Saturday, September 1, 2018

भाषा को तकनीक से जोड़ने का संकल्प


मॉरीशस में हाल ही में संपन्न हुए विश्व हिंदी सम्मेलन का शुभारंभ करते हुए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही। सुषमा स्वराज ने कहा कि पूर्व में हुए ज्यादातर विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी साहित्य पर केंद्रित होते थे और सत्रों की संरचना उसी हिसाब से की जाती थी। उनका मानना था कि हिंदी में उच्च कोटि का साहित्य रचा जा रहा है लेकिन अगर भाषा की समझ खत्म हो जाएगी तो पढ़ेगा कौन? इसलिए भोपाल के दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी भाषा को बढ़ाने, बचाने और उसकी शुद्धता को बरकरार रखने की कोशिश शुरू की गई थी। हिंदी के संवर्धन और उसकी शुद्धता को बचाने और बढ़ाने की जिम्मेदारी भारत की है। भाषा को साहित्य के दायरे से निकालकर विस्तार देने की कोशिश का दावा किया गया। मॉरीशस में आयोजित सम्मेलन में भाषा को और आगे ले जाकर संस्कृति के साथ जोड़ने की कोशिश दिखाई देती है। भाषा और संस्कृति में तो बहुत मजबूत रिश्ता होता है। जिस समाज में भाषा का लोप होता है वहां संस्कृति के लोप का भी खतरा उत्पन्न हो जाता है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने भी कहा था- जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है जब वो अपनी परंपराओं को भूलकर दूसरों की परंपराओं का अनुकरण करने लगती है।..जब वो मन ही मन अपने को हीन और दूसरो को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दासता को स्वेच्छया स्वीकार कर लेती है। पारस्परिक आदान प्रदान तो संस्कृतियों का स्वाभाविक धर्म है, किंतु जहां प्रवाह एकतरफा हो वहां यही कहा जाएगा कि एक जाति दूसरी जाति की सांस्कृतिक दासी हो रही है। किन्तु सांस्कृतिक गुलामी का इन सबसे भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा को अपना लेती है और उसी में तुतलाने को अपना परम गौरव मानने लगती है। यह गुलामी की पराकाष्ठा है, क्योंकि जो जाति अपनी भाषा में नहीं सोचती, वह परंपरा से छूट जाती है और उसके स्वाभिमान का प्रचंड विनाश हो जाता है। दिनकर ने उपरोक्त चार पांच पंक्तियों में भाषा और संस्कृति के गहरे संबंध को रेखांकित किया है और इससे असहमति की कोई वजह नजर नहीं आती है। उन्होंने हिंदी भाषी लोगों के अंग्रेजी प्रेम पर परोक्ष रूप से तंज भी कसा था जब वो अन्य भाषा में तुतलाने की बात कर रहे थे। इस लिहाज से अगर देखें तो भाषा को साहित्य के दायरे से बाहर निकालकर उसको संस्कृति से जोड़ने की कोशिश करना या उसपर मंथन करना विश्व हिंदी सम्मेलन की सार्थकता मानी जा सकती है। 28 से 30 अगस्त 1976 तक मॉरीशस में ही आयोजित दूसरे विश्व हिंदी सम्मेलन की अंतिम गोष्ठी में डॉ हजरी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था, यह जो विश्व हिंदी सम्मेलन है, इसका अभी दूसरा ही वर्ष है। बहुत बालक भी नहीं शिशु है।अभी तो यह पैदा ही हुआ है, एक दो साल का बच्चा है। लेकिन इसको देखकर लगता है कि एक महान भविष्य का द्वार उनमुक्त हो रहा है।बताते चलें कि पहला विश्व हिंदी सम्मेलन 10 से 12 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था। द्विवेदी जी के इस कथन पर गंभीरता से विचार करना होगा कि दो सम्मेलनों के बाद विश्व हिंदी सम्मेलनों में क्या हुआ और उसने जो राह पकड़ी उससे भाषा को कितनी समृद्धि मिली क्योंकि वो बालक अब तैंतालीस साल का युवक हो चुका है।  
ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी को तकनीकी रूप से समृद्ध करने की पहल दिखाई देती है, यह पहल भोपाल में आयोजित दसवें सम्मेलन में भी दिखाई दी थी। उसके पहले भी छिटपुट रूप से इस पर चर्चा होती रही है। ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भी तकनीक को लेकर बहुत दावे किए गए और भविष्य के लिए अपेक्षाओं का अंबार भी पेश किया गया। अशोक चक्रधर ने बहुत सटीक टिप्पणी तकनीक और भाषा को लेकर की। उन्होंने कहा कि आप एसएमएस लेकर आइए, उससे किसी का कोई विरोध नहीं है लेकिन जब एसएमएस हमारे संदेश की हत्या कर ना आए। अगर यह हमारे संदेश की हत्या कर आगे बढ़ता है तो हिंदी के लोगों को उसका विरोध करना चाहिए। इस बात पर भी लंबी चौड़ी बहस होती रही है कि तकनीक अपने साथ अपनी भाषा लेकर चलती है। चले लेकिन तकनीक की भाषा हमारी हिंदी को नेपथ्य में ना डाल दे। कोशिश इस बात की भी होनी चाहिए कि हिंदी तकनीक को अपनाए और तकनीक भी हिंदी को अपनाए। ये हो रहा है पर अपेक्षित रफ्तार से नहीं जिसकी वजह से तकनीक तो भाषा पर हावी होती जा रही है पर तकनीक में हिंदी भाषा के उपयोग का अनुपात वो नहीं है जो होना चाहिए। विश्व हिंदी सम्मेलन के सत्रों में तो भाषा को लेकर तकनीक के उपयोग पर जोर दिया गया लेकिन खुद सम्मेलन की बेवसाइट या सोशल मीडिया पर सम्मेलन के सत्रों की उपस्थिति बहुत कम रही। बेवसाइट को अपडेट करने की ओर किसी का ध्यान नहीं गया. ट्विटर और फेसबुक के माध्यम से वृहत्तर हिंदी भाषी समाज को जोड़ने की कोशिश नहीं हुई। विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रौद्योगिकी के माध्यम से हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के विकास पर भी चर्चा हुई। कंठस्थ, लीला, प्रवाह जैसे तरह के सॉफ्टवेयर के उद्घोष के साथ डिजीटल इंकलाब का नारा भी लगाया गया। अगर हिंदी अपने साथ अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर चलने लगे तो यह स्थिति बहुत अच्छी होगी। हिंदी को लेकर अन्य भारतीय भाषाओं के मन में जो आशंका है वो दूर होगी। प्रौद्योगिकी के माघ्यम से अगर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच सामंजस्य या आवाजाही का माहौल बन सकता है तो यह स्थिति सबके लिए लाभप्रद होगी, हिंदी का भी शब्द भंडार बढ़ेगा और अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों में भी बढोतरी होगी। समाज से भाषाई कटुता खत्म होगी और उसपर होनेवाली राजनीति भी बंद हो सकेगी।
विश्व हिंदी सम्मेलन हो और उसमें हिंदी को विश्वभाषा बनाने का और संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने पर चर्चा ना हो यह संभव ही नहीं है। पहले विश्व हिंदी सम्मेलन में भी इसकी चर्चा हुई थी और वहां हिंदी को आधिकारिक भाषा नहीं माने जाने पर विनावा भावे ने क्षोभ प्रकट करते हुए कहा था कि यूएनओ में स्पेनिश को स्थान है, अगरचे स्पेनिश बोलने वाले पंद्रह-सोलह करोड़ ही हैं। हिंदी का यूएनओ में स्थान नहीं है यद्यपि उसके बोलनेवालों की संख्या लगभग छब्बीस करोड़ है। कालांतर में लगभग सभी हिंदी सम्मेलनों में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने का संकल्प लिया जाता रहा। इस बार भी सुषमा स्वराज ने इसका जिक्र किया लेकिन साथ ही इसको लेकर व्यावहारिक दिक्कत बताई। उन्हेंने कहा कि अगर यूएन हिंदी को आधिकारिक भाषा के तौर पर मान्यता देता है तो उसपर आनेवाले खर्च को सभी सदस्य देशों को वहन करना पड़ेगा। इस नियम को लेकर कठिनाई आ रही है। लेकिन विदेश मंत्री ने हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा की सूची में शामिल करवाने की प्रतिबद्धता भी दोहराई। दरअसल संयुक्त राष्ट्र में हिंदी भाषाई संवेदनशीलता का मुद्दा है जिसको कोई भी सरकार छोड़ना नहीं चाहती। आज भी अटल बिहारी वाजपेयी का संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में दिए गए पहले भाषण की खूब चर्चा होती है।   
ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में जिस तरह की अनुशंसाएं आई हैं या जो संकल्प लिया गया है अगर उसपर दस फीसदी भी काम हो सका तो हिंदी के लिए बेहतर होगा। अपेक्षा यह करनी चाहिए कि काम जमीन तक पहुंचे सिर्फ फाइलों, स्मारिकाओं और पुस्तकों में ना रहे। इससे भाषा मजबूत होगी और भाषा मजबूत होगी तो संस्कृति को मजबूlr मिलेगी और इन दोनों की मजबूती से राष्ट्र शक्तिशाली होगा।

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