‘कयामत से कयामत तक’ एक ऐसी फिल्म
जिसने अस्सी के दशक के आखिर में बॉलीवुड फिल्मों के लिए टेंड सेटर बना । उस ट्रेंड
पर चलकर आगे भी कई फिल्में बनीं । अभी इस फिल्म को केंद्र में रखकर गौतम चिंतामणि
ने एक किताब- कयामत से कयामत तक, द फिल्म दैट रिवाइव्ड हिंदी सिनेमा लिखी । इस
वक्त जितने भी लोग फिल्मों पर लिख रहे हैं उसमें गौतम चिंतामणि को गंभीरता से लिया
जा रहा है । इसके पहले उन्होंने राजेश खन्ना पर भी एक किताब- डार्क स्टार- लिखी थी
जिसे पाठकों ने हाथों हाथ लिया था । उसका हिंदी अनुवाद भी बेस्ट सेलर बना । अपनी
इस किताब कयामत से कयामत तक में गौतम चिंतामणि ने इस फिल्म के आइडिया लेकर उसके
बनने और रिलीज होने तक की कहानी को समेटा है । इस किताब की भूमिका फिल्म के
डायरेक्टर मंसूर खान ने लिखी है । इस किताब में लेखक गौतम चिंतामणि ने दो पीढ़ियों
की सोच में आ रहे बदलाव को बेहद संजीदगी से पकड़ा और लिखा है । मंसूर खान और उनके
पिता नासिर हुसैन के बीच फिल्मों को लेकर जिस तरह से बहसें होती थीं उसको पढ़ते
हुए बॉलीवुड के बदलाव को भी पकड़ा जा सकता है । फिल्म के अंत को लेकर दोनों के बीच
बहस स्क्रिप्ट, कास्ट और कॉस्टूयम को लेकर मंथन बेहद दिलचस्प है । इन बहसों के साथ
गौतम पीढ़ियों में आ रहे बदलाव को तोसामने रखते ही हैं अस्सी के दशक की फिल्मों की
पड़ताल भी करते चलते हैं ।
फिल्म में आमिर खान को लीड रोल में लेने का भी दिलचस्प किस्सा है ।
आमिर खान उस वक्त नासिर हुसैन के असिस्टेंट हुआ करते थे । फिल्म मंजिल-मंजिल पर
बात करने के लिए आमिर और नासिर लोनावला के एक रिसॉर्ट में थे । संयोग से वहीं
जावेद अख्तर भी रुके थे जो उन दिनों शेखर कपूर और राहुल रवैल के दो प्रोजेक्ट पर
काम कर रहे थे । उन्हें पता चला कि नासिर हुसैन भी वहीं हैं तो जावेद उनके कमरे
में पहुंच गए । कमरे में आमिर खान को बैठा देखकर जावेद ने पूछा कि ये कौन हैं ? नासिर हुसैन ने जब
बताया आमिर उनके असिस्टेंट हैं तो जावेद साहब ने कहा- अरे ! ये असिस्टेंट क्यों
है, इसे तो आपका हीरो होना चाहिए । बात आई गई हो गई लेकिन तीन-चार महीने बाद जब एक
दिन नासिर साहब ने आमिर को बलाकर कहा कि वो उनके साथ एक फिल्म बनाने का फैसला कर
चुके हैं । तो इस तरह से आमिर का कयामत से कयामत तक में पहुंचने का रास्ता बना । बाद
में हलांकि आमिर को भी तय प्रक्रिया से गुजरना पड़ा था । इसी तरह से जूही चावला के
चुनाव को लेकर भी किस्सा दिलचस्प है । कयामत से कयामत तक फिल्म में संगीत को लेकर
मंसूर खान ने अपनी गाड़ी में बैठकर संगीतकार के साथ ट्यून तय किया था । पापा कहते
हैं बड़ा नाम करेगा लिखकर जब मजरूह सुल्तानपुरी लाए तो नासिर खुश नहीं हुए । पापा
कहते हैं को लेकर नासिर साहब से उसकी गर्मागर्म बहस हुई लेकिन नासिर साहब के कहने
से मंसूर मान गये । पूरी फिल्म में नासिर
हुसैन की इतनी ही बात मानी गई, ऐसा लगता है ।
अंग्रेजी में इस तरह की किताबें को
देखकर ये लगता है कि काश हिंदी के लेखक भी फिल्मों पर इतनी ही गंभीरता से किताबें
लिखते । हिंदी में हाल के दिनों में फिल्मों पर किताबें लिखने का चलन शुरू हुआ है
लेकिन अपेक्षा के मुताबिक लेखन नहीं हो रहा है । अब भी सिनेमा पर गंभीर किताबें
अंग्रेजी में ही आती हैं जो चर्चित होने के बाद हिंदी में अनुदित होकर पाठकों तक
पहुंचती हैं ।
(8 जनवरी 2016, अमर उजाला)
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 19.1.17 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2582 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद