Saturday, May 26, 2018

पुस्तक खरीद का लापरवाह तंत्र


किसी भी देश की संस्कृति में पुस्तकों का बड़ा योगदान माना जाता है। जर्मनी में जब नाजियों के ताकतवर होने और उत्थान का दौर था तब भी पुस्तकें महत्वपूर्ण थीं। पुस्तकों के इतिहास में 10 मई 1933 को पूरी दुनिया में काला दिन के तौर पर याद किया जाता है। नाजीवादी ये मानते थे कि साहित्य मनुष्य की भावनाओं को जगाता है और भावना लोगों को दुर्बल बनाती है। नाजियों के उस दौर में जर्मनी में विश्व साहित्य की उन महत्वपूर्ण कृतियों को जला दिया गया था, जिसके बारे में प्रचारित किया गया था कि वो जर्मनी के संस्कृति के खिलाफ है। इन रचनाओं को जलाने का काम बर्लिन विश्वविद्यालय के प्रांगण में किया गया था। जर्मन स्टूडेंट एसोसिएशन ने किताबें जलाने का काम देश के अन्य विश्वविद्यालयों में किया था जो कि करीब महीने भर तक चलता रहा था। चूंकि पुस्तकों का जलाने का काम बर्लिन विश्विविद्यालय से शुरु हुआ था इस वजह से इसको बर्लिन बुक बर्निंग या बर्लिन बुक ब्लास्ट के नाम से जाना जाता है। जर्मनी के लोगों के दिमाग पर पुस्तकों को जलाने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना की छाप थी और नाजियों के पतन के बाद वहां इस घटना पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। जिस दिन किताबें जलाई गईं थीं उसी दिन बर्लिन विश्वविद्यालय के उसी जगह को विश्व भर की किताबों से पाट दिया गया था। ये काम अब हर साल वहां किया जाता है । उसी स्थान पर लोग तख्तियों पर उन लेखकों के नाम लिखकर जमा होते हैं जिनकी किताबें 1933 में जला दी गई थी । बर्लिन में उस दिन को किताब उत्सव की तरह मनाया जाता है । हर जगह पर लोग किताब पढ़कर एक दूसरे को सुनाते हैं, रेस्तरां से लेकर फुटपाथ तक, चौराहों से लेकर पार्कों तक में । यह विरोध का एक अनूठा तरीका है। विरोध की वजह से जर्मनी में पुस्तक संस्कृति और मजबूत हुई। इस पूरी घटना को बताने का मकसद सिर्फ इतना बताना है कि जर्मनी में पुस्तकों को लेकर कितना प्यार, आदर और अपनापन है। वहां की सरकारें भी पुस्तकों की संस्कृति के विकास के लिए लगातार प्रयत्नशील रहती हैं। इसी तरह से अगर हम देखें तो पुस्तकों को लेकर यूरोप के कई देशों में और अमेरिका में भी एक खास किस्म का आकर्षण है। वैसे ये आकर्षण हमारे देश में भी था, किसी जमाने में हर शहर में एक अच्छा पुस्तकालय हुआ करता था, साथ ही गांवों में भी कम से कम एक कमरे का पुस्तकालय अवश्य होता था। कालांतर में ये पुस्तकालय बंद होते चले गए, शहरों के पुस्तकालयों की हालत भी खस्ता हो गई।
भारत में पुस्तक संस्कृति के विकास और पुस्तकालयों की व्यवस्था को मजबूत करने के लिए कई संस्थाएं हैं। ऐसी ही एक संस्था है राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन। यह संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध एक स्वायत्तशासी संस्था है।  ये संस्था देशभर में सार्वजनिक पुस्तकालयों को सहयोग करने और उसको मजबूत करने के लिए केंद्र सरकार की नोडल एजेंसी है। इस संस्था का प्रमुख कार्य देशभर में पुस्तकालय संबंधित गतिविधियों को मजबूत करना तो है ही, साथ ही राष्ट्रीय पुस्तकालय नीति और नेशनल लाइब्रेरी सिस्टम बनाना भी है। इस संस्था के अध्यक्ष संस्कृति मंत्री या उसके द्वारा नामित व्यक्ति होते हैं। साथ ही इसको सुचारू रूप से चलाने के लिए बाइस सदस्यों की एक समिति होती है जिसका मनोनयन भारत सरकार करती है। इस समिति में प्रख्यात शिक्षाविद, लेखक, वरिष्ठ पुस्तकालयाध्यक्ष, प्रशासनिक अधिकारी आदि मनोनीत होते हैं। राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन का एक मुख्य उद्देश्य राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों के साथ पुस्तकालयों को मजबूत करने की दिशा में काम करना भी है। यह संस्था केंद्रीय स्तर पर भी पुस्तकों की खरीद करती है और राज्य सरकारों को भी पुस्तकों की खरीद के लिए धन मुहैया करवाती है। इसको मैचिंग ग्रांट भी कहते हैं जिसका मतलब होता है कि अगर राज्य सरकार 25 लाख पुस्तकों की खरीद के लिए देती है तो फाउंडेशन भी 25 लाख की राशि उस राज्य सरकार को देती है। फाउंडेशन का उद्देश्य बहुत अच्छा है लेकिन इस संस्था की बेवसाइट पर जो जानकारी है वो इसके पिछड़ते जाने का संकेत देने के लिए काफी है। संस्था की बेवसाइट के मुताबिक आखिरी प्रोजेक्ट 2011-12 में दिया गया था और टैगोर फेलोशिप 2010-2012 तक के लिए दिया गया था। उसके बाद इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ, ऐसा प्रतीत होता है।
दरअसल ये संस्था मुख्यत: पुस्तकों की खरीद और राज्य सरकारों को अनुदान देने तक सिमट गई है। राजा राममोहन राय फाउंडेशन में पुस्तकों की जो खरीद होती है उसके कोई तय मानक नहीं है, मोटे तौर पर कुछ बिंदु हैं जिनको खरीद के वक्त ध्यान रखना होता है। अलग अलग विधाओं और भाषाओं के लिए खरीद का प्रतिशत तय किया गया है। सालभर प्रकाशक और लेखक अपनी पुस्तकों को इस संस्था में जमा करवा सकते हैं और फिर उनकी एक सूची तैयार होती है। इस सूची को तैयार करने के वक्त से ही गड़बड़ियां शुरू हो जाती है। लापरवाही का आलम ये कि अगर आपने डाक से पुस्तकें भेजीं तो बहुत संभव है कि वो सूची में शामिल नहीं होंगी। पुस्तकों की खरीद की कमेटी में इस वक्त संस्था के चेयरमैन समेत ग्यारह लोग हैं। मानक तय नहीं होने की वजह से पुस्तकों की खरीद में अराजक स्थिति होती है। जिन पुस्तकों की कीमत 400 रु से कम होती है उसकी अधिकतम 350 प्रतियां खरीदे जाने की बात सुनी जाती है लेकिन इन दिनों अराजकता का ये आलम है कि किसी भी पुस्तक की सत्रह, पच्चीस और चालीस पुस्तकों की खरीद के ऑर्डर जा रहे हैं। इसके पीछे क्या सोच है, क्या वजह है, इस बारे में देश की जनता को पता होना चाहिए। ये भी तय होना चाहिए कि किसी एक प्रकाशक से कितनी पुस्तक ली जाएगी। यह अकारण नहीं हो सकता है कि किसी खास दौर में किसी खास प्रकाशक की पुस्तकें ज्यादा खरीद ली जाती हैं। इसके अलावा यह भी देखने में आया है कि पुस्तक खरीद कमेटी की जब बैठक होती है तो कुछ सदस्य कई दिन कोलकाता मुख्यालय में रुकते हैं तो कुछ सदस्य दो एक दिन में ही वापस लौट जाते हैं। ऐसा क्यों होता है। क्या पुस्तक खरीद कमेटी का कोई कोरम आदि होता है या सब भगवान भरोसे चल रहा है। होना तो ये चाहिए कि पुस्तक क्रय समिति की हर बैठक के बाद खरीद के लिए चयनित पुस्तकों की सूची और कमेटी के उपस्थित सदस्यों की जानकारी भी बेवसाइट पर डाल देनी चाहिए। राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन का सालाना बजट करीब 50 करोड़ रुपए है जो कि करदाताओं की गाढ़ी कमाई का पैसा है। इसके साथ किसी भी तरह की गड़बड़ी करदाताओं के साथ तो छल होगा ही, पुस्तकों की संस्कृति के निर्माण की दिशा में बाधक भी।
इसके अलावा एक और चीज पर गौर करना आवश्यक है कि जो मैचिंग ग्रांट राज्य सरकारों को दी जाती है उस अनुदान की उपयोगिता और बेहतर पुस्तकों की खरीद में फाउंडेशन का कितना दखल होता है। नियमानुसार फाउंडेशन के चेयरमैन का एक प्रतिनिधि राज्य स्तरीय बैठक में होना चाहिए लेकिन कितने होते हैं। बहुधा नहीं होते हैं। अंग्रेजी की किताबों की स्तरीयता को लेकर कई बार पूर्व में भी सवाल उठे हैं। कट-पेस्ट के दौर में पुस्तकें बहुत आसानी से तैयार हो जाती है, पुस्तक खरीद समिति क पास उसकी स्तरीयता को जांचने का कोई मैकेनिज्म होता है क्या ? दरअसल सस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत चलनेवाली कई स्वायत्त संस्थाओं के काम-काज को लेकर काफी सवाल उठते रहे हैं। इनमें से ज्यादातर के साथ बजट की उपयोगिता को लेकर एक एमओयू भी है, उसपर संबंधित संस्थाओं की सहमति भी है, लेकिन हकीकत में तस्वीर कुछ अलग होती है। यह अकारण नहीं है कि पुस्तकों की खरीद पर भारी भरकम रकम खर्च हो रही है लेकिन पुस्तक संस्कृति का ह्रास हो रहा है। पुस्तक संस्कृति के विकास, उसके उन्नयन के लिए राष्ट्रीय पुस्तकालय नीति का होना आवश्यक है। राजा राममोहन राय फाउंडेशन के उद्देश्यों में ये शामिल भी है। इस नीति को बदलते वक्त के साथ अपडेट करना होगा, पाठकों की रुचि का ध्यान रखना होगा। पुस्तकों की गुणवत्ता और उसकी सरकारी खरीद के लिए बेहद सख्त नियम बनाने होंगे। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन जैसी संस्थाओं की जबावदेही संस्कृति मंत्रालय पर है। क्या संस्कृति मंत्रालय से ये उम्मीद की जा सकती है कि वो देश में पुस्तकालयों की वर्तमान हालात पर ध्यान देगी? जितनी जल्दी, उतना बेहतर।


Saturday, May 19, 2018

सोशल मीडिया का अराजक तंत्र


कर्नाटक में राजनीतिक गहमागहमी के बीच कांग्रेस पार्टी ने रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता की कुछ पंक्तियां ट्वीट की, सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी/मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है/दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो/सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। इस ट्वीट के साथ कांग्रेस के ट्वीटर हैंडल से एक लेख का लिंक भी साझा किया गया। उस लेख में जनता की ताकत के बारे में बताया गया था। इस ट्वीट के सत्रह घंटे बाद तक इसको तेइस सौ के करीब लाइक, आठ सौ रिट्वीट और सात सौ के करीब जवाब दिए गए। कहानी अब शुरू होती है। इस कविता के ट्वीटर पर पोस्ट होने के बाद सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों ने कांग्रेस की लानत मलामत शुरू कर दी। कहा ये जाने लगा कि ये कविता दिनकर जी ने इंदिरा गांधी के विरोध में लिखी थी, जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई थी। लोग इतने पर ही नहीं रुके और कहने लगे कि ये कविता दिनकर ने जयप्रकाश नारायण के कहने पर लिखी थी और संपूर्ण क्रांति के दौर में बेहद लोकप्रिय हुई थी। यह भी आधा सच है। किसी ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि दिनकर जी का निधन 1974 में हो गया था और देश में इमरजेंसी 1975 में लगाई गई थी।कुछ लोगों ने सही बात कहने की भी कोशिश की लेकिन ज्यादातर लोग गलत ही लिखने लगे थे, जिसकी वजह से सही बात दब सी गई। दरअसल ये पंक्तियां दिनकर की कविता जनतंत्र का जन्म की शुरुआती चार पंक्तियां हैं। दिनकर ने ये कविता पहले गणतंत्र दिवस के मौके पर लिखी गई थी जो उनके संग्रह धूप और धुंआ नाम के संग्रह में संकलित है जो 1951 में प्रकाशित हुआ। बाद में जब जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का उद्घोष किया था तब उन्होंने पटना में दिनकर की इन पंक्तियों का गाया था। जयप्रकाश नारायण ने दिनकर की 1950 में लिखी कविता को संपूर्ण क्रांति का नारा बनाया था, जब वो अपने भाषणों में कहा करते थे कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।  
कर्नाटक की राजनीति से संबंधित एक और ट्वीट इतिहासकार और स्तंभकार रामचंद्र गुहा ने किया। उन्होंने लिखा, भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल कैसे एक राजनीतिक दल के राज्य इकाई का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं या उसकी तरफ से बोल रहे हैं। कर्नाटक के सियासी घमासन के बीच इस ट्वीट का संदर्भ सुप्रीम कोर्ट से है जहां इस मामले पर कांग्रेस के विधायक की याचिका पर सुनवाई हुई थी। सर्वोच्च अदालत में इस केस की सुनवाई के दौरान अटॉर्नी जनरल मौजूद थे। रामचंद्र गुहा के इस ट्वीट को भी सोशल मीडिया पर करीब तीन हजार लोगों ने लाइक किया, हजार के करीब रिट्वीट हुआ और साढे तीन सौ लोगों ने उनको उत्तर दिया। इस ट्वीट के उत्तर में कई लोगों ने रामचंद्र गुहा को ये बताने की कोशिश की कि अटॉर्नी जनरल भारत सरकार का पक्ष रख रहे थे। सुप्रीम कोर्ट में जो याचिका (536/2018) दायर की गई थी उसमें भारत सरकार को भी प्रतिवादी बनाया गया था। जब किसी याचिका में भारत सरकार को प्रतिवादी बनाया जाता है, और वो मामला महत्वपूर्ण होता है तो उसमें भारत सरकार की तरफ से अटॉर्नी जनरल ही पेश होते हैं। यह बात रामचंद्र गुहा को पता नहीं हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। बावजूद इसके उन्होंने ट्वीट कर ये सवाल उठाया और सोशल मीडिया के जरिए एक अलग तरह का माहौल बनाने की कोशिश की। उनको जब इस बारे में जब उत्तर देनेवालों ने सुप्रीम कोर्ट की याचिका के पहले पृष्ठ को वहां लगाया तब भी रामचंद्र गुहा ने अपनी इस गलती को नहीं सुधारा। स्तंभ लिखे जाने तक उनका ये ट्वीट मौजूद है। उनकी तरफ से कोई भूल सुधार नहीं किया गया है और ना ही खेद प्रकट किया गया है।
ये दो उदाहरण सोशल मीडिया की अराजकता को दर्शाने के लिए काफी है। इस तरह के कई उदाहरण सोशल मीडिया पर देखने को मिलते हैं जहां संदर्भ गलत होते हैं, उद्धरण गलत होते हैं, किसी की रचना को किसी और का बताकर पेश कर दिया जाता है। इसके बावजूद किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है। सोशल मीडिया ने बहुत लोगों को लेखक भी बना दिया, विशाल पाठक वर्ग या अपने समर्थकों से जुड़ने का एक मंच दिया, जनता से सीधा संवाद करने का अवसर दिया, यह इस माध्यम का एक सकार्तामक पक्ष हो सकता है, लेकिन साथ ही सोशल मीडिया ने जनता को बरगलाने का मौका भी दिया। अब रामचंद्र गुहा जैसे बड़े विद्वान माने जाने वाले लेखक अगर इस तरह के ट्वीट करते हैं और फिर उसपर खेद भी नहीं जताते हैं तो इसको क्या माना जाए? अखबार में कोई लेख छपता है तो उसकी जिम्मेदारी होती है, लेखक की साख होती है, उनसे सवाल जवाब हो सकते हैं लेकिन सोशल मीडिया पर क्या? लिखने की भी आजादी और जिम्मेदारी से भी आजादी। चंद लोगों में ही ये ईमानदारी है कि वो अपना गलत ट्वीट या पोस्ट डिलीट कर देते हैं, या खेद प्रकट करते हैं। दरअसल अगर हम देखें तो सोशल मीडिया पर लोग हड़बड़ी में बहुत रहते हैं, कहीं कुछ सुना, कहीं कुछ पढ़ा, कहीं कुछ जाना बस उसको लेकर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया। बगैर उसकी सत्यता जांचे, बगैर उसकी प्रामाणिकता की पड़ताल किए। दिलीप कुमार साहब से लेकर मन्ना डे के निधन को लेकर कई बार मशहूर हस्तियों तक ने ट्वीट कर दिए थे।
सोशल मीडिया पर सक्रिय बहुत सारे लोग अपनी बात रखते इस तरह से रखते हैं जैसे वो पत्थर की लकीर खींच रहे हों, जिसे मिटाना संभव नहीं है। गलत तथ्य के साथ जब पत्थर की लकीरवाला आत्मविश्वास या वज्र धारणा मिल जाती है तो स्थिति खतरनाक हो जाती है। दिनकर की ही एक और कविता समर शेष है की आखिरी दो पंक्ति सोशल मीडिया पर बार-बार उद्धृत की जाती है,समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र/जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।इस पंक्ति को अलग अलग संदर्भ में उद्धृत किया जाता है। इसकी और पंक्तियां पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि वो कविता गांधी की हत्या के बाद लिखी गई थी जिसमें कवि दुखी भी है और समाज मे व्याप्त विषम स्थितियों पर चोट करता है।
अब अगर हम गहराई से इस पर विचार करें तो सोशल मीडिया के तमाम सकारात्मक पक्ष के बावजूद ये एक राजनीतिक औजार भी बन गया है। किसी के भी पक्ष या विपक्ष में माहौल बनाने का औजार । राजनीतिक दलों के नेता और कार्यकर्ता इसका जमकर उपयोग कर रहे हैं। चूंकि इस प्लेटफॉर्म पर किसी तरह की पाबंदी नहीं है, कोई रोक-टोक नहीं है, इस वजह से अराजकता भी है। दिक्कत तब शुरू हो जाती है जब लेखक और स्तंभकार इस मंच पर गलत तथ्य पोस्ट करने लगते हैं। जब कोई मशहूर व्यक्ति, लेखक या कवि इस मंच पर तथ्यहीन बातें कहता है तो उसका असर बहुत देर तक रहता है और दूर तक जाता है। तकनीक के विस्तार और इंटरनेट के बढ़ते घनत्व की वजह से सोशल मीडिया की पहुंच लगातार बढ़ती जा रही है। सोशल मीडिया के इस बढ़ते प्रभाव को देखते हुए कनाडा के तत्कालीन प्रधानमंत्री पीयर ट्रूडो का वाशिंगटन प्रेस क्लब में 1969 में दिए भाषण की एक पंक्ति याद आ रही है। ट्रूडो ने कनाडा और अमेरिका के रिश्तों को लेकर अपने संबोधन में कहा था कि आपके (अमेरिका के) पड़ोस में रहना उसी तरह से है जैसे हाथी के साथ सोना ( स्लीपिंग विद एन एलिफेंट )। इस बात का कोई अर्थ नहीं है कि हाथी से आपकी कितनी दोस्ती है और वो कितना शांत रहता है, उसकी हर हरकत या हिलने डुलने का भी आप पर असर पड़ना तय है। ट्रूडो अमेरिका की आर्थिक ताकत को लेकर बोल रहे थे। एक अनुमान के मुताबिक उस वक्त अमेरिका की जीडीपी, कनाडा से दस गुना ज्यादा थी। उनके कहने का अर्थ ये था कि अमेरिका के किसी भी कदम से कनाडा प्रभावित होगा ही। उसी तरह से सोशल मीडिया भी ऐसा ही हाथी बन गया है जिसका असर हम सब पर पड़ना तय है। सोशल मीडिया रूपी से हाथी अभी और बड़े आकार का होगा और हमको और हमारे समाज को और प्रभावित करेगा। और अगर ये हाथी अराजक हो तो उसके खतरे का अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि सोशल मीडिया के इस आसन्न खतरे को लेकर किसी तरह के नियमन पर विचार किया जाए। नियमन का स्वरूप क्या होगा ये देशव्यापी बहस के बाद तय हो।  


Saturday, May 12, 2018

विभाजन, युद्ध और प्यार की फिल्में


हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे के बाद से दोनों देशों के बीच का रिश्ता ऐसा है जो एक दूसरे मुल्क की रचनात्मकता को भी गहरे तक प्रभावित करता रहा है। साहित्य, कला, संगीत, फिल्म में इस रिश्ते और उसके साथ साथ घटित होनेवाली घटनाओं पर बहुतायत में लिखा और रचा गया है। दोनों देशों की आवाम से लेकर वहां के हुक्मरानों के बीच एक ऐसा रिश्ता है जिसमें नफरत और प्यार दोनों दिखाई देता है। विभाजन पर भीष्म साहनी ने तमस जैसा उपन्यास लिखा तो इंतजार हुसैन ने भी दोनों देशों के रिश्तों पर कई बेहतरीन कहानियां लिखीं।कई पाकिस्तानी शायरों को भारत में ज्यादा पाठक मिले तो लता मंगेशकर और मुहम्मद रफी के दीवाने पाकिस्तान में भी हैं। यह सूची बहुत लंबी है। लेकिन हाल के दिनों में पाकिस्तान ने जिस तरह से भारत की सरजमीं पर नफरत और आतंक को अंजाम देना शुरू किया तो उसके बाद से ये रिश्ता प्यार का कम नफरत का ज्यादा हो गया। लगभग हर दिन भारतीय सीमा पर पाकिस्तान की तरफ से गोलीबारी, भारतीय फौज पर हमले, कश्मीर में आतंकवादियों के मार्फत अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने की कोशिशों ने पाकिस्तान को एक ऐसे पड़ोसी में तब्दील कर दिया जिससे एक दूरी जरूरी हो गई। पाकिस्तानी कलाकारों का आतंक की घटनाओं पर चुप रहना भारतीयों को उद्वेलित करता रहता है। इसका खामियाजा भी उन कलाकारों को भुगतना पड़ा।
पाकिस्तान के साथ बदलते रिश्तों का प्रकटीकरण हिंदी फिल्मों में भी देखने को मिलता है, कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप से । इस पार और उस पार के प्यार की कई दास्तां रूपहले पर्द पर आई। दोनों देशों के बीच लड़े गए युद्ध को लेकर भी कई फिल्में बनीं, चाहे वो 1965 का युद्ध हो या फिर 1971 का युद्ध या फिर करगिल युद्ध हो। इसके अलावा दोनों देशों के विभाजन की आड़ में सांप्रदियकता और महिलाओं पर होनेवाले अत्याचार पर भी कई फिल्में बनीं। दोनों देशों के तनावपूर्ण रिश्तों और युद्ध के माहौल में जासूसों की अहम भूमिका है। रॉ और इंटेलिजेंस ब्यूरो जैसी संस्थाओं के जाबांजों को केंद्र में रखकर भी लगातार फिल्में बनीं और बन भी रही हैं। इन फिल्मों में से कई फिल्में तो उपन्यासों पर भी बनीं। अभी अभी रिलीज हुई फिल्म राजीभी सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कमांडर हरिंदर एस सिक्का के उपन्यास कॉलिंग सहमत पर बनी है। इस फिल्म में एक कश्मीरी लड़की की शादी पाकिस्तान फौज के आला अफसर के बेटे से होती है जो खुद पाकिस्तानी फौज में अफसर होता है। कश्मीरी लड़की का नाम सहमत है और इसकी भूमिका निभाई है आलिया भट्ट ने। सहमत पाकिस्तान फौज के उस आला अफसर के घर में बहू बनकर रहती है, परिवार का दिल जीतती है लेकिन वो दरअसल होती है रॉ की एजेंट जो अपने वतन के लिए अपनी जान खतरे में डालकर, अपना सबकुछ दांव पर लगाकर ये काम करने को राजी होती है। दिल्ली युनिवर्सिटी की एक मासूम सी लड़की वतन पर कुर्बान होने की अपनी पारिवारिक विरासत को आगे बढ़ाती है। कहा जा रहा है कि ये एक सच्ची कहानी है। आलिया ने अपने शानदार अभिनय से इस किरदार को एक ऊंचाई दी है। फिल्म के आखिरी हिस्से में रॉ के ऑपरेशन में उसका पति मारा जाता है, तब वो दोनों देशों के बीच जाकी हिंसा और उसको रास्ते में आनेवाले लोगों को मार डालने की एजेंसियों की ट्रेनिंग को अंजाम देने के काम से ऊब चुकी होती है। अपने मिशन में कामयाब होकर जब सहमत वापस अपने मुल्क लौटती है तो उसे पता चलता है कि वो गर्भवती है। अस्पताल के बेड पर बैठी सहमत कहती है कि वो अपना गर्भ नहीं गिराएगी क्योंकि वो और कत्ल नहीं करना चाहती है। यह वाक्य बहुत कुछ कह जाता है। कहानी बहुत अच्छी है जिसका ट्रीटमेंट भी सधा हुआ है, गुलजार के गीत है, उनका बेटी मेघना का निर्देशन है। पूरी फिल्म के दौरान एक रोमांच बना रहता है कि आगे क्या? किसी भी कहानी की सफलता यही होती है कि पाठक या दर्शक को हमेशा ये लगता रहे कि आगे क्या होगा। नामवर सिंह ने इस आगे क्या जानने की पाठकों की उत्सकुता को कहानी की विशेषता बताया था। उनका मानना है कि कहानी ही पाठकों को आगे देखने या चलने के लिए प्रेरित करती है जबकि कविता तो पीछे लेकर जाती है । अगर अच्छी कविता होती है तो उसके पाठ के बाद श्रोता कवि से एक बार फिर से उन पंक्तियों को दुहराने को कहते हैं। नामवर सिंह के इस कथन के आलोक में अगर देखें तो फिल्म राजी दर्शकों को जबरदस्त सस्पेंस से गुजारती है। हर वक्त दर्शकों के मन में ये चलता रहता है कि अब सहमत के साथ क्या होगा, उसको लेकर एक डर बना रहता है।यह उत्सकुकता अंत तक बनी रहती है।   
हिंदी फिल्मों में भारत-पाकिस्तान के विभाजन और उसमें हिंदू मुस्लिम, पारसी, सिख परिवारों के द्वंद पर भी कई फिल्में आईं। भारत पाकिस्तान विभाजन को केंद्र में रखते हुए और उसके वजहों को दर्शाती पहली फिल्म मानी जाती है धर्मपुत्र।ये फिल्म यश चोपड़ा ने बनाई थी और 1961 में रिलीज हुई थी। ये फिल्म आचार्य चतुरसेन शास्त्री की इसी नाम की कृति पर आधारित थी। ये फिल्म कट्टरता, सांप्रदायिकता आदि आदि को शिद्दत से रेखांकित करती है।ये पारिवारिक फिल्मी कहानी है जिसमें दो परिवारों का द्वंद सामने आता है। इसके बाद एक फिल्म इस्मत चुगताई की कहानी पर आई गरम हवा। ये फिल्म काफी चर्चित रही थी और उसको काफी प्रशंसा और पुरस्कार दोनों मिले थे। इसको एस एस सथ्यू ने निर्देशित किया था। इस फिल्म को कला फिल्मों की शुरुआत के तौर पर भी माना जाता है। फिल्म भले ही आगरा के इर्द गिर्द है लेकिन इसका व्यापक फलक भारत-पाकिस्तान रिश्ता और बंटवारे के बाद का द्वंद है। साहित्यक कृतियों पर बनने वाली इस तरह की फिल्मों की एक लंबी सूची है । भीष्म साहनी के बेहद चर्चित उपन्यास तमस पर इसी नाम से अस्सी के दशक में टेली-फिल्म का निर्माण हुआ था। इस फिल्म में भारत विभाजन के बाद हिंदू और सिख परिवारों की यंत्रणाएं चित्रित हुई थीं। खुशवंत सिंह के उपन्यास ट्रेन टू पाकिस्तान पर इसी नाम से फिल्म बनी थी। इसमें भी विभाजन की त्रासदी है।  
विभाजन के बाद भारत पाकिस्तान में हुए युद्ध पर भी कई फिल्में बनीं। फिल्म राजी जिस तरह से 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध की पृष्ठभूमि पर है इसी तरह सत्तर के दशक के शुरुआती वर्ष में चेतन आनंद ने हिन्दुस्तान की कसम के नाम से एक फिल्म बनाई थी। इस फिल्म में 1971 के युद्ध के दौरान भारतीय वायुसेना के शौर्य को दिखाया गया था। इस फिल्म में वायुसेना के वेस्टर्न सेक्टर के अभियान ऑपरेशन कैक्टस लिली को केंद्र में रखा गया था। इसी नाम से एक और फिल्म बनी थी जिसमें अजय देवगन और अमिताभ बच्चन थे। आमतौर पर माना जाता है कि भारत पाकिस्तान युद्ध या दोनों देशों के रिश्तों पर बनी हिंदी फिल्में अच्छा कारोबार करती हैं लेकिन इन दोनों फिल्मों ने औसत कारोबार किया था। दूसरी बार बनी हिन्दुस्तान की कसम को तो बंपर ओपनिंग मिली थी लेकिन वो अपनी सफलता को कायम नहीं रख पाई थी।
विभाजन की विभीषिका और भारत पाक युद्ध के अलावा दोनों देशों के प्रेमी-प्रमिकाओं को केंद्र में रखकर भी दर्जनों फिल्में बनीं। सनी देवल की गदर एक प्रेम कथा जाट सिख लड़के और एक मुस्लिम लड़की के प्रेम पर आधारित एक्शन फिल्म थी। इस फिल्म को भी लोगों ने काफी पसंद किया था। इसी तरह से यश चोपड़ा की फिल्म वीर जारा भी लोगों को खूब पसंद आई। इसमें एक एयरफोर्स अफसर वीर को पाकिस्तानी लड़की जारा से प्रेम हो जाता है। तमाम मुश्किलों और बाधाओं के बाद भी दोनों मिल जाते हैं। नफरत पर प्रेम की जीत का संदेश। सलमान खान ने भी कई फिल्में की। बजरंगी भाई जान में एक पाकिस्तानी लड़की जो भटक कर हिन्दुस्तान आ जाती है उसको उसके घर तक पहुंचाने के लिए पवन कुमार चतुर्वेदी, जिसकी भूमिका सलमान ने निभाई है, जान की बाजी लगा देता है। अंत में फिर नफरत पर प्यार की जीत। कबीर खान की इस फिल्म को जमकर दर्शक मिले। कबीर खान ने ही एक था टाइगर बनाई जिसमें एक भारतीय एजेंट महिला पाकिस्तानी एजेंट से प्यार हो जाता है। इसका सीक्वल भी बना, टाइगर जिंदा है। इसमें तो उत्साही निर्देशक ने रॉ और पाकिस्तान का बदनाम खुफिया एजेंसी आईएसआई को साथ ऑपरेशन करते भी दिखा दिया, जो कल्पना की हास्यास्पद परिणति है। नफरत पर प्यार की जीत दिखाने के चक्कर में इस तरह की हास्यास्पद स्थितियों के चित्रांकन से बचना चाहिए अन्यथा दर्शकों का विवेक फिल्म को नकार भी सकता है।

Saturday, May 5, 2018

इस्लाम के नाम पर विरोध का पाखंड


अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर पर मचे बवाल के बीच एक और बेहद अहम खबर दब सी गई। उसपर चर्चा कम हो पाई। वैसे भी राजनीति के शोरगुल में कला संस्कृति हमेशा से दबती रही है, लेकिन राजनीति का शोरगुल अस्थायी होता है जबकि संस्कृति, कला और साहित्य में उठने वाले विवाद भले ही नेपथ्य में रहें पर कई पीढ़ियों पर इसका असर होता है। नेहरू जी के समय उठे राजनीतिक विवादों और आरोप-प्रत्यारोप किसको याद हैं लेकिन दिनकर की कृति उर्वशी का विवाद अभी भी लोगों के जेहन में ताजा है। पांडेय बेचन शर्मा उग्र की कृति चॉकलेट पर उठा विवाद और उसमें महात्मा गांधी के हस्तक्षेप को ना केवल याद किया जाता है बल्कि उसकी साहित्यिक मसलों में मिसाल भी दी जाती हैं।इस पृष्ठभूमि की चर्चा इस वजह से आवश्यक है कि पिछले दिनों सूफी और इस्लाम के नाम पर एक महिला को धमकाया गया, उसके कपड़ों को लेकर टिप्पणियां की गईं। 30 अप्रैल 2018 को गायिका सोना महापात्रा ने मुंबई पुलिस को एक के बाद एक कई ट्वीट किए। अपने पहले ट्वीट में सोना ने लिखा कि मुझे मदारिया सूफी फाऊंडेशन से एक धमकी भरा नोटिस मिला है जिसमें उन्होंने मुझे मेरे म्यूजिक वीडियो तोरी सूरत को हर प्लेटफॉर्म से हटा लेने को कहा है। उनका दावा है कि ये वीडियो अश्लील है और सांप्रदायिक तनाव को बढ़ा देगा। इसके बाद उन्होंने मुंबई पुलिस से ये जानना चाहा कि वो किससे संपर्क कर सकती है। इसके चंद मिनटों के बाद उन्होंने एक और ट्वीट किया सूफी मदारिया फाउंडेशन मुझे आदतन अपराधी मानता है और उनके मुताबिक पांच साल पुराना मेरा वीडियो जिसमें मैने सूफियाना कलाम पिया से नैना गाया था, में इस्लाम का अपमान किया गया है क्योंकि मैंने उस वीडियो में जो कपड़े पहने हुए हैं उससे मेरा शरीर दिखता है।एक और ट्वीट में फिर लिखा जिसमें उन्होंने साफ किया कि स्लीवलेस ड्रेस और शरीर दिखाती नृत्यांगनाओं पर फाउंडेशन को आपत्ति है। इस मसले को लेकर उन्होंने थाने जाने की जानकारी भी अपने ट्वीट के जरिए दी थी।
सोना को मिले इस धमकी भरे पत्र पर सोशल मीडिया में थोडा स्पंदन हुआ, एक-दो न्यूज चैनलों पर चर्चा भी हुई। जहां सोना ने खुद से मोर्चा संभाला। फाउंडेशन के अध्यक्ष का कहना था कि सोना इस वीडियो के माध्यम से पश्चिम की अपसंस्कृति को बढ़ावा दे रही हैं और उनका गाना और वीडियो में स्लीवलेस कपड़े पहनकर नृत्य करना सूफी परंपरा के खिलाफ है। सोना के मुताबिक सूफी फाउंडेशन के अध्यक्ष तो इसको इस्लाम के अपमान से भी जोड़ रहे थे। उनको कौन समझाए कि सूफी परंपरा मुहब्बत की परंपरा है, नफरत का वहां कोई स्थान नहीं है। फाउंडेशन को अगर लगता है कि इस म्यूजिक अल्बम में अमीर खुसरो और इस्लाम का अपमान हुआ है तो उनको अदालत की शरण में जाना चाहिए था। वो धमकी भरे मेल्स क्यों भेज रहे हैं। टीवी चैनलों पर अपनी आहत भावनाओं का प्रदर्शन क्यों कर रहे थे। उनको इस बात का पता था कि सोना महापात्रा का ये म्यूजिक वीडियो सेंसर बोर्ड से प्रमाणित है लेकिन वो इसको मानने को तैयार नहीं थे।
न्यूज चैनलों पर कई बार ये देखने को मिलता है कि जो शख्स दाढ़ी रखता है और टोपी भी पहनता है वो टीवी चैनलों पर इस्लामिक विद्वान के रूप में प्रस्तुत होता है। टीवी स्क्रीम पर बनी खिड़कियों में बहुधा ऐसे लोग चीखते नजर आते हैं। सोना के मामले में भी इस तरह के लोगों ने धर्म की आड़ में अपनी रोटी सेंकनी शुरू कर दी। इस्लाम को फिर से परिभाषित किया गया लेकिन स्त्री का किसी को ध्यान नहीं। वहीं ये तय किया जाने लगा कि स्त्री कैसे रहे, क्या पहने, क्या गाए आदि आदि। अन्य वक्ताओं ने विरोध भी किया पर मुख्य मुद्दा सियासत के बियावान में खो सा गया। सियासत का तो काम है कि वो किसी भी मुद्दे को अपना औजार बना ले, लेकिन बौद्धिक जगत के किसी भी वर्ग से इस तरह की अपेक्षा नहीं की जाती है। सोना के मामले पर बौद्धिक और कला जगत में कोई खास विरोध देखने को नहीं मिला। एक स्त्री को इस वजह से धमकी दी गई कि उसके कपड़े ठीक नहीं हैं, नृत्य अश्लील है, लेकिन स्त्री विमर्श की झंडाबरदार भी लगभग खामोश ही रहीं। कुछ लोगों ने ट्वीट पर विरोध जताया । मशहूर लेखक और शायर जावेद अख्तर ने सोना के समर्थन में ट्विटर पर लिखा- मैं इस तरह के प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी संगठनों के इस तरह के बर्ताव का पुरजोर विरोध करता हूं, जो सोना महापात्रा के अमीर खुसरो के गीत पर बनाए गए वीडियो पर धमकी देते हैं। इन मुल्लाओं को ये मालूम होना चाहिए कि अमीर खुसरो सभी भारतीयों के हैं, सिर्फ उनकी जागीर नहीं हैं। अन्य इस्लामिक बुद्धिजीवियों को भी जावेद साहब की तरह आगे आकर इस तरह के मसलों का विरोध करना चाहिए और इस्लाम के मुताबिक स्थिति साफ करनी चाहिए।
जावेद अख्तर ने विरोध किया लेकिन अन्य प्रगतिशील विद्वानों का क्या? उनको सोना महापात्रा का अपमान और उनको मिल रही धमकी क्यों नजर नहीं आ रही है। नजर तो उनको अभिनेत्री जायरा वसीम को मिल रही धमकियां भी नहीं आई थीं, जब वो बच्ची दंगल फिल्म की सफलता के बाद अपने गृह राज्य कश्मीर गई थी। उसे इतनी धमकियां मिली थीं कि फेसबुक पोस्ट तक जिलीट करनी पड़ी थी। जिन्ना और अलीगढ़ हिंसा पर न्यायिक जांच की मांग करनेवाले जनवादी लेखक संघ को सोना महापात्रा को मिल रही धमकी और उसका अपमान नजर नहीं आता। उन बयानवीर लेखकों को भी सोना के कपड़ों पर इस्लाम के बहाने सवाल उठानेवाले लोग नजर नहीं आते जो बयान देने के लिए लालायित रहते हैं। क्यों इस्लाम का नाम लेते ही हमारे कथित प्रगतिशील, जनवादी आदि आदि कहलाने वालों के हलक सूखने लगते हैं। सोना एक कलाकार होने के अलावा एक स्त्री भी है, वो क्या पहने, कैसे रहे, क्या गाए ये उसकी स्वतंत्रता है, भारत का संविधान उसको इसकी इजाजत देता है। अगर कोई संविधान के दायरे से बाहर निकलकर उसको धमकी देता है तो भी हमारे प्रगतिशीलता के धव्जवाहक खामोश रहते हैं क्योंकि मामला उनके राजनीतिक अकाओं के मुताबिक नहीं है। सवाल तो उन स्त्रीवादी, नारीवादियों पर भी है जो सोना महापात्रा के समर्थन में खड़ी नहीं हो पा रही हैं। इस मसले पर उनकी कलम भी सूख सी गई, कीबोर्ड जाम हो गया, उनके अंदर का एक्टिविस्ट निरपेक्ष हो गया। यह चुनी हुई चुप्पी या चुनी हुई खामोशी है जो जनवाद और प्रगतिशीलता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
यह पहला मौका नहीं है जब किसी कट्टरपंथी की धमकी पर हमारा कथित तौर पर तरक्कीपसंद खेमा खामोश है। दरअसल अगर हम देखें तो जनवाद, प्रगतिवाद या फिर इससे अलग होकर जन संस्कृति के नाम पर साहित्य के मार्फत सियासत करनेवाले लेखक, संस्कृतिकर्मी, कलाकार दो मसलों पर बिल्कुल खामोश हो जाते हैं। एक तो जब इस्लामिक कट्टरपंथी संस्कृति आदि के नाम पर कुछ करते या बोलते हैं और दूसरे रूस या चीन में कुछ घटित होता है। कुछ महीनों पहले बांग्लादेश में कट्टरपंथियों ने टैगोर की रचनाओं को वहां की पाठ्य पुस्तक से हटवाने की मुहिम चलाई थी, लेकिन हमारा प्रगतिशील तबका तब खामोश रहा था। इसी तरह चीन के एक विश्वविद्यालय ने छात्रों के लिए एक फरमान जारी किया था जिसके मुताबिक कैंपस में लड़का- लड़की एक दूसरे के हाथ में हाथ डालकर नहीं चल सकते थे । लड़का-लड़की एक दूसरे के कंधे पर हाथ भी नहीं रख सकते हैं। इस फैसले में हमारे कथित प्रगतिशील जमात में से किसी को निजता का हनन नजर नहीं आया था।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर के लिए जिनका दिल धड़कता है, जो किसी छोटी सी घटना पर देश के गृहमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक को कठघरे में खड़ा कर देते हैं, उनसे जवाब की अपेक्षा रखते हैं उनकी सोना जैसे मसलों पर खामोशी का मतलब समझ नहीं आता । अगर आप बौद्धिक रूप से ईमानदार हैंअगर आप किसी विचारधारा की बेड़ियों में जकड़े हुए नहीं हैं तो साहित्यक और सामाजिक मुद्दों पर आपकी कलम वस्तुनिष्ठ होकर चलनी चाहिए । कलम में वो धार होनी चाहिए, वो तेज होनी चाहिए जो कि एक न्यायप्रिय शासक के पास हुआ करती थी । जो बगैर धाराविचारधारासंगठनस्वार्थजाति समुदाय आदि को देखे न्याय करता था । कलम को अगर हम किसी खास विचारधारा का गुलाम बनाएंगे या फिर कलम की धार किसी खास समुदाय के समर्थन में उठा करेगी तो समय के साथ उस कलम पर से पाठकों का विश्वास  उठता चला जाएगा । लेखकों की नैतिक आभा का क्षरण होना किसी भी समाज के लिए शुभ संकेत नहीं होता है।