Sunday, October 31, 2021

अर्थहीन अतिसक्रियता के अराजक मंच


पिछले दिनों अंग्रेजी के एक स्तंभकार ने कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी का आकलन करते हुए अंग्रेजी में एक लेख लिखा। अपने लेख के लिंक को उन्होंने ट्विटर पर साझा किया और उसमें उन्होंने राहुल गांधी की जगह राजीव गांधी लिखा। थोड़ी ही देर में उन्होंने अपने उस ट्वीट को डिलीट कर दिया। फिर से लिंक साझा किया, इस थोड़ी लंबी टिप्पणी लिखी लेकिन फिर उन्होंने राहुल गांधी की जगह राजीव गांधी लिख दिया। फिर डिलीट कर दिया और तीसरी बार में उन्होंने अपने लेख के अनुसार ट्वीटर टिप्पणी में राहुल गांधी और कांग्रेस लिखा। तबतक कुछ लोग उनसे मजे ले चुके थे। उनको राजीव गांधी की भक्ति से बाहर निकलने की सलाह दे चुके थे। कई ने उनके पहले ट्वीट का स्क्रीन शॉट लेकर उनको राजीव गांधी के प्रभाव से मुक्त होने की सलाह भी दे डाली थी। ट्वीटर की दुनिया में ऐसा कई बार कई लोगों के साथ होता है। दरअसल इंटरनेट मीडिया की इस दुनिया का स्वभाव बिल्कुल अलग है। कई काम जो इंटरनेट मीडिया ने किया उसको रेखांकित करना तो आवश्यक है लेकिन इसके प्रभाव पर भी विचार करना चाहिए। इंटरनेट मीडिया के इन मंचों ने वैसे सभी लोगों को उनके मूल स्वभाव और रूप में दुनिया के सामने प्रस्तुत कर दिया। इस मीडिया ने वैसे सभी स्तंभकारों के पक्ष को भी सामने ला दिया जो ये दावा करते नहीं थकते थे कि वो निष्पक्ष हैं। निष्पक्ष होने का दावा करनेवाले लगभग सभी स्तंभकार, टिप्पणीकारों की सोच का परत दर परत सामने आ गया। ट्वीटर, फेसबुक और अन्य इंटरनेट माध्यम को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि इसने निष्पक्षता की आड़ में इस या उस राजनीतिक दल या विचारधारा का समर्थन करनेवालों के सामने से आड़ हटा दी । 

पिछले दिनों शाह रुख खान के पुत्र आर्यन खान पर नशाखोरी का आरोप लगा। वो जेल गए। अदालती कार्यवाही चली और आखिर में बांबे हाई कोर्ट ने उनको जमानत दे दी। गिरफ्तारी से लेकर जमानत पर बांबे हाईकोर्ट के फैसले तक इंटरनेट मीडिया के माध्यमों पर ट्वीटर और फेसबुक वीरों ने जमकर तलबारबाजी की। अदालत पर सवाल उठाए। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो और उसके अधिकारियों की मंशा पर प्रश्न खड़े किए गए। केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास हुआ। परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री मोदी को भी इस विवाद में शामिल करने का प्रयास हुआ। अदालत से पहले इंटरनेट मीडिया पर सक्रिय लोगों ने अपना निर्णय सुना दिया कि आर्यन बेगुनाह है। ये सोचने की जहमत नहीं उठाई कि अगर शाह रुख खान के बेटे को विशेष अदालत ने जमानत नहीं दी तो उसका कोई आधार होगा। उस न्यायाधीश के बारे में विचार नहीं किया गया जिसके फैसले पर पूरे देश की निगाहें टिकी थीं। ये भी नहीं सोचा गया कि मुंबई हाईकोर्ट ने तीन दिनों तक केस की दलीलों को क्यों सुना? केस के मेरिट पर बहस करना वकीलों और उसपर निर्णय सुनाना अदालत का काम है। ट्वीटरवीरों को धैर्य कहां है। वो तो अपने मन का फैसला सुनना चाहते हैं। अगर उनके मनमुताबिक निर्णय नहीं आया या किसी जांच एजेंसी का कोई कदम उनके हिसाब  नहीं है तो बगैर कुछ सोचे समझे आलोचना शुरु कर देते हैं। निर्णयात्मक टिप्पणियां करने लग जाते हैं। यह एक नया ट्रेंड है जो इंटरनेट मीडिया के ये अराजक मंच अपने उपयोगकर्ताओं को देते हैं। लोकतंत्र में आलोचना करने का अधिकार सभी नागरिकों को है, लेकिन उसका कोई आधार तो होना चाहिए। जब मंच ही अराजक होने की छूट देता है तो उपयोगकर्ता क्यों परहेज करें। 

इंटरनेट मीडिया के मंचों पर एक तीसरी प्रवृत्ति दिखाई देने लगी है। ये प्रवृति है समाज में जहर घोलने की कोशिश। जैसे ही शाह रुख खान का पुत्र गिरफ्तार होता है तो इस तरह के ट्वीट आने लगते हैं कि देश के मुस्लिम सुपरस्टार को तंग किया जा जा रहा है। मुस्लिम सुपरस्टार को चुप कराने की साजिश की जा रही है। अब ये प्रवृत्ति कितनी घातक है इसपर विचार किया जाना चाहिए। शाह रुख खान की कला का सम्मान इस देश के हिंदुओं ने भी किया। उन्होंने भी शाह रुख खान की फिल्में देखीं। शाह रुख खान को क्या सिर्फ मुसलमानों ने सुपरस्टार बनाया। क्या सिर्फ मुस्लिम दर्शक शाह रुख खान की फिल्मों के प्रशंसक हैं। बिना ये सोचे समझे कला को भी सांप्रदायिकता का शिकार बनाने की जो मानसिकता है वो भी इसी इंटरनेट मीडिया के मंच पर दिखाई देती है। इस तरह के ट्वीट से समाज बंटता है। समाज में वैमनस्यता फैलती है जो किसी भी तरह से न तो देशहित में है और न ही हमारे अपने हित में । इंटरनेट मीडिया के इन मंचों के अराजक स्वभाव को न तो देशहित की चिंता है और न ही समाज हित की। सांप्रदायिक सोच का खुले आम प्रकटीकरण और उस सोच को मुखर और मौन दोनों तरह का समर्थन मिलता है। क्या इंटरनेट मीडिया के उपयोगकर्ताओं ने कभी ये सोचा कि किसी भी कला को हिंदू मुसलमान में विभक्त करके वो कितना बड़ा अपराध कर रहे हैं। नहीं सोचा। सोचने का समय आ गया है। 

इंटरनेट मीडिया खासकर ट्वीटर पर इन दिनों कुछ लोग अति सक्रियता के शिकार भी नजर आते हैं। छोटी छोटी बातों पर कैंपेन चला देना और फिर संबंधित व्यक्ति या समूह  कंपनी पर हमलावर अंदाज में अपनी बातें करना इसी अति सक्रियता का उदाहरण है। ऐसे कई छोटे छोटे समूह खासतौर पर ट्वीर पर देखे जा सकते हैं जो हर दिन ये ढूंढते हैं कि आज क्या ट्रेंड करवाया जाए। इस अति सक्रियता से कई बार नकारात्मकता का भाव सामने आता है। एक ऐसा नकार जो समाज और देश हित में नहीं होता। लेकिन ट्रेंड करवाने वाले इन समूहों को इसका भान नहीं होता है कि उनके तथाकथित कैंपेन का असर कितना गहरा होता है। पिछले दिनों एक विज्ञापन एजेंसी के बड़े अधिकारी से बात हो रही थी तो उन्होंने बताया कि अब तो विज्ञापन एजेंसियां क्रिएटिव बनाते समय कई बार इस बात को ध्यान में रखकर काम करती हैं कि ये विवादित होगा कि नहीं। कई बार जानबूझ कर विवाद पैदा करनेवाले विज्ञापन बनाए जाते हैं। ट्वीटर पर अतिसक्रिय समूह बहुधा इस तरह के विज्ञापनों को लेकर हो हल्ला मचाने लगते हैं और विज्ञापन एजेंसी का काम पूरा हो जाता है। फिल्मों और वेब सीरीज को लेकर इस तरह के विवादित कैंपेन आपको ट्वीटर पर नियमित अंतराल पर देखने को मिलते हैं। किसी कार्यक्रम में किसी को बुलाने को लेकर आए दिन हो हल्ला मचता ही रहता है। किसी समिति में किसी के नामांकन पर भी पक्ष विपक्ष में टीका टिप्पणी होती ही रहती है।  इसके अलावा इन दिनों इंटरनेट मीडिया पर धर्म को लेकर भी तरह तरह की टिपणियां देखने को मिलती हैं। कई बार कट्टर हिंदू जैसे शब्द भी पढने को मिलते हैं। हिंदू और कट्टरता दोनों नदी के दो किनारे हैं जो कभी मिल ही नहीं सकते। हिंदू विचार  या हिंदू दर्शन से अनभिज्ञ लोग इस तरह की शब्दावली का उपयोग कर खुद को हास्यास्पद बनाते हैं। ट्वीटर पर कोई छोटा मोटा कैंपेन भी चलता है तो ट्विटर पर सक्रिय लोगों का उत्साह देखते ही बनता है। वो ये भूल जाते हैं कि एक सौ तीस करोड़ से अधिक आबादी वाले इस देश में ट्वीटर पर सिर्फ सवा दो करोड़ लोग सक्रिय हैं। फेसबुक पर करीब चौंतीस करोड़। इसमें भी कितने लोग सक्रिय हैं वो देखने पर संख्या और कम हो जाती है। इसलिए ट्वीटर और फेसबुक पर चलनेवाली बहसों का इसका कोई अखिल भारतीय प्रभाव होता होगा, इसमें संदेह है। 


Sunday, October 24, 2021

लता को सावरकर ने संवारा


महापुरुष वो होते हैं जो अपने ज्ञान से मानव जाति का कल्याण मात्र नहीं करते बल्कि पीढ़ियों को संस्कारित करते हैं । अपने विचार और ज्ञान से वो प्रतिभा को न सिर्फ चिन्हित करते हैं बल्कि उनको उस पथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं जो महानता की ओर जाता है। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद और वीर सावरकर ऐसे ही महापुरुष थे जिन्होंने अपनी वाणी और व्यक्तित्व से कई लोगों को संस्कारित किया। वीर सावरकर ने तो  न केवल भारत माता को गुलामी की जंजीर से मुक्त करने का स्वप्न देखा बल्कि उसको साकार करने के लिए लंबे समय तक भयंकर यातनाएं झेलीं। इतना ही नहीं उन्होंने अपने प्रेरणादायी व्यक्तित्व से, अपने विचारों से पीढ़ियों को प्रभावित किया। कई कई ऐसे नायक तैयार कर दिए जो भारत के भाल पर चमकता सितारा है। ऐसा ही एक सितारा है लता मंगेशकर। भारत रत्न लता मंगेशकर । 

कुछ दिनों पहले लता मंगेशकर ने लिखा,आज से 90 साल पहले 18 सितंबर 1931 को मेरे पिताजी के ‘बलवंत संगीत मंडली’ के लिए वीर सावरकर जी ने एक नाटक लिखा जिसका नाम था, संन्यस्त खड्ग। उसका पहला प्रयोग मुंबई (तब बांबे) ग्रांट रोड के एलफिस्टन थिएटर में हुआ जिसमें बाबा ने ‘सुलोचना’ की भूमिका की थी। लता मंगेशकर जब ये लिख रही थीं तो वो उस दौर कि बात कर रही थीं जब उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर अपनी संगीत मंडली के जरिए संगीत और रंगमंच की दुनिया में सार्थक हस्तक्षेप कर रहे थे। दीनानाथ मंगेशकर ने मात्र 18 वर्ष की उम्र में अपने दोस्तों के साथ मिलकर बलवंत संगीत मंडली का गठन किया था। अभिनेत्री पद्मिनी कोल्हापुरे के दादा कृष्णराव कोल्हापुरे भी उस वक्त इस संगीत मंडली में बेहद सक्रिय थे। जब संगीत मंडली के कार्यक्रम लोकप्रिय होने लगे तो दीनानाथ मंगेशकर ने अपनी मंडली के लिए नए नाटक लिखवाने आरंभ किए। उस दौर में विनायक दामोदर सावरकर ने बलवंत संगीत मंडली के लिए संन्यस्त खड्ग नाटक लिखा था। जिसकी चर्चा लता मंगेशकर ने की है। ये नाटक बेहद लोकप्रिय हुआ था। दीनानाथ मंगेशकर और सावरकर के संबंध प्रगाढ़ होते चले गए। अब ये संबंध औपचारिकताओं की सीमा तोड़कर घरेलू संबंध जैसे हो गए थे। लता मंगेशकर ने कई इंटरव्यू में वीर सावरकर के साथ अपने संबंधों को बहुत आत्मीयता के साथ याद किया है। वीर सावरकर ने कैसे लता मंगेशकर के जीवन की दिशा बदल दी इसपर आने के पहले आपको बता दें कि बलवंत संगीत मंडली के मंच पर ही पहली बार लता मंगेशकर ने गाया था। इसकी बेहद दिलचस्प कहानी है जिसको लता मंगेशकर ने अपने एक इंटरव्यू में बताया है। उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर अपनी मंडली के साथ कोल्हापुर गए थे, साथ में अपनी बेटी को लेकर भी गए थे। नौ साल की छोटी सी बच्ची हमेशा पिता के साथ रहती थी। वहां के माहौल को देखकर अचानक बच्ची ने पिता से स्टेज पर गाने के बारे में पूछा । पिता थोड़े चकित हुए जब बिटिया ने कहा कि वो उनके साथ गाना चाहती हैं। मुस्कुराते हुए पिता ने पुत्री को गाने की अनुमति तो दी लेकिन ये पूछा कि वो कौन सा राग गाएगी। बेटी के मुंह से निकला राग खंबावती। ये सुनकर दीनानाथ मंगेशकर को आश्चर्य तो हुआ पर प्रसन्न भी हुए। कहा चलो आज तुम स्टेज पर गाकर दिखाओ। कोल्हापुर के नूतन थिएटर में लता मंगेशकर ने राग खंबावती तो गाया ही, दो और मराठी गाने गाए। इस संगीत मंडली से भी सावरकर का गहरा जुड़ाव था।  और लता मंगेशकर के पिता उनके साथ अपने अनुभवों को साझा करते थे। एक दूसरे से सलाह मशविरा किया करते थे।

मंगेशकर परिवार में जीवन अपनी गति से चल रहा था। लता मंगेशकर जब तेरह साल की हुईं तो अचानक से उनके परिवार पर वज्रपात हुआ। उनके पिता गुजर गए। अब परिवार के सामने कई तरह का संकट खड़ा होगा। इतने कम उम्र में लता मंगेशकर के कंधे पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी आ गई। पिता की मृत्यु के बाद लता मंगेशकर बेहुत परेशान रहने लगी थी। संघर्ष के उस दौर में भी मंगेशकर परिवार को वीर सावरकर का साथ मिला था। उन्होंने अपने सोच और विचारों से लता मंगेशकर को प्रभावित किया। यतीन्द्र मिश्र ने अपनी पुस्तक में लता मंगेशकर  की जिंदगी को अहम मोड़ देने के सावरकर के योगदान को रेखांकित किया है। अपनी किशोरावस्था में लता मंगेशकर ने समाज सेवा करने की ठान ली थी। अपने इस निर्णय के बारे में लता ने वीर सावरकर से चर्चा की थी। सावरकर ने ही उन्हें समझाया था कि तुम ऐसे पिता की संतान हो जिसका शास्त्रीय संगीत और कला में शिखर पर नाम चमक रहा है। अगर देश की सेवा ही करनी है तो संगीत के मार्फत समाजसेवा करते हुए भी उसको किया जा सकता है। यहीं से लता मंगेशकर का मन भी बदला जो उन्हें संगीत की कोमल दुनिया में बड़े संघर्ष की तैयारी के लिए ले आया। हम भारतीयों को सावरकर का ऋणी होना चाहिए कि उन्होंने एक बड़ी प्रतिभा को खिलकर सफल होने का जज्बा दिया। कल्पना कीजिए कि अगर सावरकर ने लता मंगेशकर को ये सलाह न दी होती तो क्या होता। स्वाधीनता का स्वप्न देखनेवाले एक क्रांतिवीर ने अपनी मिट्टी में जन्मी प्रतिभा को रास्ता दिखाकर उसको संवारा। बाद के वर्षों में भी लता मंगेशकर ने वीर सावरकर के लिखे कई गीतों को अपनि वाणी दी। सावरकर का शिवाजी पर लिखा एक मराठी गीत आज भी बेहद लोकप्रिय है। इस गीत के बोल हैं ‘हे हिंदू नृसिंहा प्रभो शिवाजी राजा’। लता मंगेशकर ने जब संगीत पर आधारित फिल्म बनाने की सोची तो उसका मुहुर्त वीर सावरकर से ही करवाया था। कहना ना होगा कि वीर सावरकर ने लता मंगेशकर की जिंदगी को जो दिशा दी उसने सुरों की दुनिया को लता जैसा कोहिनूर दिया। 

Saturday, October 23, 2021

इतिहास लेखन की सांप्रदायिक प्रविधि


गांधी जयंती के अवसर पर किशोरों के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। उस कार्यक्रम में महात्मा गांधी से जुड़े कई सत्र आयोजित किए गए थे। एक सत्र में बच्चों को पांच मिनट तक बापू की जिंदगी और उनके सिद्धांतों पर बोलना था। वक्ता आ रहे थे और तय समय में अपनी बात रखकर जा रहे थे। कुछ प्रतिभागी हिंदी में और कुछ अंग्रेजी में अपनी बात रख रहे थे। आखिरी विद्यार्थी ने गांधी की जिंदगी पर बोलना आरंभ किया और उनकी हत्या पर अपनी बात खत्म की। अपने वक्तव्य के अंत में उसने कहा कि गांधी वाज किल्ड बाय ए हिंदू फैनेटिक नाथूराम गोडसे ( गांधी की हत्या एक हिंदू कट्टरपंथी नाथूराम गोडसे ने की)। बात रखने के बाद वो चला गया। सभागार में सबकुछ सामान्य था लेकिन मेरे मन में एक बात चल रही थी कि उसने ‘हिंदू फेनेटिक’ शब्द का उपयोग क्यों किया। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद मैं उसके पास गया और उसको लेकर सभागार से बाहर निकला। मैंने उस किशोर से पूछा कि आपने नाथूराम गोडसे को हिंदू कट्टरपंथी क्यों कहा? क्या सिर्फ कट्टरपंथी कहना काफी नहीं था। उसने जो उत्तर दिया उसने एक और बड़ा प्रश्न मेरे सामने खड़ा कर दिया। उसने कहा कि उसको बचपन से ही ये बताया/पढ़ाया जा रहा है कि गांधी कि हत्या एक हिंदू ने की। इस प्रसंग के बाद मैंने कुछ इतिहासकारों की पुस्तकों को टटोलना आरंभ किया। कई जगहों पर गोडसे को हिंदू फेनेटिक या हिंदू कट्टरपंथी कहा गया है। बच्चो को पढ़ाई जानेवाली पुस्तक जिसको भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाली संस्था राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) तैयार करती है उसमें भी परोक्ष रूप से नाथूराम गोडसे को हिंदू बताया गया है। इस पुस्तक में कहा गया है कि गांधी की हत्या करनेवाला युवक ब्राह्मण था, पुणे का रहनेवाला था और चरमपंथी हिंदू अखबार का संपादक था।   

इन प्रश्नों से जूझ ही रहा था कि एक दूसरा प्रसंग सामने आया। ये प्रसंग अपनी लेखनी से ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती देनेवाले पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या से जुड़ा है। गणेश शंकर विद्यार्थी ने स्वाधीनता संग्राम के दौरन ‘प्रताप’ साप्ताहिक पत्र के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनमानस तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई थी। उनका एक पांव जेल के अंदर और एक जेल के बाहर रहता था। राष्ट्रवादियों के साथ उनका संपर्क सतत बना रहता था। गांधी की तरह इनकी भी हत्या कर दी गई थी। इनकी हत्या किसने की इस पर जितना लिखा गया उससे अधिक छिपाया गया। ज्यादातर जगहों पर ये उल्लेख मिलता है कि गणेश शंकर विद्यार्थी दंगाइयों के शिकार बन गए। कई जगह तो सिर्फ इतना उल्लेख मिलता है कि विद्यार्थी जब समाज में समरसता स्थापित करने में लगे थे तो उन्मादियों की भीड़ ने उनको मार डाला। इस बात का उल्लेख नहीं मिलता है कि उनकी हत्या करनेवाला कौन था। गांधी के हत्यारे के विपरीत यह नहीं बताया जाता है कि गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या करनेवाला किस पंथ या मजहब से जुड़ा था। उनके हत्यारे की पहचान छिपा ली जाती है। गांधी जयंती समारोह के बाद मन में ये प्रश्न उठा कि इस बात की खोज की जाए कि गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या किसने की। इसको खोजना आरंभ किया। कुछ जगहों पर यह मिला कि अंग्रेज अधिकारियों ने गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या की साजिश रची थी और दंगों की आड़ में उसको अंजाम तक पहुंचा दिया। युगपुरुष गणेश शंकर विद्यार्थी पुस्तक में उनकी हत्या के एक चश्मदीद गनपत सिंह का बयान मिला। इसमें  25 मार्च की दोपहर तीन से चार बजे कानपुर के चौबेगोला के पास की घटना का वर्णन है। ‘इसी समय बकरमंडी के मुसलमानों का दल नई सड़क पहुंच गया और इस प्रकार गणेश जी फिर दो गिरोहों के बीच फंस गए। मैं उनसे पंद्रह गज की दूरी पर खड़ा हुआ था। इतने में एक मुसलमान चिल्लाकर बोला यही गणेश शंकर विद्यार्थी हैं , इसे खत्म कर दो, बचने न पाए। गिरोह में से सबसे पहले दो पठानों ने गणेश जी के साथ एक साथी पर हमला किया। वह व्यक्ति दस मिनट के अंदर वहीं मर गया। इतने में  कुछ मुसलमान गणेश जी पर दौड़ पड़े और एक ने उनपर छुरे से वार कर दिया और दूसरे ने कांते का प्रहार किया। गणेश जी भूमि पर गिर पड़े और कुछ अन्य लोग भी उनपर प्रहार करने लगे।‘  तीन चार दिन बाद विद्यार्थी जी की लाश मिली थी। इस प्रसंग का उल्लेख लखनऊ के लोकोदय प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक अंतर्वेद प्रवर में भी मिलता है। इस पुस्तक में गणेश जी के साथ रहे शंकरराव टाकलीकर का बयान प्रकाशित है। उसमें भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या मुसलमानों की भीड़ ने की थी। 

अब गांधी जी की हत्या के प्रसंग को और गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या की घटना और उसपर प्रचलित लेखों की भाषा पर नजर डालें तो आपको पता चल जाएगा कि इतिहास के साथ किस तरह का छल किया गया है। गांधी की हत्या ‘हिंदू कट्टरपंथी’ करता है और विद्यार्थी जी की हत्या ‘उन्मादी भीड़’ करती है। इतिहास लेखन की ये सांप्रदायिक प्रविधि है। इस तरह के लेखन के पीछे की मंशा क्या हो सकती है इपर भी विचार किया जाना आवश्यक है। वामपंथी इतिहासकारों के इस तरह के छल की सूची बहुत लंबी है। इतिहास के नाम पर जिस तरह का लेखन स्वतंत्र भारत में विचारधारा विशेष के इतिहासकारों ने किया वो अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आता है। मार्क्सवादियों के बौद्धिक प्रभाव में इस तरह की धारा अकादमिक जगत में चली जिसने कई पीढ़ी के विद्यार्थियों के मन में अपने ही इतिहास को लेकर एक अलग छवि का निर्माण किया। समाज में वैमनस्यता की लकीर गहरी करे में इस तरह का इतिहास लेखन भी जिम्मेदार है। यह सब तब हो रहा था कि जब हमारे देश में साक्षरता दर कम थी और संचार के अन्य माध्यम नहीं थे । जो लिख दिया जाता था उसको अंतिम सत्य मान लिया जाता था। उनके लिखे को चुनौती देनेवालों को अकादमिक जगत में ये स्वीकार ही नहीं करते थे। उनकी उपेक्षा की जाती थी। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की स्थापना के उद्देश्यों और उसपर मार्क्सवादी इतिहासकारों के कब्जे के इतिहास पर नजर डालने से ये सब बहुत स्पष्ट रूप से दिखता है। जब देश स्वतंत्र हुआ था उस समय अगर इतिहास अनुसंधान परिषद में बगैर वैचारिक फिल्टर लगाए इतिहास लेखन का काम हुआ होता तो आज इतिहास को लेकर जो भ्रम है वो नहीं होता। उस वक्त स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े व्यक्तियों के अनुभवों को कलमबद्ध कर उसका प्रकाशन किया जाता तो इतिहार की सूरत अलग होती। लेकिन मार्क्सवादी इतिहासकारों ने ऐसा होने नहीं दिया।  एकांगी इतिहास लेखन का परिणाम यह हुआ कि भारत के बौद्धिक चिंतन कि जो धारा परतंत्रता के दौर में प्रखरता से विदेशी आक्रांताओं का प्रतिकार कर रही थी वो कुंद होने लगी। चिंतन धारा को बाधित कर अपने वैचारिकता को आगे बढ़ाने का जो उपक्रम मार्क्सवादी इतिहासकारों और बौद्धिकों ने किया उसके पीछे का सोच सिर्फ अपनी विचारधारा को पुष्ट करना था। उस विचारधारा के आधार बनाई गई राजनीतिक पार्टियों के लिए वोट पक्का करना था। अपने इस काम में वो कई सालों तक सफल भी रहे लेकिन सत्य को लंबे समय तक रोक पाना बेहद मुश्किल काम है। इतिहास लेखन की मार्क्सवादि पद्धति, जिसको उसके पैरोकार वैज्ञानिक पद्धति करार देते थे, पक्षपाती पद्धति दिख रही है। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में इतिहास लेखन की इस सांप्रदायिक पद्धति को समावेशी बनाने की आवश्यकता है।  

Saturday, October 16, 2021

चमकीली दुनिया का ‘नशीला’ यथार्थ


हिंदी फिल्मों के जानेमाने अभिनेता शाह रुख खान के पुत्र इन दिनों नशाखोरी के आरोप में जेल में हैं। उनकी जमानत याचिका पर कई बार सुनवाई होने के बाद अदालत ने फैसला सुरक्षित कर लिया है। यह एक व्यस्थागत प्रक्रिया है जिसका संवैधानिक अधिकार अदालत को है। अदालत ने उसी प्रक्रिया और अधिकार के अंतर्गत ऐसा किया है। इस घटना से कई प्रश्न खड़े हो रहे हैं। हिंदी फिल्मों की दुनिया, जिसको बालीवुड भी कहा जाता है, से पिछले दिनों नशे को लेकर कई सनसनीखेज खबरें आती रही हैं। सुशांत सिंह राजपूत के असामयिक निधन और उसके बाद की घटनाओं की याद अभी देश के मानस में ताजा हैं। उस दौर में ही प्रख्यात अभिनेत्री दीपिका पादुकोण, श्रद्धा कपूर जैसी कई अन्य अभिनेत्रियों से ड्रग्स के मामले में पूछताछ हुई थीं। ये ऐसी घटनाएँ हैं जो इस ओर संकेत करती हैं कि बालीवुड की चमकीली दुनिया का यथार्थ कितना काला है या ड्रग्स के दलदल में फिल्मी दुनिया कितनी गहरे धंस चुकी है। फिल्मी दुनिया से जुड़े कई लोग पहले भी ड्रग्स के मकड़जाल में फंसे हैं। संजय दत्त का केस तो बहुचर्चित रहा है। अभिनेता फरदीन खान और विजय राज के नाम ड्रग्स मामले में न केवल सार्वजनिक हुए बल्कि उनको तो जेल भी जाना पड़ा था। इसके अलावा भी कई ऐसे नाम हैं जिनके बारे में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लोग जानते हैं लेकिन कभी सामने नहीं आए । 2012 में जुहू में एक रेव पार्टी पर पुलिस ने छापा मारा था तो टेलीविजन के कई कलाकार और कई फिल्मी सितारों के बच्चे पकड़े गए थे। उस रेव पार्टी की खूब चर्चा हुई थी। शाह रुख खान के पुत्र की गिरफ्तारी के बाद एक बार फिर से फिल्मी दुनिया और ड्रग्स कनेक्शन पर बात हो रही है। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के बाद भोजपुरी अभिनेता और भारतीय जनता पार्टी के सांसद रवि किशन ने संसद में फिल्म इंडस्ट्री में नशाखोरी पर चिंता जताते हुए अपना बयान दिया था। उस वक्त समाजवादी पार्टी की सांसद और अभिनेत्री जया बच्चन ने उनपर पलटवार किया था। जया बच्चन ने तो रवि किशन पर इशारों इशारों में जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं, जैसा आरोप लगाया था। बहस रवि किशन की बात से हटकर जया बच्चन के बयान पर केंद्रित हो गई थी। बालीवुड में ड्रग्स का मामला दब गया था। 

आज जब शाह रुख खान का बेटा ड्रग मामले में फंसा है तो बालीवुड की तमाम हस्तियां खामोश हैं। अभिनेता ऋतिक रोशन ने जरूर एक बयान दिया लेकिन बाकी सभी बड़े स्टार चुप्पी साधे हुए हैं। बालीवुड के ट्वीटरवीर अभिनेता और निर्देशक भी इस मसले पर कुछ नहीं बोल रहे हैं। कुछ लोग बोल रहे हैं तो आर्यन खान की जमानत में हो रही देरी पर आवाज उठा रहे हैं। एक ने तो यहां तक कह दिया कि चूंकि शाह रुख खान ‘मुस्लिम सुपरस्टार’ हैं इसलिए उनको परेशान किया जा रहा है। शाह रुख खान को मुसलमान सुपरस्टार के तौर पर देखने वालों की मानसिकता किस स्तर की हो सकती है, उनकी सोच कितनी सांप्रदायिक है या फिर वो जिन्ना का सोच को अपनाते हुए फिर से समाज को बांटने का उपक्रम कर रहे हैं। इसपर विचार करना चाहिए। आपको याद होगा जब क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान अजहरुद्दीन पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगा था तब उन्होंने कहा था कि उनको मुसलमान होने की वजह से परेशान किया जा रहा है। ऊल-जलूल लिखकर अपनी बौद्धिक पहचान के लिए लगातार संघर्ष कर रही एक अभिनेत्री ने शाह रुख को परेशान करने का आरोप लगाया। अब उनको कौन समझाए कि अदालतें आर्यन के मामले की लंबी-लंबी सुनवाई कर रही हैं। हर पक्ष को पूरा समय दिया जा रहा है। अदालत अपने विवेक का उपयोग कर रही हैं। क्या किसी अन्य साधारण नागरिक के ड्रग्स केस में फंसने पर ऐसा होता। पता तो ये भी लगाया जाना चाहिए कि आर्यन की जमानत पर सुनवाई की वजह से क्या अन्य केस की सुनवाई स्थगित हुई या उनको कोई दूसरी तारीख मिली। समग्रता में विचार किए बगैर व्यवस्था पर प्रश्न उठाना उचित नहीं है। कुछ उत्साही लोग लखीमपुर खीरी में गृह राज्य मंत्री के बेटे और शाह रुख खान के बेटे की तुलना करते हुए न्यायिक प्रक्रिया पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं। अच्छी बात है, लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है लेकिन जब तुलनात्मक आधार पर कोई तर्क प्रस्तुत किया जाता है तो तुलना का आधार एक होना चाहिए या कम से कम एक जैसा होना चाहिए। लखीमपुर खीरी के मामले में भी कानून अपना काम कर रही है और आर्यन खान के मामले में भी कानून अपने हिसाब से काम कर रही है। ये सब लोग वही काम कर रहे हैं जो जया बच्चन ने पिछले साल किया था, जब बालीवुड में ड्रग्स के मामले को अपने बयान से भटका दिया था। 

शाह रुख खान के पुत्र इस वक्त जेल में हैं। एक पिता के साथ सबकी संवेदना होनी चाहिए। हर उस पिता को सोचना चाहिए जिसका बच्चा आर्यन की उम्र का है। बजाए इसके कई लोग इस घटना को अपनी राजनीति का औजार बनाकर प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं। शाह रुख खान के बेटे की आड़ में कुछ लोग नरेन्द्र मोदी पर भी हमले कर रहे हैं। कल्पना की उड़ान ऐसी कि वो इस पूरे प्रकरण को शाह रुख को चुप कराने की साजिश करार दे रहे हैं। ऐसे चतुर सुजान ये भूल जाते हैं कि आर्यन खान का केस महाराष्ट्र में चल रहा है। जहां भारतीय जनता पार्टी का शासन नहीं है। वहां तो कांग्रेस, शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस के गठबंधन की सरकार है। दूसरे वो ये भूल रहे हैं कि पिछले दिनों जब हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लोग प्रधानमंत्री मोदी से मिलने आए थे तो उसमें शाह रुख खान भी शामिल थे और दोनों बेहद गर्मजोशी से मिले थे। दूसरे इन दिनों शाह रुख खान की कोई फिल्म भी हिट नहीं हो रही है। उनका फोकस राजनीति पर है भी नहीं। वो तो अपने कारोबार में ही व्यस्त रहते हैं। इसलिए इस मामले में इस तरह की बातें अर्थहीन ही नहीं बल्कि मूल समस्या से देश का ध्यान भटकाने वाली भी हैं। 

यह एक ऐसा मसला है जिसके बारे में पूरे देश को एकजुट होकर सोचना पड़ेगा। नशे का चक्रव्यूह ऐसा है कि आज शाह रुख खान का बेटा उसमें फंसा है कल किसी और का बेटा या बेटी उसमें फंस सकती है।जरूरत इस बात की है कि बालीवुड के तमाम दिग्गज सामने आकर इस खतरे के खिलाफ आवाज बुलंद करें, इसको रोकने के उपाय पर बात करें नहीं तो ये नशे का ये राक्षस पूरी पीढ़ी को बर्बाद कर सकता है। अपने आसपास जब हिंदी फिल्मों से जुड़े बच्चे पार्टी का माहौल देखते हैं जहां किसी एक कोने में ‘विशेष’ व्यवस्था रहती है तो वो उस ओर आकर्षित होते हैं। हिंदी फिल्मों की दुनिया में अथाह पैसा है, ग्लैमर है लेकिन अकेलापन भी है। माता-पिता अपने करियर में डूबे रहते हैं, बच्चों के पास समय होता है, पैसे होते हैं लेकिन माता पिता के साथ के लिए वो तरसते हैं। इसी अकेलेपन के दंश में वो नशे की ओर जाते हैं। उन लोगों को भी सोचना चाहिए जो संस्कार या संस्कारी शब्द का हैशटैग बनाकर इंटरनेट मीडिया पर उसका उपहास करते हैं। संस्कारी शब्द तो हिंदी फिल्मों की दुनिया में मजाक बन गया है जबकि परवरिश और संस्कार ही बच्चों को नशे के इस खतरे से बचाने के लिए कवच का काम कर सकता है।


अत्याचारी राजवंश के नाम पर सड़क ?


दिल्ली में सड़कों का नाम किस तरह से रखा गया अगर इसपर कोई शोध हो तो कई दिलचस्प जानकारियां निकल सकती हैं। पराधीन भारत में सड़कों के नाम तो उन राजाओं या राजवंशों के नाम पर रखे गए थे लेकिन स्वाधीनता के बाद  नाम परिवर्तन को लेकर क्या सोच रही ये जानना भी दिलचस्प होगा। अगर इस संबंध में कोई नीति होती तो आज सेंट्रल दिल्ली में कम से कम तुगलक के नाम से सड़क, लेन और क्रिसेंट नहीं होते। तुगलक क्रेसेंट एक अर्धचंद्राकार सड़क है जिसपर एक तरफ सरकारी बंगले हैं और दूसरी तरफ भारत आसियान ( दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन) मैत्री पार्क है। ये सड़कें तुगलक वंश के नाम पर रखा गया है। उसी तुगलक वंश के नाम पर जिसके शासकों ने भारत पर ना केवल राज किया बल्कि यहां की जनता को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े रखा। यहां यह भी याद रखना आवश्यक है कि मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल के दौरान जब भयानक अकाल पड़ा था तब उसने अपने खजाने को भरने के लिए जनता पर लगनेवाले टैक्स की राशि काफी बढ़ा दी थी। गंगा-युमना दोआब के बीच निवास करनेवाली जनता से टैक्स की राशि वसूलने के लिए तमाम तरह के जुल्म किए गए। अत्याचार से बचने के लिए लोगों ने घर बार तक छोड़ दिए थे। इस राजवंश के एक शासक के नाम पर हमारे देश में तुगलकी फरमान जैसा पद अब तक बोला जाता है। उसके फैसले अजीबोगरीब होते थे, बगैर सोचे समझे उसने अपनी राजधानी को दिल्ली से करीब 1500 किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के देवगिरी में बसाने का फैसला कर लिया था। देवगिरी का नाम बदलकर दौलताबाद कर दिया था। तमाम लोगों को दिल्ली से दौलताबाद जाने का शाही फरमान जारी कर दिया था। इस विस्थापन में हजारों लोगों की जान गई थी। लेकिन उसको इन सबकी फिक्र नहीं थी। उसके साथ जब दिल्ली से लोग देवगिरी पहुंचे तो वहां स्वास्थ्य संबंधी समस्या होने लगी। एक दिन अचानक फिर से तुगलकी फरमान जारी हुआ कि अब राजधानी फिर से दिल्ली होगी। देवगिरी से दिल्ली आने में फिर लोगों की जान गईं। इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी के मुताबिक उस दौर में पूरी दिल्ली खाली हो गई थी। मध्यकालीन इतिहास में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि इस तुगलकी फरमान की वजह से हिंदू व्यापारियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा था। क्या हम पाराधीनता के उस दौर में अपने पूर्वजों पर हुए अत्याचारों के जिम्मेदार शासक को याद रखना चाहते हैं।  


Saturday, October 9, 2021

प्रगतिशीलता की भारतीयता का सच


बीते शुक्रवार को कथाकार प्रेमचंद की पुण्यतिथि थी। उस दिन इंटरनेट मीडिया पर प्रेमचंद को ‘प्रगतिशील’ लेखक के तौर पर पेश करते हुए कई लोगों ने याद किया। कई लोगों ने प्रेमचंद को हिंदी का पहला ‘प्रगतिशील’ लेखक कहा तो कइयों ने उनको साम्यवादी विचारधारा के लेखक के तौर पर याद किया। इंटरनेट मीडिया की दुनिया ऐसी है कि वहां जो पहले चल जाता है ज्यादातर लोग बिना तथ्यों को जांचे परखे उसका अनुसरण करने लग जाते हैं। कुछ उत्साही वामपंथी साहित्यप्रेमियों ने प्रेमचंद को कम्युनिस्ट लेखक तक करार दे दिया। इस तरह के अधिकतर लोगों ने प्रेमचंद को प्रगतिशील लेखक संघ का संस्थापक बताते हुए उनको साम्यवादी करार दिया। इंटरनेट मीडिया पर चलनेवाले इस तरह की बातों को देखकर मनोरंजन हुआ क्योंकि प्रेमचंद न तो कम्युनिस्ट थे, न मार्क्सवादी और न ही प्रचलित अर्थों में ‘प्रगतिशील’ और न ही प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक। प्रेमचंद के बारे में ऐसी बात कहने वाले उनके लेखन और व्याख्यानों को आंशिक तरीके से सामने लाते हैं। प्रगतिशील लेखक संघ की बहुत बात होती है और प्रेमचंद के भाषण की भी बहुत चर्चा होती है कि उन्होंने साहित्य को राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल कहा आदि आदि। ऐसा प्रतीत होता है कि 1936 में दिए गए उनके व्याख्यान को लोगों ने ध्यान से पढ़ा ही नहीं। इस बात की अधिक संभावना है कि वामपंथी लेखकों-आलोचकों ने प्रेमचंद के प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना अधिवेशन में दिए गए व्याख्यान को जानबूझकर नेपथ्य में रखा। प्रेमचंद के गरीबों की बात को बेहद चतुराई से सर्वहारा से जोड़ते हुए मार्क्सवाद से जोड़ दिया गया। अगर प्रेमचंद के प्रगतिशील लेखक संघ के भाषण का समग्रता में विश्लेषण करें तो कई भ्रांतियां दूर होती हैं। 

प्रेमचंद ने लखनऊ में हुए उस अधिवेशन में अपने भाषण में साफ तौर पर कहा था कि ‘प्रगतिशील लेखक संघ यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावत: प्रगतिशील होता है। अगर वो इसका स्वभाव न होता तो शायद वो साहित्कार ही नहीं होता। उसे अपने अंदर भी एक कमी महसूस होती है, इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है।‘ उपरोक्त कथन में प्रेमचंद ने साफ तौर पर उस प्रगतिशीलता से अपनी असहमति सार्वजनिक रूप से स्पष्ट कर दी थी जिसको लेकर इस लेखक संघ की स्थापना कि गई थी। जिसको प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से एक सज्जाद जहीर आगे बढ़ाना चाहते थे। सज्जाद जहीर के बारे में एक तथ्य यहां बताना आवश्यक है कि वो विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए थे। वहां कम्युनिस्ट पार्टी के लिए काम करते हुए पकड़े गए थे, जेल गए थे और उनको सजा हुई थी । बाद में वो भारत आ गए और जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने उनको शरणार्थी मानते हुए नागरिकता दे दी थी। यहां भी वो कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय हुए और उसके महत्वपूर्ण पद पर भी रहे। इसके अलावा प्रेमचंद के इस वक्तव्य में आध्यामिकता की बात भी कई बार आती है। साहित्य को उन्होंने मंदिर भी कहा है। जिन शब्दों, पदों और सिद्धांतों को लेकर प्रेमचंद ने अपना भाषण दिया था उससे यह स्पष्ट है कि वो साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित नहीं थे बल्कि  भारतीय विचार और दर्शन से प्रभावित थे। यह बात बार-बार उनकी रचनाओं में भी दिखाई देती है। हिंदू धर्म की प्रगतिशीलता तो इस बात से ही स्पष्ट होती है कि वो लगातार अपने में परिवर्तन करता है। समय के साथ चलता है और अपने समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए अपने अंदर से ही नायक पैदा करता है। इसके दर्जनों उदाहरण इतिहास में उपस्थित हैं। इसको ओझल करने के अनेकों प्रयास हुए लेकिन वो आज भी हमारे सामने हैं।  

इस संदर्भ में मुझे प्रेमचंद साहित्य के अध्येता और आलोचक कमलकिशोर गोयनका से जुड़ा एक प्रसंग याद आता है। प्रेमचंद शताब्दी वर्ष चल रहा था।  देशभर में आयोजन हो रहे थे। इसी क्रम में हैदराबाद विश्वविद्यालय में 24 अक्तबूर 1981 को एक आयोजन हुआ था। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता नामवर सिंह ने की थी और कमलकिशोर गोयनका इसमें वक्ता के तौर पर उपस्थित थे। कार्यक्रम के अंत में जब नामवर सिंह अपने अध्यक्षीय भाषण के लिए खड़े हुए तो उन्होंने एक ऐसी बात कह दी जिसको दबाने में वामपंथी लेखकों का एक बड़ा तबका लग गया था। नामवर सिंह ने कहा था कि ‘होरी एक हिंदू किसान है और वह हिंदू किसान ही हिंदू प्रेमचंद है। प्रेमचंद गाय-बैल, खेत खलिहान, गोबर मिट्टी की बात करते हैं।‘  जैसे ही नामवर सिंह ने ये कहा कि मंच पर बैठे कमलकिशोर गोयनका खड़े हो गए और उन्होंने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि ‘नामवर सिंह का अगर ये नया चिंतन है तो वे इसका समर्थन करते हैं।‘ नामवर सिंह ने इस हस्तक्षेप के बाद अपना वक्तव्य समाप्त किया। अध्यक्षीय वक्तव्य के बाद एक नाटकीय घटनाक्रम हुआ। सभागार में उपस्थित वामपंथी कवि वेणु गोपाल मंच पर आ गए और लगभग चीखते हुए बोले कि ‘नामवर सिंह ये बताएं कि वो गोयनका के करीब आए हैं या गोयनका उनके करीब आ गए हैं।‘ नामवर सिंह ने अपनी आदत के मुताबिक कोई उत्तर नहीं दिया। बाद में वेणु गोपाल ने कमलकिशोर गोयनका को देख लेने तक की धमकी दी। इस धमकी से विचलित हुए बगैर कमलकिशोर गोयनका ने भी उनको शारीरिक और बौद्धिक दोनों तरीके के संवाद का आग्रह किया। किसी तरह बात समाप्त हुई। 

इस प्रसंग को बताने का उद्देश्य वामपंथियों के असली चरित्र को उजागर करना है। भारतीय विचार को प्रतिपादित करनेवाले लेखक या विचारक को जबरदस्ती वामपंथी बताने की प्रवृत्ति को रेखांकित करना है। उपरोक्त प्रसंग ये भी साफ होता है कि वामपंथी सही बात अपने साथी की भी नहीं सुनते हैं और उनपर भी लांछन लगाने से नहीं चूकते। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं। जब इन तथाकथित प्रगतिशीलों के सिरमौर रामविलास शर्मा ऋगवेद पर लिखने लगे तो वामपंथी नामवर सिंह ने उनको हिंदूवादी करार दिया। प्रेमचंद की भारतीय विचारों में आस्था उनकी रचनाओं में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। प्रेमचंद की कृति गोदान में गांव की चेतना, गाय की संस्कृति, भारतीय परिवार में गाय की आकांक्षा, परिवार संस्था की रक्षा आदि रेखांकित की जा सकती है। नामवर सिंह यूं ही होरी को हिंदू नहीं कह रहे थे । प्रेमचंद का ये पात्र ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखता है और भाग्यवादी भी है।  हंस पत्रिका के सितंबर अंक में प्रेमचंद की एक कहानी ‘रहस्य’ प्रकाशित है। यह कहानी उनके जीवनकाल में प्रकाशित होनेवाली उनकी अंतिम कहानी है। इसमें प्रेमचंद अपने पात्रों के माध्यम से मुनष्य में देवत्व की बात करते हैं। देवत्व की बात वही लेखक कर सकता है, जिसकी देव में आस्था हो, या कम से कम देव के अस्तित्व को स्वीकार करता हो। लेखक की चेतना उसकी रचनाओं में परलक्षित होती है। प्रेमचंद की चेतना उनकी कृतियों प्रेमाश्रम के चरित्र बलराज से गोदान के होरी तक में स्पष्ट रूप से भारतीय जमीन. भारतीय विचार, भारतीय संघर्ष को स्थापित करती है। वामपंथियों ने प्रेमचंद की कृतियों की अनुचित व्याख्या और बताने से ज्यादा छुपाने की अपनी प्रवृति के आधार पर मार्क्सवादी सिद्ध कर दिया। प्रेमचंद की तथाकथित प्रगतिशीलता के झूठ को पहली बार कमलकिशोर गोयनका ने तमाम तथ्यों के साथ बेनकाब किया था। इन्हीं तथ्यों के आधार पर ये साबित भी किया था कि प्रेमचंद ने अपने लिए दो लक्ष्य तय किए थे भारतीय आत्मा की रक्षा और स्वराज की प्राप्ति। इसके बाद कहने को कुछ शेष नहीं रहता कि कैसे एक भारतीय लेखक को आयातित विचारधारा का पोषक साबित करने की कोशिशें हुईं जो अब भी जारी है। 


Friday, October 8, 2021

धर्म पर हमलावर के नाम सड़क क्यों?


स्वाधीनता के बाद दिल्ली में कई सड़कों और इमारतों के नाम बदले गए। सर्कुलर रोड को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नाम किया गया, क्लाइव रोड को त्यागराज मार्ग का नाम दिया गया। कर्जन कोड को कस्तूरबा गांधी रोड और कर्जन लेन का बलवंत राय मेहता लेन का नाम दिया गया। दिल्ली में ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जब मार्गों के नाम से औपनिवेशिकता के चिन्ह को मिटाकर स्वाधीनता सेनानियों या अपनी मिट्टी पर सर्वोच्च बलिदान करनेवालों का नाम दिया गया। ये काम पिछली कई सरकारों ने किया। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी तो एक बार फिर से मांग उठी कि राजधानी में मौजूद गुलामी के निशानों को मिटाकर उसको अपने देश के सपूतों का नाम दिया जाए। 2015 में नई दिल्ली इलाके के औरंगजेब रोड का नाम बदलकर पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम के नाम कर दिया गया। औरंगजेब मुगलों में सबसे क्रूर शासक था और उसने हिन्दुस्तान की जनता पर बेइतहां जुल्म ढाए थे। सिख पंथ के महान गुरु तेगबहादुर जी के साथ औरंगजेब ने क्या किया उसके बारे में पूरे देश को ज्ञात है। 

औरंगजेब ने अपने शासनकाल में सैकड़ों मंदिरों को  तोड़कर हिन्दुस्तान के इतिहास, धर्म और संस्कृति को मिटाने की कोशिश की। वो इतना कट्टर मुस्लिम शासक था कि वो चाहता था कि उसके सल्तनत में सिर्फ इस्लाम धर्म को मानने वाले रहें। वो हिन्दुस्तान की जनता को तलवार के जोर पर इस्लाम धर्म में परिवर्तित करना चाहता था। जो भी उसकी इस राह में बाधा बनने की कोशिश करता था उसको जान से मार डालता था। सत्ता के नशे में चूर एक विदेशी शासक पूरे हिन्दुस्तान की संस्कृति को मिटा देना चाहता था। ये तो हिन्दुस्तान की संस्कृति की शक्ति और उसमें जनता का विश्वास था कि औरंगजेब की तमाम कोशिशों के बावजूद मिट नहीं पाई। आज जब हम स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो हमारी क्या मजबूरी है कि जिस विदेशी शासक ने भारत और भारतीयता पर हमले कर उनको नष्ट करने की कोशिश की, उसके नाम पर एक दिल्ली के मुख्य इलाके में एक लेन है। ए पी जे अब्दुल कलाम रोड से एक लेन निकलती है जिसका नाम औरंगजेब लेन है। जब कर्जन रोड और कर्जन लेन दोनों का नाम बदल दिया गया तो औरंगजेब रोड के साथ साथ औरंगजेब लेन का नाम क्यों नहीं बदला जा सका। आज देश के मानस को ये प्रश्न मथता है। 


Saturday, October 2, 2021

तुलसीदास की उपेक्षा असंभव


हमारे देश में और पूरी दुनिया में रामकथा एक ऐसी कथा है जिसके कई पाठ उपलब्ध हैं। रामकथा को देश, काल और परिस्थिति के अनुसार लेखकों ने अपने विवेक के आधार पर लिखा। उपलब्ध रामकथाओं में गोस्वामी तुलसीदास की श्रीरामचरितमानस की लोकप्रियता असंदिग्ध है। जब तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस की रचना की थी तब भारतवर्ष पर विदेशी आक्रांताओं का कब्जा था। उस दौर में हमारे देश की संस्कृति को, रीति रिवाजों को, खानपान को, स्थापत्य कला आदि को बदलने का उपक्रम लगातार चल रहा था। हमारी आस्था के केंद्रों को नष्ट किया जा रहा था। तलवार के जोर पर समाज की संरचना भी बदली जा रही थी। अपनी संस्कृति और समृद्ध विरासत के प्रति लोगों की आस्था डिगने लगी थी। ऐसे विकट समय में तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस की रचना की और देश के सामने राम के रूप में एक ऐसा नायक प्रस्तुत किया जो विकट परिस्थितियों में अपने धर्म पर अडिग रहते हुए आकांता का समूल नाश करता है। ये ग्रंथ उस समय की मांग थी। इस विषय पर कई शोध हो चुके हैं और कई विद्वानों ने लिखा है। यहां इस पृष्ठभूमि को बताने का उद्देश्य ये है कि देश को जब 1947 में लंबे कालखंड के बाद विदेशी आक्रांताओं से मुक्ति मिली तब भी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस की लोकप्रियता में किसी तरह की कमी नहीं आई बल्कि ये बढ़ी ही। स्वाधीनता के बाद अगर अकादमिक जगत पर नजर डालते हैं तो वहां तुलसीदास और श्रीरामचरितमानस को लेकर एक उदासीनता दिखाई देती है। इस उदासीनता की वजह अकादमिक जगत पर वामपंथी विचारधारा के अनुयायियों का दबदबा रहा। 
तुलसीदास को हिंदू समाज का पथभ्रष्टक तक कहा गया और इस तरह की पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं। तुलसीदास के पाठ को कमतर करके आंकने के अनेक प्रयास हुए। पाठ्यक्रमों में इस तरह के लेखों को प्राथमिकता दी गई जिसमें तुलसीदास की उपेक्षा हो। इस संबंध में याद पड़ता है ए के रामानुजन के एक लेख की जिसका नाम है, थ्री हंड्रेड रामायणाज, फाइव एक्जांपल एंड थ्री थाट्स आन ट्रांसलेशन। ए के रामानुजन ने देश विदेश में लिखे गए कई रामकथाओं का उदाहरण दिया। अलग अलग तरह की कथाएं बताईं लेकिन आपको ये जानकर हैरानी होगी कि रामानुजन ने अपने इस लेख में तुलसीदास का नाम सिर्फ एक जगह उल्लिखित है वहां भी तुलसी कहा गया है। दो स्थानों पर रामचरितमानस का उल्लेख मिलता है। एक जगह अहिल्या की कथा के संदर्भ में और दूसरी जगह कंबन का प्रभाव बताने के क्रम में। अब इस विद्वान को क्या कहा जाए कि वो जब रामकथा के विभिन्न पाठ का उल्लेख करता है तो उसको तुलसीदास के श्रीरामचरितमानस से कोई उद्धरण याद नहीं पड़ता। ये जानबूझकर इस ग्रंथ से कोई उद्धरण नहीं उठाते। याद पड़ता है जब 2011 में दिल्ली विश्विद्यालय के पाठ्यक्रम से इस लेख को हटाया गया था तब वामपंथी शिक्षकों, लेखकों और इतिहासकारों ने वितंडा खड़ा कर दिया था। जबकि उस लेख को हटाने का निर्णय विश्वविद्यालय की विद्वत परिषद में हुआ था। उस वक्त रामानुजन के लेख के पक्ष में कई वामपंथी लेखकों ने बड़े-बड़े लेख लिखे थे। वो लेख अकादमिक कम राजनीतिक अधिक थे। ए के रामानुजन के लेख की सीमा उसमें तुलसीदास के पाठ की अनुपस्थिति है। इसके अलावा रामानुजन ने जिन रामायण या जिन ग्रंथों की चर्चा की है उनकी रचना के समय व्याप्त स्थिति और परिस्थिति पर प्रकाश नहीं डाला है। अगर वो ऐसा कर पाते तो लेख अधिक अर्थपूर्ण होता। 

अगर रामानुजन के पूरे लेख को पढ़ें तो यह स्पष्ट होता है कि वो कोई नई बात नहीं कह रहे थे। ये सर्वज्ञात है कि रामकथा के अनेक रूप अनेक भाषाओं में उपलब्ध हैं। तुलसीदास ने स्वयं कहा है कि हरि अनंत हरिकथा अनंता, कहहिं सुनहिं बहु विधि सब संता। इसका अर्थ है कि तुलसीदास के समय से या उसके पहले से ही यह बात ज्ञात है कि रामकथा के अलग अलग स्वरूप हैं। रामकथा की व्याप्ति इतनी अधिक है कि फिल्मों में भी अलग अलग रूपों में ये दिखती रही है। सचिन भौमिक और राज कपूर की मुलाकात का प्रसिद्ध किस्सा है। सचिन भौमिक काम की खोज में राज कपूर के पास पहुंचे थे। उनको अपनी कहानी सुनाई। देर तक राज कपूर ने कहानी सुनी और अंत में कहा कि आप चाहे जिस तरह से कहानी सुनाओ लेकिन इतना याद रखना कि फिल्मों में तो एक ही कहानी होती है, राम थे, सीता थीं और रावण आ गया। ये बात राज कपूर जैसे उत्कृष्ट कलाकार को समझ आती थी लेकिन वामपंथी लेखकों को नहीं। इसलिए रामानुजन का लेख कोई नई दृष्टि देनेवाला नहीं है, बल्कि वो अलग अलग जगह व्याप्त रामकथाओं को एक जगह समेटने की कोशिश मात्र है। रामानुजन के लेख में नया सिर्फ ये था कि उसमें तुलसीदास की उपेक्षा की गई। इस उपेक्षा की वजह से इस लेख को खास विचारधारा के लोगों ने पसंद किया था। 

तुलसीदास और उनकी रामकथा को लेकर तरह तरह की भ्रांतियां फैलाने की कोशिश समय समय पर होती रही हैं। खासतौर पर जब अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का आंदोलन जोर पकड़ने लगा तो वामपंथी लेखकों ने राम के अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़ा करना आरंभ कर दिया। तुलसीदास को धार्मिक लेखक कहकर उनका मूल्यांकन करने लगे। वामपंथी लेखकों को इस बात में महारत हासिल है कि वो अपनी राजनीति के लिए किस उक्ति को चुनें और किसको छोड़ दें। किस विद्वान को उद्धृत करें और किसको उपेक्षित कर दें। तुलसीदास की रचनाओं को कमतर दिखाने के लिए उन्होंने इस प्रविधि का सहारा लिया। उन्होंने तो सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की राय को भी ओझल कर दिया। रामविलास शर्मा ने निराला की साहित्य साधना में लिखा है,अंग्रेजी और बांग्ला के अनेक कवियों के नाम गिनाने के बाद एक दिन निराला बोले- ‘इन सब बड़ेन क पढ़ित है तो ज्यू जरूर प्रसन्न होत है पर जब तुलसीदास क पढ़ित है तो सबका अलग धरि देइत है। हमार स्वप्न इहै सदा रहा कि गंगा के किनारे नहाय के भीख मांगिके रही और तुलसीदास कै पढ़ी। (इन सब बड़े लोगों को पढ़ता हूं तो मन प्रसन्न होता है, पर जब तुलसीदास को पढ़ता हूं तो सबको अलग रख देता हूं। हमारा हमेशा से यही स्वप्न रहा है कि गंगा किनारे स्नान करके भीख मांग के रहें और तुलसीदास को पढ़ें)। हिंदी के सबसे बड़े कवियों में से एक निराला का ये कथन वामपंथियों के सामने एक चुनौती थी लिहाजा इसको ओझल कर दिया गया। 

तुलसीदास की इस बात को लेकर आलोचना करने की कोशिश की गई कि वो महिलाओं के विरोधी थे और वर्णाश्रम व्यवस्था के पोषक थे। लेकिन यहां भी अगर समग्रता में देखें तो तुलसीदास के यहां महिलाओं को प्रतिष्ठित किया गया है और सभी को समान माना गया है। ऐसे कई पद श्रीरामचरितमानस में हैं। उनके लेखन में इतनी शक्ति है कि वो आलोचकों को लगातार चुनौती देते रहते हैं। तुलसीदास को जो टेक्सट है उसको पावर टेक्सट कहा जा सकता है। ऐसा टेक्सट जिसने पीढ़ियों को न केवल प्रभावित किया बल्कि उनको संस्कारित भी किया। तुलसीदास को समझने के लिए उसके सही अर्थों को उद्घाटित करने के लिए भारतीय संदर्भों को समझना होगा। रामायण के अलग अलग रूपों को उद्धृत करके और रामकथा के अलग अलग स्वरूपों को सामने रखकर तुलसीदास की काव्य प्रतिभा के तेज को कम नहीं किया जा सकता है। तुलसीदास ने अपने समय में उत्कृष्ट साहित्य रचा, ऐसा साहित्य जिसने देश की संस्कृति पर हो रहे हमलों का न केवल प्रतिकार किया बल्कि उसके खिलाफ उठ खड़े होने की प्रेरणा भी दी। 

Friday, October 1, 2021

समाज को बांटनेवाले के नाम सड़क


अंग्रेजों की नीति थी बांटो और राज करो। यह नीति राज करने तक सीमित नहीं रही। अंग्रेजों ने भारतीय समाज को बांटने की बेहद गहरी चाल चली थी जिसकी परिणति देश के विभाजन में हुई। जब 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति हुई थी तब से अंग्रेज इस जुगत में लग गए थे कि किस तरह से भारतीय समाज को बांट दिया जाए। इसके लिए उन्होंने दूरगामी नीतियां बनानी आरंभ की थी। सबसे पहले उन्होंने भारतीयों को शासन में सीमित भागीदारी देने के लिए 1861 में इंडियन काउंसिल एक्ट लागू बनाया। इसके करीब तीन दशक बाद अधिक सुधार की घोषणा करते हुए 1892 में दूसरा इंडियन काउंसिल एक्ट बनाया गया। शासन में भारतीयों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की बात करते हुए इस एक्ट में और सुधार का दावा करनेवाला 1909 का इंडियन काउंसिल एक्ट बना। इस एक्ट में प्रमुख भूमिका निभाई थी उस वक्त के भारतीय मामलों के मंत्री (सेक्रेट्री आफ स्टेट फार इंडिया ) लार्ड मार्ले और तत्कालीन वायसराय लार्ड मिंटो। इसको मार्ले-मिंटो सुधार 1909 के नाम से भी जाना जाता है। इस सुधार ने ही हमारे देश में सांप्रदायिकता का बीज बोया था। इसमें पहली बार मुसलमानों को अलग प्रतिनिधित्व या अलग चुनाव क्षेत्र की बात की गई थी।  

इन कानूनों के बाद अंग्रेज एक और कानून लेकर आए थे जो मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट पर आधारित थी। इसको शासन में जनभागीदारी बढ़ानेवाला सुधार बताया गया था। लेकिन इसकी मंशा कुछ और थी। इसको उस वक्त के भारतीय मामलों के मंत्री ई एस मांटेग्यू और तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड चेम्सफोर्ड ने तैयार किया था। इन सुधारों को गवनर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट 1919 के जरिए पेश किया गया था। इस कानून के अंतर्गत प्रांतों को कई अधिकार देने की बात की गई थी लेकिन साथ ही  मुसलमानों के अलग प्रतिनिधित्व के प्रयासों को और मजबूती दी। इस इतिहास को इस वजह से बताया जा रहा है ताकि ये याद दिलाया जा सके कि हमारे देश के बंटवारे के बीज बोनेवाले और उसको फलने-फूलने की जमीन तैयार करनेवाले कौन थे। 1919 में जिसने इस देश में सांप्रदायिकता को मजबूती दी उसके नाम से आज नई दिल्ली में एक सड़क है चेम्सफोर्ड रोड। ये रोड कनाट प्लेस को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से जोड़ता है। इतना ही नहीं जब जलियांवाला बाग में जनरल डायर ने कहर बरपाया था उस वक्त चेम्सफोर्ड ही भारत के गवर्नर जनरल थे। चेम्सफोर्ड ने आरंभ में डायर को बचाने की कोशिश की थी। ऐसे व्यक्ति के नाम से नई दिल्ली इलाके में सड़क क्यो है?