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Tuesday, March 14, 2017

साईबाबा को उम्रकैद से निकलते संदेश

उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और उसके नतीजों के कोलाहल के बीच एक बेहद अहम खबर लगभग दब सी गई । राजनीतित विश्लेषखों ने इस खबर को उतनी तवज्जो नहीं दी जितनी मिलनी चाहिए थी । उस खबर पर प्राइम टाइम में उतनी बहस नहीं हुई जितनी होनी चाहिए थी । वह खबर थी दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज के शिक्षक जी साईबाबा और चार अन्य को देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने की साजिश रचने से लेकर प्रतिबंधित माओवादियों को मदद देने के आरोप में उम्रकैद की सजा सुनाए जाने की । सजा सुनाते वक्त महाराष्ट्र के गढचिरौली के जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने बेहद कड़ी टिप्पणी की । उन्होंने कहा कि मुजरिमों के क्रियाकलापों की वजह से कई लोगों की जान गई और सरकारी संपत्ति का भारी नुकसान हुआ । जज ने कहा कि उम्रकैद की सजा इन लोगों के लिए मुकम्मल नहीं है लेकिन उनके हाथ यूएपीए कानून की धाराओ से बंधे हैं । अदालत से साईबाबा को उम्रकैद की सजा सुनाए जाने के बाद अखबारों में उनकी पत्नी का जो बयान छपा है उसपर ध्यान देने की जरूरत है । प्रोफेसर जी एन साईबाबा की पत्नी ने सजा के बाद कहा- इस फासिस्ट गवर्नमेंट ने हमारे साथ ऐसा किया कि हमारे आंख में आंसू नहीं आ रहे, आग आ रही है । उन्होंने अपने बयानों में राज्य और केंद्र सरकार द्वारा न्यायपालिका पर दबाव डाले जाने की आशंका भी जताई । आंखों में आंसू नहीं आग आ रही है । सवाल यह उठता है कि आग किस चीज की, क्या उनकी पत्नी किसी तरह के इंतकाम की ओर संकेत कर रही हैं या फिर सिर्फ तात्कालिक गुस्से की वजह से उन्होंने ऐसा बयान दे दिया । साईबाबा की पत्नी ने केंद्र और राज्य सरकार पर भी संगीन इल्जाम लगाए । उनके पति को अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई है  और वो इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में अपील कर सकती हैं । बजाए न्यायपालिका पर भरोसा जताने के साईबाबा की पत्नी ने न्यायपालिका को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है । दरअसल यह उनका दोष नहीं है यह उस विचारधारा का असर है जिसमें सत्ता बंदूक की नली से निकलती है । यह उस विचारधारा का प्रभाव है जिसका लोकतंत्र में नहीं हिंसातंत्र में यकीन है । अगर लोकतंत्र में यकीन होता तो आंखों में आग नहीं आती । यह अकारण नहीं है कि 27 दिसंबर 1997 को महाश्वेता देवी ने हस्तलिखित अपील में सीपीआई एमएल से बिहार में बदला लेने का आह्वान किया था । रणवीर सेना पर उस वक्त एक सामूहिक नरसंहार का आरोप लगा था उसके बाद महाश्वेता देवी ने यह अपील की थी । उस वक्त महाश्वेता देवी किससे बदला लेने के लिए उकसा रही थीं, ऊमती जाति के उन गरीब लोगों पर जो निरीह थे । यह हिंसा के लिए उकसाना वर्ग शत्रुओं के सफाए की विचारधारा या सिद्धांत का पोषक ही कर सकता था । इस विचारधारा को पोषकों को ना तो संविधान की फिक्र है ना ही कानून और अदालतों पर उनका भरोसा है । व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर, गरीबों, मजलूमों को उनका हक दिलाने के नाम पर निरीह, निर्दोष लोगों की हत्या को अंजाम दिया जाता रहा है ।
महाश्वेता देवी पर किसी तरह की कोई कार्रवाई नहीं हुई क्योंकि उनको गरीबों का मसीहा माना जाता था और गरीबों की हत्या का बदला लेने के लिए उकसाने को लेकर कहीं किसी प्रकार का स्पंदन नहीं हुआ था । जब साईबाबा को नक्सलियों से सांठगांठ के आरोप में गिरफ्तार किया गया तो मार्क्सवादियों को सांप सूंघ गया था । इसको तानाशाही से लेकर फासीवाद आदि आदि तक करार दिया गया था । दरअसल 22 अगस्त दो हजार तेरह को हेम मिश्रा की गिरफ्तारी के बाद इनलोगों के मंसूबों का पर्दाफाश हुआ था । आरोप लगा था कि साईबाबा ने मिश्रा के हाथों गढ़चिरौली इलाके में सक्रिय खूंखार नक्सली कमांडर नर्मदा अक्का के पास एक माइक्रोचिप भिजवाया था । उसके बाद मिश्रा और उनके साथियों की गिरफ्तरी और पूछताछ के बाद पुलिस साईबाबा तक पहुंची थी । करीब छह सात महीने तक साई बाबा पर नजर रखने के बाद महाराष्ट्र पुलिस ने 9 मई दो हजार चौदह को साई बाबा को दिल्ली से गिरफ्तार किया था । पुलिस ने उस वक्त दावा किया था कि साईबाबा के घर से उनको जो हॉर्ड डिस्क मिला था उससे साईबाबा की नक्सलियों के साथ संलिप्तता साबित होती थी । पुलिस को जांच के दौरान यह भी पता चला था कि साईबाबा रिवोल्यूशनरी डेमोक्रैटिक फ्रंट का संयुक्त सचिव था । यह संगठन खुले तौर पर इस बात की वकालत करता था कि नक्सली तौर-तरीकों से ही सरकार को हटाया जा सकता है । उनकी जमानत याचिका हाईकोर्ट की नागपुर बेंच से खारिज हुई थी, फिर बांबे हाईकोर्ट से उनको अस्थायी जमानत मिली थी जिसे बाद में रद्द भी किया गया था । पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने साईबाबा को जमानत दे दी थी ।
अब सवाल यही उठता है कि नक्सलियों के रोमांटिसिज्म में या फिर हिंसक विचारधारा के प्रभाव में भारत के खिलाफ युद्ध झेड़ने का जुर्म साबित होने पर उम्रकैद होने से नक्सलियों या उनके बौद्धिक समर्थकों के बीच कड़ा संदेश जाएगा । दरअसल नक्सलियों के जो बौद्धिक समर्थक हैं वो उनके स्लीपर सेल के तौर पर काम करते हैं । रहा होगा किसी जमाने में नक्सलबाड़ी आंदोलन की नैतिक आभा लेकिन पिछले एक दो दशक से तो नक्सली खालिस अपराधी हो गए हैं जो ठेकेदारों से रंगदारी वसूलते हैं, लूटपाट करते हैं, बलात्कार करते हैं, अपने संगठन की महिलाओं पर जमकर यौन अत्याचार करते हैं । यह कौन सी विचारधारा है जो गांधी के इस देश में हिंसा का प्रचार प्रसार करती है । अब इसपर नक्सलियों को बौद्धिक आधार देनेवालों को भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि वो हिंसा के साथ हैं या अहिंसा के साथ ।    

1 comment:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’फागुनी बहार होली में - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...