Sunday, December 31, 2023

साहित्य में रामकथा के स्वर


अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के कारण इस समय देश में राम और रामचरित के विभिन्न आयामों पर चर्चा हो रही है। देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित रामकथा पर शोध हो रहे हैं। राम और रामकथा से जुड़ी अनेक पुस्तकें भी प्रकाशित हो रही हैं। उनमें से चयनित पुस्तकों पर एक नजर 

स्वामी मैथिलीशरण इस समय रामकथा के आधिकारिक विद्वान हैं। रामकथा के पात्रों को लेकर उनकी व्याख्या नितांत मौलिक होती है। रामकथा को केंद्र में रखकर उनकी पुस्तक आई है चरितार्थ। लेखक का मत है कि श्रीरामचरितमानस में जिस प्रकार की व्यापकता, निष्पक्षता और पूर्णता है वो अन्यत्र दुर्लभ है। वो कहते हैं कि भारतीय समाज और मानवीय संवेदनाओं का जिस प्रकार से तुलसीदास ने वर्णन किया है वो इस ग्रंथ को ऊंचाई प्रदान करता है। इस पुस्तक में श्रीरामचरितमानस के कई प्रसंग, संवाद और चरित्रों का स्वामी जी ने निरुपण किया है। पुस्तक चार खंडो में विभाजित है जिसमें अस्सी लेख हैं। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठकों को श्रीरामचरितमानस को समझने की एक नई दृष्टि मिल सकती है। 

पुस्तक- चरितार्थ, प्रकाशक- शिल्पायन बुक्स, नई दिल्ली, मूल्य रु 250 

रामायण के पात्रों की काफी चर्चा होती है और विद्वान अलग अलग तरह से इन चरित्रों का ना केवल वर्णन करते हैं बल्कि उसपर अपने अध्ययन के अनुसार टिप्पणियां भी करते हैं। मूल ग्रंथ में वर्णित उनके आचार व्यवहार को लेकर अपनी राय भी प्रकट करते हैं। लेखक और स्तंभकार रामजी भाई तिवारी ने ब्रह्मा जी से लेकर लव-कुश तक रामायण के 108 पात्रों के बारे में विस्तार से लिखा है। इस पुस्तक का केंद्रीय भाव है कि रामराज्य की स्थापना में सभी पात्रों की अपनी भूमिका है जो किसी न किसी तरह से महत्वपूर्ण है। पुस्तक में रामजी भाई ने रामायण की इन कथाओं को इस प्रकार से लिखा है जिससे सामाजिक आदर्श स्थापित हो और पाठक प्रेरित हों। 

पुस्तक- रामायण के पात्र, प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य- रु 900

राम पहले तो कथा के माध्यम से आते हैं लेकिन कब कथा पीछे छूट जाती है और पाठक राम के चरित्र में रम जाते हैं पता ही नहीं चलता। रामकथा की व्यापकता और भारतीय समाज के मानस पर उसका इतना अधिक प्रभाव है कि वो सिर्फ कथा में नहीं बल्कि संगीत, नाटक, नृत्य, शिल्प और चित्रकला में भी अलग अलग रूपों में उपस्थित है। संस्कृति के जानकार और लेखक नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने बुंदेलखंड के विशेष संदर्भ में रामकथा रूपायन नाम की पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में बुंदेलखंड के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में शैलचित्रों और भित्तिचित्रों से सूत्र उठाकर रामचरित की चित्रांकन परंपरा को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने अपनी पुस्तक के अंत में एक चित्रावली भी प्रस्तुत की है और उसका उपलब्ध विवरण भी पाठकों की सुविधा के लिए दिया गया है।    

पुस्तक- रामकथा रूपायन, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, मूल्य रु 3000 

श्रीरामचरित मानस और रामयण को आधार बनाकर तो कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं और कई पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है। लेकिन कुछ लोग रामकथा से जुड़ी अन्य सामग्रियों का संकलन कर पुस्तकाकार प्रकाशित करवा रहे हैं। इंडोलाजिस्ट ललित मिश्र ने श्रमपूर्वक मेवाड़ की रामायण के चित्रों को संकलित कर चित्रमय रामायण का संपादन किया है। चित्रों के साथ टिप्पणियां भी प्रकाशित हैं। मेवाड़ की रामायण को मेवाड़ राजघराने की तीन पीढियों ने तैयार करवाया। इसमें 450 चित्र हैं। लेखक का कहना है कि मेवाड़ के शासकों ने गीतगोविंद, रामायण और अन्य ग्रंथों के चित्रांकन का उपक्रम उस समय भारत के अन्य राजाओं के लिए एक आदर्श बना। इस पुस्तक के चित्र और टिप्पणियां रुचिकर हैं। ये पुस्तक अयोध्या शोध संस्थान ने तैयार करवाई है।  

पुस्तक- चित्रमय रामायण, प्रकाशक- प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली- मूल्य- रु 2200

मनोज सिंह ने आर्यावर्त का इतिहास लिखने के लिए कथात्मक शैली अपनाई। जब उन्होंने मैं आर्यपुत्र हूं लिखी तो उसको सतयुग की प्रामाणिक कथा बताया था। इसी कड़ी में उन्होंने त्रेतायुग की कथा मैं रामवंशी हूं लिखा है। लेखक का मानना है कि हर काल में रामकथा लिखी गई और उन सभी रामकथाओं पर तत्कालीन समय और समाज का प्रभाव भी दिखता है। इस पुस्तक में रामकथा के अलावा भी अनेक कथाएं चलती हैं जो पुस्तक को पठनीय बना देती हैं। लेखक ने भी अपनी इस पुस्तक क सात कांडों, पूर्व कांड से उत्तर कांड तक में विभाजित किया है। पौराणिक कथा कहने की यह प्रविधि पाठकों को श्रीराम के जीवन संस्कार से रोचक अंदाज में परिचिच तकवाती है। 

पुस्तक- मैं रामवंशी हूं, प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य – रु 500     


Saturday, December 30, 2023

शिवपूजन सहाय का हिंदू मन


हाल ही में कांग्रेस पार्टी ने अपने पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की भारत न्याय यात्रा की घोषणा की है। ये यात्रा मणिपुर से आरंभ होकर मुंबई तक जाएगी। इसके पहले भी राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की भारत जोड़ो यात्रा की थी। उस यात्रा का उद्देश्य भारत के विभिन्न समुदायों के बीच फैल रही वैमनस्यता को कम करना था। हिंदू मुसलमान एकता की बात की गई थी। उस यात्रा के समय कांग्रेस और वामपंथी इकोसिस्टम की तरफ से इस तरह का विमर्श स्थापित करने का प्रयास किया गया था कि देश में हिंदू और मुसलमानों के बीच मतभेद की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने बढ़चढ़कर दावा किया था नरेन्द्र मोदी, उनकी पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हिंदू मुसलमान के बीच विभाजन को गाढ़ा करवाकर अपनी राजनीति चमका रहे हैं। ऐसा करके वो सायास मुसलमानों को मन में भय का वातावरण बनाने और हिंदुओं को बरगलाने का काम कर रहे थे। कांग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम से जुड़े लोग पहली बार इस तरह का कार्य कर रहे हों ऐसा नहीं है। स्वाधीनता के बाद से ही इस इकोसिस्टम के लोग साहित्य, कला,संस्कृति और इतिहास लेखन से इस तरह का वातावरण बनाते रहे हैं। साहित्य में तो इस तरह का कार्य धड़ल्ले से हुआ। रामचंद्र शुक्ल हों या प्रेमचंद या निराला, उनके हिंदू जीवन और हिंदू प्रेम पर लिखी रचनाओं को ओझल कर उन सबको जबरदस्ती वामपंथी दिखाने का प्रयास किया गया। जबतक कांग्रेस पार्टी की सरकारें रहीं तो इस इकोसिस्टम को सरकारी संरक्षण मिलता रहा। संस्थाओं पर इनके लोग ही रखे जाते रहे और बदले में वो इस तरह के विमर्श को गाढ़ा करते रहे। तथ्यों की अनदेखी करके लेखन करवाते रहे। जिन भी साहित्यकारों और लेखकों ने हिंदू-मुसलमान संबंधों पर खुलकर लिखा या जिन्होंने राम या अन्य हिंदू देवी-देवताओं का उल्लेख किया, उन लेखों या रचनाओं को ओझल करने का खेल खेला गया। 

बिहार के एक बहुत ही महत्वपूर्ण रचनाकार हुए शिवपूजन सहाय। शिवपूजन बाबू ने विपुल लेखन किया, पत्रिकाओं का संपादन किया लेकिन उनके कृतित्व को हिंदी साहित्य में वो स्थान नहीं मिला जिसके वो अधिकारी हैं। कांग्रेस-वामपंथी इकोसिस्टम से जुड़े आलोचक अगर शिवपूजन सहाय की रचनाओं पर समग्रता में विचार करते तो सच सामने आता। शिवपूजन सहाय का साहित्य समग्र भी उनके पुत्र मंगलमूर्ति के प्रयत्नों से उनके ही संपादन में प्रकाशित हो पाया। शिवपूजन सहाय परम रामभक्त थे। वो अपनी डायरी में सैकड़ों जगह राम, रामकृपा और भगवान की इच्छा जैसी बातें लिखते हैं लेकिन उनके इस लेखन के बारे में बहुत ही कम चर्चा की गई। देश के विभाजन से लेकर चीन युद्ध तक शिवपूजन सहाय ने बेहद कठोर टिप्पणियां कीं। उन्होंने नेहरू से लेकर उनके मंत्री कृष्ण मेनन तक की आलोचना की। लेकिन नेहरू की विराट छवि बनाने में लगे कांग्रेस-वामपंथी इकोसिस्टम ने इन टिप्पणियों को दबा दिया। हमारे देश में सांप्रदायिकता को लेकर भी सहाय की टिप्पणियों को देखने की आवश्यकता है। 22 फरवरी 1946 को शिवपूजन सहाय ने अपनी डायरी में लिखा- आज संध्या समय द्विज जी आए। औरंगाबाद (गया) के मुसलमान भाइयों ने पहले से तैयारी कर रखी थी और जानबूझकर अचानक अकारण सरस्वतीपूजा के मूर्ति विसर्जन के जुलूस पर आक्रमण कर दिया तथा एक निरपराध युवक की तत्काल हत्या कर डाली। यह नृशंसता उनलोगों में प्राय: देखी जाती है। स्वाभाविक है। मांसाहारी विषय विलासी, भ्रष्टाचारी, प्राय: क्रोधी और क्रूर होते हैं। इस वाक्य के दो शब्दों, अचानक और अकारण पर विचार किया जाना चाहिए। शिवपूजन सहाय की इस टिप्पणी से 1946 में बिहार के सामाजिक जीवन में व्याप्त स्थिति का संकेत मिलता है। एक साहित्यकार का आक्रोश भी उसके शब्दों में अभिव्यक्ति पाता है। उनकी ये टिप्पणी शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र में संकलित है। 

हमारा देश अगस्त 1947 में स्वाधीन होता है। कई क्षेत्रों में हिंसा आरंभ हो जाती है। शिवपूजन सहाय साहित्य दर्पण में सितंबर 1947 में प्रश्न उठाते हैं, पंजाब के हिंदुओं और सिक्खों की की दुर्दशा ईश्वरेच्छानुसार है? मनुष्य क्यों कभी घोर संकट में पड़ता है? उनका मन इतना व्यथित है कि वो आगे कहते हैं कि जिन्ना कंस है या रावण? वह नादिरशाह का नाती है या चंगेज खां का चचा है? हिंदू-मुस्लिम एकता तबतक संभव नहीं है जबतक हिंदू संगठन दृढ़ नहीं होता। हिंदुओं में जातिपांति न रहे, स्वच्छता ही रहे। यहां ध्यान देने की आवश्यकता है कि उस समय शिवपूजन सहाय हिंदुओं के संगठित होने की बात कर रहे थे। इसी दिन आगे लिखते हैं कि जात-पांत और छुआछूत का भूत हिंदू को आज चबा रहा है। हिंदू धर्म उदार कहलाता है। मूर्खता से उदारता को चांप रखा है। राम की जैसी इच्छा। स्वाधीनता के तुरंत बाद भी संवेदनशील माने जानेवाले साहित्यकार भी ऐसा ही सोचते थे। यह अकारण नहीं है कि कांग्रेस-वामपंथी इकोसिस्टम के लोग शिवपूजन सहाय जैसे साहित्यकारों की वेदना पर चर्चा नहीं करते। आज एक बार फिर से हिंदुओं को जातियों के बीच बांटने का प्रयास राजनीति और समाज के एक वर्ग द्वारा की जा रही है। आज भी जब देश विभाजन की चर्चा होती है तो शिवपूजन बाबू के लिखे का स्मरण देखने को नहीं मिलता। शिवपूजन सहाय ने निरंतर लिखा। अक्तूबर 1953 में उन्होंने लिखा, मुसलमानों ने देश को बांटा और अब प्रांत-प्रांत, जिले-जिले, मुहल्ले-मुहल्ले को बांटकर असंख्य पाकिस्तान बना डालना चाहते हैं। उर्दू को वो क्षेत्रीय भाषा बनाने का घोर आंदोलन कर रहे हैं। अब भी इस तरह की प्रवृत्ति देखने को मिलती ही रहती है। 

इस तिथि को ही वो आगे लिखते हैं शकों और हूणों को हिंदू पचा गए, पर मुसलमान ही उनकी अंतड़ी के मक्खी बन गए। हिंदुओं में अघोर पंथ भी है पर हिंदू अपनी धार्मिक शक्ति नहीं पहचानते। मुसलमान अब पच नहीं सकते। मुसलमानों भाइयों को अब अपने में मिला लेने की शक्ति अब हममें नहीं रही। यहां पर शिवपूजन सहाय की विवशता साफ तौर पर दृष्टिगोटर होती है। वो हिंदुओं के अपनी धार्मिक शक्ति नहीं पहचानने को लेकर भी चिंतित थे। उस वक्त मुसलमानों के व्यवहार से वो बेहद खिन्न थे और निरंतर लिख रहे थे। शिवपूजन सहाय ने शेख अब्दुल्ला को देशद्रोही तक कहा था। जब शेख अब्दुल्ला के समर्थन में बिहार के मुसलमान चंदा जमा कर रहे थे तो सहाय ने चिंता जताई थी। शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र खंड 7 में अगस्त 1958 में उन्होंने हिंदुओं को अपने धर्म से प्रेम नहीं करने के लिए धिक्कारा भी था, हिंदुओं में धर्म या अपनी भाषा तथा संस्कृति के लिए वैसी ममता नहीं है जैसी मुसलमानों और ईसाइयों में । हिंदुओं में आपसी फूट बहुत है। हिंदू युवकों में भी वह स्पिरिट या भावना नहीं है जो ईसाई और मुसलमान युवकों में है। उन लोगों के पादरी और फकीर भी सचेत हैं। शिवपूजन सहाय की टिप्पणियों से ऐसा प्रतीत होता है कि वो चाहते थे कि हिंदू समाज संगठित हो। जात-पांत से ऊपर उठकर सभी हिंदू अपने देश की उन्नति और राष्ट्र को शक्ति देने के बारे में प्रयत्न करे। आज अगर कोई दल या व्यक्ति इस तरह की बात करें तो कांग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम के लोग उनको संघी, सांप्रदायिक और न जाने किस किस तरह के विशेषणों से जोड़ देते हैं। आज इस तरह की बातें तो छोड़िए अगर कोई अयोध्या के राम मंदिर के बारे में अधिक बातें करने लगे, काशी विश्वनाथ मंदिर पर शोध करने लगे या मथुरा के श्रीकृष्ण जन्म स्थान पर विमर्श आरंभ करे तो उसको भी इकोसिस्टम वाले सांप्रदायिक और देश को तोड़नेवाले विचार-वाहक के तौर पर चिन्हित करने में जुट जाएंगे। आज आवश्यकता है भारत खोजो यात्रा की। उस भारत को जहां हमारी ज्ञान-परंपरा है और जिसे कांग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम ने ओझल कर रखा है। 

Sunday, December 24, 2023

2023 में प्रकाशित कथेतर पुस्तकें


हिंदी साहित्य जगत में अरसे से चर्चा थी कि यतीन्द्र मिश्र फिल्म निर्देशक और गीतकार गुलजार पर पुस्तक लिख रहे हैं। आखिरकार यतीन्द्र मिश्र की बहुप्रतीक्षित पुस्तक इस वर्ष आई। दैनिक जागरण संवादी में इस पुस्तक की पहली झलक पाठकों को देखने को मिली। ये पुस्तक गुलजार की आधिकारिक जीवनी और उनकी रचनात्मकता के विभिन्न आयामों को प्रस्तुत करती है। इसमें विभाजन के बाद विस्थापन का दर्द, संघर्ष और फिल्मों में उनके आरंभिक दिनों से लेकर शीर्ष पर पहुंचने की कहानी है। ये पुस्तक दो भागों में है जिसका नाम गुलजार के गीतों से लिया गया है। पहला भाग हजार राहें मुड़ के देखीं और दूसरा खंड है थोड़ा सा बादल, थोड़ा सा पानी। पहला खंड लगभग साढे तीन पृष्ठों का है, जिसमें लेखक ने गुलजार के जीवन और रचनाकर्म पर रोचक तरीके से लिखा है। दूसरे खंड में गुलजार का बहुत लंबा साक्षात्कार है जो पहले खंड की प्रामाणिकता को पुष्ट करता है। 

पुस्तक- गुलजार सा’ब, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य- रु 1995 

जितेन ठाकुर का नाम समकालीन हिंदी कथाकारों में सम्मान के साथ लिया जाता है। उनकी कहानियों में जो किस्सागोई होती है वो पाठकों को बांधती है। कहानीकार जब संस्मरण लिखता है तो उसका प्रयास होता है कि वो घटनाओं को एक ऐसे कथासूत्र में पिरोए कि पाठकों को रोचक लगे। जितेन ठाकुर ने अपने संस्मरणों की पुस्तक जुगनुओं के मेले में स्वयं को केंद्र में तो रखा तो है लेकिन घटनाओं के उल्लेख के साथ कहानी जब आगे बढ़ती हैं तो ऐसा लगता है कि पाठक वर्णित कालखंड में पहुंच गया हो। जम्मू तहसील के एक युवक की किसान बनने की जिद और उसके शिकारी बन जाने की कथा वो इस तरह से रचते हैं जिसको पढ़ते हुए पाठकों को ये एहसास ही नहीं होता है कि वो अपने पड़दादा की कहानी बता रहे हैं। इंटर कालेज में फीस माफी का प्रसंग हो या नौकरी का संघर्ष, जितेन ठाकुर के कहन का अंदाज निराला है। 

पुस्तक- जुगनुओं के मेले, प्रकाशक- मेधा बुक्स, दिल्ली, मूल्य- रु 200 

साहित्य अकादमी और अन्य पुरस्कारों से सम्मानित वरिष्ठतम लेखक रामदरश मिश्र अपने जीवन के शताब्दी वर्ष में चल रहे हैं। रामदरश मिश्र करीब अस्सी वर्षों से लेखन कर्म में लगे हैं। उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन किया है और अपने रचनाकर्म से उसे समृद्ध भी किया है। उनके शताब्दी वर्ष में आलोचक ओम निश्चल ने उनके जीवन और साहित्य को परखते हुए एक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में ओम निश्चल ने रामदरश मिश्र की कविताओं, गजलों, उपन्यासों और उपन्यासिकाओं पर विचार किया है। इस पुस्तक में ओम निश्चल जी ने रामदरश मिश्र से जुड़े संस्मरण भी लिखे हैं जो अपने मोहक गद्य की ववजह से पठनीय हैं। इस पुस्तक में रामदरश मिश्र जी के विभिन्न अवसरों पर लिए गए साक्षात्कार भी संकलित हैं। कहना न होगा कि ये पुस्तक रामदरश मिश्र के लंबे लेखकीय जीवन को जानने समझने की कुंजी है। 

पुस्तक- रामदरश मिश्र, जीवन और साहित्य, प्रकाशक- सर्वभाषा प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य- रु 449

जनरल रावत ने भारत के पहले चीफ आफ डिफेंस स्टाफ यानि तीनों सेनाओं के प्रमुख का दायित्व संभाला और प्रखरता और तेजस्विता के साथ नेतृत्व किया। जनरल रावत ऐसे देशभक्त सैनिक थे जिनको ना केवल अपने देश के सैनिकों पर भरोसा था बल्कि अपने विज्ञानियों के सामर्थ्य पर विश्वास भी था। उन्होंने भारतीय सेना में सुधारों के अलावा मेक इन इंडिया पर खासा जोर दिया। डीआरडीओ और सेना के बीच के अंतर्विरोधों को दूर करके उन्होंने देसी सैन्य साजो समान के उत्पादन की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया। अपने सैन्य प्रमुख के कार्यकाल में उन्होंने सिरक्षा बलों के साथ साथ सुरक्षा तंत्र के आधुनिकीकरण की दिशा में बहुत योगदान किया। हेलीकाप्टर दुर्घटना में उनका निधन हो गया। ऐसे चीफ आफ डिफेंस स्टाफ के पराक्रमी और प्रेरक जीवन गाथा को मनजीत नेगी ने कलमबद्ध किया। इस पुस्तक में सैन्य जीवन के अलावा उनकी जिंदगी के महत्वपूर्ण पड़ावों को भी लेखक ने रोचक तरीके से रेखांकित किया है। 

पुस्तक- महायोद्धा की महागाथा, प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, मूल्य- रु 500

भारतीय ज्ञान परंपरा में गीता एक ऐसा ग्रंथ है जिसपर कई मनीषियों ने विचार किया है, जिसमें चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से लेकर विनोबा भावे तक शामिल हैं। उनके बाद भी कई विद्वानों ने गीता को अपने तरीके से व्याख्यित करने का प्रयास किया। हाल में लेखक और प्रशासनिक अधिकारी विजय अग्रवाल ने भी अपनी नई पुस्तक गीता का ज्ञान के माध्यम से इस ग्रंथ को अपनी तरह से व्याख्यित किया है। इसके विभिन्न अध्यायों में कर्म को केंद्र में रखकर उन्होंने अपनी स्थापना दी है। कर्म के अलावा उन्होंने मन और पहचान को भी अपनी पुस्तक में प्रमुखता दी है और गीता के श्लोकों के आधार पर उसका विवरण प्रस्तुत किया है। विजय अग्रवाल की पुस्तक की शैली और व्याख्या के तरीके को देखकर लगता है कि लेखक ने युवाओं को ध्यान में रखकर इसको लिखी है। 

पुस्तक- गीता का ज्ञान, प्रकाशक- बेंतेन बुक्स, भोपाल, मूल्य- रु 350


Saturday, December 23, 2023

लाल झंडा थामने को आतुर 'हाथ'


हाल ही में जब नई दिल्ली में विपक्षी दलों के गठबंधन आईएनडीआईए की बैठक हुई तो राहुल गांधी और सीताराम येचुरी की साथ बैठी तस्वीरें सामने आईं। इसी तरह जब विपक्षी दलों के नेता नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर सांसदों के निलंबन पर विरोध जताने के लिए जुटे तो उसमें भी राहुल गांधी और सीताराम येचुरी एक दूसरे का हाथ थामे नजर आए। इन दोनों जगहों पर कांग्रेस और कम्युनिस्टों की निकटता ही नहीं दिखी बल्कि उनके साथ में एक विशेष प्रकार का उत्साह भी दिखा। इस प्रसंग की चर्चा इस कारण से कर रहा हूं कि कुछ दिनों पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अजीत कुमार पुरी की पुस्तक स्वतंत्रता संग्राम, समाजवाद और श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी के लोकार्पण समारोह में उपस्थित रहने का अवसर मिला। कार्यक्रम में मुझे भी पुरी जी की पुस्तक और श्रीरामवृक्षबेनीपुरी जी पर बोलना था। इस वजह से समारोह में जाने के पहले बेनीपुरी की डायरी के पन्ने को पलट रहा था। अचानक नजर एक जगकह जाकर रुकी, तारीख थी, 11 दिसंबर 1957। उस दिन बेनीपुरी जी ने अपनी डायरी में लिखा, आज बेनीपुर से पटना लौट रहा हूं। इधर 15 नवंबर से ही भाई अशोक मेहता के चुनाव के चक्कर में रहा। वह मुजफ्फरपुर-सदर निर्वाचन क्षेत्र से पार्लियामेंट के उम्मीदवार थे। आज से मतगणना शुरू हुई है, तीन थानों में आधे निर्वाचन क्षेत्र में 2700 वोट से जीत गए हैं। आधे में भी विजयी होंगे, ऐसा विश्वास है। दरअसल बेनीपुरी जी प्रख्यात समाजवादी नेता अशोक मेहता के चुनाव की बात कर रहे थे। 1957 में अशोक मेहता ने बिहार के मुजफ्फरपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। उस समय समाजवादी नेता अशोक मेहता का कम्युनिस्टों ने विरोध किया था और कांग्रेस के उम्मीदवार नहीं खड़ा करने की घोषणा के बाद भी अपना उम्मीदवार खड़ा कर अपनी पार्टी के असली चरित्र के दर्शन करवाए थे। तब मतपत्रों से चुनाव होता था और उसकी गिनती में कई दिन लग जाते थे।

उसी दिन डायरी में बेनीपुरी जी ने आगे लिखा, अजीब चुनाव रहा यह। भाई अशोक की विद्वता का ख्याल करके कांग्रेस ने यह सीट छोड़ दी। साथियों ने सोचा, अब क्या है, आसानी से विजय मिल जाएगी। किंतु बीच में कम्युनिस्ट आ टपके। हमारे किशोरी भाई उनके उम्मीदवार! फिर क्या था, सिद्धांत गया ताखे पर- जाति के नाम पर, जिले के नाम पर वह बावला मचाया गया, कि हम चकित रहे और प्रांत भर के कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गांव-गांव में डेरे डालकर पड़ गए। कोई भी उपाय नहीं छोड़ा गया। हमें कदम कदम पर लड़ना पड़ा। आज की गणना से थोड़ा इत्मीनान हुआ। ...कांग्रेस कार्यकर्ताओं का कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन देखकर हैरान रह जाना पड़ा। अशोक हमारी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के यशस्वी संपादक। विचारक अर्थशास्त्री। श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी की इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि उस चुनाव में कम्युनिस्टों ने सिद्धांत को ताखे पर रख दिया था। जातिवाद और प्रांतवाद का खेल जमकर खेल गया था। दरअसल अशोक मेहता बांबे (अब मुंबई) के थे और बिहार से आकर चुनाव लड़ रहे थे। वो दौर ऐसा था कि कई अन्य प्रांतों के नेता बिहार से आकर चुनाव लड़ते थे। मधु लिमय ने मुंगेर से और जार्ज फर्नांडिस ने मुजफ्फरपुर और बांका से चुनाव लड़ा था। जीते भी थे। बेनीपुरी की डायरी में दर्ज इस टिप्पणी पर गौर करना चाहिए कि कांग्रेस और कम्युनिस्टों के गठबंधन को देखकर उनको हैरानी हुई थी। हैरानी दरअसल कम्युनिस्टों की उस राजनीति को देखकर हुई थी जिसमें उन्होंने जाति और प्रांत का कार्ड खेला था। असामनता और विभेद की राजनीति का दंभ भरनेवाली विचारधारा का असली चेहरा खुला था। 

12 दिसंबर 157 को श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी ने अपनी डायरी में बहुत छोटी सी टिप्पणी दर्ज की। लिखा, और वही होकर रहा, अशोक जीत गए। चौदह हजार वोटों से। कम्युनिस्ट हारे, जातिवाद की हार हुई, प्रांतवाद की हार हुई। अशोक की जीत, जनतंत्र की जीत, समाजवाद की जीत, राष्ट्रीयता की जीत, विद्वता की जीत, देशभक्ति की जीत! हिप-हिप हुर्रे!! इस पूरी टिप्पणी से बेनीपुरी की प्रसन्नता दिख रही है। कम्युनिस्टों की हार को उन्होंने जातिवाद और प्रांतवाद की हार से जोड़ा और अशोक की जीत को उन्होंने राष्ट्रीयता और देश भक्ति के साथ समाजवाद और विद्वता से जोड़ा। भारत में जो समाजवाद पनपा वो साम्यवाद से अलग था। उसमें देशभक्ति और राष्ट्रीयता के गुण और भारतीयता कूट कूट कर भरी थी। बहुधा ये बेनीपुरी के लेखन में दिखती भी है। एक बार बेनीपुरी कलकत्ता (अब कोलकाता) गए। वहां बंगीय परिषद की सभा में उन्होंने सीता की मां नाम की रचना सुनाई। फिर पत्रकारों की एक सभा हुई उसमें कम्युनिस्टों ने कुछ उल्टा पुल्टा बोल दिया तो बेनीपुरी भड़क गए। उन्होंने लिखा है, पत्रकारों की ओर से जो सभा हुई, उसमें कम्युनिस्टों ने कुछ ऊटपटांग बातें कहीं। बस, मेरा देवता जाग गया और लोगों ने कहा कि मैंने बड़ा ही ओजपूर्ण भाषण दिया। कितनी खूबसूरती से उन्होंने बताया कि कम्युनिस्टों की क्या गत की। 

बेनीपुरी जी कम्युनिस्टों की मौकपरस्त राजनीति से खिन्न रहते थे। उनको लगता था कि कम्युनिस्ट कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। इस तरह के संकेत उनकी डायरी के पन्ने में यत्र-तत्र बिखरे हैं। समाजवादी लोग राष्ट्र और भारतीय संस्कृति के साथ चलनेवाले थे जबकि साम्यवादियों की राष्ट्र में आस्था न थी, न है। बेनीपुरी शाश्वत भारत या सांस्कृतिक भारत की बात करनेवाले लेखक और राजनेता थे। वो इस सांस्कृतिक भारत के खान पान, रहन सहन, गीत-नृत्य, पर्व-उत्सव, आनंद-विनोद आदि में एकात्मता देखते थे । उनका मानना था कि राजनीतिक उलटफेरों के बावजूद संपूर्ण भारत में आदिकाल से एक अविच्छिन्न सांस्कृतिक धारा प्रवाहित होती रही है। समय समय पर उसका चित्रण किया जाना चाहिए। बेनीपुरी जब भी इस सांस्कृतिक धारा में किसी प्रकार की बाधा देखते या बाधा की आशंका को भांपते तो उसका सार्वजनिक रूप से लिखकर और बोलकर प्रतिकार करते। मुजफ्परपुर लोकसभा चुनाव के समय कम्युनिस्टों और कांग्रेस के साथ आने पर उन्होंने तब भी कहा था और बाद में भी कहते रहे।

हलांकि कांग्रेस ने कम्युनिस्टों का स्वाधीनता के बाद से ही साथ लेना आरंभ कर दिया था। नेहरू का झुकाव साम्यवाद की ओर था और उसके ऐतिहासिक कारण थे। इंदिरा गांधी ने भी कम्युनिस्टों का साथ लिया, समर्थन के एवज में उनको कला संस्कृति और शिक्षा से जुड़ी सरकारी संस्थाएं आउटसोर्स कर दीं। लेकिन इन दोनों ने कभी भी कम्युनिस्टों को हावी नहीं होने दिया। जब आवश्यकता पड़ी कम्युनिस्टों का अपनी और अपनी राजनीति के हक में उपयोग किया, उनको उसका ईनाम दिया और फिर आगे चल पड़े। हाल के दिनों में जिस प्रकार से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की कम्युनिस्टों से निकटता बढ़ी है, जिस प्रकार से कम्युनिस्ट विचारधारा वाले लोग कांग्रेस पार्टी को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं वैसे में ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस की राजनीतिक चालें भी वहीं लोग तय कर रहे हैं। दरअसल ऐसा तब होता है जब पार्टी में विचारवान नेताओं की कमी हो जाती है। उनको अपनी राजनीतिक राय बनाने के लिए किसी के सहारे की जरूरत होती है। कम्युनिस्टों की एक विशेषता है कि वो बातें बड़ी अच्छी करते हैं, गरीबों और मजदूरों की बातें करते हैं जो किसी को भी लुभाने का सामर्थ्य रखती हैं। सैद्धांतिक धरातल पर इन बातों का असर होता भी है लेकिन जब उनको यथार्थ की धरातल पर उतारने की बात आती है तो सारे सिद्धांत धरे रह जाते हैं। वो भी जात-पात और अन्य प्रकार की बातें करने लग जाते हैं। बेनीपुरी जी जैसे और उनके बाद की पीढ़ी के लेखकों का ना केवल साम्यवाद से मोहभंग होता है बल्कि साफ तौर पर बगैर हिचके सिद्धांतों को ताखे पर रखने की बात भी कह जाते हैं। 

Saturday, December 16, 2023

बढ़ती और ढ़लती उम्र का गणित


मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद भारतीय जनता पार्टी ने लंबे विमर्श और मंथन के बाद तीनों प्रदेशों में अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व को कमान सौंपी। मध्यप्रदेश में अट्ठावन वर्षीय मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया गया। इसी तरह से राजस्थान में छप्पन वर्ष के भजनलाल शर्मा को मुख्यमंत्री और बावन वर्षीया दीया कुमारी और चौव्वन वर्षीय प्रेमचंद बैरवा को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया। छत्तीसगढ़ में भी उनसठ साल के विष्णुदेव साय को मुख्यमंत्री और पचपन वर्षीय अरुण साव और पचास वर्षीय विजय शर्मा को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया। जबकि इन राज्यों में शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह जैसे दिग्गज सक्रिय थे। राजनीतिक हलकों में इस बात की चर्चा होने लगी कि भारतीय जनता पार्टी ने दूसरी पंक्ति के नेतृत्व को तैयार करना आरंभ कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी पूर्व में भी इस तरह के प्रयोग करती रही है। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने अड़तीस साल की स्मृति इरानी को कैबिनेट मंत्री बनाया और चालीस वर्षीय अनुराग ठाकुर को मंत्रिमंडल में शामिल किया। अन्य दलों में भी ये देखने को मिलता रहा है। कांग्रेस पार्टी ने भी हिमाचल प्रदेश के विधानसभा में जीत दर्ज की तो साठ वर्ष से कम आयु के सुखविंदर सिंह सुक्खू को मुख्यमंत्री बनाया। अभी तेलांगना में भी चौव्वन वर्ष के रेवंत रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाया गया। यह अलग बात है कि कांग्रेस पार्टी में जब कई वर्षों के बाद पार्टी अघद्यक्ष पद के लिए चुनाव हुए तो अस्सी वर्ष से अधिक आयु के मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी की पसंद बने । 

राजनीति में तो ऐसा देखने को मिलता है कि पार्टियां अपने युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाने के लिए अपेक्षाकृत अधिक उम्र के नेताओं को अलग तरह की जिम्मेदारियां देती हैं। अधिक उम्र होने पर या राजनीति  मुख्यधारा से कट जाने के बाद नेताओं को राज्यपाल बनाने की परंपरा रही है। या नौकरशाह जब सेवानिवृत्त हो जाते हैं तो उनको भी राज्यपाल जैसे पद पर नियुक्त किया जाता रहा है। कई बार चुनाव हारने के बाद भी नेताओं को दरकिनार कर दिया जाता है या संगठन में भेजकर उनकी प्रतिभा का उपयोग किया जाता है। राजनीति के सामने अगर फिल्मी दुनिया को देखें तो वहां बढ़ती उम्र के बावजूद सिनेमा में काम करने की ललक जाती नहीं है। चेहरे पर स्पष्ट रूप से उम्र दिखने, चाल-ढाल, हाव-भाव में उम्र के हावी होने और दर्शकों के नकार के बावजूद रूपहले पर्दे पर बने रहने की कोशिशें जारी रहती हैं। अधिक पीछे नहीं जाते हुए अगर हाल के नायकों को देखें तो भी इस तरह की प्रवृत्ति नजर आती है। अभिनेता आमिर खान लगभग 59 वर्ष के हो रहे हैं। उनकी आखिरी हिट फिल्म 2016 में आई थी दंगल। उसके बाद उनकी दो महात्वाकांक्षी फिल्मों लाल सिंह चड्ढा और ठग्स आफ हिंदोस्तान को दर्शकों ने बुरी तरह से नकार दिया, लेकिन अब भी इस तरह की खबरें आती रहती हैं कि उनकी कोई नई फिल्म आनेवाली है। फिल्म लाल सिंह चड्ढ़ा में उन्होंने अपने से करीब पंद्रह वर्ष छोटी अभिनेत्री के साथ काम किया तो ठग्स आफ हिंदोस्तान में करीब बीस वर्ष छोटी अभिनेत्री के साथ। सात वर्षों से कोई फिल्म हिट नहीं हो रही, उम्र का असर दिख रहा है लेकिन फिल्मों में बने रहने की चाहत है। 

दूसरा उदाहरण शाहरुख खान का है। उनकी हालिया दो फिल्में अवश्य हिट रही हैं लेकिन उसके पहले उनकी भी फिल्में नहीं चल पा रही थीं। उनकी उम्र भी आमिर खान जितनी ही है। तीसरे खान सलमान खान हैं। ये शाहरुख खान से एक वर्ष छोटे हैं लेकिन सत्तावन वर्षीय अधेड़ अभिनेता की फिल्में भी उतनी नहीं चल पा रही हैं जितनी युवावस्था में चला करती थी। दर्शकों में सलमान खान को लेकर जो दीवानगी देखने को मिलती थी वो इन दिनों नहीं दिख रही है। भारत और ट्यूबलाइट जैसी फिल्में दर्शकों को नहीं भाईं। बावजूद इसके लगातार फिल्में कर रहे हैं। एक और इसी उम्र के अभिनेता हैं अक्षय कुमार। उनकी एक के बाद एक छह फिल्में लगातार पिटीं लेकिन अब भी उनके पास फिल्मों की कतार लगी हुई है। बच्चन पांडे, सम्राट पृथ्वीराज, रक्षाबंधन, रामसेतु, सेल्फी, मिशन रानीगंज को दर्शकों ने पसंद नहीं किया। बावजूद इसके अक्षय कुमार युवा अभिनेता बनने की होड़ में शामिल हैं। अपनी से आधी उम्र की अभिनेत्री मानुषी के साथ महात्वाकांक्षी फिल्म सम्राट पृथवीराज को दर्शकों ने नकारा। बच्चन पांडे से लेकर मिशन रानीगंज तक सिर्फ एक फिल्म ओमएमजी-2 चली लेकिन ये पंकज त्रिपाठी की फिल्म मानी जाएगी। अक्षय कुमार तो इसमें बहुत कम देर के लिए हैं। बावजूद इसके अगले वर्ष अक्षय की बतौर हीरे पांच नई फिल्मों की चर्चा है। अक्षय कुमार कहते भी हैं कि वो एक फिल्म के लिए 40 दिन का ही समय निकाल सकते हैं।  

राजनीति में जब नेतृत्व कमजोर होता है और वो पीढ़ीगत बदलाव करना चाहता है तो कई बार विद्रोह के स्वर सुनाई पड़ते हैं। लेकिन जब नेतृत्व सबल होता है तो पीढ़ीगत बदलाव सहज दिखता है। जैसा कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में देखने को मिला। फिल्मों में पीढ़ीगत बदलाव तभी दिखता है जब अभिनेता को निरंतर नकार का सामना करना पड़ता है। फिल्मों में भूमिका में बदलाव करके प्रासंगिक बना रहा जा सकता है। इसके सबसे बड़े उदाहरण अमिताभ बच्चन हैं जिन्होंने अपनी भूमिकाओं के चयन में अपनी उम्र का ख्याल रखा और तब जाकर दर्शकों ने उनको पसंद किया। बढ़ती उम्र के साथ वो लाल बादशाह और जादूगर जैसी फिल्में करने लगे थे तो एक समय ऐसा लगने लगा था कि बतैर हीरो उनकी पारी समाप्त हो गई है। राजेश खन्ना ने ढ़लती उम्र के साथ जीना नहीं सीखा। असफलता का सामना नहीं कर पाए। खुद को नशे के दलदल मे डुबो लिया। अगले वर्ष अगर अक्षय कुमार नहीं संभल पाए और उनकी फिल्में नहीं चलीं तो उनके सामने भी यही संकट खड़ा हो जाएगा। आमिर खान के सामने भी यही चुनौती है। शाहरुख की फिल्म डंकी अगर नहीं चल पाई तो पिछली दो फिल्मों की सफलता के धुलने का खतरा है। 

राजनीति और फिल्म दोनों में बढ़ती और ढ़लती उम्र का गणित और उसके परिणाम का आकलन जरा कठिन होता है। एक जगह कुर्सी से चिपके रहने की ख्वाहिश बनी रहती है,सत्ता सुख भोगने की चाहत होती है तो दूसरी जगह रूपहले पर्द पर मेकअप आदि के सहारे नायक बने रहने की जुगत। अब तो तकनीक के सहारे चेहरे की त्वचा आदि को भी ठीक किया जा सकता है। फिल्मी अभिनेता इस तकनीक का उपयोग करके और अपने से आधी उम्र की नायिकाओ के साथ काम करके जवान दिखना चाहते हैं। उम्र बढ़ना प्राकृतिक है। बढ़ती उम्र के साथ अपनी भूमिका में बदलाव करना और उसको यथार्थवादी बनाना व्यक्ति पर निर्भर करता है। चाहे नेता हो या अभिनेता जो इसको जितनी जल्दी समझ लेता है उसकी जिंदगी बहुत शांतिपूर्व चलती है। अभिनेत्रियों में इसका उदाहरण काजल हैं। जब वो अपने करियर के शीर्ष पर थीं तो उन्होंने विवाह करके घर बसा लिया। विवाह के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन किया और अब अपनी उम्र के हिसाब से भूमिकाओं का चयन करके फिर से मनोरंजन की दुनिया में वापस आई हैं। हमारे ग्रंथों में भी कहा गया है कि जो समय को पहचान लेता है और उसके हिसाब से अपने को ढाल लेता है वो निरंतर सफल होता है। समय और परिस्थिति के हिसाब से अपने को बदल लेना ही उचित होता है। अगर कोई समय और परिस्थिति के अनुसार नहीं बदला पाता है तो समय उसको बदल देता है। समाज, राजनीति या सिनेमा में समय से टकराकर कोई आगे बढ़ सका हो, ऐसा उदाहरण याद नहीं पड़ता।  


Saturday, December 9, 2023

मोदी विजय रथ को रोक पाएंगे राहुल?


राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर चर्चा आरंभ हो गई है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के हौसले बुलंद हैं। उन्होंने लोकसभा चुनाव में हैट्रिक का विमर्श शुरु कर दिया है। उधर कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों में मायूसी का वातावरण है। तेलांगना के विधानसभा चुनाव में जीत के बावजूद कांग्रेस पार्टी अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार नहीं कर पा रही है। कुछ दिनों पूर्व बने विपक्षी दलों के गठबंधन आईएनडीआईए को लेकर कुछ ठोस सामने नहीं आ रहा है। विशेषज्ञ ऐसा होगा तो ऐसा होगा के तर्कों के सहारे भारतीय जनता पार्टी की कठिनाइयों को गिनाने में लगे हैं। चुनावी विश्लेषक विधानसभा चुनाव में विपक्षी दलों को मिले वोटों की संख्या के आधार पर लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के सामने चुनौती पेश करने का प्रयास कर रहे हैं। यही विश्लेषक ये कहते हुए नहीं थकते थे कि विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में मतदान का पैटर्न अलग होता है। स्मरणीय है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा का चुनाव हार गई थी लेकिन अगले ही वर्ष 2019 में जब लोकसभा का चुनाव हुआ तो भारतीय जनता पार्टी को 2014 में मिली सीटों से अधिक सीटें प्राप्त हुईं। इसी तरह से दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को बंपर जीत मिली थी लेकिन लोकसभा चुनाव में सातों सीट पर भारतीय जनता पार्टी ने जीत का परचम लहराया। आंकड़ों से संकेत तो मिल सकते हैं लेकिन उसे परिणाम का सटीक आकलन नहीं लग सकता है। 

लोकसभा के चुनाव में जनता यह तय करती है कि कौन सा नेता ऐसा है जो राष्ट्रीय नेतृत्व प्रदान कर सकता है। वैश्विक मंच पर राष्ट्रीयय हित को मजबूती से पेश कर सकता है। पूरे देश को साथ लेकर चल सकता है और जिसकी नीतियों से देश का विकास होगा। किस नेतृत्व में स्थायित्व और स्थिरता प्रदान करने की क्षमता है। वर्तमान राजनीति परिदृष्य में नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सर्वमान्य नेता हैं और पार्टी 2024 का लोकसभा चुनाव मोदी के नेतृत्व में लड़ेगी। विपक्ष में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है और उसकी उपस्थिति हर राज्य मैं है। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भले ही मल्लिकार्जुन खड़गे हैं लेकिन अगर प्रधानमंत्री बनने की नौबत आई तो राहुल गांधी ही आगे आएंगे। आईएनडीआईए में भी सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण कांग्रेस का नामित नेता ही उसका नेतृत्व कर सकता है। यहां भी राहुल गांधी का ही नाम आ सकता है। इस बात की संभवाना कम है कि राहुल गांधी किसी अन्य के नेतृत्व में 2024 के लोकसभा चुनाव मैदान में जाएं। राहुल गांधी के कुछ स्वयंभू सलाहकार और गठबंधन के कुछ दल राहुल गांधी के नाम पर असहमति जता सकते हैं लेकिन जिस प्रकार अन्य दलों के नेताओं के नाम पर मतभिन्नता है उसमें राहुल के नाम पर ही मतैक्य हो सकता है। विपक्षी गठबंधन नेतृत्व के प्रश्न को लोकसभा चुनाव के बाद के लिए टालने की घोषणा कर सकते हैं लेकिन उसका कोई लाभ होगा, इसमें संदेह है। स्वाभाविक है कि विपक्षी गठबंधन मजबूरी में ही सही लेकिन राहुल गांधी को नेता चुन सकते हैं। अगर राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्षी दलों का गठबंधन आईएनडीआए चुनाव मैदान में जाता है तो फिर मुकाबला नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के बीच होगा। 

राहुल गांधी के बारे में देश में एक राय है। कांग्रेस पार्टी में भी। सोमवार को पूर्व राष्ट्रपति और लंबे समय तक कांग्रेस पार्टा के महत्वपूर्ण नेता रहे प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी की पुस्तक बाजार में आ रही है। पुस्तक का नाम है प्रणब, माई फादर। इस पुस्तक में सोलह स्थानों पर राहुल गांधी का उल्लेख है और कई स्थानों पर तो प्रणब मुखर्जी के डायरी के अंश भी उद्धृत किए गए हैं। प्रणब मुखर्जी की डायरी के अंश संभवत: पहली बार सार्वजनिक होने जा रहे हैं। प्रसंग 29 जनवरी 2009 के कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक का है।  प्रणब मुखर्जी अपनी डायरी में लिखते हैं, राहुल गांधी ने गठबंधन के विरोध में अपनी बात जोशीले अंदाज में रखी। मैंने (प्रणब) उनसे कहा कि जोश तो ठीक है लेकिन अपने आयडिया को विस्तार से कारण समेत व्याख्यायित करें। प्रणब मुखर्जी के इतना कहने पर राहुल गांधी ने उनकी तरफ देखा और कहा कि वो उनसे अलग से बात कर लेंगे। उसके बाद प्रणब मुखर्जी ने राहुल के बारे में अपनी डायरी में लिखा कि वो बेहद शिष्ट हैं और उनके मन में काफी प्रश्न कुलबुलाते रहते हैं जो ये दर्शाते हैं कि वो सीखना चाहते हैं लेकिन अभी राहुल गांधी को राजनीतिक रूप से परिपक्व होना बाकी है। परिपक्वता के प्रश्न पर ही प्रणब मुखर्जी 27 सितंबर 2013 की एक घटना का उदाहरण देते हैं। उस दिन राहुल गांधी दिल्ली में अजय माकन के एक प्रेस कांफ्रेंस में पहुंच गए थे और उन्होंने एक अध्यादेश की काफी सार्वजनिक रूप से फाड़ दी थी। भन्नाए प्रणब मुखर्जी लिखते हैं कि राहुल गांधी खुद को क्या समझते हैं? वो कैबिनेट के सदस्य नहीं हैं। वो होते कौन हैं जो कैबिनेट के निर्णय को सार्वजनिक रूप से फाड़ डालें। प्रदानमंत्री विदेश में हैं। उनको(राहुल) को इस बात का अनुमान भी है कि उनके इस कदम का परिणाम और प्रधानमंत्री पर क्या असर होगा? राहुल को प्रधानमंत्री को इस तरह अपमानित करने का अधिकार किसने दिया? राहुल में गांधी-नेहरू खानदान से होने अहंकार तो है लेकिन राजनीतिक कौशल नहीं। कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन उपाध्यक्ष की इस हरकत को लेकर प्रणब मुखर्जी बेहज नाराज दिखते हैं और कहते हैं कि राहुल का यह कार्य कांग्रेस पार्टी के लिए ताबूत की आखिरी कील साबित हुई। वो प्रश्न उठाते हैं कि लोग कांग्रेस को इसके बाद वोट क्यों देंगे। वो इस बात को लेकर स्पष्ट नहीं हैं कि राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी को फिर से सक्रिय कर पाएंगे। वो लिखते हैं कि सोनिया जी राहुल को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहती हैं लेकिन उनमें (राहुल) करिश्मा और राजनीतिक समझ की कमी के कारण कठिनाई हो रही है। 

राहुल गांधी को लेकर सिर्फ प्रणब मुखर्जी की ही ये राय नहीं है। अपनी पुस्तक अमेठी संग्राम लिखने के दौरान मैंने युवक कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष से बात की थी तो उन्होंने भी कमोबेश इसी तरह की बात कही थी। उन्होंने जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही थी वो ये राहुल गांधी अगर किसी नेता से नाराज होते हैं तो वो उसको दंडित नहीं करते हैं और जब खुश होते हैं तो पारितोषिक भी नहीं देते। खफा होने से उससे बातचीत बंद कर देते हैं जिसका नुकसान संगठन को होता है। दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी हैं जो दोनों स्थितियों में निर्णय लेते हैं। 2024 का लोकसभा चुनाव अगर नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी होता है तो आज की स्थिति में मोदी का हैट्रिक तो तय ही है। राहुल गांधी या आईएनडीआईए को अगर नरेन्द्र मोदी को चुनौती देनी है तो उनको एक परिपक्व राजनीतिक चेहरा ढूंढकर उसपर सभी दलों के बीच सहमति बनानी होगी। उस नेता को अपनी  नीतियों और विजन को जनता के सामने रखना होगा। आईएडीआईए ने अबतक दो ढाई दिन ही काम किया है। विपक्षी गठबंधन की तरफ से हाल ही में एक बैठक आहूत करने का समाचार आया था लेकिन अज्ञात कारणों से वो बैठक टाल दी गई। आमचुनाव में छह महीने से भी कम समय बचा है। भारतीय जनता पार्टी अपनी चुनावी तैयारियां कर चुकी है लेकिन विपक्षी गठबंधन को बहुत कुछ करना शेष है। अगर विपक्ष ने समय का सदुपयोग नहीं किया तो परिणाम हैट्रिक की ओर ही जाता दिख रहा है। 


Saturday, December 2, 2023

विखंडनवादियों का नया राजनीतिक पैंतरा


ऐसा बताया गया कि केरल के मुख्यमंत्री कामरेड पिनयारी विजयन ने केरल में आयोजित कटिंग साउथ नाम से आयोजित कार्यक्रम का न केवल शुभारंभ किया बल्कि इसमें भाषण भी दिया। ये कहना था प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक जे नंदकुमार का । प्रज्ञा प्रवाह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित सांस्कृतिक संगठन है। वे लखनऊ में आयोजित दैनिक जागरण संवादी के पहले दिन के एक सत्र में शामिल हो रहे थे। उन्होंने प्रश्न उठाया कि किस साउथ को कहां से काटना चाहते हैं कटिंग साऊथ वाले ? क्या दक्षिण भारत को उत्तर भारत से काटना चाहते हैं? कटिंग साउथ के नाम से जो आयोजन हुआ उसको ग्लोबल साउथ से जोड़ने का प्रयास अवश्य किया गया लेकिन उसकी प्रासंगिकता स्थापित नहीं हो पाई। जे नंदकुमार ने अपनी टिप्पणी में इसको विखंडनवादी कदम करार दिया और जोर देकर कहा कि इस तरह के नाम और काम से राष्ट्र में विखंडनवादी प्रवृतियों को बल मिलता है। उन्होंने इसको वामपंथी सोच से जोड़कर भी देखा और कहा कि वामपंथी विचारधारा राष्ट्र में विश्वास नहीं करती है इसलिए इसको मानने वाले इस तरह के कार्य करते रहते हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह के सोच का निषेध करने के लिए और राष्ट्रवादी ताकतों को बल प्रदान के लिए दिल्ली और दक्षिण भारत के कई शहरों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ब्रिजिंग साउथ के नाम से आयोजन करेगी। ब्रिजिंग साउथ के नाम से आयोजित होने वाले इन कार्यक्रमों में केंद्रीय मंत्रियों के शामिल होने के संकेत भी दिए गए। 

कटिंग साउथ मीडिया के नाम पर मंथन का एक कार्यक्रम है लेकिन अगर सूक्ष्मता से विचार करें तो इसके पीछे का जो सोच परिलक्षित होता है वो विभाजनकारी है। कहा भी जाता है कि कोई कार्य या कार्यक्रम अपने नाम से अपने जनता के बीच एक संदेश देने का प्रयत्न करती है। एक ऐसा संदेश जिससे जनमानस प्रभावित हो सके। ये दोनों कार्यक्रमों के नाम से ही स्पष्ट है। दोनों के संदेश भी स्पष्ट हैं। आज जब भारत में उत्तर और दक्षिण का भेद लगभग मिट सा गया है तो कुछ राजनीति दल और कई सांस्कृतिक संगठन इस भेद की रेखा को फिर से उभारना चाहते हैं। कभी भाषा के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर कभी जाति के नाम पर तो कभी किसी अन्य बहाने से। कभी सनातन के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करके तो कभी हिंदू देवी देवताओं के नाम पर अनर्गल प्रलाप करके। वैचारिक मतभेद अपनी जगह हो सकते हैं, होने भी चाहिए लेकिन जब बात देश की हो, देश की एकता और अखंडता की हो, देश की प्रगति की हो या फिर देश को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मजबूती प्रदान करने की हो तो राजनीति को और व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर देश के लिए सोचने और एकमत रखने की अपेक्षा की जाती है। देश की एकता और अखंडता के प्रश्न पर राजनीति करना या उसको सत्ता हासिल करने का हथियार बनाना अनुचित है। यह इस कारण कह रहा हूं क्योंकि अभी पांच राज्यों के विधानसभा के चुनाव हुए हैं और आगामी छह महीने में लोकसभा के चुनाव होने हैं। जब जब कोई महत्वपूर्ण चुनाव आते हैं तो इस तरह की विखडंनवादी ताकतें सक्रिय हो जाती हैं। 

आपको याद होगा कि जब 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव होनेवाले थे तो उसके पहले इस तरह का ही एक आयोजन किया गया था जिसका नाम था डिसमैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व। 2021 के उत्तरार्ध में अचानक तीन दिनों के आनलाइन सम्मेलन की घोषणा की गई थी। वेबसाइट बन गया था, ट्विटर (अब एक्स) अकाउंट पर पोस्ट होने लगे थे। उस कार्यक्रम में तब असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी के प्रपंच में शामिल लोगों के नाम भी सामने आए थे। तब भी डिस्मैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व का उद्देश्य भारतीय जनता पार्टी को नुकसान पहुंचाना था। कटिंग साउथ से भी कुछ इसी तरह की मंशा नजर आती है। वही लोग जिन्होंने देश में फर्जी तरीके से असहिष्णुता की बहस चलाई थी, पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा था, डिस्मैंटलिंग हिंदुत्व के साथ जुड़कर अपनी प्रासंगिकता तलाशी थी लगभग वही लोग कटिंग साउथ के साथ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुड़े हैं। डिसमैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व के आयोजकों को न तो हिंदुत्व का ज्ञान था और न ही इसकी व्याप्ति और उदारता का अनुमान। महात्मा गांधी ने काल्पनिक स्थिति पर लिखा है कि ‘यदि सारे उपनिषद् और हमारे सारे धर्मग्रंथ अचानक नष्ट हो जाएं और ईशोपवनिषद् का पहला श्लोक हिंदुओं की स्मृति मे रहे तो भी हिंदू धर्म सदा जीवित रहेगा।‘ गांधी ने संस्कृत में उस श्लोक को उद्धृत करते हुए उसका अर्थ भी बताया है। श्लोक के पहले हिस्से का अर्थ ये है कि ‘विश्व में हम जो कुछ देखते हैं, सबमें ईश्वर की सत्ता व्याप्त है।‘ दूसरे हिस्से के बारे में गांधी कहते हैं कि ‘इसका त्याग करो और इसका भोग करो।‘ और अंतिम हिस्से का अनुवाद इस तरह से है कि ‘किसी की संपत्ति को लोभ की दृष्टि से मत देखो।‘ गांधी के अनुसार ‘इस उपनिषद के शेष सभी मंत्र इस पहले मंत्र के भाष्य हैं या ये भी कहा जा सकता है कि उनमें इसी का पूरा अर्थ उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है।‘ गांधी यहीं नहीं रुकते हैं और उससे आगे जाकर कहते हैं कि ‘जब मैं इस मंत्र को ध्यान में रखककर गीता का पाठ करता हूं तो मुझे लगता है कि गीता भी इसका ही भाष्य है।‘ और अंत में वो एक बेहद महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि ‘यह मंत्र समाजवादियों, साम्यवादियों, तत्वचिंतकों और अर्थशास्त्रियों सबका समाधान कर देता है। जो लोग हिंदू धर्म के अनुयायी नहीं हैं उनसे मैं ये कहने की धृष्टता करता हूं कि यह उन सबका भी समाधान करता है।‘  डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व के समय भी अपने लेख में गांधी को उद्धृत किया था। 

भारत चाहे उत्तर हो या दक्षिण कोई भूमि का टुकड़ा नहीं है कि उसके किसी हिस्से को किसी अन्य हिस्से से काटा जा सके। भारत एक अवधारणा है। एक ऐसी अवधारणा जिसमें अपने धर्म से, धर्मगुरुओं से, भगवान तक से प्रश्न पूछने की स्वतंत्रता है। अज्ञान में कुछ विदेशी विद्वान या वामपंथी सोच के लोग महाभारत की व्याख्या करते हुए कृष्ण को हिंसा के लिए उकसाने का दोषी करार देते हैं और कहते हैं कि अगर वो न होते तो महाभारत का युद्ध टल सकता था। अब अगर इस सोच को धारण करने वालों को कौन समझाए कि महाभारत को और कृष्ण को समझने के लिए समग्र दृष्टि का होना आवश्यक है। अगर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार नहीं होते और कौरवों का शासन कायम होता तब क्या होता। कृष्ण को हिंसा के जिम्मेदार ठहरानेवालों को महाभारत के युद्ध का परिणाम भी देखना चाहिए था। लेकिन अच्छी अंग्रेजी में आधे अधूरे ज्ञान के आधार पर भारतीय पौराणिक ग्रंथों की व्याख्या करने से न तो भारताय ज्ञान परंपरा की व्याप्ति कम होगी और न ही उसका चरित्र बदलेगा। भारतीय समाज के अंदर ही खुद को सुधार करने की व्यवस्था है। यहां जब भी कुरीतियां बढ़ती हैं तो समाज और देश के अंदर से कोई न कोई सुधारक सामने आता है।

कटिंग साउथ की परिकल्पना करनेवालों और उसके माध्यम से परोक्ष रूप से राजनीति करने वालों को, भारतीय समाज को भारतीय लोकतंत्र को समझना होगा। वो अब इतना परिपक्व हो चुका है कि विखडंनवादी ताकतों की तत्काल पहचान करके उनके मंसूबों को नाकाम करता है। 2021 के बाद भी यही हुआ और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि 2024 के चुनाव में भी भारतीय जनता देशहित को समझेगी और उसके अनुसार ही अपने मतपत्र के जरिए उनका निषेध भी करेगी।