Saturday, May 4, 2013

संसदीय संस्था की बर्बादी

इन दिनों एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ रुपए के टेलीकॉम घोटाले में संसद की संयुक्त संसदीय कमेटी के अध्यक्ष और कांग्रेस नेता पी सी चाको की भूमिका को लेकर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं । चाको के पूर्व टेलीकॉम मंत्री ए राजा को कमेटी के सामने नहीं बुलाने के फैसले पर विरोधी दल के सदस्य खासे लाल-पीले हो रहे हैं । इस मामले में लंबे समय तक जेल काट चुके डीएमके के नेता और पूर्व मंत्री राजा ने जेपीसी के सामने पेश होकर अपनी सफाई देने का अनुरोध किया था जिसे चाको ने खारिज कर दिया । दरअसल चाको प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी चिदंबरम को आरोपों के घेरे में आने से बचाने की कोशिश में जुटे हैं । राजा के तर्क हैं कि दो हजार सात के स्पेक्ट्रम आवंटन के पहले उन्होंने प्रधानमंत्री और तत्कालीन वित्त मंत्री से इस बारे में विस्तार से चर्चा की थी । राजा ने अपने 100 पेज की चिट्ठी में दावा किया है कि नवंबर 2007 से लेकर जनवरी 2008 के बीच उन्होंने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से व्यक्तिगत मुलाकात कर दोनों को अपनी नीतियों का बारे में जानकारी दी थी । राजा का कहना है कि पहले आओ पहले पाओ की नीति के बारे में भी उन्होंने प्रधानमंत्री और उनके दफ्तर को बता दिया था । लेकिन जेपीसी की ड्राफ्ट रिपोर्ट में इसका कोई जिक्र नहीं है । विपक्ष के नेताओं का आरोप है कि ड्राफ्ट रिपोर्ट में प्रधानमंत्री कार्यालय के आला अफसर पुलॉक चटर्जी और पीएम के उस वक्त के प्रधान सचिव टी ए के नायर ने 29 दिसंबर 2007 को पीएम के निर्देश पर पहले आओ पहले पाओ की नीति की समीक्षा की थी और उसमें तीन चरणों में बदलाव पर सहमति जताई थी । लेकिन जेपीसी की ड्राफ्ट रिपोर्ट में इसका कोई जिक्र नहीं है । विपक्ष का आरोप है कि अगर राजा दोषी हैं तो फिर प्रधानमंत्री इसकी कालिख से कैसे बच सकते हैं ।  लिहाजा जेपीसी अध्यक्ष और उसके ड्राफ्ट रिपोर्ट को लेकर विपक्ष ने आसमान सर पर उठा रखा है । पहले जेपीसी गठन की मांग को लेकर संसद ठप रहा और अब जेपीसी की ड्राफ्ट रिपोर्ट पर हंगामा जारी है । संसदीय व्यवस्था का मजाक बन रहा है और लगातार संसद की कार्रवाई ठप होने से जनता भी खिन्न हो रही है ।  
दरअसल हमारे देश की संसदीय व्यवस्था में संयुक्त संसदीय समिति की परंपरा को शुरुआत से ही गलत तरीके से अपनाया गया  जिसकी वजह से कालांतर में यह समिति राजनीति का अखाड़ा बनती चली गई । 1947 में जब देश आाजद हुआ और उसके बाद संसदीय परंपरा को लेकर संविधान सभा में लंबी लंबी बहसें हुई और सभा के विद्वान सदस्यों के बीच तर्कों का लंबा दौर चला था । उसके बाद यह तय किया गया था कि देश में इंगलैंड की तर्ज पर ही संसदीय व्यवस्था को अपनाया जाए । हमने अपने देश की संसद को इंगलैंड की हॉउस ऑफ कामंस और हाउस ऑफ लॉर्ड्स की परंपराओं और कार्यवाहियों के हिसाब से ही चलाना तय किया, जिसे वेस्टमिनिस्टर मॉडल भी कहते हैं । संविधान के निर्माताओं ने यह भी तय किया था कि संसद का बहुत सारा काम उसकी समितियों के जरिए हुआ करेगी । समितियों को मिनी संसद का अघोषित सा दर्जा दिया गया । इन्हीं समितियों में से एक संयुक्त संसदीय समिति भी है । इसमें दोनों सदनों के सदस्य होते हैं । उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि ये राजनीति से उपर उठकर देशहित से जुड़ों अहम मसलों पर माथापच्ची करें और अपने सुझाव दें । हमने जिस तरह से इंललैंड की अलिखित परंपराओं से प्रेरणा ली और अपने मनमुताबिक उसकी व्याख्या करते चले गए उससे कई समितियों के काम करने का अर्थ ही बदलता चला गया ।  संसद की संयुक्त समिति को हमने अपने यहां जिस तरह से अपनाया वह घपले घोटालों की जांच करनेवाली कमेटी में तब्दील होती चली गई जो पक्ष-विपक्ष की राजनीति का बेहतरीन मंच बन गया । जहां हर राजनीतिक दल अपनी राजनीति के हिसाब से अपनी सियासी दांव चलने लगे । नतीजा यह हुआ कि संयुक्त समिति का इस्तेमाल जिस वेस्टमिनिस्टर मॉडल से हमने उठाया था वह उद्देश्य ही अपने रास्ते से भटक गया । इंगलैंड के लोकतांत्रिक इतिहास में बहुत कम मौकों पर संयुक्त संसदीय समिति का गठन हुआ लेकिन हमारे यहां तो हल्ला हंगामा करके विपक्ष ने जेपीसी की मांग मनवा ली या फिर अपनी खाल बचाने के लिए सरकार ने खुद से जेपीसी जांच का ऐलान कर दिया । देश को अहम मसले पर अपनी राय देने के बदले जेपीसी जांच एजेंसी में बदलती चली गई । आज भी इंगलैंड में पार्लियामेंट की एक स्थायी संयुक्त संसदीय समिति है जो मानवाधिकार से जुड़े मसलों पर सरकार को अपनी राय देती है । लेकिन हमारे देश में जेपीसी इन मसलों पर बनी ही नहीं । कभी शेयर घोटाले पर तो कभी कोला विवाद पर तो कभी टेलीकॉम घोटाले पर जेपीसी बनती रही । जहां पक्ष विपक्ष के नेताओं ने सैद्धांतिक सुक्षाव देने के बजाए राजनीतिक स्टैंड लिए और अपने दलसीय लाभ के लिए या फिर सरकार को घेरने के लिए जेपीसी के मंच का उपयोग किया ।
जिस तरह से भारत में संयुक्त संसदीय समिति में राजनीति हो रही है उससे संसद की साख को भी बट्टा लग रहा है और इस तरह की समितियों से जुड़े नेताओं की भी जनता के बीच सिर्फ हंगामा करनेवाले नेता की छवि बन रही है, एक संसदीय संस्था की गरिमा तो ध्वस्त हो ही रही है । लेकिन अफसोस और दुख की बात यह है कि इतनी गंभीर संसदीय संस्था की गरिमा लगातार ध्वस्त हो रही है और लोकसभा और राज्यसभा के अध्यक्ष और सभापति इसको बचाने की दिशा में कोई ऐसा कदम नहीं उठा रहे हैं जिससे इनकी गरिमा बची रह सके । हमें इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए कि क्या इतिहास हमें इस बात के लिए माफ करेगा कि हम अपनी संसदीय व्यवस्था की गरिमा नहीं बचा सके ।

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