के इतिहास में हाशिए पर धकेल दिए गए शख्सियतों को, भुला दिए गए नायकों को और नाजियों के दौर में पीड़ितों को केंद्र में लाने का साहस दिखाया ।
गुंटर ग्रास तीन बार पूरे विश्व में चर्चित और विवादित हुए । उनपर लंबे लंबे लेख लिखे गए । उनके पक्ष और विपक्ष में पूरी दुनिया का साहित्य जगत बंट गया था । पहली बार उनको लेकर बवाल तब मचा जब उन्होंने दो हजार छह में लिखे अपने एक संस्मरण में यह माना था कि द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम दिनों में उन्होंने हिटलर की सुरक्षा यूनिट में कुछ दिनों तक काम किया था । इस लेख के छपते ही उनपर हमले तेज हो गए थे और यह कहा जाने लगा था कि उनका लेखन गढ़ा हुआ और काल्पनिक है । आरोप तो यह भी लगे कि जिसने हिटलर के लिए काम किया उसको नाजियों की ज्यादतियों पर लिखने का हक कैसे । कुछ आलोचकों ने तो उनके लेखन तक को खोखला करार दे दिया । उन्होनें अपना यह राज अपने सीने में लगभग छह दशक तक छुपाए रखा । उनपर तो यह आरोप भी लगा कि जब उनको उन्नीस सौ निन्यानवे में नोबेल पुरस्कार मिल गया तब जाकर उन्होंने ये ऱाज खोला ताकि उनके साहित्यक करियर पर कोई असर नहीं पड़ सके । गुंटर ग्रास ने बहुत कम समय के लिए हिटलर के बदनाम सुरक्षा दस्ते में काम किया लेकिन जब उन्होंने इसका खुलासा किया तो वो जीवन पर्यंत उनके साथ चिपका रहा । अपने खुलासे में उन्होंने बताया कि उन्नीस सौ पैंतालीस में जख्मी होने के बाद अमेरिकी सेना ने उनको बंदी बना लिया था और लगभग साल भर उनको कैंप में रखा गया था । उसके बाद दूसरी बार विवाद के केंद्र में वो दो हजार बारह में आए जब उन्होंने इजरायल को केंद्र में रखकर एक कविता लिखी व्हाट मस्ट बी सेड । इस कविता में गुंटर ग्रास ने सीधे तौर पर इजरायल के परमाणु कार्यक्रम को निशाना बनाया था । उन्होंने इस कविता में इजरायल के परमाणु कार्यक्रम को विश्व शांति के लिए खतरा बताया था । उनकी यह कविता इतनी चर्चित हुई कि इजरायल ने गुंटर ग्रास के वहां आने पर पाबंदी लगा दी थी । इन दो घटनाओं के अलावा उन्नीस सौ निन्यानबे में पूरी दुनिया ने उनको तब जाना जब उनको साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला ।

सोलह अक्तूबर उन्नीस सौ सत्ताइस को पोलैंड के समुद्री शहर में एक दुकानदार के परिवार में गुंटर ग्रास पैदा हुए थे । जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ तो वो बच्चे थे । जब हिटर ने पोलैंड पर हमला किया तो वो लगभग तेरह साल के थे । उन्होंने दो हजार छह में प्रकाशित अपने संस्मरण में पीलिंग द अनियन में उस दौर को याद किया है । उपन्यासों के अलावा गुंटर ग्रास ने बेहतरीन संस्मरण लिखे हैं । गुंटर ग्रास सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी के सदस्य भी रहे और कई सालों तक सक्रिय राजनीति भी की । उन्होंने अपने लेखऩ से एर पूरी की पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया । माना यह जाता है कि सलमान रश्दी का उपन्यास मिडनाइट चिल्ड्रन पर गुंटर ग्रास का जबरदस्त प्रभाव है । घनी मूंछों के नीचे होठ में दबे पाइप से निकलता धुंआ बहुधा उनकी शक्ल को धुंधला कर देता था लेकिन काल के क्रूर हाथों ने उस चेहरे को ही हमसे छीन लिया । काल रचनाकार का जीवन तो ले सकता हे लेकिन उसके लिखे को छीनने की उसके पास ना तो युक्ति है और ना ही सामर्थ्य ।    

साहित्य में कब आएगा पैसा ?

हिंदी साहित्य में यह बात हमेशा से कही और सुनी जाती रही है कि कोई सिर्फ साहित्य लिखकर अपना जीवन यापन नहीं कर सकता है । यह बात बहुत हद तक सही भी है क्योंकि हिंदी साहित्य में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि किसी लेखक ने सिर्फ साहित् रच कर अपनी जिंदगी बेहतर तरीके से जी हो । हिंदी लेखकों की ऐसी छवि सायास निर्मित की गई कि वो बेचारा होता है । उसकी किताबों से होने वाली आय पर भी कई बार बात होती रही है । कॉपीराइट को लेकर प्रकाशकों और लेखकों के अपने अपने पक्ष हैं । प्रकाशकों का कहना है कि जितनी किताबें बिकती हैं उसकी रॉयल्टी लेखकों को वित्त वर्ष के अंत में भेज दी जाती है । उधर लेखकों को लगता है कि उनके साथ अन्याय होता है । कई लेखक और प्रकाशक अनुबंध करने में कोई रुचि नहीं रखते हैं दोनों की चाहत होती है किताब छप जाए । प्रोफेशनलिज्म की इसी कमी की वजह से किताबों की बिक्री और कॉपीराइट भुगतान का कोई बेहतर मैकेनिज्म नहीं बन पाया । इसका नुकसान यह हुआ कि लेखक और प्रकाशक के बीच बहुधा अविश्वास की स्थिति पैदा होती रही है । इस लेख का मकसद लेखक प्रकाशक संबंध नहीं है बल्कि हम इस पर बात कर रहे थे कि किस तरह से हिंदी में साहित्य में लिखकर कोई भी लेखक स्वावलंबी नहीं हो सकता है । इसके बरक्श अगर हम कला और संगीत को देखते हैं तो वहां काफी पैसे हैं । वहां कलाकार सिर्फ कला को समर्पित होकर ठाठ से रह सकता है । पेंटिंग की स्थिति तो बहुत ही अच्छी है । बड़े और स्थापित चित्रकारों की तो बात ही छोड़ दीजिए । अगर हम कला बाजार की बात करें तो हमें स्थिति बहुत सुखद दिखाई देती है 
करीब सात आठ साल पहले की बात है जब अमेरिकी अर्थशास्त्री पॉल कुर्गमैन ने वैश्विक मंदी की आशंका जताई थी । उन्होंने उस वक्त के अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश के प्रशासन को आगाह किया था कि पूरा विश्व भयानक आर्थिक मंदी की चपेट में सकता है  । एक तरफ कुर्गमैन दुनिया में आर्थिक मंदी को लेकर चिंता जता रहे थे वहीं दूसरी ओर विश्व कला बाजार में कलाकृतियों की कीमतें आसमान छू रही थी । उस वक्त भारतीय कलाकारों की पेंटिग्स करोंड़ों रुपये में नीलाम हुई थीं । यूपीए शासन काल के अंतिम दो तीन वर्षों में जब अर्थव्यवस्था दबाव में थी तो उसका थोड़ा बहुत असर भारतीय कला बाजार पर भी दिखा था । उस वक्त बाजार के जानकार इसे शेयर बाजार से जोड़कर  देख रहे थे । उनका तर्क था कि शेयर बाजार से कमाए गए पैसे लोग कला बाजर में निवेशक करते थे जो कि एक बेहद सुरक्षित विकल्प माना जाता था । अंतर्राष्ट्रीय और भारतीय कला बाजार में  ना तो आर्थिक मंदी का कोई बहुत ज्यादा असर दिखा और ना ही अर्थवयवस्था के कमजोर होने का बहुत असर दिखा । कई नामचीन भारतीय पेंटर हैं जिनकी कलाकृतियां करोड़ों रुपये में  बिकीं । एम एफ हुसैन, एस एच रजा, तैयब मेहता जैसे महान चित्रकारों के अलावा भी कई आधुनिक चित्रकार हैं जिनकी कलाकृतियों की कीमत लाखों में रहती हैं । इनके बारे में कम लिखा जाता है और इनका काम चर्चित नहीं हो पाता है चंद सालों पहले लंदन में नीलामी करने वाली कंपनी सॉदबी ने जोगेन चौधरी की कलाकृति- डे ड्रीमिंग- को तीन करोड़ रुपये में बेचा था   गौरतलब है कि दो हजार सात में सॉदबी ने रॉकिब शॉ की पेंटिंग गॉर्डन ऑफ अर्थली डिलाइट्स को इक्कीस करोड़ में बेचकर इतिहास रच दिया था इसी तरह अनीश कपूर की एक पेंटिग को अट्ठाइस लाख डॉलर,टी वी संतोष की कलाकृति -टेस्ट टू- को डेढ लाख डॉलर और रॉकिब शॉ की पेंटिंग को इक्यानवे हजार डॉलर मिले थे जो कि नीलामीकर्ता की उम्मीदों से कहीं ज्यादा थे ये फेहरिस्त बेहद लंबी है चिंतन उपाध्याय की पेंटिग को तेहत्तर हजार डॉलर, रियास कोमू की सिस्टमेटिक सिटीजन फोर्टीन तो उनासी हजार डॉलर तो बोस कृष्णामचारी की पेंटिंग को चालीस हजार डॉलर मिले थे इस फेहरिश्त में युवा चित्रकार मनीष फुष्कले को भी शामिल कर सकते हैं जिनकी एक कलाकृति दो हजार छह में अठहत्तर लाख में बिकी थी । भारतीय कलाकारों का एक बड़ा वर्ग है जिसकी अंतर्राष्ट्रीय कला बाजार में धाक है
इन दिनों मनीष पुष्कले के चित्रों की प्रदर्शनी दिल्ली के आकार प्रकार गैलरी में चल रही है । प्रदर्शनियां भारतीय कला बाजार को समझने और चित्रकार की सोच सो समझने का एक मौका देती है । मनीष पुष्कले से बात करके मुझे लगा कि भारत के जो युवा चित्रकार इस वर्त कला बाजार में तेजी से स्थापित हो रहे हैं उनके पीछे एक सोच है, एक विचार है, एक विरासत है, एक अध्ययन है । मनीष ने पानी के बारे में जो बातें कहीं उसपर काफी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है । मनीष पुष्कले के मुताबिक उसके दादा ने कहा था कि अलग अलग स्त्रोतों के पानी को मिलाना एक पवित्र कार्य है । अब ये एक ऐसा वाक्य है जिसका काफी बड़ा संदर्भ लिया जा सकता है लेकिन मनीष ने इसको अपनी चित्रकारी के संदर्भ में लिया । मनीष ने बताया कि वो पिछले तेइस सालों से जहां भी जाते हैं वहां का पानी जरूर लेकर आते हैं और जमा करते हैं । गांव से लेकर शहर तक, देश से लेकर विदेश तक, जंगल से लेकर गुफा तक, रेगिस्तान से लेकर पहाड़ तक मनीष ने जितनी यात्राएं की हैं हर जगह का पानी उनके पास है । मनीष के मुताबिक जब वो उस पानी के भंडार को देखते हैं तो उनको अपने जेहन में बसी उन जगहों की परंपरा और विरासत की याद ताजा हो जाती है । इसको फिर वो अपनी कला में स्थान देते हैं । अब इल तरह की सोच और विरासत को लेकर जब चित्रकारी की जाती है तो कला प्रेमियों को बातें समझ में आती हैं । माना यह जाता है कि कला प्रेमियों को किसी खास कलाकारी के पीछे की सोच अगर पसंद आ जाती है तो फिर वो उसकी कीमत पर ध्यावन नहीं देते हैं । मनीष की कला के पीछे एक सोच है । मनीष का मानना है कि आधुनिक समाज ने कोई सभ्यता नहीं बनाई है, उसने म्यूजियम बनाया है जहां हम अपनी समृद्ध विरासत को संभाल कर रखते हैं । इन संग्रहालयों में हम पूर्वजों की यादों और उनकी समृद्ध विरासत को संजो रहे हैं । मनीष की इस प्रदर्शनी का नाम भी है म्यूजियम ऑफ अननोन मेमरीज । इस प्रदर्शनी के चित्रों में इस थीम को साफ तौर पर रेखांकित किया जा सकता है । हमारे देश के इस युवा चित्रकार के सोचने का कैनवस बहुत बड़ा है । वो अपनी चित्रकारी के माध्यम से जिस तरह की संप्रेषणीयता को अपनाता है वही तकनीक अपने लेखन में भी अपनाता है । मनीष पुष्कले ने बहुत कम समय में पेंटिग की दुनिया में काफी यश कमा लिया । चित्रकारी में यश के साथ पैसा स्वत आता है । उनके चित्रों की प्रदर्शनी देश विदेश में लगती रहती है । मनीष पुष्कले चित्रकारी की इस विधा में औपचारिक रूप से दीक्षित नहीं हैं बल्कि उन्होंने अपनी लगन और मेहनत के बल पर ये मकाम हासिल किया है । मनीष ने अपनी किताब सफेद साखी में लिखा है कैनवस दिगम्बरा है,चारो तरफ से खुली हुई सफेद, शांत, पवित्र । उनकी न स्मृति है न इतिहास । इस दिगम्बरा को उनके चित्रों में महसूस भी किया जा सकता है ।

कला का जो बाजार है उसमें ग्राहकों का मनोविज्ञान बेहद अहम भूमिका अदा करता है किसी भी देश में राजनैतिक हालात बेहतर रहते हैं तो निवेशकों का भरोसा मजबूत रहता है और वो वेफिक्र होकर निवेश करते हैं हाल के दिनों में कला बाजार में निवेश करनेवालों की तादाद बढ़ रही है और आनेवाले समय में इस बाजार में और बढ़ोतरी और स्थिरता देखने को मिल सकती है घरेलू कला बाजार और सोना दो निवेश ऐसे हैं जिसमें निवेशकों का विश्वास लगातार बना हुआ है एक अनुमान के मुताबिक भारत का कला बाजार लगभग दो से तीन  हजार करोड़ रुपये का है शेयर बाजार में सुधार के बाद कला बाजार में और बेहतरी की उम्मीद है । कला का भारत में एक बाजार बना लेकिन साहित्य का बाजार होते हुए वो बन नहीं सका । दरअसल हिंदी के लेखकों को बाजार से बेहद तकलीफ है । ये उनका दोहरा रवैया है । रोई भी लेखक जैसे ही किताब छपने के लिए तैयार करता है तो उसकी ख्वाहिश होती है कि वो बिकी । बिकेगी कहां, बाजार में । बाजार में किताब की बिक्री की ख्वाहिश पाले लेखक उसी बाजार का विरोध करते हैं लिहाजा बाजार उनको अपने तरीके से हाशिए पर डाल देता है । बाजार का विरोध ठीक है, आप करो लेकिन फिर उसी से अपेक्षा तो ना करो । दरअसल हिंदी साहित्य में निवेश के पीछे यही मानसिकता जिम्मेदार है । इससे आगे निकलना होगा, वर्ना स्थिति में सुधार की उम्मीद बेमानी है ।