Saturday, August 16, 2025

सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न संबोधन


स्वाधीनता दिवस के अवसर पर लाल किला की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो भाषण दिया उसमें देशवासियों की भावनाओं का प्रकटीकरण और उनका अपना सोच था। अपनी समृद्ध संस्कृति और वौचारिकी का समावेश तो था ही। हम उन विचारों पर नजर डालेंगे लेकिन पहले प्रधानमंत्री के संबोधन के कुछ अंश देखते हैं। अपने भाषण का आरंभ प्रधानमंत्री ने संविधान निर्माताओं के स्मरण से किया। इसके बाद उन्होंने डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद किया।  

अंश- हम आज डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी की 125वीं जयंती भी मना रहे हैं। डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत के संविधान के लिए बलिदान देनेवाले देश के पहले महापुरुष थे। संविधान के लिए बलिदान। अनुच्छेद 370 की दीवार को गिराकर एक देश एक संविधान के मंत्र को जब हमने साकार किया तो हमने डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सच्ची श्रद्धांजलि दी।

अंश- आज मैं बहुत गर्व के साथ एक बात का जिक्र करना चाहता हूं। आज से 100 साल पहले एक संगठन का जन्म हुआ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। सौ साल की राष्ट्र की सेवा एक ही बहुत ही गौरवपूर्ण स्वर्णिम पृष्ठ है। व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण के इस संकल्प को लेकर के सौ साल तक मां भारती के कल्याण का लक्ष्य लेकर लाखों स्वंसेवकों ने मातृभूमि के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित किया । सेवा, समर्पण, संगठन और अप्रतिम अनुशासन जिसकी पहचान रही है, ऐसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ है एक प्रकार से। सौ साल का उसका समर्पण का इतिहास है। आज लालकिले की प्राचीर से सौ साल की इस राष्ट्रसेवा की यात्रा में योगदान करनेवाले सभी स्वयंसेवकों का आदरपूर्वक स्मरण करता हूं। देश गर्व करता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इस सौ साल की भव्य समर्पित यात्रा को जो हमें प्रेरणा देता रहेगा।

अंश- जब युद्ध के मैदान में तकनीक का विस्तार हो रहा है, तकनीक हावी हो रही है, तब राष्ट्र की रक्षा के लिए, देश के नागरिकों की सुरक्षा के लिए हमने जो महारथ पाई है उसको और विस्तार करने की जरूरत है।... मैंने एक संकल्प लिया है, उसके लिए आपका आशीर्वाद चाहिए। समृद्धि कितनी भी हो अगर सुरक्षा के प्रति उदासीनता बरतते हैं तो समृद्धि भी किसी काम की नहीं रहती। मैं लाल किले की प्राचीर से कह रहा हूं कि आनेवाले 10 साल में 2035 तक राष्ट्र के सभी महत्वपूर्ण स्थलों, जिनमें सामरिक के साथ साथ सिविलियन क्षेत्र भी शामिल है, अस्पताल हो, रेलवे हो,आस्था के केंद्र हो, को तकनीक के नए प्लेटफार्म द्वारा पूरी तरह सुरक्षा का कवच दिया जाएगा। इस सुरक्षा कवच का लगातार विस्तार होता जाए, देश का हर नागरिक सुरक्षित महसूस करे। किसी भी तरह का टेक्नोलाजी हम पर वार करने आ जाए हमारी तकनीक उससे बेहतर सिद्ध हो। इसलिए आनेवाले दस साल 2035 तक मैं राष्ट्रीय सुरक्षा कवच का विस्तार करना चाहता हूं।... भगवान श्रीकृष्ण से प्रेरणा पाकर हमने श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र की राह को चुना है। आपमें से बहुत लोगों को याद होगा कि जब महाभारत की लड़ाई चल रही थी तो श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से सूर्य के प्रकाश को रोक दिया था। दिन में ही अंधेरा कर दिया था। सूर्य प्रकाश को जब रोक दिया था तब अर्जुन ने जयद्रथ का वध की प्रतिज्ञा पूरी की थी। ये सुदर्शन चक्र की रणनीति का परिणाम था। अब देश सुदर्शन चक्र मिशन लांच करेगा। ये सुदर्शन चक्र मिशन मिशन दुश्मनों के हमले को न्यीट्रलाइज तो करेगा ही पर कई गुणा अधिक शक्ति से दुश्मन को हिट भी करेगा। 

अगर हम उपरोक्त तीन अंशों को देखें तो प्रधानमंत्री के भाषण में वैचारिकी का एक साझा सूत्र दिखाई देता है। जिस विचार को लेकर वो चल रहे हैं या जिस विचार में वो दीक्षित हुए हैं उसपर ही कायम हैं। सबसे पहले उन्होंने अपने संगठन के वैचारिक योद्धा डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान को याद किया। उनके कश्मीर के भारत के साथ पूर्ण एकीकरण के स्वप्न को पूरा करने की बात की। प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से देश का बताया कि किस तरह से श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संविधान को भारत भूमि पर पूरी तरह से लागू करवाने में सर्वोच्च बलिदान दिया। इसके बाद वो अन्य बातों पर गए लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चर्चा करके एक बार फिर से उन्होंने अपनी वैचारिकी को देश के सामने रखा। पूरी दुनिया को पता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रचारक रहे हैं। संघ के वैचारिक पथ पर चलते हुए ही वो राजनीति में आए और राष्ट्र सर्वप्रथम के सिद्धांत को अपनाया। यह अनायस नहीं था कि लाल किले पर जो सज्जा की गई थी उसमें एक फ्लावर वाल पर लिखा था – राष्ट्र प्रथम। पिछले दिनों संघ और प्रधानमंत्री के संबंधों को लेकर दिल्ली में खूब चर्चा रही। लोग तरह तरह के कयास लगाने में जुटे हुए हैं कि संघ और प्रधानमंत्री मोदी के रिश्ते समान्य नहीं हैं। ऐसा करनेवाले ना तो संघ को जानते हैं और ना ही संघ के स्वयंसेवकों को। राष्ट्रीय स्वययंसेवक संघ और उनसे जुड़े व्यक्ति का आकलन उस प्रविधि से नहीं किया जा सकता है जिससे कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दलों के नेता और उनके कार्यकर्ताओं के संबंधों का आकलन किया जाता रहा है। 

तीसरे अंश में प्रधानमंत्री ने सुरक्षा को लेकर जिस तरह से महाभारत, श्रीकृष्ण और उनके सुदर्शन चक्र को देश के सामने रखा उससे एक बार फिर सिद्ध होता है कि प्रधानमंत्री की भारत की समृद्ध संस्कृति में कितना गहरा विश्वास है। पहलगाम के आतंकियों को मार गिराने के लिए सुरक्षा बलों ने आपरेशन महादेव चलाया था। इस नाम को लेकर भी विपक्षी दलों के कुछ नेताओं ने नाक-भौं सिकोड़ी थी। उसको भी धर्म से जोड़कर देखा गया था। एक बार फिर प्रधानमंत्री ने पूरे देश को बताया कि सुरक्षा कवच देने के मिशन का नाम भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र के नाम पर होगा। भारतीय संस्कृति से जुड़े इस नाम को लेकर विपक्षी दलों की क्या प्रतिक्रिया होगी ये देखना होगा।सुरक्षा कवच में आस्था के केंद्रों को शामिल करके प्रधानमंत्री ने भारतीयों के मन को छूने का प्रयास किया है। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री ने घुसपैठियों और डेमोग्राफी बदलने की समस्या पर जो बातें रखी उससे ये संकेत निकलता है कि ये सिर्फ अवैध तरीके से देश में घुसने का मसला नहीं है बल्कि ये सांस्कृतिक हमला है। डेमोग्राफी बदलने से भारतीय संस्कृति प्रभावित हो रही है। जिसपर देशवासियों को विचार करना चाहिए। इस सांस्कृतिक हमले या संकट को सिर्फ भारत ही नहीं झेल रहा है बल्कि फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी जैसे कई देश डेमोग्राफी के बदलने से अपनी संस्कृति के बदल जाने का खतरा महसूस कर रहे हैं। इन देशों में भी घुसपैठ की समस्या को लेकर सरकार और वहां के मूल निवासी अपनी चिंता प्रकट करते रहते हैं। प्रकटीकरण का तरीका अलग अलग हो सकता है। हम प्रधानमंत्री के भाषण का विश्लेषण करें तो लगता है कि ये एक ऐसे स्टेट्समैन का भाषण है जो विचार समृद्ध तो है ही अपनी संस्कृति के प्रति समर्पित भी है। 

Saturday, August 9, 2025

सनातन मूल्यों में प्रेमचंद की आस्था


परिचित ने यूट्यूब का वीडियो लिंक भेजा। वीडियो के आरंभ में एक पोस्टर लगा था। उसपर लिखा था क्या कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद हिंदुत्ववादी थे? कौन उनकी विरासत को हड़पना चाहता है? यूं तो यूट्यूब के वीडियोज को गंभीरता से नहीं लेता लेकिन पोस्टर के प्रश्नों को देखकर जिज्ञासा हुई। देखा तो एक स्वनामधन्य आलोचक से बातचीत थी। सुनने के बाद स्पष्ट हुआ कि एक विशेष उद्देश्य से वीडियो बनाया गया है। इस बातचीत में कई तथ्यात्मक गलतियां और झूठ पकड़ में आईं। स्वयंभू आलोचक ने कई बार प्रेमचंद के एक लेख क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं? को उद्धृत करते हुए राष्ट्रवादियों को कठघरे में खड़ा करने का यत्न किया। इस लेख के आधार पर ये साबित करने का प्रयास किया कि प्रेमचंद ने राष्ट्रवादियों को भला बुरा कहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार प्रेमचंद ने ये लेख 1934 के आरंभ में लिखा था। उनका ये लेख स्वतंत्र रूप से नहीं लिखा गया था बल्कि भारत पत्रिका में ज्योति प्रसाद निर्मल के लिखे गए लेख की प्रतिक्रिया में था। यह ठीक है कि उस लेख में प्रेमचंद ने जाति व्यवस्था की आलोचना की है और एक जातिमुक्त समाज की बात की है। प्रेमचंद ने उस लेख में ज्योति प्रसाद निर्मल को केंद्र में रखकर उनको ब्राह्मणवादी बताया। ये भी माना कि उनकी कहानियों को कई ब्राह्मण संपादकों ने प्रकाशित किया, जिनमें वर्तमान के संपादक रमाशंकर अवस्थी, सरस्वती के संपादक देवीदत्त शुक्ल, माधुरी के संपादक रूपनारायण पांडे , विशाल भारत के संपादक बनारसीदास चतुर्वेदी आदि प्रमुख हैं। प्रेमचंद अपने इसी लेख में हिंदू समाज को पाखंड और अंधविश्वास से मुक्त करने की बात प्रमुखता से करते हैं लेकिन कहीं भी राष्ट्रवादियों की आलोचना नहीं करते। वो उन राष्ट्रवादियों की आलोचना करते हैं जो पाखंड और कर्मकांड को प्रश्रय देते हैं। पर इसी लेख में वो कहते हैं कि मुरौवत में भी पड़कर आदमी अपने धार्मिक विश्वास को नहीं छोड़ सकता। कुल मिलाकर जिस लेख को आलोचक माने जानेवाले व्यक्ति अपने तर्कों का आधार बना रहे हैं उसका संदर्भ ही अलग है। खैर... वामपंथी आलोचकों की यही प्रविधि रही है, संदर्भ से काटकर तथ्यों को प्रस्तुत करने की। 

आलोचक होने के दंभ में इस बातचीत में एक सफेद झूठ परोसा गया। एक किस्सा सुनाया गया जो कल्याण पत्रिका और हनुमानप्रसाद पोद्दार से संबंधित है। कहा गया कि ‘प्रेमचंद धर्म को लेकर इतने सचेत थे कि जब कल्याण पत्रिका के संपादक-प्रकाशक हनुमानप्रसाद पोद्दार ने प्रेमचंद से कहा कि हमारी पत्रिका में सारे बड़े साहित्यकार लिख रहे हैं, सारे बड़े लेखक लिख रहे हैं, आपने अभी तक कोई लेख नहीं दिया। तो प्रेमचंद ने कहा कि आपकी तो धार्मिक पत्रिका है, इस धार्मिक पत्रिका में मेरा की लिखने का स्थान नहीं बनता। समझ में नहीं आता कि मैं किस विषय पर लिखूं क्योंकि ये हिंदू धर्म पर केंद्रित पत्रिका है। अब जरा खुद को विद्वान मानने और मनवाने की जिद करनेवाले इस व्यक्ति की सुनाई कहानी की पड़ताल करते हैं। वो किस्से के मार्फत बताते हैं कि प्रेमचंद ने हनुमानप्रसाद पोद्दार को धार्मिक पत्रिका कल्याण में लिखने से मना कर दिया था। कथित आलोचक जी से अगर कोई प्रमाण मांगा जाएगा तो वो कागज मांगने की बात करके उपहास उड़ा सकते हैं। हम ही प्रमाण देते हैं। 1931 में प्रकाशित कल्याण के कृष्णांक में प्रेमचंद का एक लेख प्रकाशित है। इस लेख का शीर्षक है श्रीकृष्ण और भावी जगत। कल्याण का ये विशेषांक कालांतर में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। अब भी बाजार में उपलब्ध है। इस लेख में प्रेमचंद ने भगवान श्रीकृष्ण को कर्मयोग के जन्मदाता के रूप में संसार का उद्धारकर्ता माना है। वो लिखते हैं कि यूरोप ने अपनी परंपरागत संस्कृति के अनुसार स्वार्थ को मिटाने का प्रयत्न किया और कर रहा है। समष्टिवाद और बोल्शेविज्म उसके वह नये अविष्कार हैं जिनसे वो संसार का युगांतर कर देना चाहता है। उनके समाज का आदर्श इसके आगे और जा भी न सकता था, किंतु अध्यात्मवादी भारत इससे संतुष्ट होनेवाला नहीं है। ये वो प्रमाण है जिससे स्वयंभू आलोचक का सफेद झूठ सामने आता है। आश्चर्य तब होता है जब सार्वजनिक रूप से झूठ का प्रचार करते हैं और प्रेमचंद को अधार्मिक भी बताते हैं। 

प्रेमचंद को लेकर इस बातचीत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघियों (इस शब्द को बार-बार कहा गया) पर प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता दोनों आरोप लगाता हैं। इन आरोपों में कोई तथ्य नहीं सिर्फ अज्ञान और प्रेमचंद का कुपाठ झलकता है। ऐसा प्रतीत होता कि बगैर किसी तैयारी के ये साक्षात्कार किया गया। ऐसे व्यक्ति को मंच दिया गया जो झूठ का प्रचारक बन सके। प्रेमचंद ने ना सिर्फ कल्याण के अपने लेख बल्कि एक अन्य लेख स्वराज्य के फायदे में भी लिखा ‘अंग्रेज जाति का प्रधान गुण पराक्रम है, फ्रांसिसियों का प्रधान गुण स्वतंत्र प्रेम है, उसी भांति भारत का प्रधान गुण धर्मपरायणता है। हमारे जीवन का मुख्य आधार धर्म था। हमारा जीवन धर्म के सूत्र में बंधा हुआ था। लेकिन पश्चिमी विचारों के असर से हमारे धर्म का सर्वनाश हुआ जाता है, हमारा वर्तमान धर्म मिटता जाता है, हम अपनी विद्या को भूलते जाते हैं।‘ हिंदू-मुसलमान संबंध पर बात करते हुए प्रेमचंद को इस तरह से पेश किया गया जैसे कि उनको मुसलमानों से बहुत प्रेम था।  इसको भी परखते हैं। अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को 1 सितंबर 1915 को प्रेमचंद एक पत्र लिखते हैं जिसका एक अंश, ‘अब हिंदी लिखने की मश्क (अभ्यास) भी कर रहा हूं। उर्दू में अब गुजर नहीं। यह मालूम होता है कि बालमुकुंद गुप्त मरहूम की तरह मैं भी हिंदी लिखने में जिंदगी सर्फ (खर्च) कर दूंगा। उर्दू नवीसी में किस हिंदू को फैज (लाभ) हुआ है, जो मुझे हो जाएगा।‘  इससे प्रेमचंद के आहत मन का पता चलता है। प्रेमचंद के साथ बेईमानियों की एक लंबी सूची है। हद तो तब हो गई जब उनके कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ का नाम ही बदल दिया गया। पंडित जनार्दन झा ‘द्विज’ ने अपनी ‘पुस्तक प्रेमचंद की उपन्यास कला’ में स्पष्ट किया है कि प्रेमचंद ने पहले अपने उपन्यास का नाम गौ-दान रखा था। द्विज जी के कहने पर उसका नाम गो-दान किया गया। गो-दान 1936 में सरस्वती प्रेस, बनारस और हिंदी ग्रंथ-रत्नाकर कार्यालय, बंबई (अब मुंबई) से प्रकाशित हुआ था। गो-दान कब और कैसे गोदान बन गया उसपर चर्चा होनी चाहिए।। बेईमान आलोचकों ने सोचा कि क्यों ना उनके उपन्यास का नाम ही बदल दिया जाए ताकि मनमाफिक विमर्श चलाने में सुविधा हो। ऐसा ही हुआ। अगर गौ-दान या गो-दान के आलोक में इस उपन्यास को देखेंगे तो उसकी पूरी व्याख्या ही बदल जाएगी। दरअसल प्रेमचंद पूरे तौर पर एक धार्मिक हिंदू लेखक थे जो अपने धर्म में व्याप्त कुरीतियों पर निरंतर अपनी लेखनी के माध्यम से वार करते थे। इस धार पर उनको ना तो कम्युनिस्ट बनाया जा सकता है और ना ही नास्तिक। हां, झूठे किस्से सुनाकर भ्रम जरूर फैला सकते हैं। पीढ़ियों तक प्रेमचंद के पाठकों को बरगला सकते हैं। प्रेमचंद की धार्मिक आस्था और धर्मपरायणता को संदिग्ध कर उनको कम्युनिस्ट बताने का झूठा उपक्रम चला सकते हैं। पर सच अधिक देर तक दबता नहीं है। 


अश्लीलता अस्वीकार


हाल ही में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने 25 ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म के प्रसारण पर रोक लगा दी। इनमें उल्लू जैसे प्लेटफार्म भी हैं जहां लगभग अश्लील साम्रगी दिखाई जाती थी। इसके अलावा आल्ट और देसीफ्लिक्स जैसे फ्लेटफार्म्स पर भी पाबंदी लगाई गई है। इन प्लेटफार्म पर बच्चों और महिलाओं से संबंधित अश्लील सामग्री परोसी जा रही थीं। लड़कियों या छोटी बच्चियों को आब्जेक्टिफाई करने का खेल भी इस देश ने देखा है। कुछ वर्षों पहले एक वेबसीरीज आई थी रसभरी। उसमें एक बच्ची को उत्तेजक नृत्य करते हुए दिखाया गया था। इतना ही नहीं इन प्लेटफार्म पर इस तरह की लगभग अश्लील सामग्री में वीडियो के साथ जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया जा रहा था वो द्विअर्थी था। रसभरी वेब सरीज का एक संवाद है जो छोटी बच्ची के उत्तेजक नृत्य के दौरान आता है। बच्ची से उत्तजेक गाने पर नृत्य करवाने की कहानी या कहानी में जो पृष्ठभूमि या संवाद है उससे ही मंशा का पता चलता था। बच्ची के डांस के पहले एक महिला का ये कहना कि, ‘थोड़ा बहुत नाच गाना लड़कियों को आना चाहिए, कल को अपने पति को रिझाए रखेगी’। गाना देखकर वही महिला कहती है कि ‘तेरी बेटी के लक्षण ठीक नहीं लग रहे’ तो दूसरी महिला खास अदा के साथ कहती है कि ‘ये सिर्फ अपने पति को नहीं बल्कि पूरे मुहल्ले को रिझाएगी।‘  अब इस पर विचार करना चाहिए कि ये कैसे संवाद हैं। आमतौर पर इन विषयों पर नहीं बोलने वाले केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के चेयरमैन प्रसून जोशी ने तब इस वेबसीरीज को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज की थी। दृष्य के साथ अगर संवाद भी लगभग अश्लील या द्विअर्थी हो तो वो दर्शकों को अधिक खींचता है। इन प्लेटफार्म का उद्देश्य ही अधिक से अधिक हिट्स हासिल करना होता है। इसके लिए ही इस तरह की सामग्री परोसने में इनको किसी प्रकार का गुरेज नहीं होता है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने बहुत सोच विचार के बाद और काफी समय देने के बाद इन प्लेटफार्म्स पर पाबंदी लगाई। यहां तो बरसों से इस तरह की अश्लील सामग्री दिखाई जा रही थी। उल्लू की बेवसाइट पर जाकर तो सहज ही अनुमान हो जाता था कि वहां किस तरह की सामग्री पेश की जाती रही होगी। ऑल्ट एप का गूगल पर दिखाई देनेवाला पेज याद आ रहा है। जब आल्ट आरंभ हुआ था तब गूगल पर ऑल्ट सर्च करने से जो पेज खुलता था उसमें ये बताया जाता था कि ये प्लेटफॉर्म मुख्यधारा की मनोरंजन का विकल्प है। उसके नीचे लिखा होता था रागिनी एमएमएस, गेट हॉट विद रागिनी। फिर एक पंक्ति होती थी हॉट, वाइल्ड एंड लस्टफुल बैयल (सुंदरी)। इसके आगे कहने को कुछ रह नहीं जाता है। इससे मंशा साफ हो जाती है कि प्लेटफॉर्म अपने दर्शकों को क्या दिखाना चाहता है। इस प्लेटफार्म पर अन्य सामग्रियां भी उपलब्ध थीं लेकिन इस तरह की सामग्री भी थी। 

ओटीटी प्लेटफार्म्स पर रेगुलेशन या प्रमाणन की बात लंबे समय से चल रही है। प्रकाश जावड़ेकर जब सूचना प्रसारण मंत्री थे तब भी ये बात उठी थी। उनके कार्यकाल में सूचना और प्रसारण मंत्रालय और इलेक्ट्रानिक्स और सूचना प्रोद्यौगिकी मंत्रालय के मंत्रियों ने संयुक्त पत्रकार वार्ता में ओटीटी के नियमन को लेकर कई तरह की बातें की थीं। उसके बाद जब अनुराग ठाकुर सूचना और प्रसारण मंत्री बने तो उस समय भी ओटीटी प्लेटफार्म्स के प्रतिनिधियों के साथ उनकी कई दौर की बातचीत हुई थी। इन प्लेटफार्म्स के प्रतिनिधियों ने तब स्वनियमन पर जोर दिया था। उन बैठकों के बाद एक त्रिस्तरीय व्यवस्था बनी थी जिससे स्वनियमन के तंत्र को प्रभावी बनाया जा सके। प्रतीत होता है कि स्वनियमन का तंत्र ब दिखाने के दांत बनकर रह गया है। ओटीटी प्लेटफार्म्स पर अब भी नग्नता और यौनिकता से भरपूर सामग्री मनोरंजन के नाम पर परोसी जा रही हैं। यथार्थ के नाम पर इन बेवसीरीज में गालियों की भरमार रहती है। इस तरह के सीरीज के निर्माताओं का तर्क होता है कि समाज में भी लोग आपसी बोलचाल में गालियों का प्रयोग करते हैं। उनकी कहानी की मांग है कि वो गालियां बकते हुए पात्रों को दिखाएं। उनको लगता है कि हर कहानी में गालियों का प्रयोग करनेवाला संवाद लेखक राही मासूम रजा हो जाएगा। इन तर्कों की आड़ में वेबसीरीज निर्माता बचकर निकलना चाहते हैं। मनोरंजन के एक और विकल्प फिल्म पर बात कर लेते हैं। फिल्मों में गाली हो तो उस अंश को बीप करना होता है क्योंकि वहां प्रमाणन की व्यवस्था है। फिल्मों को रेगुलेट करने के लिए सिनेमैटोग्राफी एक्ट है। चूंकि वेबसीरीज पर किसी प्रकार का कोई नियमन या नियंत्रण नहीं है लिहाजा वहां गालियों की भरमार होती है। फिल्मों में लंबे चुंबन दृष्यों पर कैंची और वेब सीरीज में रति प्रसंगों को फिल्माने की छूट। फिल्मों में विकृत हिंसा के दृष्यों को संपादित करने का नियम तो बेव सीरीज में हिंसा के जुगुप्साजनक दृष्यों की भरमार। 

वेबसीरीज में कहानी की मांग के नाम पर अश्लील दृश्य दिखाने वाले निर्माताओं या प्लेटाफार्मस के कर्ताधर्ताओं का



तर्क होता है कि इंटरनेट पर भी पोर्न साइट उपलब्ध है । जिनको इस तरह के दृष्य देखने होंगे वो वहां बहुत आसानी से देख सकते हैं। इस तरह के तर्क देनेवालों को यह सोचना चाहिए कि इंटरनेट पर मौजूद पोर्न सामग्री और इस तरह के वैध प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध पोर्न को देखने में फर्क है। यहां इसको कहानी की शक्ल में दिखाया जाता है। वो कहानी जिसको भारतीय समाज का चित्रण बाताया जाता है। देखनेवाले को लगता है कि इस तरह की चीजें सामान्य हो सकती हैं। विशेषकर अगर दर्शक अपरिपक्व है तो उसके मस्तिष्क पर इसका प्रभाव गहरा हो सकता है। दूसरा तर्क ये दिया जाता है कि इन प्लेटफॉर्म्स पर वेबसीरीज देखने लोग जानते हैं कि वो क्या देख रहे हैं। इनकी सदस्यता लेते हैं। शुल्क अदा करते हैं और उसके बाद वेबसीरीज देखते हैं। किसी को भी क्या सामग्री देखनी है ये चयन करने का अधिकार तो होना ही चाहिए। यह बात सामान्य तौर पर ठीक लग सकती है कि हर किसी को अपनी रुचि की सामग्री देखने का अधिकार होना चाहिए। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि अपरिपक्व दिमाग वाले किशोरों का क्या जिनके हाथ में बड़ी संख्या में स्मार्टफोन है। उसमें इंटरनेट कनेक्शन भी है। इतने पैसे तो हैं कि वो इन ‘ओवर द टॉप’ प्लेटफॉर्म की सदस्यता ले सके। इंटरनेट पर किशोरों के लिए स्वस्थ सामग्री भी है। डिजीटल युग में शिक्षा के कई प्रकल्प इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। छात्रों या किशोरों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो एडुकेशन एप का उपयोग करें। जब उसके हाथ में आठ इंच का मोबाइल फोन है तो उसके मन में मनोरंजन को लेकर सहज जिज्ञासा उत्पन्न होती है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि किशोर मन में कुछ भी नया देखने जानने की उत्सुकता अपेक्षाकृत अधिक होती है। किशोर मन अगर कुछ नया देखता है तो बिना उसके अच्छाई बुराई के बारे में विचार किए वो उसके बारे में जानने को उत्सुक हो जाता है। वेबसीरीज के पोस्टर या प्रचार सामग्री में अर्धनग्न तस्वीरें देखता है तो किशोर मन उस बारे में अधिक से अधिक जानने को उत्सुक हो जाता है। यही मन उसको अश्लील सामग्री देखने की ओर ले जाता है। वेबसीरीज एक नेविगेशन का काम करती है। किशोर मन वहां से संतुष्ट नहीं होता है और पोर्न साइट्स की ओर जाता है। वहां उसकी उत्सुकता समाप्त होती है। क्या ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर सामग्री देनेवाली संस्थाएं ये चाहती हैं कि हमारे देश के किशोर मन को अपरिपक्वता की स्थिति से ही इस तरह से मोड़ दिया जाए कि आगे चलकर इस तररह की सामग्री को देखनेवाला एक बड़ा उपभोक्ता वर्ग तैयार हो सके। इसके अलावा जो एक और खतरनाक बात यहां दिखाई देती हैं वो ये कि इन प्लेटफॉर्म्स पर कई तरह के विदेशी सीरीज भी उपलब्ध हैं जहां पूर्ण नग्नता परोसी जाती है। ऐसी हिंसा दिखाई जाती है जिसमें मानव शरीर को काटकर उसकी अंतड़ियां निकाल कर प्रदर्शित की जाती हैं। जिस कंटेंट को भारतीय सिनेमाघरों में नहीं दिखाया जा सकता है उस तरह के कंटेंट वहां आसानी से उपलब्ध हैं। चूंकि वेब सीरीज के लिए किसी तरह का कोई नियमन नहीं है लिहाजा वहां स्वतंत्र नग्नता का प्रदर्शन होता है। बगैर ये सोचे समझे कि क्या भारतीय दर्शकों का मानस इस तरह  सामग्री को देखकर सामान्य व्यवहार कर सकता है। आज इस तरह के समाचार आते रहते हैं कि दुश्कर्म के पहले बलात्कारियों ने या तो इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री देखी। बच्चियों का यौन शोषण करनेवाले अधिकतर अपराधी पीडिता को भी पोर्न दिखाकर अपराध करता है। 

जब भी भारत में ओटीटी पर नियमन की बात होती है तो एक विशेष इकोसिटम से जुड़े लोग शोर मचाने लगते हैं। तत्काल संविधान की दुहाई देने लगते हैं। तर्क ये दिया जाता है कि अभियक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने का प्रयास किया जा रहा है। ये कहकर एक भ्रम का वातावरण बनाया जाता है। अगर हम देखें तो हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात तो है लेकिन उसकी सीमा भी तय की गई हैं। संविधान के अनुच्छेद 19 (1) ए अभिय्क्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। इस अनुच्चेद की आड़ लेनेवाले अधिकतर समय अर्धसत्य ही बताते/बोलते हैं। संविधान के ही अनुच्छेद 19 (2) में सरकार को ये अधिकार है कि वो समाज हित में इस स्वतंत्रता की सीमा तय करे। अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता तो ठीक है लेकिन जब अभिव्यक्ति अराजक होने लगे तो सरकार को दखल देना ही चाहिए। ऐसा नहीं है कि अगर ओटीटी को लेकर कोई नियमन बनाया जाता है तो भारत ऐसा करनेवाले विश्व का पहला देश होगा। कई देशों में ओटीटी के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश हैं। सिंगापुर में एक प्राधिकरण है। सभी सेवा प्रदताओं को ब्राडकास्टिंग एक्ट के अंतर्गत इस प्राधिकरण से लाइसेंस लेना पड़ता है। ओटीटी, वीडियो ऑन डिमांड और विशेष सेवाओं के लिए एक विशेष कंटेंट कोड है। इसमें सामग्रियों के वर्गीकरण की स्पष्ट व्यवस्था है। सिंगापुर की इस संस्था के पास अधिकार है कि अगर ओटीटी प्लेटऑर्म पर दिखाई जानेवाली सामग्री कानून सम्मत नहीं है तो उसका प्रसारण रोक सके। जुर्माना लगाने का भी प्रविधान है। ऑस्ट्रेलिया में तो इन प्लेटऑर्म्स पर नजर रखने के लिए ई सेफ्टी कमिश्नर हैं। उनका दायित्व है वो डिजीटल मीडिया पर चलनेवाली सामग्रियों पर नजर रखें। वहां तो विनियमन इस हद तक है कि ई सेफ्टी कमिश्नर दंड के तौर पर सानमग्री के प्रसारण को प्रतिबंधित कर सकते हैं। ऑस्ट्रेलिया में ओटीटी पर चलनेवाली सामग्री की शिकायत मिलने पर उसके निस्तारण की एक तय प्रक्रिया है। इसके अलावा भी दुनिया के कई देशों में किसी न किसी तरह के दिशा निर्देश लागू हैं। 


केंद्र सरकार को इस बारे में कोई फैसला लेना होगा। स्वनियम की व्यवस्था संतुलित नहीं हो पा रही है। जिस तरह का ट्रेंड देखा जा रहा है उसमें ओटीटी कंटेंट के प्रमाणन की व्यवस्था बनाने की दिशा में सरकार को निर्णय लेना होगा। इस व्यवस्था को लागू करने के लिए वृहद संसाधान की आवश्यकता होगी लेकिन आज नहीं तो कल सरकार को इसपर निर्णय लेना ही होगा। इस मसले को अब और नहीं टाला जा सकता है। इस तरह की कोई ऐसी स्वायत्त संस्था बनाने पर भी विचार किया जा सकता है जो वेब सीरीज पर दिखाए जानेवाले कंटेंट की शिकायत मिलने पर विचार करे और निर्णय ले। इस संस्था को इतना अधिकार देना होगा कि उसके निर्णयों का सम्मान हो। उसको लागू करवाने के लिए उसके पास वैध अधिकार हों।



Saturday, August 2, 2025

लोकप्रियता को सम्मान


राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा कर दी गई। कोरोना महामारी के चलते राष्ट्रीय फिस्म पुरस्कार देर से घोषित हो रहे हैं। शुक्रवार को घोषित पुरस्कार 2023 के लिए है। पुरस्कारों में कई प्रकार की विविधता देखने को मिली। शाह रुख खान को पहली बार किसी फिल्म में उनके अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार देने की घोषणा की गई। उनको फिल्म जवान के लिए और विक्रांत मैसी को 12वीं फेल के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का साझा पुरस्कार दिया जाएगा। अभिनेत्री रानी मुखर्जी को भी पहली बार उनकी फिल्म मिसेज चटर्जी वर्सेस नार्वे के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिया जाएगा। रानी मुखर्जी ने इसके पहले भी कई बेहतरीन फिल्में की हैं, जिनपर उनको राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया जा सकता था। ब्लैक और हिचकी में उनका अभिनय शानदार रहा था। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार कई मानदंडों पर आधारित होता है। संभव है कि जिस वर्ष रानी की ये फिल्में आई हों उस वर्ष किसी और फिल्म में किसी और अभिनेत्री ने बेहतर अभिनय किया हो। ब्लैक और हिचकी दो ऐसी फिल्में हैं जो रानी मुखर्जी की अभिनय प्रतिभा के लिए और फिल्म की विषयवस्तु और ट्रीटमेंट के लिए याद किया जाता है। फिल्म मिसेज चटर्जी वर्सेस नार्वे एक तरह से रानी मुखर्जी की दूसरी पारी की बेहतरीन फिल्म है। हिचकी में भी रानी मुखर्जी ने जिस विषय पर काम किया था वो लगभग अनजाना था। ये ब्रैड कोहेन की आत्मकथा ‘फ्रंट आफ द क्लास, हाउ टौरेट सिंड्रोम मेड मी टीचर आई नेवर हैड’ पर आधारित है। कहा जाता है कि इस फिल्म में अभिनय के पहले रानी घंटों तक इस सिंड्रोम को समझने का प्रयास करती थी। इस सिंड्रोम से ग्रस्त लोग कैसे व्यवहार करते हैं उसको जानने  में लंबा समय बिताया था। पर्दे पर ये मेहनत दिखी भी थी। कहना ना होगा कि फिल्म की जूरी के सदस्यों का चयन रेखांकित करने योग्य है। 

शाह रुख खान को फिल्म जवान के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार अवश्य कई प्रश्न खड़े करता है। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के चयन के समय अभिनय तो आधार होता ही है, फिल्म की कहानी और समाज पर उसके प्रभाव पर भी चर्चा की जाती है। जवान एक ऐसी फिल्म है जो सिस्टम को चुनौती देती है। संवैधानिक व्यवस्थाओं पर भी चोट करती है। फिल्म में देश की स्वास्थ्य व्यवस्था बेहतर करने के लिए मंत्री का अपहरण करना जैसी घटनाएं हैं। ये फिल्म एक्शन थ्रिलर है। जनता ने इस फिल्म को खूब पसंद किया था। बताया गया था कि इस फिल्म ने एक हजार करोड़ से अधिक का कारोबार किया था। उन चर्चाओं के दौरान शाह रुख खान के अभिनय की बहुत प्रशंसा हुई हो ऐसा याद नहीं पड़ता। पर जूरी के अध्यक्ष आशुतोष गोवारिकर और अन्य सदस्यों को शाह रुख खान के अभिनय में वो तत्त्व अवश्य दिखे होंगे जो अन्य समीक्षक भांप नहीं पाए। शाह रुख शानदार अभिनेता हैं, उन्होंने वर्षों तक अपने अभिनय से इसको साबित भी किया था। 2004 में जब उनकी फिल्म स्वदेश आई थी तो उनके अभिनय की जमकर सराहना हुई थी। उस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार सैफ अली खान को दिया गया था। एक अवसर पर शाह रुख का दर्द झलका भी था। उन्होंने मजाकिया लहजे में कहा भी था कि स्वदेश के लिए उनको राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना चाहिए था। फिल्म स्वदेश और फिल्म हम तुम या यों कहें कि शाह रुख और सैफ के साथ दो संयोग हैं। जब सैफ को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला था तब उनकी मां शर्मिला टैगोर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की अध्यक्ष थीं। शाह रुख को नेशनल अवार्ड मिला है तो जूरी के चेयरमैन आशुतोष गोवारिकर हैं जो स्वदेश के निर्देशक थे। इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर इन दो संयोगों की खूब चर्चा हो रही है। पर स्वदेश के लिए शाह रुख को अवार्ड नहीं मिलने का कारण अलग था। स्वदेश रिलीज हुई थी तब निर्देशक टी एस नागबर्ना ने आरोप लगाया था कि स्वदेश उनकी फिल्म चिगुरिदा कनासू की नकल है। 2004 के राष्ट्रीय अवार्ड की जूरी के चेयरमैन सुधीर मिश्रा थे। अन्य सदस्यों के साथ टी एस नागवर्ना भी उस समिति में थे। जूरी के सामने स्वदेश का प्रदर्शन हुआ तो नागबर्ना ने वहां बताया था कि स्वदेश उनकी फिल्म की नकल है। उसके बाद जूरी के सदस्यों को चिगुरिदा कनासू दिखाई गई। सर्वसम्मति से निर्णय हुआ कि स्वदेश के लिए शाह रुख खान को पुरस्कार नहीं दिया जा सकता है। पहली बार ऐसा नहीं हुआ था। पहले भी और 2004 के बाद भी इस आधार पर कई फिल्मों और अभिनेताओं को पुरस्कार के योग्य नहीं माना गया। इसलिए सैफ अली खान के राष्ट्रीय पुरस्कार को शर्मिला टैगोर से जोड़ना गलत है। चर्चा तो उन बातों की भी हो जाती है जिसका होना ही संदिग्ध होता है। 

12वीं फेल के लिए विक्रांत मैसी का चयन अच्छा है। विक्रांत मैसी ने अपने अभिनय कौशल से ध्यान खींचा है। हाल ही में आई उनकी फिल्म साबरमती रिपोर्ट में भी उनका अभिनय शानदार है। द केरल स्टोरी के निर्देशक सुदीप्तो सेन ने भी धारा के विपरीत जाकर फिल्म बनाई। द केरल स्टोरी को लेकर काफी विवाद हुए। मामला कोर्ट में भी गया। कई राज्यों में उसको अघोषित प्रतिबंधित भी झेलना पड़ा। पर इस फिल्म ने भारतीय समाज में धीरे-धीरे जगह बनाते लव जिहाद के खतरों से दर्शकों को अवगत करवाया था। निर्देशक के तौर पर सुदीप्तो सेन ने इस फिल्म से अपनी पहचान स्थापित की। उनको पुरस्कार देना वैकल्पिक धारा की फिल्मों का स्वीकार है। एक और फिल्म ने ध्यान खींचा वो है हिंदी फिल्म कटहल। छोटे बजट की इस फिल्म की खूब चर्चा रही थी। कहानी और उसके ट्रीटमेंट को लेकर। सिनेमा पर सर्वश्रेष्ठ लेखन का पुरस्कार असम के उत्पल दत्ता को मिला। वो काफी लंबे समय से फिल्मों पर असमी और अंग्रेजी में लिख रहे हैं। इस श्रेणी में किसी पुस्तक का चयन नहीं होना चौंकाता है। चयन समिति के सामने अंबरीश रायचौधरी की श्रीदेवी पर लिखी अंग्रजी की पुस्तक, अमिताव नाग की सौमित्र चटर्जी पर लिखी पुस्तक, यतीन्द्र मिश्र की गुलजार पर लिखी पुस्तक के अलावा अन्य भाषाओं की दो दर्जन से अधिक पुस्तकें थीं। घोषणा के समय अन्यत्र व्यस्तता के कारण रायटिंग जूरी के चेयरमैन गोपालकृष्ण पई उपस्थित नहीं थे। मंत्री को जूरी की अनुशंसा के समय की जो तस्वीरें जारी हुई हैं उसमं भी रायटिंग जूरी के चेयरमैन या सदस्य दिख नहीं रहे। ऐसा कम ही होता है कि किसी श्रेणी की जूरी के चेयरमैन या उसके सदस्य मंत्री को अपनी अनुशंसा देने और पुरस्कार की घोषणा के समय अनुपस्थित रहें। जूरी चेयरमैन या उनके प्रतिनिधि को ये बताना चाहिए था कि किन कारणों से किसी पुस्तक का चयन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के लिए नहीं किया गया।कोरोना महामारी के बाद भी एक वर्ष ब्रेस्ट क्रिटिक का अवार्ड घोषित नहीं किया गया। तब उसका कारण ये बताया गया था कि जूरी ने किसी भी प्रविष्टि को पुरस्कार के योग्य नहीं माना। उस वर्ष वैध एंट्री की संख्या बहुत ही कम थी। अब पुरस्कारों की घोषणा हो गई है। 2024 के पुरस्कारों का चयन भी जल्द हो ताकि 2025 के पुरस्कारों की घोषणा समय से हो सके।  


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जमीनी कहानियां और काल्पनिक जवान


राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार की घोषणा के साथ ही इंटरनेट मीडिया पर शाह रुख खान को लेकर टिप्पणियां आने लगीं। शाह रुख को फिल्म जवान के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार देने की घोषणा की गई । यह पुरस्कार उनको विक्रांत मैसी के साथ दिया जाएगा। पुरस्कार की घोषणा होते ही इंटरनेट मीडिया पर लिखा जाने लगा कि शाह रुख को 2004 में स्वदेश के लिए पुरस्कार दिया जाना चाहिए था। उस वर्ष सैफ अली खान को उनकी फिल्म हम तुम के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया गया था। लिखा गया कि सैफ की मां शर्मिला टैगोर उस वक्त केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की अध्यक्ष थीं इस कारण उनको पुरस्कार मिल गया। पर कहानी दूसरी है। 2004 में जब स्वदेश फिल्म आई थी तो शाह रुख के अभिनय की सराहना हुई थी। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार नहीं मिला था जिसका मलाल शाह रुख को है। एक अवसर पर शाह रुख का दर्द झलका भी था। उन्होंने कहा था कि स्वदेश के लिए उनको राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना चाहिए था। शाह रुख को स्वदेश के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार नहीं मिलने का किस्सा दिलचस्प है। 2004 के लिए जब राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार तय करने के लिए जूरी बैठी तो उनके सामने शाह रुख की फिल्म स्वदेश भी आई थी। जूरी के सदस्यों में निर्देशक टी एस नागबर्ना भी शामिल थे। जब स्वदेश रिलीज हुई थी तब निर्देशक टी एस नागबर्ना ने आरोप लगाया था कि स्वदेश उनकी फिल्म चिगुरिदा कनासू की नकल है। 2004 के राष्ट्रीय अवार्ड की जूरी के चेयरमैन सुधीर मिश्रा थे। जूरी के सामने जब स्वदेश का प्रदर्शन हुआ तो नागबर्ना ने वहां भी अपना आरोप दोहराया। उनके ऐसा कहने पर जूरी के कुछ सदस्यों ने नागबर्ना की फिल्म देखने की इच्छा जताई। चेयरमैन समेत कई सदस्य शाह रुख के अभिनय की प्रशंसा कर रहे थे। नागबर्ना ने जूरी सदस्यों को चिगुरिदा कनासू दिखाई । स्वदेश और चिगुरिदा कनासू में बहुत अधिक समानता पाई गई थी। फिल्म को देखने के बाद निर्णय हुआ कि स्वदेश के लिए शाह रुख खान को पुरस्कार नहीं दिया जा सकता। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के चयन का आधार अभिनय तो होता ही है, फिल्म की कहानी और समाज पर उसके प्रभाव पर भी चर्चा की जाती है। किसी भी रीमेक को या दूसरी भाषा में बनी फिल्म की कहानी पर बनी फिल्म को पुरस्कृत नहीं किया जाता है। 

अब बात कर लेते हैं फिल्म जवान की जिसमें नायक के तौर पर शाह रुख खान सिस्टम को चुनौती देते है। संवैधानिक व्यवस्थाओं पर चोट करते हैं। फिल्म में देश की स्वास्थ्य व्यवस्था बेहतर करने के लिए मंत्री का अपहरण करना जैसी घटनाएं हैं। क्या जूरी के सदस्यों ने जवान पर निर्णय करते हुए ये नहीं सोचा होगा कि जिस फिल्म की कहानी में संवैधानिक व्यवस्थाओं को चुनौती दी जा रही है उसके अभिनेता को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार कैसे दिया जा सकता है। ये फिल्म एक्शन थ्रिलर है जिसमें भरपूर हिंसा है। जनता को ये फिल्म खूब पसंद आई थी। फिल्म ने एक हजार करोड़ से अधिक का कारोबार किया था। उन चर्चाओं के दौरान जवान में शाह रुख खान की अभिनय की बहुत प्रशंसा हुई हो ऐसा याद नहीं पड़ता। जूरी के अध्यक्ष आशुतोष गोवारिकर और अन्य सदस्यों को शाह रुख खान के अभिनय में वो तत्त्व अवश्य दिखे होंगे जो अन्य समीक्षक भांप नहीं पाए। शाह रुख शानदार अभिनेता हैं, उन्होंने वर्षों तक अपने अभिनय से इसको साबित भी किया था। फिल्म स्वदेश और फिल्म हम तुम या यों कहें कि शाह रुख और सैफ के साथ दो संयोग हैं। जब सैफ को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला था तब उनकी मां शर्मिला टैगोर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की अध्यक्ष थीं। शाह रुख को नेशनल अवार्ड मिला है तो जूरी के चेयरमैन आशुतोष गोवारिकर हैं जो स्वदेश के निर्देशक थे। यहां ये भी बताते चलें कि शाह रुख को पहली बार नेशनल अवार्ड मिला है। 

शाह रुख के साथ विक्रांत मैसी को 12वीं फेल के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया जाएगा। 12वीं फेल के लिए विक्रांत मैसी का चयन अच्छा है। विक्रांत मैसी ने अपने अभिनय कौशल से सिनेप्रेमियों का ध्यान खींचा है। हाल ही में आई उनकी फिल्म साबरमती रिपोर्ट में भी उनका अभिनय शानदार है। 12वीं फेल को बेस्ट फीचर फिल्म का अवार्ड भी दिया जाएगा। वास्तविक जीवन की घटनाओं से प्रेरित इस फिल्म में सभी कलाकारों ने बेहतरीन अभिनय किया था। इस फिल्म के निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा थे ने नेशनल अवार्ड की घोषणा के बाद इसको अपनी टीम के उत्कृष्ट काम को श्रेय दिया है। कम बजट में बनी इस फिल्म ने अपनी लागत से करीब तीन गुणा अधिक कारोबार किया था। नेशनल फिल्म अवार्ड में कारोबार कोई आधार नहीं होता लेकिन इस कलात्मक फिल्म ने बगैर किसी हिंसा या आयटम सांग के लोकप्रियता हासिल की थी। 

अभिनेत्री रानी मुखर्जी को भी पहली बार नेशनल अवार्ड मिलेगा। उनकी फिल्म मिसेज चटर्जी वर्सेस नार्वे के लिए उनको ये अवार्ड दिया जाएगा। संयोग देखिए कि ये फिल्म भी 12वीं फेल की तरह वास्तविक जीवन की घटना पर आधारित है। यह फिल्म एक बंगाली हिंदू अप्रवासी की कहानी है। इसमें भारतीय मूल्यों और पाश्चात्य मान्यताओं की टकराहट है। बंगाली महिला अपने बच्चों के साथ सोती है, अपने हाथ से खाना खिलाती है इस कारण नार्वे में उसको बच्चों से अलग कर दिया जाता है। वो कानूनी लड़ाई भी हारती है लेकिन उसका बच्चों को अपने पास लाने का संघर्ष जारी रहता है। उसी संघर्ष की कहानी है ये फिल्म। रानी मुखर्जी ने इसके पहले भी कई बेहतरीन फिल्में की हैं, जिनपर उनको राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया जा सकता था। फिल्म ब्लैक और हिचकी में उनका अभिनय शानदार था। संभव है कि जिस वर्ष रानी की ये फिल्में आई हों उस वर्ष किसी और फिल्म में किसी और अभिनेत्री ने बेहतर अभिनय किया हो। ब्लैक और हिचकी दो ऐसी फिल्में हैं जो रानी मुखर्जी की अभिनय प्रतिभा के लिए और फिल्म की विषयवस्तु और ट्रीटमेंट के लिए याद किया जाता है। फिल्म हिचकी में रानी मुखर्जी ने जिस विषय पर काम किया था वो लगभग अनजाना था। ये ब्रैड कोहेन की आत्मकथा ‘फ्रंट आफ द क्लास, हाउ टौरेट सिंड्रोम मेड मनी टीचर आई नेवर हैड’ पर आधारित है। कहा जाता है कि इस फिल्म में अभिनय के पहले रानी घंटों तक इस सिंड्रोम को समझने का प्रयास करती थी। इस सिंड्रोम से ग्रस्त लोग कैसे व्यवहार करते हैं उसको जानने  में लंबा समय बिताया था। पर्दे पर ये मेहनत दिखी भी थी। 

द केरल स्टोरी के निर्देशक सुदीप्तो सेन को बेस्ट डायरेक्टर का अवार्ड दिया जाएगा। उन्होंने धारा के विपरीत जाकर फिल्म बनाई। द केरल स्टोरी को लेकर काफी विवाद हुए। मामला कोर्ट में भी गया। कई राज्यों में उसको अघोषित प्रतिबंध भी झेलना पड़ा। इस फिल्म ने भारतीय समाज में धीरे-धीरे जगह बनाते लव जिहाद के खतरों से दर्शकों को अवगत करवाया था। निर्देशक के तौर पर सुदीप्तो सेन ने इस फिल्म से अपनी पहचान स्थापित की। उनको पुरस्कार देना वैकल्पिक धारा की फिल्मों का स्वीकार है। एक और फिल्म ने ध्यान खींचा वो है हिंदी फिल्म कटहल। छोटे बजट की इस फिल्म की खूब चर्चा रही थी। कहानी और उसके ट्रीटमेंट को लेकर। ये फिल्म सामाजिक व्यवस्था पर व्यंग्य है। विधायक के घर में लगे कटहल के पेड़ से दो कटहल गायब हो जाते हैं। कटहल को ढूंढने के लिए पुलिस लगाई जाती है और फिर शुरू होती है कहानी जिसमें महात्वाकांक्षाओं की टकराहट है, जातिगत भेदभाव जैसे मुद्दे हैं। कुल मिलाकर अगर देखें तो 2023 के लिए घोषित राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में हिंदी फिल्मों के कामों को प्रमुखता से रेखांकित किया गया है। 


Saturday, July 26, 2025

बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाए


मई 2013 के अपने संपादकीय में 'हंस' पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव ने लिखा था, इधर हमारे अशोक वाजपेयी अपने रोजनामचे यानी कभी-कभार (साप्ताहिक स्तंभ) में अक्सर ही बताते रहते हैं कि उन्होंने देश-विदेश की किन गोष्ठियों में भाग लिया और उनकी तुलना में हिंदी कहां कहां और कितनी दरिद्र है। वस्तुत: यह सुनते सुनते मेरे कान पक गए हैं कि हम लोगों में क्या कमी है और हिंदी कहां कहां पिछड़ी हुई है। यह हिंदी वैशिंग मुझे मनोरोग जैसा लगने लगा है। मेरे दफ्तर में आनेवाले ज्यादातर लोग जब हिंदी कविता और कहानियों की कमजोरी और कमियों का रोना रोते हैं तो उसके पीछे भावना यही होती है कि देखिए इन कमियों और कमजोरियों को किस तरह अपनी महान रचनाओं के द्वारा मैं पूरा कर रहा हूं। इस टिप्पणी में उaन्होंने मेरा भी नाम लिया था। राजेंद्र यादव आगे कहते हैं कि यह अशोक और अनंत विजय जैसों की तरह ज्यादा पढ़ने और घूमने से उपजी हुई तकलीफ नहीं, बल्कि एक सुना सुनाया और आत्मप्रचार को सही सिद्ध करने का हथकंडा है। लगता है या तो ये लोग केवल अपने बारे में बोल सकते हैं या हिंदी को लेकर छाती माथा कूटने की लत में लिप्त हैं। कभी-कभी तो मुझे कहना पड़ता है कि हम हिंदुस्तानी या हिंदीवाले का रोदन बंद कीजिए और बताइए कि हमें क्या करना है। लगभग 12 वर्ष पहले यह संपादकीय लिखा गया था। समय का चक्र घूमा, राजेंद्र यादव का निधन हो गया। संजय सहाय हंस के संपादक बने। संपादक बदलने से पसंद नापसंद भी बदले। हंस पत्रिका अलग ही राह पर चल पड़ी। जिस हिंदी वैशिंग को राजेंद्र यादव मनोरोग जैसा मानते थे उसी अशोक वाजपेयी के हिंदी, हिंदी साहित्य और हिंदी समाज के वैशिंग को हंस के जुलाई अंक में छह पृष्ठों में जगह दी गई है। राजेंद्र यादव के निधन के बाद पत्रिका की नीतियों में ये विचलन अलग विमर्श की मांग करता है। इस पर चर्चा फिर कभी। अशोक वाजपेयी के लेख पर विचार करते हैं जिसका शीर्षक है, हिंदी समाज ने आधुनिक हिंदी साहित्य को खारिज कर दिया है? शीर्षक में जो प्रश्नवाचक चिह्न है उसका उत्तर अपने आलेख में खोजने का प्रयत्न किया है। अशोक वाजपेयी का यह लेख सामान्यीकरण और फतवेबाजी का काकटेल बनकर रह गया है। वाजपेयी को अपने द्वारा बनाई चलाई संस्थानों की विफलता और व्यर्थता का तीखा अहसास होता है। अपने इस एहसास में वे हिंदी विश्वविद्यालय को भी शामिल करते हैं जिसके वह पहले कुलपति थे। जिस हिंदी साहित्य की मृत्यु की संभावना अशोक वाजपेयी तलाश रहे हैं, उसी हिंदी साहित्य में एक कहावत है कि जैसा बोओगे वैसा काटोगे। हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर रहते हुए उसको दिल्ली से चलाना। मित्रों-परिचितों और उनके बेटे बेटियों को विश्वविद्यालय के विभिन्न पदों पर नियुक्त करना। वर्षों बाद उसकी विफलता और व्यर्थता के अहसास में ऊभ-चूभ करके प्रचार तो हासिल किया जा सकता है, लेकिन इससे पाठकों को विमर्श के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता है। साहित्य की मृत्यु की संभावना की जगह आशंका जताते तो उचित रहता। अशोक वाजपेयी हिंदी समाज की व्यापक समझ पर भी प्रश्न खड़े करते हैं। वह कहते हैं कि हिंदी समाज कितना पारंपरिक रहा, कितना आधुनिक हो पाया है, इस पर विस्तार से विचार करने की आवश्यकता है। इसके फौरन बाद अपना निष्कर्ष थोपते हैं कि हमारी व्यापक सामाजिक समझ जितनी आधुनिकता की अधकचरी है, उतनी परंपरा की भी। अब यहां अशोक जी से यह पूछा जाना चाहिए कि वह लंबे समय तक सरकार में रहे, कांग्रेसी मंत्रियों के करीबी रहे, संसाधनों से संपन्न रहे, लेकिन हिंदी समाज की समझ को विकसित करने के लिए क्या किया। दूसरों को कोसने से बेहतर होता है स्वयं का मूल्यांकन करना। यह देखना भी मनोरंजक है कि अशोक वाजपेयी आज के समय में वासुदेवशरण अग्रवाल और हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे मेधा के लेखक ढूंढ रहे हैं। अशोक जी साहित्य में परंपरा की अंतर्ध्वनि भी सुनना चाहते हैं। लेकिन इसके कारण पर नहीं जाते हैं। हिंदी साहित्य में स्वाधीनता के पहले जो भारतीयता या हिंदू परंपरा थी उसको किस पीढ़ी ने बाधित किया। हिंदू या भारतीय परंपरा को खारिज करनेवाले कौन लोग थे। किन आलोचकों ने साहित्य में भारतीय परंपरा की जगह आयातित विचारों को तरजीह दी। हिंदी समाज से अगर भारतीयता की परंपरा नहीं संभली तो क्या हिंदी के साहित्यकारों ने उस पर उसी समय अंगुली उठाई। तब तो उसको प्रगतिशीलता बताकर जय-जयकार किया गया। परंपरा के अधकचरेपन को अशोक वाजपेयी हिंदुत्व के अधकचरेपन से भी जोड़ते हैं। यहां यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि कैसे हिंदी समाज का मानस अधकचरेपन को स्वीकार करने के लिए तैयार किया गया। कैसे भारतेंदु से लेकर जयशंकर प्रसाद तक, कैसे मैथिलीशरण गुप्त से लेकर धर्मवीर भारती तक और कैसे दिनकर से लेकर शिवपूजन सहाय तक के भारतीय विचारों को हाशिए पर डालने का षड्यंत्र रचा गया। योजनाबद्ध तरीके से भारतीय विचारों पर मार्क्सवादी विचार लादे गए। आज अशोक वाजपेयी को हिंदी विभागों में विमर्श की चिंता सताती है, लेकिन जब वह कुलपति थे तो एक दो पत्रिका के प्रकाशन के अलावा हिंदी विभागों को उन्नत करने के लिए क्या किया? ये बताते तो उनकी साख बढ़ती, अन्यथा सारी बातें बुढ़भस सी प्रतीत हो रही हैं। अशोक स्वयं मानते हैं कि डेढ़ दो सदियों पहले उत्तर भारत में उच्च कोटि की सर्जनात्मकता थी। उसका श्रेष्ठ भारत का श्रेष्ठ था। वह साहित्य, चित्रकला, स्थापत्य, संगीत आदि में उत्कृष्टता अर्जित कर सका। यहां भी कारण पर नहीं जाते हैं और ऐसा लगता है कि उनकी अपनी कुंठा इस लेख पर हावी हो गई है। दिनकर बच्चन, पंत, प्रसाद, निराला की तरह अशोक वाजपेयी की कविता किसी भी पाठक को याद है। नहीं है। अशोक वाजपेयी को हिंदुत्व की विचारधारा से तकलीफ है। वह हिंदुत्व की विचाधारा को हिंदू धर्म चिंतन और अध्यात्म से अलग मानते हैं। दरअसल यहां भी वह इसी दोष के शिकार हो जाते हैं। अपने मन के भावों को लच्छेदार भाषा में पाठकों को भरमाते हैं। तर्क और तथ्य हों या न हों। पत्रकारिता को भी वह चालू मुहावरे में परिभाषित करने का प्रयास करते हैं। घिसे पिटे शब्द उठाकर लाते हैं। वह साहित्य के प्रतिपक्ष होने की कल्पना करते तो हैं, लेकिन अपने सक्रिय साहित्यिक जीवन को बिसरा देते हैं। संस्कृति मंत्रालय में रहते हुए साहित्य अकादमी का पुरस्कार लेना कौन सा प्रतिपक्ष रच रहा था। दरअसल अशोक वाजपेयी जिस हिंदी समाज के पतन को लेकर चिंतित हैं, कमोबेश उन प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं। उनकी आलोचना करने के लिए उन्होंने साहित्य का मैदान चुना। राहुल गांधी की पैदल यात्रा में शामिल होकर वह अपनी प्रतिबद्धता सार्वजनिक कर ही चुके हैं। इसलिए अशोक वाजपेयी के इस लेख की आलोचनाओं को उसी आईने में सिर्फ देखा ही नहीं जाना चाहिए, बल्कि उसका मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए। इस पूरे लेख को पढ़ने के बाद अशोक वाजपेयी के ही दशकों पूर्व अज्ञेय और पंत को निशाना बनाकर लिखे एक लेख का शीर्षक याद आ रहा है, बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाये। उस लेख में वाजपेयी ने लिखा था कम से कम हिंदी में तो कवि के बुजुर्ग होने का सीधा मतलब अकसर अप्रसांगिक होना है।   


Saturday, July 19, 2025

हिंदी हिंदू हिन्दुस्तान पर चर्चा हो


महाराष्ट्र में भाषा को लेकर जब राज ठाकरे के कार्यकर्ताओं ने मारपीट आरंभ की तो उसने पूरे देश का ध्यान खींचा। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के संबंध पर फिर से बहस आरंभ हुई। इस चर्चा में लोगों ने भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वययंसेवक संघ को खींचने का प्रयत्न किया। जबकि पिछले ग्यारह वर्षों से भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में चल रही सरकार ने भारतीय भाषाओं में बेहतर समन्वय किया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता दी गई। मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने का उद्देश्य रखा गया। इसके अच्छे परिणाम भी मिलने लगे हैं। कुछ लोगों ने भाषा विवाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घसीटने का प्रयत्न किया। हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान के नारे को संघ का नारा और मंसूबा बताकर उसकी आलोचना शुरू की। यहां यह बताना उचित रहेगा कि संघ हमेशा से भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता देने की बात करता रहा है। संघ के सरसंचालक रहे माधव सदाशिव गोलवलकर सभी भारतीय भाषाओं को राष्ट्रभाषा मानते थे। संघ अब भी यही मानता है। रही बात हिंदू और हिन्दुस्तान की तो उसको लेकर स्वाधीनता पूर्व के लेखन को देखा जाना चाहिए। कुछ दिनों पूर्व इस स्तंभ में मैथिलीशरण गुप्त की पुस्तक ‘हिंदू’ को आधार बनाकर उनके कवि मन की पड़ताल की गई थी। स्वाधीनता के पूर्व हिंदी में अधिकांश लेखकों का लेखन हिंदू और हिन्दुस्तान को केंद्र में रखकर ही किया गया है। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद इससे जुड़े कम्युनिस्ट लेखकों ने पार्टी प्रतिबद्दता के आधार पर लेखन और मूल्यांकन आरंभ किया। परिणाम ये हुआ कि हिंदू, हिंदुस्तान और भारतीयता को ओझल करने का खेल आरंभ हुआ। एक एक करके हिंदी के दिग्गज लेखकों की उन रचनाओं को जनता से दूर किया गया जिसमें हिंदू और भारतीय को एक मानकर लेखन हुआ था। उन रचनाओं को योजनाबद्ध तरीके से हाशिए पर डाला गया जिनमें हिंदू और भारतीय को एक बताया गया था। उन रचनाओं की उपेक्षा की गई जिनमें मुसलमानों के लिए नसीहत थी। 

हिंदी के लेखकों को समग्रता में पढ़ने से उपरोक्त धारणा दृढ़ होती जाती है। प्रतापनारायण मिश्र को पढ़ें, भारतेन्दु को पढ़ें, बालकृष्ण भट्ट को पढ़ें, महावीर प्रसाद द्विवेदी को पढ़ें या फिर प्रेमचंद से लेकर निराला और शिवपूजन सहाय तक को पढ़ें, आपको हिंदू और भारतीय में अंतर नहीं दिखाई देगा। भारतेन्दु युग के लेखक जब ये लिख रहे थे तबतक तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक की स्थापना भी नहीं हुई थी। प्रताप नारायण मिश्र ने जब अपनी प्रसिद्ध कविता हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान लिखी थी तब तो गांधी जी भी राष्ट्रीय पटल पर नहीं आए थे। इस कविता का रचना वर्ष ठीक ठीक नहीं मालूम। उपलब्ध जानकारी के अनुसार प्रतापनारायण मिश्र का निधन सन् 1894 में हो गया था। जाहिर है कि उन्होंने ये कविता 1894 पहले लिखी होगी। अपनी इस कविता में उन्होंने लिखा था, चहहु जु सांचो निज कल्यान/तो सब मिलि भारत संतान/जपो निरंतर एक जबान/हिंदी हिंदू हिन्दुस्तान/तबहिं सुधिरिंहै जन्म निदान/तबहि भलो करिंहै भगवान/जब रहिहै निसिदिन यह ब्यान /हिंदी हिंदू हिन्दुस्तान। अब अगर संघ की स्थापना के तीन-चार दशक पहले ही हिंदी के ख्यात लेखक ऐसा लिख रहे थे तो उसको समझने की आवश्यकता है। हिंदी के पाठकों को बताने की भी। कुछ लोगों को लगता है कि इस तरह की बातें सार्वजनिक रूप से करना अनुचित है। क्या इस तरह के लेखन को छुपाना बौद्धिक बेईमानी नहीं है? क्या ये पाठकों के साथ छल नहीं है। ये तर्क दिया जाता है कि ये सब तो पुस्तकों में उपलब्ध है। बिल्कुल है। पर विचार इस बात पर होना चाहिए कि क्या ये सामाजिक और साहित्यिक विमर्श का हिस्सा है। क्या स्वाधीनता के बाद हिंदी के आलोचकों ने प्रतापनारायण मिश्र की इस रचना पर विचार किया, विमर्श का हिस्सा बनाया। क्या मैथिलीशरण गुप्त के हिंदू और भारत-भारती में लिखी गई पंक्तियों पर ईमानदारी से विचार हुआ। हिंदी के आलोचकों ने तो ये कह दिया कि मैथिलीशरण गुप्त ने हाली की कविता और शैली मुसद्दस से प्रेरित होकर ‘हिंदू’ लिखा। जब इस बात की पड़ताल की गई तो पता चला कि मैथिलीशरण गुप्त ने हाली के ‘मुसद्दस’ के उत्तर में ‘हिंदू’ लिखी थी। हाली ने अपने इस काव्य में मुसलमानों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक महानता की याद दिलाया था। उनके इस काव्य को पढ़ने के बाद मैथिलीशरण गुप्त ने हिंदुओं के गौरवशाली अतीत का स्मरण किया था। जो हिंदू नाम के पुस्तक में सामने आया था। क्या इसकी बात करना अनुचित है। क्या स्वाधीनता के बाद हिंदी आलोचना की बेईमानियों की ओर संकेत करना गुनाह है।

अगर भारतेन्दु हरिश्चंद्र के लेखों को देखते हैं तो वहां हिंदू और भारतीय में अंतर नहीं मिलता। जब वो भारतवर्ष की उन्नति की बात करते हैं तो उसमें स्पष्टता के साथ इस बात को स्वीकारते हैं, भाई हिंदुओं! तुम भी मत-मतांतर का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जाप करो, जो हिन्दुस्तान में रहे, किसी चाहे किसी रंग,जाति का क्यों न हो, वह हिंदू। हिंदू की सहायता करो। बंगाली, मराठा, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मणों, मुसलमानों सब एक का हाथ एक पकड़ो। इसी लेख में वो आक्रांताओं को भी चिन्हित करते हैं और मुसलमानों से भी कहते हैं, मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिन्दुस्तान में बसकर वो हिंदुओं को नीचा समझना छोड़ दें। ठीक भाइयों की भांति हिंदुओं से बर्ताव करें, ऐसी बात जो हिंदुओं का दिल दुखानेवाली हो वो ना करें।  इस तरह की बातों पर वो विमर्श खड़ा करते हैं। दरअसल स्वाधीनता के पूर्व और उन्नीसवीं शताबदी के अंतिम दशकों में इस तरह की बौद्धिक बातें खूब हो रही थीं। हिंदी-उर्दू को लेकर भी बौद्धिक विमर्श हो रहा था।रचना का उत्तर रचना से दिया जा रहा था। लेखक खुलकर अपनी बात लिख-बोल रहे थे। प्रश्न यही है कि स्वाधीनता के बाद ऐसा क्या हो गया कि हिंदू संस्कृति और हिंदू सभ्यता की बातें कम होने लगीं। भारतीयता और भारतीय शिक्षण पद्धति को छोड़कर हमारा बौद्धिक समाज पश्चिम की ओर उन्मुख होने लगा। बौद्धिक जगत में कथित गंगा-जमुनी तहजीब के सिद्धांत को गाढ़ा करने का प्रयास होने लगा। हिंदी में तो भारतेन्दु युग से लेकर द्विवेदी युग तक हिंदू होने पर लेखकों को गर्व होता था। ये गर्व उनके लेखन में झलकता भी था। दो उदाहरण तो उपर ही दिए गए हैं। इस तरह के दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारतीय लेखन से भारतीयता या हिंदू विमर्श को मलिन करने के षडयंत्र के कारण बौद्धिक बेईमानी का एक अजीब सा वातावरण बना। इसने अकादमिक जगत को भी अपनी चपेट में लिया। हिंदू की बात करनेवालों की उपेक्षा की जाने लगी। हाल के वर्षों में देखें तो उस उपेक्षा का दंश नरेन्द्र कोहली जैसे विपुल लेखन करनेवाले साहित्यकार को भी झेलना पड़ा। आज आवश्यकता इस बात की है कि स्वाधीनता पूर्व जिस तरह का हिंदू लेखन हो रहा था उसपर विमर्श हो और उस विमर्श को समाज जीवन के केंद्र में लाया जाए। अकादमिक जगत में कार्य कर रहे शोधार्थियों को भी इस दिशा में विचार करना चाहिए। ये अतीत की बात नहीं है बल्कि अपनी परंपरा और धरोहर से एकाकार होने का उपक्रम होगा। 

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Saturday, July 12, 2025

और फिल्मिस्तान बिक गया...


हिंदी फिल्मों में जब स्टूडियो युग का आरंभ हुआ तो न्यू थिएटर्स और प्रभात स्टूडियो ने कई फिल्में बनाई। अनेक फिल्मी प्रतिभाओं को तराश कर दर्शकों के सामने पेश किया। यह कालखंड 1935 से 1955 तक का रहा। एक और स्टूडियो की स्थापना हुई थी जिसका नाम था बंबई टाकीज। हिमांशु राय और देविका रानी ने मिलकर इसे स्थापित किया था। विदेश से वापस भारत लौटे हिमांशु राय और देविका रानी ने बंबई टाकीज को प्रोफेशनल तरीके से स्थापित ही नहीं किया उसी ढंग से चलाया भी। स्टूडियो की स्थापना के लिए हिमांशु राय ने फरवरी 1934 में अपनी कंपनी के 100 रुपए के शेयर जारी किए थे। 25 हजार शेयर बेचकर जुटाई पूंजी से बंबई टाकीज की स्थापना की गई। कंपनी को चलाने के लिए एक बोर्ड का गठन हुआ। इस स्टूडियो से बनी पहली कुछ फिल्में असफल हुईं। बंबई टाकीज ने धीरे-धीरे भारतीय दर्शकों की पसंद के हिसाब से फिल्में बनानी आरंभ की और सफलता मिलने लगी। हिमांशु राय ने देशभर से कई युवाओं को फिल्म से जोड़ा। इन युवाओं ने कालांतर में हिंदी सिनेमा को अपनी प्रतिभा और मेहनत से समृद्ध किया। इनमें शशधर मुखर्जी, सेवक वाचा, आर के परीजा, अशोक कुमार आदि प्रमुख हैं। अशोक कुमार को तो हिमांशु राय ने लैब सहायक से सुपरस्टार बना दिया। वो फिल्मों में अभिनेता का काम नहीं करना चाहते थे लेकिन राय के दबाव में अभिनेता बने। ये बेहद ही दिलचस्प किस्सा है जिसके बारे में फिर कभी चर्चा होगी। 

स्टूडियो की स्थापना के करीब 6 वर्ष बाद हिमांशु राय के असामयिक निधन ने बंबई टाकीज की नींव हिला दी थी। उसके बाद इस कंपनी के शेयरधारकों और हिमांशु राय के प्रिय कलाकारों में से कुछ ने मिलकर देविका रानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इस मोर्चे का नेतृत्व शशधर मुखर्जी कर रहे थे। शशधर मुखर्जी हिमांशु राय के जीवनकाल में ही बंबई टाकीज में महत्वपूर्ण हो गए थे। कुछ फिल्म इतिहासकारों का मानना है कि देविका रानी के व्यवहार और उनके अपने पसंदीदा लोगों को बढ़ाने के निर्णयों से शशधर मुखर्जी आहत थे। हिमांशु राय के निधन के बाद बंबई टाकीज में जो घटा वो एक फिल्मी कहानी है। शशधर मुखर्जी चाहते थे कि बंबई टाकीज उनकी मर्जी से चले और देविका रानी उनके हिसाब से निर्णय लें। ये देविका रानी को स्वेकार्य नहीं था। वो अपनी मर्जी से निर्णय ले रही थीं। अमिय मुखर्जी उनको सहयोग कर रहे थे। उस दौर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से संकेत मिलता है बंबई टाकिज में कुछ लोगों को देविका रानी के महिला होने के कारण उनको संस्था प्रमुख मानने और उनसे निर्देश लेने में दिक्कत होती थी। चूंकि बंबई टाकीज में होनेवाले प्रमुख निर्णयों को कंपनी का बोर्ड तय करता था। इस कारण जब देविका रानी ने अपने निर्णयों को लागू करना आरंभ किया तो कारपोरेट दांव पेच भी चले गए। शेयरधारकों का बहुमत जुटाने के लिए भी देविका रानी ने भी प्रयास किया। इस काम में उनको सहयोग मिला केशवलाल का। देविका प्रतिदिन सुबह आठ बजे कार्यलय पहुंच जातीं और देर रात तक वहीं रहती। शशधर मुखर्जी समेत अन्य लोगों के निर्णयों की समीक्षा होने लगी थी। देविका रानी के दखल के बाद शशधर मुखर्जी आदि असहज होने लगे थे। शशधर मुखर्जी प्रोडक्शन का पूरा काम संभालते थे लेकिन देविका रानी ने इस विभाग में भी दखल देना आरंभ कर दिया था। फिल्मों की स्क्रिप्ट से लेकर उसके प्रोडक्शन तक हर विभाग पर वो नजर ही नहीं रखती बल्कि अपने निर्णयों को लागू भी करवाने लगीं। 

उधर बंबई टाकीज के शेयरों को लेकर मामला कोर्ट कचहरी तक गया। बोर्ड में देविका रानी का बहुमत होने के कारण उनको अपने निर्णयों को लागू करवाने में परेशानी नहीं हुई। बंबई टाकीज के इतिहास में जून 1942 में हुई बोर्ड मीटिंग बहुत महत्वपूर्ण है। इस दिन बोर्ड ने ये फैसला लिया कि बंबई टाकीज में देविका रानी प्रोडक्शन कंट्रोलर होंगी और शशधर मुखर्जी प्रोड्यूसर होंगे। देविका रानी को ये अधिकार दे दिया गया कि वो बंबई टाकीज की हर फिल्म में उनका दखल होगा। इसके पहले ये व्यवस्था थी कि एक फिल्म शशधर मुखर्जी प्रोड्यूस करेंगे और उसके बाद देविका रानी फिर शशधर। बोर्ड के निर्णय के बाद देविका रानी बंबई टाकीज में उस पद पर पहुंच जगई जहां हिमांशु राय होते थे। इन दो वर्षों में बंबई टाकीज में स्पष्ट रूप से दो गुट बन गए थे। एक गुट में देविका रानी और अमिय मुखर्जी थे और दूसरे में शशधर मुखर्जी, अशोक कुमार, राय बहादुर चुन्नी लाल, ज्ञान मुखर्जी आदि प्रमुख थे। बंबई टाकीज की इसी गुटबाजी और कारपोरेट वार ने फिल्मिस्तान की नींव डाली। शशधर मुखर्जी, अशोक कुमार, राय बहादुर चुन्नीलाल और ज्ञान मुखर्जी ने बंबई टाकीज से इस्तीफा दे दिया जिसे देविका रानी से फौरन स्वीकार कर लिया। फिल्मिस्तान की स्थापना बंबई (अब मुंबई) के गोरेगांव में स्थापित की गई। अशोक कुमार ने बंबई टाकीज छोड़ा था तब उनका मासिक वेतन एक हजार रु था। ये वो दौर था जब फिल्म अभिनेता और अन्य मासिक वेतन पर स्टूडियो में नौकरी करते थे। फिल्मिस्तान ने अशोक कुमार को रु 2000 प्रतिमाह देना तय किया था।  

फिल्मिस्तान आरंभ हुआ तो कंपनी ने देविका रानी को भी इसके उद्घाटन समारोह का आमंत्रण भेजा। देविका रानी इस समारोह में नहीं गई लेकिन उन्होंने जो पत्र लिखा उसमें खुद को मिसेज हिमांशु राय बताते हुए अपनी व्यस्तता का हवाला दिया था। फिल्मिस्तान ने जो पहली फिल्म बनाई उसका नाम था चल चल रे नौजवान। उसके बाद भी फिल्मिस्तान ने कई फिल्में बनाई। थोड़े दिनों तक तो उत्साह रहा लेकिन फिर इसके संस्थापकों को एहसास होने लगा था कि फिल्म कंपनी चलाना आसान नहीं। इसके लिए काफी मेहनत की आवश्यकता होती है। संसाधान जुटाना एक बड़ी समस्या थी। पांच वर्ष होते होते फिल्मिस्तान के संस्थापकों के बीच मतभेद उभरने लगे थे। उधर बंबई टाकीज भी देविका रानी के छोड़ने के बाद सही नहीं चल रहा था। अशोक कुमार ने बंबई टाकीज में निवेश किया और उसका आंशिक मालिकाना हक ले लिया। पांच वर्षों बाद जब अशोक कुमार ने बंबई टाकीज में कदम रखा तो हिमांशु राय की अर्ध प्रतिमा (बस्ट) को देखकर भावुक हो गए थे और उसको गले लगा लिया था। कहना न होगा कि फिल्मिस्तान की स्थापना फिल्म जगत के पहले कारपोर्ट वार के परिणामस्वरूप हुई थी। मुंबई के गोरेगांव में करीब 5 एकड़ में फैले इस स्टूडियो में कई अच्छी फिल्में भी बनीं जिनमें सरगम, मजदूर, शिकारी दो भाई आदि प्रमुख हैं। बाद में फिल्मिस्तान का मालिकाना हक बदला। फिल्में बनती रहीं। हाल के कुछ वर्षों में फिल्मिस्तान में गाने या टीवी सीरियल आदि शूट होने लगे थे। हाल में फिल्मिस्तान के मालिकों ने इसको बेच दिया। खबरों के मुताबिक इसकी जगह अब अपार्टमेंट बनाए जाएंगे। आरे के स्टूडियो के बाद फिल्मिस्तान का बिकना भारतीय सिनेमा के बदलते स्वरूप का संकेत है। लेकिन जब भी हिंदी फिल्मों के इतिहास पर बात होगी तो देविका रानी की बात होगी और देविका रानी के साथ साथ फिल्मितान का जिक्र भी होगा। 

Thursday, July 10, 2025

व्याकुल मन और संवेदना की धुन


किसे पता था कि अपराध कथाओं पर सफल फिल्म बनाने वाला एक निर्देशक दर्द और संवेदना के तार को ऐसे छुएगा कि उसकी फिल्में क्लासिक और कल्ट फिल्म बन जाएंगी। मात्र 39 वर्ष की आयु मिली लेकिन उस लघु अवधि में हिंदी सिनेमा को अपनी कला कौशल से झंकृत कर देने वाले कलाकार का नाम है गुरुदत्त। गुरुदत्त की अपराध कथाओं पर आधारित सफल फिल्मों, बाजी, जाल, बाज और सैलाब, की चर्चा कम होती है। गुरुदत्त को हिंदी सिनेमा में इन्हीं फिल्मों से पहचान मिली थी। गुरुदत्त ने ज्ञान मुखर्जी के सहायक के तौर पर कार्य करना आरंभ किया था। माना जाता है कि हिंदी फिल्मों में ज्ञान मुखर्जी अपराध कथाओं पर आधारित फिल्मों के पहले कुछ निर्देशकों में से एक थे। अब उन कारणों की चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है कि एक अपराध कथाओं पर फिल्म निर्देशित करनेवाला सिद्धहस्त निर्देशक कैसे इतनी संवेदनशील फिल्मों को कैसे साध सके। गुरुदत्त के शताब्दी वर्ष में जब हम उनकी कलात्मकता पर बात करते हैं तो उनके साथ के लोगों की बात करनी चाहिए जिनके साथ ने गुरुदत्त को महान बनाया। कलाकार गुरुदत्त की शख्सियत तीन व्यक्तियों के बिना पूरी नहीं होती है। यै हैं गीता दत्त, वहीदा रहमान और अबरार अल्वी। जब गुरुदत्त अपनी पहली फिल्म बाजी निर्देशित कर रहे थे तो वो गीता राय को दिल दे बैठे। गुरुदत्त शादी के लिए जल्दी कर रहे थे। दोनों में महीनों तक रोमांस चला और शादी हुई। गीता दत्त के बाद उनकी जिंदगी में वहीदा रहमान का प्रवेश होता है । यहीं से आरंभ होता है प्यार से असफल होकर स्वयं से दूर भागने की उनकी प्रवृत्ति। 

जब प्यासा फिल्म बन रही थी तो इस बात की चर्चा थी कि इसकी कहानी गुरुदत्त की निजी जिंदगी पर आधारित है। पर ये कहानी सिर्फ गुरुदत्त की कहानी नहीं है। इसमें लेखक अबरार अल्वी की जिंदगी की घटनाएं भी शामिल हैं। ये भी कहा जाता है कि इस फिल्म की कहानी गुरुदत्त ने लिखी थी। पर अबरार अल्वी ने बताया था कि गुरुदत्त ने सिर्फ छह पन्ने की कहानी लिखी थी और उसमें नायिका सिर्फ मीना थी। गुलाबो का चरित्र तो अबरार अल्वी ने जोड़ा। दरअसल जब अबरार मुंबई आए थे तो वो एक वेश्या के पास जाते थे। उस वेश्या के साथ के उनके अनुभव और गुरुदत्त की प्रेमिका रही मीना के किस्से को जोड़कर प्यासा की कहानी बुनी गई थी। गुरुदत्त की एक और अदा थी कि वो किसी चीज से बहुत जल्दी संतुष्ट नहीं होते थे। कई बार तो उन्होंने कई रील शूट होने के बाद फिल्म को रद करके नए सिरे से शूट किया। प्यासा फिल्म के कई रील शूट हो चुके थे। गुरुदत्त को अपना रोल पसंद नहीं आ रहा था। उन्होंने सोचा कि इस भूमिका के लिए दिलीप कुमार बेहतर अभिनेता हैं। वो दिलीप साहब के पास पहुंच गए। दिलीप कुमार ने कई शर्तें रखीं। गुरुदत्त ने सभी मान लीं। दिलीप कुमार ने डेट्स दीं लेकिन तय समय पर स्टूडियो के सेट पर नहीं पहुंचे। घंटों की प्रतीक्षा के बाद गुरुदत्त ने फिर से मेकअप किया और फिल्म पूरी की। फिल्म के प्रीमियर पर दिलीप कुमार, निर्देशक के आसिफ और बी आर चोपड़ा के साथ पहुंचे थे। फिल्म समाप्त होने के बाद दिलीप कुमार ने बी आर चोपड़ा से कहा, थैंक गाड, मैं बाल-बाल बच गया, इस फिल्म की भूमिका करता तो खूब हंसी उड़ती। ये अलग बात है कि बाद के दिनों में दिलीप कुमार को प्यासा में काम नहीं करने का अफसोस रहा। प्यासा लोगों को खूब पसंद आई थी और फिल्म जबरदस्त हिट रही। 

प्यासा के बाद गुरुदत्त ने फिल्म कागज के फूल बनाई। इसमें भी वो अशोक कुमार को लेना चाहते थे। फिल्म बाजी के समय से ही गुरुदत्त की इच्छा थी कि वो अशोक कुमार को डायरेक्ट करें लेकिन कई तरह की समस्याओं के कारण अशोक कुमार फिल्म नहीं कर पाए। गुरुदत्त ने चेतन आनंद से संपर्क किया। उन्होंने इतने पैसे मांग लिए कि गुरुदत्त को फिर से खुद ही मेकअप करवाकर फिल्म करनी पड़ी। फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया। इस फिल्म में भी गुरुदत्त ने नायक की पीड़ा को उभारने का प्रयास किया लेकिन वो दर्शकों के गले नहीं उतरी। प्यासा का नायक बेहद गरीब था उसके दुख को दर्शकों ने स्वीकार कर लिया। कागज के फूल के नायक की अमीरी उसके दुख से दर्शकों को जोड़ नहीं पाई। एक अमीर आदमी का पारिवारिक दुख दर्शकों के गले नहीं उतर सका। फिल्म बेहद कलात्मक बनी पर भावनात्मक संघर्ष का चित्रण कमजोर माना गया। इस फिल्म की असफलता ने गुरुदत्त को अंदर से तोड़ दिया। तबतक उनकी पारिवारिक जिंदगी संघर्ष के रपटीली पथ पर आ चुकी थी। शराब की आदत बढ़ने लगी थी। वहीदा रहमान के साथ उनके संबंधों की चर्चा चरम पर थी। इस दौर में ही उन्होंने फिल्म चौदहवीं का चांद बनाने की सोची। फिल्म बन गई। इसके प्रदर्शन में बाधा खड़ी हो गई। ये फिल्म मुस्लिम समाज पर बनी है। देश का विभाजन हो चुका था। फिल्म डिस्ट्रीव्यूटर्स का मानना था कि विभाजन के बाद मुस्लिम समाज का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान चला गया था। मुस्लिम समाज की कहानियों का बाजार सिकुड़ गया था। दरवाजा और चांदनी चौक जैसी फिल्में फ्लाप हो गई थीं। किसी तरह गुरुदत्त ने डिस्ट्रीव्यूटर्स को तैयार किया। फिल्म जबरदस्त हिट रही। 

इसके बाद गुरुदत्त ने साहब बीवी और गुलाम बनाई। मीना कुमारी से छोटी बहू का ऐसा अभिनय करवाया कि उनकी भूमिका अमर हो गई। इस फिल्म के दौरान भी अनेक बधाएं आईं। ऐसा प्रतीत होता है कि जिंदगी और कारोबार की बाधाएं और उससे उपजे दर्द से गुरुदत्त को बेहतर करने की उर्जा मिलती थी। वो व्याकुल मन से अपने दर्द को रूपहले पर्दे पर इस तरह से पेश करते थे कि दर्शक उसके मोहपाश में बंधता चला जाता था। कागज के फूल भले ही फ्लाप रही हो लेकिन आज उसकी कलात्मकता भारतीय फिल्म को गर्व का अवसर देती है। गुरुदत्त ने अपनी छोटी सी जिंदगी में हिंदी सिनेमा को वो ऊंचाई दी जहां पहुंचना किसी भी निर्देशक के लिए एक सपने जैसा है। फिल्मकार गुरुदत्त में बेहतर करने की जो ललक थी वो उनको हमेशा व्याकुल कर देती थी। व्याकुलता और दर्द ने असमय गुरुदत्त की जीवन लीला समाप्त कर दी। 

Saturday, July 5, 2025

फिल्म प्रचार का औजार सेंसर बोर्ड !


तीन वर्ष बाद आमिर खान की फिल्म सितारे जमीं पर रिलीज होनेवाली थी। लंबे अंतराल के बाद आमिर खान की फिल्म रूपहले पर्दे पर आ रही थी। इसको लेकर दर्शकों में जिस तरह का उत्साह होना चाहिए था वो दिख नहीं रहा था। तीन वर्ष पहले आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा आई थी जो बुरी तरह फ्लाप रही थी। दर्शकों ने उसको नकार दिया था। जब सितारे जमीं पर का ट्रेलर लांच हुआ था तो इस फिल्म की थोड़ी चर्चा हुई थी। लेकिन जब इसके गाने रिलीज हुए तो वो दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाए। फिल्म मार्केटिंग की भाषा में कहें तो इस फिल्म को लेकर बज नहीं क्रिएट हो सका। यहां तक तो बहुत सामान्य बात थी। उसके बाद इस तरह के समाचार प्रकाशित होने लगे कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड, जिसको बोलचाल में सेंसर बोर्ड कहा जाता है, ने फिल्म में कट लगाने को कहा है, जिसके लिए आमिर तैयार नहीं हैं। विभिन्न माध्यमों में इस पर चर्चा होने लगी कि सेंसर बोर्ड आमिर खान की फिल्म को रोक रहा है। फिर ये बात सामने आई कि आमिर और फिल्म के निर्देशक सेंसर बोर्ड की समिति से मिलकर अपनी बात कहेंगे। इस तरह का समाचार भी सामने आया कि चूंकि सेंसर बोर्ड फिल्म को अटका रहा है इस कारण फिल्म की एडवांस बुकिंग आरंभ नहीं हो पा रही है। बताया जाता है कि ऐसा नियम है कि जबतक फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट नहीं मिल जाता है तब तक एडवांस बुकिंग आरंभ नहीं हो सकती है। ये सब जून के दूसरे सप्ताह में घटित हो रहा था। फिल्म के प्रदर्शन की तिथि 20 जून थी। यहां तक तो सब ठीक था लेकिन इसके बाद इसमें प्रधानमंत्री मोदी का नाम भी समाचार में आया। कहा गया कि सेंसर बोर्ड ने फिल्म निर्माताओं को आरंभ में प्रधानमंत्री की विकसित भारत को लेकर कही एक बात उद्धृत करने का आदेश दिया है। आमिर खान की फिल्म, सेंसर बोर्ड की तरफ से कट्स लगाने का आदेश और फिर प्रघानमंत्री मोदी का नाम। फिल्म को प्रचार मिलने लगा। वेबसाइट्स के अलावा समाचारपत्रों में भी इसको जगह मिल गई। जिस फिल्म को लेकर दर्शक लगभग उदासीन से थे उसको लेकर अचानक एक वातावरण बना। 

फिल्म को 17 जून को फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाण पत्र मिल गया। फिल्म समय पर रिलीज भी हो गई। आमिर खान तमाम छोटे बड़े मीडिया संस्थानों में घंटों इस फिल्म के प्रचार के लिए बैठे, इंटरव्यू दिया। परिणाम क्या रहा वो सबको पता है। फिल्म सफल नहीं हो पाई। यह फिल्म 2018 में स्पेनिश भाषा में रिलीज फिल्म चैंपियंस का रीमेक है। आमिर और जेनेलिया इसमें लीड रोल में हैं। इसके अलावा कुछ स्पेशल बच्चों ने भी अभिनय किया है। फिल्म के रिलीज होते ही या यों कहें कि सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट मिलते ही इसको लेकर हो रही चर्चा बंद हो गई। ये सिर्फ आमिर खान की फिल्म के साथ ही नहीं हुआ। इसके पहले अनंत महादेवन की फिल्म फुले आई थी जो ज्योतिराव फुले और सावित्री फुले की जिंदगी पर आधारित थी। इस फिल्म और सेंसर बोर्ड को लेकर भी तमाम तरह की खबरें आईं। इंटरनेट मीडिया पर सेंसर बोर्ड के विरोध में काफी कुछ लिखा गया। एक विशेष इकोसिस्टम के लोगों ने इसको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ जोड़कर भी देखा। समुदाय विशेष की अस्मिता से जोड़कर भी देखा गया। वर्तमान सरकार को भी इस विवाद में खींचने की कोशिश की गई। फिल्म के प्रदर्शन के बाद सब ठंडा पर गया। ऐसा क्यों होता है। इसको समझने की आवश्यकता है। दरअसल कुछ निर्माता अब सेंसर बोर्ड को अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल करने लगे हैं। जिन फिल्मों को लेकर उसके मार्केटिंग गुरु दर्शकों के बीच उत्सुकता नहीं जगा पाते हैं वो इसको चर्चित करने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाने लगे हैं। कुछ वर्षों पूर्व जब दीपिका पादुकोण की फिल्म छपाक रिलीज होनेवाली थी तो उस फिल्म का पीआर करनेवालों ने दीपिका को सलाह दी थी कि वो दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों का समर्थन करें। दीपिका वहां पहुंची भी थीं। पर फिल्म फिर भी नहीं चल पाई थी। 

फिल्मकारों को मालूम होता है कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड किन परिस्थितियों में कट्स लगाने या दृश्यों को बदलने का आदेश देता है। दरअसल होता ये है कि जब फिल्मकार या फिल्म कंपनी सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करती है तो आवेदन के साथ फिल्म की अवधि, उसकी स्क्रिप्ट, फिल्म का नाम और उसकी भाषा का उल्लेख करना होता है। अगर आवेदन के समय फिल्म की अवधि तीन घंटे बताई गई है और जब फिल्म देखी जा रही है और वो तीन घंटे तीन मिनट की निकलती है तो बोर्ड ये कह सकता है कि फिल्म को तय सीमा में खत्म करें। फिर संबंधित से एक अंडरटेकिंग ली जाती है कि उसकी फिल्म थोड़ी लंबी हो गई है और अब उसकी अवधि तीन घंटे तीन मिनट ही मानी जाए। इसके अलावा अगर एक्जामिनिंग कमेटी को किसी संवाद पर संशय होता है तो वो फिल्म के मूल स्क्रिप्ट से उसका मिलान करती है। अगर वहां विचलन पाया जाता है तो उसको भी ठीक करने को कहा जाता है। जो भी कट्स लगाने के लिए बोर्ड कहता है वो फिल्मकार की सहमति के बाद ही संभव हो पाता है। अन्यथा उसको रिवाइजिंग कमेटी के पास जाने का अधिकार होता है। कई बार फिल्म की श्रेणी को लेकर भी फिल्मकार और सेंसर बोर्ड के बीच मतैक्य नहीं होता है तो मामला लंबा खिंच जाता है। पर इन दिनों एक नई प्रवृत्ति सामने आई है कि सेंसर बोर्ड के क्रियाकलापों को फिल्म के प्रचार के लिए उपयोग किया जाने लगा है। इंटरनेट मीडिया के युग में ये आसान भी हो गया है। 

कुछ फिल्मकार ऐसे होते हैं जो सेंसर बोर्ड की सलाह को सकारात्मक तरीके से लेते हैं। रोहित शेट्टी की एक फिल्म आई थी सिंघम अगेन। इसमें रामकथा को आधुनिक तरीके से दिखाया गया था। फिल्म सेंसर में अटकी क्योंकि राम और हनुमान के बीच का संवाद बेहद अनौपचारिक और हल्की फुल्की भाषा में था। राम और हनुमान का संबंध भी दोस्ताना दिखाया गया था। भक्त और भगवान का भाव अनुपस्थित था। इस फिल्म में गृहमंत्री को भी नकारात्मक तरीके से दिखाया गया था। विशेषज्ञों की समिति ने फिल्म देखी। फिल्मकार रोहित शेट्टी और अभिनेता अजय देवगन के साथ संवाद किया, उनको वस्तुस्थिति से अवगत करवाया। दोनों ने इस बात को समझा और अपेक्षित बदलाव करके फिल्म समय पर रिलीज हो गई। प्रश्न यही है कि जो निर्माता निर्देशक अपनी फिल्म के प्रमोशन से अपेक्षित परिणाम नहीं पाते हैं वो सेंसर बोर्ड को प्रचार के औजार के तौर पर उपयोग करने की चेष्टा करते हैं। वो ये भूल जाते हैं कि ऐसा करके वो एक संवैधानिक संस्था के क्रियाकलापों को लेकर जनता के मन में भ्रम उत्पन्न करते हैं। यह लोकतांत्रिक नहीं बल्कि एक आपराधिक कृत्य की श्रेणी में आ सकता है। अनैतिक तो है ही।      


Saturday, June 28, 2025

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का हिंदू मन


कुछ दिनों पूर्व हिंदी के आलोचक नन्ददुलारे वाजपेयी का मैथिलीशरण गुप्त के कृतित्व पर लिखा एक लेख पढ़ रहा था। उसमें एक पंक्ति पढकर ठिठक गया। हिंदू उत्कर्ष के हामी, भारत-भारती के रचयिता रामोपासक मैथिलीशरण गुप्त। मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएं छात्र जीवन में पढ़ी थीं। जब हिंदू उत्कर्ष के हामी और रामोपासक जैसे विशेषण देखा तो लगा कि एक बार मैथिलीशरण गुप्त को फिर से पढ़ा जाए। उनकी कृति साकेत के बारे में ज्ञात था, स्मरण में भी था। सोचा कि भारत-भारती पढ़ी जाए। भारत-भारती की प्रस्तावना के पहले शब्द से स्पष्ट हो गया कि मैथिलीशरण गुप्त रामोपासक थे। प्रस्तावना का आरंभ ही श्री राम: से होता है। फिर वो लिखते हैं आज जन्माष्टमी है, भारत के लिए गौरव का दिन...। आगे लिखते हैं कि भला मेरे लिए इससे शुभ दिन और कौन सा होता कि मैं प्रस्तुत पुस्तक आपलोगों के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए पूर्ण करूं। आगे वो इस बात को और स्पष्ट करते हैं कि श्रीरामनवमी के दिन आरंभ करके इसको जन्माष्टमी के दिन पूर्ण कर रहा हूं। फिर मंगलाचरण में वो कहते हैं कि मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती। भारत-भारती की पंक्तियों पर आगे चर्चा करूंगा जिससे वो हिंदू उत्कर्ष के हामी भी सिद्ध होते हैं। उसके पूर्व एक और आलोचक की पंक्ति याद आ रही है। मैथिलीशरण गुप्त पर भारी-भरकम पुस्तक लिखनेवाले आलोचक ने माना कि जिन बड़ी पुस्तकों को मैंने छोड़ दिया है, उनमें से ‘हिंदू’ और ‘गुरुकुल’ से अधिकांश लोग परिचित हैं। उनके अपने तर्क हैं लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या मैथिलीशरण जी की रचना साकेत, भारत-भारती, जयद्रथ-वध लोकप्रिय नहीं हैं जिसपर विचार किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि यहां भी वही प्रविधि अपनाई गई जो निराला के कल्याण में लिखे लेखों को उनकी रचनाओं में शामिल नहीं करने की रही। आज के युवाओं को मैथिलीशरण गुप्त की पुस्तक हिंदू के बारे में जानने का अधिकार है। अगर हम मैथिलीशरण जी की दो कृतियों भारत-भारती और हिंदू पर विचार करें तो पाते हैं कि उनके लेखन के दो छोर हैं। एक छोर पर हिंदू या सनातन धर्म है और दूसरे छोर पर हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियां। एक छोर पर वो गर्व से खड़े होते हैं और दूसरे छोर पर जोरदार प्रहार करते हैं।

मैथिलीशरण गुप्त अपनी कृति हिंदू में कहते हैं श्री श्रीरामकृष्ण के भक्त/रह सकते हैं कभी अशक्त/दुर्बल हो तुम क्यों हे तात/उठो हिंदुओ हुआ प्रभात। विस्मृति नाम की इस कविता में मैथिलीशरण हिंदुओं से पराधीनता पाश में फंसे होने की बात करते हुए हिंदी समाज को जागृत करने का उपक्रम करते हैं। उनके हताश और दुखी होने को लेकर प्रश्न खड़े करते हैं। वो भारत का गौरव गान करते हुए कहते हैं कि हिंदुओं को धर्मप्रचार प्रिय था लेकिन हथियार लेकर नहीं बल्कि अपनी आध्यात्मिकता की शक्ति के आधार पर ये कर्म किया जाता था। लूटमार और तलवार के बल पर धर्म प्रचार पर प्रहार करते हुए मैथिलीशरण गुप्त हिंदू शासन की बात करते हैं उसके विकास को संसार के इतिहास से जोड़ते हैं । साथ ही वो ये कहना नहीं भूलते कि हिंदू शासन पद्धति में विभंजक नीति दुर्लभ थी। वो इतने पर ही नहीं रुकते हैं बल्कि हिन्दूओं को बतलाते हैं कि उनका धर्म धन्य है, उनकी ज्ञानासक्ति, श्रद्धा, भक्ति, प्रेम की महिमा का बखान करते हुए लिखते हैं कि हरि नर होकर भी खर्च नहीं हुए बल्कि अपने पुण्य स्पर्श से एक दिव्य आदर्श की स्थापना की। वो भारत की जनता से एक होने की अपेक्षा भी करते हैं और हिंदू जातीयता को संगठित करने की बात करते हैं- ऐसा है वह कौन विवेक/करता हो जो हमको एक/और बढ़ा सकता हो मान/केवल हिंदू-हिन्दुस्तान। अब इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि मैथिलीशरण गुप्त की हिंदू धर्म और उसकी शक्ति में कितनी जबरदस्त आस्था थी। वो जैन, बौद्ध, सिख, शैव और वैष्णवों के बीच मतभिन्नता को लेकर परेशान तो हैं पर इस बात को लेकर आश्वस्त हैं हिंदू इससे खिन्न नहीं होंगे और इस बात पर जोर देते हैं कि सबके मत भिन्न हो सकते हैं पर वो हैं अभिन्न। हिंदू धर्म को लेकर मैथिलीशरण गुप्त अपने दृढ़ मत पर अड़े हैं। वो विधवा विवाह के पक्षधर हैं। बाल विवाह और बेमेल विवाह पर वो अपनी कृति हिंदू में कविता के माध्यम से प्रहार करते हैं। घर में वो स्त्री को लक्ष्मी, वन में सावित्री और रण में असुर नाशिनी मानते हुए महिला शक्ति का जयघोष करते चलते हैं। उनकी कविताओं में जिस तरह के शब्दों का उपयोग हुआ है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वो स्त्री-पुरुष में भेद को गलत मानते थे। इसके अलावा मैथिलीशरण गुप्त ग्रामीण जीवन को सशक्त करने की बात भी करते थे। 

मार्क्सवादी आलोचकों ने भारत-भारती पर विचार करते हुए इस बात का उल्लेख किया कि मैथिलीशरण गुप्त की कृति भारत-भारती मौलाना हाली के मुसद्दस से प्रेरित है या उसके ही तर्ज पर लिखी गई है। हाली के साथ कैफी का नाम भी जोड़ा गया। बताया ये भी गया कि ऐसा मैथिलीशरण जी ने पुस्तक की भूमिका में इस बात को स्वीकार किया है। अब ये देख लेते हैं कि भूमिका में क्या लिखा है- कुछ ही दिन बाद उक्त राजा साहब का कृपा -पत्र मुझे मिला, जिसमें श्रीमान ने मौलाना हाली के मुसद्दस को लक्ष्य करके इस ढंग की पुस्तक हिंदुओं के लिए लिखने का मुझसे अनुग्रहपूर्वक अनुरोध किया। इसके बाद उन्होंने ये कहीं नहीं लिखा कि उसी पद्धति से भारत-भारती लिखी गई। पर मार्क्सवादी आलोचकों के प्रभाव में ये बात अकादमिक जगत में स्थापित हो गई। इस पुस्तक में उन्होंने भारतवर्ष की श्रेष्ठता, हमारे पूर्वज, हमारे आदर्श, हमारी सभ्यता आदि पर विस्तार से लिखा। मैथिलीशरण गुप्त इस पुस्तक में भी बार-बार हिंदू धर्म की श्रेष्ठता की बात करते चलते हैं। वो हिंदू सभ्यता के वैराट्य को उद्घाटित भी करते हैं। साथ ही हिंदू समाज में व्याप्त तरह-तरह की कुरीतियों पर भी प्रहार करते हैं। अपेक्षा करते हैं कि हिंदू समाज उनको दूर करेगा। भारत-भारती और हिंदू दो काव्यग्रंथों को पढ़ने के बाद ये स्पष्ट होता है कि मैथिलीशरण गुप्त के हिंदू मन में हिंदू सभ्यता को लेकर कितनी गहरी आसक्ति थी। आक्रांताओं के कारण हिंदू समाज में आई दुर्बलता को लेकर व्यथित भी थे।  

कुछ सप्ताह पूर्व जब इस स्तंभ में नामवर सिंह के बहाने से प्रेमचंद की रचनाओं में भारतीयता की बात की गई थी तो मृतप्राय लेखक संगठन चला रहे एक कथित और आत्मुग्ध मार्क्सवादी आलोचक ने तर्कों पर बात नहीं की थी। अपेक्षा भी नहीं थी। दरअसल वो जिस फासीवादी विचार के समर्थक और पोषक हैं उनमें तर्क और तथ्य की गुंजाइश होती नहीं है। मार्क्सवादी आलोचना पद्धति में झुंड बनाकर किसी लेखक को श्रेष्ठ बताने या उनके लिखे को ओझल करने का प्रयत्न होता है। वो चाहे प्रेमचंद हों, निराला हों, रामचंद्र शुक्ल हों। कुबेरनाथ राय जैसे श्रेष्ठ सनातनी लेखक का इस झुंडवादी आलोचना ने इतनी उपेक्षा कि उनके लेखों और निबंधों के बारे में हिंदी समाज की आनेवाली पीढ़ियों को पता ही नहीं चल सके। पर ऐसा होता नहीं है, सभी लेखकों की कृतियां अपने मूल प्रकृति में पाठकों के सामने आ रही हैं। 


Saturday, June 21, 2025

विमोचन के बहाने विदेशी भाषा पर प्रहार


पुस्तकों के विमोचन कार्यक्रमों में आमतौर पर चर्चा पुस्तक केंदित होती है। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी आशुतोष अग्निहोत्री के काव्य संग्रह ‘मैं बूंद स्वयं खुद सागर हूं’ के विमोचन में इस परंपरा से हटकर बातचीत हुई। मंच पर गृह मंत्री अमित शाह और गृह सचिव गोविंद मोहन थे। इस कारण वहां जो चर्चा हुई उसके महत्व को रेखांकित करना आवश्यक है। मंच पर पहले तो एक दिलचस्प वाकया हुआ। विमोचन के लिए सबको आग्रह किया जा रहा था। अमित शाह को लगा कि गृह सचिव के बोले बिना उनको आमंत्रित किया जा रहा है। उन्होंने इशारों से बताया कि गोविंद मोहन जी को बोलना है। खैर..स्थिति स्पष्ट हुई और पुस्तक विमोचन के बाद गृह सचिव बोलने आए। उन्होंने आशुतोष अग्निहोत्री की पुस्तक पर टिप्पणी करने के पहले विस्तार से हिंदी की विकास यात्रा पर अपनी बात रखी। हिंदी-उर्दू संबंध पर चर्चा करते हुए दोनों भाषा को बहन बताया। हिंदी के परिष्कृत शब्दों को लेकर समाज में जिस तरह उपहास होता है उसको रेखांकित किया। अतीत में जिस तरह से हिंदी और भारतीय भाषाओं को एक दूसरे विरुद्ध खड़ा करके हिंदी को नुकसान पहुंचाया गया उसका भी उल्लेख हुआ। अंत में उन्होंने कहा कि हिंदी का सूरज लुप्त हो रहा है लेकिन आशा की जानी चाहिए कि एक दिन उसका उदय होगा। गृह सचिव ने हिंदी के संदर्भ में कई बार विलुप्त होने जैसे शब्द बोले। विस्तार का समय नहीं रहा होगा अन्यथा वो इस बात की चर्चा अवश्य करते कि हिंदी कैसे विलुप्त हो रही है। गोविंद मोहन की ये बात भी कि हिंदी-उर्दू बहनें हैं, विस्तृत और गंभीर चर्चा की अपेक्षा रखती है।

अब बारी गृह मंत्री अमित शाह की थी। उन्होंने आशुतोष अग्निहोत्री और उनके संग्रह की प्रशंसा की। परिवर्तन में लगनेवाले समय और मेहनत पर भी बोले। अंत में वो भाषा पर आए। उन्होंने गृह सचिव से असहमति प्रकट करते हुए कहा कि गोविंद मोहन जी ने हिंदी के प्रति चिंता व्यक्त की, हिंदी की यात्रा का अच्छे से वर्णन किया लेकिन मैं उनसे थोड़ा असहमत हूं। गृह मंत्री ने कहा कि हिंदी पर कोई संकट नहीं है।  अमित शाह ने कहा कि हमारे देश की भाषाएं हमारी संस्कृति का गहना है। हमारे देश की भाषाओं के बगैर हम भारतीय ही नहीं रहते हैं। हमारा देश, इसका इतिहास, इसकी संस्कृति और हमारे धर्म को किसी विदेशी भाषा से नहीं समझ सकते। भारतीय भाषाओं पर जब अमित शाह बोल रहे थे तो उनकी वाणी में दृढता महसूस की जा सकती थी। वो इतने पर ही नहीं रुके बल्कि यहां तक कह गए कि आधी अधूरी विदेशी भाषाओं से संपूर्ण भारत की कल्पना नहीं हो सकती। वो केवल और केवल भारतीय भाषाओं से हो सकती है। अमित शाह ने ये भी माना कि लड़ाई बड़ी है, लेकिन भारत का समाज इतना सक्षम है कि इस लड़ाई में विजय प्राप्त कर सके। इस विजय के बाद एक बार फिर आत्मगौरव के साथ हमारी भाषाओं में हम हमारा देश भी चलाएंगे, सोचेंगे भी, शोध भी करेंगे, परिणाम भी निकालेंगे और विश्व का नेतृत्व भी करेंगे। अमित शाह ने जिस सभागार में ये बात कही वहां बड़ी संख्या में भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में काम करने वाले वरिष्ठ अधिकारी उपस्थित थे। बताते चलें कि अब भी भारत सरकार के मंत्रालयों के कामकाज में अंग्रेजी का बोलबाला है। 

गृह मंत्री अमित शाह की बातों का विश्लेषण कर रहा था। अचानक एक घटना दिमाग में कौंधी। पिछले दिनों मित्र-मिलन कार्यक्रम में गया था। वहां कई मित्र थे जो अलग अलग मंत्रालयों और विभागों में कार्यरत थे। हम कुछ मित्र एक जगह खड़े होकर बातें कर रहे थे। एक मित्र के फोन की घंटी बजी। उसने कहा जी सर मैं पहुंचता हूं, करके आपको भेजता हूं। उसने हमसे विदा लेने का उपक्रम आरंभ किया तो हमने पूछा कि क्या बात है? क्या करने की जल्दी है। उसने बताया कि गृह मंत्री अमित शाह हमारे विभाग के एक कार्यक्रम में आ रहे हैं। उस कार्यक्रम का विवरण उनको भेजा जाना है। मुझे आफिस जाना होगा। मैंने मजे लेने के लिए बोला कि क्या अपने आफिस में तुम्हीं एक हो जिसको विवरण बनाना आता है। उसने जो बोला वो चौंकानेवाला था। उसने बताया कि किसी भी मंत्रालय से कोई भी पत्र अगर गृह मंत्रालय जाता है और उस पत्र को गृह मंत्री तक जाना होता है तो वो हिंदी में ही जाता है। गृह मंत्री हिंदी के ही पत्र या फाइल नोटिंग पढते और निर्णय करते हैं। बाद में मैंने गृह मंत्रालय में कार्यरत एक दो लोगों से जानकारी ली। पता चला कि मेरा मित्र सही कह रहा था। एक ऐसा बदलाव जिसका असर गृह मंत्रालय की कार्यशैली पर स्वाभाविक है। अमित शाह का हिंदी प्रेम जगजाहिर है। हिंदी के साथ वो हमेशा भारतीय भाषाओं की बात आवश्यक रूप से करते हैं। हिंदी चूंकि उनके मंत्रालय से संबद्ध है इस कारण उनका दायित्व भी है कि वो इसको बढ़ावा दें। दे भी रहे हैं। 

अमित शाह के गृह मंत्री रहते ही अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन का आरंभ हुआ था। सूरत में पहला सम्मेलन आयोजित किया गया था। उसमें देशभर के हिंदी अधिकारी आए थे। विभिन्न सत्रों में अलग अलग क्षेत्र के विद्वानों ने हिंदी पर मंथन किया था। साहित्य, कला, संस्कृति और फिल्म से जुड़े लोग जो हिंदी से प्यार करते हैं, आमंत्रित किए गए थे। उस राजभाषा सम्मेलन की व्यापक चर्चा हुई थी। उसके बाद के सम्मेलन में हिंदी भाषी वक्ता तो थे पर इस बात का भी ध्यान रखा गया था कि वो सभागार के लोगों को बांध सकें। उन फिल्मी लोगों का आमंत्रित किया गया जो पर्दे पर तो हिंदी बोलते हैं लेकिन उनके रोमन में स्क्रिप्ट पढ़ने की बात सामने आती रहती है। सरकारी कार्यक्रमों की सीमा होती है। वहां हर तरह और वर्ग के लोगों को समायोजित करना पड़ता है। आशुतोष अग्निहोत्री के कविता संग्रह के विमोचन समारोह में जिस तरह से पहले गृह सचिव ने चिंता जताई और उसके बाद गृह मंत्री ने उन चिंताओं को दूर करते हुए लंबी लड़ाई की बात की है उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। लंबी लड़ाई विदेशी भाषा से तो है ही, औपनिवेशिक मानसिकता से भी है। उस मानसिकता से जो ये तय करती है कि ज्ञान की भाषा अंग्रेजी ही हो सकती है। उस मानसिकता से जो ये भ्रम फैलाती है कि विज्ञान और तकनीक को जानने के लिए विदेशी भाषा का ज्ञान आवश्यक है। इन भ्रमों का, इन धारणाओं का प्रतिकार आवश्यक है। इनका प्रतिकार गोष्ठियों में दिए जानेवाले भाषणों से नहीं होगा। इनका प्रतिकार अपने काम से करना होगा। गृह मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय और संस्कृति मंत्रालय को इसके लिए बेहतर समन्वय करके साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा। समग्रता में एक दिशा में साथ चलकर भारतीय भाषा को समृद्ध करना होगा। तब जाकर भारतीय भाषा का ध्वज लहरा सकेगा। 

Monday, June 16, 2025

चाहने और हासिल करने का अंतर


हम दिल दे चुके सनम, नाम से ही पता चलता है कि ये प्रेम कहानी है। शीर्षक में चुके शब्द इस बात की ओर भी संकेत करता है कि ये प्रेम त्रिकोण होगा। आज से 25 वर्ष पूर्व फिल्म हम दिल दे चुके सनम प्रदर्शित हुई थी। इसमें सलमान खान और ऐश्वर्या राय के साथ तीसरे कोण के रूप में अजय देवगन थे। उस समय की फिल्मी पत्रिकाओँ में इस बात की चर्चा मिलती है कि निर्देशक संजय लीला भंसाली अपनी फिल्म में अभिनेत्री के रूप में माधुरी दीक्षित को लेना चाह रहे थे। माधुरी के पास डेट्स की समस्या थी। माधुरी के इंकार के बाद दूसरी नायिका की तलाश आरंभ हुई। इसी दौर में संजय लीला भंसाली ने ऐश्वर्या को कहीं देखा और तय कर लिया कि यही उनकी फिल्म की नायिका है। ऐश्वर्या राय तबतक मिस वर्ल्ड का खिताब जीतकर तमिल फिल्मों में सफल हो चुकी थीं। हिंदी फिल्मों में सफलता मिलनी शेष थी। ऐश्वर्या की मुस्कुराहट को फिल्म समीक्षक प्लास्टिक मुस्कान करार दे चुके थे। इस स्थिति में संजय लीला भंसाली ने ऐश्वर्या को अपनी फिल्म में कास्ट करने का जोखिम उठाया। उसके बाद की कहानी को इतिहास बन गई। फिल्म जबरदस्त हिट रही थी। हलांकि इसके बाद सलमान और ऐश्वर्या राय ने कभी भी एक साथ किसी फिल्म में लीड रोल नहीं किया।  

हम दिल दे चुके सनम फिल्म का कथानक मैत्रेयी देवी के उपन्यास ना हन्यते और रोमानिया के लेखक मिरसिया के उपन्यास से प्रेरित लगता है। फिल्म के रिलीज होने के बाद इसकी चर्चा भी हुई थी। मिरसिया के उपन्यास का नायक भी भारत पढ़ने आया था, नायिका के घर रुका था, साथ पढ़ाई की थी, प्रेम हुआ था और फिर अलगाव। उपन्यास में बंगाल का परिवेश है जबकि फिल्म में गुजरात का। कथानक का फिल्मांकन संजय लीला भंसाली ने बेहद खूबसूरती के साथ किया है। विदेशी लोकेशन पर आकर्षक दृश्यों मे फिल्म की कहानी के साथ न्याय किया है। फिल्म रिलीज होने के पहले ही इसके गाने दर्शकों के बीच बेहद लोकप्रिय हो चुके थे। कविता कृष्णूमूर्ति और करसन की आवाज में गाया गाना ‘निंबूड़ा निंबूडा’ हो या कविता विनोद राठौर और करसन की आवाज में गाया ‘ढोली तारो ढोल बाजे’ हो आज भी पसंद किए जाते हैं। संजय लीला भंसाली की एक विशेषता ये है कि वो अपनी फिल्म में लोक से उठाकर एक गीत अवश्य रखते हैं। बोल और संगीत भी उसी अनुसार तय करते हैं। आप पद्मावत का गाना घूमर घूमर या बाजीराव मस्तानी का पिंगा गपोरी याद करिए। भंसाली भारतीय लोक के मन को पकड़ना जानते हैं। उन्होंने हम दिन दे चुके सनम के गीतों से दर्शकों को खींचा। 

इन दिनों इंदौर की एक लड़की का अपने प्रेमी के लिए पति का कत्ल करने का समाचार चर्चा में है। हम दिल दे चुके सनम की नायिका नंदिनी माता पिता की मर्जी से शादी करती है। वो समीर से प्यार करती है लेकिन शादी वनराज से करनी पड़ती है। पति को जब समीर के बारे में पता चलता है तो वो उसकी खोज में पत्नी के साथ इटली जाता है। वहां नंदिनी और समीर मिलते हैं। दोनों को साथ छोड़कर वनराज वहां से हट जाता है। समीर अपने सामने नंदिनी को पाकर बेहद खुश है। कहता है कि मुझे पता था कि तुम जरूर आओगी, आई लव यू। वो उसको अपने आलिंगन में लेता है लेकिन नंदिनी बेजान सी खड़ी रही है। कहती है, चाहने और हासिल करने में बहुत फर्क है। बात आगे बढ़ती है तो नंदिनी अपने प्रेमी को कहती है, प्यार करना तुमने सिखाया लेकिन प्यार निभाना मैंने अपने पति से सीखा। रोचक संवाद के बाद नंदिनी आंसू पोछती है और अपने प्रेमी को छोड़कर पति के पास वापस लौट जाती है। आज इस बात को लेकर हिंदी के फिल्मकार परेशान हैं कि उनकी फिल्में सफल नहीं हो रही हैं। असफलता का एक कारण ये हो सकता है कि हिंदी फिल्में भारतीय मूल्यों से दूर चली गई हैं जो दर्शकों को भा नहीं रही हैं। 

Saturday, June 14, 2025

रील्स की मायावी दुनिया का धोखा


आज से करीब दो दशक पूर्व की बात है। तब मैत्रेयी पुष्पा का हिंदी साहित्य में डंका बज रहा था। एक के बाद एक चर्चित उपन्यास लिखकर उन्होंने साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज की थी। गोष्ठियों में भी उनकी मांग थी। लोग उनको सुनना चाहते थे। मैत्रेयी पुष्पा भी अपने ग्रामीण अनुभवों के आधार पर बात रखती तो महानगरीय परिवेश में रहनेवालों को नया जैसा लगता। मुझे जहां तक याद पड़ता है कि दिल्ली के हिंदी भवन में एक गोष्ठी थी। उसमें मैत्रेयी पुष्पा भी वक्ता थीं। विषय स्त्री विमर्श से जुड़ा हुआ था। मैत्रेयी के अलावा जो भी वक्ता थीं वो स्त्री विमर्श को लेकर सैद्धांतिक बातें कर रही थी। मंच से बार बार सीमोन द बोव्आर के उपन्यास सेकेंड सेक्स का नाम लिया जा रहा था। सीमोन की स्थापनाओं पर बात हो रही थी और उसको भारतीय परिदृष्य से जोड़कर बातें रखी जा रही थीं। उनमें से अधिकतर ऐसी बातें थीं जो अमूमन स्त्री विमर्श की गोष्ठियों में सुनाई पड़ती ही थीं। अब बारी मैत्रेयी के बोलने की थी। उन्होंने माइक संभाला और फिर बोलना आरंभ किया। स्त्री विमर्श पर आने के पहले उन्होंने एक ऐसी बात कही जो उस समय नितांत मौलिक और उनके स्वयं के अनुभवों पर आधारित थी। उन्होंने कहा कि जब से औरतों के हाथ में मोबाइल पहुंचा है वो बहुत सश्कत हो गई हैं। उनको एक ऐसा सहारा या साथी मिल गया जो वक्त वेवक्त उनके काम आता है, उनकी मदद करता है। गांव की महिलाएं भी घूंघट की आड़ से अपनी पीड़ा दूर बैठे अपने हितचिंतकों को या अपने रिश्तेदारों को बता सकती हैं। संकट के समय मदद मांग सकती हैं। इस संबंध में मैत्रेयी पुष्पा ने कई किस्से बताए जो उनकी भाभी से जुड़े हुए थे। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने गंवई अंदाज में मोबाइल को स्त्री सशक्तीकरण से जोड़कर ऐसी बात कह दी जो उनके साथ मंच पर बैठी अन्य स्त्रियों ने शायद सोची भी न होगी। जब मैत्रेयी बोल रही थीं तो सभागार में जिस प्रकार की चुप्पी थी उससे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अधिकतर लोग उनकी इस स्थापना से सहमत हों। 

आज से दो दशक पहले मैत्रेयी पुष्पा ने जब ऐसा बोला था तब शायद ही सोचा होगा कि मोबाइल स्त्रियों और पुरुषों की दबी आकांक्षाओं के प्रदर्शन का भी कारक भी बनेगा। पिछले दिनों मित्रों के साथ स्क्रीन पर व्यतीत होनेवाले समय पर बातचीत हो रही थी। चर्चा में सभी ये बताने में लगे थे कि किन किन प्लेटफार्म पर उनका अधिक समय व्यतीत होता है। ज्यादातर मित्रों का कहना था कि इंस्टा और एक्स की रील्स देखने में समय जाता है। इस चर्चा में ही एक मित्र ने कहा कि वो जब घरेलू और अन्य महिलाओं के वीडियो देखते हैं तो आनंद दुगुना हो जाता है। जिनको डांस करना नहीं आता वो भी डांस करते हुए वीडियो डालती हैं। कई बार तो पति पत्नी के बीच के संवाद भी रील्स में नजर आते हैं। उसमें वो रितेश देशमुख और जेनेलिया की भोंडी नकल करने का प्रयास करते हैं। इस चर्चा के बीच एक बहुत मार्के की बात निकल कर आई। इंस्टा की रील्स एक ऐसा मंच बन गया है जो महिलाओं और पुरुषों के मन में दबी आकांक्षाओं को भी सामने ला रही हैं। जिन महिलाओं को चर्चित होने का शौक था, जिनको पर्दे पर आने की इच्छा थी, जिनको डांस सीखने और मंच पर अपनी कला को प्रदर्शित करने की इच्छा थी वो सारी इच्छाएं पूरी हो रही हैं। रील्स और इंस्टा के पहले इस तरह की आकांक्षाएं मन में ही दबी रही जाती थीं। उनके अंदर कुंठा पैदा करती थीं। मोबाइल और इंटरनेट की सुविधा नहीं होने से जो महिलाएं नृत्य कला का प्रदर्शन करना चाहती थीं वो कर नहीं पाती थीं। इसमें बहुत सी अधेड़ उम्र की महिलाओं को भी रील्स में देखा जा सकता है। कई तो अजीबोगरीब करतब करते हुए नजर आती हैं। लेकिन अपने मन का कर तो रही हैं। रील्स का ये एक सकारात्मक पक्ष माना जा सकता है। जैसे मोबाइल फोन ने महिलाओं को सशक्त किया उसी तरह से इंटरनेट और इंटरनेट प्लेटफार्म्स ने महिलाओं की आकांक्षाओं को पंख दिए। अब वो बगैर किसी लज्जा के, संकोच के अपने मन का कर रही हैं और समाज के सामने उसको प्रदर्शित भी कर रही हैं। 

रील्स को लेकर पहले भी इस स्तंभ में चर्चा हो चुकी है जिसमें रोग से लेकर शेयर बाजार में निवेश के टिप्स तक और धन कमाने से लेकर भाग्योदय तक के नुस्खों को केंद्र में रखा गया था। रील्स पर हो रही चर्चा में एक चिकित्सक मित्र ने एक मजेदार बात कही। उन्होंने कहा कि रील्स ने डाक्टरों का बहुत फायदा करवाया है। रील्स देखकर स्वस्थ रहने के नुस्खे अपनाने वाले लोग बढ़ते जा रहे हैं। स्वस्थ रहने के तरीकों को देखकर उनको अपनाने से बहुधा समस्या हो जा रही है। जैसे रील्स में सेंधा नमक को लेकर बहुत अच्छी-अच्छी बातें कही जाती हैं। सलाह देनेवाले सेंधा नमक को स्वास्थ्य के लिए उपयोगी बताते हैं। रील्स देखकर लोग सेंधा नमक खाने लग जाते हैं। बगैर ये सोचे समझे कि आयोडाइज्ड नमक खाने के क्या लाभ थे और छोड़ देने के क्या नुकसान। जब शरीर में सोडियम पोटाशियम का संतुलन बिगड़ता है तो चिकित्सकों के पास भागते हैं। पता चलता है कि ये असंतुलन निरंतर सेंधा नमक ही खाते रहने से हुआ। अगर आयोडाइज्ड नमक भी खाते रहते तो सभवत: ऐसा नहीं होता। स्वस्थ रहने के इसी तरह के कई नुस्खे आपको इंस्टाग्राम पर मिल जाएंगे। सभी इस तरह से बताए जाते हैं कि देखनेवालों का एक बार तो मन कर ही जाता है कि वो उसको अपना लें। इस बात का उल्लेख रील्स में नहीं होता है कि सलाह देनेवाले चिकित्सक या न्यूट्रिशनिस्ट हैं या नहीं। 

रील की दुनिया बहुत मनोरंजक है। समय बहुत सोखती है। कई बार वहां अच्छी सामग्री भी मिल जाती है लेकिन एआई के इस दौर में प्रामाणिकता को लेकर संशय मन में बना रहता है। किसी का भी वीडियो बनाकर उसमें उनकी ही आवाज पिरोकर वायरल करने का चलन भी बढ़ रहा है। ऐसे में इस आभासी दुनिया को सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के लिए ही उपयोग किया जाना चाहिए। मन में दबी इच्छाओं को पूर्ण करने का मंच माना या बनाया जा सकता है। इस माध्यम को गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि वो दिन दूर नहीं जब लोग इससे ऊबकर फिर से छपे हुए अक्षरों की ओर लौटेंगे। जिस प्रकार की प्रामाणिकता प्रकाशित शब्दों या अक्षरों की होती है वैसी इन आभासी माध्यमों में नहीं होती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अभी इस माध्यम का समाज पर प्रभाव पड़ रहा है। लोग कई बार यहां सुझाई या कही गई बातों को सही मानकर अपनी राय बना लेते हैं। लेकिन जैसे-जैसे देश में शिक्षितों की संख्या बढ़ेगी, लोगों की समझ बनेगी तो इसको विशुद्ध मनोरंजन के तौर पर ही देखा जाएगा सूचना के माध्यम के तौर पर नहीं। 


Saturday, June 7, 2025

कम्युनिस्ट नैरेटिव के नामवर आलोचक

हिंदी आलोचना में नामवर सिंह का नाम आदर के साथ लिया जाता रहा है। आरंभिक दिनों में उन्होंने विपुल लेखन किया। कालांतर में लेखन उनसे छूटा। वो भाषण और व्याख्यान की ओर मुड़ गए। दोनों स्थितियों में नामवर सिंह ने कम्युनिस्ट पार्टी के लिए कार्य किया। उनके निर्देशों के आधार पर नैरेटिव बनाने और बिगाड़ने का खेल खेला। आलोचना में भी उन्होंने नैरेटिव ही गढ़ा। उनके लेखों के विश्लेषण से ये स्पष्ट है। नामवर सिंह के शिष्यों ने उनके व्याख्यानों का लिप्यांतरण करके पुस्तकें प्रकाशित करवाईं। पिछले दिनों नामवर सिंह के पुत्र विजय प्रकाश सिंह और उनके जीवनीकार अंकित नरवाल ने एक पुस्तक संकलित-संपादित की, जमाने के नायक। प्रकाशन वाणी प्रकाशन से हुआ है। पुस्तक की भूमिका में नरवाल ने नामवर सिंह के बनने और सुदृढ होने को रेखांकित किया। उनकी प्रशंसा की, जो स्वाभाविक ही है। इस पुस्तक के लेखों में नामवर सिंह की आलोचना में फांक दिखती है। आलोचक कम पार्टी कार्यकर्ता अधिक लगते हैं। जिन साहित्यिक घटनाओं और कथनों को उद्धृत करके स्थापना देते हैं वो उनकी आलोचकीय ईमानदारी और विवेक
को संदिग्ध बनाती है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित पुस्तक ‘लेनिन और भारतीय साहित्य’ से साभार नामवर सिंह का एक लेख इस पुस्तक में है। नामवरीय आलोचना का ऐसा उदाहरण जो उनकी छवि को धूमिल करता है। नामवर सिंह 1917 के बाद भारत की राजनीति को लेनिन से जोड़कर रूसी क्रांति के प्रभाव की पताका फहराते हैं। साहित्य में भी।  वो लिखते हैं, साहित्य का इस वातावरण से सर्वथा अस्पृष्ट रहना असंभव था। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना आकस्मिक नहीं बल्कि इन घटनाओं की सहज परिणति थी जिसके संगठनकर्ता लेनिन के विचारों को मानने वाले नौजवान कम्युनिस्ट थे, किंतु जिसमें निराला और पंत जैसे हिंदी के कवियों ने सहर्ष भाग लिया और अखिल भारतीय ख्याति के कथाकार प्रेमचंद ने जिसके अधिवेशन की अध्यक्षता की।

इसी पुस्तक में एक और लेख संकलित है, गोर्की और हिंदी साहित्य। यहां वो जोर देकर कहते हैं कि, तथ्य है कि गोर्की की मृत्यु से तीन महीने पहले प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में योग देकर भारत में प्रगतिशील साहित्य के आंदोलन का सूत्रपात कर चुके थे। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष पद से उन्होंने जो भाषण दिया था, वो गोर्की के विचारों का भारतीय भाष्य मात्र नहीं बल्कि भारत को अपने ऐतिहासिक संदर्भ में निर्मित साहित्य का सर्जनात्मक दस्तावेज है। यहां वो फिर से ये कहते हैं कि प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता की। नामवर ऐसा कहते हुए कहीं भी किसी सोर्स का उल्लेख नहीं करते हैं। सुनी-सुनाई बातें बार-बार लिखते हैं। नामवर सिंह और उन जैसे अन्य पार्टी लेखकों के कहने पर मान लिया गया कि प्रेमचंद ने अध्यक्षता की थी। नामवर को किसी दस्तावेज आदि के आधार पर ये कहना चाहिए था। उल्लेख तो इस बात का भी मिलता है कि प्रेमचंद जैनेन्द्र के कहने पर अधिवेशन में शामिल होने चले गए थे। उनका भाषण देने का कार्यक्रम नहीं था। जब अधिवेशन में पहुंचे तो वहां उपस्थित साहित्यकारों ने उनसे आग्रह किया और वो मंच से बोले। इसको प्रचारित करवा दिया गया कि प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से थे। बाद में संशोधन कर कहा जाने लगा कि वो पहले अधिवेशन के अध्यक्ष थे। अब प्रेमचंद के प्रगतिशील लेख संघ में दिए गए भाषण के अंश को देखते हैं, ‘प्रगतिशील लेखक संघ यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावत: प्रगतिशील होता है। अगर वो इसका स्वभाव न होता तो शायद वो साहित्कार ही नहीं होता। उसे अपने अंदर भी एक कमी महसूस होती है, इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है।‘ सामान्य सी बात है कि अगर वो अध्यक्षता कर रहे होते तो ये प्रश्न नहीं उठाते। नामवर सिंह कहते हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में उनका योगदान था। अगर योगदान होता तो प्रगतिशीलता के नाम पर प्रेमचंद संघ के संस्थापकों के साथ पहले चर्चा करते। मंच से आपत्ति क्यों करते। अजीब मनोरंजक बात है कि लेखक संघ का नाम तय हो रहा था और स्थापना में योगदान करनेवाले को पता नहीं था। 

नामवर सिंह कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े थे। पार्टी के बाहर के लेखकों को वो येन केन प्रकारेण कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित साबित करने में लगे रहते थे। इसके लिए चाहे किसी भी शब्द की कैसी भी व्याख्या क्यों न करनी पड़े। इसके पीछे भी लेनिन की सीख थी। उक्त लेख में नामवर सिंह ने उल्लेख किया है, लेनिन का एक निबंध पार्टी साहित्य और पार्टी संगठन, जिसमें पार्टी लेखकों से पूरी पक्षधरता का आग्रह किया गया था। नामवर सिंह ने लेनिन की पक्षधरता वाली बात अपना ली। अब निराला को लेनिन के प्रभाव में बताने के लिए वो उनकी 1920 की एक कविता बादल राग की पंक्तियां लेकर आए। पंक्ति है- तुझे बुलाता कृषक अधीर/ऐ विप्लव के वीर। अब इस पंक्ति में चूंकि कृषक भी है और विप्लव भी तो निराला कम्युनिस्ट हो गए। विप्लव शब्द का प्रयोग निराला बांग्ला के प्रभाव में करते रहे हैं। राम की शक्ति पूजा से लेकर तुलसीदास जैसी उनकी लंबी कविता में भी ये प्रभाव दिखता है। खेत-खलिहान, किसान-मजदूर को बहुत आसानी से नामवर सिंह जैसे नैरेटिव-मेकर्स ने सर्वाहारा बना दिया था। नामवर सिंह ने तो जयशंकर प्रसाद को भी लेनिन से प्रभावित बता दिया। दिनकर की कविता में लेनिन शब्द आया तो उसपर लेनिन के विचारों का प्रभाव। वो स्वाधीनता के आंदोलन और आंदोलनकर्ताओं की भावनाओं को नजरअंदाज करके उसपर लेनिन की छाप बताने में लगे रहे। लेखकों को कम्युनिस्ट घोषित और स्थापित करते रहे, तथ्यों की व्याख्या से छल करते हुए। प्रेमचंद अगर कह रहे हैं कि आनेवाला जमाना अब किसानों मजदूरों का है तो उनको कम्युनिस्ट या लेनिन के प्रभाव वाले बताने में नामवर ने जरा भी विलंब नहीं किया। वो कम्युनिस्टों को लाभ पहुंचानेवाला नैरेटिव गढ़ रहे थे। नामवरी आलोचना का एक और उदाहरण देखिए, ‘निराला ने भी प्रेमचंद की तरह लेनिन पर स्पष्टत: कहीं कुछ नहीं लिखा पर उनकी विद्रोही प्रतिभा में लेनिन का प्रभाव बीज रूप में सुरक्षित अवश्य था।‘ ये विद्रोही प्रतिभा अंग्रेजों के खिलाफ उस दौर के सभी लेखकों कवियों में मिलता है। एक जगह कहते हैं कि प्रेमचंद समाजवादी यथार्थवाद से प्रभावित थे या नहीं, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है लेकिन इतना निश्चित है कि...। यह वही प्रविधि है जिसका निर्वाह इतिहास लेखन में रोमिला थापर और बिपिन चंद्रा जैसे इतिहासकारों ने किया। वो अपनी स्थापना तो देते हैं लेकिन साथ ही लिख देते हैं, इट अपीयर्स टू बी, पासेबली, प्रोबैबिली आदि। इस प्रविधि का लाभ ये होता है कि आम पाठक वही समझता है जो लेखक कहना चाहता है। कभी अगर स्थापना पर सवाल उठे तो इन शब्दों की आड़ लेकर बचकर निकल सके। आज इस बात की आवश्कता प्रबल होती जा रही है कि नामवर सिंह ने कम्युनिस्ट पार्टी के लिए जो नैरेटिव गढ़ा उसको उजागर किया जाए क्योंकि उस नैरेटिव से किसी भी रचनाकार का सही आकलन संभव नहीं।