हमारे देश में आजादी के बाद से ऐसा माहौल बनाया गया कि अन्य भारतीय अंग्रेजीदां
लोगों का षडयंत्र भी हो सकता है या फिर हिंदी के उन उत्साही पैरोकारों की पूरे देश
पर हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर थोपने की जिद भी । हिंदी को लेकर अन्य भारतीय
भाषाओं में जिस तरह का एक डर पैदा किया उसने हिंदी का बहुत नुकसान किया । भारतीय
भाषाएं हिंदी के खिलाफ कड़ी हो गईं । यह अनायास नहीं है कि अपने गठन के पचास साल
के बाद साहित्य अकादमी किसी हिंदी भाषी लेखक को अपना अध्यक्ष चुन सका । जिस तरह से
हिंदी का खौफ पैदा किया गया उसने भाषाओं की एक दूसरे के प्रदेशों में आवाजाही को
बाधित किया । मतलब ये कि भारतीय भाषाओं की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद और हिंदी की
रचनाओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद उस पैमाने पर संभव नहीं हो पाया जितना होना
चाहिए था । पिछले दिनों तमिल और हिंदी के अलावा कई अन्य भाषाओं के विद्वान डॉ पी
जयरामन द्वारा अनुदित तमिल के भक्त कवियों की रचनाओं के दस खंड का विमोचन हुआ । तमिल
से हिंदी में अनुवाद और उसको पाठकों की सुविधानुसार शब्दों के साथ पिरोना एक
ऐतिहासिक काम था और इस काम ने हिंदी और तमिल के बीच की खाई को पाटने की कोशिश तो
की ही दोनों भाषाओं के बीच एक मजबूत सेतु निर्माण का कार्य भी किया । दस खंडों के
विमोचन के मौके पर वरिष्ठ पत्रकार और लेखक मृणाल पांडे ने डॉ जयरामन के इस कार्य
के रामायण में राम के लंका जाने के लिए सेतु निमार्ण के प्रसंग से तुलना की और
जयरामन जी को साहित्य का नल-नील बताया जिसकी तरह उन्होंने काम किया है ।यह
अतिशयोक्ति नहीं है क्योंकि ये काम है ही इतना अहम । डॉ जयरामन पिछले करीब चार
दशकों से अमेरिका में रह रहे हैं और वहां हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए सक्रिय
हैं । नब्बे साल की उम्र में भी उनकी काम करने की ललक देखते ही बनती है । वाणी
प्रकाशन से प्रकाशित संतवाणी के दस खंडों के विमोचन के मौके पर जयरामन जी ने इच्छा
जताई कि ईश्वर अगर उनको सौ साल और दे दें तो तो वो तमिल साहित्य को प्रचुरता में
हिंदी में अनुदित करना चाहते हैं ।
ये तो हुई हिंदी और तमिल के बीच के सेतु के काम की बात । अब जरा मौजूदा
साहित्यक परिवेश पर नजर डालें, जिस तरह से यहां प्रवासी साहित्य का लेकर कोलाहल
दिखाई देता है उसमें जयरामन जी का नाम कमोबेश नहीं लिया जाता है । जो लोग प्रवासी
साहित्य के झंडाबरदार हैं उनको अपनी रचनाओं के अलावा अन्य कृतियां या काम दिखाई
नहीं देते हैं । स्व के शोरगुल में वो दूसरे लेखकों को नजरअंदाज करते चलते हैं । कहना
ना होगा कि प्रवासी साहित्य का ये परिदृश्य बेहद एकहरा और एक्सक्लूसिव है जबकि
इसको प्रामाणिकता हासिल करने के लिए समावेशी होना पड़ेगा । अगर प्रवासी साहित्य को
समकालीन भारतीय साहित्य में मजबूती से स्थापित करना है तो हमें विदेशों में रह रहे
भारतीय भाषाओं के सभी लेखकों की रचनाओं को साथ लेकर चलना ही नहीं होगा उसपर विचार
और मंथन भी करना होगा । इकहरे प्रचार प्रसार से फौरी तौर पर प्रसिद्धि तो मिल सकती
है, मिल भी रही है , लेकिन उसका कोई स्थायीमहत्व नहीं होगा । शोरगुल की तरह वो
वक्त के साथ दब जाएगा ।
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