tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post7132980040866047136..comments2024-03-26T08:08:47.284-07:00Comments on हाहाकार: स्वायत्ता की आड़ में खेल अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-9249761305300044752014-09-01T08:50:47.229-07:002014-09-01T08:50:47.229-07:00इस लेख से कुछ बातें स्पष्ट (ज़ाहिर) होती हैं जैसे
...इस लेख से कुछ बातें स्पष्ट (ज़ाहिर) होती हैं जैसे <br />-जब भी कोई सरकार सत्ता में आती है संस्कृतिक अकादमियों में ख़ास विचारधारा और उनके अनुयायी संगठनों /गुटों में में हलचल बढ़ जाती है और भय भी कि स्वायत्ताता पर वो हमला ना करे |यही वजह हे कि सरकार के आते ही नई नई अटकलबाजियां,घोषणाएं,संभावनाएं,विरोध आदि का बाज़ार गर्म होता है जैसे कि मौजूदा सरकार ले किये हुआ |<br />-सांस्कृतिक संगठनों पर वामपंथ का कब्जा रहा है |दिया गया उदाहरन इस बात का साक्षी है कि प्रलेस लोकतंत्र का विरोधी रहा है |इसका उस वक़्त उन्हें इनाम भी मिला (और उनके निहितार्थ की पुष्टि हुई )हो सकता है जलेस का उदय इसी असहमति का परिणाम हो |<br />- आजकल अधिकारियों या साहित्यिक रसूखदारों के लिए ‘’पसंदीदा’’ शब्द मात्र साहित्यिक योग्यता से नहीं रह गया है उसके और भी निहितार्थ हैं | आखिर पुरुस्कारों ,विदेश यात्राओं आदि पर हो हल्ले यूँ ही नहीं होते ये अलग बात है कि उन्हें ज़मीन के नीचे दफ़न होते भी देर भी नहीं लगती |पदासीन लोगों द्वारा किये गए आर्थिक घपलों ने इसे और संदिग्ध बनाया है |<br />-‘’रिमोट किसके हाथ में’’ इसका ताल्लुक सिर्फ राजनैतिक मसलों तक ही नहीं (इतिहास साक्षी है) बल्कि संस्कृतिक मसलों पर भी लागू होता है |<br />-कुल मिलाकर ‘’सवाल यही कि क्या देश की सांस्कृतिक संस्थाएं किसी खास विचारधाऱा की पोषक और किसी खास विचारधारा की राह में बाधा बन सकती हैं ।‘’ये सवाल दशकों से प्रासंगिक रहा है शायद निष्पक्ष और योग्य अधिकारियों द्वारा नियमित समीक्षाओं का अभाव और संविधान का लचीलापन भी इसका एक प्रमुख कारन होसकता है | <br /><br />)स्वायत्तता जहाँ भी होगी अनियमितताएं, मनमानी,गडबड़ियां ,अंधा बांटे रेवड़ी वाली कहावत होगी ही और स्वायत्तता का पक्ष भी सबसे ज्यादा वही लोग लेते हैं जो प्रकारांत में इससे लाभान्विर होते रहे हैं |लोकतान्त्रिकता का लाभ उन्हें मिलता रहा है ये सच है | स्वायत्तता के नाम पर प्रतिभाहीनता को जो बढ़ावा दिया जा रहा है उसके पीछे ‘’एकाधिकार’’ और अन्य कई कारन हैं |<br />जब तक संविधान में इन अकादमियों की निष्पक्षता और स्तरीयता को प्रमुखता में रखते हुए कोई ज़रूरी परिवर्तन नहीं होंगे, साहित्य अकादमी अपने स्थापना की मूल अवधारणा में वापस नहीं लौट सकेगी |<br />अनंत विजय जी का विश्लेष्णात्मक और विचारणीय लेखवंदना शुक्लाhttps://www.blogger.com/profile/16964614850887573213noreply@blogger.com