tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post3419684188899436620..comments2024-03-26T08:08:47.284-07:00Comments on हाहाकार: किताब पढ़ी नहीं है लेकिन...अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.comBlogger4125tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-7280969208769552662017-01-20T12:15:20.388-08:002017-01-20T12:15:20.388-08:00'Maine inki kriti padhi nahi hai lekin...'...'Maine inki kriti padhi nahi hai lekin...'haha...is jumle ka istemaal hona hi hai kyonki aaj kal koi bhi sahityakar apne likhe ko sabse sarvopari manta hai. Use fursat kahan ki dusron ki kitaab utha kar dekh le. Ab padhne walon se vimochan nahi karaya jata, facebook par atyadhik active aur fan following wale logon se vimochan karaya jata hai...jo baad unke photo tag krke unke kaseede padhe. <br /><br />Main aapka yah lekh padh kar, kah rahi hun ki...Aapne ek behad sarthak lekh likha hai :D Bina pustak mela gaye wahan ka poora byora mila gaya. रेणु मिश्रा https://www.blogger.com/profile/12564348972850889566noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-55509960919710793512017-01-15T06:47:04.887-08:002017-01-15T06:47:04.887-08:00Bahut behtrin sirBahut behtrin sirAnonymoushttps://www.blogger.com/profile/02461829002145529789noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-55719714661771324462017-01-14T21:35:54.855-08:002017-01-14T21:35:54.855-08:00विमोचन, लोकार्पण , मेलार्पण इत्यादि शब्द तब बेमानी...विमोचन, लोकार्पण , मेलार्पण इत्यादि शब्द तब बेमानी हो जाते हैं जब एक गंभीर पाठक जिसे वास्तव में कोई किताब पढनी है वो इन सब ‘’औपचारिकताओं ’’ से आकर्षित नहीं होता |उसे यदि किताब पढनी है तो वो पुस्तक मेले से भी ( बगैर विमोचनों ) के खरीदेगा |या अमेज़न, या प्रकाशन गृह आदि से सीधे मंगवाता है |<br />पुराने और अपने ज़माने के मशहूर लेखक बतर्ज़ ,‘’जो दिखता है वो बिकता है’’ के दर्शन ( चलन ) पर नई ‘’भीड़’ में पीछे हो जाने और ( यदि वो सत्ता में हैं ) तो सत्ता से दूर हो जाने पर साहित्य बिरादरी से अलग थलग पड़ ही जाते हैं, अकेले अशोक बाजपेई ही इसके उदाहरण नहीं | लेकिन उन जैसे लेखकों के लिए ‘’भीड़ का पीछे चलता हुजूम ‘’ इस उम्र और पोजीशन तक आकर महत्वहीन हो जाता है |कुछ शब्द हर पुस्तक मेले में चंद नए शगूफों के नए नकोर पदार्पित होते हैं| किताबों , व्यवस्थाओं, शब्दों , प्रचार, विज्ञापनों , विषय / शिल्प , शैली आदि में नए प्रयोग किये जाते हैं और वो होने भी चाहिए वरना रीति /विधाओं में बासीपन की परतें चढ़ती जायेंगी | लेकिन एक तरफ इस प्रयोगात्मक नवीनता के साथ आगे बढ़ने की चुनौती और वहीं दूसरी और ‘’साहित्यिक विरासत ‘’ बनाम परम्परावाद की स्वीकृति इन दौनों ही अवधारणाओं के विरोधाभास को कैसे माना जा सकता है ? ‘’विरासत वादी परम्परा ‘’ की रीत संभवतः राजेन्द्र यादव जी से शुरू होती है तथाकथित साहित्यक विरासत के दाबेदार ( संवाहक )यद्यपि कई लेखक/लेखिकाएं हैं |समय २ पर वो इसे सगर्व प्रस्तुत भी करती हैं लेकिन पिछले दिनों जब मशहूर और प्रिय लेखिका नासिरा शर्मा ने ये ‘’वसीयत’’ बाकायदा अपनी पसंदीदा लेखिकाओं को सौंपी तो पिछली क्षीण सी परम्परा को कुछ बल मिला | जबकि आज अनगिनत लेखक लेखिकाएं और बेहतर लिख रहे हैं इसकी आवश्यकता ही क्यूँ पडी कि नासिरा शर्मा को साहित्यिक वसीयत करनी पडी ? नए लेखन में अपनी पसंदीदा लेखिकाएं होना अलग बात है लेकिनं विरासत ?नासिरा शर्मा निस्संदेह बहुत बड़ी लेखिका हैं |उनका लिखा हमेशा पसंद आता है |वस्तुतः यदि ये परम्परा चल निकली तो सामान्य पाठकों का ‘’ गंभीर साहित्य’’ में विशवास कम होने का संकट पैदा हो सकता है | |संगीत की बात अलग है |संगीत परपराओं, खानदानो , और घरानों से आगे बढ़ता रहा है | गौरतलब है कि मुगलकाल में संगीत/ कलाओं की दुर्दशा के बाद इनमे अराजकता जैसी स्थिति पैदा हो गयी थी |उस वक़्त के मूर्धन्य संगीत कलाकारों ( विशेषतौर पर मुस्लिम कलाकारों ने ) ने सिर्फ अपने खानदानी लोगों को अपनी ‘’पारम्परिक विशेषताओं के साथ ‘’संगीत की शिक्षा देना शुरू कर दिया था वो भी सिर्फ प्रायोगिक |इस हस्तांतरण में संगीत को विकसित होने का संकट पैदा हो गया था | भातखंडे , पलुस्कर जैसे संगीत के मूर्धन्य कलाकारों ने संगीत की परम्परा को ‘’सब के लिए’’ बनाने के लिए किताबें लिखीं , स्कूल कॉलेज खोले, सभाएं की आज शास्त्रीय संगीत उन जैसे विरले और अद्भुत महापुरुषों की बदौलत भी ज़िंदा है | और तब मूल विषय , शास्त्रीयता वही होते हुए अपनी विशिष्ट गुणात्मकता के साथ राज्यों, घरानों में संगीत बंट गया जिन्हें उनके शागिर्द हर काल में नया और विस्तार देते रहे हैं लेकिन साहित्य को जाहिराना तौर पर ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाना पडा फिर साहित्य तो समाज को ही रेखांकित करता है और समाज परिवर्तनशील है फिर इसमें परम्पराएं कैसे पोषित की जा सकती हैं ? खैर <br />मैत्रेयी पुष्पा जी ,वो ज़ाहिर तौर पर एक सुप्रसिद्ध और समर्पित लेखिका हैं |वो हम सबकी आदरनीय हैं |हिन्दी साहित्य की एक मज़बूत कड़ी हैं |उनकी ‘’गुरु परम्परा’’ काफी चर्चित और पुष्ट रही है | अब वो सता में भी हैं | उनके आत्मीय सानिध्य का प्रतिफल उनके समक्ष के रचनाकारों को प्राप्त होता रहा है ये भी कोई नई बात नहीं | लेकिन बतौर हिन्दी की पाठक ,ये स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं कि निजी तौर पर उनका लेखन ख़ास पसंद नहीं | पत्र पत्रिकाओं में लेख समीक्षाएं आदि के सिवाय अब तक उनकी एक भी किताब नहीं पढी |अपने इस दुस्साहस पर मुझे खेद हैं |बावजूद इसके कि पाठक को ये हक़ है कि वो अपने पसंदीदा रचनाकारों को ‘’इमानदारी से’’ चुन सके |<br />वंदना शुक्लाhttps://www.blogger.com/profile/16964614850887573213noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-17668799449590662212017-01-14T21:34:55.791-08:002017-01-14T21:34:55.791-08:00बढ़िया लेखा...दरअसल विमोचन, लोकार्पण , मेलार्पण इत्...बढ़िया लेखा...दरअसल विमोचन, लोकार्पण , मेलार्पण इत्यादि शब्द तब बेमानी हो जाते हैं जब एक गंभीर पाठक जिसे वास्तव में कोई किताब पढनी है वो इन सब ‘’औपचारिकताओं ’’ से आकर्षित नहीं होता |उसे यदि किताब पढनी है तो वो पुस्तक मेले से भी ( बगैर विमोचनों ) के खरीदेगा |या अमेज़न, या प्रकाशन गृह आदि से सीधे मंगवाता है |<br />पुराने और अपने ज़माने के मशहूर लेखक बतर्ज़ ,‘’जो दिखता है वो बिकता है’’ के दर्शन ( चलन ) पर नई ‘’भीड़’ में पीछे हो जाने और ( यदि वो सत्ता में हैं ) तो सत्ता से दूर हो जाने पर साहित्य बिरादरी से अलग थलग पड़ ही जाते हैं, अकेले अशोक बाजपेई ही इसके उदाहरण नहीं | लेकिन उन जैसे लेखकों के लिए ‘’भीड़ का पीछे चलता हुजूम ‘’ इस उम्र और पोजीशन तक आकर महत्वहीन हो जाता है |कुछ शब्द हर पुस्तक मेले में चंद नए शगूफों के नए नकोर पदार्पित होते हैं| किताबों , व्यवस्थाओं, शब्दों , प्रचार, विज्ञापनों , विषय / शिल्प , शैली आदि में नए प्रयोग किये जाते हैं और वो होने भी चाहिए वरना रीति /विधाओं में बासीपन की परतें चढ़ती जायेंगी | लेकिन एक तरफ इस प्रयोगात्मक नवीनता के साथ आगे बढ़ने की चुनौती और वहीं दूसरी और ‘’साहित्यिक विरासत ‘’ बनाम परम्परावाद की स्वीकृति इन दौनों ही अवधारणाओं के विरोधाभास को कैसे माना जा सकता है ? ‘’विरासत वादी परम्परा ‘’ की रीत संभवतः राजेन्द्र यादव जी से शुरू होती है व तथाकथित साहित्यक विरासत के दाबेदार ( संवाहक )यद्यपि कई लेखक/लेखिकाएं हैं |समय २ पर वो इसे सगर्व प्रस्तुत भी करती हैं लेकिन पिछले दिनों जब मशहूर और प्रिय लेखिका नासिरा शर्मा ने ये ‘’वसीयत’’ बाकायदा अपनी पसंदीदा लेखिकाओं को सौंपी तो पिछली क्षीण सी परम्परा को कुछ बल मिला | जबकि आज अनगिनत लेखक लेखिकाएं और बेहतर लिख रहे हैं इसकी आवश्यकता ही क्यूँ पडी कि नासिरा शर्मा को साहित्यिक वसीयत करनी पडी ? नए लेखन में अपनी पसंदीदा लेखिकाएं होना अलग बात है लेकिनं विरासत ?नासिरा शर्मा निस्संदेह बहुत बड़ी लेखिका हैं |उनका लिखा हमेशा पसंद आता है |वस्तुतः यदि ये परम्परा चल निकली तो सामान्य पाठकों का ‘’ गंभीर साहित्य’’ में विशवास कम होने का संकट पैदा हो सकता है | |संगीत की बात अलग है |संगीत परपराओं, खानदानो , और घरानों से आगे बढ़ता रहा है | गौरतलब है कि मुगलकाल में संगीत/ कलाओं की दुर्दशा के बाद इनमे अराजकता जैसी स्थिति पैदा हो गयी थी |उस वक़्त के मूर्धन्य संगीत कलाकारों ( विशेषतौर पर मुस्लिम कलाकारों ने ) ने सिर्फ अपने खानदानी लोगों को अपनी ‘’पारम्परिक विशेषताओं के साथ ‘’संगीत की शिक्षा देना शुरू कर दिया था वो भी सिर्फ प्रायोगिक |इस हस्तांतरण में संगीत को विकसित होने का संकट पैदा हो गया था | भातखंडे , पलुस्कर जैसे संगीत के मूर्धन्य कलाकारों ने संगीत की परम्परा को ‘’सब के लिए’’ बनाने के लिए किताबें लिखीं , स्कूल कॉलेज खोले, सभाएं की आज शास्त्रीय संगीत उन जैसे विरले और अद्भुत महापुरुषों की बदौलत भी ज़िंदा है | और तब मूल विषय , शास्त्रीयता वही होते हुए अपनी विशिष्ट गुणात्मकता के साथ राज्यों, घरानों में संगीत बंट गया जिन्हें उनके शागिर्द हर काल में नया और विस्तार देते रहे हैं लेकिन साहित्य को जाहिराना तौर पर ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाना पडा फिर साहित्य तो समाज को ही रेखांकित करता है और समाज परिवर्तनशील है फिर इसमें परम्पराएं कैसे पोषित की जा सकती हैं ? खैर <br />मैत्रेयी पुष्पा जी ,वो ज़ाहिर तौर पर एक सुप्रसिद्ध और समर्पित लेखिका हैं |वो हम सबकी आदरनीय हैं |हिन्दी साहित्य की एक मज़बूत कड़ी हैं |उनकी ‘’गुरु परम्परा’’ काफी चर्चित और पुष्ट रही है | अब वो सता में भी हैं | उनके आत्मीय सानिध्य का प्रतिफल उनके समक्ष के रचनाकारों को प्राप्त होता रहा है ये भी कोई नई बात नहीं | लेकिन बतौर हिन्दी की पाठक ,ये स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं कि निजी तौर पर उनका लेखन ख़ास पसंद नहीं | पत्र पत्रिकाओं में लेख समीक्षाएं आदि के सिवाय अब तक उनकी एक भी किताब नहीं पढी |अपने इस दुस्साहस पर मुझे खेद हैं |बावजूद इसके कि पाठक को ये हक़ है कि वो अपने पसंदीदा रचनाकारों को ‘’इमानदारी से’’ चुन सके |<br />वंदना शुक्लाhttps://www.blogger.com/profile/16964614850887573213noreply@blogger.com