Friday, March 28, 2014

कार्यालय पर हावी वॉर रूम

लोकसभा चुनाव की तैयारियों और राजनीतिक दलों की चुनावी रणनीति के संदर्भ में जब बात होती है तो एक शब्द बार बार आता है वह है वॉर रूम । चुनावी बिसात पर जीत हासिल करने के लिए कमोबेश सभी राजनीतिक दलों के अपने अपने वॉर रूम हैं । अगर हम देश की दो सबसे बड़े राजनीतिक दलों को देखें तो यह लगता है कि उनके केंद्रीय कार्यालय महज औपचारिक, दफ्तरी और मीडिया से बात करने की जगह बनकर रह गए हैं । कांग्रेस पार्टी के दफ्तर में तो अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का कमरा ज्यादातर वक्त सुरक्षा कारणों से सील ही रहता है । सुरक्षा कारणों की आड़ में ना तो कांग्रेस अध्यक्ष और ना ही उपाध्यक्ष रोजाना दफ्तर में बैठते हैं या आला नेताओं के साथ बैठक कर रणनीतियां बनाते हैं । कांग्रेस की अहम बैठक या तो सोनिया गांधी के निवास दस जनपथ या फिर राहुल गांधी के दिल्ली के तुगलक लेन स्थित घर पर होती है । कांग्रेस की चुनाव से जुड़ी रणनीतियां दिल्ली के गुरुद्वारा रकाबगंज रोड के पंद्रह नंबर बंगले में बनती है या फिर साउथ एवन्यू के निन्यानबे नंबर के फ्लैट में । नतीजा यह होता है कि चुनाव के माहौल में भी पार्टी के केंद्रीय दफ्तर चौबीस अकबर रोड अहम फैसलों का गवाह नहीं बन पाता है । कांग्रेस में तो इस बार एक जुमला बेहद चल रहा है कि अगर लोकसभा का टिकट लेना है तो भूलकर भी चौबीस अकबर रोड पर मत दिखना । देश के दूरदराज के हिस्सों से दिल्ली आनेवाले कार्यकर्ताओं को कांग्रेस के दफ्तरी टाइप नेताओं या फिर छुटभैये नेताओं से मिलकर वापस लौट जाना पड़ता है । यही हालत भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली के अशोक रोड स्थित दफ्तर का है । वहां पार्टी के सभी अहम पदाधिकारी के कमरे तो हैं, कुछ देर के लिए पार्टी के पदाधिकारी वहां बैठते भी हैं, लेकिन महत्वपूर्ण फैसले वहां नहीं होते हैं । भाजपा के चुनाव से जुड़े सारे अहम फैसले इस बार तो गांधीनगर से ही हो रहे हैं । अब से कुछ दिनों पहले भाजपा ने एक लोदी रोड के एक बंगले में अपना चुनावी वॉर रूम भी बनाया है । यह मोदी के पार्टी के केंद्र में आने के बाद हुआ है । पिछले चुनाव में आडवाणी जी का घर भाजपा की सारी अहम चुनावी गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था । इऩ चुनावी वॉर रूमों की वजह से पार्टी के केंद्रीय दफ्तर की महत्ता लगातार कम होती जा रही है ।
दरअसल अगर हम भारत के लोकतांत्रित इतिहास पर नजर डालें तो राजनीतिक दलों के केंद्रीय कार्यालयों के महत्व के कम होने की शुरुआत को हम इंदिरा गांधी के दौर से देख सकते हैं । उन्नीस सौ इकहत्तर के लोकसभा चुनाव तक कांग्रेस में संगठन का बोलबाला था लेकिन इंदिरा गांधी ने धीरे-धीरे संगठन को खत्म किया और पार्टी को अपने इर्द-गिर्द घुमाने लगी । इंदिरा इज इंडिया के नारे के बाद तो यह प्रवृत्ति और बढ़ी । कांग्रेस के चाटुकार किस्म के लोग इंदिरा गांधी की गणेश परिक्रमा करने लगे और वो पार्टी के फैसलों को भी प्रभावित करने लगे, इस तरह के लोग इंदिरा गांधी के घर स्थित दफ्तर में बैठा करते थे । इमरजेंसी के बाद हुए उन्नीस सौ अस्सी के लोकसभा चुनाव में तो सारी गतिविधियों का केंद्र इंदिरा गांधी का बारह विलिंगडन क्रिसेंड का छोटा सा बंगला हुआ करता था । तबतक दिल्ली के सात जंतर मंतर रोड का कांग्रेस का दफ्तर जनता पार्टी के कब्जे में जा चुका था । इसकी भी दिलचस्प कहानी है । कांग्रेस का केंद्रीय कार्यलय इलाहाबाद के आनंद भवन में हुआ करता था और तमाम बड़े नेता दिल्ली में होते थे । इसके मद्देनजर मुंबई कांग्रेस कमेटी ने सात लाख रुपए में सात जंतर मंतर का बंगला खरीदकर अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को भेंट किया था जिसके बाद कांग्रेस का केंद्रीय कार्यलय इलाहाबाद के आनंद भवन से दिल्ली शिफ्ट हुआ था। ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह रहा जंतर मंतर का ये बंगला कांग्रेस में विभाजन के बाद कांग्रेस संगठन के कब्जे में चला गया । उसके बाद जनता पार्टी, जनता दल से होते हुए इस इमारत का कुछ हिस्सा इन दिनों जेडीयू का के पास है । जब विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री बने थे तो यह इमारत हर छोटे बड़े राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था । वी पी सिंह की सरकार गिरने के बाद तीसरे मोर्चे की सरकारों के वक्त भी इस इमारत और दफ्तर की अहमियत बनी रही थी । बाद में कांग्रेस ने राजेन्द्र प्रसाद रोड पर अपना नया दफ्तर बनाया जहां इन दिनों जवाहर भवन है। कालांतर में जैसे जैसे व्यक्ति पार्टी पर हावी होते चले गए तो इन इमारतों की अहमियत खत्म हो गई । राजनीतिक दलों के कार्यलयों की कम होती महत्ता संगठन के गौण और व्यक्ति के महत्वपूर्ण होने की दास्तां हैं । राहुल गांधी और मोदी के इर्द गिर्द घूमनेवाले दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के लिए उनके केंद्रीय कार्यालयों की अहमियत थकान मिटाने और सुस्ताने की एक जगह भर है । लोकतांत्रिक होने का दावा करनेवाले इन दलों ने जिस तरह से लोक और दल को दरकिनार किया है वह किसी भी लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत तो नहीं ही देता है ।

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