Wednesday, December 29, 2010

बिनायक पर बवाल क्यों ?

छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने मानवाधिकार कार्यकर्ता और पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के उपाध्यक्ष बिनायक सेन को राजद्रोह के मामले में उम्र कैद की सजा सुनाई है । बिनायक सेन को यह सजा कट्टर नक्सलियों के साथ संबंध रखने और उनको सहयोग देने के आरोप साबित होने के बाद सुनाई गई है । अदालत द्वारा बिनायक सेन को उम्रकैद की सजा सुनाए जाने के बाद देशभर के मुट्ठी भर चुनिंदा वामपंथी लेखक बुद्धिजीवी आंदोलित हो उठे हैं । उन्हें लगता है कि न्यायपालिका ने बिनायक सेन को सजा सुनाकर बेहद गलत किया है और उसने राज्य की दमनकारी नीतियों का साथ दिया है । उन्हें यह भी लगता है कि यह विरोध की आवाज को कुचलने की एक साजिश है । बिनायक सेन को हुए सजा के खिलाफ वामपंथी छात्र संगठन से जुड़े विद्यार्थी और नक्सलियों के हमदर्द दर्जनों बुद्विजीवी दिल्ली के जंतर मंतर पर इकट्ठा हुए और जमकर नारेबाजी की । बेहद उत्तेजक और घृणा से लबरेज भाषण दिए गए । जंतर मंतर पर जिस तरह के भाषण दिए जा रहे थे वो बेहद आपत्तिजनक थे, वहां बार-बार यह दुहाई दी जा रही थी कि राज्य सत्ता विरोध की आवाज को दबा देती है और अघोषित आपातकाल का दौर चल रहा है । वहां मौजूद एक वामपंथी विचारक ने शंकर गुहा नियोगी और सफदर हाशमी की हत्या को सरकार-पूंजीपति गठजोड़ का नतीजा बताया । उनका तर्क था जब भी राज्य सत्ता के खिलाफ कोई आवाज अपना सिर उठाने लगती है तो सत्ता उसे खामोश करने का हर संभव प्रयास करता है । शंकर गुहा नियोगी और सफदर हाशमी की हत्या तो इन वामंपंथी लेखकों-विचारकों को याद रहती है, उसके खिलाफ डंडा-झंडा लेकर साल दर साल धरना प्रदर्शन विचार गोष्ठियां भी आयोजित होती है । लेकिन उसी साहिबाबाद में नवंबर में पैंतालीस साल के युवा मैनेजर की मजदूरों द्वारा पीट-पीट कर हत्या किए जाने के खिलाफ इन वामपंथियों ने एक भी शब्द नहीं बोला । मजदूरों द्वारा मैनेजर की सरेआम पीट-पीटकर नृशंस तरीके से हत्या पर इनमें से किसी ने भी मुंह खोलना गंवारा नहीं समझा । कोई धरना प्रदर्शन या बयान तक जारी नहीं हुआ क्योंकि मैनेजर तो पूंजीपतियों का नुमाइंदा होता है लिहाजा उसकी हत्या को गलत करार नहीं दिया जा सकता है । लेकिन हमारे देश के वामपंथी यह भूल जाते हैं कि गांधी के इस देश में हत्या और हिंसा को किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता है । शंकर गुहा नियोगी या सफदर की हत्या जिसकी पुरजोर निंदा की जानी चाहिए और दोषियों को किसी भी तीमत पर नहीं बख्शा जाना चाहिए लेकिन उतने ही पुरजोर तरीके से फैक्ट्री के मैनेजर की हत्या का भी विरोध होना चाहिए और उसके मुजरिमों को भी उतनी ही सजा मिलनी चाहिए जितनी नियोगी और सफदर के हत्यारे को । दो अलग-अलग हत्या के लिए दो अलग अलग मापदंड नहीं हो सकते ।
ठीक उसी तरह से अगर बिनायक सेन के कृत्य राजद्रोह की श्रेणी में आते हैं तो उन्हें इसकी सजा मिलनी ही चाहिए और अगर निचली अदालत से कुछ गलत हुआ है तो वो हाईकोर्ट या फिर सुप्रीम कोर्ट से निरस्त हो जाएगा। अदालतें सबूत और गवाहों के आधार पर फैसला करती हैं । आप अदालतों के फैसले की आलोचना तो कर सकते हैं लेकिन उन फैसलों को वापस लेने के लिए धरना प्रदर्शन करना घोर निंदनीय है । भारत के संविधान में न्याय की एक प्रक्रिया है – अगर निचली अदालत से किसी को सजा मिलती है तो उसके बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का विकल्प खुला है । अगर निचली अदालत में कुछ गलत हुआ है तो उपर की अदालत उसको हमेशा से सुधारती रही हैं । ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां निचली अदालत से मुजरिम बरी करार दिए गए हैं लेकिन उपरी अदालत उनको कसूरवार ठहराते हुए सजा मुकर्रर करती रही है । दिल्ली के चर्चित मट्टू हत्याकांड में आरोपा संतोष सिंह को निचली अदालत ने बरी कर दिया लेकिन उसे उपर की अदालत से जमा मिली । ठीक उसी तरह से निचली अदालत से दोषी करार दिए जाने के बाद भी कई मामलों में उपर की अदालत ने मुजरिमों को बरी किया हुआ है । लोकतंत्र में संविधान के मुताबिक एक तय प्रक्रिया है और संविधान और लोकतंत्र में आस्था रखनेवाले सभी जिम्मेदार नागरिक से उस तय संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करने की अपेक्षा की जाती है ।
बिनायक सेन के केस में भी उनके परिवारवालों ने हाईकोर्ट जाने का एलान कर दिया है लेकिन बावजूद इसके ये वामपंथी नेता और बुद्धिजीवी अदालत पर दवाब बनाने के मकसद से धरना प्रदर्शन और बयानबाजी कर रहे हैं । दरअसल इन वामपंथियों के साथ बड़ी दिक्कत यह है कि अगर कोई भी संस्था उनके मन मुताबिक चले तो वह संस्था आदर्श है लेकिन अगर उनके सिद्धांतों और चाहत के खिलाफ कुछ काम हो गया तो वह संस्था सीधे-सीधे सवालों के घेरे में आ जाती है । अदालतों के मामले में भी ऐसा ही हुआ है, जो फैसले इनके मन मुताबिक होते हैं उसमें न्याय प्रणाली में इनका विश्वास गहरा जाता है लेकिन जहां भी उनके अनुरूप फैसले नहीं होते हैं वहीं न्याय प्रणाली संदिग्ध हो जाती है । रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद के पहले यही वामपंथी नेता कहा करते थे कि कोर्ट को फैसला करने दीजिए वहां से जो तय हो जाए वो सबको मान्य होना चाहिए । लेकिन जब इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला उनके मनमुताबिक नहीं आया तो अदालत की मंशा संदिग्ध हो गई । इस तरह के दोहरे मानदंड नहीं चल सकते । अगर हम वामपंथ के इतिहास को देखें तो उनकी भारतीय गणतंत्र और संविधान में आस्था हमेशा से शक के दायरे में रही है । जब भारत को आजादी मिली तो उसे शर्म करार देते हुए उसे महज गोरे बुर्जुआ के हाथों से काले बुर्जुआ के बीच शक्ति हस्तांतरण बताया था । यह भी ऐतिहासितक तथ्य़ है कि सीपीआई ने फरवरी उन्नीस सौ अडतालीस में नवजात राष्ट्र भारत के खिलाफ हथियारबंद विद्रोह शुरू किया था और उसपर काबू पाने में तकरीबन तीन साल लगे थे और वो भी रूस के शासक स्टालिन के हस्तक्षेप के बाद ही संभव हो पाया था । उन्नीस सौ पचास में सीपीआई ने संसदीय वयवस्था में आस्था जताते हुए आम चुनाव में हिस्सा लिया लेकिन साठ के दशक के शुरुआत में पार्टी दो फाड़ हो गई और सीपीएम का गठन हुआ । सीपीएम हमेशा से रूस के साथ-साथ चीन को भी अपना रहनुमा मानता था । तकरीबन एक दशक बाद सीपीएम भी टूटा और माओवादी के नाम से एक नया धड़ा सामने आया । सीपीएम तो सिस्टम में बना रहा लेकिन माओवादियों ने सशस्त्र क्रांति के जरिए भारतीय गणतंत्र को उखाड़ फेंकने का एलान कर दिया था । विचारधारा के अलावा भी वो वो हर चीज के लिए चीन का मुंह देखते थे । माओवादी में यकीन रखनेवालों का एक नारा उस वक्त काफी मशहूर हुआ था – चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन । माओवादी नक्सली अब भी सशस्त्र क्रांति के माध्यम से भारतीय गणतंत्र को उखाड़ फेंकने की मंशा पाले बैठे हैं । क्या उस विचारधारा को समर्थन देना राजद्रोह नहीं है । नक्सलियों के हमदर्द हमेशा से यह तर्क देते हैं कि वो हिंसा का विरोध करते हैं लेकिन साथ ही वो यह जोड़ना नहीं भूलते कि हिंसा के पीछे राज्य की वो दमनकारी नीतियां हैं । देश में हो रही हिंसा का खुलकर विरोध करने के बजाए नक्सलियों को हर तरह से समर्थन देना कितना जायज है इसपर राष्ट्रव्यापी बहस होनी चाहिए । एंटोनी पैरेल ने ठीक कहा है कि – भारत के मार्क्सवादी पहले भी और अब भी भारत को मार्क्सवाद के तर्ज पर बदलना चाहते हैं लेकिन वो मार्क्सवाद में भारतीयता के हिसाब से बदलाव नहीं चाहते हैं । एंटोनी के इस कथन से यह साफ हो जाता है कि यही भारत में मार्क्स के चेलों की सबसे बड़ी कमजोरी है ।
बिनायक सेन अगर बकसूर हैं तो अदालत सो वो बरी हो जाएंगे लेकिन अगर कसूरवार हैं तो उन्हें सजा अवश्य मिलेगी । देश के तमाम बुद्दजीवियों को अगर देश के संविधान और कानून में आस्था है तो उनको धैर्य रखना चाहिए और न्यायिक प्रक्रिया पर दवाब बनाने के लिए किए जा रहे धरने प्रदर्शन को तत्काल रोका जाना चाहिए ।

Saturday, December 25, 2010

सदियों का सफरनामा

तकरीबन चार साल पहले की बात है एक किताब आई थी - भारतीय डाक सदियों का सफरनामा लेखक थे अरविंद कुमार सिंह । डाक भवन दिल्ली के सभागार में किताब के विमोचन समारोह में भी शामिल हुआ था । यह किताब नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई थी और उस वक्त ट्रस्ट की कर्ताधर्ता पुलिस अधिकारी नुजहत हसन थी । बात आई गई हो गई । मैनें किताब को बगैर देखे सुने रख दिया था । कई बार इस किताब की चर्चा सुनी-पढ़ी । लेकिन अभी दो मजेदार वाकया हुआ जिसके बाद डाकिया,उसके मनोविज्ञान और डाक विभाग को जानने की इच्छा हुई । हुआ यह कि मैं पिछले दिनों अपनी सोसाइटी में खुले डाकघर में गया और वहां काउंटर पर बैठे सज्जन से कहा कि मुझे पचास पोस्टकार्ड दे दाजिए तो पहले तो उसने हैरत से मेरी ओर देखा और फिर दोहराया कि कितने पोस्टकार्ड चाहिए । मैंने फिर से उसे कहा कि पचास दे दीजिए । इसके बाद उन्होंने अपनी दराज खोलकर कार्ड गिनने शुरू कर दिए, लेकिन बीच बीच में वो मेरी ओर देख रहे थे । पोस्टकार्ड मुझे सौंपने और पैसे लेने के बीच में उस सज्जन की आंखों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे जो पैसे वापस करते समय उन्होंने मुझसे पूछ ही लिए । उन्होंने कहा कि आप इतने पोस्टकार्ड का क्या करेंगे - जबतक मैं कुछ बोलता तबतक उन्होंने खुद ही जबाव दे दिया कि शायद आप कोई मार्केटिंग कंपनी चलाते हैं और अपने ग्राहकों को किसी उत्पाद के बारे में जानकारी देना चाहते हैं और पोस्टकार्ड से सस्ता और सुरक्षित माध्यम कुछ और हो नहीं सकता । मैं उनके अनुमान को गलत साबित नहीं करना चाहता था इस वजह से मुस्कुराता हुआ डाकघर से निकल गया ।
दरअसल मैं पोस्टकार्ड का इस्तेमाल छोटे पत्र लिखने में करता हूं । संचार के इस आधुनिक दौर में मेरा अब भी मानना है कि पत्र का स्थान फोन, एसएमएस या फिर ईमेल भी नहीं ले सकते । पत्रों का अपना एक महत्व होता है जिसे पढ़ते वक्त आप पत्र लिखनेवाले की भावनाओं को महसूस कर सकते हैं । मुझे अब भी याद आता है कि जब मैं अपने गांव वलिपुर में रहा करता था तो हर दिन नियम से सुबह-सुबह डाकघर जाता था । तकरीबन बीस साल पहले की बात है उस वक्त लैंडलाइन फोन ने बस, मेरे घर में कदम ही रखा था लेकिन एसटीडी रेट इतने ज्यादा थे कि फोन पर बात नहीं हो सकती थी । हमारे घरों में फोन को लॉक करके रखा जाता था और रात ग्यारह बजने का इंतजार किया जाता था क्योंकि उस वक्त रात ग्यारह बजे के बाद एसटीडी की दरें काफी कम हो जाती थी । उस दौर में डाक लानेवाला डाकिया मेरे लिए पूरी दुनिया से जुड़ने और उसके जानने समझने का एकलौता माध्यम था । इस वजह से डाकिया हमारे समाज का हमारे इलाके का एक अहम वयक्ति होता था । मेरे साहित्यिक मित्र और प्रकाशक काफी पत्र-पत्रिकाएं भेजते थे इस वजह से हर रोज मेरे तीन चार पत्र होते ही थे । कभी कभार डाकिया इस बात से खफा भी होता था कि सिर्फ मेरे तीन पत्र की वजह से उसे तीन-चार किलोमीटर सायकल चलाना पड़ता है लेकिन बाद के दिनों में मैंने उससे दोस्ती कर ली थी । इसके दो फायदे हुए एक तो मेरे पत्र सुरक्षित मिल जाते थे और दूसरे वो पुस्तकों के वीपीपी आदि भी घर तक ले आते थे ।
दूसरा वकया भी डाकिया से ही जुडा़ है । मैं जब भी कहीं लंबे समय के लिए बाहर जाता हूं तो यह वयवस्था करके जाता हूं कि मेरी डाक मेरे अस्थायी पते पर रिडायरेक्ट कर दी जाएं । इस बार यह हुआ कि मैं कीं बाहर गया था । जब लौटकर आया तो महीने भर से कोई डाक नहीं आने पर मेरा माथा ठनका । मैं अपने पास के डाकघर में पहुंचा और पोस्टमास्टर से शिकायत की तो उन्होंने मेरे इलाके के डाकिया को बुलाया और पूछताछ की तो डाकिया ने बेहद मासूमियत से जबाव दिया कि इनकी डाक तो रिडायरेक्ट हो रही थी तो मैंने सोचा कि ये यहां से चले गए हैं सो अब मैं ही इनकी डाक को उसी पते पर रिडायरेक्ट कर देता हूं । डाकिया का यह जबाव इतना मासूमियत भरा और अपनापन लिए था कि मैं कुछ कह नहीं पाया और उन्हें वस्तुस्थिति बताकर डाकघर से बाहर निकल आया । आज के इस भागमभाग के दौर में कौन इतना ध्यान रखता है कि अमुक वयक्ति को इस पते पर डाक रिडायरेक्ट होना है । कूरियर के बढ़ते चलने वाले इस दौर में निजी कंपनियों से आप ये अपेक्षा कर हरी नहीं सकते । दोनों वाकयों से संबंधित अलग-अलग अध्याय इस किताब में हैं- भारतीय पोस्टकार्ड और सरकारी वर्दी में सबका चहेता ।
इन दोनों वाकयों के बाद मैंने अरविंद सिंह की किताब निकाली और उसको पढ़ना शुरू किया । सदियों के सफरनामा में डाक विभाग से जुड़ी हर छोटी बड़ी और रोचक जानकारियां मौजूद हैं । जैसै कि हम डाक बंगला का नाम हमेशा से सुनके रहे हैं , कई बार उन डाक बंगलों में रुकने और रहने का मौका भी मिला है लेकिन यह नहीं सोचा कि इसको जाक बंगला क्यों कहते हैं । अरविंद सिंह ने अपनी इस किताब में यह बताया है कि क्यों इन सरकारी गेस्ट हाउसों को डाक बंगला कहा जाता है- इसका उद्भव डाकविभाग के लिए हुआ था । सड़कों के किनारे उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दिनों तक होटल या सरया नाममात्र की थी । इसी नाते डाक बंगले और विश्राम गृह बनाए गए । ये सरकारी नियंत्रण में थे और वहां पर खिदमतगार चौकीदार और पोर्टर सेवा में उपलब्ध रहते थे.....लॉर्ड डलहौजी के जमाने में कई और डाक बंगले बने । डाक बंगले पुरानी डाक चौकियों के ही उन्नत रूप थे । सन 1863-64 तक डाकविभाग के हाथों में ही इन डाक बंगलों का प्रबंध रहा । इस वर्ष ही डाक विभाग ने डाक बंगलों से मुक्ति पा ली । अरविंद ने इस प्रणाली के बारे में प्रसिद्ध लेखक चेखव की चर्चित कहानी ट्रेवलिंग विथ मेल के जरिए रूस में इस तरह की वयवस्था का उदाहरण दिया है । इस तरह की कई रोचक जानकारियों के अलावा डाक विभाग और डाकिया के बारे में कई शोधपरक जानकारियां भी पेश की गई हैं । मसलन स्वतंत्रता संग्राम में डाक विभाग और डाकियों की भूमिका पर एरक पूरा अध्याय है । 1857 की क्रांति के वक्त उत्तर प्रदेश में आंदोलनकारियों के 8 हरकारों को गिरफ्तार कर फांसी पर चढ़ा दिया गया था । इस तरह की कई घटनाएं इस किताब में दर्ज हैं जो अबतक या तो अछूती रही हैं या फिर बेहतर तरीके से रेखांकित नहीं हो पाई । इस किताब में डाक विभाग के एक ऐसे महकमे का उल्लेख भी है जो हर साल तकरीबन ढाई करोड़ ऐसे पत्रों को गंतव्य तक पहुंचाता है जिनपर या तो पता लिखा ही नहीं होता है या फिर ऐसा पता लिखा होता है जिसे इलाके के चप्पे-चप्पे से वाकिफ डाकिया भी नहीं ढूंढ पाता है । इस विभाग रिटर्न लेटर ऑफिस कहा जाता है । इसके अलावा डाक विभाग की उन ऐतिहासिकत इमारतों के चित्र और रोचक विवरण भी इस किताब में है जिन्हें हम देखते तो हैं पर इस बात का एहसास तक नहीं होता है कि वो कितनी अहम इमारतें हैं ।
अरविंद सिंह ने बेहद श्रमपूर्वक शोध के बाद यह पुस्तक लिखी है । इसके पहले डाक विभाग पर कुछ छिटपुट किताबें आई हैं । मुल्कराज आनंद ने अंग्रेजी में एक किताब लिखी थी- स्टोरी ऑफ द इंडियन पोस्ट ऑफिस । लेकिन अरविंद सिंह की किताब मुल्कराज आनंद की किताब से बहुत आगे जाती है । इस वजह से अरविंद की किताब को प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी मूल्यवान मानती हैं । मुझे तो यह किताब इस लिहाज से अहम लगी कि कि यह एक ऐसे महकमे के इतिहास का दस्तावेजीकरण है जो दशकों से हमारे जीवन और समाज का ना केवल अंग रहा है बल्कि हमें गहरे तक प्रभावित भी करता रहा है । नेशनल बुक ट्रस्ट ने इस किताब को हिंदी के अलावा अंग्रेजी,उर्दू और असमिया में भी प्रकाशित कर बड़ा काम किया है । अभी अभी अरविंद सिंह की नई किताब - डाक टिकटों पर भारत दर्शन - भी नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापी है । यह भी अपनी तरह की एक अनूठी और कह सकते हैं कि हिंदी में पहली किताब है । यह बात संतोष देती है कि हिंदी में भी इन विषयों पर काम शुरू हो गया है ।

Wednesday, December 22, 2010

लीक ने उतारा मुखौटा

इस बात के पर्याप्त सबूत हैं रहे हैं कि भारत के मुस्लिम समुदाय में कुछ तत्व ऐसे हैं, जिनको लश्कर ए तोयबा का समर्थन हासिल है। लेकिन ज्यादा बडा़ खतरा कट्टरपंथी हिंदू संगठनों का हो सकता है । ये संगठन मुस्लिम समुदाय से धार्मिक तनाव और राजनीतिक कट्टरता पैदा करते हैं । ये कथित बातें कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने अमेरिकी राजदूत टिमोथी रोमर को 20 जुलाई 2009 को कहा । दरअसल ये कथित बातचीत रोमर और राहुल के बीच तब हुई जब अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत आई हुई थी और प्रधानमंत्री ने उनके सम्मान में दावत दी थी । उस दावत में जब रोमर ने राहुल से लश्कर की गतिविधियों और भारत पर आसन्न खतरे के बारे में पूछा तब राहुल गांधी ने उनसे यह बातें कही थी । दोनों के बीच की बातचीत भारत अमेरिका डिप्लोमैटिक संदेशों में दर्ज है । जिसका खुलासा विकिलीक्स ने किया है । जाहिर सी बात है कि इस खुलासे के बाद देशभर में बहस छिड़ गई । बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राहुल गांधी के इस बयान को बचकाना करार दिया । लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि जिस वयक्ति में कांग्रेस देश का भविष्य़ देख रही है, जिस वयक्ति को देश के सर्वोच्च पद के लिए तैयार किया जा रहा है, वो शख्स इतनी हल्की बातें कैसे कर सकता है । हल्की इसलिए कि एक ओर जहां भारत आतंकवाद से जूझ रहा है और पूरे विश्व में आतंकवाद और उसके आका पाकिस्तान के खिलाफ माहौल बनाने में जुटा है, वहीं देश पर शासन करनेवाली पार्टी का एक अहम नेता हिंदू कट्टरपंथियों को लश्कर से बड़ा खतरा बता रहा है । क्या ये मान लिया जाए कि राहुल गांधी विश्व के सबसे खूंखार आतंकी संगठन लश्कर-ए-तोयबा से अंजान हैं, क्या यह भी मान लिया जाए कि राहुल गांधी संयुक्त राष्ट्र संघ के उस प्रस्ताव से भी अंजान हैं जिसमें लश्कर को आतंकी संगठन घोषित कर विश्व मानवता के लिए खतरा बताते हुए उसपर पाबंदी लगा दी गई है। जिसके बाद से लश्कर ने अपना नाम बदल लिया । क्या यह भी मान लिया जाए कि मुंबई हमले के बाद भारत सरकार ने पाकिस्तान को जो तमाम डॉजियर सौंपे थे उसकी जानकारी भी राहुल गांधी को नहीं है । क्या यह भी मान लिया जाए कि राहुल गांधी को लश्कर के खिलाफ भारत के मुहिम की जानकारी नहीं थी । यह संभव ही नहीं है कि इन सारी बातों से राहुल गांधी अनजान हों ।
दरअसल कांग्रेस पार्टी देश की अल्पसंख्यक आबादी की तुष्टीकरण के लिए किसी भी हद तक जा सकती है । कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं पर बारीकी से नजर रखनेवालों का मानना है कि वोट बैंक की राजनीति के लिए कांग्रेस का एक तबका इस तरह के बयानबाजी करता रहता रहता है । 26/11 के मुंबई हमलों के बाद उस वक्त केंद्र में मंत्री और किसी जमाने में महाराष्ट्र के कद्दावर नेता ए आर अंतुले ने एटीएस चीफ हेमंत करकरे की शहादत पर सवाल खड़े किए थे । अंतुले ने कहा था कि हेमंत करकरे की मौत को संदेहास्पद करार दिया था और साथ ही यह भी जोडा़ ता कि मालेगांव धमाकों की जांच कर रहे थे । इशारों-इशारों में उन्होंने करकरे की शहादत को मालेगांव धमाके की जांच से जोड़ दिया था । उस वक्त पूरा राष्ट्र मुंबई हमले के जख्मों को झेल रहा था, लिहाजा अंतुले के बयान की चौतरफा आलोचना शुरू हो गई । पाकिस्तानी मीडिया ने भी इसे खूब प्रचारित करना शुरू कर दिया । दबाव बढ़ता देखकर कांग्रेस ने उस बयान से पल्ला झाड़ लिया और बाद में अंतुले को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा । उस वक्त का अंतुले का बयान भी अल्पसंख्यकों को ध्यान में रखते हुए किया गया था । अभी हाल ही में विकिलीक्स ने इस बात का खुलासा भी किया था कैसे दो हजार चार के आमचुनाव में कांग्रेस ने मुंबई हमलों को भुनाने की कोशिश की थी । कुछ दिनों पहले देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भी भगवा आतंक का जुमला फेंककर एक बहस को जन्म देने की कोशिश की थी । जब उनके बयान पर बवाल शुरु हुआ तो कांग्रेस ने उसको उनकी वयक्तिगत राय करार दे दिया ।
अब कुछ दिनों पहले पार्टी में खुद को अल्पसंख्यकों का पैरोकार मानने वाले कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी यह कहकर सनसनी फैला दी कि अपनी मौत के चंद घंटे पहले करकरे ने उन्हें फोन कर यह बताया था कि वो हिंदू संगठनों से मिल रही धमकियों से परेशान हैं । दिग्विजय सिंह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं सो उनकी बात को मीडिया में खासी तवज्जों मिली । लेकिन बाद में कुछ अखबारों ने करकरे की कॉल डिटेल छापकर दिग्विजय के बयान को संदेहास्पद बना दिया । बाद में महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर आर पाटिल ने भी दिग्विजय के बयान की हवा निकाल दी । पाटिल ने कहा कि महकमे के पास कोई ऐसा रिकॉर्ड नहीं है जिससे दिग्विजय और करकरे के बीच की बातचीत की पुष्टि होती हो । यहां एक बार फिर सवाल खड़ा होता है कि अगर उस वक्त करकरे ने दिग्विजय सिंह से अपनी जान का खतरा बताया था तो दिग्गी राजा दो साल तक चुप्पी क्यों साधे रहे । देश यह जानना चाहता है करकरे की आशंका के मद्देनजर दिग्विजय खामोश क्यों रहे । दरअसल ये संदेहास्पद खामोशी कांग्रेस की सियासत का हिस्सा है । दिग्विजय सिंह पहले भी इस तरह की खामोशी साधते रहे हैं । दिल्ली कते बटला हाउस एनकाउंटर के डेढ साल बाद उनको अचानक से इलहाम होता है कि वो एनकाउंटर फर्जी था । दिग्विजय को इस ज्ञान की प्राप्ति आजमगढ़ के संजरपुर में होती है । जहां वो कहते हैं कि उन्होंने बटला हाउस एनकाउंटर के फोटोग्राफ्स देखे हैं जिनमें आतंकवादियों के सर में गोली लगी है । उनके मुताबिक दहशतगर्दों के खिलाफ एनकाउंटर में इस तरह से गोली लगना नामुमकिन है । जाहिर है इशारा और इरादा दोनों साफ था । अदालत और सरकारी जांच में ये सही साबित हुए मुठभेड़ पर सवाल खड़ा कर दिग्विजय क्या हासिल करना चाह रहे थे, यह आईने की तरह साफ था । उस वक्त भी कांग्रेस ने उनके इस बयान को उनकी वयक्तिगत राय बताकर पल्ला झाड लिया था ।
कुछ दिनों पहले राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की तुलना प्रतिबंधित संगठन सिमी से कर दी थी । सिमी और संघ की तुलना करने के अलावा राहुल कोई ठोस सबूत या तर्क अपने इस बयान के समर्थन में पेश नहीं कर पाए । राहुल गांधी अगर अपने इस बयान को लेकर गंभीर थे तो उन्हें अपनी सरकार पर दबाव डालना चाहिए था कि संघ के खिलाफ कार्रवाई करें । लेकिन उस बयान की मंशा किसी तरह की कार्रवाई या देश के प्रति चिंता नहीं बल्कि सिर्फ राजनीतिक फायदा था । अगर हम अंतुले, चिदंबरम और फिर दिग्विजय सिंह के बयानों से राहुल गांधी के बयान को जोड़कर देखें तो एक महीन सी रेखा नजर आती है जिससे एक ऐसी राजनीति की तस्वीर बनती है जहां एक खास समुदाय के वोटरों को लुभाने के लिए खाका तैयार किया जा रहा है । जाहिर सी बात है कि उसके केंद्र में उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव है । बिहार की जनता ने राहुल गांधी के करिश्मे पर पानी फेर दिया । राहुल के ताबड़तोड़ दौरे और यूथ ब्रिगेड को वहां उतारने का भी कोई नतीजा नहीं निकला और पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले वहां पार्टी को आधी सीटें मिली । अब चुनौती उत्तर प्रदेश में अपनी साख और सीट दोनों बचाने की है । लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को उम्मीद से ज्यादा सीटें मिल गई थी । अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को ठीक-ठाक सीटें नहीं मिल पाती हैं तो राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल खडे़ होने शुरू हो जाएंगे क्योंकि राहुल गांधी और उनके रणनीतिकारों ने उत्तर प्रदेश को राहुल गांधी की प्रयोगशाला के तौर पर प्रचारित किया हुआ है ।

Monday, December 20, 2010

उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी पुरस्कार

खबरों के मुताबिक इस बार का साहित्य अकादमी पुरस्कार हिंदी के यशस्वी कथाकार उदय प्रकाश को देना तय हो गया है । दो दिनों पहले हुई तीन सदस्यीय जूरी की बैठक में दो-एक से उदय प्रकाश के पक्ष में फैसला हो गया । इस बार हिंदी की जूरी में अशोक वाजपेयी, मैनेजर पांडे और चित्रा मुदगल थी । सूत्रों के मुताबिक बैठक में अशोक वाजपेयी ने उदय प्रकाश के नाम का प्रस्ताव किया जिसका मैनेजर पांडे ने विरोध किया । उसके बाद मैनेजर पांडे से उनकी राय पूछी गई तो उन्होंने मैत्रेयी पुष्पा का नाम लिया । मैत्रेयी पुष्पा का नाम आते ही चित्रा मुदगल ने अशोक वाजपेयी की बात मान ली और फिर दो के मुकाबले एक से उदय प्रकाश को पुरस्कार देना तय हो गया । उदय प्रकाश को पुरस्कार दिलवाने में अशोक वाजपेयी की महती भूमिका रही । उदय प्रकाश ने पूर्व में अशोक वाजपेयी की तमाम आलोचनाएं की थी । लेकिन पिछले दिनों दोनों के समीकरण ठीक होने लगे थे । उदय प्रकाश साहित्य अकादमी पुरस्कार डिजर्व करते हैं लेकिन जिस तरह से घेरेबंदी कर अशोक वाजपेयी ने उनको पुरस्कार दिलवाया उससे एक बार फिर से साहित्य अकादमी की कार्यशैली संदेह के घेरे में आ गई है । इस बारे में जैसे-जैेस और जानकारी मिलेगी उसको मैं पोस्ट करूंगा ।

Saturday, December 11, 2010

टोनी ब्लेयर की जर्नी

टोनी ब्लेयर ब्रिटेन के पहले ऐसे राजनेता थे जो बगैर किसी सरकारी अनुभव के सीधे प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हुए थे । वह ब्रिटेन के लंबे लोकतांत्रिक इतिहास के दूसरे प्रधानमंत्री थे जिनके नेतृत्व में पार्टी ने आमचुनाव में लगातार तीसरी बार जीत हासिल की थी । इसके पहले ये गौरव सिर्फ मारग्रेट थैचर को मिला था । विश्व युद्ध के बाद लेबर पार्टी के नौ नेताओं में सिर्फ तीन ने आमचुनाव में जीत हासिल की उसमें से भी टोनी ब्लेयर एक हैं । ब्रिटेन के राजनीतिक पंडित लेबर पार्टी में आमूलचूल बदलाव और सुधारों का श्रेय भी युवा टोनी ब्लेयर को ही देते हैं । उनके मुताबिक एक ऐसी पार्टी जिसी साख लगातार गिरती जा रही थी और जो मार्क्सवाद के हैंगओवर से जूझ रही थी, उसमें ब्लेयर ने नई जान फूंकी और उसे आधुनिक यूरोपीय विचारधाऱा के अनुरूप ढालने की ना केवल कोशिश की बल्कि उसमें सफलता भी पाई । टोनी के इस प्रयास को लोगों के समर्थन से बल भी मिला । इसके अलावा टोनी ने ब्रिटेन की अंतराष्ट्रीय नीतियों में भी काफी बदलाव किए । इराक पर अमेरिका का साथ देने से लेकर अंतराष्ट्रीय निशस्त्रीकरण के ब्रिटेन के भावुकता भरे पुराने स्टैंड को बदलकर एक ऐसा स्वरूप दिया जो ज्यादा देशों को स्वीकार्य हो सकता था । टोनी ब्लेयर ने 1994 में लेबर पार्टी की कमान संभाली और तीन साल के अंदर पार्टी में जो बदलाव किया उसको लेकर वहां की जनता में एक उम्मीद जगी और 1997 में ब्लेयर को अपार जनसमर्थन मिला जो ब्रिटेन के इतिहास में अभूतपू्र्व था । इसने वहां 18 साल के कंजरवेटिव पार्टी के शासन का अंत कर दिया ।
इसलिए जब टोनी ब्लेयर ने अपनी आत्मकथा लिखने का ऐलान किया तो बताया जाता है कि प्रकाशक ने उन्हें बतौर अग्रिम राशि पांच मिलियन पौंड की राशि दी । इतनी बड़ी अग्रिम राशि इस वर्ष के प्रकाशन जगत की प्रमुख घटना थी । इसके बाद जब टोनी ब्लेयर की आत्मकथा - अ जर्नी -प्रकाशित हुई तो पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया और प्रकाशन के चार हफ्तों के अंदर उसके छह रिप्रिंट करने पड़े और देखते देखते एक लाख से ज्यादा प्रतियां बिक गई । लेकिन यहां एक बात गौर करने की है कि इस किताब के छपने से पहले उत्सुकता का एक वातावरण तैयार किया गया और प्रकाशक या फिर लेखक के रणनीतिकारों ने इस आत्मकथा के रसभरे प्रसंगों के चुनिंदा अंश लीक किए वह भी जोरदार बिक्री का आधार बना । टोनी ब्लेयर को केंद्र में रखकर पहले भी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं । टोनी की पत्नी चेरी ब्लेयर की आत्मकथा तो पूरे तौर पर टोनी के इर्द-गिर्द ही घूमती है और उनकी जिंदगी के कई अनछुए पहलुओं को उद्गाटित करती है । इसके अलावा उनके सहयोगी एल्सटर कैंपबेल की भी किताब आई । उनके दूसरे सहयोगी पीटर मैंडलसन की किताब - द थर्ड मैन, लाइफ एट द हर्ट ऑफ न्यू लेबर - तो कई हफ्तों तक ब्रिटेन के बेस्ट सेलर की सूची में शीर्ष पर रहकर लोकप्रियता और चर्चा दोनों हासिल कर चुका था । सिर्फ राजनीतिक ही नहीं बल्कि टोनी और चेरी के वयक्तिगत और अंतरंग संबंधों का भी पहले खुलासा हो चुका है । जब चेरी और टोनी क्वीन के स्कॉटिश कैसल, बालमोर में छुट्टियां बिताने जा रहे थे तो चेरी वहां गर्भ निरोधक नहीं ले जा सकी क्योंकि उसे इस बात की शर्मिंदगी थी नौकर-चाकर इस तरह की चीजें उसके सामान में कैसे रखेंगे । नतीजा यह हुआ कि बालमोर में चेरी के गर्भ में उनकी चौथी संतान आ गई । इस तरह के कई और प्रसंग पहले से ज्ञात हैं लेकिन टोनी के रणनीतिकारों ने इस किताब को इस तरह से प्रचारित किया कि बाजार ने उसे हाथों-हाथ लिया । हिंदी के लेखकों और प्रकाशकों को इससे सीख लेनी चाहिए ।
तकरीबन सात सौ पन्नों की इस आत्मकथा में टोनी ने अपनी राजनीति में प्रवेश से लेकर अपने समकालीन विश्व राजनेताओं के साथ अपने संबंधों का भी खुलासा किया है । इसके अलावा टोनी ने एक पूरा अध्याय ब्रिटेन की अपू्रव सुंदरी प्रिंसेस डायना पर भी लिखा है । डायना पर लिखे अध्याय में टोनी ने कहा है कि डायना बेहद आकर्षक थी । टोनी ने खुद को डायना का जबरदस्त प्रशंसक बताया है । इस अध्याय में टोनी और डायना की साथ की गई भारत(कोलकाता), सउदी अरब, इटली आदि की यात्रा का उल्लेख भी है । टोनी लिखते हैं- डायना एक आयकॉन थी और संभवत विश्व की सबसे ज्यादा प्रसिद्ध महिला थी जिसके सबसे ज्यादा फोटोग्राफ खींचे गए थे । वह अपने समय की एक ऐसी खूबसबरत महिला थी जो अपने संपर्क में आनेवाले लोगों पर अपने वयक्तित्व की अमिट छाप छोड़ती थी । पेरिस में सड़क हादसे में डायना की मृत्यु के बाद देश में उपजे हालात और अपनी मनस्थिति का भी विवरण पेश किया है । दरअसल टोनी ने अपनी इस आत्मकथा को कालक्रम के हिसाब से नहीं लिखा है, उन्होंने हर अध्याय को एक थीम दिया है, नतीजा यह हुआ कि पूरे किताब में एक भ्रम की स्थिति बनती नजर आती है । सांप-सीढ़ी के खेल की तरह संस्मरण भी भटकती नजर आती है । इसके अलावा टोनी की जो भाषा है वह भी आकर्षक नहीं है । सामान्य बोलचाल की भाषा को उठाकर टोनी ने लिख दिया है इसको लेकर पश्चिम के विद्वानों ने उनकी खूब लानत-मलामत की है । चार्ल्स मूर ने कहा कि यह किताब बेहद अनाकर्षक ढंग से लिखी गई है । उसमें ऐसे वाक्यों की भरमार है जिसमें अंग्रेजी के सामान्य व्याकरण का भी पालन नहीं करती है । ऐसे जुमलों का का प्रयोग किया गया है जो सुनने में तो बेहतर लगते हैं लेकिन छपकर बेहद हास्यास्पद ।
टोनी ब्लेयर और उनके सहयोगी गॉर्जन ब्राउन के बीच के संबंधों को लेकर बहुत ज्यादा लिखा और कहा जा चुका है । अपने और अपने सहयोगी के बीच के संबंधों पर टोनी ने विस्तार से प्रकाश डाला है और कहीं-कहीं दकियानूसी कहकर ब्राउन का मजाक भी उड़ाया है । टोनी के कार्यकाल में उनका सबसे विवादास्पद निर्णय रहा इराक पर हमले के लिए अमेरिका के नेतृत्व वाले 34 देशों के गठबंधन को समर्थन देना । टोनी ब्लेयर के लिए इस गठबंधन से दूर रहना आसान था । उस वक्त के अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने टोनी को कहा भी था कि वो लंदन की मजबूरी समझ सकते हैं । टोनी ब्लेयर के सामने अपने पू्र्ववर्ती प्रधानमंत्री हेरॉल्ड विल्सन का उदाहरण भी था जिसने 1964 में वियतनाम युद्ध में अमेरिका को ब्रिटेन का समर्थन देने से इंकार कर दिया था । लेकिन ब्लेयर ने लिखा है कि उन्हें यह लगा कि इराक में बाथ पार्टी की ज्यादतियों का अंत होना चाहिए इस वजह से उन्होंने अमेरिका का समर्थन किया । इस किताब के बाद टोनी के कई आलोचकों ने उनपर जमकर हमले किए । उनका तर्क है कि जब ब्रिटेन के इराक पर हमले में अमेरिका का साथ देने की जांच की जा रही हो तो इस बीच उन स्थितियों के खुलासे का कोई अर्थ नहीं है ।
इस किताब के आखिरी पन्नों पर ब्लेयर ने लिखा है - मेरी हमेशा से राजनीति की तुलना में धर्म में ज्यादा रुचि रही है । इस एक वाक्य के अलावा इस पूरी किताब में धर्म या फिर धर्म के बारे में ब्रिटेन के पू्र्व प्रधानमंत्री ने ना तो कुछ लिखा है और ना ही यह बताया है कि उनके हर दिन के फैसलों और बड़े रणनीतिक निर्णयों को धर्म कैसे प्रभावित करता है । जो वयक्ति यह कह रहा हो कि उसकी धर्म में राजनीति से ज्यादा रुचि हो उसकी जीवन यात्रा में धर्म का उल्लेख ना मिलना हैरान करनेवाला है । इसी तरह से टोनी ने अपनी इस किताब में तेरह जगहों पर भारत का उल्लेख किया है लेकिन कहीं भी गंभीरता से कुछ भी नहीं लिखा है, लगता है कि टोनी के एजेंडे पर भारत था ही नहीं । लेकिन जहां लोकतंत्र और लोकतांत्रिक परंपराओं की बात आती हो तो टोनी भारत का उदाहरण देते हुए कहते हैं - लोकतंत्र सबसे बेहतर शासन पद्धति है और भारत का इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है जहां सर्वोत्तम रूप से लोकतंत्र कायम है । इस तरह की टिप्पणियों से टोनी ब्लेयर की जर्नी की गंभीरता खत्म होती है । पूरी किताब को पढ़ने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि टोनी ब्लेयर की यह आत्मकथा दरअसल ब्रिटेन के उनके प्रधानमंत्रित्व काल का दस्तावेजीकरण है । लेकिन इस दस्तावेज में टोनी ब्लेयर ने अपने राजनीतिक बदमाशियों का जो जिक्र किया है उसकी वजह से इस भारी भरकम किताब में थोड़ी रोचकता और पठनीयता बनी रहती है ।