Monday, April 16, 2012

भ्रम, भटकाव और भाजपा

चंद दिनों पहले ही देश के प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने अपने नए अवतार के बत्तीस साल पूरे किए । बत्तीस साल एक ऐसी उम्र होती है जहां से किसी संगठन की एक साफ छवि उभर कर सामने आ जाती है । तीन दशक से ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी के सामने इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती यह खड़ी हो गई है कि वो जनता के सामने साबित करे कि उसमें कांग्रेस का विकल्प देने का दम है । यह बात सौ फीसदी सही है कि अब देश में गठबंधन की सरकारों का दौर है और आगे भी यह जारी रहेगा । लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली सत्तारूढ गठबंधन के विकल्प के तौर पर भारतीय जनता पार्टी को ना केवल लीड लेनी होगी बल्कि जनता को यह भरोसा भी देना होगा कि उसेक नेतृत्व में वह एक बेहतर राजनैतिक विकल्प दे सकती है । पार्टी की स्थापना के बत्तीस साल बाद भी अगर वर्तमान पार्टी अध्यक्ष अपने अगले कार्यकाल को लेकर निश्चिंत नहीं हो तो यह पार्टी के अंदर सबकुछ ठीक नहीं होने का संकेत मात्र है । उसके पहले भी जिस तरह से पार्टी के कुछ सांसदों ने ही छत्तीसगढ़ की अपनी ही रमन सिंह सरकार पर कोल ब्लॉक में आवंटन की गड़बड़ियों को लेकर हमले किए उससे भी यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि पार्टी के अनुशासन में कमी आई है । जिस तरह से कर्नाटक में येदुरप्पा ने खुद को मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए लगभग बगावत कर दी थी वह भी यह साबित करते है कि पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं है । भारतीय जनता पार्टी हमेशा से पार्टी विद अ डिफरेंस का दावा करती रही है, अपने चाल चरित्र और चेहरे की दुहाई भी देती रही है, लेकिन गाहे बगाहे उनके चाल चरित्र और चेहरे पर प्रश्न उठते है। चाहे वो बंगारू लक्ष्मण का पार्टी अध्यक्ष रहते कैमरे पर घूस लेना हो, या फिर पार्टी सांसद दिलीप सिंह जूदेव का पैसे लेकर यह गर्वोक्ति कि - पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से कम भी नहीं हो , या फिर पार्टी विधायकों का विधान सभा के अंदर अश्लील फिल्में देखने का मामला हो । यह सब वो प्रसंग हैं जिनको लेकर पार्टी की बदनामी हुई  ।

भारतीय जनता पार्टी के लिए जो इस वक्त बेहद चिंता की बात है वह यह कि पार्टी में जो भी राजनैतिक फैसले हो रहे हैं वो विवादित हो जा रहे हैं । पार्टी के फैसलों के खिलाफ पार्टी के ही वरिष्ठ नेता खड़े हो जा रहे हैं और पार्टी फोरम से लेकर मीडिया तक में खुलकर आलाकमान के फैसलों पर रोष जता रहे हैं । ताजा मामला रक्षा मंत्रालय और सेनाध्यक्ष के विवाद के बीच का है । सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह की चिट्टी लीक होने के मामले में पार्टी नेताओं के अलग अलग सुर रहे । सुबह बीजेपी नेताओं का स्टैंड अलग था, संसद में अलग और शाम होते होते वह भी बदल जाता है । इससे लोगों के मन में भ्रम पैदा होता है पार्टी और उसके नेताओं को लेकर । इसका दूरगामी परिणाम यह होगा कि पार्टी को लेकर लोगों के मन में निर्णायक छवि नहीं बन पाएगी । दूसरा बड़ा मामला रहा झारखंड राज्यसभा चुनाव में पार्टी के विधायकों की भूमिका को लेकर । किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के लिए ऐसी स्थिति क्यों बनती है कि वो यह फैसला ले कि उनकी पार्टी के विधायक राज्यसभा चुनाव में हिस्सा नहीं लेगें । हलांकि झारखंड में सत्ता में बने रहने की मजबूरी ने उसे इस निर्णय को बदलने को मजबूर कर दिया । राज्यसभा के लिए टिकटों के बंटवारो को लेकर भी पार्टी अध्यक्ष नितिन गड़करी की आलोचना हुई । झारखंड में एक धनकुबेर को पार्टी के समर्थन को लेकर संसदीय दल में यशवंत सिन्हा ने इतना हल्ला मचाया कि आडवाणी को यह कहकर उनको शांत करना पड़ा कि वो अध्यक्ष से इस संबंध में बात करेंगे । बाद में पार्टी ने उनको समर्थन देने के अपने फैसले को भी बदला ।

इसके पहले के फैसलों पर भी सवाल खड़े होते रहे हैं । विवाद होता रहा है । उत्तर प्रदेश चुनाव के वक्त बहुजन समाज पार्टी से निकाले गए और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में करोड़ों की गड़बड़ियों के आरोपी रहे बाबू सिंह कुशवाहा को बीजेपी में शामिल करने के अध्यक्ष के फैसलों पर आडवाणी और सुषमा समेत कई नेताओं ने विरोध जताया था लेकिन गड़करी ने किसी की एक नहीं सुनी । नतीजा सबके सामने है । दरअसल बीजेपी में नेताओं के अलग अलग बयान इस बात की मुनादी कर रहे हैं कि पार्टी में भ्रम के हालात हैं । माना यह जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वरदहस्त पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को हासिल है जिसकी वजह से वो पार्टी के आला नेताओं को दरकिनार कर मनमाने फैसले लेते हैं । पहले तो उनके इस मनमाने फैसले पर सवाल नहीं उठते थे लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में पार्टी की करारी हार के बाद गडकरी के फैसलों पर सवाल खड़े होने लगे हैं । 

सत्ता हासिल करने के लिए सिद्धांतों की जो तिलांजलि पार्टी ने दी है उसका अंदेशा लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रचारक और बाद में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने 22 से 25 अप्रैल 1965 के बीच दिए अपने पांच लंबे भाषणों में जता दी थी । अब से लगभग पांच दशक पहले पंडित जी ने राजनैतिक अवसरवादिता पर बोलते हुए कहा था- किसी भी सिद्धांत को नहीं मानने वाले अवसरवादी लोग देश की राजनीति में आ गए हैं । राजनीतिक दल और राजनेताओं के लिए ना तो कोई सिद्धांत मायने रखता है और ना ही उनके सामने कोई व्यापक उद्देश्य सा फिर कोई एक सर्वमान्य दिशा निर्देश है.....राजनीतिक दलों में गठबंधन और विलय में भी कोई सिद्धांत और मतभेद काम नहीं करता । गठबंधन का आधार विचारधारा ना होकर विशुद्ध रूप से चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अथवा सत्ता पाने के लिए किया जा रहा है । पंडित जी ने जब ये बातें 1965 में कही होंगी तो उन्हें इस बात का अहसास नहीं रहा होगा कि उन्हीं के सिद्धातों की दुहाई देकर बनाई गई पार्टी पर भी सत्ता लोलुपता इस कदर हावी हो जाएगी । 
यूपीए सरकार पर जिस तरह से अएक के बाद एक घोटलों के आरोप लग रहे हैं , जिस तरह से यूपीए पर बैड गवर्नेंस के इल्जाम लग रहे हैं उसने भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को निश्चिंत कर दिया है कि दो हजार चौदह में पार्टी केंद्र में सरकार बनाएगी । इसी निश्चिंतता में पार्टी के आला नेता जनता के पास जाने के बजाए दिल्ली में ट्विटर पर राजनीति कर रहे हैं । उन्हें लग रहा है कि कांग्रेस से उब चुकी जनता उनके हाथ में सहर्ष सत्ता सौंप देगी । लेकिन यहां पार्टी के आला नेता यह भूल जाते हैं कि इस देश की जनता में जबतक आप संघर्ष करते नहीं दिखेंगे तबतक उनका भरोसा कायम नहीं होगा । भारतीय जनता पार्टी ने पिछले सालों में कोई बड़ा राजनैतिक आंदोलन खडा़ नहीं किया जबकि यूपीए सरकार पर भ्रष्टाचार के संगीन इल्जाम लगे । वी पी सिंह ने बोफेर्स सौदे में 64 करोड़ की दलाली पर इतना बड़ा आंदोलन खडा़ कर दिया था कि देश की सत्ता बदल गई थी । दरअसल भारतीय जनता पार्टी के इतिहास से न तो सबक लेना चाहती है और न ही इतिहास में हुई गलतियों को दुहराने से परहेज कर रही है । नतीजा पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में भ्रम की स्थिति है जो पार्टी के लिए अच्छी स्थिति नहीं है । अगर इस भ्रम और भटकाव को नहीं रोका गया तो दिल्ली दूर ही रहेगी ।

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