Saturday, January 28, 2012

तुष्टीकरण का खतरनाक खेल

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आखिरकार विवादास्पद लेखक सलमान रश्दी को नहीं आने दिया गया और राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने चंद कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक दिए । बात यहीं खत्म नहीं हुई जयपुर में रश्दी को वीडियो कान्फ्रेंसिग भी नहीं करने दी गई । एक भारतीय मूल के लेखक को अपने ही देश में आने से रोककर और फिर उसे वीडियो लिंक के जरिए बातचीत की इजाजत नहीं देकर राजस्थान की गहलोत सरकार ने जिस खतरनाक परंपरा की शुरुआत कर दी है उसके दूरगामी परिणाम होंगे । लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने जवाहरलाल नेहरू के दौर के बाद संस्थाओं,परंपराओं और मान्यताओं की परवाह करना बंद कर दिया है । जवाहरलाल नेहरू का जरूर यह मानना था कि भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए हर तरह की संस्थाओं को मजबूत करना होगा और नेहरू ने ताउम्र इसको अपनाया और संस्थाओं को मजबूत किया । बाद में इंदिरा गांधी ने तो संस्थाओं और मान्यताओं की परवाह ही नहीं की और एक तानाशाह की तरह जो मन में आया वो किया जिसकी परिणति देश में इमरजेंसी के तौर पर हुई । राजीव गांधी से भी शुरुआत में लोगों को उम्मीद थी लेकिन वह भी अपनी मां के पदचिन्हों पर ही चले और अंतत: अपनी सुधारवादी छवि को पीछे छोड़कर कट्टरपंथिय़ों के आगे झुकनेवाले नेता बनकर रह गए थे । जवाहरलाल नेहरू की संस्थाओं में आस्था अवश्य थी लेकिन वो भी मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करते थे । 1964 में जब दिल्ली से राज्यसभा के सदस्य का चुनाव होना था को स्वभाविक दावेदारी उस वक्त नई दिल्ली म्युनिसिपल काउंसिल के उपाध्यक्ष इंद्र कुमार गुजराल की थी । लेकिन जवाहर लाल नेहरू दिल्ली के मेयर नूर उद्दीन अहमद को उम्मीदवार बनाना चाहते थे क्योंकि वो मुसलमान थे । नेहरू ने उनका नाम तय भी कर दिया था लेकिन इंदिरा गांधी की अपनी अलग राजनीति और गुट था । इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीति के तहत नेहरू की अनुपस्थिति में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई और पिता की पसंद बताकर इंद्र कुमार गुजराल के नाम पर मुहर लगवा ली । ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जब कांग्रेस के नेताओं ने मुसलमानों को रिझाने के लिए इस तरह के काम किए ।
सलमान रश्दी को जयपुर आने से रोकने का मसला सिर्फ अभिवयक्ति का आजादी पर पाबंदी का मसला नहीं है यह पूरा मामला जुड़ा है उत्तर प्रदेश में होनेवाले विधानसभा चुनाव में मुसलमानों को रिझाने से । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के लिए बेहद अहम है और अहम है उत्तर प्रदेश में मुसलमान मतदाताओं की भूमिका भी । सूबे के तकरीबन 114 सीटों पर बीस हजार से ज्यादा मुसलमान मतदाता है । माना जाता है कि यही बीस हजार वोटर इन सीटों पर उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला करते हैं । लिहाजा कांग्रेस ने उनको रिझाने और अपने पक्ष में करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है । कांग्रेस पार्टी मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है । सालों से बुनकरों की खास्ता हालत से बेपरवाह केंद्र सरकार को अचानक उनकी याद आती है और आनन फानन में बुनकरों के लिए हजारो करोड़ के पैकेज का ऐलान कर दिया जाता है । उत्तर प्रदेश में चुनावों के ऐलान से ठीक पहले मुसलमानों के लिए साढ़े चार फीसदी आरक्षण का फैसला कैबिनेट से हो जाता है । उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर जारी किए गए अपने विजन डॉक्यूमेंट में कांग्रेस ने आगे भी आबादी के हिसाब से अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की वकालत की है । उसी दस्तावेज में मुस्लिम अध्यापकों की भर्ती के विशेष अभियान से लेकर अल्पसंख्यक सशक्तीकरण के लिए पार्टी की प्राथमिकता पर बल दिया गया है । दरअसल यह सब कुछ एक सोची समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है । दरअसल कांग्रेस चाहती है कि किसी भी तरह से उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के वोट उसकी झोली में आए और दशकों से खोई राजनीतिक जमीन हासिल की जाए । यूपीए 1 के शासन काल के दौरान 30 नवंबर दो हजार छह को मुसलमानों की हालत पर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पेश की गई थी लेकिन तकरीबन पांच साल के बाद कांग्रेस उस रिपोर्ट पर जागी । रंगनाथ मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट की सुध लेनेवाला कोई है या नहीं इसका पता अबतक नहीं चल पाया है । बटला हाउस एनकाउंटर को जिस तरह से दिग्विजय ने हवा दी और उसे एक बार फिर से जिंदा करने की कोशिश की उसके पीछे भी अल्पसंख्यकों को एक जुट करने की राजनीति है।
मुसलमानों के वोट के लिए जिस तरह से कांग्रेस काम कर रही है वह हमें अस्सी के दशक के राजीव गांधी के दौर की याद दिलाता है । अपनी मां की हत्या के बाद उपजे सहानुभूति लहर पर सवार होकर राजीव गांधी ने आजाद भारत के इतिहास में सबसे बडा़ बहुमत हासिल किया था । लेकिन चौरासी में सत्ता संभालने के बाद जिस तरह से राजीव गांधी ने फैसले लिए वो बेहद चौंकानेवाले और हैरान करनेवाले थे। राजीव गांधी ने अपने शासनकाल में मुसलमानों को रिझाने के लिए जो कदम उठाए वो बाद में पार्टी के लिए आत्मघाती ही साबित हुए । बोफोर्स खरीद सौदे में दलाली के आरोपों और रामजन्मभूमि आंदोलन के भंवर में फंसे राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए संविधान में संशोधन कर दिया वह एक स्वपनदर्शी नेता का प्रतिगामी कदम था । राजीव गांधी ने उस वक्त के अपने प्रगतिशील मुस्लिम साथियों की राय को दरकिनार कर यह कदम उठाया था । राजीव गांधी ने ही सबसे पहले सलमान रश्दी की किताब पर पाबंदी लगाई थी । भारत विश्व का पहला देश था जिसने इस किताब पर बैन लगाया था तब सैटेनिक वर्सेस को छपे चंद ही दिन हुए थे । भारत में किताब बैन होने के बाद ईरान के खुमैनी ने सलमान के खिलाफ फतवा जारी किया था । उस दौर में राजीव गांधी ने जो गलतियां की उसका खामियाजा उन्हें 1989 के आम चुनाव में उठाना पड़ा और प्रचंड बहुमत से सरकार में आनेवाले राजीव को विपक्ष में बैठने के लिए मजबूर होना पड़ा । लेकिन कांग्रेस के अब के नेता राजीव के उस वक्त के फैसलों पर ध्यान देकर फैसले कर रहे हैं लेकिन नतीजों पर उनका ध्यान नहीं है । अगर नतीजों का विश्लेषण करते तो शायद इस तरह के कदम उटाने से परहेज करते । अब जो काम कांग्रेस सलमान रश्दी के बहाने से या फिर मुसलमानों को आरक्षण देने जैसे कदमों से कर रही है उसकी जड़ें हम राजीव गांधी के दौर में देख सकते हैं । जो काम उस वक्त राजीव गांधी की सरकार ने किया था वही काम अब राजस्थान की गहलोत सरकार कर रही है । गोपालगढ़ दंगे में सूबे की पुलिस की भूमिका को लेकर मुसलमानों का आक्रोश झेल रहे अशोक गहलोत को रश्दी में एक संभावना नजर आई और उन्होंने उसे एक अवसर की तरह झटकते हुए इस बात के पुख्ता इंतजाम कर दिए कि रश्दी किसी भी सूरत में भारत नहीं आ पाए । रश्दी को भारत आने से रोकने की सफलता से उत्साहित अशोक गहलोत ने मिल्ली काउंसिल की आड़ लेकर वीडियो कान्फ्रेंसिंग भी रुकवा दी । जिस समारोह में केंद्रीय मंत्री को घुसने के लिए आधे घंटे तक कतार में खड़ा रहना पड़े वहां मिल्ली काउंसिल के चंद कार्यकर्ता धड़धड़ाते हुए अंदर तक पहुंच जाएं तो पुलिस और सरकार की मंशा साफ तौर सवालों के घेरे में आ जाती है । उसी तरह से कांग्रेस को लग रहा है कि सलमान रश्दी को भारत आने से रोककर वो उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का वोट पा जाएगी । ऐसा हो पाता है या नहीं ये तो 6 मार्च को पता चलेगा लेकिन लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए जो खतरनाक खेल कांग्रेस केल रही है उससे न तो अकलियत का भला होनेवाला है और न ही कांग्रेस पार्टी का ।

Friday, January 27, 2012

'71 के अशोक

बीते सोलह जनवरी को हिंदी के वरिष्ठ कवि, आलोचक, स्तंभकार अशोक वाजपेयी इकहत्तर बरस के हो गए । उनके जन्मदिन के मौके पर इंडिया इंटरनेशलन सेंटर की एनेक्सी में एक बेहद आत्मीय सा समारोह हुआ । उस मौके पर वरिष्ठ आलोचक डॉक्टर पुरुषोत्तम अग्रवाल के संपादन में अशोक वाजपेयी पर एकाग्र एक किताब का विमोचन मशहूर चित्रकार रजा साहब, अशोक जी और उनकी पत्नी रश्मि जी ने किया । डॉ अग्रवाल द्वारा संपादित इस पुस्तक का नाम कोलाज : अशोक वाजपेयी है जिसे राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ने छापा है । समारोह के दौरान ही रजा साहब ने यह सवाल उठाया कि किताब का नाम कोलाज क्यों । जिसपर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने सफाई देते हुए बताया कि उसमें अशोक वाजपेयी के व्यक्तित्व के विभिन्न रंगों को एक जगह इकट्ठा किया गया है इस वजह से पुस्तक का नाम कोलाज रखा गया है ।इस किताब को देखने का मौका अभी नहीं मिला है लेकिन जैसा कि पुरुषोत्तम अग्रवाल जी ने बताया उससे अंदाज लगा कि उसमें अशोक जी के मित्रों के लेख और उनके कुछ पुराने फोटोग्राफ्स संकलित हैं ।पुरुषोत्तम जी ने इस किताब की तैयारी और उसमें होने वाली देरी के बारे में बताया । कृष्ण बलदेव वैद ने अशोक वाजपेयी को सैकड़ों विशेषणों से बेहद ही रोचक तरीके से नवाजा है जो कि कोलाज में संकलित है ।
पुस्तक विमोचन और पुरुषोत्तम अग्रवाल के संक्षिप्त भाषण के बाद अशोक वाजपेयी से सवाल जवाब हुए । कई शास्त्रीय किस्म के सवाल हुए जिसका अंदाज अशोक जी ने अपने ही अंदाज में दिया । पहला सवाल उनकी पत्नी ने उनसे पूछा कि आपकी कविताओं में परिवार बार-बार आता है तो कविता के परिवार और खुद के परिवार में कोई अंतर नजर आता है । पत्नी के सवालों को वो भी सार्वजनिक तौर पर सामाना करना मुमकिन तो नहीं होता लेकिन वो भी ठहरे अशोक वाजपेयी । क्रिकेट की शब्दावली में कहें तो अशोक वाजपेयी ने अपनी पत्नी के सवाल को स्टेट ड्राइव करने की बजाए हल्के से टर्न देकर फ्लिक कर दिया । उन्होंने कहा कि मुझे ये मानने में कोई संकोच नहीं है कि मुझे परिवार को जितना वक्त देना चाहिए था उतना दे नहीं पाया । यहीं पर उन्होंने ये भी कहकर रश्मि जी को खुश कर दिया कि उनका रश्मि में इस बात को लेकर अगाध विश्वास था कि उनके अंदर एक को परिवार चलाने की क्षमता हैं । रश्मि जी के सवालों से ही उन्होंने उनको खुश करने का एक और मौका ढूंढा और सार्वजनिक तौर पर अपनी पत्नी की तारीफ करके उनको प्रसन्न कर दिया, हलांकि पति के पास कोई विकल्प होता भी नहीं है । एक सवाल के जबाव में उन्होंने यह भी कहा कि वो बहुलतावाद के हिमायती हैं लेकिन अगर उनको चुनना पड़ा तो वो अनिच्छापूर्वक कविता और भारत भवन को चुनेंगे । इस बात पर अफसोस भी जताया कि वो पूर्वग्रह को नहीं चुन पाए । कविता में बेवजह और फैशन में अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल पर अशोक जी ने अपनी आपत्ति दर्ज करवाई । उन्होंने कहा कि कविता में अंग्रेजी शब्दों का गैरजरूरी इस्तेमाल उन्हें बौद्धिक लापरवाही लगता है इस तरह के जो शब्द इस्तेमाल होते है उससे कविता में कोई विशेष रस भी पैदा नहीं होता । लेकिन अशोक वाजपेयी ने साथ में यह भी जोड़ दिया कि भाषा का खुलापन बेहद आवश्यक है । कविता में अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल पर तो कविवर जानें लेकिन मुझे लगता है कि अंग्रेजी के वो शब्द जो हमारी बोलचाल की भाषा में स्वीकृत होकर हमारी ही भाषा के शब्द जैसे हो गए हैं उनका इस्तेमाल गद्य में तो कम से कम गलत नहीं ही है । जैसे कि अगर हम कहीं चयनित पारदर्शिता की जगह सेलक्टिव ट्रासपेरिंसी लिखें तो प्रभाव भी ज्यादा होता है और ग्राह्यता भी । अशोक जी के बारे में मैं नहीं कह रहा हूं लेकिन हिंदी के कई बड़े लेखक भाषा की शुद्धता को लेकर खासे सतर्क रहते हैं और उन्हें लगता है कि अगर हिंदी में अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल हो जाएगा तो हमारी भाषा भ्रष्ट हो जाएगी । हिंदी के उन शुद्धतावादियों से मेरा आग्रह है कि वो हिंदी को इतनी कमजोर भाषा नहीं समझें कि अंग्रेजी के दो चार शब्दों के इस्तेमाल से वह भ्रष्ट हो जाएगी । मेरा तो मानना है कि किसी भी अन्य भाषा के शब्दों को ग्रहण करनेवाली भाषा समृद्ध होती है । अंग्रेजीवालों को तो किसी भी भाषा के शब्दों को लेने में और उसके उपयोग में कभी कोई दिक्कत नहीं होती । हर वर्ष अंग्रेजी के शब्दकोश में हिंदी के कई शब्दों को शामिल कर उसका धड़ल्ले से उपयोग किया जाता है । अब जंगल, बंदोबस्त आदि अंग्रेजी में भी उपयोग में आते हैं और पश्चिम के कई लेखकों की कृतियों में इस तरह के शब्दों के इस्तेमाल को देखा जा सकता है । किसी भी शब्द को लेकर आग्रह और दुराग्रह ठीक नहीं है हमें तो उस शब्द की स्वीकार्यता और संप्रेषणीयता को देखने और तौलने की जरूरत है ।
हम फिर से वापस लौटते हैं अशोक जी के सवाल जबाव के सत्र की ओर । वहां कई छोटे बड़े सवाल हो रहे थे, शास्त्रीयता कुछ बढ़ रही थी लेकिन आयोजकों ने समय कम रखा था । जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने अशोक जी पर एक सवाल दागा । थानवी जी ने कहा कि अशोक वाजपेयी उनके जानते सबसे ज्यादा प्रेम कविताएं लिखनेवाले कवियों में से एक हैं । सवाल यह था कि इन प्रेम कविताओं के पीछे राज क्या है । लगा कि ओम थानवी की गुगली पर वाजपेयी जी बोल्ड हो जाएंगे लेकिन उन्होंने एक सधे हुए बल्लेबाज की तरह ओम जी की गुगली को पहले ही भांप लिया और सीधे बल्ले से उसको खेल दिया । वाजपेयी जी ने माना कि उनकी हर प्रेम कविता किसी ना किसी को संबोधित हैं । लेकिन यहां एक मंजे हुए खिलाड़ी की तरह यह जोड़ना भी नहीं भूले कि उन्हें यह नहीं पता कि जिनको ये प्रेम कविताएं संबोधित हैं उनतक वो पहुंच पाई या नहीं ।
अशोक वाजपेयी के बोलने के अंदाज में एक चुटीलापन है । वो बेहद कठिन से कठिन सवाल को भी हल्के फुल्के अंदाज में निबटाने की क्षमता रखते हैं । जब उनसे एक व्यक्ति ने पूछा कि वो नए लोगों के लिए क्या किया और उनके साथ क्यों नहीं उठते बैठते हैं तो अशोक जी ने बेहद खिलंदड़े अंदाज में यह कहा कि नई पीढ़ी को उनकी सलाह की जरूरत ही नहीं है वो लोग खुद से बहुत समझदार हैं । लेकिन नई पीढ़ी के लिए अपने किए गए कामों को याद भी दिलाया और वहां मौजूद लोगों को यह याद दिलाया कि पहचान सीरीज के तहत उन्होंने उस दौर के कई कवियों का पहला कविता संग्रह प्रकाशित करने में अहम भूमिका निभाई थी । इस छोटे लेकिन गरिमापूर्ण कार्यक्रम के बाद रजा साहब ने रात्रिभोज का आयोजन किया था । रजा साहब ने इस बात पर खुशी जाहिर की वो इतने लंबे समय तक फ्रांस में रहने के बाद अपने जिंदगी के इस पड़ाव पर मुल्क लौट आए हैं । मेरी इच्छा थी कि रजा साहब से यह पूछूं कि दशकों तक विदेश में रहने के बाद वो कौन सी वजह थी जो उनको भारत खींच लाई । लेकिन रजा साहब के इतने चाहनेवालों ने उनको घेर रखा था कि यह सवाल मेरे मन में ही रह गया । दो साल पहले भी रजा साहब का एक इंटरव्यू किया था लेकिन सनारोह में कई कैमरों के बीच उतना वक्त नहीं मिल पाया था कि तफसील से बात हो सके । ये ख्वाहिश है कि रजा साहब का एक लंबा इंटरव्यू करूं और उनसे पेंटिग्स के अलावा उनकी जिंदगी के कई पहलुओं पर बात करूं । देश की राजनीति से लेकर उनके समकालीन पेंटरों के संस्मऱण को कैमरे में कैद कर सकूं ।

Thursday, January 26, 2012

2011: उल्लेखनीय कृति का रहा इंतजार

साल 2011 खत्म हो गया । देश भर की तमाम साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में पिछले वर्ष प्रकाशित किताबों का लेखा-जोखा छपा । पत्र-पत्रिकाओं में जिस तरह के सर्वे छपे उससे हिंदी प्रकाशन की बेहद संजीदा तस्वीर सामने आई । एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन डेढ से दो हजार किताबों का प्रकाशन पिछले साल भर में हुआ । लेखा-जोखा करनेवाले लेखकों ने हर विधा में कई पुस्तकों को उल्लेखनीय तो कई पुस्तकों को साहित्यिक जगत की अहम घटना करार दिया । कुछ समीक्षकों ने तो चुनिंदा कृतियों को महान कृतियों की श्रेणी में भी रख दिया । मैं उन समीक्षकों पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता लेकिन अगर हम वस्तुनिष्ठता के साथ पिछले वर्ष के हिंदी साहित्य पर नजर डालें तो पाते हैं कि बीता वर्ष रचनात्मकता के लिहाज से उतना उर्वर नहीं रहा, जितना साहित्यिक सर्वे में हमें दिखा । मैंने पिछले वर्ष जितना पढ़ा या फिर यह कह सकता हूं कि जिन कृतियों के बारे में पढ़ा उसके आधार पर जो एक तस्वीर उभर कर सामने आती है वह बहुत निराशाजनक है । अगर हम हर विधा के हिसाब से बात करें तो भी हिंदी साहित्य में कोई आउटस्टैंडिंग कृति के आने का दावा नहीं कर सकते । अगर हम हिंदी साहित्य में उपन्यास के परिदृश्य को देखें तो पिछले साल साहित्य की इस विधा में दर्जनों किताबें प्रकाशित हुई, कईयों की चर्चा भी हुई लेकिन कोई भी किताब साहित्य में धूम मचा दे, यह हो नहीं सका । कुछ दिनों पहले सोशल नेटवर्किंग साइट पर समीक्षक साधना अग्रवाल ने पिछले वर्ष प्रकाशित दस किताबों की सूची जारी की । साधना अग्रवाल ने उन्हीं किताबों के आधार पर तहलका में लेख भी लिखा । फेसबुक पर मेरा और साधना जी का संवाद भी हुआ । वहां भी मैंने यह संकेत करने की कोशिश की थी कि इस वर्ष कुछ भी उल्लेखनीय नहीं छपा । यहां मैं अगर उल्लेखनीय कह रहा हूं तो उसका मतलब यह है कि वर्ष भर उसकी चर्चा हो और उस कृति के बहाने साहित्य में विमर्श भी हो । इसके अलावा साहित्यिक पत्रिका हंस और पाखी में भी साल भर की किताबों पर विस्तार से लेख छपे । हंस में अशोक मिश्र ने उपन्यासों की पूरी सूची दी । अशोक मिश्र के मुतबिक हरिसुमन विष्ठ का उपन्यास-बसेरा- साल का सबसे अच्छा उपन्यास है । उन्होंने श्रमपूर्वक उपन्यासों की एक पूरी सूची गिनाई है लेकिन विष्ठ के उपन्यास को सबसे अच्छा उपन्यास क्यों माना इसकी वजह नहीं बताई । हो सकता है अशोक मिश्र की राय में दम हो लेकिन हिंदी जगत में बिष्ठ का यह उपन्यास अननोटिस्ड रह गया । हंस के सर्वेक्षण में आलोचना विधा में पहला नाम निर्मला जैन की किताब कथा समय में तीन हमसफर का है । पता नहीं अशोक मिश्र को निर्मला जैन की किताब आलोचना की किताब कैसे लगी, ज्यादा से ज्यादा उस किताब को संस्मरणात्मक समीक्षा कह सकते हैं । निर्मला जैन की उक्त किताब में अपनी तीन सहेलियों के घर परिवार से लेकर नाते रिश्तेदार सभी मौजूद हैं । उस किताब को पढ़ने के बाद जो मेरी राय बनी वह यह है कि निर्मला जैन का लेखन बेहद कंफ्यूज्ड है और वो क्या लिखना चाहती थी यह साफ ही नहीं हो पाया । लेकिन आलोचना में जिन नामों को उन्होंने प्रमुख किताबें माना है उसमें से ज्यादातर लेखों के संग्रह हैं या फिर कुछ संपादित किताबें ।
पाखी में भारत भारद्वाज के लेख पर टिप्पणी करने से मैं अपने आप को रेस्कयू कर रहा हूं । तहलका में साधना अग्रवाल ने अपने चयन को सीमित किया है और सिर्फ दस किताबों पर बात की है । इसका एक फायदा यह हुआ कि दस किताबों के बारे में संक्षिप्त ही सही जानकारी तो मिली । साधना अग्रवाल ने पहला नाम मेवाराम के उपन्यास सुल्तान रजिया का दिया है । हो सकता है कि मेवाराम का यह उपन्यास बेहतर हो लेकिन अगर यह इतना अच्छा था तो हिंदी जगत में इस पर चर्चा होनी चाहिए थी जो सर्वेक्षणों के अलावा ज्यादा दिखी नहीं । सूची में और नाम हैं- मंजूर एहतेशाम का मदरसा, प्रदीप सौरभ का उपन्यास तीसरी ताली, ओम थानवी का यात्रा संस्मरण मुअनजोदड़ो । तीसरी ताली मैंने पढ़ी है और मुझे लगता है कि इस उपन्यास का ना तो विषय नया है और न ही कहने का अंदाज । इस विषय पर अंग्रेजी में कई किताबें लिखी जा चुकी हैं । प्रदीप सौरभ के उपन्यास तीसरी ताली और पूर्व में प्रकाशित रेवती के उपन्यास अ ट्रूथ अबाउट में संयोगवश कई समानताएं देखी जा सकती है । अब अगर जनसत्ता संपादक ओम थानवी के यात्रा संस्मरण मुअनजोदड़ों पर बात करें तो हम देखतें हैं कि इस किताब की समीक्षा हिंदी की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में छपी । एक अनुमान के मुताबिक इस किताब की तकरीबन दो से तीन दर्जन समीक्षा तो मेरी ही नजर से गुजरी होगी। ओम थानवी यशस्वी संपादक हैं, देश विदेश में घूमते रहते हैं । उनका यह यात्रा संस्मरण अच्छा है लेकिन हिंदी में जो यात्रा संस्मरणों की समृद्ध परंपरा रही है उसमें मुअनजोदड़ों ने थोड़ा ही जोड़ा है । इसके अलावा साधना अग्रवाल की सूची में जो अहम नाम है वह है विश्वनाथ त्रिपाठी की किताब व्योमकेश दरवेश । इस किताब की भी खूब समीक्षा छपी लेकिन हिंदी के आलोचकों में इसको लेकर दो मत हैं । कुछ लोगों को यह कृति कालजयी लग रही है तो कई नामवर आलोचकों ने इस कृति को एक साधारण करार दिया जिसमें तथ्यात्मक भूलों के अलावा बहुत ज्यादा दुहराव है ।
मैंने दो सर्वेक्षणों का जिक्र इसलिए किया ताकि एक अंदाजा लग सके कि हिंदी में पिछले वर्ष किन रचनाओं को लेकर सर्वेक्षणकर्ताओं ने उत्साह दिखाया । मैं जो एक बड़ा सवाल खडा करना चाहता हूं वह यह कि हिंदी में पिछले वर्ष जो रचनाएं छपी उसको लेकर हिंदी साहित्य में कोई खासा उत्साह देखने को नहीं मिला । मैं यह बात पाठकों के पाले में डालता हूं कि वो यह तय करें और विचार करें कि क्या पिछले वर्ष कोई गालिब छुटी शराब, मुझे चांद चाहिए, चाक, आंवा, कितने पाकिस्तान जैसी कृतियां छपी । मैं सर्वेक्षणकर्ताओं और हिंदी के आलोचकों के सामने भी यह सवाल खड़ा करता हूं कि वो इस बात पर गौर करें कि बीते वर्षों में क्यों कोई अहम कृति सामने क्यों नहीं आ पा रही है । क्या हिंदी लेखकों के सामने रचनात्मकता का संकट है या फिर जो स्थापित लेखक हैं वो चुकने लगे हैं और नए लेखकों के लेखन में वो कलेवर या फिर कहें उनकी लेखनी पर अभी सान नहीं चढ़ पाई है कि हिंदी साहित्य जगत को झकझोर सकें । पिछले दिनों सामयिक प्रकाशन के सर्वेसर्वा और मित्र महेश भारद्वाज से बात हो रही थी तो मैंने यूं ही उनसे पूछ लिया कि पिछले कई सालों से आंवा जैसी कृति क्यों नहीं छाप रहे हैं । महेश जी ने जो बात कही उसने मुझे झकझोर दिया । महेश भारद्वाज के मुताबिक- आज का हिंदी का लेखक डूब कर लेखन नहीं कर रहा है और पाठकों के बदलते मिजाज को समझ भी नहीं पा रहा है, लेखकों से पाठकों की नब्ज छूटती हुई सी प्रतीत होती है । आज हिंदी के लेखकों का ज्यादा ध्यान लेखन की बजाए पुरस्कार और सम्मान पाने की तिकड़मों में लगा है । अगर हिंदी का लेखक इन तिकड़मों की बजाए अपने विषय पर ध्यान केंद्रित करे और विषय में डूब कर लिखे तो हिंदी जगत को पिछले एक दशक से जिस मुझे चांद चाहिए, आंवा और चाक जैसी कृतियों का इंतजार है वह खत्म गहो कता है । बातों बातों में महेश भारद्वाज ने बहुत बड़ी बात कह दी है जिसपर हिंदी के लेखकों को ध्यान देना चाहिए क्योंकि प्रकाशक होने की वजह से वो पाठकों के बदलते मन मिजाज से तो वाकिफ हैं ही ।

Wednesday, January 18, 2012

बार-बार वर्धा

दस ग्यारह महीने बाद एक बार फिर से वर्धा जाने का मौका मिला । वर्धा के महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के छात्रों से बात करने का मौका था । दो छात्रों - हिमांशु नारायण और दीप्ति दाधीच के शोध को सुनने का अवसर मिला । महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में यह एक अच्छी परंपरा है कि पीएच डी के लिए किए गए शोध को जमा करने के पहले छात्रों, शिक्षकों और विशेषज्ञों के सामने प्रेजेंटेशन देना पड़ता है । कई विश्वविद्यालयों में जाने और वहां की प्रक्रिया को देखने-जानने के बाद मेरी यह धारणा बनी थी विश्वविद्यालयों में शोध प्रबंध बेहद जटिल और शास्त्रीय तरीके से पुराने विषयों पर ही किए जाते हैं । मेरी यह धारणा साहित्य के विषयों के इर्द-गिर्द बनी थी । जब महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के छात्रों से मिलने और उनके शोध को सुनने का मौका मिला तो मेरी यह धारणा थोड़ी बदली । हिमांशु नारायण के शोध का विषय भारतीय फीचर फिल्म और शिक्षा से जुड़ा था जबकि दीप्ति ने इंडिया टीवी और एनडीटीवी का तुलनात्मक अध्ययन किया था । दोनों के अध्ययन में कई बेहतरीन निष्कर्ष देखने को मिले । हिमांशु ने तारे जमीं पर और थ्री इडियट जैसी फिल्मों के आधार पर श्रमपूर्वक कई बातें कहीं जिसपर गौर किया जाना चाहिए । हिमांशु ने पांच सौ से ज्यादा लोगों से बात कर उनकी राय को अपने शोद प्रबंध में शामिल किया है जो उसे प्रामाणिकता प्रदान करती है । उसके शोध के प्रेजेंटेशन के समय कई सवाल खड़े हुए । यह देखना बेहद दिलचस्प था कि दूसरे विषय के छात्र या फिर उसके ही विभाग के छात्र भी पूरी तैयारी के साथ आए थे ताकि शोध करनेवाले अपने साथी छात्रों को घेरा जाए । सुझाव और सलाह के नाम पर जब छात्र खड़े हुए तो फिर शुरू हुआ ग्रीलिंग का सिलसिला जिसे विभागाध्यक्ष प्रोपेसर अनिल राय अंकित ने रोका । दीप्ति का शोध बेहद दिलचस्प था । एनडीटीवी और इंडिया टीवी की तुलना ही अपने आप में दिलचस्प विषय है। खबरों को पेश करने का दोनों चैनलों को बेहद ही अलहदा अंदाज है । लेकिन दो साल के अपने शोध के दौरान दीप्ति ने यह निष्कर्ष दिया किस समाचार में कमी आई है और न्यूज चैनलों पर मनोरंजन बढ़ा है । दोनों चैनलों की कई हजार मिनटों की रिकॉर्डिग को विश्लेषण करने के बाद उसके निष्कर्ष दिलचस्प थे । चौंकानेवाले भी । वर्धा
जाकर एक बार फिर से बापू की कुटी या आश्रम में जाने का मन करने लगा था । दूसरे दिन सुबह सुबह वर्धा के ही गांधी आश्रम पहुंच गया जो विश्वविद्यालय से आधे घंटे की दूरी पर स्थित है । वहां पहुंचकर एक अजीब तरह की अनुभूति होती है । वातावरण इस तरह का है कि लगता है कि आप वहां घंटों बैठ सकते हैं । तकरीबन दस महीने पहले जब वर्धा गया था तो भी गांधी आश्रम गया था । वहां गांधी के कई सामान रखे हैं । गांधी का बाथ टब, उनका मालिश टेबल, उनकी चक्की आदि आदि । उनके बैठने का स्थान भी सुरक्षित रखा हुआ है । पिछली बार जब गया था तो वहां बंदिशें कम थी । लेकिन इस बार पाबंदियां इस वजह से ज्यादा थी कुछ महीनों पहले वहां रखा बापू का ऐनक चोरी चला गया था । बापू के चश्मे के चोरी हो जाने के बाद वहां रहनेवाले कार्यकर्ताओं ने थोड़ी ज्यादा सख्ती शुरू कर दी थी । गांधी जिस कमरे में बैठते थे वहां बैठने के बाद आप उनके सिद्धांतों को महसूस कर सकते हैं । एक अजीब सा अहसास । गांधी आश्रम में हम चार लोग गए थे । मैं था, अनिल राय जी थे, विश्वविद्यालय के ही शिक्षक मनोज राय थे और इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के शिक्षक प्रोफेसर सी पी सिंह थे । वहां इस बार मेरी मुलाकात गांधी जी के वक्त से आश्रम में रह रही कुसुम लता ताई से हुई । वो गांधी जी के कमरे के बाहर बैठी थी । वहां हम इनके साथ बैठे । बतियाए । हम एक ऐसी महिला के साथ बैठे थे जिन्होंने गांधी को न सिर्फ देखा था बल्कि उनके आश्रम में कई साल तक उनके साथ रही थी । बातचीत के क्रम में मैने उनसे गांधी जी के बारे में पूछा । गांधी कैसे थे । वो कैसे रहा करते थे, आदि आदि । गांधी, कस्तूरबा और जय प्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती के बारे में उन्होंने कई बातें बताई । उनसे प्रभावती देवी और जयप्रकाश के बारे में बात करते हुए मुझे गोपाल कृष्ण गांधी की कुछ बातें याद आ गई जो उन्होंने अपनी किताब- ऑफ अ सर्टेन एज- की याद आ गई । गोपाल कृष्ण गांधी ने लिखा है- जयप्रकाश नारायण को गांधी जी जमाई राजा मानते थे क्योंकि उच्च शिक्षा के लिए जयप्रकाश के अमेरिका चले जाने के बाद प्रभावती जी गांधी के साथ वर्धा में ही रहने लगी थी और बा और बापू दोनों उन्हें पुत्रीवत स्नेह देते थे । दरअसल जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद के भाई की लड़की थी । वर्धा के आश्रम में रहने के दौरान बापू और कस्तूरबा दोनों उन्हें अपनी बेटी की तरह मानने लगे । भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गांधी जी और कस्तूरबा को पुणे के आगा खान पैलेस में कैद कर लिया गया । वहां बा की तबीयत बिगड़ गई तो गांधी ने 6 जनवरी 1944 ने अधिकारियों को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि दरभंगा जेल में बंद प्रभावती देवी को पुणे जेल में स्थानांतरित किया जाए ताकि कस्तूरबा की उचित देखभाल हो सके । उस पत्र में गांधी ने लिखा कि प्रभावती उनकी बेटी की तरह हैं । यह बातें कुसुम लता ताई ने भी बताई । उन्होंने कहा कि बा और बापू दोनों प्रभावती देवी को बेटी की तरह मानते थे । गोपाल
कृष्ण गांधी ने गांधी और जयप्रकाश के बीच की पहली मुलाकात का दिलचस्प वर्णन किया है । उनके मुताबिक तकरीबन सात साल बाद जब जयप्रकाश नारायण अमेरिका में अपनी पढ़ाई खत्म कर भारत लौटे तो तो अपनी पत्नी से मिलने वर्धा गए जहां वो गांधी के सानिध्य में रह रही थी । पहली मुलाकात में गांधी ने जयप्रकाश से देश में चल रहे आजादी के आंदोलन के बारे में कोई बात नहीं कि बल्कि उन्हें ब्रह्मचर्य पर लंबा उपदेश दिया । बताते हैं कि गांधी जी ने प्रभावती जी के कहने पर ही ऐसा किया क्योंकि प्रभावती जी शादी तो कायम रखना चाहती थी लेकिन ब्रह्मचर्य के व्रत के साथ । जयप्रकाश नरायण ने अपनी पत्नी की इस इच्छा का आजीवन सम्मान किया । तभी तो गांधी जी ने एक बार लिखा- मैं जयप्रकाश की पूजा करता हूं । गांधी जी की ये राय 25 जून 1946 के एक दैनिक में प्रकाशित भी हुई थी। गांधी से जयप्रकाश का मतभेद भी था, गांधी जयप्रकाश के वयक्तित्व में एक प्रकार की अधीरता भी देखते थे लेकिन बावजूद इसके वो कहते थे कि जयप्रकाश एक फकीर हैं जो अपने सपनों में खोए रहते हैं । कुसुम लता ताई ने भी जयप्रकाश और प्रभावती के बारे में कई दिलचस्प किस्से सुनाए । इसके अलावा देश की वर्तमान हालत और राजनीति के बारे में कुसुम ताई से लंबी बात हुई । उसके
बाद हमलोग वापस विश्वविद्यालय लौटे । वहां भी कुलपति विभूति नारायण राय की पहल पर गांधी हिल्स बना है । गांधी हिल्स पर बापू का ऐनक, उनकी बकरी, उनकी चप्पल और उनकी कुटी बनाई गई है । आप वहां घंटों बैठकर गांधी के दर्शन के बारे में मनन कर सकते हैं बगैर उबे । महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्विविद्यालय में गांधी के बाद अब कबीर हिल्स बन रहा है जहां कबीर से जुड़ी यादें ताजा होंगी । बार बार वर्धा जाना और गांधी से जुड़ी चीजों को देखना पढ़ना चर्चा करना अपने आप में एक ऐसा अनुभव है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है बयां नहीं ।

Saturday, January 14, 2012

धौनी नहीं बुढ़ाते खिलाड़ी जिम्मेदार

विदेशी धरती पर पिछले छह टेस्ट में लगातार हार से भारतीय क्रिकेट में भूचाल आया हुआ है । एक दो लोगों को छोड़कर तमाम पूर्व क्रिकेटर और दिग्गज भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धौनी को इस शर्मनाक हार का जिम्मेदार मानते हैं । धौनी के सर हार का ठीकरा फोड़ने के बाद अब उनके आलोचकों ने धौनी को हटाने का एक अभियान सा छेड़ दिया है । जिस महेन्द्र सिंह धौनी ने अब से नौ महीने पहले ही देश को क्रिकेट विश्व कप का तोहफा दिया था वही धौनी अब क्रिकेट के सबसे बड़े खलनायक करार दिए जा रहे हैं । हमें धौनी की आलोचना के पीछे के मनोविज्ञान और मानसिकता को समझने की जरूरत है । जब से भारत ने क्रिकेट खेलना शुरू किया तब से लेकर अबतक भारत में भी यह खेल अभिजात वर्ग के हाथ में ही रहा । क्रिकेट और क्रिकेट से जुड़े अहम संस्थाओं पर भी उसी इलीट वर्ग का वर्चस्व रहा । बड़े शहरों के बड़े लोगों का खेल क्रिकेट । दिल्ली और मुंबई का इस खेल पर लंब समय तक आधिपत्य रहा । लेकिन धौनी ने भारतीय क्रिकेट के उस मिथ को तोड़ा । झारखंड के एक छोटे से शहर रांची से आकर धौनी विश्व क्रिकेट के आकाश पर धूमकेतु की तरह चमके और छा गए । भारतीय क्रिकेट में धौनी युग की शुरूआत के बाद क्रिकेट दिल्ली मुंबई से निकलकर अमेठी-मेरठ हापुड-मेवात तक पहुंचा और वहां के खिलाड़ी सामने आने लगे और उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाया। जब धौनी भारत के लिए तमाम सफलता हासिल कर रहे थे तब भी कई पूर्व क्रिकेटर उसको धौनी की मेहनत नहीं बल्कि किस्मत से जोड़कर देख रहे थे । उनको धौनी की सफलता रास नहीं आ रही थी । दिल्ली और मुंबई महानगरों की मानसिकता में जी रहे इन क्रिकेटरों को धौनी की सफलता से रश्क होने लगा था और वो उसको पचा नहीं पा रहे थे । इसलिए जैसे ही धौनी की कप्तानी में टीम इंडिया की हार होने लगी है तो महानगरीय मानसिकता वाले पूर्व क्रिकेटरों को भारतीय कप्तान पर हमला करने का मौका मिल गया ।धौनी की कप्तानी कौशल पर भी सवाल खड़े होने लगे और कुछ लोग तो उनको हटाने की मांग भी करने लगे हैं । लेकिन धौनी को हटाने की मांग करनेवाले या टीम इंडिया की हार के लिए अकेले धौनी को जिम्मेदार ठहरानेवाले इन विशेषज्ञों की टीम के दिग्गज और बुढा़ते बल्लेबाजों पर चुप्पी आश्चर्यजनक है। आज भारतीय टीम में जितने खिलाड़ी खेल रहे हैं अगर उनके शतकों को जोड़ दिया जाए तो वह पर्थ टेस्ट की पहली पारी में टीम इंडिया के स्कोर के करीब करीब बराबर होगी । लेकिन इतने दिग्गज बल्लेबाजों के रहते भी टीम इंडिया लगातार हार रही है तो सिर्फ कप्तान पर सवाल खड़े करने की वजह से क्रिकेट से अलहदा नजर आती है । टीम इंडिया के चार बड़े और दिग्गज बल्लेबाज- सचिन तेंदुलकर, विरेन्द्र सहवाग, राहुल द्रविड़ और वी वी एस लक्ष्मण का बल्ला विदेशी पिचों पर चल ही नहीं पा रहा है । क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर पिछले कई मैचों से एक शतक नहीं लगा पाने की वजह से भारी दबाव में हैं और अपने प्राकृतिक खेल से दूर होते जा रहे हैं । सचिन पर अपने सौंवे शतक का दबाव इतना ज्यादा है कि उसका खामियाजा टीम को उठाना पड़ रहा है । सवाल यह उठता है कि सचिन तेंदुलकर को और कितना मौका दिया जाएगा । क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि सचिन को खुद से संन्यास लेकर नए लोगों को खेलने का मौका देना चाहिए । अगर सौंवा शतक नहीं बन पा रहा है तो कब तक भारत उसका इंतजार करते रहेगा । धौनी पर आलोचना का तीर चलानेवाले विशेषज्ञों को यह कहने का साहस क्यों नहीं है कि सचिन को संन्यास ले लेना चाहिए ।
भारत के दूसरे दिग्गज बल्लेबाज विरेन्द्र सहवाग की बात करें तो वहां तस्वीर और भी दयनीय है । सहवाग कभी अच्छी बल्लेबाजी करते होंगे, अभी कुछ दिनों पहले देश में ही उन्होंने तिहरा शतक भी लगाया लेकिन विदेशी दौरों पर उनका प्रदर्शन दयनीय से भी बदतर है । दक्षिण अफ्रीका से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक में सहवाग जब भी ओपनिंग करने आए तो बुरी तरह से फ्लॉप रहे । विदेशी धरती पर ओपनर के तौर पर उनका औसत 16 का है और भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर शतक लगाए हुए उनको चार साल हो गए । धौनी की आलोचना करनेवालों को सहवाग का इतना घटिया प्रदर्शन नजर नहीं आ रहा है । क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि सहवाग को टीम से बाहर का रास्ता दिखाया जाए । कब तक अतीत में अच्छे प्रदर्शन के आधार पर टीम इन वरिष्ठ खिलाड़ियों को ढोती और उसकी वजह से हारती रहेगी । सहवाग के अलावा एक जमाने में टीम इंडिया की दीवार कहे जानेवाले राहुल द्रविड़ के खेल को देखें तो वहां तो हालात और भी खराब है । मेलवर्न से लेकर पर्थ तक की पांच पारियों में द्रविड़ ने 24 रनों की औसत से 121 रन बनाए हैं और चार बार बोल्ड आउट हुए हैं । टीम इंडिया की दीवार अब ढहती नजर आने लगी है । तकनीक के मास्टर माने जानेवाले द्रविड़ जब पांच में चार पारियों में बोल्ड आउट होते हैं तो चयनकर्ताओं के लिए सोचने का वक्त आ गया है । उसी तरह अगर लक्ष्मण की बल्लेबाजी का आकलन करें तो वहां भी निराशा ही हाथ लगती है । ऐसे में सिर्फ धौनी को जिम्मेदार मानना उस शख्स के साथ अन्याय है जिसने देश को वनडे और टी-20 विश्वकप का तोहफा दिया । धौनी की कप्तानी पर सवाल खड़े करनेवालों को विश्व कप का फाइनल याद करना चाहिए जहां सहवाग के शून्य और सचिन के अठारह रन पर आउट होने के बाद धौनी ने जबरदस्त फॉर्म में चल रहे युवराज सिंह की बजाए खुद को बल्लेबाजी क्रम में उपर किया और फाइनल में नाबाद 97 रन बनाकर भारत को शानदार जीत दिलाई । हाई वोल्टेज मैच में शानदार छक्का लगाकर मैच जिताने का जिगरा बहुत ही कम बल्लेबाजों को होता है । उसी तरह टी-20 विश्व कप के फाइनल में जोगिंदर शर्मा को आखिरी ओवर देकर धौनी ने जीत हासिल की थी । तब सभी लोग धौनी की कप्तानी और उनकी रणनीति के गुणगान करने में जुटे थे । सौरभ गांगुली और सचिन ने भी अगल अलग वक्त पर धौनी को महानतमन कप्तान कहा है । टीम इंडिया के कोच गैरी कर्स्टन ने भी रिटायरमेंट के बाद कहा था कि अगर उन्हें युद्ध के मैदान में जाना होगा तो धौनी को अपना सेनापति रखना पसंद करेंगे । दरअसल क्रिकेट एक टीम गेम है और वो महान अनिश्चतिताओं का भी खेल है । इसमें किसी एक वयक्ति के प्रदर्शन पर हार या जीत का फैसला कम ही होता है ।
अगर हम हाल के दिनों में भारतीय क्रिकेट के खराब प्रदर्शन पर नजर डालें तो उसके लिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड जिम्मेदार है । इतना अधिक क्रिकेट खेला जा रहा है कि खिलाड़ी बुरी तरह थक जा रहे हैं उन्हें आराम का मौका बिल्कुल नहीं मिल पा रहा है । चैंपियंस लीग जैसे बैकार के टूर्नामैंट हो रहे हैं जो खिलाड़ियों को तोड़ दे रहे हैं । जरूरत इस बात की है कि बीसीसीआई क्रिकेटिंग कैलेंडर को थोड़ा रिलैक्स्ड रखे । इसके अलावा टीम के हालिया खराब प्रदर्शन के लिए चयनकर्ता भी कम जिम्मेदार नहीं है । चयनकर्ताओं ने टीम इंडिया के बुढ़ाते खिलाड़ियों के विकल्प के लिए कोई नीति नहीं बनाई, युवा खिलाड़ियों को तैयार नहीं किया । आज सचिन, सहवाग,द्रविड़ और लक्ष्मण का विकल्प दूर दूर तक दिखाई नहीं देता । चयनकर्ताओं में

Saturday, January 7, 2012

क्यों दोराहे पर टीम अन्ना ?

अन्ना हजारे एक ऐसा नाम जिसमें देश के कई लोगों को गांधी का अक्स नजर आता है । अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी मुहिम के अगुआ । अन्ना हजारे जिन्होंने देश की वर्तमान सरकार को अपने आंदोलन की ताकत की वजह से घुटनों पर झुका दिया । अन्ना हजारे जिन्होंने दिल्ली में दो बार ऐसा आंदोलन खड़ा किया कि जिसको कुछ राजनीतिक पंडितों ने जयप्रकाश नारयण के आंदोलन से बडा़ आंदोलन करार दिया । अन्ना हजारे जिन्होंने देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ऐसा जनज्वार पैदा किया जिसमें लोग क्रांति के बीज तलाशने लगे । अन्ना की इन तमाम सफलताओं के पीछे उनके अहम सहयोगी अरविंद केजरीवाल का दिमाग माना गया । उन्हें अन्ना का अर्जुन और पूरे आंदोलन का मास्टर स्ट्रैटजिस्ट माना गया । आंदोलन की रणनीति से लेकर सरकार से बातचीत और सरकार पर तमाम तरह के हमलों के अगुवा अरविंद केजरीवाल ही रहे । तमाम मंचों पर अन्ना के बाद अरविंद केजरीवाल का ही ओजस्वी भाषण होता रहा है । कई बार जब टीम अन्ना मीडिया से मुखातिब हो रही होती थी तो अन्ना को सरेआम सलाह देते हुए अरविंद को देखा गया था । अब अन्ना के उन्हीं सहयोगी अरविंद केजरीवाल के मुताबिक अन्ना हजारे आजकल उदास हैं, उन्हें लगता है कि सरकार ने उन्हें धोखा दिया है, सरकार के बर्ताव से वो बेहद आहत हैं । अन्ना उदास हैं और अरविंद देश की जनता से पूछ रहे हैं कि बताओ टीम अन्ना को क्या करना चाहिए । अरविंद अब जनता से आगे की रणनीति पूछ रहे हैं । लेकिन सवाल यह उठता है कि इस वक्त उन्हें जनता की याद क्यों आई । अब वो भारतीय जनता पार्टी से अपनी नजदीकियों पर सफाई दे रहे हैं । इतनी देर से इस बात की सफाई देने का कोई मतलब रह नहीं जाता जबकि यह बात लगभग हर तरफ चर्चा का विषय है कि टीम अन्ना भारतीय जनता पार्टी को लेकर थोड़ी उदार है । अब वो यह स्वीकार कर रहे हैं कि दिसंबर में सरकार के साथ पर्दे के पीछे बातचीत चल रही थी जबकि उस वक्त उन्होंने इस बात से साफ इंकार किया था कि सरकार से किसी भी तरह की कोई बातचीत चल रही थी । जनता को सरकार से अपनी बातचीत के हर कदम की चीख चीख जानकारी देनेवाले अरविंद जनता से बिना बताए सरकार से बात कर रहे थे, यह उनका खुद का खुलासा है जो हैरान करनेवाला है । अब वो अपने कांग्रेस विरोध को इस बिनाह पर जस्टिफाई कर रहे हैं कि उन्हें लोकपाल पर सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की वजह से ऐसा करने को मजबूर होना पड़ा था । अब वो जनता से पूछ रहे हैं कि क्या उन्हें कांग्रेस या यूपीए के खिलाफ प्रचार करना चाहिए । क्या हरियाणा के हिसार में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव प्रचार करने से पहले अरविंद केजरीवाल ने जनता से पूछा था । तब तो उन्हें इस बात का अंदाजा था कि हिसार सीट पर कांग्रेस की हार तय है । उस वक्त तो टीम अन्ना ने बगैर जनता से पूछे हिसार के चुनाव को लोकतंत्र का लिटमस टेस्ट घोषित कर दिया था । वहां कांग्रेस पार्टी की हार को टीम अन्ना ने लोकतंत्र की जीत के तौर और भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस के खिलाफ जनता के गुस्से की परिणति के तौर पर पेश किया था । लेकिन अब अचानक से जनता की याद आना हैरान करनेवाला है। कहीं ऐसा तो नहीं कि टीम अन्ना को यह लगने लगा हो कि उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की स्थिति बेहतर होनेवाली है । और अगर खुदा ना खास्ते ऐसा हो गया तो भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की हवा ही निकल जाएगी ।
अन्ना के दो अनशन की सफलता से उत्साहित टीम अन्ना को यह लगने लगा था कि पूरे देश की जनता उनके साथ है । दिल्ली के जंतर मंतर और रामलीला मैदान में जनसैलाब उमड़ा था उसमें कोई दो राय नहीं है । भ्रष्टाचार से तंग आ चुकी जनता को अन्ना में एक उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी थी । नतीजे में लोग घरों से बाहर सड़कों पर निकले । वह मध्यवर्ग घरों से निकला जिनके बारे में यह माना जाता था कि आमतौर पर वह ड्राइंगरूम में बहस कर संतोष कर लेता है । लेकिन किसी भी आंदोलन को शुरू करना उतना मुश्किल नहीं है जितना मुश्किल उसकी निरंतरता बरकरार रखना है । अरविंद केजरीवाल की तमाम बातों से इस बात के साफ संकेत मिल रहे हैं कि टीम अन्ना अपने आंदोलन को लेकर हतोत्साहित है ।
अब सवाल यह खड़ा होता है कि टीम अन्ना क्यों हतोत्साहित है क्या वजह है जिसने टीम के मनोबल पर असर डाला है । एक वजह तो साफ तौर पर है जो सतह पर दिखाई भी देती है वह यह है कि सरकार ने टीम अन्ना के जनलोपाल बिल को स्वीकार नहीं किया और उसके खंड खंड करके कई बिल बना दिए । सरकार ने जो लोकपाल बिल पेश किया वह भी उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा । लेकिन लोकपाल बिल पर टीम अन्ना से रणनीतिक चूक भी हो गई । जब दिसंबर के तीन दिनों में संसद में लोकपाल पर बहस रखी गई थी उस वक्त अन्ना का अनशन पर बैठने से जनता के बीच संदेश यह गया कि टीम अन्ना अपनी ही जिद पर अड़ी है । लोगों को यह लगा कि जब संसद में लोकपाल पर बहस हो रही है तो टीम अन्ना को उसके नतीजों का इंतजार करना चाहिए । लेकिन टीम अन्ना अपने पिछले अनुभव और उसकी सफलताओं से सातवें आसमान पर थी । उन्हें लग रहा था कि अन्ना के अनशन पर बैठे रहने से संसद और सांसद दबाव में आ जाएंगें । लेकिन ऐसा हो नहीं सका । मुंबई के एमएमआरडीए मैदान पर अन्ना के अनशन में लोगों की भीड़ अपेक्षा से बेहद कम रही वहीं लोकसभा ने लोकपाल और लोकायुक्त बिल को मंजूरी दे दी । लोकसभा से लोकपाल बिल पास होने के दूसरे दिन अन्ना की तबीयत बिगड़ जाने की वजह से अनशन खत्म करना पड़ा । लोकसभा से लोकपाल बिल पास होने को टीम अन्ना ने अपनी हार की तरह लिया जबकि होना यह चाहिए था कि वो उसको जश्न की तरह देखते और देश के लोगों को यह संदेश देते कि जो काम 44 साल में नहीं हो पाया वो हमने साल भर के अंदर कर दिखाया । वहीं से यह भी ऐलान करते कि मजबूत लोकपाल के लिए लड़ाई जारी रहेगी । इसका एक बडा़ फायदा यह होता कि जनता के बीच जीत का एहसास जाता जो कि ऐसे आंदोलनों की निरंतरता बनाए रखने के लिए बेहद आवश्यक है । दूसरी चूक जो टीम अन्ना से हुई वह यह कि अनशन खत्म होने के बाद भी मंच से कांग्रेस पर जोरदार हमला हुआ और भारतीय जनता पार्टी के बावत सवाल पूछे जाने पर कन्नी काट ली गई । नतीजा यह हुआ कि टीम अन्ना की भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नजदीकियों को लेकर जो संदेह का वातावरण कांग्रेस ने खड़ा किया था वो थोड़ा और गहरा गया ।
इन दो रणनीतिक चूक और मुंबई में जनता से अपेक्षित समर्थन नहीं मिल पाने से टीम अन्ना में हताशा है । अरविंद केजरीवाल अब कह रहे हैं कि आज भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम चौराहे पर खड़ी है । कहां जाना है इस बात को लेकर सशंकित है । आशंका इस बात को लेकर भी है कि एक गलत निर्णय इस पूरे मुहिम को बर्बाद कर सकता है इसलिए उन्हें जनता की राय चाहिए । अरविंद जी जनता उसी चौराहे पर खड़ी है जहां भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम खडा़ है जरूरत इस बात की है कि उसे हमेशा विश्वास में लेने की कोशिश की जानी चाहिए सिर्फ उस वक्त नहीं जब वो आपसे मुंह फेर ले । दूसरी बात कि सरकार के प्रतिनिधि ने जब आपसे दिसंबर में कहा था आप चुनाव की राजनीति में उनको नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं, चाहे कितना भी अनशन-आंदोलन कर लें तो इतने दिन तक आप खामोश क्यों रहे। क्या मुंबई के मंच से आपको जनता को यह बात नहीं बतानी चाहिए थी। किसी भी आंदोलन को लेकर सरकार का दंभ जितना खतरनाक होता है उतना ही खतरनाक आंदोलनकारियों के नेतृत्व का सेलेक्टिव ट्रासपेरेंट होना भी होता है