Saturday, November 9, 2024

अनौपचारिक चर्चा में उठते गंभीर प्रश्न


वर्षों बाद मित्रों से मिलने दिल्ली विश्वविद्यालय जाना हुआ। विश्वविद्यालय के पास विजयनगर की चाय दुकान पर मिलना तय हुआ। ये वही ठीहा है जहां छात्र जीवन में मित्रों के साथ बैठकी होती थी। पुराने दिनों को याद करने और कालेज के जमाने के मित्रों से मिलने का अवसर था। उत्साहित होकर हम सब विजयनगर वाली चाय दुकान पर जुटे। हम छह मित्र थे। वहीं फुटपाथ पर बैठकर छात्र जीवन को याद करने लगे। हमने तय किया था कि राजनीति पर बात नहीं करेंगे। ऐसा संभव नहीं हो सका। आधे पौने घंटे तक दिल्ली विश्वविद्यालय की बातें होती रहीं। इसके बाद बात राष्ट्रीय शिक्षा नीति तक पहुंच गई। मैंने कहा कि ये मोदी सरकार का शिक्षा व्यवस्था में आमूल चूल सुधार करने का बड़ा और ऐतिहासिक कदम है। 1986 के बाद शिक्षा पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया था। हमारी शिक्षा व्यवस्था विदेशी भाषा और विदेशी शैक्षणिक तौर तरीकों में उलझी हुई थी। अब अकादमिक जगत के चर्चा के केंद्र में भारतीय ज्ञान परंपरा है। कोई भी सेमिनार या गोष्ठी ऐसी नहीं जिसमें भारतीय ज्ञान परंपरा की बात न हो। स्वाधीनता के बाद पहली बार शिक्षा का भारतीयकरण हो रहा है। मेरे दो मित्र ने सहमति जताई। उसमें से एक ने मेरी बातों में ये जोड़ा कि शिक्षा का ना केवल भारतीयकरण हो रहा है बल्कि विद्यार्थियों और शिक्षकों के मानस में भी परिवर्तन हो रहा है। वो अभी ये बातें कह ही रहा था कि एक मित्र ने हस्तक्षेप किया। उसने कहा कि शिक्षा नीति तो ठीक है, ऐतिहासिक भी है, इससे भारतीयकरण भी हो रहा है, चर्चा भी हो रही है लेकिन इसका क्रियान्वयन बहुत धीरे हो रहा है। मेरा तर्क था कि संभव है कि क्रियान्वयन धीमा हो पर बदलाव में समय तो लगता है। ये कोई सामान नहीं है कि एक को हटाकर उसकी जगह दूसरा रख दिया जाए। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति कि चर्चा में अब राजनीति भी आ गई। एक मित्र, जो शिक्षक संगठन में सक्रिय हैं, अबतक ब्रेड पकौड़ा खा रहे थे। पकौड़े से फारिग होते ही हमारी चर्चा में घुसे और आक्रामक तरीके से बोले कि चार वर्ष बीत गए अबतक पाठ्यक्रम तो बना नहीं पाए। लागू कैसे करेंगे। उनके पास काफी जानकारी थी। उन्होंने कहा कि अभी दिल्ली में शिक्षाविदों की दो दिन की बैठक हुई है जिसमें पाठ्यक्रम बनाने को लेकर चर्चा हुई। उस बैठक में भी इस बात पर सहमति नहीं बन पाई कि पाठ्यक्रम कब तक तैयार हो पाएगा। पुस्तकों की बात तो बाद की है। कांग्रेस तो 2004 में सत्ता में आई थी और 2006 तक सारे पुस्तकों में बदलाव करके अपने अनुकूल सामग्री लागू कर दी थी। यहां तो चार साल में चले ढाई कोस वाली बात है। इसका प्रतिरोध एक अन्य मित्र ने जोरदार तरीके से किया। उसका कहना था कि कांग्रेस के पास एक ईकोसिस्टम था जिसने सबकुछ आनन फानन में कर दिया। इसपर पहले वाले मित्र ने कहा कि दस वर्ष से अधिक हो गए ईकोसिस्टम नहीं बना पाए भाजपा वाले। मेरा तर्क था कि दस और साठ वर्ष में अंतर होता है, इसको समझना होगा। मेरी इस बात पर वो चुप तो हो गया लेकिन बड़बड़ाता रहा कि जब गलत लोगों का चयन करोगो, अपने लोगों पर भरोसा नहीं करोगे, काम नहीं दोगे तो सिस्टम बनेगा कैसे। खैर बातचीत खत्म हो गई। हम सबने फिर से चाय पीने का मन बनाया। चाय आ गई। 

मित्रगण एक दूसरे से मजे भी ले रहे थे। इसमें से दो मित्र बाहर से आए थे। वो दोनों प्रोफेसर हैं। अचानक से विश्वविद्यालय की बात आरंभ हुई। इस बात पर चर्चा होने लगी कि आजकल शिक्षकों के मजे हैं। शिक्षकों के लिए सुविधाएं बहुत हो गई हैं। वो दोनों सहमत थे। ये भी बताया गया कि शिक्षा के क्षेत्र में अब संसाधनों की कमी नहीं है। क्लासरूम बेहतरीन हो गए हैं। चर्चा चल ही रही थी कि एक मित्र ने चुटकी ले ली। सुविधाएं तो अपार हैं समय भी खूब है। क्लास तो लेनी नहीं है। इसपर दोनों भड़क गए। कहने लगे कि हमें जितना काम करना पड़ता है उसकी कल्पना भी बाहर वालों को नहीं है। फिर वो लोग आपस में वर्कलोड आदि की बातें करने लगे। इतने में पहले वाले मित्र जो शिक्षक राजनीति में सक्रिय हैं फिर से टपक पड़े। बोले शिक्षकों के मजे तो होंगे ही। जब 56 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से एक दर्जन से अधिक विश्वविद्यालयों में कुलपति नहीं होंगे तो मजे को कौन रोक सकता है। कामचलाऊ व्यवस्था में तो हर कोई मजे लूटता है। उसकी बात काटते हुए मैंने कहा कि कुलपति चयन की प्रक्रिया में समय तो लगता है। हो जाएगा। हमारे देश में चुनाव भी तो चलते रहते हैं। शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान जी चुनाव प्रबंधन के माहिर हैं। पार्टी उनका उपयोग करती है। कुछ विलंब हो गया होगा। इसको इस तरह से पेश करना गलत है। उसने पलटकर विश्वविद्यालयों के नाम गिनाने शुरू कर दिए। वर्धा का हिंदी विश्वविद्यालय, लखनऊ का अंबेडकर विश्वविद्ययालय, गढ़वाल का केंद्रीय विश्वविद्यालय, बंगाल का विश्वभारती विश्वविद्यालय, सिक्किम, अरुणाचल, पुडेचेरी आदि के केंद्रीय विश्वविद्यालय बगैर कुलपति के चल रहे हैं। धमकाने के अंदाज में बोला कि सूची लंबी है कहो तो पूरी गिनाऊं। कुछ विश्वविद्ययालयों के कुलपति का कार्यकाल अभी से लेकर जनवरी तक समाप्त हो जाएगा। बात आगे ना बढ़े इसलिए उसको बदलने का प्रयास करते हुए कहा कि यार तुम तो प्रक्रियागत देरी पर राजनीति करने लग गए। वो माना नहीं कहा कि शिमला के उच्च अध्ययन संस्थान में 2021 से नियमित निदेशक नहीं है। मैं इसका तुरंत उत्तर नहीं दे पाया। 

चर्चा वहीं पहुंच गई जिसको लेकर हम सभी आरंभ से आशंकित थे। अब बारी हमारे दो शिक्षक मित्रों की थी। वो इन तर्कों से सहमत नहीं हो पा रहे थे। उन्होंने कहा कि कांग्रेस की तरह बीजेपी अपने लोगों को भरने की जगह प्रतिभा को प्राथमिकता देती है। कांग्रेस की तरह भाई-भतीजावाद से पद भरने में इस सरकार की रुचि नहीं है। जब से प्रधानमंत्री मोदी ने पद संभाला है उन्होंने इस बात पर सबसे अधिक बल दिया है कि प्रतिभा को किसी भी तरह से हाशिए पर ना रखा जाए। योग्य व्यक्ति को पद मिले। चाहे वो शिक्षा का क्षेत्र हो या विज्ञान का या कला का। कांग्रेस के ईकोसिस्टम को जब भी चुनौती मिलती है तो वो इसी तरह से बिलबिलाने लगते हैं। धर्मेन्द्र प्रधान और उनके पहले के शिक्षा मंत्रियों ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर बहुत मेहनत की है। उसको समावेशी बनाने के लिए हजारों लोगों की राय ली गई थी। दिनकर का नाम तो सुना होगा। संस्कृति के चार अध्याय में उन्होंने कहा है कि विद्रोह, क्रांति या बगावत कोई ऐसी चीज नहीं जिसका विस्फोट अचानक होता है। जब शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक बदलाव की बात हो रही है तो उसमें विलंब तो होगा ही। दोनों मित्रों की आक्रामकता देखकर आलोचना करनेवाला मित्र चुप तो हो गया लेकिन फिर धीरे से बोला अगर विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थान नेतृत्वविहीन रहेंगी तो बदलाव में संदेह है। इतनी गर्मागर्मी हो गई कि अगली बार मिलने की तिथि नियत न हो सकी। हम घर की ओर चल पड़े।        


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