Saturday, November 11, 2017

लेखकीय आत्मलज्जा का सवाल

इस स्तंभ में पहले भी कई बार चर्चा की जा चुकी है कि हिंदी साहित्य के लिए फेसबुक और वहां चलनेवाली बहसें काफी महत्वपूर्ण हो गई हैं। महत्वपूर्ण इस वजह कि साहित्य की नई नई प्रवृत्तियों, रचनाओं पर तो संवाद होते ही हैं, साहित्यक विवाद भी अक्सर अब पत्रिकाओं की बजाए फेसबुक पर उठने लगे हैं। कई बार विवाद सिले हुए पटाखे की तरह उठते ही फुस्स हो जाते हैं तो बहुधा वो लंबे समय तक चलते हैं। समय के साथ साथ इन विवादों का दायरा भी विस्तार लेता है। इन दिनों फेसबुक पर साहित्यक चोरियों के आरोपों को लेकर घमासान मचा है। इस वक्त आरोपों के बवंडर में हैं हिंदी की कथाकार रजनी मोरवाल। रजनी मोरवाल पर आरोप है कि उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट की गई सामग्रियों का इस्तेमाल हंस पत्रिका में प्रकाशित अपनी कहानी महुआ में किया है। पुराने फेसबुक पोस्ट के साथ साथ हंस पत्रिका में प्रकाशित रजनी मोरवाल की कहानियों के अंश फेसबुक पर पोस्ट किए जा रहे हैं। तमाम तरह की बातें हो रही है, आरोप लगाए जा रहे हैं । थाने, मुकदमे तक की बातें हो रही हैं। बौद्धिक संपदा की चोरी को लेकर कानूनची भी सक्रिय हैं। आरोपों के कोलाहल के बीच एक दिलचस्प मोड़ इस पूरे विवाद में आया। रजनी मोरवाल पर जिस फेसबुक पोस्ट को अपनी कहानी में उपयोग करने का आरोप लगा है उसपर भी सवाल खड़े होने लगे हैं। फेसबुक पर सक्रिय चंद लोगों ने मूल फेसबुक पोस्ट को  कुबेरनाथ राय जी के निबंध का हिस्सा बताकर पोस्ट करना शुरू कर दिया। स्तंभ लिखे जाने तक इस तरह की बात करनेवाले लोग ये नहीं बता पाए हैं कि वो अंश कुबेरनाथ जी के किस निबंध का हिस्सा है। इसपर खामोशी है। कुछ लोगों का कहना है कि पूर्व में फेसबुक पर पोस्ट की गई साम्रगी और रजनी मोरवाल की कहानी के अंश दोनों गूगल बाबा की कृपा से अवतरित हुए हैं, इस कारण से दोनों में समानता है। अब सत्य क्या है इसबारे में तो आनेवाले दिनों में ही पता चल पाएगा। फिलहाल तो रजनी मोरवाल पर संगीन आरोप हैं और साहित्य जगत में आम धारणा बनती जा रही है कि उन्होंने पूर्व में फेसबुक पर पोस्ट की गई सामग्री का उपयोग बगैर क्रेडिट दिए किया। फेसबुक पर सक्रिय लोग इसको साहित्यिक चोरी कह रहे हैं। इस पूरे प्रकरण पर रजनी मोरवाल जी का पक्ष आना शेष है।   
इस घटना के बाद कुछ उत्साही लोगों ने पुराने मामलों को उछालना शुरू कर दिया, गड़े मुर्दे उखाड़े जाने लगे। रजनी मोरवाल के मुद्दे के सामने आने के बाद जयश्री राय पर को लेकर भी लोगों ने बातें करनी शुरू कर दी। उनपर भी आरोप लगाया जाने लगा कि उन्होंने अपनी कहानियों में विवेक मिश्र की नकल की, अपने उपन्यासों में मनीषा कुलश्रेष्ठ के उपन्यास के अंश का उपयोग कर लिया, कहीं मृदुला गर्ग के उपन्यास की पंक्तियां जस का तस उठाकर रख दी आदि आदि। जयश्री राय को लेकर इस तरह की चर्चा पुरानी रही है। इसके पहले हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार उदय प्रकाश पर भी इस तरह के आरोप लगे थे। आलोचक रविभूषण के लेख से भी विवाद हुआ था। तब भी केस मुकदमे की बातें हुई थीं, लेकिन वो फेसबुक का दौर नहीं था। साहित्यक चोरी को लेकर आजादी के पहले सरस्वती पत्रिका के अंकों में भी लेख आदि छपे थे जो अब इतिहास के पन्नों में दर्ज है ।
अभी दो साल पहले दो हजार पंद्रह में भी साहित्यिक चोरी को लेकर फेसबुक पर काफी हो हल्ला मचा था। उस वक्त भी फेसबुक पर जारी चर्चा के आधार पर मैंने कुछ प्रवृत्तियों को रेखांकित किया था। दरअसल पिछले कुछ सालों में कुछ कवयित्रियां ऐसी आ गईं जो हैं जो पुराने कवियों की कविताओं की तर्ज पर शब्दों को बदलते हुए लोकप्रियता के पायदान पर ऊपर चढ़ना चाहती हैं। हिंदी साहित्य जगत में हमेशा से ऐसे लोग रहे हैं जो इस तरह की प्रतिभाहीन लेखिकाओं की पहचान कर उनकी महात्वाकांक्षाओं को परवान चढ़ाते हैं । इसके कई फायदे होते हैं । उन फायदों की फेहरिश्त यहां गिनाने का कोई अर्थ नहीं है । दो हजार पंद्रह में जब एक कवयित्री को लेकर विवाद उठा था तब भी ये बात आई थी कि हिंदी के वरिष्ठ लेखक क्या कर रहे हैं, वो खामोश क्यों हैं। बयानवीर लेखक संगठन क्या कर रहे हैं। तब भी कुछ नहीं हो पाया था और आशंका है कि इस बार भी शायद ही कोई पहल हो या किसी प्रकार का ठोस कदम उठाया जा सके।  
यहां चर्चा हो रही है हिंदी साहित्य में साहित्यिक चोरी के आरोपों की जो कि एक बार फिर से उभर कर सामने आ गया है और इन दिनों हिंदी साहित्य जगत में विमर्श के केंद्र में है। साहित्यिक चोरी के आरोपों पर फेसबुक पर ही निंदा करके मामला शांत हो जा रहा है। क्या साहित्यिक चोरी का सवाल बड़ा साहित्यिक सवाल नहीं है जिससे टकराने की कोशिश की जानी चाहिए। हद तो तब हो जा रही है जब उन रचनाओं को पुरस्कृत भी कर दिया जा रहा है जिनपर साहित्यिक चोरी का आरोप है। पुरस्कृत कर देने से रचनाओं को एक प्रकार की वैधता तो मिल ही जाती है। रघुवीर सहाय और पवन करण की कविताओं की छाया जिन कविताओं में दिखी थी उनपर बहुत बातें हो चुकी हैं और उनको दोहराने का कोई अर्थ नहीं है। इस तरह की तिकड़म करनेवाले लेखकों और लेखिकाओं को ये सोचना चाहिए कि साहित्य के पाठक इतने सजग हैं कि साहित्यिक चोरी करके कोई बचकर निकल नहीं सकता है । जब साहित्यिक चोरी पकड़ी जाती है तो यह कहकर बचने और बचाने की कोशिश की जाती है कि दोनों रचनाकारों की जमीन एक रही होगी। इसके अलावा यह भी कहा जाने लगा है कि हिंदी में साहित्यिक चोरी के ज्यादतर आरोप लेखिकाओं पर क्यों लगते हैं। ऐसा हाल में देखा जाने लगा है खासकर फेसबुक के लोकप्रिय होने के बाद से। लेकिन अगर बौद्धिक संपदा की चोरी है तो चोरी है उसमें स्त्री पुरुष का भेद नहीं किया जाना चाहिए।
फेसबुक पर जो साहित्य की दुनिया है वो पत्र-पत्रिकाओं की साहित्यिक दुनिया से अलग है। फेसबुक के जरिए प्रसिद्धि हासिल करनेवालों का एक पूरा गिरोह वहां सक्रिय है। फेसबुक ये साहित्यिक गिरोह अपने गैंग के सदस्यों की रचनओं की जमकर वाहवाही करने लग जाता है । लाइक्स और कमेंट की बौछार कर दी जाती है। आम और तटस्थ पाठकों को लगता है कि कोई बहुत ही क्रांतिकारी रचना आई है । फेसबुक पर सक्रिय इस साहित्यिक गिरोह के कर्ताधर्ता ये भूल जाते हैं कि ये आभासी दुनिया है और इसका फैलाव अनंत है । इसके दायरे में जो भी चीज आ जाती है वो बहुत दूर तक जाती है । सुदूर बैठा पाठक जो साहित्य के समीकरणों को नहीं समझता है और जो गंभीरता से साहित्य को घोंटता है वह जब इस तरह की साहित्यक चोरी को देखता है तो प्रमाण के साथ उजागर कर देता है ।
अब अगर हम इस प्रवृत्ति के बढ़ते जाने की वजहों की पड़ताल करते हैं तो सबसे बड़े दोषी के तौर पर मुझे तो गूगल बाबा ही नजर आते हैं। अपनी रचनाओँ में अपने अनुभवों को और अपने ज्ञान को पिरोने की बजाए अब कुछ लेखकों ने शॉर्टकट रास्ता अपनाना शुरू कर दिया है। कहीं से किसी कथा का कोई प्लॉट दिमाग में आत ही सबसे पहले गूगल की शरण में जाते हैं। गूगल पर लगभग हर तरह की सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। कई बार स्त्रोत के साथ तो कई बार बगैर किसी स्त्रोत के। लेखकों को अपने प्लॉट के हिसाब से जो सामग्री मिलती है उसको उठा लेते हैं और उसको अपनी रचना में इस्तेमाल कर लेते हैं। जल्दी प्रसिद्धि की चाहत में स्त्रोत आदि की जांच करने या उसका उल्लेख करने का ध्यान नहीं रहता है। जिसका परिणाम यह होता है कि दो तीन लेखकों की रचनाओं  समानता दिखाई देती है। जिसकी पहले छपी होती है उसकी बल्ले बल्ले और जिसकी बाद में छपती है उसपर साहित्यिक चोरी का आरोप।

साहित्यिक चोरी को लेकर हिंदी में गंभीर विमर्श की दरकार है और इसकी पुनरावृत्ति नहीं हो इस बारे में संपादकों को भी सोचने की जरूरत है। जिन लेखकों पर आरोप लग रहे हैं उनको छापना बंद करना चाहिए या उनको अपनी बेगुनाही साबित करने का मौका दिया जाना चाहिए। कायदे से तो हंस पत्रिका में रजनी मोरवाल जी का पक्ष प्रकाशित होना चाहिए और संपादक को भी अपना पक्ष रखना चाहिए। पाठकों को पता तो लगे कि दोषी कौन है और है और दोषी के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई। अन्यथा पत्रिका पर भी पाठकों का भरोसा कम हो सकता है।   

2 comments:

  1. बेहद शानदार लेख।मौलिक लेखन से लोग घबराते क्यों हैं।चोरी करने से बेहतर है अपना रचे।काहे स्यापा!!!

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  2. बहुत अच्छा लेख

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