Monday, September 26, 2016

सियासत वाले साहित्यकार

प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन के अपने भाषण में कहा था कि साहित्य देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सचाई है । पता नहीं जब प्रेमचंद ने ऐसा कहा था तो उनको इस बात का भान था या नहीं कि जिस प्रगतिशील लेखक संघ के अघिवेशन में वो ये बातें कह रहे हैं दरअसल वहीं से साहित्य के राजनीति के पीछे चलनेवाली मशाल के तौर पर बीजोरोपण हो रहा था । प्रेमचंद के लिए साहित्य, राजनीति की पथप्रदर्शक और उसको आलोक देनेवाली है लेकिन लेखक संघों अपने क्रयाकलापों से इसको निगेट किया और वो अपनी अपनी पार्टियों की पिछलग्गू बनकर मशाल थामे चलती रही । बिहार विधानसभा चुनाव के पहले पूरे देश ने देखा कि असहिष्णुता को लेकर साहित्य ने किस तरह से राजनीति का पल्लू थामा । तर्कवादी डाभोलकर, कन्नड लेखक प्रोफेसर कालबुर्गी की हत्या को लेकर कुछ लेखकों और कलाकारों ने जमकर सियासी दांव-पेंच चले । देश में केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ वातावरण बनाने की कोशिश हुई थी । अब एक बार फिर पुरस्कार वापसी ब्रिगेड के लेखकों- कलाकारों और उनके पैरोकारों ने कश्मीर के मसले पर एक अपील जारी की है । उड़ी में सेना के कैंप पर पाकिस्तान समर्थक आतंकवादियों के हमले में अठारह जवानों के शहीद होने के बाद छियालिस लेखकों, पत्रकारों, रंगकर्मियों आदि के नाम से अशोक वाजपेयी ने एक अपील जारी की है । इस अपील में अशोक वाजपेयी ने दावा किया है कि अलग-अलग भाषा, क्षेत्र और धर्म के सृजनशील समुदाय के लोग कश्मीर भाई-बहनों के दुख से दुखी हैं । अपने अपील में इन लेखकों-कलाकारों ने कहा है कि कश्मीर में जो हो रहा है वो दुर्भाग्यपूर्ण, अन्यायसंगत और अनावश्यक है । अब शुरुआती पंक्तियों को जोड़कर देखें तो यह लगता है कि अपीलकर्ता कश्मीर भाई-बहनों और बच्चों की पीड़ा को दुर्भाग्यपूर्ण, अन्नायसंगत और अनावश्यक बता रहे हैं । कश्मीरियत की याद दिलाते हुए अशोक वाजपेयी और छियालीस अन्य लोग बातचीत पर जोर दे रहे हैं । कश्मीर समस्या का बातचीत से हल निकालने की नीति हमेशा से रही है । सरकारें चाहे बदलती रही हों लेकिन इस रास्ते से कोई भी सरकार हटी नहीं । लेकिन सवाल यह भी खड़ा होता है कि बातचीत किससे ? देश के उन गद्दारों से जो भारतीय भूमि पर रहते हुए, भारतीय सुरक्षा व्यवस्था में महफूज रहते हुए, भारतीय पासपोर्ट रखते हुए पाकिस्तान की पैरोकारी करते हैं । क्या हुर्रियत समेत ऐसे नेता कश्मीर की जनता की नुमाइंदगी करते हैं । चलिए कुछ देर के लिए मान भी लिया जाए कि इस तरह के लोगों से बात करके भी अगर कश्मीर में सांति बहाली होती है तो बात करनी चाहिए । क्या अशोक वाजपेयी और ये तमाम लेखक-कलाकार-पत्रकार उन तस्वीरों को भूल गए जब सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर गया था तो सीताराम येचुरी इनके घर पहुंचे थे । इन्होंने उनेक मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया था । बातचीत तो पिछली सरकार के दौरान दिलीप पड़गांवकर और राधा कुमार की टीम ने भी की थी, उसका क्या हुआ ।इन अपीलकर्ताओं से ये सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि कश्मीर में आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ चल सकती है क्या । पूछा तो इनसे ये भी जाना चाहिए कि क्या भारतीय गणराज्य के खिलाफ विषवमन करनेवालों से भी बातचीत की जानी चाहिए । सवाल तो इनसे ये भी पूछा जाना चाहिए कि क्या ये अपीलकर्ता बुरहान वानी को आतंकवादी मानते हैं या नहीं । इस मसले पर अपील खामोश हैं । दरअसल अपीलकर्ता लेखकों की सूची को देखें तो ये साफ नजर आता है कि इसमें से कई लोग असहिष्णुता के मुद्दे पर बेवजह का वितंडा करनेवाले रहे हैं । उस वक्त उनके आंदोलन से पूरी दुनिया में एक गलत संदेश गया था और देश की बदनामी भी हुई थी । उन्हें ये बात समझनी चाहिए कि कश्मीर का मसला बेहद संजीदा है और इस तरह की अपील से देश को बदनाम करनेवालों को बल मिलता है । समझना तो उन्हें ये भी चाहिए कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती है ।
इन लेखकों कलाकारों की कश्मीर को लेकर चिंता जायज है लेकिन चिंता का इजहार करने का वक्त इन्होंने गलत चुना । आतंकवादी बुरहान वानी के ढेर किए जाने के बाद जब घाटी में विरोध प्रदर्शन हो रहा था तब ये खामोश थे लेकिन उड़ी में सेना के अठारह जवानों के शहीद होने के बाद इनको कश्मीर के लोगों का दर्द परेशान करने लगा । अशोक वाजपेयी ने ये अपील बाइस सितंबर को सार्वजनिक की । इसके एक दिन पहले संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने कश्मीर के मुद्दे पर भारत को बहुत बुरा भला कहा । आतंकवादी बुरहान वानी को युवा नेता बताने से लेकर कश्मीर में मानवाधिकार की बात भी उठाई लेकिन लेखकों की इस अपील में उसका कोई जिक्र नहीं है । लेखकों की ये अपील सामान्यीकरण का शिकार है । इसमें से कुछ साफ तस्वीर उभर कर नहीं आ रही है अगर वो कश्मीर के लोगों के दुख के साथ खड़े दिखना चाहते हैं तो वो तो पूरा देश उनके साथ खड़ा है, इनको अलग से अपील की जरूरत क्यों । अपनी अपील में इन्होंने जिस तरह के शब्दों का चुनाव किया है वो भी हैरान करनेवाला है । वो कश्मीर में संयम की सलाह दे रहे हैं । संयम ठीक है लेकिन जब आपकी धरती पर कोई राष्ट्र के खिलाफ जंग का एलान करेगा तो क्या उस वक्त भी संयम से काम लेना चाहिए । क्या इन मासूम लेखकों को भारतीय संविधान की जानकारी नहीं है जहां राष्ट्र के खिलाफ साजिश और जंग को सबसे बड़ा अपराध माना गया है और सरकार को उन स्थितियों से निबटने के लिए असीम ताकत दी गई है । कश्मीर में शांति की मांग उचित है लेकिन क्या सेना के जवावों की शाहदत पर शांति चाहिए । यह वक्त कश्मीर को लेकर राजनीति का नहीं है बल्कि पूरे देश से एक आवाज उठनी चाहिए । रामचंद्र शुक्ल ने अपने साहित्य के इतिहास में कहा है –साहित्य को राजनीति से उपर रहना चाहिए और सदा उसके इशारे पर नहीं नाचना चाहिए । तो क्या इन लेखकों को शुक्ल जी की नसीहत याद नहीं रहती है या फिर राजनीति के अनुगामी बनकर ये सियासी मोहरे के तौर पर इस्तेमाल होते हैं । जरा सोचिए ।


1 comment:

  1. क्या खूब लिखते हो भाई।मुझे तो लगा था साहित्य में साहस कम हो गया है।लेकिन आपने तो इन देश के गद्दार साहित्यकारों को बिलकुल नंगा कर दिया है।

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