tag:blogger.com,1999:blog-90850226379429492902024-03-16T18:29:30.595-07:00हाहाकारहाहाकार वहां है, जहां खबर नहीं हैअनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.comBlogger1360125tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-62658859204342169402024-03-16T18:28:00.000-07:002024-03-16T18:28:42.591-07:00विवाद के भंवर में लेखक-प्रकाशक संबंध<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgm9JB4k3Wf4ibo56PqP7xsT4HQKloB4UUhEOQVe2ss-G8Zgo1XttSHg-9eEzIBGDcJoJF3ozNaWOtQrkZzwRfUf3hWsCQbk5PUHWc53NOOoocTfiPV4063aSiPpsDthQ8ONKaS5SVygAcNEtZufeElXlDo3T_RI3Zal7SAyMzLs5Jj6FCS9uPtpTV5p3Y/s1281/IMG_2812.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1281" data-original-width="1201" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgm9JB4k3Wf4ibo56PqP7xsT4HQKloB4UUhEOQVe2ss-G8Zgo1XttSHg-9eEzIBGDcJoJF3ozNaWOtQrkZzwRfUf3hWsCQbk5PUHWc53NOOoocTfiPV4063aSiPpsDthQ8ONKaS5SVygAcNEtZufeElXlDo3T_RI3Zal7SAyMzLs5Jj6FCS9uPtpTV5p3Y/w188-h200/IMG_2812.jpg" width="188" /></a></div><br />नई दिल्ली के रवीन्द्र भवन परिसर को साहित्य अकादमी ने अपने वार्षिक आयोजन साहित्योत्सव के कारण खूब सजाया था। शनिवार को संपन्न हुए साहित्योत्सव को विश्व का सबसे बड़ा साहित्य उत्सव बताया गया, जिसमें भारतीय और अन्य भाषाओं के 1100 से अधिक लेखकों के भाग लेने की बात कही गई। रवीन्द्र भवन परिसर में बनाए गए अलग अलग सभागारों में दिनभर विमर्श का दौर चला था। इसमें कन्नड के वरिष्ठ लेखक भैरप्पा से लेकर बिल्कु नवोदित लेखकों तक की भागीदारी रही। साहित्योत्सव के दौरान रवीन्द्र भवन परिसर में घूमते हुए सुरुचिपूर्ण तरीके से लगाए गए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित लेखकों के संक्षिप्त परिचय श्रोताओं का ध्यान आकृष्ट कर रहे थे। पुरस्कार विजेताओं की तस्वीर के साथ पुरस्कृत कृति की तस्वीर भी लगाई गई थी। इन पुरस्कार विजेताओं की तस्वीरों को देखने के क्रम में मेरी नजर वर्ष 2023 में हिंदी के लिए सम्मानित लेखक संजीव के परिचय पर चली गई। उनकी तस्वीर के साथ सेतु प्रकाशन के प्रकाशित उनकी कृति ‘मुझे पहचानो’ का कवर भी लगाया गया था। बताया गया था कि संजीव, जिनका मूल नाम राम सजीवन प्रसाद है, हिंदी के प्रख्यात लेखक और अनुवादक हैं। आपका जन्म 6 जुलाई 1947 को बांगर कलां, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। आपकी 17 कृतियां प्रकाशित हैं। ‘मुझे पहचानो’ हिंदी उपन्यास है, जो सती जैसे सामाजिक कुप्रथा के सामंती अवशेषों के विनाशकारी प्रभावों को उजागर करता है। यह उपन्यास आमजन की दुनिया के पाखंड, धर्म और धन के फंदों, बिगड़ते मानवीय मूल्यों की काली परछाइयों को भी प्रदर्शित करता है और मानवीय मूल्यों के पुनरुत्थान का आह्वान करता है। इस परिचय में तो जो बातें लिखी गई हैं उसपर मतैक्य संभव है और नहीं भी। संजीव उपाख्य राम सजीवन प्रसाद के इस पोस्टर को देखते हुए अचानक से कुछ दिनों पहले दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला के एक कार्यक्रम की बात दिमाग में कौंधी।<p></p><p style="text-align: justify;">विश्व पुस्तक मेला के दौरान राजकमल प्रकाशन के मंच से संजीव ने ये घोषणा की थी कि उनकी सभी किताबें अब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगी। अवसर था उनके कहानी संग्रह प्रार्थना के लोकार्पण का। संजीव ने कहा था कि राजकमल प्रकाशन समूह पहले से हमारा प्रकाशक है और मेरे कई उपन्यास पूर्व में यहां से प्रकाशित है। प्रतिनिधि कहानियां प्रकाशित की है। इनसे पुराना संबंध और वर्षों का विश्वास है। इसी विश्वास के कारण उन्होंने राजकमल प्रकाशन को अपनी सभी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए अधिकृत किया है। अब इस अधिकृत करने से जो एक स्थिति बनेगी उसकी कल्पना करिए। सेतु प्रकाशन ने संजीव का उपन्यास प्रकाशित किया। वहां से प्रकाशित उपन्यास पर उनको साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। सेतु प्रकाशन ने इस उपन्यास को पाठकों और आलोचकों तक पहुंचाने का उपक्रम किया होगा। उपन्यास प्रकाशन पर धन खर्च हुआ होगा जिसको सेतु प्रकाशन ने वहन किया। जब उस उपन्यास को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया तो उसको दूसरे प्रकाशन गृह को देने की घोषणा कर दी गई। सेतु प्रकाशन के अमिताभ का कहना है अभी तक संजीव ने इस संबंध में उनसे कोई बात नहीं की है। अपने प्रकाशक से बगैर बात किए और बिना आपसी सहमति के दूसरे प्रकाशन को पुस्तक देने की घोषणा अनैतिक प्रतीत होती है। अगर राजकमल प्रकाशन समूह से उनका पुराना संबंध और वर्षों का विश्वास था तो उपन्यास वहीं से प्रकाशित करवाना चाहिए था। इससे सेतु प्रकाशन के लिए ये असहज स्थिति नहीं बनती। इसी तरह से संजीव की कई पुस्तकें वाणी प्रकाशन से भी प्रकाशित हैं। उनका क्या होगा, इस बारे में भी कयास लगाए जा रहे हैं। क्या ऐसी स्थिति बनेगी कि लेखक और प्रकाशकों के मसले अदालत से हल होगें? दरअसल संजीव हिंदी के ओवररेटेड लेखक हैं। उन्होंने सूत्रधार नाम से एक उपन्यास लिखा था। उनकी विचारधारा के लेखकों ने उसको चर्चित करने का प्रयास किया लेकिन तात्कालिक चर्चा के बाद वो उपन्यासों की भीड़ में गुम हो गया। गाहे बगाहे वो विवादित बयान देते रहते हैं लेकिन उसका नोटिस भी हिंदी जगत नहीं लेता।</p><p style="text-align: justify;">इसके पहले हिंदी प्रकाशन जगत से एक और समाचार आया। स्वर्गीय निर्मल वर्मा की सभी पुस्तकें एक बार फिर से राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगी। निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल ने प्रकाशन के अधिकार राजकमल प्रकाशन को सौंप दिए। राजकमल प्रकाशन से उनकी कुछ पुस्तकें नई साज सज्जा के साथ प्रकाशित भी हो गईं। निर्मल जी की पुस्तकों की यात्रा दिलचस्प है। कुछ वर्षों पहले गगन गिल और राजकमल प्रकाशन में रायल्टी को लेकर विवाद हुआ था। तब इस तरह की खबरें आई थीं कि एक वर्ष में निर्मल वर्मा की सभी पुस्तकों की रायल्टी एक लाख रुपए भी नहीं होती है। उस समय हिंदी जगत में रायल्टी को लेकर खूब चर्चा हुई थी। तब निर्मल जी की सभी पुस्तकों के प्रकाशन का अधिकार राजकमल प्रकाशन से लेकर भारतीय ज्ञानपीठ को दे दिया गया था। वहां से कुछ वर्षों बाद निर्मल वर्मा की समस्त पुस्तकें वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुईं। संभव है कि एग्रीमेंट ही इस तरह का हो कि एक अंतराल के बाद पुस्तक प्रकाशन का अधिकार लेखक या उनके उत्तराधिकारी के पास वापस आ जाते हों। लेकिन जब विवाद और आरोप- प्रत्यारोप के बाद पुस्तकों के प्रकाशन का अधिकार एक जगह से दूसरे जगह जाता है तब प्रश्न उठते हैं। कुछ दिनों पूर्व विनोद कुमार शुक्ल ने भी रायल्टी का मुद्दा उठाकर अपनी कुछ पुस्तकों के प्रकाशन अधिकार दूसरे प्रकाशन को देने की घोषणा की थी। होना ये चाहिए कि लेखक और प्रकाशक दोनों को प्रकाशन एग्रीमेंट सार्वजनिक करना चाहिए ताकि भ्रम और विवाद की अप्रिय स्थिति न बने।</p><p style="text-align: justify;">संजीव उपाख्य राम सजीवन प्रसाद ने जब अपनी सभी पुस्तकों के राजकमल प्रकाशन से छपने की बात की थी तब कहा था कि इससे पाठकों को सुविधा होगी और उनको सभी पुस्तकें एक जगह उपलब्ध होंगी। पाठकों को कितनी सुविधा होगी या भ्रमित होंगे ये तो समय तय करेगा लेकिन लेखकों के आर्थिक लाभ का संकेत तो मिल ही रहा है। हर किसी को अपना लाभ देखना चाहिए लेकिन उसको दूसरा रंग देना उचित नहीं कहा जा सकता है। पूरे हिंदी जगत को इसपर विचार करना चाहिए कि ऐसी स्थिति बन क्यों रही है। विचार किया जाए तो हिंदी प्रकाशन का जो स्वरूप वर्षों से बना है उसमें प्रकाशक और लेखक के बीच व्यावसायिक संबंध नहीं बन पाते हैं और वो बहुधा व्यक्तिगत होते हैं। वरिष्ठ लेखक अपनी पसंद के प्रकाशकों को अपनी पुस्तकें प्रकाशित होने के लिए दे देते हैं और प्रकाशक लेखक की साहित्यिक हैसियत या अपनी श्रद्धा के अनुसार उनको अग्रिम धनराशि देते हैं जो रायल्टी में एडजस्ट होते रहती है। लेखकों को अपने पुस्तकों के प्रकाशन की इतनी जल्दी होती है कि वो चाहते हैं कि प्रकाशक उनकी पुस्तक उनकी मर्जी की तिथि के अनुसार प्रकाशित कर दे। लेखकों का एक दूसरा वर्ग है जो प्रकाशकों के यहां चक्कर लगाता रहता है कि उसकी कृति किसी भी तरह से प्रकाशित हो जाए। कई प्रकाशक इस स्थिति का फायदा उठाते हैं और बिना किसी एग्रीमेंट के पुस्तक का प्रकाशन कर देते हैं। जब पुस्तकों की समीक्षा आदि छपने लगती है या कोई पुरस्कार मिल जाता है तो लेखक को लगता है कि प्रकाशक उनकी कृति से बहुत पैसे कमा रहा है। विवाद यहीं से उत्पन्न होने लगता है। ऐसी स्थिति में प्रकाशक कुछ धन लेखक को देकर विवाद को फौरी तौर पर शांत करने का प्रयास करते हैं। हो भी जाता है लेकिन ये स्थायी हल नहीं है। इस बारे में प्रकाशकों और लेखकों को एक साथ बैठकर बात करनी होगी या फिर हिंदी में अंग्रेजी की तरह लिटरेरी एजेंट हों जो लेखकों और प्रकाशकों दोनों का हित देख सकें। लेखकों और प्रकाशकों को भी दोनों के हितों का ध्यान रखना चाहिए।</p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-63283811369870753752024-03-09T18:50:00.000-08:002024-03-09T18:50:23.532-08:00 राष्ट्र और संस्कृति पर राजनीति<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEhyphenhyphendJ_p37ILrZmzzy2wP-Iy29SEKRuqMghiHJQJNfi1y0SK2pJDxsaPudAjZofd1-WRL6eDROJpr2LDaUIKVWL9DGHI7h9KFdMaBEFB9VmyK-P1d51ViR_5m_o_urb9X7NqmvBx-UMh1Ohkb09BcoexwXLbNrr4bsuQFau3xAjpdKT4iWbsQ5-djgS1Y/s1281/IMG_2703.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1281" data-original-width="1207" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEhyphenhyphendJ_p37ILrZmzzy2wP-Iy29SEKRuqMghiHJQJNfi1y0SK2pJDxsaPudAjZofd1-WRL6eDROJpr2LDaUIKVWL9DGHI7h9KFdMaBEFB9VmyK-P1d51ViR_5m_o_urb9X7NqmvBx-UMh1Ohkb09BcoexwXLbNrr4bsuQFau3xAjpdKT4iWbsQ5-djgS1Y/w189-h200/IMG_2703.jpg" width="189" /></a></div><br />कुछ दिनों पूर्व द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के सांसद ए राजा ने भारत और राष्ट्र को लेकर कुछ बातें कहीं। उनकी बातों पर राजनीतिक दलों ने प्रतिक्रिया दी। दोनों बातें समाचार पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुईं। ए राजा कहते हैं कि भारत एक राष्ट्र नहीं है। भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा। एक राष्ट्र, एक भाषा एक परंपरा और एक संस्कृति को दर्शाता है और ऐसी विशेषताएं ही एक राष्ट्र का निर्माण करती है। डीएमके के सांसद इतने पर ही नहीं रुके, आगे बोले कि तमिल एक राष्ट्र है, उड़िया एक भाषा है और एक राष्ट्र है। ऐसी सभी इकाइयां मिलकर भारत का निर्माण करती हैं। ऐसे में भारत एक देश नहीं है बल्कि यह एक उपमहाद्वीप है इसमें विभिन्न प्रथाएं, परंपराएं और संस्कृतियां हैं। तमिलनाडु, केरल, दिल्ली और ओडिशा जैसे राज्यों में अपनी अपनी स्थानीय संस्कृति है। ए राजा ने इसके बाद भी अनेक विवादित बातें कीं। वो भारत के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि ये एक राष्ट्र नहीं बल्कि छोटे राष्ट्रों का समूह है। यहां की संस्कृति एक नहीं है। इस तरह की बातों से वो अपने अज्ञान का प्रदर्शन करते हैं। भारत एक राष्ट्र के तौर पर प्राचीन काल से पूरी दुनिया में जाना जाता रहा है। भारतीय संस्कृति भी एक है जिसको लेकर भी तमाम विद्वानों ने लिखा है। पौराणिक ग्रंथों में इसका उल्लेख कई बार मिलता है। ए राजा और उनकी पार्टी के नेताओं को भारत के पौराणिक ग्रंथों या सनातन से जुड़े ग्रंथों पर हो सकता है विश्वास न हो इस कारण उनकी धारणा का निषेध आधुनिक काल के इतिहासकारों के लेखन से ही करना उपयुक्त रहेगा। ए राजा से ये अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है कि उन्होंने ऋगवेद या स्मृतियों को पढ़ा होगा। अपेक्षा तो ये भी नहीं की जा सकती है कि उन्होंने आनंद कुमारस्वामी, वासुदेवशरण अग्रवाल, जैसे लेखकों को पढ़ा होगा। पर ये अपेक्षा तो की जा सकती है कि ए एल बैशम का पुस्तक द वंडर दैट वाज इंडिया पढ़ा होगा। रोमिला थापर और रामशरण शर्मा जैसे मार्क्सवादी इतिहासकारों के बारे में सुना होगा। उनके लेखन से परिचित होंगे। ए एल बैशम आस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी, कैनबरा में एशियन सिविलाइजेशन के प्रोफेसर थे। उन्होंने 1954 में ‘द वंडर दैट वाज इंडिया’ नाम की पुस्तक लिखी थी। ये कई वर्षों बाद भारत में प्रकाशित हुई थी। ये पुस्तक छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय हुई और इतिहास के छात्रों के लिए लगभग अनिवार्य भी। इस पुस्तक में बैशम ने भारत के बारे में विस्तार से लिखा है। दूसरे संस्करण की भूमिका की कुछ पंक्तियों का उल्लेख राजा के बयान के संदर्भ में करना उचित रहेगा। बैशम लिखते हैं कि इस पूरी किताब में ‘इंडिया’ शब्द का प्रयोग भौगोलिक आधार पर किया गया है, जिसमें पाकिस्तान समाहित है। इसका अर्थ है कि वो एक राष्ट्र के तौरा पर अखंड भारत की बात कर रहे हैं। इस पुस्तक के पहले अध्याय में भी ए एल बैशम ने विस्तार से भारत और उसकी प्राचीन संस्कृति के बारे में बताया है। इसमें भी वो ‘लैंड आफ इंडिया’ के बारे में जब लिखते हैं तो भारत को एक राष्ट्र के तौर पर ही रेखांकित करते हैं। जब वो हिमालय पर्वत शृंखला और नदियों की बात करते हैं तो दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत की सीमाओं की बात करते हैं। जब वो डिस्कवरी आफ इंडिया की बात करते हैं तो प्राचीन भारतीय सभ्यता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि प्राचीन भारत की सभ्यता मिस्त्र, मेसोपोटामिया और ग्रीस की सभ्यताओं से अलग हैं क्योंकि इनकी पंरपराएं सभ्यता के आरंभ से लेकर अबतक निर्बाध रूप से कायम हैं। इसके आगे वैशम एक पंक्ति बहुत महत्वपूर्ण कहते हैं, भारत और चीन प्राचीनतम सांस्कृतिक परंपरा वाले देश हैं जहां एक निरंतरता लक्षित की जा सकती है। लगभग 500 पृष्ठों की इस पुस्तक को ही राजा पढ़ लेते तो भारत को एक राष्ट्र नहीं कहने की अज्ञानता नहीं करते। इसको विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं का देश नहीं बताते। रोमिला थापर से लेकर रामशरण शर्मा तक ने भी जब भारत की बात की है तो एक देश के तौर पर ही की है। <p></p><p style="text-align: justify;">ए राजा के उपरोक्त बयान के कारणों पर आने के पहले सम्राट अशोक के शिलालेखों को भी देख लेते हैं। 1837 तक अशोक के शिलालेखों के बारे में पता नहीं था। 1837 में पहली बार जेम्स प्रिंसेप ने अशोक के शिलालेखों के बारे में लिखना आरंभ किया। 1901 के आसपास वी स्मिथ ने सम्राट अशोक पर एक मोनोग्राफ लिखा। इसके बाद अशोक के कालखंड के शिलालेखों की ओर पूरी दुनिया के इतिहासकारों का ध्यान गया। अब यह तो नहीं कहा जा सकता है कि ए राजा को वी स्मिथ के मोनोग्राफ को पढ़ना चाहिए। 1925 में डी आर भंडारकर ने सम्राट अशोक के शासनकाल पर दिए अपने व्याख्यानों को प्रकाशित करवाया। उससे भी भारत के एक राष्ट्र और एक पारंपरिक संस्कृति के बारे में पता चला है। </p><p style="text-align: justify;">इस स्तंभ में पहले भी सभ्यता और संस्कृति के बारे में लिखा जा चुका है। संस्कृति के चार अध्याय जैसा ग्रंथ लिखनेवाले रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है कि सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है और संस्कृति वो गुण है जो हममें व्याप्त है। वो ये भी कहते हैं कि संस्कृति सभ्यता की अपेक्षा महीन चीज होती है। वह सभ्यता के भीतर उसी तरह व्याप्त रहती है जैसे दूध में मक्खन या फूलों में सुगंध। संस्कृति ऐसी चीज नहीं जिसकी रचना दस-बीस या सौ-पचास वर्षों में की जा सकती है। संस्कृति का स्वभाव है कि वह आदान प्रदान से बढ़ती है। जब भी दो देश वाणिज्य-व्यापार अथवा शत्रुता-मित्रता के कारण आपसे में मिलते हैं तब उनकी संस्कृतियां एक दूसरे को प्रभावित करने लगती हैं। भारत वर्ष पर आक्रांताओं का आक्रमण हुआ। उन्होंने भारत पर शासन किया। उस कालखंड में भी भारत की संस्कृति प्रभावित हुई थी। संस्कृति के प्रभावित होने का ताजा उदाहरण हम 1991 के बाद के कालखंड में देख सकते हैं। भारत की अर्थव्यवस्था को जब खोला गया तो उसने भी हमारी संस्कृति को प्रभावित किया। जब भारत की संस्कृति कहा जाता है तो उसको संस्कृति के अर्थ में ही समझना होगा। कई इतिहासकारों और विद्वानों ने जब संस्कृति के प्रभावित होने की बात की तो उन्होंने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ये कहा कि भारत की संस्कृति एक ही है जहां हम विविधताओं का उत्सव मनाते हैं। संस्कृति की स्थापित परिभाषा के आलोक में उनकी ये बात सटीक प्रतीत होती है। </p><p style="text-align: justify;">दरअसल ए राजा का बयान एक राजनीतिक बयान है। जब एक चुना हुआ जनप्रतिनिधि इस तरह की बातें करता है तो उसका समाज पर असर पड़ता है। लोकतंत्र में जनता का अधिकार है कि वो अपने नेताओं की बातों के पीछे की राजनीति को समझे। राजा जब तमिल, तेलुगु और उड़िया की अलग संस्कृति की बात करते हैं या भारत के एक राष्ट्र की अवधारणा पर चोट करते हैं तो उनका सोच विभाजनकारी प्रतीत होता है। इस तरह के बयानों से फौरी तौर पर कुछ राजनीतिक लाभ हो सकता है लेकिन न तो उनको न ही पार्टी को कोई दीर्घकालिक फायदा होगा न ही उनको व्यक्तिगत रूप से। इस तरह के विभाजनकारी बयानों का प्रतिकार इस कारण भी किया जाना चाहिए ताकि विभाजनकारी सोच को रोका जा सके। कुछ दिनों से देश में उत्तर दक्षिण के बीच विवाद को हवा दी जा रही है। राजा के बयान को भी उसी आलोक में देखा जाना चाहिए। ऐसे लोग भारत के संविधान की शपथ लेकर संसद में बैठते हैं लेकिन प्रतीत होता है कि वो जिसकि शपथ लेते हैं उनमें भी उनकी आस्था नहीं है। </p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-12842210866877238512024-03-09T18:45:00.000-08:002024-03-09T18:45:28.502-08:00आलम आरा ने बदली दिशा <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieNbkJvppNyV7X-qQ_AAR1pE9-rPLsnunV4SPpABPSUh7jCWN12nM5Uz-0FrMJ4s6NGWUQaZ1XoPT34F5KmM2bNfbFa16g4ItbXdNHtUdO5WO65p1EG4arl5IhqbJm_ZhS6GM6a1cv27qG0Af_1TZ9p_mwIovBIHdOjV_hyphenhyphenH0sFTTTPOsgXdb9kqBAPd4/s1335/IMG_2704.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1335" data-original-width="800" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieNbkJvppNyV7X-qQ_AAR1pE9-rPLsnunV4SPpABPSUh7jCWN12nM5Uz-0FrMJ4s6NGWUQaZ1XoPT34F5KmM2bNfbFa16g4ItbXdNHtUdO5WO65p1EG4arl5IhqbJm_ZhS6GM6a1cv27qG0Af_1TZ9p_mwIovBIHdOjV_hyphenhyphenH0sFTTTPOsgXdb9kqBAPd4/w120-h200/IMG_2704.jpg" width="120" /></a></div><br />भारतीय फिल्मों की सफलताओं का स्वर्णिम इतिहास रहा है। दादा साहब फाल्के ने जब पहली हिंदी फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई थी वो जबरदस्त सफल रही थी। कहा जाता है कि टिकटों की बिक्री की कमाई इतनी होती थी कि सिक्कों को बोरियों में भर कर रखना होता था। कुछ इसी तरह की कहानी दादा साहब फाल्के की एक और फिल्म से जुड़ी हुई है। 1917 में दादा साहब ने एक फिल्म बनाई थी जिसका नाम था लंका दहन। नाम से ही स्पष्ट है कि फिल्म रामकथा पर आधारित है। 1917 में बनी इस फिल्म को पूरे देश में दर्शकों का खूब प्यार मिला था। कहा जाता है कि ये फिल्म मद्रास (अब चेन्नई) में इतनी हिट रही थी कि इसकी कमाई के सिक्कों को बोरियों में भरकर बैलगाड़ी पर लादकर ले जाया जीता था। फिल्मों को लेकर ये दीवानगी मूक फिल्मों के दौर में चल ही रही थी लेकिन उस दौर में फिल्मों को देखने के लिए घंटों पहले से सिनेमा हाल के बाहर जमा होने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। 14 मार्च 1931 को जब पहली बोलती फिल्म आलम आरा बांबे (अब मुंबई) के मैजेस्टिक सिनेमा हाल में रिलीज होने की खबर आम हुई तो लोग सूरज उगने के पहले अंधेरे में ही सिनेमा हाल के बाहर जमा होने लगे थे। मिहिर बोस ने अपनी पुस्तक बालीवुड में इसका विस्तार से उल्लेख किया है। इस फिल्म के निर्देशक अर्देशिर इरानी के बिजनेस पार्टनर के हवाले से लिखा गया है कि मैजेस्टिक सिनेमा के बाहर सुबह से ही इतनी भीड़ जमा हो गई कि हाल के कर्माचरियों को अंदर जाने में परेशानी हो रही थी। किसी तरह से वो अंदर जा पाए उस समय पंक्तिबद्ध होकर किसी काम को करने की अवधारणा नहीं थी इस कारण अफरातफरी मची थी। लोगों की भीड़ धीरे धीरे जब अराजक होने लगी तो सिनेमाघर के प्रबंधकों को पुलिस बुलानी पड़ी थी । तब जाकर फिल्म का प्रदर्शन हो सका था। कहा जाता है कि उस समय फिल्म के टिकट की कीमत चार आना थी जो ब्लैक में चार से पांच रुपए में बिकी थी। एक रुपए में चार आना होता था। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आलम आरा को लेकर कितनी दीवानगी थी। <p></p><p style="text-align: justify;">ये दीवानगी फिल्म को लेकर तो थी ही, दीवानगी का एक कारण अपनी भाषा में नायक और नायिका को बोलते सुनने का रोमांचकारी अनुभव भी था। आलम आरा पहली बोलती फिल्म तो थी ही लेकिन इसने हिंदी फिल्मों की दिशा बदल दी। इस फिल्म में तीस गाने थे। आलम आरा के बाद बनने वाली फिल्मों को अगर देखें तो सबमें खूब गाने होते थे। फिल्मकारों को लगता था कि जितना संगीत होगा फिल्म उतनी लोकप्रिय होगी। आलम आरा के बाद बनने वाली फिल्मों में 10 से 15 गाने तो होते ही थे। फिल्म इतिहासकारों का मानना है कि आलम आरा के पहले जब मूक फिल्मों का दौर था तब भारत में बनने वाली फिल्मों का ट्रीटमेंट वैसा ही होता था जैसे कि पूरी दुनिया में उस जानर की फिल्मों का होता था। जैसे ही बोलती फिल्मों का चलन आरंभ हुआ तो भारतीय फिल्में कथावाचन की अपने पारंपरिक शैली को अपनाने लगी। रंगमंच को लेकर जो अवधारणा थी वो पर्दे पर साकार होने लगी थी। इस लिहाज से देखा जाए तो आलम आरा को सिर्फ इसलिए याद नहीं किया जाना चाहिए कि उसने भारतीय फिल्मों के पात्रों को वाणी दी। इस फिल्म ने निर्माण की शैली को भी प्रभावित किया। गानों को फिल्म का अभिन्न अंग बनाने का आरंभ यहीं से होता है। गानों की परंपरा भारतीय रंगमंच में पहले से मौजूद थी। इस तरह से अगर हम विचार करें तो आलम आरा ने हिंदी फिल्मों को भारतीय कला के करीब लाने का कार्य भी किया। 1938 में प्रकाशित इंडियन सिनेमैटोग्राफ ईयरबुक में इस प्रवृत्ति को रेखांकित किया गया था। उसमें कहा गया था कि बोलती फिल्मों में गीत और संगीत के माध्यम से भारतीय चलचित्र जगत ने अपनी रचनात्मकता साबित की थी। जो लोग तकनीक को कला का दुश्मन मानते हैं उनको यह सोचना चाहिए कि बहुधा तकनीक रचनात्मकता को बढ़ावा देती है । आज आर्टिफिशियल इंटेलिंजेंस (एआई) को लेकर भी फिल्म जगत से जुड़े कई लोग सशंकित हैं लेकिन जिस तरह से एआई ने किसी भाषा में बनी फिल्म को अन्य भाषाओं में जब करने की सहूलियत दी है वो भी रेखांकित की जानी चाहिए। </p><div style="text-align: justify;"><br /></div>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-67718672234060298802024-03-02T17:30:00.000-08:002024-03-02T17:30:46.313-08:00 हिंदी और गांधी के सपनों पर ग्रहण <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgIFWVUyL5C6gYo5iLMJr-3lTqxQtwDJ7QUSD5Xa2PAVIHVM4-v8OTxAPxyGxQWX8Sw_CJSk-xuLibl3dhSDZi5UvT1ZiG9APlfBtQA-mAVtpeEAgUDBHBLeVR79qX7jJStQILHyvr7C8LgaUrWF_4bBWYyhtErOOEz3_XFVYEg0FuK_beraMohzD73Udg/s1278/IMG_2643.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1278" data-original-width="1206" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgIFWVUyL5C6gYo5iLMJr-3lTqxQtwDJ7QUSD5Xa2PAVIHVM4-v8OTxAPxyGxQWX8Sw_CJSk-xuLibl3dhSDZi5UvT1ZiG9APlfBtQA-mAVtpeEAgUDBHBLeVR79qX7jJStQILHyvr7C8LgaUrWF_4bBWYyhtErOOEz3_XFVYEg0FuK_beraMohzD73Udg/w189-h200/IMG_2643.jpg" width="189" /></a></div><br />एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, जिसका नाम है महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय। ये विश्वविद्यालय महाराष्ट्र के वर्धा में स्थित है। इसकी वेबसाइट पर प्रकाशित परिचय में बताया गया है कि वर्ष 1997 में संसद में पारित एक अधिनियम के माध्यम से इसकी स्थापना की गई। इस विश्वविद्यालय के उद्देश्यों में क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी का सम्यक विकास करना, हिंदी को वैश्विक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए सुसंगत प्रयास करना। हिंदी को रोजगार की भाषा बनाने के लिए प्रयत्न करना, अंतराष्ट्रीय शोध और विमर्श केंद्र के रूप में विवविद्यालय का विकास करना। संसद के पारित अधिनियम के आलोक में कांग्रेस समर्थक अधिकारी अशोक वाजपेयी को विश्वविद्यालय का पहला कुलपति बनाया गया। वो लगभग चार वर्षों तक विश्वविद्यालय को दिल्ली से ही चलाते रहे। कभी कभार वर्धा चले जाते थे। उनके कार्यकाल में कुछ विवाद भी हुए। उनके बाद कई कुलपति नियुक्त हुए लेकिन विश्वविद्यालय अपने उद्देश्यों की तरफ बहुत धीरे-धीरे बढ़ पाया। वर्धा इस स्थित यह विश्वविद्यालय कभी छोटे तो कभी बड़े विवाद में घिरा रहा। तभी नियुक्तियों को लेकर तो कभी निर्माण को लेकर। पिछले वर्ष 14 अगस्त को अप्रिय परिस्थितियों में कुलपति रजनीश कुमार शुक्ल ने कुलपति के पद से इस्तीफा दे दिया। रजनीश शुक्ल का कार्यकाल भी विवादित रहा। जब उन्होंने पद छोड़ा तो विश्वविद्यालय के वरिष्ठतम प्रोफेसर एल कारूण्यकरा को कुलपति का प्रभार दिया। करीब दो महीने तक रजनीश शुक्ल का इस्तीफा स्वीकृत नहीं हुआ और प्रोफेसर कारूण्यकरा विश्वविद्यालय चलाते रहे। शिक्षा मंत्रालय ने जब रजनीश शुक्ल का इस्तीफा स्वीकृत किया तो साथ ही नागपुर के इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट (आईआईएम) के निदेशक को विश्वविद्यालय के कुलपति का अतिरिक्त प्रभार सौंप दिया। इसके बाद प्रोफेसर कारूण्यकरा अदालत चले गए जहां मामला अभी लंबित है। अतिरिक्त प्रभार के रूप में नागपुर आईआईएम के निदेशक विश्वविद्लाय चला रहे हैं। इस बीच नए कुलपति की नियुक्ति के लिए शिक्षा मंत्रालय ने विज्ञापन दे दिया। प्रक्रिया चल रही है। <p></p><p style="text-align: justify;">इस क्रोनोलाजी को बताने का उद्देश्य ये है कि किस तरह से महात्मा गांधी और हिंदी के नाम पर बना ये केंद्रीय विश्वविद्लाय निरंतर विवादों में रहा। इन विवादों का असर विश्वविद्यालय के कामकाज पर पड़ रहा है। स्थायी कुलपति के इस्तीफे के छह महीने की अवधि बीत जाने के बाद भी कुलपति की नियुक्ति नहीं होने के कारण विश्वविद्यालय के सामने जो बड़े उद्देश्य थे उन पर ब्रेक लग गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से शिक्षा के भारतीयकरण के लक्ष्य को पाना चाह रहे हैं। इसके लिए वो खुद बहुत सक्रिय रहे हैं, अब भी हैं। भारतीय भाषा भी प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय शिक्षा नीति की प्राथमिकता में है। भारतीय भाषा को रोजगार से जोड़ने के लिए भी बड़े स्तर पर कार्य हो रहे हैं। पाठ्यक्रम से लेकर पाठ्य सामग्री तक तैयार करने के लिए पिछले दो वर्षों से हर स्तर पर श्रम हो रहा है । लेकिन जब हिंदी के इस विश्वविद्यालय की स्थिति ऐसी लचर हो तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लक्ष्य को समग्रता में पाने में कठिनाई हो सकती है। इस समय जब महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, के माध्यम से हिंदी को शक्ति देने का उपक्रम जोर शोर से चलाया जाना चाहिए था तब विश्वविद्यालय केस मुकदमों में उलझा हुआ है। जिनके पास विश्वविद्यालय का अतिरिक्त प्रभार है वो अतिरिक्त दायित्व की तरह ही निर्वाह भी कर रहे हैं। विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने अभी हाल ही में कुलपति को एक पत्र लिखने की बात कही है जिसमें वो ये मांग करेंगे कि प्रशासन विश्वविद्यालय की स्थिति पर एक श्वेत पत्र जारी करे। शिक्षकों को संबोधित उसी पत्र में शिक्षक संघ ने आरोप लगाया है कि विश्वविद्यालय में नियम कानून को दरकिनार कर निर्णय लिए जा रहे हैं। कर्माचरियों और शिक्षकों को परेशान किया जा रहा है आदि आदि। ये आरोप हैं और इनकी जांच होगी तभी सचाई का पता चल पाएगा। </p><p style="text-align: justify;">इन दिनों एक बेहद दिलचस्प बात इस विश्वविद्लय से जुड़ी है वो ये कि इसके रोजमर्रा के निर्णय व्हाट्सएप पर हो रहे हैं। चाहे वो शिक्षकों के अवकाश की स्वीकृति का मामला हो, चाहे किसी के जीपीएस खाते से पैसे निकालने की अनुमति का संदर्भ हो या किसी शिक्षक को किसी कार्यक्रम आदि में भाग लेने की अनुमति का मामला हो। अधिकतर मामलों में कुलपति का अप्रूवल व्हाट्सएप पर हो रहा है। इस प्रवृत्ति के कारण विश्वविद्यालय में ये चर्चा होने लगी है कि महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अब व्हाट्सएप युनिवर्सिटी बन गया है। अभी तक विमर्श या चर्चा के दौरान जब काल्पनिक बातों को तथ्य बनाकर पेश किया जाता था तो कहा जाता था कि व्हाट्सएप युनिवर्सिटी का ज्ञान मत दो। व्हाट्सएप युनिवर्सिटी का प्रयोग हल्के फुल्के अंदाज में होता था उसको अब महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से जुड़े कुछ लोग अपनी युनिवर्सिटी का मजाक बनाने के लिए प्रयोग करने लगे हैं। यह ऐसी स्थिति है जिसकी कभी कल्पना नहीं की गई थी। अकादमिक परिषद और कार्य परिषद की लंबे समय से बैठक नहीं होने के कारण बड़े निर्णय नहीं लिए जा रहे हें। व्हाट्सएप पर जितने निर्णय हो सकते हैं वो हो रहे हैं। व्हाट्सएप के स्क्रीन शाट के प्रिंट लेकर फाइलों में लगा दिए जाते हैं। </p><p style="text-align: justify;">महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय एक स्वप्न था। एस ऐसा स्वप्न जिसको 1975 में नागपुर में आयोजित पहले विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान देखा गया था। उस सम्मेलन के दौरान प्रस्ताव पारित किया गया था कि वर्धा में हिंदी के एक विश्वविद्यालय की स्थापना हो। 1993 में मारीशस में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान एक अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की आवश्यकता पर चर्चा हुई थी। तब ये भी कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए भी एक ऐसे विश्वविद्यालय की आवश्यकता है। महात्मा गांधी के हिंदी प्रेम को भी इस विश्वविद्लय की स्थापना की आवश्यकता से जोड़ा गया था। तब जाकर 1997 में संसद ने ऐसे विश्वविद्यालय की स्थपना को स्वीकृति दी थी। आज इस विश्वविद्लाय के दो मान्यता प्राप्त केंद्र कोलकाता और प्रयागराज में चल रहे हैं। महाराष्ट्र के अमरावती जिले में भी एक केंद्र कार्यरत है जिसको विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से मान्यता मिलना शेष है। गुवाहाटी में चौथा केंद्र खोलने की कवायद हो रही थी। कोलकाता का केंद्र काफी समय से किराए के मकान में चल रहा है। वहां बहुत कम जगह है। आरोप है कि अगर विश्वविद्यालय प्रशासन किसी को प्रताड़ित या दंडित करना चाहता है तो उसका तबादला कोलकाता केंद्र में कर दिया जाता है। प्रयागराज में विश्वविद्यालय का अपना परिसर है लेकिन वो भी आधारभूत सुविधाओं की बाट जोह रहा है। यह शोध का विषय हो सकता है कि इस केंद्र में जितने कर्मचारी या अध्यापक हैं उस अनुपात में विद्यार्थी रहे हैं या नहीं। अमरावती जिले के केंद्र को जब मान्यता ही प्राप्त नहीं है तो उसकी चर्चा व्यर्थ है। हिंदी के नाम पर बने इस विश्वविद्यालय पर केंद्र सरकार को तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। अगर ऐसा हो पाता है तो इसको एक ऐसे केंद्र के रूप में विकसित किया जाए जो हिंदी पठन पाठन के लिए एक वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित हो सके। विश्व के अन्य देशों के विश्वविद्लायों में हिंदी शिक्षण के समन्वयक के रूप में काम कर सके। वहां के लिए पाठ्यक्रम तैयार कर सके, शिक्षक तैयार कर सके। इस विश्वविद्यालय को उच्च शिक्षा के एक ऐसे वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित करना होगा जहां विश्व की अन्य भाषाओं में चल रही गतिविधियों पर विमर्श हो सके, शोध हो सके। अगर ऐसा हो पाता है तो प्रधानमंत्री के विकसित भारत के सोच को भी शक्ति मिल सकती है। अन्यथा व्हाट्सएप युनिवर्सिटी तो चलती ही रहेगी। </p><p style="text-align: justify;"><br /></p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-52503473202470098572024-03-02T17:23:00.000-08:002024-03-02T17:23:38.667-08:00आंधी ने उड़ाई अटकलें<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmuMoAlcpGFTEB8GElEghpKMv2OsGDJnh-9-JuezRZ-CvOi2HMLrdvPdyZYWl6cE6zlHGS4r_h7KSxJKMvotAkkPSBOQDMLp9_R5HumakhHUKrtjzk7hyphenhyphen76MCs8UBdRGFGh1dgszX7z12w1ektrU6vNioCTd0PhQe5xDMcGW7ejuarkfhcQaE8kbIjjzM/s1343/IMG_2645.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;"><img border="0" data-original-height="1343" data-original-width="849" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmuMoAlcpGFTEB8GElEghpKMv2OsGDJnh-9-JuezRZ-CvOi2HMLrdvPdyZYWl6cE6zlHGS4r_h7KSxJKMvotAkkPSBOQDMLp9_R5HumakhHUKrtjzk7hyphenhyphen76MCs8UBdRGFGh1dgszX7z12w1ektrU6vNioCTd0PhQe5xDMcGW7ejuarkfhcQaE8kbIjjzM/w126-h200/IMG_2645.jpg" width="126" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">जब भी चुनाव आते हैं, फिल्मों में राजनीति की बात होती है तो फिल्म आंधी की चर्चा अवश्य होती है। इस महीने देश में आम चुनाव की घोषणा होने जा रही है। नारी शक्ति वंदन अधिनियम संसद में पेश हो चुका है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि महिलाओं से जुड़े मुद्दे आगामी चुनाव में केंद्र में होंगे। फिल्म आंधी को भी देखें तो उसमें महिला और उसके संघर्ष की कहानी है। गुलजार ने माना भी था कि वो आधुनिक भारत की महिला राजनीतिज्ञ को केंद्र में रखकर फिल्म बनाना चाहते थे। एक आदर्श राजनीतिक महिला। गुलजार ने एक साक्षात्कार में कहा था कि जब वो फिल्म आंधी के चरित्र की कल्पना कर रहे थे तो उनके मस्तिष्क में इंदिरा गांधी और तारकेश्वरी सिन्हा की छवि थी। पर उन्होंने जोर देकर तब ये भी कहा था कि वो कभी भी इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत जीवन पर फिल्म नहीं बनाना चाहते थे। गुलजार चाहे जो भी कहें लेकिन इस फिल्म में कई ऐसे प्रसंग थे या कई ऐसी स्थितियां थीं जिनका मेल इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत जीवन से है। फिल्म और इंदिरा गांधी की कहानी में जो सबसे बड़ी समानता थी वो ये कि फिरोज गांधी से उनका अलगाव हुआ और वो अपनी पिता की मर्जी के अनुसार राजनीति में आईं। इंदिरा गांधी के पिता भई अपनी बेटी को अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर तैयार कर रहे थे और फिल्म में भी नायिका आरती के पिता इंदिरा गांधी के पिता की तरह अपनी बेटी को अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर देख रहे थे। सुचित्रा सेन का गेटअप भी इस तरह से बनाया गया था कि उससे भी इंदिरा गांधी की झलक दिखती थी। फिल्मकारों ने बस एक अहम अंतर रखा था वो ये कि फिल्म में नायिका की संतान एक लड़की थी और इंदिरा गांधी के दो पुत्र थे। इंदिरा गांधी के पुत्र उनके साथ रहते थे जबकि फिल्म में नायिका की पुत्री अपने पिता के साथ रहती थी। </div><p></p><p style="text-align: justify;">आंधी फिल्म की महिला पात्र आरती देवी और उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच कई समानताएं तो थीं लेकिन जब ये फिल्म रिलीज हुई तो इसके प्रचार में अति उत्साह ने इसको और विवादित बना दिया। दक्षिण भारत के अखबारों में एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ जिसमें फिल्म की नायिका सुचित्रा सेन के फिल्मी गेटअप वाली तस्वीर प्रकाशित हुई और उसके नीचे लिखा था अपने प्रधानमंत्री को स्क्रीन पर देखें। दिल्ली के समाचार पत्रों में इस फिल्म का जो विज्ञापन प्रकाशित हुआ, उसमें लिखा था स्वाधीन भारत की एक दमदार महिला राजनेता की कहानी देखिए। इंदिरा गांधी तक बातें पहुंचने लगीं थीं। उन्होंने फिल्म नहीं देखी थी। उन्होंने अपने दो सहयोगियों को फिल्म देखकर रिपोर्ट देने को कहा कि क्या वो सिनेमा हाल में प्रदर्शन के लिए उचित है। दोनों ने फिल्म देखी और उसमें ऐसा कुछ भी नहीं पाया कि फिल्म को प्रतिबंधित किया जाए। उस समय के सूचना और प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल को भी फिल्म में कुछ गलत नहीं लगा था। लेकिन बताया जाता है कि अखबारों के विज्ञापन और फिर एक दृश्य में सुचित्रा सेन को सिगरेट पीते दिखाने की बात जब इंदिरा गांधी तक पहुंची तो उन्होंने तय कर लिया कि फिल्म को रोक दिया जाए। फिल्म प्रतिबंधित हो गई। कुछ ही सप्ताह पहले रिलीज की गई फिल्म प्रतिबंधित। फिल्म को फिर से सिनेमा हाल तक पहुंचने में ढाई वर्ष की प्रतीक्षा करनी पड़ी। इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में जब इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी हारी तो इस फिल्म से प्रतिबंध हटा। मोरारजी देसाई की अगुवाई वाली सरकार ने इस फिल्म को दूरदर्शन पर भी दिखाया। एक बेहद खूबसूरत फिल्म राजनीति की भंट चढ़ी। </p><p style="text-align: justify;">गुलजार ने जिस संवेदनशीलता के साथ इस फिल्म में प्रेम दृष्यों को फिल्माया है वो बेहद मर्यादित है। विवाह के पहले और विवाह के बाद के रोमांटिक दृष्यों को संजीव कुमार और सुचित्रा सेन ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिया है। याद करिए इस फिल्म का गीत तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं में दोनों के मन की तड़प, मिलने की आकांक्षा लेकिन परिस्थितियां विपरीत। कश्मीर के अनंतनाग इलाके के मार्तंड मंदिर के खंडहरों के बीच फिल्माए इस गीत का लोकेशन, गाने के दौरान नायक नायिका की पोजिशनिंग इस तरह कि रखी गई जो कहानी को मजबूती प्रदान करता है और दर्शकों को दृष्य से जोड़ता है। लेकिन राजनीति के निर्मम हाथों एक खूबसूरत फिल्म विवादित तो बनी लेकिन आज भी उसकी चर्चा होना ये साबित करता है कि कला को राजनीति दबा नहीं सकती। </p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-10791803041569325662024-02-24T17:58:00.000-08:002024-02-24T17:58:23.892-08:00महाआख्यान से बनता सत्ता विमर्श <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6B8thZLt7siMFLKc3Y0ovb5gpU57QZbFaqFyyfR_YLWQ5Y3gE1nKsND7Xt74JRFqVdDIsN2Y6P3ZF9lyy6kgoRq0jWAjBuPgB2qw_6iCnQlp7QEKkC6Skqd6rq9eLASg8LClol67AckX6CdykxcwD5wqyqe0zvajZnLfjUlX1FeylKAibk18HJNykjMc/s1284/WhatsApp%20Image%202024-02-25%20at%207.22.27%20AM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1284" data-original-width="1208" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6B8thZLt7siMFLKc3Y0ovb5gpU57QZbFaqFyyfR_YLWQ5Y3gE1nKsND7Xt74JRFqVdDIsN2Y6P3ZF9lyy6kgoRq0jWAjBuPgB2qw_6iCnQlp7QEKkC6Skqd6rq9eLASg8LClol67AckX6CdykxcwD5wqyqe0zvajZnLfjUlX1FeylKAibk18HJNykjMc/w188-h200/WhatsApp%20Image%202024-02-25%20at%207.22.27%20AM.jpeg" width="188" /></a></div><br />दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि नरेन्द्र मोदी ने देश को सामूहिक हीन भावना से बाहर निकालने का काम किया। नरेन्द्र मोदी जी ने पहली बार इस देश में को गुलामी के प्रतीकों से मुक्ति दिलाने का आह्वान लाल किले की प्राचीर से किया था। आगे उन्होंने जो कहा उसका अर्थ ये था कि मोदी के शासन काल में देश को उग्रवाद, आतंकवाद और नक्सलवाद से लगभग मुक्ति मिली। इसके अलावा भी अमित शाह ने अपने भाषण में नरेन्द्र मोदी को कई समस्याओं से मुक्ति दिलानेवाले नेता के तौर पर रेखांकित किया। जब मुक्ति की बात होती है और उसके साथ कार्यों का लेखा जोखा दिया जाता है तो वो कोई साधारण बात नहीं होती है। राजनीतिक वक्तव्य नहीं होता है। उस वक्तव्य के पीछे एक सुचिंतित रणनीति होती है। अमित शाह के नेता नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों के माध्यम से एक पाठ (टेक्सट) का निर्माण करते चलते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों में मुक्ति का चाहत तो होती ही है, देश के उज्जवल भविष्य का स्वपन भी होता है। पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी के भाषणों और क्रियाकलापों को देखें तो वो इसके माध्यम से जो आख्यान रचते हैं उसमें इन सबकी झलक दिखाई देती है। नरेन्द्र मोदी ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के समय जो पंच प्रण की घोषणा की थी वो इसी आख्यान का एक भाग प्रतीत होता है। उसमें भी उन्होंने मुक्ति का स्वप्न देखा था। उसके बाद वो निरंतर विकसित भारत की बात कर रहे हैं। 2047 तक भारत को पूर्ण विकसित राष्ट्र बनाने का स्वप्न। जब नरेन्द्र मोदी विकसित भारत का आख्यान रचते हैं तो उसके साथ भारतीय अस्मिता को भी जोड़ते चलते हैं। अगर मोदी की इस अस्मितामूलक आख्यान को देखें और उसको स्टीफन ग्रीनब्लाट जैसे चिंतक की अवधारणों पर कसें तो स्थिति और स्पष्ट होती है। स्टीफन ग्रीनब्लाट कहते हैं कि हर अस्मिता एक कहानी है। कहानी के बार बार कहने से ही अस्मिता का निर्माण होता है। हमें यहां ये समझना होगा कि बार बार कहना क्या है। ये जो बार बार कहना होता है यही तो जनता के मानस पटल पर अंकित होकर एक ऐसे पाठ का निर्माण करते हैं जिससे एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में वातावरण का निर्माण होता है, जिसकी परिणति सत्तामूलक विमर्श में होती है। <p></p><p style="text-align: justify;">हिंदी के आलोचक सुधीश पचौरी ने अपनी पुस्तक तीसरी परंपरा की खोज में लिखा है कि जिस तरह से इतिहास एक टेक्सट (पाठ) है उसी तरह पद्मावत भी एक टेक्सट है और हर सत्ता समूह उसको अपने तरीके से पढ़ सकता है। उसका अर्थ फिक्सड नहीं तरल होता है उससे राजनीति भी की जा सकती है। वो आगे कहते हैं कि टेक्सट जब मास सर्कुलेशन में होता है तो उसकी मानी की परतें बढ़ती जाती हैं और उसकी एक इकोनामी भी काम करने लगती है।... कोई टेक्सट कभी बंद नहीं होती है, न किसी टेक्सट का समापन होता है। वह नए नए पाठों के लिए हमेशा खुली रहती है और इस तरह इतिहास के पाठों को बदलती रहती है। अब अगर इस सिद्धांत के आलोक में नरेन्द्र मोदी के रचे आख्यानों को देखें तो वो जिस टेक्सट का सृजन करते हैं उसके मास सर्कुलेशन में होने के कारण व्याप्ति बढ़ती जाती है। प्रधानमंत्री मोदी अपने पाठ (टेक्सट) का समापन नहीं करते हैं बल्कि एक को दूसरे से जोड़कर एक नया टेक्सट जनता के सामने रखते चलते हैं। उदाहरण के तौर पर पहले वो संकल्प से सिद्धि की बात करते हैं। संकल्प और सिद्धि की बात करते करते वो स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के समय कई प्रकार की मुक्ति का पाठ रचते हैं। इस मुक्ति के बाद वो विकसित भारत के स्वप्न की संरचना करते हैं। इस तरह से प्रधानमंत्री मोदी न केवल नया टेक्सट रचते हैं बल्कि उसको इतिहास के तथ्यों के साथ मिलाकर मौखिक इतिहास (ओरल हिस्ट्री) का सृजन भी करते हैं। सुधीश पचौरी कहते हैं कि मौखिक इतिहास के इतिहासत्व को लेकर अतिरिक्त सजगता की आवश्यकता होती है। मौखिक इतिहास की चुनौतियां भी कई प्रकार की होती हैं। वो वाचक पर निर्भर करते है। कई बार मौखिक इतिहास में एक वाचक नहीं होता है बल्कि वो अलग अलग कालखंड में कई वाचकों के माध्यम से आगे बढ़ता है। प्रधानमंत्री के इस मौखिक पाठ को विश्लेषण करते हैं तो इतिहास के साथ साथ वो एक पावर टेक्सट (सत्तात्मक कृति) का निर्माण भी करते हैं। पाठ में जब मुक्ति और स्वप्न का रसायन मिला दिया जाता है तो वो पावर टेक्सट बनता है। आज अगर नरेन्द्र मोदी की साख और विश्वास है तो उसके पीछे यही पावर टेक्सट है। </p><p style="text-align: justify;">हमारे देश में पावर टेक्सट को समझने का सटीक उदाहरण तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस है। तुलसीदास ने जब मानस की रचना की तो कथा के साथ साथ उन्होंने मुक्ति का लक्ष्य भी रखा। जब तुलसीदास मानस की रचना कर रहे थे उस समय भारत की जनता का मनोबल गिरा हुआ था। हिंदू जनता आक्रांताओं की ज्यादातियों से परेशान थी और वो मुक्ति चाहती थी। तुलसीदास ने इसको समझते हुए एक ऐसे पाठ की रचना की जिसमें राम जैसा नायक था जिसका चरित्र लोगों में उत्साह का संचार करनेवाला था। तीसरी परंपरा की खोज करते करते लेखक कहते हैं कि रामकथा और उसमें राम का विष्णु के अवतार के रूप में आना और विराट हिंदू कथा में बदलना पूर्व लिखित बहुत सी रामकथाओं को विस्थापित कर देता है। भारत में तुलसी के रामकथा की व्याप्ति एक बहुत ही ताकतवर और सघन विमर्श पैदा करती है। इसके मूल में धार्मिक कारणों के अलावा सबसे बड़ा कारण है मानस के प्रतीकों, रूपकों और मुक्ति की कथा के रूप में उसके आदर्शों का सुदीर्घ और सतत संचरण। ये चिन्ह एक तरह से हिंदू जनता की स्मृति में चक्कर मारते रहते हैं। भारत में मानस को मनोरंजन का ग्रंथ नहीं बल्कि मुक्ति का ग्रंथ माना जाता है । एक मेटानेरेटिव ये बनता है कि वो कलियुग के अत्याचारों से मुक्ति देनेवाली एकमात्र कथा है। तुलसी के मानस के साथ विश्वास और आस्था जुड़कर उसको एक पावर टेक्स्ट बनाती है। </p><p style="text-align: justify;">आज नरेन्द्र मोदी जिस तरह पावर टेक्सट का आख्यान रच रहे हैं उससे उनके नेता की छवि के साथ मुक्तिदाता की छवि भी गाढ़ी होती जा रही है। उनके सहयोगी और उनकी पार्टी के लोग इस पावर टेक्सट को लेकर ही आगे बढ़ रहे हैं और जनमानस में इस छवि को गाढा करने के प्रयत्न में जुटे हुए हैं। जनता भी प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के इस पावर टेक्सट से सहमत ही नजर आती है। लोकतंत्र में जनता की सहमति का पैमाना चुनाव होता है। तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणामों में मोदी के इस पाव्र टेक्सट को मतदाताओं ने स्वीकार किया। विपक्ष के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती नरेन्द्र मोदी के पावर टेक्सट से पैदा हो रहे मेटानैरेटिव को समझने के साथ साथ उसका काट ढूंढने की है। विपक्षी दल अब भी राजनीति के पुराने औजारों से इसका काट ढूंढने का प्रयत्न कर रहे हैं और निरंतर विफल हो रहे हैं। वो अब भी जाति और धर्म का आधार लेकर मोदी के पावर टेक्सट के समझ अपना पाठ प्रस्तुत कर रहे हैं। लेकिन इन पाठ में न तो मुक्ति की बात है और न ही कोई स्वप्न। इसलिए जनविश्वास अर्जित करने में सफलता नहीं मिल पा रही है। तुलसीदास ने रामकथा को मिथक से प्रतिरोधात्मक कथा में बदला उसी तरह से प्रधानमंत्री मोदी विकसित भारत के संकल्प के नैरेटिव के साथ एक महाआख्यान रचा है। इसके परिणाम मिल रहे है। </p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-91386146257667869732024-02-17T15:58:00.000-08:002024-02-17T15:58:26.099-08:00 महाकवि निराला का हिंदू मन <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMv96taaERuTfPQ49yi-IhIed1msEeMD4B5LuXWNw59EqzhEmowFw7UY29QutSw0TmdmelaG4qXHh4qRjyGjZgFpqR0wj0GVKk6393UkdpLvjgdkU76dmKZ_k-yIwnRhiDvjqT25tBLlwVtSvvyX-n_csMAOIPFhWoTQ24eA6lPV_Zu-LdVAiMYLPEnuw/s1277/IMG_2397.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1277" data-original-width="1213" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMv96taaERuTfPQ49yi-IhIed1msEeMD4B5LuXWNw59EqzhEmowFw7UY29QutSw0TmdmelaG4qXHh4qRjyGjZgFpqR0wj0GVKk6393UkdpLvjgdkU76dmKZ_k-yIwnRhiDvjqT25tBLlwVtSvvyX-n_csMAOIPFhWoTQ24eA6lPV_Zu-LdVAiMYLPEnuw/w190-h200/IMG_2397.jpg" width="190" /></a></div><br />नईदिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेला आज समाप्त हो जाएगा। इस वर्ष विश्व पुस्तक मेला में प्रकाशकों और पाठकों की भागीदारी ने पुस्तकों के प्रति आश्वस्ति को गाढा किया। इस बार पुस्तक मेले में श्रीराम साहित्य कई प्रकाशकों के यहां प्रमुखता से प्रदर्शित की गई थी। पाठक उन पुस्तकों को खरीद भी रहे थे। पुस्तक मेला मेरे लिए उन पुस्तकों की खोज और क्रय का अवसर होता है जो सामान्य तौर पर बाजार में नहीं मिलती है। इसी तरह की पुस्तकों की तलाश में जब वाणी प्रकाशन के स्टाल पर पुस्तकें देख रहा था तो नजर सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की पुस्तक रामायण विनय-खण्ड पर पड़ी। इस पुस्तक की मुझे जानकारी नहीं थी। यह पुस्तक तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस के कुछ अंशों का अवधी से हिंदी अनुवाद जैसा है। इसपर बाद में चर्चा होगी। पर इस पुस्तक के बारे में जो जानकारी मिली वो दिलचस्प है। वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी से जब इस पुस्तक के बारे में पूछा तो उन्होंने एक किस्सा बताया। कोरोना महामारी के कुछ वर्षों पहले की बात है। अरुण माहेश्वरी किसी काम से काशी गए हुए थे। काशी के गोदौलिया क्षेत्र में पटरी पर पुस्तकें बेचनेवाले एक व्यक्ति की दुकान पर पहुंचे। वहां उपलब्ध पुस्तकों को उलटने पुलटने लगे। अचानक उनकी नजर पटरी पर लगी दुकान के एक छोर पर गई। वहां कुछ प्रकाशित पन्ने रखे हुए थे। जिज्ञासावश अरुण जी ने उन पन्नों को उठाया तो वो निराला की पुस्तक रामायण, विनय खण्ड के छपे हुए फर्मे थे। जाहिर तौर पर वो बिक्री के लिए रखे गए थे। अरुण जी उन छपे हुए फर्मों को खरीद लिया। काशी में उन्होंने निराला जी की इस पुस्तक के बारे में पूछताछ की। वहां कई तरह की बातें पता चलीं। किसी ने बताया कि ये पुस्तक जिस प्रेस को छपने दी गई थी वो प्रेस बंद हो गया। तबतक पुस्तक के फर्मे छप चुके थे। प्रेस बंद होने के बाद उन फर्मों को रद्दी में बेच दिया गया होगा। आदि । उन छपे हुए पन्नों को लेकर अरुण माहेश्वरी दिल्ली लौट आए। <p></p><p style="text-align: justify;">दिल्ली में उन्होंने कवि केदारनाथ सिंह, अब स्वर्गीय, से मिलकर उनको वो पन्ने दिखाए। केदारनाथ सिंह ने उन पन्नों को पढ़ने के बाद कहा कि ये निराला जी का ही लिखा है और उन्होंने इस पुस्तक को बचपन में देखा था। उसकी भाषा और डा रामविलास शर्मा का लिखा प्रथम संस्करण की भूमिका स्पष्ट कर रही थी ये निराला की ही पुस्तक है। डा रामविलास शर्मा की भूमिका पर 1 जून 1949 की तिथि अंकित है। फिर इस पुस्तक को पुनर्प्रकाशित करने की योजना बनी। केदारनाथ सिंह ने पुस्तक पर एक टिप्पणी लिखी, निरालाकृत इस काव्यानुवाद को मैंने तब देखा जब मैं बनारस में स्कूल का छात्र था। यह भी याद है कि यह संभव हुआ था त्रिलोचन जी के कारण, जिन्हें इस काव्यानुवाद की प्रर्ति राष्ट्रभाषा विद्यालय, काशी से प्राप्त हुई थी। निराला जी उन दिनों अस्वस्थ थे और विद्यालय के प्रधानाचार्य गंगाधर मिश्र के आवास पर विश्राम कर रहे थे। यह अनुवाद कार्य वहीं संपन्न हुआ था और उस समय काशी के अखबारों में इसकी चर्चा भी हुई थी। निराला जी रामायण (श्रीरामचरितमानस) का खड़ी बोली में भाषांतर कर रहे हैं। इसको लेकर वहां के साहित्यिक जगत में एक उत्सुकता भी थी। प्रतियां कम छपीं थी। इस कारण कम लोगों तक पहुंच सकीं। केदारनाथ सिंह ने ये भी स्पष्ट किया है कि यह पूरी रामायण का अनुवाद नहीं है केवल उसके विनयपरक छंदों का भाषांतरण इस पुस्तक में किया गया है। यहां एक प्रश्न उठता है कि निराला जी ने भाषांतरण के लिए श्रीरामचरितमानस को ही क्यों चुना। इसका उत्तर निराला की टिप्पणी से मिलता है, श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदास जी का रामचरित-मानस या रामायण भारत की सर्वोत्तम काव्यकृति है, इसको इस समय यहां का वेद कहते हैं। इसके संबंध की बहुत सी बातें प्रकाश में नहीं आयीं। काफी अंधेरा है, अधिकार और अधिकारियों का प्रमाद भी।... जिन प्रांतो के विद्यार्थी अवधी नहीं जानते उनके लिए सुविधा हुई है। ऐसे भी नवें दसवें में इसका प्रचलन करने से विद्यार्थियों की खड़ी बोली अधिक पुष्ट हो जाएगी, इसका प्रमाण अधिकारीवर्ग पढ़ते ही समझ जाएंगे। आशा है पाठक पढ़कर राष्ट्रभाषा के विस्तार के प्रयत्न में हमारा उत्साह बढ़ाएंगे। रामविलास शर्मा इस पुस्तक के बारे में कहते हैं कि यह रामचरितमानस तक पहुंचने के लिए ऊंची नीची धरती पर रचे हुए एक नए मार्ग के समान है। इस पुस्तक के लिए निराला को तैयार करनेवाले श्री राष्ट्रभाषा विद्यालय के प्रधानाचार्य गंगाधर मिश्र ने उद्देश्य को और स्पष्ट किया था। उनका मानना था कि निराला श्रीरामचरितमानस के अनुवाद से इस ग्रंथ को सांस्कृतिक शिक्षा का आधार ग्रंथ बनाना चाहते थे। जिससे राष्ट्र की आत्यात्मिक चेतना जागरूक हो सके। </p><p style="text-align: justify;">अगर हमें निराला की रचनाओं पर समग्रता में विचार करें तो महाकवि निराला का मन बार बार हिंदू धर्म और परंपराओं में रमता हुआ दिखता है। उनकी कुछ कविताओं के आधार पर उनको कम्युनिस्ट और जनवाद आदि से जोड़कर हिंदुत्व और भारतीयता से दूर करने का खेल खेला गया। तोड़ती पत्थर कविता को कई बार उद्धृत किया गया। उस कविता में वर्णित गरीबी और मजदूरों की मेहनत को बार-बार रेखांकित करके विचारधारा विशेष का कवि घोषित किया गया। दूसरी तरफ सनातन धर्म और भारतीयता पर लिखे उनके लेखों को पाठकों की नजरों से ओझल करने का षडयंत्र किया गया। निराला जब समन्वय पत्रिका के संपादक थे तब उन्होंने श्रीरामचरितमानस के सातो कांडों की मौलिक व्याख्या करते हुए कई निबंध लिखे थे। रामविलास शर्मा ने माना है कि निराला की काव्य रचना पर तुलसीदास का प्रभाव था। यह प्रभाव भावों और विचारों के अलावा छंद रचना और ध्वनि पर भी दिखता है। इस सबंध में निराला के प्रबंध काव्य तुलसीदास को भी देखा जाना चाहिए। इन रचनाओं और कृतियों पर अकादमिक जगत में कम विचार हुआ। निराला पर काम करनेवाले आलोचकों ने उनके इस पक्ष पर ध्यान नहीं दिया। निराला पर विदेशी लेखकों और रविन्द्रनाथ ठाकुर के प्रभाव की चर्चा मिलती है। उनकी इतनी आलोचना हुई थी कि रामविलास शर्मा को कहना पड़ा था, निराला जो चार लाइनें बेहोशी में लिख देगा, वह चार जनम तुम होश में भी न लिखा पावोगे। उनके निधन के बाद भी उनपर आरोप लगते रहे, जीवनकाल में तो लगे ही थे। इस तरह के मसलों में उलझाकर निराला के लेखन के सनातन भाव तक जाने से पाठकों को रोका गया। निराला के तुलसी या श्रीरामचरितमानस पर लिखे लेखों अथवा गीताप्रेस गोरखपुर से निकलनेवाली पत्रिका कल्याण के उनके लेखों को मिलाकर निराला के हिंदू मन की चर्चा नहीं की गई। निराला तुलसी साहित्य के गहन अध्येता भी थे और उनके लेखों और प्रबंध काव्य में ये दिखता भी है। श्रीरामचरितमानस के विनयपरक छंदों का भाषांतरण करके उसको व्याप्ति दिलाने का प्रयत्न किया था। निराला के हिंदू मन को पाठकों के सामने लाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। यह कार्य कठिन भी नहीं है। पहले तो उनके सनातन और हिंदुत्व को आधार बनाकर लिखे ग्रंथों और रचनाओं को पुस्तकालयों की धूल से बाहर लाकर पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास हो। अकादमिक जगत में उन रचनाओं पर चर्चा हो, शोधार्थियों को उनपर शोध के लिए प्रेरित किया जाए। निराला रचनावली में अगर उनकी इन रचनाओं का समावेश नहीं है तो उसमें भी इन सारी रचनाओं को डालकर उसका पुनर्प्रकाशन करवाया जाए। निराला की रचनाओं को लेकर जो नैरेटिव गढ़ा गया उसको निगेट करने के लिए यह आवश्यक है कि निराला को समग्रता में पाठकों के सामने पेश कर दिया जाए। पाठकों में स्वयं निर्णय करने की क्षमता विकसित हो चुकी है। अमृतकाल में यह आवश्यक है। </p><div style="text-align: justify;"><br /></div>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-51349713227412766512024-02-10T17:35:00.000-08:002024-02-10T17:35:11.033-08:00 संकल्प-सिद्धि से वैचारिक स्वतंत्रता<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVGmx6ujYc0SvDoVRcK9ISaXuiUKWyh2roc-ZbRpQ8c425pEefw6I_G2u9aKsBO99PdRKVVBURUMQ6reiIW6xif5yfeIvYFJEQxUdRjOW8Nb31ZnTnFDZZRwU7713caP2Kde6BP0-tb8bQfKzVGFa3HcIxS54sHTZyjOPJ3uPbW4xYfTxQitaISB5VaMA/s1283/IMG_2297.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1283" data-original-width="1217" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVGmx6ujYc0SvDoVRcK9ISaXuiUKWyh2roc-ZbRpQ8c425pEefw6I_G2u9aKsBO99PdRKVVBURUMQ6reiIW6xif5yfeIvYFJEQxUdRjOW8Nb31ZnTnFDZZRwU7713caP2Kde6BP0-tb8bQfKzVGFa3HcIxS54sHTZyjOPJ3uPbW4xYfTxQitaISB5VaMA/w190-h200/IMG_2297.jpg" width="190" /></a></div><br />पिछले दस वर्षं के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में ये धारणा बनी है कि राजनीति और इससे अलग हटकर वो अपने गैरपारंपरिक निर्णयों और तौर तरीकों से चौंकाते हैं। राजनीति से अलग हटकर जब वो निर्णय लेते हैं तो उनका सोच वहां तक जाता है जहां जाने में उनके पूर्ववर्ती कतराते थे। स्वागत के लिए फूल की जगह पुस्तक या फिर हर घर मे पूजाघर की तरह एक पुस्तकालय की आवश्यकता जैसे विचार लोगों को चौंकाते हैं। लाल किले की प्राचीर से शौचालय की बात जब की गई तो कई लोगों ने इसकी आलोचवना की। अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने संकल्प से सिद्धि की बात की थी। 1942 के संकल्पों को वर्ष 2022 तक पूरा करने की बात की थी। तब कई लोगों ने लिखा था कि मोदी अपने दूसरे कार्यकाल को लेकर इतने आशान्वित कैसे हो सकते हैं। लेकिन मतदाताओं ने उनको दूसरा कार्यकाल भी दिया और तीसरे की राह भी आसान लग रही है। पहले कार्यकाल में ही प्रधानमंत्री मोदी ने गरीबी भारत छोड़ो, भ्रष्टाचार भारत छोड़ो, आतंकवाद भारत छोड़ो और जातिवाद भारत छोड़ो जैसा नारा दिया था। आज जो लोग जाति गणना की बात कर रहे हैं या प्रधानमंत्री की जाति को जन्म से जोड़कर विवाद खड़ा करने की जुगत में हैं उनको प्रधानमंत्री मोदी के पिछले बयानों को देखना चाहिए। 1942 को संकल्प वर्ष मानते हुए उन्होंने आजादी के पचहत्तरवें साल यानि 2022 को सिद्धि का वर्ष बताया था। जो संकल्प थे उसमें से कई पूरे होने लगे हैं। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, भारतीयता और रामत्व स्पष्ट रूप से दिखने लगे हैं। सिद्धि के दौर में प्रधानमंत्री ने जो पांच प्रण किए थे उनपर भी कार्य हो रहे हैं। अंग्रेजों के जमाने के कानूनों में सुधार और बदलाव कर दिए गए हैं। गुलामी के कई चिन्ह समाप्त किए गए हैं और कुछ किए जा रहे हैं। <p></p><p style="text-align: justify;">अगर साहित्य और शिक्षा की बात करें तो 1942 में तब के साहित्यकारों के सामने एक ही लक्ष्य था स्वाधीनता। उनकी रचनाओं के केंद्र में लोक की यही चिंता प्रतिबिंबित होती थी, लोक की यही आकांक्षा भी रहती थी। इस चिंता का प्रकटीकरण उनकी रचनाओं में होता था। 1947 में देश को स्वाधीनता मिली। हमारी आकांक्षाएं और उम्मीदें सातवें आसमान पर जा पहुंची। आजादी के बाद के करीब दो दशक तक पूरा देश स्वतंत्रता और जवाहरलाल नेहरू के रोमांटिसिज्म में रहा। उसके बाद का कालखंड मोहभंग का रहा। पाकिस्तान और चीन के साथ युद्ध ने देश को कई स्तरों पर कमजोर किया। 1970 के बाद से एक खास विचारधारा को बल मिलना शुरू हो गया। भारतीय संस्कृति, साहित्य और ज्ञान परंपरा के पास जो विश्व दृष्टि थी उसको मार्क्सवाद के प्रचार प्रसार के जरिए विस्थापित करने की जोरदार कोशिशें शुरू हुईं। भौतिकता-आधुनिकता,धार्मिकता-आध्यात्मिकता वाली ज्ञान परंपरा को विस्थापित कर आयातित विचार के आधार पर साहित्य रचा जाने लगा। उस दौर में ही रामधारी सिंह दिनकर को कहना पड़ा- ‘जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है जब वे अपनी परंपराओं को भूलकर दूसरों की परंपराओं का अनुकरण करने लगती हैं,...जब वे मन ही मन अपने को हीन और दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दासता को स्वेच्छया स्वीकार कर लेती है। पारस्परिक आदान-प्रदान तो संस्कृतियों का स्वाभाविक धर्म है, किन्तु जहां प्रवाह एकतरफा हो, वहां यही कहा जाएगा कि एक जाति दूसरी जाति की सांस्कृतिक दासी हो रही है। किन्तु सांस्कृतिक गुलामी का इन सबसे भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा को अपना लेती है और उसी में तुतलाने को अपना परम गौरव मानने लगती है। वह गुलामी की पराकाष्ठा है, क्योंकि जो जाति अपनी भाषा में नहीं सोचती, वह अपनी परंपरा से छूट जाती है और उसके स्वाभिमान का प्रचंड विनाश हो जाता है।‘ दिनकर को ये इस वजह से कहना पड़ा क्योंकि हम भाषा और रचनात्मक दोनों स्तर पर अपनी परंपरा को भुलाकर दूसरे देश या कहें कि दूसरे विचारधारा की मानसिक गुलामी के लिए अपनी एक पूरी पीढ़ी को तैयार करने में लगे थे। जो संकल्प हमारे समाज ने 1942 में लिय़ा था- अंग्रेजो भारत छोड़ो, वो संकल्प पांच साल बाद साकार हो गया लेकिन उसके दो दशक के बाद हमने वैचारिक रूप से विदेशी विचारधारा की दासता स्वीकार करनी शुरू कर दी थी। उस विचारधारा के प्रभाव में अपनी गौरवशाली, समृद्ध ज्ञान परंपरा को बाधित किया। </p><p style="text-align: justify;">साहित्य में आधुनिकता के नाम पर भारतीय ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ानेवाले लेखकों को दकियानूसी और पिछड़ा कहकर अपमानित किया गया। लेखन के केंद्र में नैतिकता, अध्यात्म और सौन्दर्यबोध को निगेट करने की संगठित कोशिशें हुईं। भारतीय जनमानस के विश्वास को खंडित करने जैसी रचनाएं लिखी गईं। खंडनवादी लेखन को वैज्ञनिकता का आधार भी प्रदान किया गया लेकिन ऐसा करनेवाले यह भूल गए कि भारत में लोक की आस्था को खंडित करना आसान नहीं है। ईश्वर को नकारने की कोशिशें हुईं। नीत्से की उस प्रसिद्ध घोषणा का सहारा लिया गया जिसमें उसने ईश्वर की मृत्यु की बात की थी । ऐसा प्रचारित करनेवाले लोग लगातार इस बात को छिपाते रहे कि नीत्शे ने इस घोषणा के साथ और क्या कहा था। नीत्शे ने कहा था कि ईश्वर की मृत्यु बहुत बड़ी घटना है । इस घटना की बराबरी मनुष्य जाति में तभी संभव है जब एक एक शख्स स्वयं ईश्वर बन जाए। हिंदी साहित्य अपनी चेतना से प्रेरित होने की बजाए रूसी चेतना से प्रेरित होने लगी। मार्क्सवाद को अंतराष्ट्रीय अवधारणा कहकर हिंदी पर लाद दिया गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि हमारे साहित्य में एक खास किस्म का बनावटीपन आ गया, जो बार बार लिखे जाने की वजह से नकली भी लगने लगा। अज्ञेय या निर्मल वर्मा जैसे लेखक या विद्यानिवास मिश्र या कुबेरनाथ राय जैसे निबंधकारों को साहित्य के केंद्र में आने से रोकने की कोशिश होती रही। रोका भी गया। यह अनायास नहीं है आज कुबेर नाथ राय जैसे लेखकों की रचनाएं मिलने में कठिनाई होती है। अंतराष्ट्रीयता के नाम पर मार्क्सवाद की अनुचित उपासना ने हमारी राष्ट्रीय चेतना का नुकसान किया। जो संकल्प भारत छोडो आंदोलन के वक्त साहित्य में चलकर आया था वो सिद्धि तक पहुंचने के रास्ते से भटक गया । लोक और जन की बात करनेवाले लोक और जन से ही दूर होते चले गए। वैचारिक स्वार्थसिद्धि के चलते राष्ट्र-सिद्धि नेपथ्य में चला गया। साहित्य को इसका बड़ा नुकसान हुआ, साहित्य की विविधता खत्म हो गई, चिंतवन पद्धति का विकास अवरुद्ध हो गया, साहित्येतर विधाएं मृतप्राय हो गईं। </p><p style="text-align: justify;">संकल्प सिद्धि के वर्ष तक भी साहित्य में बहुत सुधार नहीं दिखा लेकिन स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर साहित्य में भी भारतीयता के स्वर मजबूत होते दिखे। अपने देश के गौरवगान को गाने में अब लेखकों को कठिनाई नहीं हो रही है। मार्क्सवादी प्रभाव अपेक्षाकृत कम होता हुआ दिखा लेकिन विश्वविद्यालयों में और अन्य संस्थाओं में वर्षों से कुंडली मारकर बैठे लोग भले ही सरकार के रुख को देखकर चुप हो गए हैं लेकिन अवसर आने पर अपने विचारों को आगे बढ़ाते ही हैं। विचारों को आगे बढाना बुरी बात नहीं है। लेकिन विचार को धारा बनाकर उसमें ही बहने का आग्रह गलत वातावरण का निर्माण करता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन ने भी इस राह को आसान किया। शोध को बढ़ाना देने के लिए भी सरकार ने अपने स्तर पर निर्णय लिया है। आवश्यकता इस बात की है कि साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रही संस्थाएं ईमानदारी से अपने प्रकल्प से जुड़ें। साहित्यकारों और लेखकों को पाठकों के हितों का ध्यान रखना चाहिए। विचारधारा का नहीं। विचारों की स्वतंत्रता हो लेकिन धारा बनाने की कोशिश पर लगाम लगे। </p><p style="text-align: justify;"><br /></p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-35382665158892537792024-02-02T23:49:00.000-08:002024-02-05T02:50:01.277-08:00 हिंदी पर हिंदुस्तानी की प्रेतछाया <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjp9ra6yI0OEf0xnPajbP_e9zWWzpgdIzfbSF4n8lT8zpfdpX2zC3YdXDAI1oQwTedqLrlNkgopsiIjYR-urri1VcYYbIBXwDNCYkCeHMM5ANmeCSRR9yTR8S7krDQpmaC1HkrqYILvBHpaln_cVVzPYuE671CYa24kgTwVzboPouv_wy2uoqiegizwt0w/s1284/IMG_2211.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1284" data-original-width="1214" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjp9ra6yI0OEf0xnPajbP_e9zWWzpgdIzfbSF4n8lT8zpfdpX2zC3YdXDAI1oQwTedqLrlNkgopsiIjYR-urri1VcYYbIBXwDNCYkCeHMM5ANmeCSRR9yTR8S7krDQpmaC1HkrqYILvBHpaln_cVVzPYuE671CYa24kgTwVzboPouv_wy2uoqiegizwt0w/w189-h200/IMG_2211.jpg" width="189" /></a></div><br />कहीं एक व्यंग्योक्ति पढ़ी थी कि वामपंथी इतिहासकारों के पास ज्योतिषि विज्ञान से अधिक शक्ति होती है। ज्योतिष किसी का भविष्य बदलने का दावा कर सकते हैं लेकिन वामपंथी इतिहासकार तो अतीत बदल देते हैं। इस बात का स्मरण दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के संस्थापक डा नगेन्द्र की आत्मकथा, अर्धकथा पढ़ते समय आया। दरअसल डा नगेन्द्र ने कुछ दिनों तक आल इंडिया रेडियो में भी नौकरी की थी। उस समय सूचना और प्रसारण मंत्री सरदार पटेल थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद शिक्षा मंत्री थे। जब 1947 में डा नगेन्द्र ने आल इंडिया रेडियो का पद ग्रहण किया। उन्होंने लिखा- ‘उस समय रेडियो में हिंदी की काफी दुर्दशा थी। वार्ता, नाटक, संगीत आदि सभी अनुभागों में उर्दू का बोलबाला था। नाम हिंदुस्तानी था पर भाषा उर्दू थी। यह हिंदुस्तानी शुद्ध उर्दू ही थी जिसमें क्रियाओं और विभक्तियों के अतिरिक्त जो वस्तुत: हिंदी और उर्दू में समान ही होती है, हिंदी का कोई लक्षण नहीं था। अंतराष्ट्रीय के लिए वैनुलअकवामी, प्रधानमंत्री के लिए वजीरे आजम, गृहमंत्री और विदेश मंत्री आदि के लिए वजीरे दाखिला और वजीरे खालिजा जैसे शब्दों का प्रयोग होता था। स्वागत, धन्यवाद जैसे शब्दों का प्रयोग भी वर्जित था। कभी कभी पंजाबी भाषी के अनुवादक आभारी के स्थान पर धन्यवादी जैसे शब्दों का प्रयोग कर दिया करते थे, जिससे तथाकथित हिंदुस्तानी का रूप और भी विकृत हो जाता था।‘ <p></p><p style="text-align: justify;">उस समय रेडियो के महानिदेशक पी सी चौधुरी थे। उनकी पीठ पर लौहपुरुष सरदार पटेल का हाथ था। वो रेडियो की हिंदी सेवा की भाषा को लेकर संवेदनशील थे। रेडियो में दिल्ली और पंजाब के लोगों की संख्या अधिक थी। केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों का बड़ा वर्ग था जो न हिंदी जानता था न उर्दू। जब रेडियो के हिंदी सेवा में भाषा को लेकर आवश्यक सुधार होने लगे तो ये सभी लोग मिलकर बुखारीकालीन उर्दूनिष्ठ हिंदुस्तानी के सहज रूपांतरण के सभी प्रकार के प्रयत्नों का तीव्र विरोध करने लगे थे। डा नगेन्द्र लिखते हैं कि प्रो बुखारी के समय आल इंडिया रेडियो में एंग्लो मुस्लिम संस्कृति का वातावरण था, इसलिए वहां के अधिकांश अधिकारी, जिनमें हिंदू भी थे, किसी प्रकार का साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं चाहते थे और तरह तरह की प्रशासनिक बाधाएं उत्पन्न करते थे।‘ डा नगेन्द्र धुन के पक्के थे। उनको भाषा संबंधी विसंगतियों को दूर करने के लिए रेडियो में लाया गया था। नगेन्द्र चाहते थे कि संगीत, नाटक, वार्ता आदि सभी घटकों में भारतीय संस्कृति का प्रवेश हो। इन जगहों पर भारतीय संस्कृति का प्रवेश भाषा के साथ ही संभव था। उस समय रेडियो में उच्चतर स्तर यानि विभागीय मंत्री सरदार पटेल की नीतियों को लागू करना था। इसमें उस समय एक बड़ी बाधा उतपन्न हो गई। बाधा ये कि जिनके हाथ में क्रियान्वयन का दायित्व था उन्हें भाषा की व्वहारिक समस्याओं का ज्ञान नहीं था। उन लोगों ने एक सामान्य सूत्र तैयार कर लिया था। उसी सूत्र पर सबको कसते रहते थे। सूत्र था सर्वाधिक सुबोधता। सर्वाधिक सुबोधता का अर्थ आम बोलचाल के शब्द और छोटे वाक्यों का प्रयोग। ये समस्या जस की तस न भी हो लेकिन आज भी ये सर्वाधिक सुबोधता का जुमला उछलता ही रहता है। खैर ये अवांतर प्रसंग है इस पर फिर कभी। </p><p style="text-align: justify;">बात हो रही थी रेडियो की भाषा की। डा नगेन्द्र ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि हिंदी विरोधियों की अंतिम शरण भूमि थी तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद का कार्यालय। वहां से तरह तरह की शिकायतें आती रहती थीं। जाहिर है इस तरह की बातों को शिक्षा मंक्षी का प्रश्रय था। एक बार रेडियो पर मौलाना आदाज को वजीरे तालीम की जगह शिक्षा मंत्री कहा गया। एक कर्मचारी नगेन्द्र के पास पहुंचे और कहा कि मौलाना साहब के आफिस से फोन आया था और वहां से पूछा जा रहा है कि क्या उनका मंत्रालय बदल दिया गया है। नगेन्द्र कहते हैं कि ये भले मजाक हो लेकिन ये रेडियो की भाषा पर कटाक्ष जैसा था। इसी तरह से एक बार बुलेटिन में ‘वे’ शब्द के प्रयोग पर मौलाना के कार्यालय से आपत्ति आई। उसपर नगेन्द्र को उप-महानिदेशक के सामने सफाई पेश करनी पड़ी थी। उन्होंने बताया कि हिंदी में एकवचन में वह और बहुवचन में वे का प्रयोग किया जाता है। उर्दू में एकवचन और बहुवचन दोनों में वो का प्रयोग होता है, जो हिंदी व्याकरण की दृष्टि से गलत था। नगेन्द्र इस तरह की आपत्तियों से इतने परेशान हो गए थे कि उनको गांधी जी की शरण में जाना पड़ा। गांधी जी को उन्होंने एक बुलेटिन की भाषा दिखाई। गांधी जी ने उसको पढ़कर कहा था कि इसमें तो सब ठीक है। ये बात जब रेडियो महा-निदेशालय पहुंची तो सबको संतोष हुआ। नगेन्द्र का काम अपेक्षाकृत आसान। </p><p style="text-align: justify;">एक शिक्षा मंत्री किसी भाषा को लेकर इतना दुराग्रही हो तो क्या कहा जा सकता है। आरंभ में इतिहासकार और ज्योतिष का जो उदाहरण दिया है उसका संदर्भ यही था। मौलाना आजाद की जो छवि गढ़ी गई वो बहुत ही उदार, सहिष्णु, सर्वसमावेशी और सभी का सम्मान करनेवाले व्यक्ति के तौर पर किया गया। इस तरह की बातें भी पीढ़ियों से बताई गईं और अब भी बताई जा रही हैं। अकादमिक जगत में उनका एक अलग ही रूप दिखता है। सिर्फ नगेन्द्र ही नहीं जोश मलीहाबादी ने भी अपनी आत्मकथा, यादों की बारात में मौलाना के बारे में एक प्रसंग का उल्लेख किया है। उससे भी संकेत मिलता है कि मौलाना आजाद उर्दू और मुसलमानों की पक्षधरता के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। जोश मलीहाबादी भारत विभाजन के बाद पातिस्तान चले गए लेकिन अन्यान्य कारणों से वहां टिक न सके। वहां से लौटे तो नेहरू ने उनको भारत सरकार की पत्रिका आजकल में संपादक के तौर पर नौकरी दे दी। एक दिन जोश मलीहाबादी नेहरू से मिलने पहुंचे। नेहरू ने उनसे पूछा कि आप अपने महकमे के मंत्री सरदार पटेल से मिले कि नहीं? जोश मलीहाबादी ने कहा अभी तक नहीं। नेहरू ने फौरन सरदार पटेल के यहां फोन मिलाकार मुलाकात तय करवा दी। जोश साहब सरदार पटेल से मिले और कई तरह की बातें हुईं। जब जोश मलीहाबादी सरदार पटेल से मिलकर उनके बंगले से बाहर निकले तब की स्थिति का विवरण देखिए- सरदार पटेल से अभी मिलकर निकला ही था कि मौलाना आजाद से मुठभेड़ हो गई। उन्होंने अपनी मोटर रोककर मुझे आवाज दी और जब मैं उनकी मोटर में बैठा तो उन्होंने बेहद दर्दनाक तेवरों से देखकर कहा जोश साहब! आप और सरदार पटेल। इसके पहले भी जब नेहरू ने जोश मलिहाबादी को आजकल की नौकरी की पेशकश की थी तो मौलाना ने नेहरू को आगाह किया था कि सोच समझकर जोश साहब को आश्वासन दें ये महकमा सरदार पटेल का है। जोश मलीहाबादी की आत्मकथा में इस तरह के कई प्रंसग हैं जिससे ये ध्वनित होता है कि मौलाना उर्दू और मुसलमानों की पक्षधरता करते थे और सरदार पटेल से नफरत अन्यथा दर्दनाक तेवर क्यों होता।</p><p style="text-align: justify;">इतिहासकारों ने क्या किया, सरदार पटेल को कट्टर हिंदूवादी बताकर उनको आधुनिक भारत के इतिहास में परिधि पर रखने का प्रयास किया। दूसरी तरफ मौलाना आजाद के बारे में अच्छा लिखकर उनको एक ऐसे नेता के तौर पर पेश किया जो विभाजन के बाद भारत में रुका और भारतीय शिक्षा और संस्कृति के लिए जीवन के अंतिम समय तक संघर्ष करता रहा। उर्दू को हर हालत में बनाए रखने और हिंदी पर उसको वरीयता देने के उनके मन का विश्लेषण नहीं हुआ। जिस तरह से हिन्दुस्तानी का प्रेत हिंदी पर मंडराता रहा उसको मौलाना ने और शक्ति दी। स्वाधीनता के अमृतकाल में इन विषयों पर अकादमिक जगत में चर्चा हो और जो नैरेटिव सेट किया गया था उसको चुनौती दी जानी चाहिए। </p><div style="text-align: justify;"><br /></div>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-40590243622304924452024-01-27T18:19:00.000-08:002024-01-27T18:19:21.841-08:00 चरित्र और संवाद के माध्यम से राजनीति <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhuSFM1EUUDbsmySV1d-cxe1escaL9u2zg1CAp6FoPjqEy7T6q4sra8YAYAGXKquhHKsGF7hBDI2-8Cw3fukaBZFexe6Eoyn8SqjSxU8AetGju9vTOz3OhWwMSKucmjQOvaND6OR95cpQYqWcV5jJ5srhq3uZ-EEZUN9jaGOLE7ynjUmSCiK9OVzO_2AHQ/s1283/IMG_2128.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1283" data-original-width="1207" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhuSFM1EUUDbsmySV1d-cxe1escaL9u2zg1CAp6FoPjqEy7T6q4sra8YAYAGXKquhHKsGF7hBDI2-8Cw3fukaBZFexe6Eoyn8SqjSxU8AetGju9vTOz3OhWwMSKucmjQOvaND6OR95cpQYqWcV5jJ5srhq3uZ-EEZUN9jaGOLE7ynjUmSCiK9OVzO_2AHQ/w188-h200/IMG_2128.jpg" width="188" /></a></div><br />फिल्मों के माध्यम से पहले भी और अब भी एक विचारधारा विशेष को प्रमोट करने की युक्ति चल रही है। उसका विस्तार भी हो रहा है। जब भारत अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ तो स्वाधीनता के बाद जब उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट कर दिया था कि फिल्म इंडस्ट्री नए बने राष्ट्र की प्राथमिकता में नहीं है नेहरू के इस बान के बाद इंडस्ट्री से जुड़े लोग चिंतित हो गए थे। उस समय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों ने सरकार को प्रसन्न करने के लिए नेहरू की विचारधारा के अनुसार फिल्में बनाने का उपक्रम आरंभ किया था। नेहरू साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित थे। फिल्मकारों को लगा कि अगर साम्यवादी विचारधारा की कहानियों पर फिल्में बनाई जाएं तो नेहरू खुश होंगे। उनको खुश करने के लिए हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने मार्क्स के बहुविध स्त्रोत से निर्माण के सिद्धांत को अपना लिया। इस प्रविधि में अलग अलग क्षेत्र के विशेषज्ञ अलग अलग भाग का निर्माण करते हैं और उन सबको एक जगह जमा करके या जोड़ करके एक पूरी फिल्म बना ली जाती थी। परिणाम यह हुआ कि पूंजीवादी व्यवस्था से फिल्में बनने वाली फिल्मों की निर्माण प्रक्रिया साम्यवादी रही। लेखन में भी साम्यवादी व्यवस्था धीरे धीरे हावी होने लगी। <p></p><p style="text-align: justify;">जब नेहरू से मोहभंग का युग आरंभ हुआ तो हिंदी फिल्मों में साम्यवादी और पूंजीवादी धारा दोनों दिखाई देने लगी। फिर इंदिरा गांधी का दौर आया। उस दौर में हिंदी फिल्मों में साम्यवादी व्यवस्था और मजबूत हुई। इस कालखंड में साम्यवादी व्यवस्था में एक और रसायन मिलाया गया वो था हिंदू मुस्लिम एकता का। हिंदू महिला को उसके पुत्र के मुस्लिम दोस्त का खून चढ़ाकर बचाने जैसे दृष्य फिल्मों का हिस्सा बनने लगे। देश के विभाजन के समय हिंदू मुसलमान के बीच जो एक खाई बनी थी उसको पाटने की आड़ ली गई। इंदिरा जी ने देश में इमरजेंसी लगाई और संविधान की प्रस्तावना में मनमाने तरीके से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जोड़ा गया। संविधान की प्रस्तावना में संशोधन का असर भी फिल्मों पर भी पड़ा। अब हिंदू मुसलमान दोस्ती की मिसाल देनेवाली कहानियों पर फिल्में बनने लगीं। संवाद में कथित गंगा-जमुनी तहजीब की झलक दिखाई जाने लगी। साझा संस्कृति की बात होने लगी। इसके बाद असल खेल आरंभ होता है वो है फिल्मों में सनातन या हिंदू धर्म को नीचा दिखाना और अन्य धर्मों को बेहतर दिखाने की प्रवृत्ति का आरंभ। नायक भगवान को कोसते नजर आने लगे। देश में जब आतंकवाद का दौर आया तो उसका असर फिल्मों पर भी दिखा। स्वाधीनता के बाद फिल्मों में साम्यवाद का प्रभाव था तो उस दौर की फिल्मों में नायकों के अपराधी बनने को जमींदारों या दबंगों के अत्याचार से जोड़कर दिखाया गया था। इसी तरह से मुसलमानों के आतंकवादी बनने को पुलिस प्रशासन की ज्यादतियों से जोड़ा जाने लगा। कश्मीर के आतंकवादियों को लेकर भी हिंदी के कई फिल्मकारों ने यही उक्ति अपनाई। चाहे वो आमिर खान और काजोल अभिनीत फिल्म फना हो या संजय दत्त और ह्रतिक रोशन की फिल्म मिशन कश्मीर हो। इस तरह की फिल्मों की सूची लंबी है, जहां हिंदी फिल्मकारों ने आतंकवादियों को लेकर रोमांटिसिज्म दिखता है। धीरे धीरे ये प्रवृत्ति बढ़ती ही चली गई। </p><p style="text-align: justify;">जब ओवर द टाप (ओटटीटी) प्लेटफार्म प्रचलन में आए तो वहां दिखाई जानेवाली वेबसीरीज में भी इस तरह का रोमांटिसिज्म दिखा। संवाद में आतंकवादियों ने वो बातें कहीं जो विचारधारा विशेष की राजनीति के अनुकूल थीं। हाल ही में एक वेब सीरीज आई है जिसको मशहूर फिल्मकार रोहित शेट्टी ने बनाई है। सात भागों में बनी इस वेब सीरीज का नाम है द इंडियन पुलिस फोर्स। इसमें भी मुस्लिम आतंकवादियों को लेकर एक विशेष प्रकार का रोमांटिसिज्म दिखता है। इंडियन मुजाहिदीन के लिए काम करनेवाले आतंकवादी जरार का चित्रण मानवीय तरीके से किया गया है।वेबसीरीज में दिखाया जाता है कि आतंकवादी जरार का परिवार कानपुर का रहनेवाला है। दंगाइयों ने उसकी फैक्ट्री में जिंदा जला दिया। उसका चाचा भी उस आग में जिंदा जल गया। प्रतिशोध के लिए में वो आतंकवादी बनता है। ये चित्रण आतंक और आतंकवाद को जस्टिफाई करने जैसा है। </p><p style="text-align: justify;">जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि संवादों के माध्यम से भी उन स्थितियों को बल दिया जाता है जिसमें जरार जैसे लोग आतंकवादी बनते हैं। द इंडियन पुलिस फोर्स में एक मुसलमान पुलिस अफसर जब आतंकवादी जरार को पकड़ लेता है तो दोनों के बीच का संवाद उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। आतंकी जरार पुलिस अफसर कबीर से कहता है, एक बात बताइए कबीर साहब! अपनी कौम पर होते जुल्म को देखकर भी रात को आसानी से नींद आ जाती है आपको? कैसा लगता है खुदा से नाशुक्री करके, कैसा लगता है इन काफिरों का कुत्ता बनकर। इतना सुनकर कबीर उसके पास पहुंचता है और उससे कहता है कि इस्लाम तेरे ... का है, तू ठेकेदार है खुदा का। वो मेरा नहीं है, नफीसा का नहीं है जिसकी जिंदगी तुमलोगों ने बरबाद की । तुम लोग सिर्फ मजहब की आड़ में अपनी कमजोरी, नाकामी, फ्रस्टेसन गुस्सा निकालनेवाले लोग हो। सिर्फ अपना उल्लू सीधा करनेवाले खूनी। आतंकवादी। और कुछ नहीं। फिर रोष में जरार बोलता है कि आप सुनना चाहते हैं कि आतंकवादी कौन है। उसके बाद वो अपने बचपन की खौफनाक कहानी कहता है जिसमें कानपुर में उसके परिवार पर जुल्म होता है। गुड मुस्लिम- बैड मुस्लिम का संवाद चलता रहता है। इस सीरीज में कई जगह इस प्रकार के संवाद हैं। ये ठीक है कि सीरीज को समग्रता में देखें तो अच्छाई की बुराई पर जीत होती है। परंतु दर्शकों के मन में एक सवाल तो छोड़ ही देती है। अगर कानपुर कं दंगे में जरार की फैक्ट्री न जलाई जाती या उस दंगे में उसके चाचा को जिंदा न जला दिया गया होता तो वो आतंकवादी नहीं बनता। इसका ट्रीटमेंट उसी प्रकार है जब पहले की फिल्मों में दिखाया जाता था कि बीहड़ में कोई डकैत बनता था तो उसके पीछे दबंगों का जुल्म होता था।</p><p style="text-align: justify;">प्रश्न सिर्फ द इंडियन पुलिस फोर्स की कहानी या संवाद का नहीं है बल्कि उस प्रवृत्ति का है जिसके अंतर्गत हिंदी फिल्मों की दुनिया से जुड़े लोग इस तरह की बातों को न केवल दिखाते हैं बल्कि प्रमुखता से उसको प्रचारित भी करते हैं। वेब सीरीज के माध्यम से ओटीटी पर चलनेवाली फिल्मों के माध्यम से जिस तरह की एजेंडा आधारित सामग्री दिखाई जाती है उसको लेकर समाज को ही विचार करना होगा। पिछले दिनों एक तमिल फिल्म आई थी अन्नपूर्णी। नेटफ्लिक्स पर प्रसारित इस फिल्म में दिखाया गया था एक ब्राह्मण लड़की देश का श्रेष्ठ शेफ बनना चाहती है। बताया गया कि इसके लिए उसको मांसाहारी खाना भी बनाना होगा। इसके संवाद में प्रभु श्रीराम को मांसाहारी बताया गया। हिंदू लड़की को नमाज पढ़ते हुए दिखाया गया। तर्क ये दिया गया कि उसने बिरयानी बनाना एक मुस्लिम महिला से सीखा था इसलिए आभार प्रकट करने के लिए उसने नमाज पढ़ी। ये फिल्म सिनेमाघरों में एक दिसंबर को रिलीज हुई और महीने भर बाद ओटीटी प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर आई। ओटीटी प्लेटफार्म पर आने के बाद इसके संवाद और दृष्य पर केस हुआ। केस के बाद इसके निर्माता कंपनी ने क्षमा मांगी और नेटफ्लिक्स से इसको हटाया गया। ये सब कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हुआ। पर इस फिल्म की टाइमिंग देखिए। अयोध्या में 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होनी थी। कुछ राजनीतिक दल और साम्यवादी बौद्धिक इसका विरोध कर रहे थे। उसी समय पर राम को मांसाहारी बतानेवाली फिल्म ओटीटी पर रिलीज की गई। ओटीटी प्लेटफार्म की लोकप्रियता या व्याप्ति जैसी है उसको ध्यान में रखना होगा। मनोरंजन को लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए लेकिन धर्म की आड़ में राजनीतिक खेल बंद होना चाहिए। </p><div style="text-align: justify;"><br /></div>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-60911336565462264792024-01-20T18:44:00.000-08:002024-01-20T18:44:09.165-08:00 अकारण विवाद,आधारहीन तर्क<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTCBJiRPPwLYMTf5m2UHI9jlBdPsa8SSqcjW7EOZKR_2CGqasl_0c66kK-uYP6Y-y0-KtdohIjB7qw28vM06UNOFX2e_4liLUsBreA-h4JjNkIShL90-ckhPbtb0pNCrRtHLRsYBCMOG26SFIn4K3a2dsqNbJaVQ_LaCbB7VsJUSFU-OWKODZUC5pWWjQ/s1283/IMG_1921.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1283" data-original-width="1207" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTCBJiRPPwLYMTf5m2UHI9jlBdPsa8SSqcjW7EOZKR_2CGqasl_0c66kK-uYP6Y-y0-KtdohIjB7qw28vM06UNOFX2e_4liLUsBreA-h4JjNkIShL90-ckhPbtb0pNCrRtHLRsYBCMOG26SFIn4K3a2dsqNbJaVQ_LaCbB7VsJUSFU-OWKODZUC5pWWjQ/w188-h200/IMG_1921.jpg" width="188" /></a></div><br />अयोध्याजी में श्रीराम लला की प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव में एक दिन शेष है। राम लला की प्राण प्रतिष्ठा के पहले कुछ भगवाधारियों ने प्राण प्रतिष्ठा के समय को लेकर प्रश्न उठाए तो कुछ ने अर्धनिर्मित मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा पर सवाल खड़े किए। इन भगवाधारियों की आलोचना की आड़ में एक पूरा इकोसिस्टम सक्रिय हुआ और इनको बड़ा संत महात्मा और सनातन का ज्ञाता मानते हुए सरकार और प्रधानमंत्री की आलोचना आरंभ कर दी। इससे जनमानस में ये शंका हुई कि आलोचना योजनाबद्ध ढंग से आरंभ किया गया। सनातन या हिंदू धर्म में हर किसी को प्रश्न करने का अधिकार है। ये एक मात्र ऐसा धर्म है जिसमें अपनी श्रद्धा के अनुसार अपने भगवान चुनने तक की स्वतंत्रता है। आप चाहें जिस भगवान की पूजा करें, जिसके भक्त बनना चाहें उसके बनें। हिंदू धर्म समग्रता में एक भगवान और एक किताब वाले धर्मों से अलग है। अगर उत्तर आधुनिक शब्दावली में कहें तो हिंदू धर्म पूरी दुनिया का एकमात्र लोकतांत्रिक धर्म है। लोकतंत्र में नागरिकों को जितना अधिकार है उससे अधिक अधिकार हिंदू धर्म अपने अनुयायियों को देता है। इसलिए इन भगवाधारियों के प्रश्नों का कोई विरोध नहीं है। लेकिन जिस प्रकार से सरकार विरोधी इकोसिस्टम ने इस विरोध को प्रतिकार का स्वरूप दिया उसकी आलोचना तो होनी ही चाहिए। प्रश्न और प्रतिकार के अंतर को समझना होगा। राममंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर प्रश्न उठाते हैं तो एक संवाद का जन्म होता है। भारतीय संस्कृति में संवाद का अपना एक महत्व रहा है और रहेगा। प्रश्न से आगे जाकर जब प्रतिकार आरंभ होता है तो तो वो आस्था का प्रतिकार होता है। श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति का जो संघर्ष रहा है वो इसी आस्था के प्रतिकार से जुड़ा रहा। श्रीरामजन्मभूमि पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में भी इस आस्था का सम्मान किया गया। यह बात इकोसिस्टम से जुड़े लोगों को समझ नहीं आ रही है। केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विरोध करने की उसकी जो योजना है उसमें वो आस्था पर प्रहार करके उसको खंडित करने का प्रयत्न करते नजर आने लगे हैं। मोदी विरोध से राम विरोध तक पहुंच गए हैं। यहीं पर उनका अज्ञान और भारतीय जनमानस को समझने की कमजोरी उजागर होती है। <p></p><p style="text-align: justify;">श्रीराम से जुड़े दो ग्रंथ वाल्मीकि रचित रामायण और तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस को महत्वपूर्ण माना जाता है। तुलसी के श्रीरामचरितमानस की व्याप्ति किसी भी धर्मग्रंथ से कम नहीं है। उपरोक्त प्रश्नों के आलोक में इन दो ग्रंथों में वर्णित प्रसंगों पर दृष्टि डालते हैं। सबसे पहले मुहुर्त की बात करते हैं और देखते हैं कि वाल्मीकि रामायण में श्रीराम ने मुहुर्त के बारे में क्या कहा है। वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड के चतुर्थ सर्ग में मुहुर्त की चर्चा है। जब श्रीराम वानर सेना के साथ समुद्र तट पर पहुंचते हैं और हनुमान उनको लंकापुरी का वर्णन सुनाते हैं। उस वर्णन को सुनकर श्रीराम कहते हैं कि हनुमन! मैं तुमसे सच कहता हूं-तुमने उस भयानक राक्षस की जिस लंकापुरी का वर्णन किया है उसे मैं शीघ्र नष्ट कर डालूंगा। हनुमान से बात समाप्त करने के बाद श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, अस्मिन् मुहुर्ते सुग्रीव प्रयाणमभिरोचय/ युक्तो मुहूर्ते विजये प्राप्तो मध्यं दिवाकर:। अर्थ ये हुआ कि – सुग्रीव! तुम इसी मुहुर्त में प्रस्थान की तैयारी करो। सूर्यदेव दिन के मध्य भाग में जा पहुंचे हैं, इसलिए इस विजय नामक मुहुर्त में हमारी यात्रा उपयुक्त होगी। श्रीराम जिस विजय मुहुर्त की बात कर रहे हैं उसके बारे में व्याख्या ये है कि दिन में दोपहरी के समय अभिजित मुहूर्त होता है इसी को विजय मुहूर्त भी कहते हैं । लंका प्रस्थान के लिए श्रीराम ने स्वयं दोपहर के इस मुहुर्त को चुना था तो श्रीरामजन्मभूमि पर बने मंदिर में भव्य समारोह के लिए इस मुहुर्त पर प्रश्न उठाना उचित नहीं प्रतीत होता है। ज्योतिष रत्नाकर में इस मुहूर्त में दक्षिणयात्रा निषिद्ध है लेकिन यहां तो किसी प्रकार की यात्रा की ही नहीं जा रही है। श्रीराम ने जब लंका विजय के प्रस्थान के लिए अभिजित मुहूर्त चुना था तो उससे अधिक पवित्र और सटीक मुहूर्त क्या हो सकता है। </p><p style="text-align: justify;">अब श्रीरामचरितमानस का वो प्रसंग देखते हैं जब श्रीराम समुद्र के किनारे शिव जी की पूजा करना चाहते हैं। यह प्रसंग भी लंका कांड का है। श्रीराम और उनकी सेना के सामने लंका जाने के लिए समुद्र को पार करने की समस्या थी। जामवंत ने नल नील को बुलाकर कहा कि मन में श्रीराम जी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, कुछ भी परिश्रम नहीं होगा। फिर उन्होंने वानरों के समूह से वृक्षों और पर्वतों के समूह को उखाड़ लाने को कहा, धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा।।सुनि कपि भालु चले करि हूहा।जय रघुबीर प्रताप समूहा।। वानर भालू अपना काम करके वृक्षों और पर्वतों के समूह ले आते हैं और नल नील उनको सेतु का आकार देने लगते हैं। सेतु की सुंदर रचना देखकर कृपा सिंधु श्रीराम कहते हैं- परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहीं बरनी।। करिहउं इहां संभु थापना। मोरो ह्रदयं परम कलपना।। श्रीराम को सुनकर सुग्रीव ने अपने दूत भेजे और ऋषियों को समुद्र तट पर बुलाया। फिर वहीं पर श्रीराम ने शिवलिंग की स्थापना करके उनकी पूजा अर्चना की। लंका कांड में तुलसीदास जी ने लिखा है- सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिवर सकल बोलि लै आए।। लिंग थापि विधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।। अगर इस प्रसंग को देखे तो भगवान की पूजा के लिए कहां किसी मंदिर या स्थान की आवश्यकता पड़ी। श्रीराम ने समुद्र किनारे शिवलिंग की स्थापना की और मुनियों की उपस्थिति में उनकी पूजा की। शिवलिंग भी पूजा के पहले ही बनाया गया। कथित शंकराचार्य आदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना इस आधार पर कर रहे हैं कि वो अर्धनिर्मित मंदिर में पूजा कर रहे हैं। आलोचना करनेवाले इन भगवाधारियों को रामायण और श्रीरामचरितमानस में वर्णित इन प्रसंगों को देखना चाहिए। कहां कोई मंदिर कहां कोई शिखर। बस सागर का किनारा, श्रेष्ठ मुनियों की उपस्थिति और भगवान शंकर के प्रति आस्था। शिवलिंग की स्थापना भी हुई और पूजा भी। निर्मित- अर्धनिर्मित की कोई बात ही नहीं है। जहां हमारे ग्रंथों में इस तरह की बातें हो वहां मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा को लेकर उठनेवाले प्रश्नों को इन प्रसंगो के आलोक में देखना चाहिए। प्रश्न करनेवालों को प्रभु श्रीराम के इस वचन का भी ध्यान रखना चहिए- होइ अकाम जो छल तजि सेइहि।भगति मोरि तेहि संकर देहहि।। मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही।। जो छल छोड़कर निष्काम होकर श्रीरामजी की सेवा करेंगे उन्हें शंकर जी मेरी भक्ति देंगे। श्रीराम के वचन सबको अच्छा लगा और शंकर जी की पूजा के पश्चात सभी ऋषि मुनि अपने अपने आश्रमों में लौट गए।</p><p style="text-align: justify;">अयोध्या धाम में श्रीराम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में प्रश्न खड़ा करनेवाले यहां तक कह रहे हैं कि संविधान की शपथ लेनेवाले प्रधानमंत्री प्राण प्रतिष्ठा नहीं कर सकते। होता यह है कि जब विरोध के लिए विरोध करना हो तो ऐसे ऊलजलूल तर्क ढूंढे जाते हैं जो कई बार हास्यास्पद हो जाते हैं। संविधान की शपथ का तर्क भी ऐसा ही है। एक सज्जन ने तो यहां तक कह दिया कि नव्य मंदिर जन्म स्थान से तीन किलोमीटर दूर बन रहा है। आधारहीन, तथ्यहीन बयान। प्रश्न करनेवाले की मंशा और उसके ज्ञान पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं। श्रीराम और उनका चरित इस देश के लोक मानस में अंकित है। उसका प्रतिकार देश की जनता को शायद ही मंजूर हो। सोमवार को दोपहर विजय या अभिजित मुहूर्त में नव्य मंदिर में प्रभु श्रीराम की मनोहारी मूर्ति की स्थापना हो रही है। उनके साथ पूर्व में स्थापित रामलला विराजमान भी होंगे। मंगल की कामना होनी चाहिए। </p><div style="text-align: justify;"><br /></div>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-7540306511430396502024-01-13T19:56:00.000-08:002024-01-13T19:56:17.620-08:00 रामकथा प्रसंगों से भरी हिंदी फिल्में<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjE3qPM9PHoGfzeYLqrppnzlEuVN87hFcO7ENVJP2FK5F5S4xRhrtw3V2f6T_MoiHU3HT0j97uuZaALK7m7J_IkMgZPFykPxsTPetmqcCU6Pl1fw-UBPgFDprmFsxakAxkGRgre3DnB7zw2glc49z1t9f1FTuIz7c1IxmO1l1DwdysoehTcquQJIE5S7SI/s1283/IMG_1782.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1283" data-original-width="1203" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjE3qPM9PHoGfzeYLqrppnzlEuVN87hFcO7ENVJP2FK5F5S4xRhrtw3V2f6T_MoiHU3HT0j97uuZaALK7m7J_IkMgZPFykPxsTPetmqcCU6Pl1fw-UBPgFDprmFsxakAxkGRgre3DnB7zw2glc49z1t9f1FTuIz7c1IxmO1l1DwdysoehTcquQJIE5S7SI/w188-h200/IMG_1782.jpg" width="188" /></a></div><br />श्रीरामजन्मभूमि पर अयोध्या में भव्य मंदिर का निर्माण हो रहा है। 22 जनवरी को मंदिर में श्रीराम के बालस्वरूप की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है। पूरे देश के सनातनी इस समय रामलला की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर उत्साहित हैं। ऐसे वातावरण में श्रीरामचरित पर, श्रीराम कथा पर अन्य भाषाओं में लिखे रामायण के विभिन्न आयामों पर चर्चा हो रही है। नई-नई पुस्तकें आ रही हैं। बच्चों के लिए रामकथा और श्रीरामजन्मभूमि पर कामिक्स का प्रकाशन हो रहा है। फिल्मों और सीरियल्स का निर्माण हो रहा है। ऐसे वातावरण में मन में सहज ही एक प्रश्न उठा कि श्रीराम कथा का हिंदी फिल्मों पर क्या प्रभाव रहा है। जब इस दिशा में विचार करने लगा तो सामने आया कि रामकथा से जुड़े विभिन्न प्रसंगों को लेकर हिंदी के फिल्मकारों ने फिल्में बनाई। फिल्म या पटकथा लिखनेवालों ने रामकथा से प्रसंग उठाए। उन प्रसंगों को आधार बनाकर आधुनिक परिवेश और पात्रों की रचना की और उनको कथासूत्र में पुरो दिया। ये बहुत ही रोचक विषय लगा । इसको सोचते हुए सचिन भौमिक और राजकपूर से जुड़ा एक किस्सा याद आ गया। सचिन भौमिक हिंदी फिल्मों से जुड़े सफलतम कहानीकारों में से एक हैं। उनकी लिखी कहानियों पर बनी फिल्में निरंतर सुपर हिट होती रही हैं। उनकी सफल फिल्मों की लंबी सूची है जिसमें अनुराधा, आई मिलन की बेला, जानवर, आया सावन झूम के, अराधना, गोल-माल, कर्ज, नास्तिक, झूठी, सौदागर, ताल आदि प्रमुख हैं। इन सफल फिल्मों में उन्होंने किसी की कहानी लिखी तो किसी फिल्म की पटकथा, लेकिन लेखक के रूप में वो बेहद सफल रहे हैं। बताया जाता है कि एक जमाने में निर्माताओं की वो पहली पसंद थे। कहना न होगा कि सलीम जावेद की जोड़ी से ज्यादा हिट फिल्में सचिन भौमिक के नाम पर दर्ज है। तो बात कर रहा था एक किस्से की। वो किस्सा है सचिन भौमिक और राज कपूर से जुड़ा। सचिन भौमिक कोलकाता (तब कलकत्ता) से मायानगरी मुंबई (तब बांबे) पहुंचे थे। उनकी इच्छा राज कपूर से मिलने की थी। वो इसके लिए प्रयत्न कर रहे थे। एक दिन वो राज कपूर से मिलने आर के स्टूडियो पहुंच गए। उन्होंने गेट पर अपना परिचय दिया लेकिन किसी कारणवश उस दिन राज कपूर से उनकी भेंट नहीं हो सकी। उनको अगले दिन के लिए मुलाकात का समय मिल गया। अगले दिन नियत समय पर सचिन भौमिक फिर से चेंबूर स्थित आर के स्टूडियो पहुंचे। उनको राज कपूर के कमरे में ले जाया गया। अभिवादन आदि के बाद राज कपूर ने उनसे मुलाकात का प्रयोजन जानना चाहा। सचिन भौमिक ने खुल कर अपनी इच्छा बताई और कहा कि वो उनके लिए फिल्म की कहानी लिखना चाहते हैं। राज कपूर ने धैर्यपूर्वक उनकी बात सुनी और कहानी भी। जब बातचीत खत्म हो गई तो राज कपूर ने कहा कि आप हिंदी फिल्मों के लिए कहानियां लिखते हो, अच्छी बात है, लिखते रहो लेकिन इतना ध्यान रखना कि हिंदी फिल्मों में कहानी तो एक ही होती है, ‘राम थे, सीता थीं और रावण आ गया।‘ सचिन भौमिक ने एक साक्षात्कार में बताया था कि राज कपूर की ये बात उन्होंने गांठ बांध ली थी और वो कोई भी कहानी लिखते थे तो उनके अवचेतन में रामकथा अवश्य चल रही होती थी।<p></p><p style="text-align: justify;">राज कपूर ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी लेकिन उतनी ही महत्वपूर्ण बात सचिन भौनिक ने भी कही कि कहानी लिखते समय उनके अवचेतन रामकथा होती थी। इस अवचेतन मन की छाप आपको कई फिल्मों पर दिखेगी। अगर आप सुपरहिट फिल्म शोले पर विचार करें तो श्रीरामकथा का एक प्रसंग आपको उसमें दिखाई देगा। श्रीरामकथा में जब राक्षसों ने ऋषियों को बहुत तंग करना आरंभ कर दिया, यज्ञ आदि में बाधा डालने लगे तो विश्वामित्र ने राजा दशरथ से जाकर ये बातें बताईं। उनसे राक्षसों से मुक्ति के लिए राम और लक्ष्मण को साथ भेजने का आग्रह किया। राजा दशरथ पहले घबराए लेकिन फिर राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेज दिया। दोनों भाइयों ने राक्षसों का वध करके ऋषियों के यज्ञादि में आनेवाले विघ्न को दूर किया। अब फिल्म शोले की कहानी को देखिए तो आपको इस प्रसंग की छाया वहां दिखाई देगी। ठाकुर बलदेव सिंह और उनकी बहू को छोड़कर डकैत गब्बर सिंह ने उनके परिवार के सभी सदस्यों की हत्या कर दी थी। रामगढ़ इलाके में उसका आतंक था। गब्बर के आतंक को खत्म करने के लिए ठाकुर जय और वीरू को रामगढ़ लेकर आते हैं। कहानी में तमाम तरह के मोड़ आते हैं और अंत में गब्बर के आतंक का अंत होता है। अब यहां अगर हम देखें तो विश्वामित्र वाले प्रसंग को कहानीकार ने उठाया और नए परिवेश और पात्रों को बदलकर कहानी में पिरो दिया। यहां हम सिर्फ विश्वामित्र के लिए राक्षसों को खत्म करने के लिए राम और रावण को ले जाने की बात कर रहे हैं। श्रीराम कथा में वर्णित दोनों भाइयों के चरित्र के बारे में बिल्कुल ही बात नहीं कर रहे हैं। इसी तरह से एक और फिल्म आई, कभी खुशी कभी गम। इसमें भी श्रीरामकथा का प्रसंग आपको दिखाई देगा। राजा दशरथ के वचन की रक्षा करने के लिए प्रभु श्रीराम चौदह वर्षों के वनवास पर चले गए। इस फिल्म में भी अपने पिता यशवर्धन रायचंद के कहने पर उनका ज्येष्ठ पुत्र राहुल घर छोड़कर अपनी पत्नी के साथ विदेश चला जाता है। राहुल की माता नंदिनी को बहुत कष्ट होता है। वो घुटती रहती है। अब इस छोटे से प्रसंग को उठाकर करण जौहर ने बिल्कुल ही आधुनिक परिवेश और पात्रों के साथ फिल्म बना दी। यहां एक बार फिर से स्पष्ट करना चाहता हूं कि इसमें न तो श्रीराम के चरित्र का अंश है और ना ही उनका मर्यादित आचरण की झलक। बस प्रसंग वहीं से उठाए गए हैं। हिंदी फिल्मों में इस तरह के सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। कई फिल्मों के गीतों में भी रामकथा के प्रसंग आपको दिख जाएंगे। स्वदेश फिल्म का गीत याद करिए, पल पल है भारी वो विपदा है आई, मोहे बचाने अब आओ रघुराई। आओ रघुवीर आओ, रघुपति राम आओ, मोरे मन के स्वामी, मोरे श्रीराम आओ। इतना ही नहीं कई फिल्मी गीत तो इतने लोकप्रिय हुए उसको सुनकर आम जनता के मन में श्रद्धा उत्पन्न होने लगती है। फिल्म नीलकमल का गाना- हे रोम रोम में बसनेवाले राम, जगत के स्वामी, हे अंतर्यामी, मैं तुमसे क्या मांगू। या फिर 1961 की फिल्म घराना का गीत, जय रघुनंदन जय सियाराम से ऐसा ही प्रभाव उत्पन्न होता है। </p><p style="text-align: justify;">दरअसल श्रीराम कथा और उनका चरित्र इतना विराट है कि उससे जुड़े किसी प्रसंग को कहानीकार उठाते हैं और फिर उसकी पृष्ठभूमि में अपनी कथा रच लेते हैं। रामकथा तो गंगा है जो सदियों से बहती आ रही है और हर कोई अंजुलि भर जल वहां से लेता है। अपनी श्रद्धानुसार उसका उपयोग करता है। इसी तरह से रामकथा रूपी गंगा से फिल्मी कथाकार अंजुलि भर भर कर प्रसंग उठाते रहते हैं और अपनी शैली में, अपनी भावभूमि पर उसका उपयोग करते रहते हैं। श्रीराम कथा के मूल में है अर्धम पर धर्म की विजय और जितनी भी सुखांत हिंदी फिल्में हैं उसमें यही दिखता है। तमाम बाधाओं के बाद अधर्म का नाश होता है और धर्म की स्थापना होती है। यहां धर्म को व्यापक संदर्भ में देखे जाने की आवश्यकता है। अब जबकि कई विश्वविद्यालयों में फिल्म अध्ययन केंद्र खुल गए हैं तो जरूरत इस बात की है कि वहां श्रीराम कथा के हिंदी फिल्मों पर व्यापक प्रभाव पर शोध हो, चर्चा हो और उसको जनता के सामने रखा जाए। कथाकारों के अवचेतन को समझा जाए। </p><div style="text-align: justify;"><br /></div>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-22799558422044771122024-01-06T17:39:00.000-08:002024-01-06T17:39:41.257-08:00भारतीय स्थापत्य कला का परम वैभव<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzOu4iY3tL0_f8hKjnZc-XEt3mXQyZrWmu0lxxNS4l0aqLgJRjWfDY-KJaW5Et7RpRtPIsIniCw5BLDdHCADaItGLjYt3s3qsPTO45XRycJglSd2yX61hqs3m6NqtqrFbKDehc7b8yb6B3pHcPiAjKlYwD0E2hXvY0wVyn5XzZNdRwZsi-HgGA1ddoJ9c/s1671/IMG_1650.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1599" data-original-width="1671" height="191" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzOu4iY3tL0_f8hKjnZc-XEt3mXQyZrWmu0lxxNS4l0aqLgJRjWfDY-KJaW5Et7RpRtPIsIniCw5BLDdHCADaItGLjYt3s3qsPTO45XRycJglSd2yX61hqs3m6NqtqrFbKDehc7b8yb6B3pHcPiAjKlYwD0E2hXvY0wVyn5XzZNdRwZsi-HgGA1ddoJ9c/w200-h191/IMG_1650.jpg" width="200" /></a></div><br />अयोध्या के नव्य श्रीराममंदिर में प्रथम तल का कार्य लगभग पूर्ण होने को है। श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ने निर्माणाधीन मंदिर के प्रवेश द्वार पर स्थापित गज, सिंह और गरुड़ जी की मूर्तियों के चित्र साझा किए हैं। ये सीढ़ियों के दोनों तरफ लगाए गए हैं। ये मूर्तियां राजस्थान के वंसी पहाड़पुर के हल्के गुलाबी रंग के बलुआ पत्थर से बनी है। श्रीरामजन्मभूमि मंदिर में राजस्थान के बंसी पहाड़पुर इलाके में मिलनेवाले गुलाबी पत्थर का काफी उपयोग हुआ है। श्रीराम मंदिर की इन सीढ़ियों से ऊपर चढ़ेंगे तो इन मूर्तियों में भारतीय परंपरा के अनुरूप गज की सूंढ़ में पुष्पमाला दिखेगी जो भारतीय स्थापत्य कला को दर्शाता है। भारतीय परंपरा में जिसे शार्दूल कहते हैं उस सिंह को सीढ़ियों के किनारे स्थापित किया गया है। ये सकारात्मक संभावनाओं को बढ़ानेवाला स्वरूप माना जाता है। सीढ़ियों के तीसरे सतह पर हनुमान जी दक्षिणाभिमुख हाथ प्रणाम की मुद्रा में खड़े हैं और उनके सम्मुख गरुड़ जी की उत्तराभिमुख हाथ जोड़े मुद्रा में प्रतिमा स्थापित की गई है। मंदिर के गर्भगृह के पहले तीन मंडप बनाए गए हैं। सीढ़ियों से जब आप गर्भगृह की तरफ बढ़ेंगे तो सबसे पहले नृत्य मंडप है। नृत्य मंडप की छतरी आठ स्तंभों पर टिकी हुई है। इन आठ स्तंभों पर भगवान शिव की विभिन्न मुद्राओं में नृत्य करते हुए मनोहारी चित्र उकेरे गए हैं। इसमें भगवान शिव का परम कल्याणकारी रूप सदाशिव, शिव और पार्वती के अलावा नंदी पर सवार शिव की मूर्तियां बनाई गई हैं। एक स्तंभ पर शिव अपने पूरे परिवार के साथ विराजमान हैं। शिव के इन विभिन्न स्वरूपों को भी पत्थरों पर बारीकी से उकेरा गया है और ये मूर्तियां बहुत ही जीवंत वातावरण का निर्माण करती हैं। <p></p><p style="text-align: justify;">नृत्यमंडप से जब भक्तगण गर्भगृह की ओर बढ़ते हैं तो एक और मंडप मिलता है जिसका नाम है रंगमंडप। नृत्यमंडप और रंगमंडप के बीच आरंभ के चार स्तंभों पर गणपति जी की विशिष्ट और विभिन्न मुद्राएं उकेरी गई हैं। गणपति को अभय मंगल और शुभ का देवता माना जाता है। ये सभी स्तंभ पत्थरों से निर्मित किए गए हैं और इनमें किसी प्रकार के लोहे का उपयोग नहीं किया गया है। जब आप रंगमंडप से आगे बढ़ेंगे तो आपको गुड़ी मंडप या सभा मंडप मिलेगा। रंगमंडप और गुड़ी मंडप के बीच के चार स्तंभों पर भी गणपति की मूर्तियां उकेरी गई हैं। गुड़ी मंडप में प्रभु श्रीराम के बालरूप से लेकर यौवनावस्था तक के विभिन्न रूपों की मूर्तियां दीवारों और स्तंभों पर बनाई गई हैं। इसके अलावा इन्हीं स्तंभों और दीवारों पर विष्णु के दशावतार की मूर्तियां भी बनाई गई हैं। श्रीरामजन्मभूमि तीर्थक्षेत्र से मिली जानकारी के अनुसार मंदिर के विभिन्न मंडपों के खंभों और दीवारों पर अनेक देवी देवताओं और देवांगनाओं की मूर्तियां उकेरी जा रही हैं। गुड़ी मंडप की बाईं ओर प्रार्थना मंडप और दाईं ओर कीर्तन मंडप बनकर लगभग तैयार है। गुड़ी मंडप के ठीक सामने गर्भगृह बनाया गया है। </p><p style="text-align: justify;">गर्भगृह के मुख्य द्वार पर जय विजय की मूर्ति द्वारपाल के रूप मे लगाई गई है। सनातन परंपरा में जय विजय स्वर्ग के द्वारपाल माने जाते हैं। अबतक आप गुलाबी पत्थर पर इन मूर्तियों को देख रहे थे लेकिन जहां से गर्भगृह आरंभ होता है वहां से सफेद संगमरमर का काम दिखने लगता है। सभी स्तंभ और दीवारें सफेद हैं। मूर्तियां भी इन सफेद संगमरमर शिलाओं पर ही उकेरी गई हैं। गर्भगृह के चौखट पर दोनों तरफ चंद्रधारी गंगा यमुना की बहुत ही सुंदर मूर्तियां बनाई गई हैं। एक तरफ गंगा जी हाथ में कलश लिए हुए मकरवाहिनी स्वरूप में हैं तो दूसरी तरफ यमुना जी कूर्मवाहिनी स्वरूप में स्थापित की गई हैं। गर्भगृह की बाईं तरफ बड़े से मंडप में एक ताखे पर गणेश जी की मूर्ति है और उसके ऊपर रिद्धि सिद्धि और शुभ लाभ के चिन्ह बनाए गए हैं। यहां आकर गर्भगृह के पहले ही भक्तों को भारतीय परंपरा और लोक में प्रचलित देवी देवताओं के दर्शन होते हैं। एक ताखे में हनुमान जी की प्रणाम मुद्रा की मूर्ति के ऊपर अंगद, सुग्रीव और जामवंत की मूर्तियां बनाई गई हैं। इनसे गर्भगृह तक पहुंचते पहुंचते भक्त पूरी तरह से रामकथा में डूब जाते हैं । </p><p style="text-align: justify;">गर्भगृह के मुख्यद्वार के ठीक ऊपर समस्त सृष्टि के पालक विष्णु भगवान की शेषनाग पर लेटी मुद्रा को पत्थर पर उकेरा गया है। भगवान राम और कृष्ण को विष्णु भगवान का ही अवतार माना जाता है। इस कारण से गर्भगृह के मुख्यद्वार पर शेषशायी भगवान विष्णु का चित्र उकेरा गया है। शेषनाग के विग्रह की शैया पर लेटे हुए भगवान विष्णु के मस्तक पर मुकुट है। उनके पांव के पास धन और वैभव की देवी लक्ष्मी जी बैठी हुई हैं। हमारे पौराणिक और धर्मिक ग्रंथों में भगवान के तीन स्वरूप बताए गए हैं, ब्रह्मा विष्णु और महेश। ब्रह्मा जी इस समस्त सृष्टि के निर्माता, विष्णु जी समस्त सृष्टि के पालनकर्ता और शिवजी यानि महेश को सृष्टि का संहारक कहा जाता है। गर्भगृह के मुख्यद्वार के ऊपर शेषशैया पर लेटे विष्णु भगवान के साथ ब्रह्माजी और शिवजी की मूर्तियां भी बनाई गई हैं। गर्भगृह के द्वार के ऊपर जहां ये मूर्तियां बनाई गई हैं वो एक अर्धचंद्राकार क्षेत्र है। इस अर्धचंद्राकार की परिधि पर ही सूर्य, चंद्रमा और गरुड़ जी की मूर्तियां बनाई गई हैं। </p><p style="text-align: justify;">नव्य श्रीराम मंदिर पूरा गर्भगृह सफेद संगमरमर के पत्थरों से बना है और नागर शैली में बने इस मंदिर के गर्भगृह की गोलाकार छत में बेहद सुंदर अलंकरण किया गया है। गोलाकार छत के ठीक नीचे प्रभू श्रीराम के नव्य विग्रह के लिए एक चबूतरा बनाया है जो तीन स्तर का है। चबूतरे के सबसे पीछे वाले हिस्से में भगवान श्रीराम के बाल्यवस्था की मूर्ति लगाई जाएगी। ये मूर्ति पांच फीट की है जिसमें 51 इंच पर प्रभु श्रीराम का मस्तक है। मंदिर का डिजाइन इस प्रकार से बनाया गया है कि प्रत्येक रामनवमी पर श्रीराम के मस्तक पर सूर्यकिरण का अभिषेक होगा। अब तक जो सूचनाएं आ रही हैं उसके अनुसार कर्नाटक के मूर्तिकार अरुण योगीराज ने ये मूर्ति बनाई है। अरुण योगीराज की बनाई मूर्ति शास्त्रों में वर्णित प्रभु श्रीराम के रूपरंग के अनुरूप श्यामल रंग की है। इस मूर्ति को भी कर्नाटक के पत्थर से तैयार किया गया है। नव्य प्रतिमा के लिए वस्त्र और आभूषण तैयार किए जा रहे हैं। गर्भगृह के इस चबूतरे के दूसरे हिस्से पर श्रीराम का जो विग्रह इस समय अस्थायी मंदिर में है उसको स्थापित किया जाएगा। उनके साथ वहां लक्ष्मण जी और भरत जी के विग्रह भी स्थापित होंगे। तीसरे सतह पर श्रीराम के पूजा पाठ की सामग्री और घंटियां आदि रखी जाएंगी। मंदिर के द्वितीय तल पर भव्य रामदरबार होगा। 22 जनवरी को होनेवाले प्राण प्रतिष्ठा के समय तक प्रथम तल ही तैयार हो पाएगा। </p><p style="text-align: justify;">मंदिर के लोअर प्लिंथ यानि भूतल से पांच फीट ऊपर तक गुलाबी पत्थरों पर वाल्मीकि रामायण के आधार राम जन्म से लेकर राम राज्याभिषेक तक की मूर्तियां उकेरी जाएंगीं। इन मूर्तियों को संस्कार भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रख्यात चित्रकार वासुदेव कामत के चित्रों के आधार पर तैयार किया जाएगा। इनमें से दो प्रसंग का आधार श्रीरामचरितमानस भी होगा, पहला अयोध्या का राजदरबार और चित्रकूट का बनवासी प्रसंग। इस तरह से देखें तो प्रभु श्रीराम के मंदिर में जिस प्रकार का स्थापत्य, चित्रकारी और मूर्तिकला का उपयोग किया जा रहा है वो पूरी तरह से भारतीय परंपराओं और कलाओं से जुड़ा है। जिस प्रकार मंदिर निर्माण की पूरी तकनीक भारतीय है उसी प्रकार से मंदिर में निर्मित सभी प्रसंग सनातनी हैं। कई जगह इसका उल्लेख मिलता है कि सम्राट विक्रमादित्य ने जिस राममंदिर का निर्माण करवाया था वो कसौटी पत्थर के चौरासी स्तंभों तथा सात कलशों वाला विशाल मंदिर था। उस मंदिर के अवशेष ही मिले थे लेकिन अब श्रीराघवेंद्र सरकार को जो मंदिर बन रहा है वो भी भव्यता में कम नहीं है। श्रीरामजन्मभूमि तीर्थक्षेत्र के अनुसार पूरे मंदिर में 392 स्तंभ होंगें जो मंदिर और अयोध्या के वैभव को पुनर्स्थापित करेंगे। </p><div style="text-align: justify;"><br /></div>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-26688638629761482372024-01-06T17:37:00.000-08:002024-01-06T17:37:13.381-08:00 भक्ति ज्ञान और सदाचार की त्रिवेणी<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieuHrTnA3FkcAhj87KpUCWWOp-zDhhEA6k2WacofA6jD1Kck1CarAnL2DrSH_UupZK9zhAm9xRtWUQgSdkYtuyBENfV7z3BMHMmj_56SRmWApI6n6QIIHnvHxG-CZ5GGur5oJMROIpLPOQOBqOaPXd_rWSpG1a4qoLAx-oMVORU7aEbgWuX7sNKZs_tq4/s1286/IMG_1649.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1286" data-original-width="1213" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieuHrTnA3FkcAhj87KpUCWWOp-zDhhEA6k2WacofA6jD1Kck1CarAnL2DrSH_UupZK9zhAm9xRtWUQgSdkYtuyBENfV7z3BMHMmj_56SRmWApI6n6QIIHnvHxG-CZ5GGur5oJMROIpLPOQOBqOaPXd_rWSpG1a4qoLAx-oMVORU7aEbgWuX7sNKZs_tq4/w189-h200/IMG_1649.jpg" width="189" /></a></div><br />अयोध्या में श्रीराम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के पहले देश के अनेक शहरों में दैनिक जागरण श्रीरामोत्सव की चर्चा कवि चेतन कश्यप से हो रही थी। बातचीत के क्रम में उन्होंने बताया कि गायक मुकेश ने श्रीरामचरितमानस को आज से 50 वर्ष पूर्व गाया था। मुकेश के गाए चौपाइयों का पहला एलपी रिकार्ड एचएमवी से 1973 में आया था। ये बालकांड पर आधारित था। तब एचएमवी ने ये घोषणा की थी कि तुलसी रामायण, भारत व्यापी मानस चतु:शताब्दी समारोह में एचएमवी के योगदान स्वरूप एक विशिष्ट एल्बम के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। पहले एल्बम को पहला पुष्प बताया गया था। मानस की चतु:शताब्दी के शुभ अवसर पर मानस के रचयिता का पुण्य स्मरण स्वाभाविक था। कहा गया था कि गोस्वामी तुलसीदास हिंदी भाषा के तो सर्वश्रेष्ठकवि हैं ही संसार भर में वो सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रतिष्ठित महाकवि माने जाते हैं। उनका सबसे महान ग्रंथ रामचरितमानस है जिनकी चौपाइयां और दोहे शिलालेख और सुभाषित पुष्प बन गए हैं। उन्होंने जनता के मनोराज्य में रामराज्य के आदर्शों को सदा के लिए प्रतिष्ठित कर दिया है। 1974 में उन्होंने मानस के सभी खंडों को गाया था जिसका रिकार्ड भी तब आया था, जो आज भी बेहद लोकप्रिय है। आज भी मुकेश के गाए इन चौपाइयों का अपना अलग महत्व और लोकप्रियता है। कहनेवाले तो यहां तक कहते हैं कि अगर मुकेश के एक काम को याद किया जाएगा तो वो है उनका ये गायन। तुलसी रामायण के नाम से आए इस रिकार्ड का जो कवर था उसके ऊपर एक टिप्पणी भी प्रकाशित थी, ‘तुलसी रामायण की कथावस्तु रामचरितमानस से संकलित है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस का शुभारंभ विक्रम संवत 1631 में रामनवमी के दिन अयोध्या में किया था। विगत चार सौ वर्षों में रामचरितमानस की लोकप्रियता और प्रतिष्ठा निरंतर बढ़ती रही है। किसान का कच्चा मकान हो या आलीशान राजमहल , गृहस्थ का घर हो या महात्मा का आश्रम, देश हो या विदेश, सर्वत्र रामचरितमानस हिंदी भाषा का सर्वोत्तम और सर्वमान्य पवित्र ग्रंथ माना जाता है। निरक्षर श्रोता हो शास्त्री वक्ता ,सामानय जन हो या अतिविशिष्ट व्यक्ति, हिंदी भाषी हो या अहिंदी भाषी, देशी भाष्यकार हो या विदेशी अनुवादक, सबने रामचरितमानस से महत्व को शिरोधार्य किया। अनेक देशी और विदेशी भाषा में ये ग्रंथ अनुदित है। किंतु सर्वोपरि महत्व तो रामचरितमानस का यह है कि इसकी पावन वाणी कोटि-कोटि जन के मन में भक्ति ज्ञान और सदाचार की त्रिवेणी बनी है। विगत चार सौ वर्षों से रामचरितमानस जनमानस में राम भक्ति का कमल खिलानेवाले सूर्य के समान प्रकाशित रहा है।‘ आज से 50 वर्ष पूर्व जो एल्बम आया था उसमें मुकेश के अलावा वाणी जयराम, कृष्णा कल्ले, पुष्पा पागदरे, प्रदीप चटर्जी, सुरेन्द्र कोहली और अंबर कुमार की आवाज भी थी। इसकी संगीत रचना मुरली मनोहर स्वरूप ने की थी और संकलन पंडित नरेन्द्र शर्मा ने किया था। इस समय जब पूरा देश राममय हो रहा है तब मुकेश के साथ इन कलाकारों के योगदान का स्मरण भी किया जाना चाहिए। उस दौर में जब तकनीक इतनी उन्नत नहीं थी तब भी मुकेश के गाए तुलसी रामायण हर उस घर में गूंजती थी जिस घर में रिकार्ड प्लेयर होता था। <p></p><p style="text-align: justify;">श्रीरामचरितमानस की लोकप्रियता का कारण कई वामपंथी विचारक इसका धर्म से जुड़ा होना मानते हैं। उनका मत है कि तुलसीदास ने चूंकि धर्म और भगवान पर लिखा इस कारण श्रीरामचरितमानस लोकप्रिय है। ऐसे विचारक जब इस तरह की टिप्पणी करते तो यह भूल जाते हैं कि यदि भगवान, धर्म और भक्ति ही किसी रचना का आधार होती तो भक्तिकाल के लगभग सभी कवि लोकप्रिय होते। उस काल के सभी कवियों ने इन्हीं को आधार बनाकर लिखा। लेकिन न तो सूरदास, न केशवदास न ही नाभादास जैसे भक्तिकाल के कवियों को तुलसीदास और उनकी कृति श्रीरामचरितमानस जैसी लोकप्रियता मिल पाई। विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है कि ‘तुलसीदास की लोकप्रियता का कारण यह है कि उन्होंने अपनी कविता में अपने देखे हुए जीवन का बहुत गहरा और व्यापक चित्रण किया है। उन्होंने राम के परंपरा प्राप्त रूप को अपने युग के अनुरूप बनाया। उन्होंने राम की संघर्ष कथा को अपने समकालीन समाज और अपने जीवन के संघर्ष कथा के आलोक में देखा। उन्होंने वाल्मीकि और भवभूति के राम को पुन:स्थापित नहीं किया है, अपने युग के राम को चित्रित किया है। उनके दर्शन और चित्रण के राम ब्रह्म हैं लेकिन उनकी कविता के राम लोक-नायक हैं।‘ त्रिपाठी ने जो लोक-नायक शब्द उपयोग किया है उसका जो लोक है उसमें ही तुलसी के रामचरित की लोकप्रियता के कारण हैं। लोक में राम या कह सकते हैं कि लोक के राम। राम का जो चरित्र चित्रण तुलसी ने किया है उसमें कहीं भी अहंकार नहीं है। लोक कभी भी अहंकारी नायकों को पसंद नहीं करता है। इसके अलावा राम का जो समर्पण दिखता है वो अप्रतिम है। जब वो छात्र होते हैं तो अपने गुरू के लिए समर्पित होते हैं, जब पुत्र होते हैं तो पिता के लिए, उनके वचन के लिए राज का त्याग कर वन गमन कर जाते हैं। कहीं किसी प्रकार का मलाल नहीं, क्षोभ नहीं। जब पति होते हैं तो पत्नी की हर इच्छा को पूरी करने का समर्पण दिखता है। पत्नी के खिलाफ हुए अत्याचार का प्रतिकार करने के लिए अयोध्या से सेना नहीं बुलाते, अपने दम पर अपनी सेना बनाते हैं और रावण को सबक सिखाते हैं। जब मित्र होते हैं तो सुग्रीव के साथ खड़े होते हैं। </p><p style="text-align: justify;">यह अकारण नहीं है कि प्रेमचंद भी कहते हैं कि उनके आदर्श राम और कृष्ण हैं। 1932 में प्रेमचंद ने एक निबंध लिखा था जाग्रति। उसमें वो लिखते हैं कि ‘हमारे जीवन का उद्देश्य प्रभुत्व की प्राप्ति नहीं बल्कि परमार्थ संचय है। हमारे जीवन का आदर्श स्वार्थ की अंधी उपासना नहीं संसार की निधि को समेटकर अपनी थैली में भर लेना नहीं वरन संसार में इस तरह रहना है कि हमसे किसी को हानि न हो। किसी को कष्ट न हो किसी का गला न दबे। हमारे आदर्श चरित्र नेपोलियन जैसे नहीं जो संसार पर अधिकार प्राप्त करना चाहता था न क्लाइब और क्रामबेल जैसे न ही लेनिन और मुसोलिनी जैसे। हमारे आदर्श चरित्र कृष्ण और राम और अशोक जैसे राजा अर्जुन और भीष्म जैसे योद्धा और गांधी जैसे गृहस्थ हैं। हमारा विश्वास संघर्ष में नहीं सहयोग में है। प्रेमचंद की इन पंक्तियों में हमें तुलसी के राम का चरित स्पष्ट रूप से दिखता है। बाल्यकाल से लेकर राज्याभिषेक तक श्रीराम कहीं भी संघर्ष के लिए उद्यम करते नहीं दिखते। रामचरित में सहयोग का भाव है। इसलिए जब मुकेश रामचरित को गाते हैं तो लोगों के दिल को छूते हैं। पंति नरेन्द्र शर्मा का सहयोग भी इस एल्बम में मिला था। नरेन्द्र शर्मा ऐसे कवि गीतकार थे जिन्होंने भारतीय परंपरा और शब्द संपदा का उपयोग अपने गीतों में किया और लोकप्रियता भी हासिल की। लता मंगेशकर जब ‘राम रतन धन पायो’ नाम का एल्बम तैयार कर रही थीं तब नरेन्द्र शर्मा ने उनसे कहा कि ‘राम ऐसे अकेले भगवान हुए हैं कि अगर कोई उनकी तन मन से सेवा करे तो तो उसका सारा कार्य सिद्ध होता है। राम ही वो ईश्वर हैं जो सत्य के छोर पर खड़े होकर आपको अंत में निर्वाण की दशा में ले जाते हैं। नरेन्द्र शर्मा की इस बात का लता पर इतना असर हुआ कि उनकी राम में श्रद्धा बढ़ने लगी थी। लता ने माना था कि ‘तभी से मैं राम भक्त हूं और मैं मानती हूं कि उनके जैसा चरित्र बल किसी दूसरे पौराणिक किरदार में नहीं मिलेगा। राम और उनके चरित की लोक में इतनी व्याप्ति है कि हर कोई उनमें अपना आदर्श ढूंढ लेता है। </p><p style="text-align: justify;"><br /></p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-20666263867207925942023-12-31T18:16:00.000-08:002023-12-31T18:16:37.655-08:00साहित्य में रामकथा के स्वर <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjHCXyZ6UPPYIgczHOal5kVg6Y3Xs8_y5j2-U5BNMFu02QfdAuR47BKkA0Xj67FAXeK0YU0bodIjg1HoWVgZolnszvhsOL-C5ycr2TQRVV4r4SVHaOLse0NUx87K553gPSH_zWa7oKtcKGLQg7BvOCXtnospTt8MaqftAj3aYdOQz41UXmtRh94xs3fw4k/s974/IMG_1558.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="974" data-original-width="921" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjHCXyZ6UPPYIgczHOal5kVg6Y3Xs8_y5j2-U5BNMFu02QfdAuR47BKkA0Xj67FAXeK0YU0bodIjg1HoWVgZolnszvhsOL-C5ycr2TQRVV4r4SVHaOLse0NUx87K553gPSH_zWa7oKtcKGLQg7BvOCXtnospTt8MaqftAj3aYdOQz41UXmtRh94xs3fw4k/w189-h200/IMG_1558.jpg" width="189" /></a></div><br />अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के कारण इस समय देश में राम और रामचरित के विभिन्न आयामों पर चर्चा हो रही है। देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित रामकथा पर शोध हो रहे हैं। राम और रामकथा से जुड़ी अनेक पुस्तकें भी प्रकाशित हो रही हैं। उनमें से चयनित पुस्तकों पर एक नजर <p></p><p style="text-align: justify;">स्वामी मैथिलीशरण इस समय रामकथा के आधिकारिक विद्वान हैं। रामकथा के पात्रों को लेकर उनकी व्याख्या नितांत मौलिक होती है। रामकथा को केंद्र में रखकर उनकी पुस्तक आई है चरितार्थ। लेखक का मत है कि श्रीरामचरितमानस में जिस प्रकार की व्यापकता, निष्पक्षता और पूर्णता है वो अन्यत्र दुर्लभ है। वो कहते हैं कि भारतीय समाज और मानवीय संवेदनाओं का जिस प्रकार से तुलसीदास ने वर्णन किया है वो इस ग्रंथ को ऊंचाई प्रदान करता है। इस पुस्तक में श्रीरामचरितमानस के कई प्रसंग, संवाद और चरित्रों का स्वामी जी ने निरुपण किया है। पुस्तक चार खंडो में विभाजित है जिसमें अस्सी लेख हैं। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठकों को श्रीरामचरितमानस को समझने की एक नई दृष्टि मिल सकती है। </p><p style="text-align: justify;">पुस्तक- चरितार्थ, प्रकाशक- शिल्पायन बुक्स, नई दिल्ली, मूल्य रु 250 </p><p style="text-align: justify;">रामायण के पात्रों की काफी चर्चा होती है और विद्वान अलग अलग तरह से इन चरित्रों का ना केवल वर्णन करते हैं बल्कि उसपर अपने अध्ययन के अनुसार टिप्पणियां भी करते हैं। मूल ग्रंथ में वर्णित उनके आचार व्यवहार को लेकर अपनी राय भी प्रकट करते हैं। लेखक और स्तंभकार रामजी भाई तिवारी ने ब्रह्मा जी से लेकर लव-कुश तक रामायण के 108 पात्रों के बारे में विस्तार से लिखा है। इस पुस्तक का केंद्रीय भाव है कि रामराज्य की स्थापना में सभी पात्रों की अपनी भूमिका है जो किसी न किसी तरह से महत्वपूर्ण है। पुस्तक में रामजी भाई ने रामायण की इन कथाओं को इस प्रकार से लिखा है जिससे सामाजिक आदर्श स्थापित हो और पाठक प्रेरित हों। </p><p style="text-align: justify;">पुस्तक- रामायण के पात्र, प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य- रु 900</p><p style="text-align: justify;">राम पहले तो कथा के माध्यम से आते हैं लेकिन कब कथा पीछे छूट जाती है और पाठक राम के चरित्र में रम जाते हैं पता ही नहीं चलता। रामकथा की व्यापकता और भारतीय समाज के मानस पर उसका इतना अधिक प्रभाव है कि वो सिर्फ कथा में नहीं बल्कि संगीत, नाटक, नृत्य, शिल्प और चित्रकला में भी अलग अलग रूपों में उपस्थित है। संस्कृति के जानकार और लेखक नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने बुंदेलखंड के विशेष संदर्भ में रामकथा रूपायन नाम की पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में बुंदेलखंड के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में शैलचित्रों और भित्तिचित्रों से सूत्र उठाकर रामचरित की चित्रांकन परंपरा को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने अपनी पुस्तक के अंत में एक चित्रावली भी प्रस्तुत की है और उसका उपलब्ध विवरण भी पाठकों की सुविधा के लिए दिया गया है। </p><p style="text-align: justify;">पुस्तक- रामकथा रूपायन, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, मूल्य रु 3000 </p><p style="text-align: justify;">श्रीरामचरित मानस और रामयण को आधार बनाकर तो कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं और कई पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है। लेकिन कुछ लोग रामकथा से जुड़ी अन्य सामग्रियों का संकलन कर पुस्तकाकार प्रकाशित करवा रहे हैं। इंडोलाजिस्ट ललित मिश्र ने श्रमपूर्वक मेवाड़ की रामायण के चित्रों को संकलित कर चित्रमय रामायण का संपादन किया है। चित्रों के साथ टिप्पणियां भी प्रकाशित हैं। मेवाड़ की रामायण को मेवाड़ राजघराने की तीन पीढियों ने तैयार करवाया। इसमें 450 चित्र हैं। लेखक का कहना है कि मेवाड़ के शासकों ने गीतगोविंद, रामायण और अन्य ग्रंथों के चित्रांकन का उपक्रम उस समय भारत के अन्य राजाओं के लिए एक आदर्श बना। इस पुस्तक के चित्र और टिप्पणियां रुचिकर हैं। ये पुस्तक अयोध्या शोध संस्थान ने तैयार करवाई है। </p><p style="text-align: justify;">पुस्तक- चित्रमय रामायण, प्रकाशक- प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली- मूल्य- रु 2200</p><p style="text-align: justify;">मनोज सिंह ने आर्यावर्त का इतिहास लिखने के लिए कथात्मक शैली अपनाई। जब उन्होंने मैं आर्यपुत्र हूं लिखी तो उसको सतयुग की प्रामाणिक कथा बताया था। इसी कड़ी में उन्होंने त्रेतायुग की कथा मैं रामवंशी हूं लिखा है। लेखक का मानना है कि हर काल में रामकथा लिखी गई और उन सभी रामकथाओं पर तत्कालीन समय और समाज का प्रभाव भी दिखता है। इस पुस्तक में रामकथा के अलावा भी अनेक कथाएं चलती हैं जो पुस्तक को पठनीय बना देती हैं। लेखक ने भी अपनी इस पुस्तक क सात कांडों, पूर्व कांड से उत्तर कांड तक में विभाजित किया है। पौराणिक कथा कहने की यह प्रविधि पाठकों को श्रीराम के जीवन संस्कार से रोचक अंदाज में परिचिच तकवाती है। </p><p style="text-align: justify;">पुस्तक- मैं रामवंशी हूं, प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य – रु 500 </p><p style="text-align: justify;"><br /></p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-54354870353557241612023-12-30T19:13:00.000-08:002023-12-30T19:13:43.710-08:00शिवपूजन सहाय का हिंदू मन<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkaYkK_mFe4Un44kNEk4c4mzvxSnb9U1jLr0Xv8CMvBmScsv8rP3pdr_HcslVLYoCPVbYMbIwTN3nfpvHp5hV_UvDT0RpyC-uwsERGZ7A-f1jsXfVReypxaOqyaWnUWPkFbOjytfdidKOn_wmEpTl-VjySNp8qp8Xx1SDmCB8lWyt9sdYEIwWmhbxeUqI/s1279/IMG_1552.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1279" data-original-width="1207" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkaYkK_mFe4Un44kNEk4c4mzvxSnb9U1jLr0Xv8CMvBmScsv8rP3pdr_HcslVLYoCPVbYMbIwTN3nfpvHp5hV_UvDT0RpyC-uwsERGZ7A-f1jsXfVReypxaOqyaWnUWPkFbOjytfdidKOn_wmEpTl-VjySNp8qp8Xx1SDmCB8lWyt9sdYEIwWmhbxeUqI/w189-h200/IMG_1552.jpg" width="189" /></a></div><br />हाल ही में कांग्रेस पार्टी ने अपने पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की भारत न्याय यात्रा की घोषणा की है। ये यात्रा मणिपुर से आरंभ होकर मुंबई तक जाएगी। इसके पहले भी राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की भारत जोड़ो यात्रा की थी। उस यात्रा का उद्देश्य भारत के विभिन्न समुदायों के बीच फैल रही वैमनस्यता को कम करना था। हिंदू मुसलमान एकता की बात की गई थी। उस यात्रा के समय कांग्रेस और वामपंथी इकोसिस्टम की तरफ से इस तरह का विमर्श स्थापित करने का प्रयास किया गया था कि देश में हिंदू और मुसलमानों के बीच मतभेद की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने बढ़चढ़कर दावा किया था नरेन्द्र मोदी, उनकी पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हिंदू मुसलमान के बीच विभाजन को गाढ़ा करवाकर अपनी राजनीति चमका रहे हैं। ऐसा करके वो सायास मुसलमानों को मन में भय का वातावरण बनाने और हिंदुओं को बरगलाने का काम कर रहे थे। कांग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम से जुड़े लोग पहली बार इस तरह का कार्य कर रहे हों ऐसा नहीं है। स्वाधीनता के बाद से ही इस इकोसिस्टम के लोग साहित्य, कला,संस्कृति और इतिहास लेखन से इस तरह का वातावरण बनाते रहे हैं। साहित्य में तो इस तरह का कार्य धड़ल्ले से हुआ। रामचंद्र शुक्ल हों या प्रेमचंद या निराला, उनके हिंदू जीवन और हिंदू प्रेम पर लिखी रचनाओं को ओझल कर उन सबको जबरदस्ती वामपंथी दिखाने का प्रयास किया गया। जबतक कांग्रेस पार्टी की सरकारें रहीं तो इस इकोसिस्टम को सरकारी संरक्षण मिलता रहा। संस्थाओं पर इनके लोग ही रखे जाते रहे और बदले में वो इस तरह के विमर्श को गाढ़ा करते रहे। तथ्यों की अनदेखी करके लेखन करवाते रहे। जिन भी साहित्यकारों और लेखकों ने हिंदू-मुसलमान संबंधों पर खुलकर लिखा या जिन्होंने राम या अन्य हिंदू देवी-देवताओं का उल्लेख किया, उन लेखों या रचनाओं को ओझल करने का खेल खेला गया। <p></p><p style="text-align: justify;">बिहार के एक बहुत ही महत्वपूर्ण रचनाकार हुए शिवपूजन सहाय। शिवपूजन बाबू ने विपुल लेखन किया, पत्रिकाओं का संपादन किया लेकिन उनके कृतित्व को हिंदी साहित्य में वो स्थान नहीं मिला जिसके वो अधिकारी हैं। कांग्रेस-वामपंथी इकोसिस्टम से जुड़े आलोचक अगर शिवपूजन सहाय की रचनाओं पर समग्रता में विचार करते तो सच सामने आता। शिवपूजन सहाय का साहित्य समग्र भी उनके पुत्र मंगलमूर्ति के प्रयत्नों से उनके ही संपादन में प्रकाशित हो पाया। शिवपूजन सहाय परम रामभक्त थे। वो अपनी डायरी में सैकड़ों जगह राम, रामकृपा और भगवान की इच्छा जैसी बातें लिखते हैं लेकिन उनके इस लेखन के बारे में बहुत ही कम चर्चा की गई। देश के विभाजन से लेकर चीन युद्ध तक शिवपूजन सहाय ने बेहद कठोर टिप्पणियां कीं। उन्होंने नेहरू से लेकर उनके मंत्री कृष्ण मेनन तक की आलोचना की। लेकिन नेहरू की विराट छवि बनाने में लगे कांग्रेस-वामपंथी इकोसिस्टम ने इन टिप्पणियों को दबा दिया। हमारे देश में सांप्रदायिकता को लेकर भी सहाय की टिप्पणियों को देखने की आवश्यकता है। 22 फरवरी 1946 को शिवपूजन सहाय ने अपनी डायरी में लिखा- आज संध्या समय द्विज जी आए। औरंगाबाद (गया) के मुसलमान भाइयों ने पहले से तैयारी कर रखी थी और जानबूझकर अचानक अकारण सरस्वतीपूजा के मूर्ति विसर्जन के जुलूस पर आक्रमण कर दिया तथा एक निरपराध युवक की तत्काल हत्या कर डाली। यह नृशंसता उनलोगों में प्राय: देखी जाती है। स्वाभाविक है। मांसाहारी विषय विलासी, भ्रष्टाचारी, प्राय: क्रोधी और क्रूर होते हैं। इस वाक्य के दो शब्दों, अचानक और अकारण पर विचार किया जाना चाहिए। शिवपूजन सहाय की इस टिप्पणी से 1946 में बिहार के सामाजिक जीवन में व्याप्त स्थिति का संकेत मिलता है। एक साहित्यकार का आक्रोश भी उसके शब्दों में अभिव्यक्ति पाता है। उनकी ये टिप्पणी शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र में संकलित है। </p><p style="text-align: justify;">हमारा देश अगस्त 1947 में स्वाधीन होता है। कई क्षेत्रों में हिंसा आरंभ हो जाती है। शिवपूजन सहाय साहित्य दर्पण में सितंबर 1947 में प्रश्न उठाते हैं, पंजाब के हिंदुओं और सिक्खों की की दुर्दशा ईश्वरेच्छानुसार है? मनुष्य क्यों कभी घोर संकट में पड़ता है? उनका मन इतना व्यथित है कि वो आगे कहते हैं कि जिन्ना कंस है या रावण? वह नादिरशाह का नाती है या चंगेज खां का चचा है? हिंदू-मुस्लिम एकता तबतक संभव नहीं है जबतक हिंदू संगठन दृढ़ नहीं होता। हिंदुओं में जातिपांति न रहे, स्वच्छता ही रहे। यहां ध्यान देने की आवश्यकता है कि उस समय शिवपूजन सहाय हिंदुओं के संगठित होने की बात कर रहे थे। इसी दिन आगे लिखते हैं कि जात-पांत और छुआछूत का भूत हिंदू को आज चबा रहा है। हिंदू धर्म उदार कहलाता है। मूर्खता से उदारता को चांप रखा है। राम की जैसी इच्छा। स्वाधीनता के तुरंत बाद भी संवेदनशील माने जानेवाले साहित्यकार भी ऐसा ही सोचते थे। यह अकारण नहीं है कि कांग्रेस-वामपंथी इकोसिस्टम के लोग शिवपूजन सहाय जैसे साहित्यकारों की वेदना पर चर्चा नहीं करते। आज एक बार फिर से हिंदुओं को जातियों के बीच बांटने का प्रयास राजनीति और समाज के एक वर्ग द्वारा की जा रही है। आज भी जब देश विभाजन की चर्चा होती है तो शिवपूजन बाबू के लिखे का स्मरण देखने को नहीं मिलता। शिवपूजन सहाय ने निरंतर लिखा। अक्तूबर 1953 में उन्होंने लिखा, मुसलमानों ने देश को बांटा और अब प्रांत-प्रांत, जिले-जिले, मुहल्ले-मुहल्ले को बांटकर असंख्य पाकिस्तान बना डालना चाहते हैं। उर्दू को वो क्षेत्रीय भाषा बनाने का घोर आंदोलन कर रहे हैं। अब भी इस तरह की प्रवृत्ति देखने को मिलती ही रहती है। </p><p style="text-align: justify;">इस तिथि को ही वो आगे लिखते हैं शकों और हूणों को हिंदू पचा गए, पर मुसलमान ही उनकी अंतड़ी के मक्खी बन गए। हिंदुओं में अघोर पंथ भी है पर हिंदू अपनी धार्मिक शक्ति नहीं पहचानते। मुसलमान अब पच नहीं सकते। मुसलमानों भाइयों को अब अपने में मिला लेने की शक्ति अब हममें नहीं रही। यहां पर शिवपूजन सहाय की विवशता साफ तौर पर दृष्टिगोटर होती है। वो हिंदुओं के अपनी धार्मिक शक्ति नहीं पहचानने को लेकर भी चिंतित थे। उस वक्त मुसलमानों के व्यवहार से वो बेहद खिन्न थे और निरंतर लिख रहे थे। शिवपूजन सहाय ने शेख अब्दुल्ला को देशद्रोही तक कहा था। जब शेख अब्दुल्ला के समर्थन में बिहार के मुसलमान चंदा जमा कर रहे थे तो सहाय ने चिंता जताई थी। शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र खंड 7 में अगस्त 1958 में उन्होंने हिंदुओं को अपने धर्म से प्रेम नहीं करने के लिए धिक्कारा भी था, हिंदुओं में धर्म या अपनी भाषा तथा संस्कृति के लिए वैसी ममता नहीं है जैसी मुसलमानों और ईसाइयों में । हिंदुओं में आपसी फूट बहुत है। हिंदू युवकों में भी वह स्पिरिट या भावना नहीं है जो ईसाई और मुसलमान युवकों में है। उन लोगों के पादरी और फकीर भी सचेत हैं। शिवपूजन सहाय की टिप्पणियों से ऐसा प्रतीत होता है कि वो चाहते थे कि हिंदू समाज संगठित हो। जात-पांत से ऊपर उठकर सभी हिंदू अपने देश की उन्नति और राष्ट्र को शक्ति देने के बारे में प्रयत्न करे। आज अगर कोई दल या व्यक्ति इस तरह की बात करें तो कांग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम के लोग उनको संघी, सांप्रदायिक और न जाने किस किस तरह के विशेषणों से जोड़ देते हैं। आज इस तरह की बातें तो छोड़िए अगर कोई अयोध्या के राम मंदिर के बारे में अधिक बातें करने लगे, काशी विश्वनाथ मंदिर पर शोध करने लगे या मथुरा के श्रीकृष्ण जन्म स्थान पर विमर्श आरंभ करे तो उसको भी इकोसिस्टम वाले सांप्रदायिक और देश को तोड़नेवाले विचार-वाहक के तौर पर चिन्हित करने में जुट जाएंगे। आज आवश्यकता है भारत खोजो यात्रा की। उस भारत को जहां हमारी ज्ञान-परंपरा है और जिसे कांग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम ने ओझल कर रखा है। </p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-61435519422058343432023-12-24T18:48:00.000-08:002023-12-24T18:57:14.526-08:002023 में प्रकाशित कथेतर पुस्तकें <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhD1krZWYTIKQOMnjyzfTstfGWdhhtUnlIIlf5Nv5fStm2PdAgBT3378DnwMwTwO1FS47A2VTaEGxtTUCaucusU7LYtR07OZWbev2zYQgGQdnkg2r6rbk2lZqcimd-JVp8uOE8nX3fSSM2AUCbKoDnPavIxkML3PYqYhctmQHNUd3nEsrXMe_IVHZ1YXc/s1021/IMG_1515.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1021" data-original-width="995" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhD1krZWYTIKQOMnjyzfTstfGWdhhtUnlIIlf5Nv5fStm2PdAgBT3378DnwMwTwO1FS47A2VTaEGxtTUCaucusU7LYtR07OZWbev2zYQgGQdnkg2r6rbk2lZqcimd-JVp8uOE8nX3fSSM2AUCbKoDnPavIxkML3PYqYhctmQHNUd3nEsrXMe_IVHZ1YXc/w195-h200/IMG_1515.jpg" width="195" /></a></div><br />हिंदी साहित्य जगत में अरसे से चर्चा थी कि यतीन्द्र मिश्र फिल्म निर्देशक और गीतकार गुलजार पर पुस्तक लिख रहे हैं। आखिरकार यतीन्द्र मिश्र की बहुप्रतीक्षित पुस्तक इस वर्ष आई। दैनिक जागरण संवादी में इस पुस्तक की पहली झलक पाठकों को देखने को मिली। ये पुस्तक गुलजार की आधिकारिक जीवनी और उनकी रचनात्मकता के विभिन्न आयामों को प्रस्तुत करती है। इसमें विभाजन के बाद विस्थापन का दर्द, संघर्ष और फिल्मों में उनके आरंभिक दिनों से लेकर शीर्ष पर पहुंचने की कहानी है। ये पुस्तक दो भागों में है जिसका नाम गुलजार के गीतों से लिया गया है। पहला भाग हजार राहें मुड़ के देखीं और दूसरा खंड है थोड़ा सा बादल, थोड़ा सा पानी। पहला खंड लगभग साढे तीन पृष्ठों का है, जिसमें लेखक ने गुलजार के जीवन और रचनाकर्म पर रोचक तरीके से लिखा है। दूसरे खंड में गुलजार का बहुत लंबा साक्षात्कार है जो पहले खंड की प्रामाणिकता को पुष्ट करता है। <p></p><p style="text-align: justify;">पुस्तक- गुलजार सा’ब, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य- रु 1995 </p><p style="text-align: justify;">जितेन ठाकुर का नाम समकालीन हिंदी कथाकारों में सम्मान के साथ लिया जाता है। उनकी कहानियों में जो किस्सागोई होती है वो पाठकों को बांधती है। कहानीकार जब संस्मरण लिखता है तो उसका प्रयास होता है कि वो घटनाओं को एक ऐसे कथासूत्र में पिरोए कि पाठकों को रोचक लगे। जितेन ठाकुर ने अपने संस्मरणों की पुस्तक जुगनुओं के मेले में स्वयं को केंद्र में तो रखा तो है लेकिन घटनाओं के उल्लेख के साथ कहानी जब आगे बढ़ती हैं तो ऐसा लगता है कि पाठक वर्णित कालखंड में पहुंच गया हो। जम्मू तहसील के एक युवक की किसान बनने की जिद और उसके शिकारी बन जाने की कथा वो इस तरह से रचते हैं जिसको पढ़ते हुए पाठकों को ये एहसास ही नहीं होता है कि वो अपने पड़दादा की कहानी बता रहे हैं। इंटर कालेज में फीस माफी का प्रसंग हो या नौकरी का संघर्ष, जितेन ठाकुर के कहन का अंदाज निराला है। </p><p style="text-align: justify;">पुस्तक- जुगनुओं के मेले, प्रकाशक- मेधा बुक्स, दिल्ली, मूल्य- रु 200 </p><p style="text-align: justify;">साहित्य अकादमी और अन्य पुरस्कारों से सम्मानित वरिष्ठतम लेखक रामदरश मिश्र अपने जीवन के शताब्दी वर्ष में चल रहे हैं। रामदरश मिश्र करीब अस्सी वर्षों से लेखन कर्म में लगे हैं। उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन किया है और अपने रचनाकर्म से उसे समृद्ध भी किया है। उनके शताब्दी वर्ष में आलोचक ओम निश्चल ने उनके जीवन और साहित्य को परखते हुए एक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में ओम निश्चल ने रामदरश मिश्र की कविताओं, गजलों, उपन्यासों और उपन्यासिकाओं पर विचार किया है। इस पुस्तक में ओम निश्चल जी ने रामदरश मिश्र से जुड़े संस्मरण भी लिखे हैं जो अपने मोहक गद्य की ववजह से पठनीय हैं। इस पुस्तक में रामदरश मिश्र जी के विभिन्न अवसरों पर लिए गए साक्षात्कार भी संकलित हैं। कहना न होगा कि ये पुस्तक रामदरश मिश्र के लंबे लेखकीय जीवन को जानने समझने की कुंजी है। </p><p style="text-align: justify;">पुस्तक- रामदरश मिश्र, जीवन और साहित्य, प्रकाशक- सर्वभाषा प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य- रु 449</p><p style="text-align: justify;">जनरल रावत ने भारत के पहले चीफ आफ डिफेंस स्टाफ यानि तीनों सेनाओं के प्रमुख का दायित्व संभाला और प्रखरता और तेजस्विता के साथ नेतृत्व किया। जनरल रावत ऐसे देशभक्त सैनिक थे जिनको ना केवल अपने देश के सैनिकों पर भरोसा था बल्कि अपने विज्ञानियों के सामर्थ्य पर विश्वास भी था। उन्होंने भारतीय सेना में सुधारों के अलावा मेक इन इंडिया पर खासा जोर दिया। डीआरडीओ और सेना के बीच के अंतर्विरोधों को दूर करके उन्होंने देसी सैन्य साजो समान के उत्पादन की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया। अपने सैन्य प्रमुख के कार्यकाल में उन्होंने सिरक्षा बलों के साथ साथ सुरक्षा तंत्र के आधुनिकीकरण की दिशा में बहुत योगदान किया। हेलीकाप्टर दुर्घटना में उनका निधन हो गया। ऐसे चीफ आफ डिफेंस स्टाफ के पराक्रमी और प्रेरक जीवन गाथा को मनजीत नेगी ने कलमबद्ध किया। इस पुस्तक में सैन्य जीवन के अलावा उनकी जिंदगी के महत्वपूर्ण पड़ावों को भी लेखक ने रोचक तरीके से रेखांकित किया है। </p><p style="text-align: justify;">पुस्तक- महायोद्धा की महागाथा, प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, मूल्य- रु 500</p><p style="text-align: justify;">भारतीय ज्ञान परंपरा में गीता एक ऐसा ग्रंथ है जिसपर कई मनीषियों ने विचार किया है, जिसमें चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से लेकर विनोबा भावे तक शामिल हैं। उनके बाद भी कई विद्वानों ने गीता को अपने तरीके से व्याख्यित करने का प्रयास किया। हाल में लेखक और प्रशासनिक अधिकारी विजय अग्रवाल ने भी अपनी नई पुस्तक गीता का ज्ञान के माध्यम से इस ग्रंथ को अपनी तरह से व्याख्यित किया है। इसके विभिन्न अध्यायों में कर्म को केंद्र में रखकर उन्होंने अपनी स्थापना दी है। कर्म के अलावा उन्होंने मन और पहचान को भी अपनी पुस्तक में प्रमुखता दी है और गीता के श्लोकों के आधार पर उसका विवरण प्रस्तुत किया है। विजय अग्रवाल की पुस्तक की शैली और व्याख्या के तरीके को देखकर लगता है कि लेखक ने युवाओं को ध्यान में रखकर इसको लिखी है। </p><p style="text-align: justify;">पुस्तक- गीता का ज्ञान, प्रकाशक- बेंतेन बुक्स, भोपाल, मूल्य- रु 350</p><div style="text-align: justify;"><br /></div>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-31118161013053129582023-12-23T17:18:00.000-08:002023-12-23T17:18:02.966-08:00लाल झंडा थामने को आतुर 'हाथ' <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgSlgAgDHDzWMBJ44ZqUYSZx1UoXPfjIdUZjoHsZzAmf8DJNwaPgLodtlXomDkUw78yseMoqtbnz-DSCMovu3OlYqSLdbPAUg6aalejpwnkm6vWZSyfBT-cKuQpT42YkbzwaR_kYdQp5MlAFbKPaXCoGxUQRqzyEQphnnUgEswtqolZYp3kJ6v_rtrctiE/s1283/IMG_1501.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1283" data-original-width="1209" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgSlgAgDHDzWMBJ44ZqUYSZx1UoXPfjIdUZjoHsZzAmf8DJNwaPgLodtlXomDkUw78yseMoqtbnz-DSCMovu3OlYqSLdbPAUg6aalejpwnkm6vWZSyfBT-cKuQpT42YkbzwaR_kYdQp5MlAFbKPaXCoGxUQRqzyEQphnnUgEswtqolZYp3kJ6v_rtrctiE/w189-h200/IMG_1501.jpg" width="189" /></a></div><br />हाल ही में जब नई दिल्ली में विपक्षी दलों के गठबंधन आईएनडीआईए की बैठक हुई तो राहुल गांधी और सीताराम येचुरी की साथ बैठी तस्वीरें सामने आईं। इसी तरह जब विपक्षी दलों के नेता नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर सांसदों के निलंबन पर विरोध जताने के लिए जुटे तो उसमें भी राहुल गांधी और सीताराम येचुरी एक दूसरे का हाथ थामे नजर आए। इन दोनों जगहों पर कांग्रेस और कम्युनिस्टों की निकटता ही नहीं दिखी बल्कि उनके साथ में एक विशेष प्रकार का उत्साह भी दिखा। इस प्रसंग की चर्चा इस कारण से कर रहा हूं कि कुछ दिनों पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अजीत कुमार पुरी की पुस्तक स्वतंत्रता संग्राम, समाजवाद और श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी के लोकार्पण समारोह में उपस्थित रहने का अवसर मिला। कार्यक्रम में मुझे भी पुरी जी की पुस्तक और श्रीरामवृक्षबेनीपुरी जी पर बोलना था। इस वजह से समारोह में जाने के पहले बेनीपुरी की डायरी के पन्ने को पलट रहा था। अचानक नजर एक जगकह जाकर रुकी, तारीख थी, 11 दिसंबर 1957। उस दिन बेनीपुरी जी ने अपनी डायरी में लिखा, आज बेनीपुर से पटना लौट रहा हूं। इधर 15 नवंबर से ही भाई अशोक मेहता के चुनाव के चक्कर में रहा। वह मुजफ्फरपुर-सदर निर्वाचन क्षेत्र से पार्लियामेंट के उम्मीदवार थे। आज से मतगणना शुरू हुई है, तीन थानों में आधे निर्वाचन क्षेत्र में 2700 वोट से जीत गए हैं। आधे में भी विजयी होंगे, ऐसा विश्वास है। दरअसल बेनीपुरी जी प्रख्यात समाजवादी नेता अशोक मेहता के चुनाव की बात कर रहे थे। 1957 में अशोक मेहता ने बिहार के मुजफ्फरपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। उस समय समाजवादी नेता अशोक मेहता का कम्युनिस्टों ने विरोध किया था और कांग्रेस के उम्मीदवार नहीं खड़ा करने की घोषणा के बाद भी अपना उम्मीदवार खड़ा कर अपनी पार्टी के असली चरित्र के दर्शन करवाए थे। तब मतपत्रों से चुनाव होता था और उसकी गिनती में कई दिन लग जाते थे।<p></p><p style="text-align: justify;">उसी दिन डायरी में बेनीपुरी जी ने आगे लिखा, अजीब चुनाव रहा यह। भाई अशोक की विद्वता का ख्याल करके कांग्रेस ने यह सीट छोड़ दी। साथियों ने सोचा, अब क्या है, आसानी से विजय मिल जाएगी। किंतु बीच में कम्युनिस्ट आ टपके। हमारे किशोरी भाई उनके उम्मीदवार! फिर क्या था, सिद्धांत गया ताखे पर- जाति के नाम पर, जिले के नाम पर वह बावला मचाया गया, कि हम चकित रहे और प्रांत भर के कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गांव-गांव में डेरे डालकर पड़ गए। कोई भी उपाय नहीं छोड़ा गया। हमें कदम कदम पर लड़ना पड़ा। आज की गणना से थोड़ा इत्मीनान हुआ। ...कांग्रेस कार्यकर्ताओं का कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन देखकर हैरान रह जाना पड़ा। अशोक हमारी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के यशस्वी संपादक। विचारक अर्थशास्त्री। श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी की इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि उस चुनाव में कम्युनिस्टों ने सिद्धांत को ताखे पर रख दिया था। जातिवाद और प्रांतवाद का खेल जमकर खेल गया था। दरअसल अशोक मेहता बांबे (अब मुंबई) के थे और बिहार से आकर चुनाव लड़ रहे थे। वो दौर ऐसा था कि कई अन्य प्रांतों के नेता बिहार से आकर चुनाव लड़ते थे। मधु लिमय ने मुंगेर से और जार्ज फर्नांडिस ने मुजफ्फरपुर और बांका से चुनाव लड़ा था। जीते भी थे। बेनीपुरी की डायरी में दर्ज इस टिप्पणी पर गौर करना चाहिए कि कांग्रेस और कम्युनिस्टों के गठबंधन को देखकर उनको हैरानी हुई थी। हैरानी दरअसल कम्युनिस्टों की उस राजनीति को देखकर हुई थी जिसमें उन्होंने जाति और प्रांत का कार्ड खेला था। असामनता और विभेद की राजनीति का दंभ भरनेवाली विचारधारा का असली चेहरा खुला था। </p><p style="text-align: justify;">12 दिसंबर 157 को श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी ने अपनी डायरी में बहुत छोटी सी टिप्पणी दर्ज की। लिखा, और वही होकर रहा, अशोक जीत गए। चौदह हजार वोटों से। कम्युनिस्ट हारे, जातिवाद की हार हुई, प्रांतवाद की हार हुई। अशोक की जीत, जनतंत्र की जीत, समाजवाद की जीत, राष्ट्रीयता की जीत, विद्वता की जीत, देशभक्ति की जीत! हिप-हिप हुर्रे!! इस पूरी टिप्पणी से बेनीपुरी की प्रसन्नता दिख रही है। कम्युनिस्टों की हार को उन्होंने जातिवाद और प्रांतवाद की हार से जोड़ा और अशोक की जीत को उन्होंने राष्ट्रीयता और देश भक्ति के साथ समाजवाद और विद्वता से जोड़ा। भारत में जो समाजवाद पनपा वो साम्यवाद से अलग था। उसमें देशभक्ति और राष्ट्रीयता के गुण और भारतीयता कूट कूट कर भरी थी। बहुधा ये बेनीपुरी के लेखन में दिखती भी है। एक बार बेनीपुरी कलकत्ता (अब कोलकाता) गए। वहां बंगीय परिषद की सभा में उन्होंने सीता की मां नाम की रचना सुनाई। फिर पत्रकारों की एक सभा हुई उसमें कम्युनिस्टों ने कुछ उल्टा पुल्टा बोल दिया तो बेनीपुरी भड़क गए। उन्होंने लिखा है, पत्रकारों की ओर से जो सभा हुई, उसमें कम्युनिस्टों ने कुछ ऊटपटांग बातें कहीं। बस, मेरा देवता जाग गया और लोगों ने कहा कि मैंने बड़ा ही ओजपूर्ण भाषण दिया। कितनी खूबसूरती से उन्होंने बताया कि कम्युनिस्टों की क्या गत की। </p><p style="text-align: justify;">बेनीपुरी जी कम्युनिस्टों की मौकपरस्त राजनीति से खिन्न रहते थे। उनको लगता था कि कम्युनिस्ट कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। इस तरह के संकेत उनकी डायरी के पन्ने में यत्र-तत्र बिखरे हैं। समाजवादी लोग राष्ट्र और भारतीय संस्कृति के साथ चलनेवाले थे जबकि साम्यवादियों की राष्ट्र में आस्था न थी, न है। बेनीपुरी शाश्वत भारत या सांस्कृतिक भारत की बात करनेवाले लेखक और राजनेता थे। वो इस सांस्कृतिक भारत के खान पान, रहन सहन, गीत-नृत्य, पर्व-उत्सव, आनंद-विनोद आदि में एकात्मता देखते थे । उनका मानना था कि राजनीतिक उलटफेरों के बावजूद संपूर्ण भारत में आदिकाल से एक अविच्छिन्न सांस्कृतिक धारा प्रवाहित होती रही है। समय समय पर उसका चित्रण किया जाना चाहिए। बेनीपुरी जब भी इस सांस्कृतिक धारा में किसी प्रकार की बाधा देखते या बाधा की आशंका को भांपते तो उसका सार्वजनिक रूप से लिखकर और बोलकर प्रतिकार करते। मुजफ्परपुर लोकसभा चुनाव के समय कम्युनिस्टों और कांग्रेस के साथ आने पर उन्होंने तब भी कहा था और बाद में भी कहते रहे।</p><p style="text-align: justify;">हलांकि कांग्रेस ने कम्युनिस्टों का स्वाधीनता के बाद से ही साथ लेना आरंभ कर दिया था। नेहरू का झुकाव साम्यवाद की ओर था और उसके ऐतिहासिक कारण थे। इंदिरा गांधी ने भी कम्युनिस्टों का साथ लिया, समर्थन के एवज में उनको कला संस्कृति और शिक्षा से जुड़ी सरकारी संस्थाएं आउटसोर्स कर दीं। लेकिन इन दोनों ने कभी भी कम्युनिस्टों को हावी नहीं होने दिया। जब आवश्यकता पड़ी कम्युनिस्टों का अपनी और अपनी राजनीति के हक में उपयोग किया, उनको उसका ईनाम दिया और फिर आगे चल पड़े। हाल के दिनों में जिस प्रकार से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की कम्युनिस्टों से निकटता बढ़ी है, जिस प्रकार से कम्युनिस्ट विचारधारा वाले लोग कांग्रेस पार्टी को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं वैसे में ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस की राजनीतिक चालें भी वहीं लोग तय कर रहे हैं। दरअसल ऐसा तब होता है जब पार्टी में विचारवान नेताओं की कमी हो जाती है। उनको अपनी राजनीतिक राय बनाने के लिए किसी के सहारे की जरूरत होती है। कम्युनिस्टों की एक विशेषता है कि वो बातें बड़ी अच्छी करते हैं, गरीबों और मजदूरों की बातें करते हैं जो किसी को भी लुभाने का सामर्थ्य रखती हैं। सैद्धांतिक धरातल पर इन बातों का असर होता भी है लेकिन जब उनको यथार्थ की धरातल पर उतारने की बात आती है तो सारे सिद्धांत धरे रह जाते हैं। वो भी जात-पात और अन्य प्रकार की बातें करने लग जाते हैं। बेनीपुरी जी जैसे और उनके बाद की पीढ़ी के लेखकों का ना केवल साम्यवाद से मोहभंग होता है बल्कि साफ तौर पर बगैर हिचके सिद्धांतों को ताखे पर रखने की बात भी कह जाते हैं। </p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-48203981899094178722023-12-16T17:16:00.000-08:002023-12-16T17:16:10.919-08:00 बढ़ती और ढ़लती उम्र का गणित<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjUxldpuLQYXXz68fKNKpGG9_ZaEYw0iFoNk6Y2VuKRO5mi9sRHXT0izgkbThwG0e9ayibMy6vRsMZVsKE8px-Tbn9hnxBDiCavc5Xzj5SpPdqWh37ks723piG5jkUXzRvrXnOxNwv6FIgZuq6afWksEgSPFIeH8ck58FE5LW0YVjGQNzkCyFuMPnjqDc4/s1283/IMG_1421.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1283" data-original-width="1204" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjUxldpuLQYXXz68fKNKpGG9_ZaEYw0iFoNk6Y2VuKRO5mi9sRHXT0izgkbThwG0e9ayibMy6vRsMZVsKE8px-Tbn9hnxBDiCavc5Xzj5SpPdqWh37ks723piG5jkUXzRvrXnOxNwv6FIgZuq6afWksEgSPFIeH8ck58FE5LW0YVjGQNzkCyFuMPnjqDc4/w188-h200/IMG_1421.jpg" width="188" /></a></div><br />मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद भारतीय जनता पार्टी ने लंबे विमर्श और मंथन के बाद तीनों प्रदेशों में अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व को कमान सौंपी। मध्यप्रदेश में अट्ठावन वर्षीय मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया गया। इसी तरह से राजस्थान में छप्पन वर्ष के भजनलाल शर्मा को मुख्यमंत्री और बावन वर्षीया दीया कुमारी और चौव्वन वर्षीय प्रेमचंद बैरवा को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया। छत्तीसगढ़ में भी उनसठ साल के विष्णुदेव साय को मुख्यमंत्री और पचपन वर्षीय अरुण साव और पचास वर्षीय विजय शर्मा को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया। जबकि इन राज्यों में शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह जैसे दिग्गज सक्रिय थे। राजनीतिक हलकों में इस बात की चर्चा होने लगी कि भारतीय जनता पार्टी ने दूसरी पंक्ति के नेतृत्व को तैयार करना आरंभ कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी पूर्व में भी इस तरह के प्रयोग करती रही है। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने अड़तीस साल की स्मृति इरानी को कैबिनेट मंत्री बनाया और चालीस वर्षीय अनुराग ठाकुर को मंत्रिमंडल में शामिल किया। अन्य दलों में भी ये देखने को मिलता रहा है। कांग्रेस पार्टी ने भी हिमाचल प्रदेश के विधानसभा में जीत दर्ज की तो साठ वर्ष से कम आयु के सुखविंदर सिंह सुक्खू को मुख्यमंत्री बनाया। अभी तेलांगना में भी चौव्वन वर्ष के रेवंत रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाया गया। यह अलग बात है कि कांग्रेस पार्टी में जब कई वर्षों के बाद पार्टी अघद्यक्ष पद के लिए चुनाव हुए तो अस्सी वर्ष से अधिक आयु के मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी की पसंद बने । <p></p><p style="text-align: justify;">राजनीति में तो ऐसा देखने को मिलता है कि पार्टियां अपने युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाने के लिए अपेक्षाकृत अधिक उम्र के नेताओं को अलग तरह की जिम्मेदारियां देती हैं। अधिक उम्र होने पर या राजनीति मुख्यधारा से कट जाने के बाद नेताओं को राज्यपाल बनाने की परंपरा रही है। या नौकरशाह जब सेवानिवृत्त हो जाते हैं तो उनको भी राज्यपाल जैसे पद पर नियुक्त किया जाता रहा है। कई बार चुनाव हारने के बाद भी नेताओं को दरकिनार कर दिया जाता है या संगठन में भेजकर उनकी प्रतिभा का उपयोग किया जाता है। राजनीति के सामने अगर फिल्मी दुनिया को देखें तो वहां बढ़ती उम्र के बावजूद सिनेमा में काम करने की ललक जाती नहीं है। चेहरे पर स्पष्ट रूप से उम्र दिखने, चाल-ढाल, हाव-भाव में उम्र के हावी होने और दर्शकों के नकार के बावजूद रूपहले पर्दे पर बने रहने की कोशिशें जारी रहती हैं। अधिक पीछे नहीं जाते हुए अगर हाल के नायकों को देखें तो भी इस तरह की प्रवृत्ति नजर आती है। अभिनेता आमिर खान लगभग 59 वर्ष के हो रहे हैं। उनकी आखिरी हिट फिल्म 2016 में आई थी दंगल। उसके बाद उनकी दो महात्वाकांक्षी फिल्मों लाल सिंह चड्ढा और ठग्स आफ हिंदोस्तान को दर्शकों ने बुरी तरह से नकार दिया, लेकिन अब भी इस तरह की खबरें आती रहती हैं कि उनकी कोई नई फिल्म आनेवाली है। फिल्म लाल सिंह चड्ढ़ा में उन्होंने अपने से करीब पंद्रह वर्ष छोटी अभिनेत्री के साथ काम किया तो ठग्स आफ हिंदोस्तान में करीब बीस वर्ष छोटी अभिनेत्री के साथ। सात वर्षों से कोई फिल्म हिट नहीं हो रही, उम्र का असर दिख रहा है लेकिन फिल्मों में बने रहने की चाहत है। </p><p style="text-align: justify;">दूसरा उदाहरण शाहरुख खान का है। उनकी हालिया दो फिल्में अवश्य हिट रही हैं लेकिन उसके पहले उनकी भी फिल्में नहीं चल पा रही थीं। उनकी उम्र भी आमिर खान जितनी ही है। तीसरे खान सलमान खान हैं। ये शाहरुख खान से एक वर्ष छोटे हैं लेकिन सत्तावन वर्षीय अधेड़ अभिनेता की फिल्में भी उतनी नहीं चल पा रही हैं जितनी युवावस्था में चला करती थी। दर्शकों में सलमान खान को लेकर जो दीवानगी देखने को मिलती थी वो इन दिनों नहीं दिख रही है। भारत और ट्यूबलाइट जैसी फिल्में दर्शकों को नहीं भाईं। बावजूद इसके लगातार फिल्में कर रहे हैं। एक और इसी उम्र के अभिनेता हैं अक्षय कुमार। उनकी एक के बाद एक छह फिल्में लगातार पिटीं लेकिन अब भी उनके पास फिल्मों की कतार लगी हुई है। बच्चन पांडे, सम्राट पृथ्वीराज, रक्षाबंधन, रामसेतु, सेल्फी, मिशन रानीगंज को दर्शकों ने पसंद नहीं किया। बावजूद इसके अक्षय कुमार युवा अभिनेता बनने की होड़ में शामिल हैं। अपनी से आधी उम्र की अभिनेत्री मानुषी के साथ महात्वाकांक्षी फिल्म सम्राट पृथवीराज को दर्शकों ने नकारा। बच्चन पांडे से लेकर मिशन रानीगंज तक सिर्फ एक फिल्म ओमएमजी-2 चली लेकिन ये पंकज त्रिपाठी की फिल्म मानी जाएगी। अक्षय कुमार तो इसमें बहुत कम देर के लिए हैं। बावजूद इसके अगले वर्ष अक्षय की बतौर हीरे पांच नई फिल्मों की चर्चा है। अक्षय कुमार कहते भी हैं कि वो एक फिल्म के लिए 40 दिन का ही समय निकाल सकते हैं। </p><p style="text-align: justify;">राजनीति में जब नेतृत्व कमजोर होता है और वो पीढ़ीगत बदलाव करना चाहता है तो कई बार विद्रोह के स्वर सुनाई पड़ते हैं। लेकिन जब नेतृत्व सबल होता है तो पीढ़ीगत बदलाव सहज दिखता है। जैसा कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में देखने को मिला। फिल्मों में पीढ़ीगत बदलाव तभी दिखता है जब अभिनेता को निरंतर नकार का सामना करना पड़ता है। फिल्मों में भूमिका में बदलाव करके प्रासंगिक बना रहा जा सकता है। इसके सबसे बड़े उदाहरण अमिताभ बच्चन हैं जिन्होंने अपनी भूमिकाओं के चयन में अपनी उम्र का ख्याल रखा और तब जाकर दर्शकों ने उनको पसंद किया। बढ़ती उम्र के साथ वो लाल बादशाह और जादूगर जैसी फिल्में करने लगे थे तो एक समय ऐसा लगने लगा था कि बतैर हीरो उनकी पारी समाप्त हो गई है। राजेश खन्ना ने ढ़लती उम्र के साथ जीना नहीं सीखा। असफलता का सामना नहीं कर पाए। खुद को नशे के दलदल मे डुबो लिया। अगले वर्ष अगर अक्षय कुमार नहीं संभल पाए और उनकी फिल्में नहीं चलीं तो उनके सामने भी यही संकट खड़ा हो जाएगा। आमिर खान के सामने भी यही चुनौती है। शाहरुख की फिल्म डंकी अगर नहीं चल पाई तो पिछली दो फिल्मों की सफलता के धुलने का खतरा है। </p><p style="text-align: justify;">राजनीति और फिल्म दोनों में बढ़ती और ढ़लती उम्र का गणित और उसके परिणाम का आकलन जरा कठिन होता है। एक जगह कुर्सी से चिपके रहने की ख्वाहिश बनी रहती है,सत्ता सुख भोगने की चाहत होती है तो दूसरी जगह रूपहले पर्द पर मेकअप आदि के सहारे नायक बने रहने की जुगत। अब तो तकनीक के सहारे चेहरे की त्वचा आदि को भी ठीक किया जा सकता है। फिल्मी अभिनेता इस तकनीक का उपयोग करके और अपने से आधी उम्र की नायिकाओ के साथ काम करके जवान दिखना चाहते हैं। उम्र बढ़ना प्राकृतिक है। बढ़ती उम्र के साथ अपनी भूमिका में बदलाव करना और उसको यथार्थवादी बनाना व्यक्ति पर निर्भर करता है। चाहे नेता हो या अभिनेता जो इसको जितनी जल्दी समझ लेता है उसकी जिंदगी बहुत शांतिपूर्व चलती है। अभिनेत्रियों में इसका उदाहरण काजल हैं। जब वो अपने करियर के शीर्ष पर थीं तो उन्होंने विवाह करके घर बसा लिया। विवाह के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन किया और अब अपनी उम्र के हिसाब से भूमिकाओं का चयन करके फिर से मनोरंजन की दुनिया में वापस आई हैं। हमारे ग्रंथों में भी कहा गया है कि जो समय को पहचान लेता है और उसके हिसाब से अपने को ढाल लेता है वो निरंतर सफल होता है। समय और परिस्थिति के हिसाब से अपने को बदल लेना ही उचित होता है। अगर कोई समय और परिस्थिति के अनुसार नहीं बदला पाता है तो समय उसको बदल देता है। समाज, राजनीति या सिनेमा में समय से टकराकर कोई आगे बढ़ सका हो, ऐसा उदाहरण याद नहीं पड़ता। </p><p style="text-align: justify;"><br /></p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-43326533991342868042023-12-09T19:22:00.000-08:002023-12-09T19:22:36.032-08:00 मोदी विजय रथ को रोक पाएंगे राहुल? <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-JOdHoKjuLVrKSnX7K9_WSG1ct3yyV9M4jVWvfGzqCUjtK_EXzmXv91dPWDHEgUl26Q0q0oSKKkwOz7eXqcZKf5ZI0iUVAgUa1zQrXHOQqNIQOqnkiMiw0ZVEpddWVKa9NVD8SLECejl1EHK2Xa-SRm0K-mRyaPA4ImRLyH5iYb5eP_lsDhIySmae3JE/s1280/IMG_1338.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="1206" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-JOdHoKjuLVrKSnX7K9_WSG1ct3yyV9M4jVWvfGzqCUjtK_EXzmXv91dPWDHEgUl26Q0q0oSKKkwOz7eXqcZKf5ZI0iUVAgUa1zQrXHOQqNIQOqnkiMiw0ZVEpddWVKa9NVD8SLECejl1EHK2Xa-SRm0K-mRyaPA4ImRLyH5iYb5eP_lsDhIySmae3JE/w189-h200/IMG_1338.jpg" width="189" /></a></div><br />राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर चर्चा आरंभ हो गई है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के हौसले बुलंद हैं। उन्होंने लोकसभा चुनाव में हैट्रिक का विमर्श शुरु कर दिया है। उधर कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों में मायूसी का वातावरण है। तेलांगना के विधानसभा चुनाव में जीत के बावजूद कांग्रेस पार्टी अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार नहीं कर पा रही है। कुछ दिनों पूर्व बने विपक्षी दलों के गठबंधन आईएनडीआईए को लेकर कुछ ठोस सामने नहीं आ रहा है। विशेषज्ञ ऐसा होगा तो ऐसा होगा के तर्कों के सहारे भारतीय जनता पार्टी की कठिनाइयों को गिनाने में लगे हैं। चुनावी विश्लेषक विधानसभा चुनाव में विपक्षी दलों को मिले वोटों की संख्या के आधार पर लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के सामने चुनौती पेश करने का प्रयास कर रहे हैं। यही विश्लेषक ये कहते हुए नहीं थकते थे कि विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में मतदान का पैटर्न अलग होता है। स्मरणीय है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा का चुनाव हार गई थी लेकिन अगले ही वर्ष 2019 में जब लोकसभा का चुनाव हुआ तो भारतीय जनता पार्टी को 2014 में मिली सीटों से अधिक सीटें प्राप्त हुईं। इसी तरह से दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को बंपर जीत मिली थी लेकिन लोकसभा चुनाव में सातों सीट पर भारतीय जनता पार्टी ने जीत का परचम लहराया। आंकड़ों से संकेत तो मिल सकते हैं लेकिन उसे परिणाम का सटीक आकलन नहीं लग सकता है। <p></p><p style="text-align: justify;">लोकसभा के चुनाव में जनता यह तय करती है कि कौन सा नेता ऐसा है जो राष्ट्रीय नेतृत्व प्रदान कर सकता है। वैश्विक मंच पर राष्ट्रीयय हित को मजबूती से पेश कर सकता है। पूरे देश को साथ लेकर चल सकता है और जिसकी नीतियों से देश का विकास होगा। किस नेतृत्व में स्थायित्व और स्थिरता प्रदान करने की क्षमता है। वर्तमान राजनीति परिदृष्य में नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सर्वमान्य नेता हैं और पार्टी 2024 का लोकसभा चुनाव मोदी के नेतृत्व में लड़ेगी। विपक्ष में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है और उसकी उपस्थिति हर राज्य मैं है। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भले ही मल्लिकार्जुन खड़गे हैं लेकिन अगर प्रधानमंत्री बनने की नौबत आई तो राहुल गांधी ही आगे आएंगे। आईएनडीआईए में भी सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण कांग्रेस का नामित नेता ही उसका नेतृत्व कर सकता है। यहां भी राहुल गांधी का ही नाम आ सकता है। इस बात की संभवाना कम है कि राहुल गांधी किसी अन्य के नेतृत्व में 2024 के लोकसभा चुनाव मैदान में जाएं। राहुल गांधी के कुछ स्वयंभू सलाहकार और गठबंधन के कुछ दल राहुल गांधी के नाम पर असहमति जता सकते हैं लेकिन जिस प्रकार अन्य दलों के नेताओं के नाम पर मतभिन्नता है उसमें राहुल के नाम पर ही मतैक्य हो सकता है। विपक्षी गठबंधन नेतृत्व के प्रश्न को लोकसभा चुनाव के बाद के लिए टालने की घोषणा कर सकते हैं लेकिन उसका कोई लाभ होगा, इसमें संदेह है। स्वाभाविक है कि विपक्षी गठबंधन मजबूरी में ही सही लेकिन राहुल गांधी को नेता चुन सकते हैं। अगर राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्षी दलों का गठबंधन आईएनडीआए चुनाव मैदान में जाता है तो फिर मुकाबला नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के बीच होगा। </p><p style="text-align: justify;">राहुल गांधी के बारे में देश में एक राय है। कांग्रेस पार्टी में भी। सोमवार को पूर्व राष्ट्रपति और लंबे समय तक कांग्रेस पार्टा के महत्वपूर्ण नेता रहे प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी की पुस्तक बाजार में आ रही है। पुस्तक का नाम है प्रणब, माई फादर। इस पुस्तक में सोलह स्थानों पर राहुल गांधी का उल्लेख है और कई स्थानों पर तो प्रणब मुखर्जी के डायरी के अंश भी उद्धृत किए गए हैं। प्रणब मुखर्जी की डायरी के अंश संभवत: पहली बार सार्वजनिक होने जा रहे हैं। प्रसंग 29 जनवरी 2009 के कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक का है। प्रणब मुखर्जी अपनी डायरी में लिखते हैं, राहुल गांधी ने गठबंधन के विरोध में अपनी बात जोशीले अंदाज में रखी। मैंने (प्रणब) उनसे कहा कि जोश तो ठीक है लेकिन अपने आयडिया को विस्तार से कारण समेत व्याख्यायित करें। प्रणब मुखर्जी के इतना कहने पर राहुल गांधी ने उनकी तरफ देखा और कहा कि वो उनसे अलग से बात कर लेंगे। उसके बाद प्रणब मुखर्जी ने राहुल के बारे में अपनी डायरी में लिखा कि वो बेहद शिष्ट हैं और उनके मन में काफी प्रश्न कुलबुलाते रहते हैं जो ये दर्शाते हैं कि वो सीखना चाहते हैं लेकिन अभी राहुल गांधी को राजनीतिक रूप से परिपक्व होना बाकी है। परिपक्वता के प्रश्न पर ही प्रणब मुखर्जी 27 सितंबर 2013 की एक घटना का उदाहरण देते हैं। उस दिन राहुल गांधी दिल्ली में अजय माकन के एक प्रेस कांफ्रेंस में पहुंच गए थे और उन्होंने एक अध्यादेश की काफी सार्वजनिक रूप से फाड़ दी थी। भन्नाए प्रणब मुखर्जी लिखते हैं कि राहुल गांधी खुद को क्या समझते हैं? वो कैबिनेट के सदस्य नहीं हैं। वो होते कौन हैं जो कैबिनेट के निर्णय को सार्वजनिक रूप से फाड़ डालें। प्रदानमंत्री विदेश में हैं। उनको(राहुल) को इस बात का अनुमान भी है कि उनके इस कदम का परिणाम और प्रधानमंत्री पर क्या असर होगा? राहुल को प्रधानमंत्री को इस तरह अपमानित करने का अधिकार किसने दिया? राहुल में गांधी-नेहरू खानदान से होने अहंकार तो है लेकिन राजनीतिक कौशल नहीं। कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन उपाध्यक्ष की इस हरकत को लेकर प्रणब मुखर्जी बेहज नाराज दिखते हैं और कहते हैं कि राहुल का यह कार्य कांग्रेस पार्टी के लिए ताबूत की आखिरी कील साबित हुई। वो प्रश्न उठाते हैं कि लोग कांग्रेस को इसके बाद वोट क्यों देंगे। वो इस बात को लेकर स्पष्ट नहीं हैं कि राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी को फिर से सक्रिय कर पाएंगे। वो लिखते हैं कि सोनिया जी राहुल को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहती हैं लेकिन उनमें (राहुल) करिश्मा और राजनीतिक समझ की कमी के कारण कठिनाई हो रही है। </p><p style="text-align: justify;">राहुल गांधी को लेकर सिर्फ प्रणब मुखर्जी की ही ये राय नहीं है। अपनी पुस्तक अमेठी संग्राम लिखने के दौरान मैंने युवक कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष से बात की थी तो उन्होंने भी कमोबेश इसी तरह की बात कही थी। उन्होंने जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही थी वो ये राहुल गांधी अगर किसी नेता से नाराज होते हैं तो वो उसको दंडित नहीं करते हैं और जब खुश होते हैं तो पारितोषिक भी नहीं देते। खफा होने से उससे बातचीत बंद कर देते हैं जिसका नुकसान संगठन को होता है। दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी हैं जो दोनों स्थितियों में निर्णय लेते हैं। 2024 का लोकसभा चुनाव अगर नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी होता है तो आज की स्थिति में मोदी का हैट्रिक तो तय ही है। राहुल गांधी या आईएनडीआईए को अगर नरेन्द्र मोदी को चुनौती देनी है तो उनको एक परिपक्व राजनीतिक चेहरा ढूंढकर उसपर सभी दलों के बीच सहमति बनानी होगी। उस नेता को अपनी नीतियों और विजन को जनता के सामने रखना होगा। आईएडीआईए ने अबतक दो ढाई दिन ही काम किया है। विपक्षी गठबंधन की तरफ से हाल ही में एक बैठक आहूत करने का समाचार आया था लेकिन अज्ञात कारणों से वो बैठक टाल दी गई। आमचुनाव में छह महीने से भी कम समय बचा है। भारतीय जनता पार्टी अपनी चुनावी तैयारियां कर चुकी है लेकिन विपक्षी गठबंधन को बहुत कुछ करना शेष है। अगर विपक्ष ने समय का सदुपयोग नहीं किया तो परिणाम हैट्रिक की ओर ही जाता दिख रहा है। </p><div style="text-align: justify;"><br /></div>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-19833626804704368452023-12-02T19:08:00.000-08:002023-12-16T17:22:29.906-08:00 विखंडनवादियों का नया राजनीतिक पैंतरा <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhefMN4zPQnGhZRLKTY1ks7xYhstTu_fU0OIdatYaAu70HpokyG6B6hkK47h4WEGVRB3KfQF_SzWAMY-njIOwk9SY0Ri5gsIDNyEOK3Z-5KEXT60frgigBDa61cDIEd_923XXpuR-_oWp4DcwmZpmoY_ng5ju0PDfc9WpSXKDjfunHod-RD5F7QqYz44s/s1274/IMG_1202.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1274" data-original-width="1222" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhefMN4zPQnGhZRLKTY1ks7xYhstTu_fU0OIdatYaAu70HpokyG6B6hkK47h4WEGVRB3KfQF_SzWAMY-njIOwk9SY0Ri5gsIDNyEOK3Z-5KEXT60frgigBDa61cDIEd_923XXpuR-_oWp4DcwmZpmoY_ng5ju0PDfc9WpSXKDjfunHod-RD5F7QqYz44s/w192-h200/IMG_1202.jpg" width="192" /></a></div><br />ऐसा बताया गया कि केरल के मुख्यमंत्री कामरेड पिनयारी विजयन ने केरल में आयोजित कटिंग साउथ नाम से आयोजित कार्यक्रम का न केवल शुभारंभ किया बल्कि इसमें भाषण भी दिया। ये कहना था प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक जे नंदकुमार का । प्रज्ञा प्रवाह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित सांस्कृतिक संगठन है। वे लखनऊ में आयोजित दैनिक जागरण संवादी के पहले दिन के एक सत्र में शामिल हो रहे थे। उन्होंने प्रश्न उठाया कि किस साउथ को कहां से काटना चाहते हैं कटिंग साऊथ वाले ? क्या दक्षिण भारत को उत्तर भारत से काटना चाहते हैं? कटिंग साउथ के नाम से जो आयोजन हुआ उसको ग्लोबल साउथ से जोड़ने का प्रयास अवश्य किया गया लेकिन उसकी प्रासंगिकता स्थापित नहीं हो पाई। जे नंदकुमार ने अपनी टिप्पणी में इसको विखंडनवादी कदम करार दिया और जोर देकर कहा कि इस तरह के नाम और काम से राष्ट्र में विखंडनवादी प्रवृतियों को बल मिलता है। उन्होंने इसको वामपंथी सोच से जोड़कर भी देखा और कहा कि वामपंथी विचारधारा राष्ट्र में विश्वास नहीं करती है इसलिए इसको मानने वाले इस तरह के कार्य करते रहते हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह के सोच का निषेध करने के लिए और राष्ट्रवादी ताकतों को बल प्रदान के लिए दिल्ली और दक्षिण भारत के कई शहरों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ब्रिजिंग साउथ के नाम से आयोजन करेगी। ब्रिजिंग साउथ के नाम से आयोजित होने वाले इन कार्यक्रमों में केंद्रीय मंत्रियों के शामिल होने के संकेत भी दिए गए। <p></p><p style="text-align: justify;">कटिंग साउथ मीडिया के नाम पर मंथन का एक कार्यक्रम है लेकिन अगर सूक्ष्मता से विचार करें तो इसके पीछे का जो सोच परिलक्षित होता है वो विभाजनकारी है। कहा भी जाता है कि कोई कार्य या कार्यक्रम अपने नाम से अपने जनता के बीच एक संदेश देने का प्रयत्न करती है। एक ऐसा संदेश जिससे जनमानस प्रभावित हो सके। ये दोनों कार्यक्रमों के नाम से ही स्पष्ट है। दोनों के संदेश भी स्पष्ट हैं। आज जब भारत में उत्तर और दक्षिण का भेद लगभग मिट सा गया है तो कुछ राजनीति दल और कई सांस्कृतिक संगठन इस भेद की रेखा को फिर से उभारना चाहते हैं। कभी भाषा के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर कभी जाति के नाम पर तो कभी किसी अन्य बहाने से। कभी सनातन के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करके तो कभी हिंदू देवी देवताओं के नाम पर अनर्गल प्रलाप करके। वैचारिक मतभेद अपनी जगह हो सकते हैं, होने भी चाहिए लेकिन जब बात देश की हो, देश की एकता और अखंडता की हो, देश की प्रगति की हो या फिर देश को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मजबूती प्रदान करने की हो तो राजनीति को और व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर देश के लिए सोचने और एकमत रखने की अपेक्षा की जाती है। देश की एकता और अखंडता के प्रश्न पर राजनीति करना या उसको सत्ता हासिल करने का हथियार बनाना अनुचित है। यह इस कारण कह रहा हूं क्योंकि अभी पांच राज्यों के विधानसभा के चुनाव हुए हैं और आगामी छह महीने में लोकसभा के चुनाव होने हैं। जब जब कोई महत्वपूर्ण चुनाव आते हैं तो इस तरह की विखडंनवादी ताकतें सक्रिय हो जाती हैं। </p><p style="text-align: justify;">आपको याद होगा कि जब 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव होनेवाले थे तो उसके पहले इस तरह का ही एक आयोजन किया गया था जिसका नाम था डिसमैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व। 2021 के उत्तरार्ध में अचानक तीन दिनों के आनलाइन सम्मेलन की घोषणा की गई थी। वेबसाइट बन गया था, ट्विटर (अब एक्स) अकाउंट पर पोस्ट होने लगे थे। उस कार्यक्रम में तब असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी के प्रपंच में शामिल लोगों के नाम भी सामने आए थे। तब भी डिस्मैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व का उद्देश्य भारतीय जनता पार्टी को नुकसान पहुंचाना था। कटिंग साउथ से भी कुछ इसी तरह की मंशा नजर आती है। वही लोग जिन्होंने देश में फर्जी तरीके से असहिष्णुता की बहस चलाई थी, पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा था, डिस्मैंटलिंग हिंदुत्व के साथ जुड़कर अपनी प्रासंगिकता तलाशी थी लगभग वही लोग कटिंग साउथ के साथ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुड़े हैं। डिसमैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व के आयोजकों को न तो हिंदुत्व का ज्ञान था और न ही इसकी व्याप्ति और उदारता का अनुमान। महात्मा गांधी ने काल्पनिक स्थिति पर लिखा है कि ‘यदि सारे उपनिषद् और हमारे सारे धर्मग्रंथ अचानक नष्ट हो जाएं और ईशोपवनिषद् का पहला श्लोक हिंदुओं की स्मृति मे रहे तो भी हिंदू धर्म सदा जीवित रहेगा।‘ गांधी ने संस्कृत में उस श्लोक को उद्धृत करते हुए उसका अर्थ भी बताया है। श्लोक के पहले हिस्से का अर्थ ये है कि ‘विश्व में हम जो कुछ देखते हैं, सबमें ईश्वर की सत्ता व्याप्त है।‘ दूसरे हिस्से के बारे में गांधी कहते हैं कि ‘इसका त्याग करो और इसका भोग करो।‘ और अंतिम हिस्से का अनुवाद इस तरह से है कि ‘किसी की संपत्ति को लोभ की दृष्टि से मत देखो।‘ गांधी के अनुसार ‘इस उपनिषद के शेष सभी मंत्र इस पहले मंत्र के भाष्य हैं या ये भी कहा जा सकता है कि उनमें इसी का पूरा अर्थ उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है।‘ गांधी यहीं नहीं रुकते हैं और उससे आगे जाकर कहते हैं कि ‘जब मैं इस मंत्र को ध्यान में रखककर गीता का पाठ करता हूं तो मुझे लगता है कि गीता भी इसका ही भाष्य है।‘ और अंत में वो एक बेहद महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि ‘यह मंत्र समाजवादियों, साम्यवादियों, तत्वचिंतकों और अर्थशास्त्रियों सबका समाधान कर देता है। जो लोग हिंदू धर्म के अनुयायी नहीं हैं उनसे मैं ये कहने की धृष्टता करता हूं कि यह उन सबका भी समाधान करता है।‘ डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व के समय भी अपने लेख में गांधी को उद्धृत किया था। </p><p style="text-align: justify;">भारत चाहे उत्तर हो या दक्षिण कोई भूमि का टुकड़ा नहीं है कि उसके किसी हिस्से को किसी अन्य हिस्से से काटा जा सके। भारत एक अवधारणा है। एक ऐसी अवधारणा जिसमें अपने धर्म से, धर्मगुरुओं से, भगवान तक से प्रश्न पूछने की स्वतंत्रता है। अज्ञान में कुछ विदेशी विद्वान या वामपंथी सोच के लोग महाभारत की व्याख्या करते हुए कृष्ण को हिंसा के लिए उकसाने का दोषी करार देते हैं और कहते हैं कि अगर वो न होते तो महाभारत का युद्ध टल सकता था। अब अगर इस सोच को धारण करने वालों को कौन समझाए कि महाभारत को और कृष्ण को समझने के लिए समग्र दृष्टि का होना आवश्यक है। अगर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार नहीं होते और कौरवों का शासन कायम होता तब क्या होता। कृष्ण को हिंसा के जिम्मेदार ठहरानेवालों को महाभारत के युद्ध का परिणाम भी देखना चाहिए था। लेकिन अच्छी अंग्रेजी में आधे अधूरे ज्ञान के आधार पर भारतीय पौराणिक ग्रंथों की व्याख्या करने से न तो भारताय ज्ञान परंपरा की व्याप्ति कम होगी और न ही उसका चरित्र बदलेगा। भारतीय समाज के अंदर ही खुद को सुधार करने की व्यवस्था है। यहां जब भी कुरीतियां बढ़ती हैं तो समाज और देश के अंदर से कोई न कोई सुधारक सामने आता है।</p><p style="text-align: justify;">कटिंग साउथ की परिकल्पना करनेवालों और उसके माध्यम से परोक्ष रूप से राजनीति करने वालों को, भारतीय समाज को भारतीय लोकतंत्र को समझना होगा। वो अब इतना परिपक्व हो चुका है कि विखडंनवादी ताकतों की तत्काल पहचान करके उनके मंसूबों को नाकाम करता है। 2021 के बाद भी यही हुआ और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि 2024 के चुनाव में भी भारतीय जनता देशहित को समझेगी और उसके अनुसार ही अपने मतपत्र के जरिए उनका निषेध भी करेगी। </p><p style="text-align: justify;"><br /></p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-66832729166925067322023-11-25T18:11:00.000-08:002023-11-25T18:11:25.914-08:00 असहमति निर्माण का राजनीतिक खेल<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxNQgqYMOg5D4V4xToUyj9dRbHHiip-OggcNmQ04in2k6Xn2Ja7CwKmbwe7IIRtLaf-5CuWtcI75NZnlvoXfHXX98QK1pGYQFURBo-cUbfPTTFD3tDU4o93i-eyZG9CIXSOrpFT2O8JPBZm4kfltmmA0E52Y4qPs7lBEsRC4TVJ27tuO5MBKViryvL0Ok/s1273/IMG_1062.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1273" data-original-width="1212" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxNQgqYMOg5D4V4xToUyj9dRbHHiip-OggcNmQ04in2k6Xn2Ja7CwKmbwe7IIRtLaf-5CuWtcI75NZnlvoXfHXX98QK1pGYQFURBo-cUbfPTTFD3tDU4o93i-eyZG9CIXSOrpFT2O8JPBZm4kfltmmA0E52Y4qPs7lBEsRC4TVJ27tuO5MBKViryvL0Ok/w191-h200/IMG_1062.jpg" width="191" /></a></div><br />शुक्रवार को भुनेश्वर में आयोजित एसओए साहित्य उत्सव में भाग लेने का अवसर मिला। इसके उद्घाटन सत्र में प्रख्यात समाजशास्त्री आशीष नंदी का वक्तव्य हुआ। अपने उद्घाटन भाषण में आशीष नंदी ने कई बार डिस्सेंट (असहमति) शब्द का उपयोग किया। उन्होंने साहित्यकारों की रचनाओं में असहमति के तत्व की बात की। उसकी महत्ता को भी स्थापित करने का प्रयत्न किया। अपने भाषण के आरंभ में उन्होंने कहा था कि वो कोई विवादित बयान नहीं देंगे। लेकिन असहमति की बात करते हुए उन्होंने एक किस्सा सुनाया। कहा कि एक कवयित्री हैं जो नरेन्द्र मोदी के बारे में हमेशा अच्छा अच्छा लिखती थी। उनकी प्रशंसा करती थी। उस कवयित्री को उन्होंने नरेन्द्र मोदी का प्रशंसक तक बताया। फिर आगे बढ़े और कहा कि एक दिन उस कवयित्री ने गंगा नदी में बहती लाशों के बारे में लिख दिया। इसके बाद उसके प्रति कुछ लोगों का नजरिया बदल गया। वो इंटरनेट मीडिया पर ट्रोल होने लगी। इस किस्से के बाद वो अन्य मुद्दों पर चले गए। कहना न होगा कि आशीष नंदी का इशारा कोविड महामारी के दौरान गंगा नदी में बहती लाशों की ओर था। वो इतना कहकर आगे अवश्य बढ़ गए लेकिन वहां उपस्थित लोगों के मन में असहमति को लेकर एक संदेह खड़ा गए। परोक्ष रूप से वो ये कह गए कि वर्तमान केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर असहमति प्रकट करने के बाद प्रहार सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। यहां आशीष नंदी ये बताना भूल गए कि कोविड महामारी के दौरान गंगा में बहती लाशों को लेकर जो भ्रम फैलाया गया था वो एक षडयंत्र का हिस्सा था। केंद्र के साथ साथ उस समय की उत्तर प्रदेश सरकार को कठघरे में खड़ा करने की मंशा से ये नैरेटिव बनाने का प्रयास किया गया था। उसी समय दैनिक जागरण ने गंगा नदी में बहती लाशों को लेकर उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक पड़ताल की थी। उस झूठ का पर्दाफाश किया था कि लाशें महामारी की भयावहता को छिपाने के लिए गंगा में बहा दी गईं थीं। बाद में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में जनता ने भी गंगा में तैरती लाशों वाले उस नैरेटिव पर ध्यान नहीं दिया। किड महामारी के बाद हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में फिर से योगी आदित्यनाथ की सरकार को जनादेश देकर उस विमर्श को खत्म कर दिया था। <p></p><p style="text-align: justify;">इन दिनों असहमति को लेकर खूब चर्चा होती है। यह भी कहा जाता है कि असहमति को दबाने का प्रयास किया जाता है। कई बार ये कहते हुए केंद्र सरकार के विरोध में अपनी राय रखनेवाले कथित बुद्धिजीवि असहमति को दबाने के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर आरोप भी लगाते हैं। यहां वो असहमति का एक महत्वपूर्ण पक्ष बताना भूल जाते हैं। असहमति का अधिकार लोकतंत्र में होता है, होना भी चाहिए लेकिन असहमति के साथ साथ उसकी मंशा और उद्देश्यों पर भी ध्यान देना चाहिए। डिस्सेंट जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण है उस डिसेंट के पीछे का इंटेंट। अगर असहमति के पीछे छिपी मंशा किसी दल या विचारधारा का विरोध है तो उसको भी उजागर करना चाहिए। उसको भी असहमति के साथ ही रखकर विचार किया जाना चाहिए। अगर किसी विचार से असहमति हो और उसके पीछे मंशा वोटरों को लुभाने की हो तो उसपर खुलकर बात की जानी चाहिए। बौद्धिक और साहित्य जगत में असहमति होना आम बात है लेकिन अगर किसी रचना का उद्देश्य किसी विचारधारा विशेष को पोषित करना और उसके माध्यम से पार्टी विशेष को लाभ पहुंचना है तो फिर उस असहमति का प्रतिकार करने का अधिकार सामने वाले को भी होना ही चाहिए। वामपंथ में आस्था रखनेवाले बुद्धिजीवियों ने वर्षों तक ये किया। इल तरह का बौद्धिक छल कहानी, कविता और आलोचना के माध्यम से हिंदी जगत में वर्षों तक चला, अब भी चल ही रहा है। वामपंथी पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ट की तरह कार्य करनेवाले लेखक संगठनों से जुड़े लेखकों ने अपनी रचनाओं में वामपंथी विचारों को परोसने का काम किया। पाठकों को जब उनकी ये प्रवृति समझ में आई तो वो इस तरह की रचनाओं को खारिज करने लगे। इस तरह की रचना करनेवाले लेखकों की विश्वसनीयता भी पाठकों के बीच संदिग्ध हो गई। ये अकारण नहीं है कि एक जमाने में वामपंथ को पोषित करनेवाली लघुपत्रिकाएं धीरे-धीरे बंद होती चली गईं। उनके बंद होने के पीछे इन लेखक संगठनों के मातृ संगठनों का कमजोर होना भी अन्य कारणों में से एक कारण रहा। इन मातृ संगठनों के कमजोर होने की वजह उनमें लोगों का भरोसा कम होना भी रहा। आशीष नंदी जैसे समाजशास्त्री जब असहमति की पैरोकारी करते हैं तो इस महत्वपूर्ण पक्ष को ओझल कर देते हैं। </p><p style="text-align: justify;">अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन ने 1922 में जनमत के प्रबंधन के लिए एक शब्द युग्म प्रयोग किया था, मैनुफैक्चरिंग कसेंट (सहमति निर्माण)। उसके बाद कई विद्वानों ने इस शब्द युग्म को अपने अपने तरीके से व्याख्यायित किया। एडवर्ड हरमन और नोम चोमस्की ने 1988 में एक पुस्तक लिखी मैनुफैक्चरिंग कंसेंट, द पालिटिकल इकोनामी आफ द मास मीडिया। इस पुस्तक में लेखकों का तर्क था कि अमेरिका में जनसंचार के माध्यम सरकारी प्रोपगैंडा का शक्तिशाली औजार है और उसके माध्यम से सरकारें अपने पक्ष में सहमति का निर्माण करती हैं। उनके ही तर्कों को मानते हुए अगर थोड़ा अलग तरीके से देखें तो हम कह सकते हैं कि हमारे देश में एक खास विचारधारा के पोषक मैनुफैक्चरिंग डिस्सेंट में लगे हैं। यानि वो अपने विचारों से, अपने वक्तव्यों से, अपने लेखन से असहमति का निर्माण करने का प्रयास करते हैं जिससे परोक्ष रूप से सरकार के विरोधी राजनीतिक दलों के प्रोपैगैंडा को बल प्रदान किया जा सके। इस असहमति के निर्माण में लोकतंत्र, जनतंत्र, संवैधानिक अधिकारों की एकांगी व्याख्या आदि का सहारा लिया जाता है ताकि उनको तर्कों को विश्वसनीयता का बाना पहनाकर जनता के सामने पेश किया जा सके। यहां वो यह भूल जाते हैं कि भारत और यहां की जनता अब पहले की अपेक्षा अधिक समझदार हो गई है, शिक्षा का स्तर बढ़ने और लोकतंत्र के गाढ़ा होने के कारण असहमति निर्माण का खेल बहुधा खुल जाता है। बौद्धिक जगत में भी अब असहमति निर्माण करनेवालों के सामने उनके उद्देश्य को लेकर प्रश्न खड़े किए जाने लगे हैं। परिणाम यह होने लगा है कि जनता को समग्रता में सोचने विचारने का अवसर मिलने लगा है। </p><p style="text-align: justify;">हमारे देश में असहमति निर्माण का ये खेल चुनावों के समय ज्यादा दिखाई देता है। जब जब देश में चुनाव होते हैं तो कभी पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा जाता है तो कभी असहिष्णुता को लेकर असहमति निर्माण का प्रयास किया जाता है तो कभी फासीवाद का नारा लगाकर तो कभी संस्थाओं पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कब्जे का भ्रम फैलाकर। कई बार हिंदुत्व और हिंदूवाद की बहस चलाकर भी। लेकिन इन सबके पीछे का उद्देश्य एक ही होता है कि किसी तरह से मोदी सरकार की छवि धूमिल हो सके ताकि चुनाव में विपक्षी दलों को उसका लाभ मिल सके। लेकिन हो ये रहा है कि न तो पुरस्कार वापसी का प्रपंच चल पाया, न ही असहिष्णुता का आरोप गाढ़ा हो पाया। फासीवाद फासीवाद का नारा लगाने वाले भी अब ये जान चुके हैं कि ये शब्द भारत और यहां की राजनीति के संदर्भ में अपना अर्थ खो चुके हैं। हिंदुत्व और हिंदूवाद की बहस भी अब मंचों तक सीमित होकर रह गई है। अगले वर्ष के आरंभ में आम चुनाव होनेवाले हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि असहमति निर्माण के इस खेल में नए नए तर्क ढूंढे जाएं। पर असहमति निर्माण में लगे लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ये जो जनता है वो सब जानने लगी है। </p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-41527185466343004962023-11-18T16:49:00.000-08:002023-11-18T16:49:56.569-08:00हिंदी कहानी पर आत्मुग्धता का खतरा<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhskxrW_W4waKieWaiqBvhoMV-3eCooCZyWrd3h_IDSD3h4DwjNnpcSyHZ_cFGzlp7t7BJ_gV3jKWjftVjR7lHJ6YCiIFUGRmIxyVbc-2nQi5Gealt60GOFvUl-nKaizckjr1hJQj1Dt3bPhSiHgU3asXgetooL4bewE2R4ksdDFJT60csr4k3jepis9oI/s1298/IMG_0979.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1298" data-original-width="1208" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhskxrW_W4waKieWaiqBvhoMV-3eCooCZyWrd3h_IDSD3h4DwjNnpcSyHZ_cFGzlp7t7BJ_gV3jKWjftVjR7lHJ6YCiIFUGRmIxyVbc-2nQi5Gealt60GOFvUl-nKaizckjr1hJQj1Dt3bPhSiHgU3asXgetooL4bewE2R4ksdDFJT60csr4k3jepis9oI/w186-h200/IMG_0979.jpg" width="186" /></a></div><br />काफी दिनों के बाद एक साहित्यिक गोष्ठी में जाना हुआ। वहां समकालीन हिंदी कहानी और उपन्यास लेखन पर चर्चा हो रही थी। कार्यक्रम चूंकि हिंदी कहानी और उपन्यास पर हो रही थी इस कारण वक्तों में कहानीकार और उपन्यासकार अधिक थे, टिप्पणीकार कम। एक बुजुर्ग लेखक ने जोरदार शब्दों में हिंदी कहानी से कथा तत्व के लगभग गायब होते जाने की बात कही। साथ ही उन्होंने कहानियों में जीवन दर्शन की कमी को भी रेखांकित किया। इस क्रम में उन्होंने रैल्फ फाक्स को उद्धृत करते हुए कहा कि हो सकता है कि ‘जब जब दार्शनिकों ने कहानियां लिखी हों मुंह की खाई हो, लेकिन यह भी तय है कि उपन्यास बिना एक सुनिश्चित जीवन-दर्शन के लिखा ही नहीं जा सकता।‘ इसके बाद एक युवा उपन्यासकार बोलने के लिए आए। युवा उत्साही होते हैं तो उनके वक्तव्य में भी उत्साह था और उन्होंने उपन्यास में जीवन दर्शन जैसे गंभीर बातों की खिल्ली उड़ाई और कहा कि हिंदी कहानी को इस तरह की बातों से ही नुकसान पहुंचा है। उसके मुताबिक आज का उपन्यास हिंदी के इन आलोचकीय विद्वता से मुक्त होकर आम आदमी की कहानी कहने लगा है। उसने इसके फायदे भी गिनाए और कहा कि जीवन दर्शन आदि की खोज से दूर जाकर हिंदी कहानी ने अपने को बोझिलता से दूर किया। युवा उपन्यासकार ने न केवल हिंदी की समृद्ध परंपरा का उपहास किया बल्कि यहां तक कह गए कि हिंदी कथा साहित्य को अज्ञेय और निर्मल वर्मा जैसों की बौद्धिकता से दूर ही रहने की आवश्यकता है। आश्चर्य की बात है कि जब वो ये सब बोल रहे थे तो सभागार में बैठे कुछ अन्य युवा तालियां भी बजा रहे थे। बाद के कुछ वक्ताओँ ने हल्के स्वर में उनकी स्थापनाओं का प्रतिरोध करने की औपचारिकता निभाई और अन्य बातों पर चले गए।<p></p><p style="text-align: justify;">कार्यक्रम के अगले हिस्से में समकालीन कहानियों के समाचारों पर आधारित होने की बात एक वक्ता ने उठाई। उनका कहना था कि हिंदी के नए कहानीकार अब समाचारपत्रों से किसी घटना को उठाते हैं और उसको अपनी भाषा में थोड़ी काल्पनिकता का सहारा लेकर लिख डालते हैं। उन्होंने नए कहानीकारों पर फार्मूलाबद्ध और फैशनेबल कहानियां लिखने का आरोप भी जड़ा। उनका तर्क था कि जब इस तरह की कहानी पाठकों के सामने आती है तो वो सतही और छिछला प्रतीत होता है। उन्होंने नए कहानीकारों को हिंदी कहानी की परंपरा को साधने और उसको ही आगे बढ़ाने की नसीहत देते हुए कहा कि हिंदी के नए कहानीकारों को अपने पूर्वज कहानीकारों का ना केवल सम्मान करना चाहिए बल्कि उनको पढ़कर कहानी लिखने की कला भी सीखनी चाहिए। ये महोदय बहुत जोश में बोल रहे थे और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सभागार में उपस्थित बहुसंख्यक श्रोता उनकी बातों से सहमत भी हो रहे थे। दो सत्र के बाद कार्यक्रम संपन्न हो गया। लेकिन दोनों सत्रों में वक्ताओं ने जिस प्रकार से अपने तर्क रखे उसको देखकर लगा कि हिंदी में इस समय अतिवादिता का दौर चल रहा है। एक तरफ अपने पूर्वज कथाकारों को नकारने की प्रवृत्ति देखने को मिली तो दूसरी तरफ युवा लेखकों को खारिज करने का सोच दिखा। दोनों ही अतिवाद है। ऐसा नहीं है कि हिंदी कहानी को लेकर इस तरह की गर्मागर्मी पहले नहीं होती थी। हर दौर में इस तरह की साहित्यिक बहसें होती थीं। पहले साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में लेख और टिप्पणियों के माध्यम से इस प्रकार की बहसें चला करती थीं। अब साहित्यिक पत्रिकाओं के कम हो जाने के कारण गोष्ठियों में इस तरह की बातें ज्यादा सुनने को मिलती हैं।</p><p style="text-align: justify;">इन दोनों टिप्पणियों को सुनने के बाद मुझे कथाकार राजेन्द्र यादव की याद आ गई। उन्होंने लिखा था कि ‘कभी-कभी होता क्या है कि साहित्य का कोई युग खुद ही एक अजब सा खाली-खालीपन, एक निर्जीव पुनरावृत्ति और सब मिलाकर एक निर्रथक अस्तित्व का बासीपन महसूस करने लगता है। सब कुछ तब बड़ा सतही और छिछला लगता है। उस समय उसे जीवन और प्रेरणा शक्ति देनेवाली दो शक्तियों की ओर निगाह जाती है, एक लोक साहित्य और और लोक जीवन की प्रेरणाएं और दूसरे विदेशी साहित्य की स्वस्थ उपलब्धियां। राजेन्द्र यादव ने तब लिखा था कि अगर इस देश के कथा साहित्य को तटस्थ होकर देखें तो ये दोनों ही प्रवृत्तियां साफ साफ दिखती हैं। उनका मानना था कि उनके समय में भी सतहीपन और झूठे मूल्यों का घपला ही था जिससे उबकर नवयुवक कथाकारों की एक धारा ग्रामीण जीवन और आंचलिक इकाइयों की ओर मुड़ गईं और दूसरी विदेशी साहित्य की ओर। वो उस काल को प्रयोग और परीक्षण का काल मानते थे जिसमें भटकाव भी था लेकिन दोनों धारा में एक सही रास्ता खोजने की तड़प थी। आज की कहानियों पर अगर विचार करें तो यहां न तो कोई प्रयोग दिखाई देता है और न ही किसी प्रकार का कोई परीक्षण। एक दो उपन्यासकार को छोड़ दें तो ज्यादातर उपन्यासकार प्रयोग का जोखिम नहीं उठाते हैं। इस समय जो लोग ग्रामीण जीवन पर कहानियां लिख रहे हैं वो तकनीक आदि के विस्तार से जीवन शैली में आए बदलाव को पकड़ नहीं पाते हैं या पकड़ना नहीं चाहते हैं। इसके पीछे एक कारण ये हो सकता है कि वो श्रम से बचना चाहते हों। लोगों के मनोविज्ञान में आ रहे बदलाव को समझने और उसको कथा में पिरोने की जगह वो ऐसा उपक्रम करते हैं कि पाठकों को लगे कि वो नई जमीन तोड़ रहे हैं। समाज में हिंदू-मुसलमान के सामाजिक रिश्तों में बदलाव आ रहा है। इस रिश्ते के मनोविज्ञान को पकड़ने का प्रयास हिंदी कहानी में कहां दिखाई देता है।</p><p style="text-align: justify;">हम अज्ञेय या निर्मल वर्मा की भाषा की बात करें तो उसमें एक खास प्रकार का आकर्षण दिखाई देता है। जिसको एक कथाकार ने उत्साह में बोझिलता बता दिया था दरअसल वो हिंदी भाषा की समृद्धि का प्रतीक है। दरअसल होता यह है कि जब भी हिंदी में कहानियों की भाषा पर बात की जाती है तो वो भी यथार्थ के धरातल पर आकर टिक जाती है। इस तरह की बातें करनेवाले ये भूल जाते हैं कि भाषा केवल स्थितियों और परिस्थितियों को अभिव्यक्त ही नहीं करती है बल्कि पाठकों के सामने चिंतन के सूत्र भी छोड़ती है। वो अतीत में भी जाती है और वर्तमान से होते हुए भविष्य की चिंता भी करती है। आज के कहानीकारों के सामने सबसे बड़ा संकट ये है कि उनकी पीढ़ी का कोई कथा आलोचक नहीं है। इस वक्त हिंदी कहानी पर टिप्पणीकार तो कई हैं लेकिन समग्रता में कथा आलोचना के माध्यम से कहानीकारों और पाठकों के बीच सेतु बनने वाला कोई आलोचक नहीं है। आज के अधिकतर कहानीकार अपने लिखे को अंतिम सत्य मानते हैं और उसपर आत्ममुग्ध रहते हैं। उनको आईना दिखानेवाला न तो कोई देवीशंकर अवस्थी है, न कोई सुरेन्द्र चौधरी और न ही कोई नामवर सिंह। इसके अलावा इस समय कथा का जो संकट है वो ये है कि कहानीकार भी अपने समकालीनों पर लिखने से घबराते हैं। इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर आपको सिर्फ प्रशंसात्मक टिप्पणियां मिलेंगी। अच्छी रचनाओं की प्रशंसा अवश्य होनी चाहिए। प्रशंसा से लेखक का उत्साह बढ़ता है लेकिन कई बार झूठी प्रशंसा लेखकों या रचनाकारों के लिए नुकसानदायक होती है। आज हिंदी के युवा कथाकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वो सबसे पहले कहानी या उपन्यास की परंपरा का अध्ययन करें, उसको समझकर आत्मसात करें, फिर अपने लेखन में उसके आगे बढ़ाने का प्रयत्न करें। अगर लेखकों को अपनी परंपरा का ज्ञान नहीं होगा तो उसके आत्ममुग्ध होने का बड़ा खतरा होता है। ये खतरा इतना बड़ा होता है कि वो लेखन प्रतिभा को कुंद कर देता है।</p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-41178235630341205562023-11-13T01:45:00.000-08:002023-11-13T01:45:49.360-08:00मन के अंदर हों श्रीराम - मिश्र<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDu8uVR60TpStpG2-rN3YXEGVweb5YwBQ6C6JyCDFN1CqMSmObsyOkkiCyGR7aIyuF7EER6YlHVutxVLKmeVzE9ZCt-JFiS6SR2pXGh7JNf1Bl5mpEd9NlChsfOWfl83cUmhwFZ0x7Me3Mx7Gi0P_ACBpVurDvUJtFghT0Sqq4nEl06_DihArqRWUcEKM/s1671/IMG_0588.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1375" data-original-width="1671" height="164" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDu8uVR60TpStpG2-rN3YXEGVweb5YwBQ6C6JyCDFN1CqMSmObsyOkkiCyGR7aIyuF7EER6YlHVutxVLKmeVzE9ZCt-JFiS6SR2pXGh7JNf1Bl5mpEd9NlChsfOWfl83cUmhwFZ0x7Me3Mx7Gi0P_ACBpVurDvUJtFghT0Sqq4nEl06_DihArqRWUcEKM/w200-h164/IMG_0588.jpg" width="200" /></a></div><br />हिंदी साहित्य के इतिहास में रामदरश मिश्र संभवत: पहले ऐसे लेखक हैं जो अपनी जन्म शताब्दी की देहरी पर खड़े हैं। अस्सी वर्षों से निरंतर साहित्य की विभिन्न विधाओं में सार्थक लेखन से उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। इस उम्र में भी वो साहित्यिक बैठकी में जमकर संस्मरण सुनाते हैं और युवा लेखकों का उत्साहवर्धन भी करते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शिक्ष रहे रामदरश मिश्र के अंदर अब भी उनका गांव बसता है। गांव की चर्चा होते ही उनका चेहरा प्रफुल्लित हो जाता है। वो मानते हैं कि अनुभव और मानवीय मूल्य ही किसी रचना को उत्तम बनाते हैं। दैनिक जागरण के एसोसिएट एडिटर अनंत विजय ने रामदरश मिश्र से उनके आरंभिक जीवन, शिक्षण के अनुभव, उनकी रचना प्रक्रिया, समकालीन साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य और अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण को लेकर उनसे लंबी बातचीत की। यह भी जानने का प्रयास किया गया कि उनके शतायु होने का राज क्या है। प्रस्तुत है उनसे विस्तृत बातचीत के प्रमुख अंशः<p></p><p style="text-align: justify;">-आज का जो साहित्यिक परिदृश्य है, जिस तरह की चीजें लिखी जा रही हैं, उससे आपको कितनी संतुष्टि होती है या जितना आप पढ़ पाते हैं इस अवस्था में आने के बाद, जितना आपको सुनाया जाता है, या जितना आप जानते हैं, कोई आश्वस्ति होती है या लगता है कि जैसे कुछ छूट रहा है?</p><p style="text-align: justify;">- पहली बात, मेरा लिखना-पढ़ना दोनों बंद हो गया है। जब लिखने की क्षमता कम हुई तो अपनी सर्जना को डायरी के माध्यम से, कभी-कभी गजल के माध्यम से व्यक्त करता रहा हूं। मुझे लगता है कि इन दिनों चाहे गजल या कविता हो या कहानी, उनमें वो ऊंचाई नहीं है, गहराई नहीं है जो कुछ समय पहले तक थी। नागार्जुन, केदारनाथ, भवानी भाई के साथ जुड़ा हूं। इन लोगों को पढ़ने का जो एक आनंद था, वो मुझे महसूस नहीं होता है। किसी अच्छे कवि से संपर्क होता है, तो पता चलता है कि कुछ अच्छा भी लिखा जा रहा है। लेखन कोई भी हो, उसमें अपनापन होना चाहिए। जब जब हम चीजों को जीते हैं, तो जो रचनाएं उनकी अभिव्यक्ति होती हैं, वे प्रभावशाली होती हैं। उनमें अपने परिवेश से उपजा अनुभव होता है। हालांकि कई बार मात्र अनुभव ही पर्याप्त नहीं होता। लेखक अपने अनुभव से लिखते हैं, लेकिन लेखक का अपना निर्णय भी होता है कि क्या देना चाहिए और क्या नहीं।</p><p style="text-align: justify;">- आपकी एक कविता है कि आप पहुंचे छलांगे लगाकर वहां मैं पहुंचा धीरे-धीरे। आप धीरे-धीरे लक्ष्य तक पहुंचे। साहित्य में प्रतिष्ठा मिली जो एक आलोचना का परिदृस्य था, काफी समय तक आपके साहित्य को मान्यता नहीं दी। उसमें कभी ऐसा लगा कि आपका देय आपको नहीं मिला?</p><p style="text-align: justify;">- मेरा स्वभाव महत्वाकांक्षी नहीं है। मैं अपना काम करता हूं और यदि वो काम अच्छा होता है तो संतोष मिलता है, नहीं तो यह भी विश्वास रहता है कि कल वहां ये पहुंचेगा, जहां इसे पहुंचना चाहिए। लोगों की उपेक्षा से दुख इसलिए भी नहीं हुआ क्योंकि मैं मानता था कि एक विचारधारा है, एक दल है, वही सब कुछ निर्णय कर रहा है। वे अपने से अलग लोगों को हाशिये पर डाल रहे हैं, इसलिए उनकी चिंता मत करो, बस लिखते जाओ। यदि मैं उसमें शामिल हो गया होता तो मुझे भी वही मिलता, लेकिन मैं किसी दल से संबद्ध नहीं हुआ। बीएचयू में रहते हुए दो तीन-साल के लिए कम्युनिस्ट हुआ था लेकिन जल्दी ही ज्ञात हो गया कि उसके प्रभाव में जो लिख रहा हूं वो ठीक नहीं है। जब मेरी किताब आई तो उन कविताओं को हटा दिया। मैंने कोशिश की कि अपना रास्ता बनाऊं। अपने रास्ते पर चलने वालों की तारीफ करूं। जिन पत्रिकाओं को मैं समझता था कि कुछ खास लोगों की हैं, जैसे अशोक बाजपेयी की 'पूर्वाग्रह', नामवर सिंह की 'आलोचना' हो, राजेंद्र यादव की 'हंस' हो वहां मैंने कुछ दिया ही नहीं, उन्होंने सम्मान से कुछ मांगा भी नहीं, एक तरह से अच्छा ही हुआ । मेरी नियति कुछ अजीब है। लगता है कि मेरा अपकार कर रही हैं, दुख दे रही है, फिर लगता है कि उस क्रिया में ही तो इतना सम्मान था। यौवनकाल में सब मस्ती से जी लेते हैं, लेकिन बुढा़पा सन्नाटों में भर जाता है, मेरी नियति ने बुढ़ापे को सम्मान से भर दिया। मुझे वृद्धावस्था में सम्मान और लोगों का प्यार मिल रहा है।</p><p style="text-align: justify;">नियति पर बहुत भरोसा है, क्या आप भाग्यवादी हैं?</p><p style="text-align: justify;">- भाग्यवादी नहीं हूं लेकिन जैसा मैंने अनुभव किया है उसके माध्यम से ये बात कह रहा हूं कि जब मेरे साथ दुर्घटना होती है तो लगता है कि एक बुरी नियति से जुड़ा हुआ हूं, लेकिन जब उसका दूसरा परिणाम आता है तो लगता है कि उस नियति का एक दूसरा पहलू भी है।</p><p style="text-align: justify;">- आप बीएचयू के उस हिंदी विभाग में रहे हैं, जिसकी तुलना नामवर सिंह ने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से की है कि वहां भी तीन बड़े आलोचक रहे। उन्होंने रामचंद्र शुक्ल रचनावली की भूमिका में ये बात कही बीएचयू में आचार्य शुक्ल, नंददुलारे वाजपेजी, हजारीप्रसाद द्विवेदी की त्रिमूर्ति थी। द्विवेदी जी की यादें साझा करेंगे कि वे कैसे छात्रों से मिलते थे। उन पर आरोप लगा कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंधित थे?</p><p style="text-align: justify;">- द्विवेदी जी कहते थे कि साहित्य मनुष्य के लिए है। मनुष्य के हित के लिए जो भी साहित्य लिखा जाए वो अच्छा साहित्य है। जब द्विवेदी जी आरएसएस में बोलने गए तो बड़ी बदनामी हुई, लेकिन जब स्टालिन की मृत्यु हुई थी, तो उन्होंने जो भाषण दिया वो अद्भुत था। न वो आरएसएस के थे, ना कम्युनिस्ट थे। वे मानवता से जुड़े थे। उनके अध्यापन की विशेषता थी कि वो कोई विषय बहुत व्यापक रूप में लेते थे। कबीर का दोहा है, वो मात्र दोहा नहीं रह जाता था है, उस दोहे के भाव में जो भी है, वो जहां से भी संभव हो लाकर डाल देते थे। पूरा साहित्य उसमें मूर्त हो जाता था। बेहद प्रसन्नचित्त थे। छात्रों को बहुत प्यार करते थे। उनके साथ शाम को घूमना बहुत अच्छा लगता था। उस समय वे ऐसी बातें कहते थे जो शायद क्लास में नही कह सकते थे। वे ऐसे ढंग से कहते थे कि वो भीतर तक पहुंच रही है। एक बार उनके घर में बैठे थे, एक संन्यासी का फोन आया। पंडित जी आ जाऊं। उन्होंने कहा आ जाइए। उस संन्यासी ने एक किताब लिखी थी, जो द्विवेदी जी को पढ़ने को दी। उन्होंने कहा कि हर लेखक का लक्षित पाठक होता है। आपने लिखा है कि हमारे घर की औरतों को श्रृंगार नहीं करना चाहिए, सिनेमा नहीं देखना चाहिए। क्या वो पढ़ेंगी इसको। हमारे घर की जो स्त्रियां श्रृंगार नहीं करती, वे उसे पढ़ेंगी, लेकिन वह उनके काम की नहीं है।</p><p style="text-align: justify;">- एमए के दौरान कभी आपको ऐसा लगा कि शुक्ल जी ने तुलसी की व्याख्या की, लेकिन दिवेदी जी ने तुलसी पर विचार न करके कबीर को पकड़ा। क्या आपको लगा कि वे तुलसी के बरअक्स कबीर को खड़ा करना चाहते थे?</p><p style="text-align: justify;">- देखिए कबीर को मानना का क्या होता है। जिसने निर्भीकता से आडंबर का विरोध किया, उसके प्रस्तोता आचार्य दिवेदी जी थे। ऐसा नहीं था कि उन्होंने तुलसीदास की उपेक्षा की थी। उन्हें लगा कि तुलसीदास को तो मिल गया है, उन्होंने जो छूट गया यानी कबीरदास जी को संभाला, ये बड़ी बात थी।</p><p style="text-align: justify;">-आप डेढ़ दो साल के लिए कम्युनिस्ट हुए। नागार्जुन की वो पंक्ति याद आती है कि जब उन्होंने 1975 के बाद कहा था कि कोई 24 घंटे कम्युनिस्ट नहीं हो सकता। घंटा दो घंटा तो ठीक। नामवर जी ने चुनाव लड़ा था। क्या आप राजनीति में आना चाहते थे?</p><p style="text-align: justify;">- जब मैं एएमए फाइनल में था तब भाई साहब ने मुझे चुनाव लड़ने को कहा। कालेज की छुट्टियां थीं। भाई साहब मुझे लेकर चुनाव प्रचार को जाते थे। पूरे गांव का समर्थन था। इतना समां बंध गया था कि लगा कि जीत जाऊंगा लेकिन एक नुक्ता रह गया था जिसकी वजह से पर्चा खारिज हो गया। हमारे भाई साहब उस फैसले के खिलाफ हाइकोर्ट तक गए थे, पर मैं सोचता हूं जो हुआ अच्छा हुआ। राजनीति में वो जाए जो मोटी चमड़ी का हो।</p><p style="text-align: justify;">-आपने स्वतंत्रता से पहले और उसके बाद की राजनीति देखी है। क्या अंतर महसूस करते हैं?</p><p style="text-align: justify;">-पुराने समय में राजनेता साहित्य में रुचि रखते थे। उनका सम्मान भी करते थे। उनकी भाषा संसद या संसद के बाहर ऐसी नहीं थी, जैसी आज हो गई है। बाबू जगजीवनराम का एक आत्मीय था, वो मेरा शिष्य। मुझे बताने लगा कि बाबू जी आपको बहुत याद करते हैं। मिलने चलिए उनसे।बहुत आग्रह के बाद उनके घर मिलने गया। उनका बाहरी कमरा नेताओं से भरा हुआ था। उस लड़के ने बाबू जी से जाकर बताया तो वे दौड़कर मिलने आए और गले लगा लिया। राजनीति और साहित्य के संबंध में एक घटना याद आती है। लाल किले पर एक विशाल वार्षिक कवि सम्मेलन हुआ करता था। उसमें दिनकर जी आए हुए थे। जवाहर लाल मंच जी सीढ़ी जी चढ़ रहे थे, फिसल गए तो दिनकर जी ने संभाल लिया और कहा, नेहरू जी जब राजनीति लड़खड़ाती है तो साहित्य उसे संभालता। अब तो किसी नेता को साहित्य से कोई वास्ता नहीं है। </p><p style="text-align: justify;">-नए लेखकों को कोई संदेश देना चाहेंगे?</p><p style="text-align: justify;">- सबसे मैं यही कहता हूं कि अपना रास्ता बनाओ। बड़े लोगों से कुछ पाने के लिए उन जैसा न लिखो। इनके जैसा लिखूंगा, इनसे मिलूंगा तो यह मिल जाएगा तो तुम्हारा अपना नहीं होगा। तुम खुद अपना रास्ता चुनो। गिरो, पड़ो, उठो। जो तुम्हारा अपना रास्ता होगा, वही तुम्हारा अपना लेखन होगा। वही तुम्हे ताकत देगा। लोग उसी को याद करेंगे। यही मैं सबसे कहता हूं कि अपना रास्ता बनाओ।</p><p style="text-align: justify;">-सौ साल तक जीने का क्या राज है?</p><p style="text-align: justify;">- जिसने मुझे बनाया है, उससे पूछो। मैं क्या जवाब दूं। मैं यही जवाब दे सकता हूं कि मैंने कभी महत्वाकांक्षा नहीं पाली। महत्वाकांक्षा बहुत मारती है। वह पूरी नहीं होती है, तो लोग रोते हैं, तड़पते हैं और जिनसे आपका काम पूरा नहीं होता, उसे गाली देते हैं। मन में द्वेष रखते हैं। दूसरी बात यह कि नशा नहीं किया। बनारस में रहकर पान नहीं खाया। ये भी एक कारण है कि मैं कभी उम्र के संकट में नहीं पड़ा। बीमार तो पड़ता गया लेकिन मुझे कोई ऐसा रोग नहीं है जो कि यकायक मुझे खत्म कर दे। तीसरी बात यह है कि पत्नी के होने से सब चीजें घर में ही मिल जाती रहीं। बाजार से संबंध नहीं होना भी एक कारण हो सकता है। बाकी तो ईश्वर जानें।</p><p style="text-align: justify;">आपकी दिनचर्या क्या रहती है?</p><p style="text-align: justify;">- देखिए ऐसा है कि पत्नी बीमार हैं। मेरे पैर में फ्रैक्चर हो गया था। सर्जरी के बाद अब आराम हो गया है, लेकिन अब चाहे बुढ़ापा कहिए या कुछ और, दोनों पांवों में दर्द होता है। मैं चल तो लेता हूं। ठीक से चल लेता हूं, लेकिन दर्द होता रहता है। दिन में सो लेता हूं। अब तो खाली ही रहता हूं।</p><p style="text-align: justify;">अपनी लेखन प्रक्रिया के बारे में बताइए?</p><p style="text-align: justify;">- मेरे लेखन की एक प्रक्रिया रही है। सबकी अलग अलग होती है। मैं केवल सुबह लिखता था। सुबह के मतलब नाश्ता आदि करने के बाद। लेकिन जिस दिन क्लास लगती थी, उस दिन नहीं लिखता था। लिखने के लिए दो घंटे चाहिए होता है। मैं किस्तों में लिखता था। लेकिन लिखते लिखते मैं इतना लिख गया कि देखकर खुश होता हूं कि अरे इसे मैंने लिखा है। ये उपन्यास, ये कहानियां मैंने लिखी हैं। मैं ये सब देखकर अब आश्चर्य करता हूं।</p><p style="text-align: justify;">आपके देखकर लगता नहीं कि आप क्रोध करते होंगे। क्या सचमुच ऐसा है?</p><p style="text-align: justify;">- नहीं, मुझे भी क्रोध आता है। खासकर जहां गलत काम देखता हूं। जब नागरिकता बोध को खंडित होते देखता हूं तो उस पर बहुत गुस्सा आता है। </p><p style="text-align: justify;">-रावण वध के बाद श्रीराम के अयोध्या पहुंचने के उपलक्ष्य में हर साल दीवाली मनाई जाती है, लेकिन पांच सौ साल बाद रामलला भव्य मंदिर में विराजमान होने जा रहे हैं। इस अर्थ में क्या यह दीवाली कुछ खास है। ?</p><p style="text-align: justify;">- राम मंदिर बनना अपने आपमें एक बड़ी चीज है। हालांकि मैं सोचता हूं कि श्रीराम ने तो रावण का वध कर दिया, लेकिन क्या वह सचमुच में मर गया है? एक गजल याद आ रही है- वह न मंदिर में, न मस्जिद में, न गुरुद्वारे में हैं। वह पराई पीर वाली आंख के तारे में है…। अपने मन के भीतर एक मंदिर बनाइए। राम मंदिर तो एक प्रतीक है। उसके माध्यम से श्रीराम को भीतर ले आइये। कृष्ण और राम के रूप में ईश्वर की जो सगुण कल्पना की गई है, यह बहुत बड़ी बात है। ईश्वर के उन गुणों को अगर आपने नहीं अपनाया तो फिर मंदिर भी व्यर्थ है और बाकी सब कुछ भी।</p><p style="text-align: justify;"><br /></p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9085022637942949290.post-47758581081810471582023-11-11T16:40:00.001-08:002023-11-11T16:40:13.210-08:00 आचार्य रामचंद्र शुक्ल का हिंदू मन <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkeqV51JMaO9MVYSpRDD_CqEOS8cEcyhVV7sB9oIvxhfXh92csRIKFb3lx_g4TqoFWR-5NVhHPViVV0YyZKLtcFyIR6CSlSGvnsSOEi5ucw_9rsTGkB0vUCWK7UKI5JDRnIzQiGL2NTJTbLrSI2R0-Zvr6D2NGhO_ZaccQzOTeRjUALQAg0yDxA2FCYgg/s1284/IMG_0587.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1284" data-original-width="1222" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkeqV51JMaO9MVYSpRDD_CqEOS8cEcyhVV7sB9oIvxhfXh92csRIKFb3lx_g4TqoFWR-5NVhHPViVV0YyZKLtcFyIR6CSlSGvnsSOEi5ucw_9rsTGkB0vUCWK7UKI5JDRnIzQiGL2NTJTbLrSI2R0-Zvr6D2NGhO_ZaccQzOTeRjUALQAg0yDxA2FCYgg/w191-h200/IMG_0587.jpg" width="191" /></a></div><br />भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में पिछले दिनों भारतीय भाषाओं के अंतरसंबंध पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेने का अवसर मिला। उस दौरान आचार्य रामचंद्र शुक्ल का अंग्रेजी में लिखा लेख हिंदी एंड द मुसलमान्स पर चर्चा हुई। उसी क्रम में रामचंद्र शुक्ल की तुलसी की भक्तिपरक और काव्य पद्धति को पढ़ने का मौका मिला। उसके बाद ऐसा प्रतीत हुआ कि रामचंद्र शुक्ल के साथ बाद के लेखकों ने न्याय नहीं किया। तुलसी काव्य की उनकी व्याख्या और उसके धार्मिक आधारों की विवेचना कम हुई। चर्चा इस बात की अधिक होती रही कि रामचंद्र शुक्ल ने तुलसी के सामने कबीर को याद नहीं किया। इतना ही नहीं कोशिश तो ये भी हुई कि तुलसी और कबीर को लेकर आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी को प्रतिद्वंदी की तरह पेश किया गया। रामचंद्र शुक्ल के तुलसी काव्य पर लिखे को आगे बढ़ाने का प्रयास न के बराबर हुआ। अगर शुक्ल के लेखन के समग्र आयामों पर अगर बात होती तो उनका हिंदू मन या सनातन धर्म में उनकी आस्था सामने आ जाती। ये बात वामपंथ में आस्था रखनेवाले लेखकों और आलोचकों को स्वीकार नहीं होता, लिहाजा इस तरह का प्रपंच रचा गया कि शुक्ल के लेखन के हिंदू पक्ष के बारे में बात ही न हो। यह कार्य निराला के साथ भी किया गया, प्रेमचंद के साथ भी किया गया और कल्याण पत्रिका में प्रकाशित उनके लेखों को हिंदी के नए पाठकों से दूर रखने का बौद्धिक षडयंत्र रचा गया। इस षडयंत्र की चर्चा आगे होगी लेकिन पहले देख लेते हैं कि शुक्ल जी ने क्या लिखा है। <p></p><p style="text-align: justify;">तुलसी की भक्ति पद्धति में आचार्य शुक्ल ने दिल खोलकर हिंदूओं और उनके धर्म प्रतीकों पर लिखा है। लेख के आरंभ में आचार्य शुक्ल कहते हैं कि देश में मुसलमान साम्राज्य के पूर्णतया प्रतिठित हो जाने पर वीरोत्साह के सम्यक संचार के लिए वह स्वतंत्र क्षेत्र न रह गया, देश का ध्यान अपने पुरुषार्थ और बल-पराक्रम की ओर से हटकर भगवान की शक्ति और दया-दाक्षिण्य की ओर गया। देश का वह नैराश्य काल था जिसमें भगवान के सिवा कोई सहारा नहीं दिखाई देता था। आचार्य शुक्ल ने आगे कहा कि सूर और तुलसी ने इसी भक्ति के सुधारस से सींचकर मुरझाते हुए हिंदू जीवन को फिर से हरा कर दिया। भगवान का हंसता खेलता रूप दिखाकर सूरदास ने हिंदू जाति की नैराश्यजनित खिन्नता हटाई जिससे जीवन में प्रफुल्लता आ गई। पीछे तुलसीदासजी ने भगवान का लोक-व्यापारव्यापी मंगलमय रूप दिखाकर आशा और शक्ति का अपूर्व संचार किया। अब हिंदू जाति निराश नहीं है। आचार्य शुक्ल इतने पर ही नहीं रुकते हैं वो आगे कहते हैं कि सूरदास की दिव्य वाणी का मंजु घोष घर-घर क्या, एक एक हिंदू के ह्रदय तक पहुंच गया। यही वाणी हिंदू जाति को नया जीवनदान दे सकती थी। इसके बाद वो तुलसी के रामचरित की जीवनव्यापकता पर आते हैं और कहते हैं कि राम के चरित से तुलसी की जो वाणी निकली उसने राजा, रंक, धनी, दरिद्र, मूर्ख, पंडित सबके ह्रदय और कंठ में बसा दिया। गोस्वामी जी ने समस्त हिंदू जीवन को राममय कर दिया।</p><p style="text-align: justify;">आचार्य शुक्ल ने सूफियों के ईश्वर को केवल अपने मन के भीतर समझने और ढूढ़ने की अवधारणा पर भी प्रहार किया। उन्होंने कहा कि भारतीय परपंरा का भक्त अपने उपास्य को बाहर लोक के बीच प्रतिष्ठित करके देखता है, अपने ह्रदय के कोने में नहीं। गोस्वामी जी भी ललकार कर कहते हैं कि भीतर ही क्यों देखें, बाहर क्यों न देखें- अन्तर्जामिहु तें बड़ बारहजामी हैं राम जो नाम लिए तें। पैज परे प्रह्लादहु को प्रगटे प्रभु पाहन तें, न हिए तें। वो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अगर भगवान को देखना है तो उन्हें व्यक्त जगत के संबंध से देखना चाहिए। वो यह मानते थे कि भगवान को मन के भीतर देखना योगमार्ग का सिद्धांत है भक्ति मार्ग का नहीं। सूफियों की इस अवधारणा के बाद गोस्वामी जी ने उपासना या भक्ति का केवल कर्म और ज्ञान के साथ ही सामंजस्य स्थापित नहीं किया, बल्कि भिन्न भिन्न उपास्य देवों के कारण जो जो भेद दिखाई पड़ते थे, उनका भी एक में पर्यवसान किया। इसी एक बात से ये अनुमान हो सकता है कि उनका प्रभाव हिंदू समाज की रक्षा के लिए ,उसके स्वरूप को रखने के लिए कितने महत्व का था। तुलसी के इस महत्व को बाद के दिनों में बहुत ही कम रेखांकित किया गया। आचार्य शुक्ल ने तुलसी के काव्य को लेकर इस प्रकार के जो विचार प्रस्तुत किए थे उसको भी दबाने का प्रयास किया गया। धर्म और जातीयता के समन्वय पर भी आचार्य शुक्ल ने विचार किया। उनका मानना था कि तुलसी ने अपने काव्य में जो रामरसायन तैयार किया जिसके सेवन से हिंदू जाति विदेशी मतों के आक्रमणों से बहुत कुछ रक्षित रही और अपने जातीय स्वरूप को दृढ़ता से पकड़े रही। उनका मानना था कि सारा हिंदू जीवन राममय हो गया था। वो तो यहां तक कह गए कि राम के बिना हिंदू जीवन नीरस है, फीका है, यही रामरस उनका स्वाद बनाए रहा और बनाए रहेगा। राम का मुंह देख हिंदी जनता का इतना बड़ा भाग अपने धर्म और जाति के घेरे में पड़ा रहा। न उसे तलवार हटा सकी, न धनमान का लोभ, न उपदेशों की तड़क भड़क। जिन राम को जनता जीवन के प्रत्येक स्थिति में देखती आई, उन्हें छोड़ना अपने प्रियजन को छोड़ने से कम कष्टकर न था। आचार्य शुक्ल ने बहुत बोल्ड तरीके से अपनी बात कही थी कि हमने चौड़ी मोहरी का पायजामा पहना, आदाब अर्ज किया पर राम-राम न छोड़ा। कोट पतलून पहनकर बाहर ‘डैम नानसेंस’ कहते हैं पर घर आते ही राम-राम।</p><p style="text-align: justify;">अब आते हैं बौद्धिक षडयंत्र पर जहां कि रामचंद्र शुक्ल के हिंदू मन को हिंदी पाठकों से छिपाने का प्रयत्न हुआ। यशपाल से लेकर प्रकाशचंद्र गुप्त तक ने शुक्ल जी को सामंतवाद का विरोधी और जनवादियों से सहानुभूति रखनेवाला बताया। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका बहुवचन के प्रवेशांक( अक्तूबर-दिसंबर 1999) में सुधीश पचौरी का एक लेख प्रकाशित हुआ था, रामचंद्र शुक्ल की धर्म भूमि। विखंडनवाद के औजारों से लैस होकर सुधीश पचौरी ने रामचंद्र शुक्ल को एक धार्मिक विमर्शकार करार दिया था। लेख जब आगे बढ़ता है तो वो शुक्ल जी को एक हिंदू विमर्शकार के रूप में रेखांकित करते हैं और कहते हैं कि वो एक हिंदू विमर्शकार हैं जो अपने समय के प्रतिबिंब तो हैं ही अपने समय को सत्ता विमर्श में बदलनेवाले भी हैं और हिंदी आलोचना अभी तक उनके विमर्श से बाहर नहीं निकली है। इस लेख में सुधीश पचौरी ने शुक्ल जी की आलोचना करते हुए उनको एकार्थवादी हिंदुत्व के औजार बनते देखते हैं। सुधीश पचौरी की स्थापनाओं पर तब काफी विवाद हुआ था। यह साहित्यिक विमर्श का विषय हो सकता है लेकिन शुक्ल जी ने जिस प्रकार से हिंदी आलोचना की अस्मिता को तुलसी और सूर के काव्य के माध्यम से राम और कृष्ण से जोड़ा वो उनके हिंदू मन को सामने लाता है। आचार्य शुक्ल ने उस हिंदू मन को पकड़ा और रेखांकित किया है जो अपने अतीत को याद रखते हुए अपनी ज्ञानदृष्टि को समायनुकूल बनाने में नहीं हिचकता है। शुक्ल जी ने जर्मन वैज्ञानिक हैकल की एक पुस्तक का अनुवाद किया था जो ‘विश्वप्रपंच’ के नाम से प्रकाशित है उसकी भूमिका में उनकी समयानुकूल दृष्टि दिखती है। अपनी परंपरा और जड़ों से जुड़े रहकर भी आधुनिक बने रहने की। कहना न होगा कि शुक्ल हिंदी आलोचना के ऐसे हिरामन हैं जिनकी वैश्विक दृष्टि ने भारतीय साहित्य को समृद्ध किया। जरूरत इस बात की है कि उनके हिंदू मन पर समग्रता में विमर्श हो। </p>अनंत विजयhttp://www.blogger.com/profile/04532945027526708213noreply@blogger.com2