हर साल आयोजित होने के फैसले
के बाद पहली बार आयोजित दिल्ली विश्व पुस्तक मेला इस बार कई मायनों में अहम है । नेशनल
बुक ट्रस्ट के निदेशक एम ए सिकंदर ने पिछले साल ये ऐलान किया था और कहा था कि उन्हें
कुछ वक्त दिया जाए तो वो बेहतर आयोजन कर सकते हैं । उस वक्त सिकंदर ने एनबीटी का पदभार
ग्रहण ही किया था । दिल्ली के प्रगति मैदान में रविवार को खत्म हुए विश्व पुस्तक मेले
का यह आयोजन पहले के पुस्तक मेलों से ज्यादा व्यवस्थित और नियोजित रहा । पिछले सालों में आयोजित पुस्तक मेलों
को अव्यवस्था और लोकार्पणों के रेला के तौर पर याद किया जाता था । प्रकाशकों को भी
इस बात की शिकायत रहती थी कि उन्हें कोई ऐसी जगह मुहैया नहीं करवाई जाती है जहां लेखकों
का पाठकों के साथ संवाद हो सके । बड़े प्रकाशक तो कई स्टॉल को जोड़कर अपनी दुकान सजाते
थे जहां विमोचन आदि में काफी सहूलियत होती थी लेकिन छोटे प्रकाशकों को काफी दिक्कतों
का सामना करना पड़ता था । इस बार मेले के आयोजक ने इस दिक्कत को दूर कर दिया है । प्रगति
मैदान के हॉल नंबर 12 में एक बड़ा सा ऑथर्स कॉर्नर बना दिया है जहां हर घंटे लेखक अपनी
बात रखते हैं । कभी कहानी पाठ होता है तो कभी कविता पाठ, कभी बुजुर्ग लेखक अपने अनुभवों
को बांटते हैं तो कभी युवा लेखक अपनी लेखन प्रक्रिया को साझा करते हैं । पाठकों और
लेखकों के बीच संवाद से हमेशा साहित्य का भला हुआ है । पाठकों के मन में उठने वाले
सवालों का भी जवाब मिलता है और लेखकों को भी पाठकों की नब्ज पर हाथ रखने का मौका मिलता
है । इसका लाभ लेखकों को कुछ भी रचते समय होता है ।
इस बार का पुस्तक मेला हिंदी के पाठकों, प्रकाशकों और लेखकों के लिए एक दुखद विवाद लेकर भी आया । हिंदी की बिल्कुल नवोदित कहानीकार ज्योति कुमारी ने हिंदी के प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह राजकमल प्रकाशन और उसके मालिक अशोक महेश्वरी पर बेहद सनसनीखेज आरोप लगाए । इस विवाद को समझने के लिए हमें थोड़ा विस्तार देना होगा । ज्योति कुमारी ने कुछ कहानियां हंस में लिखी और राजेन्द्र यादव की सरपरस्ती में हिंदी कहानी जगत में प्रवेश किया । लेकिन सिर्फ सरपरस्ती से किसी रचनाकार के आगे बढने में हमेशा से संशय रहता है । इस बार भी था । ज्योति की कहानियां हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने लगी तो लगा कि सरपरस्ती से इतर उसमें प्रतिभा भी है । कई कहानियां छप जाने के बाद हर कथाकार की तरह उसके मन में भी आया होगा कि एक संग्रह छपे । लेकिन संग्रह छपने के पहले जिस तरह का अप्रिय विवाद हुआ, वैसा विवाद कोई भी संवेदऩशील और नवोदित रचनाकार नहीं चाहता है । अपवाद हर जगह होते हैं । ज्योति कुमारी के मुताबिक प्रकाशक ने उसके सामने कुछ साहित्येत्तर शर्तें रखी जिस वजह से उसने राजकमल प्रकाशन से अपना संग्रह नहीं छपवाने का फैसला लिया । ज्योति के बयान के मुताबिक प्रकाशक ने उनके संग्रह का नाम ‘दस्तखत और अन्य कहानियां’ की जगह ‘शरीफ लड़की’ रखने का प्रस्ताव दिया था । ‘शरीफ लड़की’ भी ज्योति की ही एक अन्य कहानी है । कहानीकार के मुताबिक प्रकाशक का यह तर्क था कि ‘शरीफ लड़की’ शीर्षक ज्यादा सेलेबल है । इसके अलावा ज्योति यह चाहती थी कि उसके संग्रह में राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह की लिखी भूमिका प्रकाशित की जाए । इसपर भी प्रकाशक को एतराज था । प्रकाशक यह चाहते थे कि कवर पर नामवर सिंह की कोई एक पंक्ति और बैक कवर पर राजेन्द्र जी की लिखी भूमिका से चार पांच पंक्तियां प्रकाशित कर दी जाए । ज्योति को प्रकाशक की दोनों शर्तें मंजूर नहीं थी । ज्योति कुमारी ने राजकमल प्रकाशन के मालिक पर यह भी आरोप जड़ा है कि उन्होंने उसे नाम बदलने की नसीहत दी । ज्योति के मुताबिक अशोक महेश्वरी के मुताबिक ज्योति कुमारी नाम सेलेबल नहीं है लिहाजा उसको बदलकर ज्योतिश्री या कुछ और दिया जाना चाहिए । कोई ऐसा नाम जो पाठकों को आकर्षित कर सके । ज्योति को प्रकाशक का यह तर्क भी नहीं रुचा । ज्योति का कहना है कि – मेरा लेखन उस बाजारवाद के खिलाफ रहा है जो जरूरत नहीं जेब देखकर तय होता है । जो औरत को एक उत्पाद, प्रेजेंटेशन की तरह पेश करता है, अपने लाभ के लिए । तो सिर्फ इसलिए कि किताब की बिक्री यह नाम सहायक होगा और इस नाम से सेंसे्शन फैलेगा, जो बाजार की दृष्टिकोण से लाभदायक है , मैं इस नाम पर सहमत नहीं हो सकी । यह बात ठीक है, लेखिका को अपनी किताब कहीं से भी छपवाने का हक है । लेकिन अगर इस पूरे् विवाद को प्रकाशक की नजर से देखें तो इसमें कुछ बुराई नहीं है । प्रकाशक कारोबार के लिए बैठा है और वह बाजार का दोस्त है । अगर वो बाजार से दुश्मनी मोल लेगा या बाजार के नियमों के खिलाफ जाएगा तो फिर क्या खाक कारोबार करेगा । प्रकाशक की इन दोनों सलाहों में किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं है । ये दो ऐसी सलाह है जो कोई भी प्रकाशक दे सकता है । इस पर इतना बड़ा वितंडा खड़ा करने की जरूरत नहीं थी ।
अशोक माहेश्वरी ने इस बात को स्वीकार किया है कि उन्होंने राजेन्द्र यादव से व्यक्तिगत बातचीत में कुछ सुझाव दिए थे । उनका कहना है पुस्तक मेले के अवसर पर वो तीन युवा कथाकारो- ज्योति, आकांक्षा और इंदिरा की किताबें छाप रहे थे और उनमें से किसी भी संग्रह में भूमिका नहीं थी लिहाजा उन्होंने ज्योति को परोक्ष रूप से यह सलाह दी । राजेन्द्र यादव का भी कहना है कि अशोक महेश्वरी ने कुछ भी गलत नहीं किया और चूंकि वो इस पूरे मामले में बीच में थे लिहाजा उनको पूरी जानकारी है । लेकिन यहां अशोक महेश्वरी को यह समझना चाहिए था कि कहानीकार या कहानियां कितनी अहम रही होंगी जिसके लिए नामवर सिंह को भी कलम उठानी पड़ी । राजेन्द्र यादव तो गाहे बगाहे लेखकों-लेखिकाओं को आशीर्वचन देते ही रहते हैं ।
लेकिन जिस तरह की चर्चा पुस्तक मेले में चल रही है और मीडिया में इस पूरे विवाद को कास्टिंग काऊच की तरह से पेश किया जा रहा है । हमारे लिए वो चिंता का विषय है । ज्योति कुमारी ने एक पत्र जारी कर लेखकों से साथ मांगा है और इस तरह की अनैतिक साहित्यिक हथकंडो के पुरजोर विरोध का आह्वान भी किया है । ज्योति की इन बातों की व्याख्या हर कोई अपने तरीके से कर रहा है । लेकिन चाहे जो भी एक नवोदित लेखक और हिंदी के शीर्ष प्रकाशक के बीच विश्व पुस्तक मेले के दौरान इस तरह के अप्रिय विवाद से हिंदी की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है । दरअसल अगर हम इस विवाद के बहाने से हिंदी प्रकाशन जगत पर गौर करें तो एक बेहद तकलीफदेह तस्वीर उभर कर सामने आती है । राजकमल प्रकाशन जैसा शीर्ष प्रकाशक ज्योति कुमारी जैसी बिल्कुल नई लेखिका की किताब बगैर किसी एग्रीमेंट के छापने को क्यों तैयार हो जाता है । दूसरा सवाल यह है कि ज्योति कुमारी, आज जिस स्त्री शक्ति की दुहाई दे रही हैं और जिस तरह से अपने और राजकमल के बीच के विवाद को एक बड़ा फलक देने की कोशिश कर रही हैं, ने भी बगैर एग्रीमेंट के अपने संग्रह की पांडुलिपि राजकमल प्रकाशन को क्यों सौंपी । क्या उसे राजकमल प्रकाशन पर इतना भरोसा था या फिर कोई और वजह थी जिसने उसे एग्रीमेंट के बगैर किताब छपवाने के लिए राजी कर लिया था । ज्योति को इन वजहों, अगर कोई थी, तो खुलासा करना चाहिए । अगर उसने बगैर किसी अन्य वजह की, अनुभवहीनता के चलते ऐसा किया था तो उसको भविष्य में सतर्क रहने की जरूरत है । इस मामले में वाणी प्रकाशन ने बेहद प्रोफेशनल रवैया अख्तियार किया और ज्योति-राजकमल विवाद के बीच में पहले ज्योति कुमारी से प्रकाशन एग्रीमेंट किया और फिर उसके संग्रह को छापा । अगर राजकमल ने भी किताब छपने से पहले ज्योति कुमारी से एग्रीमेंट किया होता तो बेहतर होता, शर्तें पहले ही साफ हो जाती । राजकमल प्रकाशन जैसे संस्थान से इस तरह के अनप्रोफेशनल एप्रोच की अपेक्षा नहीं की जा सकती है ।
साहित्य में इस तरह से लेखकों-प्रकाशकों के बीच पहले भी कई अप्रिय प्रसंग सामने आते रहे हैं । लेकिन इस बार इस विवाद में जिस तरह से साहित्येत्तर शब्द का इस्तेमाल हुआ है उसने हिंदी प्रेमियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी है । हिंदी में प्रकाशक और लेखक का संबंध बहुत कुछ विश्वास की बुनियाद पर चलता है । अगर इस छोटे से विवाद ने इस विश्वास की बुनियाद में छोटा सा भी दरार पैदा कर दिया तो लेखक-प्रकाशक संबंधों पर इसका दूरगामी असर होगा । आज जरूरत इस बात की है कि हिंदी के बड़े लेखक इस पूरे विवाद में दखल दें और अगर कोई साहित्येतर वजह है तो उसको बातचीत से हल करें । हिंदी को बदनामी से बचाने के लिए यह बेहद जरूरी है, जरूरी तो अशोक महेश्वरी को प्रोफेशन एप्रोच अपनाने की है
इस बार का पुस्तक मेला हिंदी के पाठकों, प्रकाशकों और लेखकों के लिए एक दुखद विवाद लेकर भी आया । हिंदी की बिल्कुल नवोदित कहानीकार ज्योति कुमारी ने हिंदी के प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह राजकमल प्रकाशन और उसके मालिक अशोक महेश्वरी पर बेहद सनसनीखेज आरोप लगाए । इस विवाद को समझने के लिए हमें थोड़ा विस्तार देना होगा । ज्योति कुमारी ने कुछ कहानियां हंस में लिखी और राजेन्द्र यादव की सरपरस्ती में हिंदी कहानी जगत में प्रवेश किया । लेकिन सिर्फ सरपरस्ती से किसी रचनाकार के आगे बढने में हमेशा से संशय रहता है । इस बार भी था । ज्योति की कहानियां हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने लगी तो लगा कि सरपरस्ती से इतर उसमें प्रतिभा भी है । कई कहानियां छप जाने के बाद हर कथाकार की तरह उसके मन में भी आया होगा कि एक संग्रह छपे । लेकिन संग्रह छपने के पहले जिस तरह का अप्रिय विवाद हुआ, वैसा विवाद कोई भी संवेदऩशील और नवोदित रचनाकार नहीं चाहता है । अपवाद हर जगह होते हैं । ज्योति कुमारी के मुताबिक प्रकाशक ने उसके सामने कुछ साहित्येत्तर शर्तें रखी जिस वजह से उसने राजकमल प्रकाशन से अपना संग्रह नहीं छपवाने का फैसला लिया । ज्योति के बयान के मुताबिक प्रकाशक ने उनके संग्रह का नाम ‘दस्तखत और अन्य कहानियां’ की जगह ‘शरीफ लड़की’ रखने का प्रस्ताव दिया था । ‘शरीफ लड़की’ भी ज्योति की ही एक अन्य कहानी है । कहानीकार के मुताबिक प्रकाशक का यह तर्क था कि ‘शरीफ लड़की’ शीर्षक ज्यादा सेलेबल है । इसके अलावा ज्योति यह चाहती थी कि उसके संग्रह में राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह की लिखी भूमिका प्रकाशित की जाए । इसपर भी प्रकाशक को एतराज था । प्रकाशक यह चाहते थे कि कवर पर नामवर सिंह की कोई एक पंक्ति और बैक कवर पर राजेन्द्र जी की लिखी भूमिका से चार पांच पंक्तियां प्रकाशित कर दी जाए । ज्योति को प्रकाशक की दोनों शर्तें मंजूर नहीं थी । ज्योति कुमारी ने राजकमल प्रकाशन के मालिक पर यह भी आरोप जड़ा है कि उन्होंने उसे नाम बदलने की नसीहत दी । ज्योति के मुताबिक अशोक महेश्वरी के मुताबिक ज्योति कुमारी नाम सेलेबल नहीं है लिहाजा उसको बदलकर ज्योतिश्री या कुछ और दिया जाना चाहिए । कोई ऐसा नाम जो पाठकों को आकर्षित कर सके । ज्योति को प्रकाशक का यह तर्क भी नहीं रुचा । ज्योति का कहना है कि – मेरा लेखन उस बाजारवाद के खिलाफ रहा है जो जरूरत नहीं जेब देखकर तय होता है । जो औरत को एक उत्पाद, प्रेजेंटेशन की तरह पेश करता है, अपने लाभ के लिए । तो सिर्फ इसलिए कि किताब की बिक्री यह नाम सहायक होगा और इस नाम से सेंसे्शन फैलेगा, जो बाजार की दृष्टिकोण से लाभदायक है , मैं इस नाम पर सहमत नहीं हो सकी । यह बात ठीक है, लेखिका को अपनी किताब कहीं से भी छपवाने का हक है । लेकिन अगर इस पूरे् विवाद को प्रकाशक की नजर से देखें तो इसमें कुछ बुराई नहीं है । प्रकाशक कारोबार के लिए बैठा है और वह बाजार का दोस्त है । अगर वो बाजार से दुश्मनी मोल लेगा या बाजार के नियमों के खिलाफ जाएगा तो फिर क्या खाक कारोबार करेगा । प्रकाशक की इन दोनों सलाहों में किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं है । ये दो ऐसी सलाह है जो कोई भी प्रकाशक दे सकता है । इस पर इतना बड़ा वितंडा खड़ा करने की जरूरत नहीं थी ।
अशोक माहेश्वरी ने इस बात को स्वीकार किया है कि उन्होंने राजेन्द्र यादव से व्यक्तिगत बातचीत में कुछ सुझाव दिए थे । उनका कहना है पुस्तक मेले के अवसर पर वो तीन युवा कथाकारो- ज्योति, आकांक्षा और इंदिरा की किताबें छाप रहे थे और उनमें से किसी भी संग्रह में भूमिका नहीं थी लिहाजा उन्होंने ज्योति को परोक्ष रूप से यह सलाह दी । राजेन्द्र यादव का भी कहना है कि अशोक महेश्वरी ने कुछ भी गलत नहीं किया और चूंकि वो इस पूरे मामले में बीच में थे लिहाजा उनको पूरी जानकारी है । लेकिन यहां अशोक महेश्वरी को यह समझना चाहिए था कि कहानीकार या कहानियां कितनी अहम रही होंगी जिसके लिए नामवर सिंह को भी कलम उठानी पड़ी । राजेन्द्र यादव तो गाहे बगाहे लेखकों-लेखिकाओं को आशीर्वचन देते ही रहते हैं ।
लेकिन जिस तरह की चर्चा पुस्तक मेले में चल रही है और मीडिया में इस पूरे विवाद को कास्टिंग काऊच की तरह से पेश किया जा रहा है । हमारे लिए वो चिंता का विषय है । ज्योति कुमारी ने एक पत्र जारी कर लेखकों से साथ मांगा है और इस तरह की अनैतिक साहित्यिक हथकंडो के पुरजोर विरोध का आह्वान भी किया है । ज्योति की इन बातों की व्याख्या हर कोई अपने तरीके से कर रहा है । लेकिन चाहे जो भी एक नवोदित लेखक और हिंदी के शीर्ष प्रकाशक के बीच विश्व पुस्तक मेले के दौरान इस तरह के अप्रिय विवाद से हिंदी की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है । दरअसल अगर हम इस विवाद के बहाने से हिंदी प्रकाशन जगत पर गौर करें तो एक बेहद तकलीफदेह तस्वीर उभर कर सामने आती है । राजकमल प्रकाशन जैसा शीर्ष प्रकाशक ज्योति कुमारी जैसी बिल्कुल नई लेखिका की किताब बगैर किसी एग्रीमेंट के छापने को क्यों तैयार हो जाता है । दूसरा सवाल यह है कि ज्योति कुमारी, आज जिस स्त्री शक्ति की दुहाई दे रही हैं और जिस तरह से अपने और राजकमल के बीच के विवाद को एक बड़ा फलक देने की कोशिश कर रही हैं, ने भी बगैर एग्रीमेंट के अपने संग्रह की पांडुलिपि राजकमल प्रकाशन को क्यों सौंपी । क्या उसे राजकमल प्रकाशन पर इतना भरोसा था या फिर कोई और वजह थी जिसने उसे एग्रीमेंट के बगैर किताब छपवाने के लिए राजी कर लिया था । ज्योति को इन वजहों, अगर कोई थी, तो खुलासा करना चाहिए । अगर उसने बगैर किसी अन्य वजह की, अनुभवहीनता के चलते ऐसा किया था तो उसको भविष्य में सतर्क रहने की जरूरत है । इस मामले में वाणी प्रकाशन ने बेहद प्रोफेशनल रवैया अख्तियार किया और ज्योति-राजकमल विवाद के बीच में पहले ज्योति कुमारी से प्रकाशन एग्रीमेंट किया और फिर उसके संग्रह को छापा । अगर राजकमल ने भी किताब छपने से पहले ज्योति कुमारी से एग्रीमेंट किया होता तो बेहतर होता, शर्तें पहले ही साफ हो जाती । राजकमल प्रकाशन जैसे संस्थान से इस तरह के अनप्रोफेशनल एप्रोच की अपेक्षा नहीं की जा सकती है ।
साहित्य में इस तरह से लेखकों-प्रकाशकों के बीच पहले भी कई अप्रिय प्रसंग सामने आते रहे हैं । लेकिन इस बार इस विवाद में जिस तरह से साहित्येत्तर शब्द का इस्तेमाल हुआ है उसने हिंदी प्रेमियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी है । हिंदी में प्रकाशक और लेखक का संबंध बहुत कुछ विश्वास की बुनियाद पर चलता है । अगर इस छोटे से विवाद ने इस विश्वास की बुनियाद में छोटा सा भी दरार पैदा कर दिया तो लेखक-प्रकाशक संबंधों पर इसका दूरगामी असर होगा । आज जरूरत इस बात की है कि हिंदी के बड़े लेखक इस पूरे विवाद में दखल दें और अगर कोई साहित्येतर वजह है तो उसको बातचीत से हल करें । हिंदी को बदनामी से बचाने के लिए यह बेहद जरूरी है, जरूरी तो अशोक महेश्वरी को प्रोफेशन एप्रोच अपनाने की है
लेखक-प्रकाशक संबंधों को लेकर पाखी ने भी अपने किसी अंक में बहस चलाई थी , जिसमें तमाम ऐसे विवादों (असंतुष्टियों) का बखूबी जिक्र था। जिन्हें पढ़ने के बाद साफ़ जाहिर हो रहा था कि कोई भी लेखक (बड़े से लेकर छोटा तक) प्रकाशकों से पूरी तरह संतुष्ट नहीं है। उसका कारण भी समझ में आता है कि प्रकाशक तो दलाली के सहारे पुस्कालयों में किताबें ठूस कर मुनाफा कमा रहा है, जबकि किताबों का मूल्य ज्यादा करने से आम पाठक आसानी से लेखकों से नहीं जुड़ पाता और लेखक मजबूरी वश इन प्रकाशकों की शरणों में पड़ा रह जाता है ....कुछ दिनों के लिए सरकारी खरीद पर रोक लगा दी जाए तो सारा मामला सही हो जाए ..।
ReplyDeleteलेखक-प्रकाशक संबंधों को लेकर पाखी ने भी अपने किसी अंक में बहस चलाई थी , जिसमें तमाम ऐसे विवादों (असंतुष्टियों) का बखूबी जिक्र था। जिन्हें पढ़ने के बाद साफ़ जाहिर हो रहा था कि कोई भी लेखक (बड़े से लेकर छोटा तक) प्रकाशकों से पूरी तरह संतुष्ट नहीं है। उसका कारण भी समझ में आता है कि प्रकाशक तो दलाली के सहारे पुस्कालयों में किताबें ठूस कर मुनाफा कमा रहा है, जबकि किताबों का मूल्य ज्यादा करने से आम पाठक आसानी से लेखकों से नहीं जुड़ पाता और लेखक मजबूरी वश इन प्रकाशकों की शरणों में पड़ा रह जाता है ....कुछ दिनों के लिए सरकारी खरीद पर रोक लगा दी जाए तो सारा मामला सही हो जाए ..।
ReplyDeleteOknisha
ReplyDeleteCaseEarn