Friday, August 19, 2016

गुटरूँ गुटरगूँ से निकलते संदेश

आजादी के सत्तर साल बाद भी हमारा देश शौचालय की समस्या से जूझ रहा है तो इतना तो तय है कि इसके लिए हमारी कोई ना कोई नीति रीति जिम्मेदार रही होगी । अगर आजादी के सत्तर साल बाद भी हम अपने देश की आधी आबादी को बेहद बुनियादी सुविधा मुहैया नहीं करवा पाए हैं तो इससे शर्मनाक कुछ और हो नहीं सकता है । ये समस्या सिर्फ सरकारों की विफलता नहीं है बल्कि इसकी जड़ में महिलाओं को लेकर समाज का नजरिया भी है या फिर महिलाओं को लेकर हमारे समाज की जो सामंतवादी मानसिकता अबतक कायम है उसको बदलने में भी हमारा समाज नाकाम रहा है । इस वजह से ही महिलाओं की सुविधा के बारे में सोचा ही नहीं गया । गांवों में शौचालय की समस्या की वजह से महिलाओं को खेतों में जाना पड़ता है और कई बार बलात्कार जैसे घिनौने वारदात की शिकार भी होती हैं क्योंकि शौच के लिए सुनसान जगह की तलाश में बहुत दूर निकल जाना पड़ता है ।
यह बात कल्पना से भी परे है कि महिलाओं के लिए शौचालय की समस्या को केंद्र में रखकर कोई फिल्म भी बनाई जा सकती है । आज जिस तरह से फिल्मों से सार्थकता गायब होती जा रही है । भारतीय फिल्मों खासकर हिंदी सिनेमा में सार्थकता को मुनाफा ने विस्थापित कर दिया है । अब फिल्म बनाते समय फिल्मकारों और प्रोड्यूसर के जेहन में सिर्फ और सिर्फ ये बात रहती है कि उनकी फिल्म सौ करोड़ का मुनाफा कमा पाएगी या नहीं । फिल्मों का आंकलन भी बहुधा उसके बिजनेस पर होने लगा है । फिल्म समीक्षकों की समीक्षा में ये कयास एक आवश्यक तत्व की तरह उपस्थित होता है कि फिल्म कितने सौ करोड़ का बिजनेस कर सकती है । ऐसे माहौल में एक साहसी प्रोड्यूसर ने शौचालय की समस्या को लेकर एक पूरी फिल्म बनाई है । शॉर्ट फिल्म और डॉक्यूमेंट्री आदि तो बनते रहे हैं लेकिन किसी समस्या विशेष को केंद्र में रखकर एक मुकम्मल फिल्म बनाने का साहस दिखाया है अस्मिता शर्मा ने । अस्मिता खुद अभिनेत्री भी हैं और इस फिल्म की नायिका भी । अस्मिता और प्रतीक शर्मा की इस फिल्म का नाम है गुटरूँ गुटरगूँ ।
ये फिल्म बनकर तैयार है और जल्द ही रिलीज होनेवाली है । सतह पर देखने से इस फिल्म में कहानी के केंद्र में तो शौचालय की समस्या जरूर नजर आती है लेकिन फिल्म का कैनवस बहुत ही बड़ा है । यह गांव में एक परिवार की समस्या के अलावा इसमें सामाजिक विषमताओं से लेकर स्त्री विमर्श की वो ऊंचाई है जहां तक अभी हिंदी साहित्य का स्त्री विमर्श करनेवाला लेखन नहीं पहुंच पाया है । हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को लेकर दशकों से बहुत शोर शराबा हो रहा है लेकिन अभी तक किसी रचना में इतनी बारीकी से स्त्री की समस्या को केंद्र में रखकर नहीं लिखा गया । इस फिल्म में अस्मिता की कल्पनाशीलता उस ऊंचाई पर पहुंची है जिसको देखकर विस्मय होता है । उम्मीद की जानी चाहिए कि इस फिल्म को दर्शकों का प्यार मिलेगा ।
कहानी तो एक गरीब परिवार से शुरू होती है शंभु नाम के एक शख्स की शादी उस परिवार की लड़की से होती है जिसके मायके में घर के अंदर शौचालय होता है । वो ब्याह कर ऐसे घर में आती है जहां घर में शौचाल. होना पाप माना जाता है , इसको अपशकुन की तरह देखा जाता है । उस पूरे गांव के लिए एक शौचालय है जिसका दिन में महिलाएं इस्तेमाल नहीं कर सकती हैं । महिलाओं के लिए नियम तय किए गए हैं । नियम गांव के संरपंच ने बनाए हैं लिहाजा मानना सबकी मजबूरी है । सूरज उगने के पहले और सूरज डूबने के बाद गांव के सार्वजनिक टॉयलेट का इस्तेमाल महिलाएं कर सकती हैं । फिल्म शुरु होते ही लड़की के ब्याह में होनेवाली दिक्कतों, दहेज की मांग और लड़की के पिता का उस मांग को पूरी नहीं कर पाने पर लड़केवालों द्वारा किया जानेवाले अपमान संकेतों में सामने आता है । अपमान को लेकर लड़की का विद्रोही तेवर भी । कहानी की बुनावट इस तरह से चलती है कि रोमांच बना रहता है । फिल्म में पति-पत्नी के संबंधों पर भी गंभीरता से विचार किया गया है । नायक पति सामाजिक मान्यताओं में इस कदर जकड़ा हुआ है कि अपनी पत्नी के लिए कुछ कर नहीं पाता है । कईबार वो बेबस भी दिखता है, पत्नी के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना भी है लेकिन समाज क्या कहेगा के चक्रव्यूह में फंस जाता है ।
शौचालय की समस्या से स्त्रियों की क्या क्या समस्याएं जुड़ी हुई हैं उसको इतनी सूक्षम्ता और बारीकी से ये फिल्म अपने में समेटती है कि आश्चर्य होता है कि इतनी दूर तक ये समस्या जा सकती है । नायिका अपने मन का खाना इस वजह से नहीं खा पाती है कि अगर शौच जाना पड़ा तो क्या करेगी । कम पानी पीना कम खाना । जिस समाज में ये मान्यता हो कि औरत का खाना-पीना और पखाना कोई देख नहीं पाए वहां एक पढी लिखी स्त्री किस तरह से सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देती है उसको बेहद दिलचस्प अंदाज में अस्मिता शर्मा ने अपनी इस फिल्म में समेटा है । इस फिल्म के संवाद लगातार समाज की कुरीतियों पर तो चोट करते ही चलते हैं, उनपर टिप्पणी भी करते चलते हैं । जैसे मर्द का कोई टाइम टेबल नहीं होता, औरत को कंट्रोल नहीं होता क्या, औरत है, उस पर लगाम कस कर रख, दिन में जाना हो तो मर्दाना में जन्म लेना होगा । ये सारे वाक्य ऐसे हैं जो एक वाक्य ना होकर समाज में व्याप्त मानसिकता को उघाड़ कर रख देते हैं । अस्मिता शर्मा की ये फिल्म जब ये कहती है कि सीता को भी रोज अग्निपरीक्षा नहीं देनी पड़ती थीतो आप समस्या का अंदाज लगा सकते हैं । नायिका की तकलीफ की इंटेंसिटी को महसूस कर सकते हैं ।

इस फिल्म की नायिका अपनी समस्या का रास्ता तब निकाल लेती है जब उसका पति उसको बातों बातों में अपने लिए खुद रास्ता तलाशने को कहता है । यह फिल्म अवश्य एक सामाजिक समस्या को केंद्र में रखकर बनाई गई है लेकिन इसमें समांनतर रूप से एक इंटेंस लव स्टोरी भी चलती है । पति पत्नी के बीच की प्रेम कहानी । हर लव स्टोरी की तरह इस प्रेम कहानी में कई दिलचस्प मोड़ आते हैं । शक ओ सुबहा भी पैदा होता है, गलतफहमियां भी जन्म लेती हैं लेकिन जब पति पर आंच आती है तो नायिका अपने सारे मान अपमान को भूलकर भरी भीड़ के सामने सरपंच को अपना रास्ता बता देती है । तमाम अपमान के बाद जब वो अपने पति के साथ घर लौटती है तो दोनों के बीच का संवाद समाज और परिवार की उन परतों को उघाड़ कर रख देता है जिसके बारे में मौजूदा दौर के फिल्मकारों को जरा परहेज ही रहता है । गांव की पृष्ठभूमि पर बनी ये फिल्म संदेश को देती है लेकिन इसकी जो रफ्तार है या यों कहें कि अब आगे क्या ये सवाल अंत तक बना रहता है ।  गुटरूँ गुटरगूँ नाम कीइस फिल्म को देखते हुए एरक बेहद दिलचस्प पर मार्मिक कहानी को पढ़ने का एहसास होता है । 

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