Saturday, March 25, 2017

सबूतों से आस्था की इमारत मजबूत

अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण । यह देश के हिंदुओं के लिए संवेदना से आगे जाकर आस्था का सवाल है । आजादी के बाद और खासकर अस्सी के दशक के बाद यह मुद्दा इतना संवेदनशील रहा है कि इसने लोगों को गहरे तक प्रभावित किया । राम जन्मभूमि को लेकर देश ने आंदोलनों का ज्वार देखा, बाबरी मस्जिद का विध्वंस देखा, सरकारों की बर्खास्तगी देखी, इस मुद्दे को देश की सियासत की धुरी बनते देखा, प्रचंड बहुमत से जीते राजीव गांधी की सरकार के दौर में मंदिर का ताला खुलते और विवादित स्थल के बाहर शिलान्यास होते देखा और अब देख रहे हैं अदालतों में चल रही लंबी कानूनी लड़ाई । अगर यह मुद्दा पिछले सत्त साल से लोगों को लगातार मथ रहा है तो समझना चाहिए कि यह जनमानस में कितने गहरे तक पैठा हुआ है । सितंबर दो हजार दस में जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मसले में फैसला दिया और जमीन को तीन हिस्से में बांटने का हुक्म दिया तो सभी पक्षकार सुप्रीम कोर्ट चले गए और इस फैसले के खिलाफ अपील कर दी । तब से यह मसला वहां लंबित है । हाल ही में बीजेपी सांसद सुब्रह्ण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया कि वो इस मसले पर रोजाना सुनवाई कर अपना फैसला सुनाएं । स्वामी की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने जो टिप्पणी की उसपर पूरे देश में एक बार फिर से सियासत गर्मा गई है । सर्वेच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश जे एस खेहर ने अपनी टिप्पणी में कहा कि धर्म और आस्था से जुड़े मसले आपसी सहमति से सुलझाए जांए तो बेहतर रहेगा । सर्वसम्मति से किसी समाधान पर पहुंचने के लिए आप नए सिरे से प्रयास कर सकते हैं । अगर आवश्यकता हो तो आपको इस विवाद को खत्म करने के लिए मध्यस्थ भी चुनना चाहिए । अग इस केस के पक्षकार की रजामंदी हो तो मैं भी मध्यस्थों के साथ बैठने के लिए तैयार हूं । चीफ जस्टिस ने इसके साथ ही अपने साथी जजों के सेवाओं की पेशकश भी की । राम मंदिर के मसले पर यह सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं है सिर्फ टिप्पणी है लेकिन इस टिप्पणी में मुख्य न्यायाधीश ने एक बेहद अहम बात कह दी है जिसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है । जस्टिस खेहर ने कहा कि धर्म और आस्था के मसले में बातचीत का रास्ता बेहतर होता है। क्या यह माना जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने मान लिया है कि राम मंदिर का मुद्दा धर्म के साथ साथ आस्था का भी है । अगर कोर्ट ऐसा मानती है तो फिर बातीचत की सूरत नहीं बनने पर उससे इसी आलोक में फैसले की अपेक्षा की जा सकती है ।  
हलांकि इस पूरे विवाद में सुब्रह्ण्यम स्वामी ना तो पक्षकार हैं और ना ही किसी पक्षकार के वकील लेकिन फिर भी उन्होंने इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट में अपनी बात रखी है, जिसपर कोर्ट ने उक्त टिप्पणी करते हुए उनको इकतीस मार्च को फिर बुलाया है । कोर्ट के इस प्रस्ताव को लगभग सभी पक्षकारों ने ठुकरा दिया है और कोर्ट से आग्रह किया है कि वो फैसला करें जो सभी पक्षों को मान्य होगा । श्रीराम जन्मभूमि न्यास के महंत नृत्य गोपालदास ने साफ किया है कि उनको किसी भी तरह की मध्यस्थता स्वीकार नहीं है । उनका तर्क है कि विवादित स्थल पर सभी पुरातात्विक साक्ष्य मंदिर के पक्ष में है । उधर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्डसमेत कई मुस्लिम संगठन अदालत के बाहर इस मसले के समाधान को लेकर आशान्वित नहीं हैं ।   दरअसल अगर हम देखें तो बातचीत से सुलग इस वजह से भी संभव नहीं है क्योंकि इसमें कुछ लेना और कुछ देना पड़ता है, जिसकी ओर सुप्रीम कोर्ट ने भी इशारा किया था । जिस देश में राम मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में आदर्श मानकर पूजे जाते हों वहां उनके जन्मस्थल को लेकर लेन देन होना अफसोसनाक तो है ही करोड़ों लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ भी है । और फिर सवाल सिर्फ आस्था का नहीं है, आस्था तो लंबी अदालती लड़ाई के दौर में सबूतों की जमीन पर और गहरी होती चली गई है । अगर हम दो हजार दस के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को देखें तो उसमें भी उस जगह को राम जन्मभूमि मान लिया गया था । इसके अलावा पुरातत्व विभाग की रिपोर्टों भी इसके पक्ष में ही है । दस हजार पन्नों के अपने फैसले में कोर्ट ने जमीन के मालिकाना हक का फैसला कर दिया था । हाईकोर्ट के इस फैसले के पहले भी सात या आठ बार बातचीत से इसको हल करने की नाकाम कोशिशें हुई थीं । शिया पॉलिटिकल कांफ्रेंस के सैयद असगर अब्बास जैदी ने भी कोशिश की थी और प्रस्ताव दिया था कि जहां रामलला विराजमान हैं वहां राम का भव्य मंदिर बने मुस्लिम समुदाय के लोग पंचकोशी परिक्रमा के बाहर मस्जिद बना लें । लेकिन यह मुहिम परवान नीं चढड सकी थी । दो हजार चार के बाद जस्टिस पलोक बसु ने भी इस दिशा में प्रयास किया था लेकिन वो भी सफल नहीं हो सका । चंद्रशेखर से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों ने भी इस दिशा में गंभीर कोशिश की थी लेकिन कभी मंदिक समर्थकों ने तो कभी मंदिर विरोधियों ने इस मुहिम को सफल नहीं होने दिया। दो हजार एक में तो कांची के शंकराचार्य ने भी मध्यस्थता की कोशिश की थी लेकिन उस वक्त विश्व हिंदू परिषद के विरोध की वजह से शंकराचार्य ने अरने कदम पीछे खींच लिए ।

मध्यस्थता की बात सुनने में बहुत अच्छी लगती है लेकिन मामला इतना जटिल है कि इस तरह का कोई फॉर्मूला सफल हो ही नहीं सकता है । अगर किसी हाल में बातचीत की सूरत बनती भी है तो स्वामी और ओवैशी जैसे अलग अलग कौम के अलग अलग रहनुमा सामने आ जाएंगे जिससे पेंच फंसना तय है । मध्यस्थता की बजाए इस मसले पर देश के मुस्लिम समुदाय को बड़ा दिल दिखाना चाहिए और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए आगे आकर उदाहरण पेश करना चाहिए । इससे दोनों समुदायों के बीच आपसी सद्भाव बढ़ेगा क्योंकि यह तो तय है कि भारत के मुसलमानों के लिए भी आक्रमणकारी औरंगजेब से ज्यादा राम उनके अपने हैं । क्या इस देश में कोई मुसलमान ऐसा होगा जो अपने को औरंगजेब के साथ कोष्टक में रखना चाहेगा । अगर ऐसा नहीं होता है तो फिर सोमनाथ मंदिर की तर्ज पर सरकार को कदम उठाकर राम मंदिर के निर्माण का रास्ता प्रशस्त करना चाहिए ।   

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