Saturday, June 6, 2020

साहित्य के ‘लाइव काल’ का संकट

कोरोना वायरस के संकट के बीच जब पूर्ण लॉकडाउन चल रहा था और साहित्यिक सभाएं और गोष्ठियां बंद हो गई थीं, तो हिंदी साहित्य से जुड़े लेखकों ने फेसबुक पर एकल गोष्ठियां करनी शुरू कर दीं। कई साहित्यिक संस्थाओं और प्रकाशकों ने भी हिंदी की विभिन्न विधाओं के लेखकों का लाइव करना शुरू किया। धीरे धीरे तो ऐसा लगा कि संपूर्ण हिंदी साहित्य लाइव मोड में ही आ गया है। हर समय किसी ने किसी फेसबुक पेज पर या लोगों के व्यक्तिगत अकाउंट पर लाइव करते लेखक नजर आने लगे। जब भई आप अपने फेसबुक अकाउंट में लॉगइन करें तो आपकी टाइमलाइन पर लाइव होता दिखने लगा। क्या युवा, क्या अधेड़, क्या बुजुर्ग, सभी वय के लेखक फेसबुक पर अपनी मन की बात करते नजर आने लगे। कुछ लेखकों ने तो दिन में दो वक्त लाइव करना शुरू दिया। फेसबुक पर साहित्यिक लाइव की मानो बाढ़ सी आ गई। इस स्थिति को देखते हुए यह भी कहा गया कि आज अगर नामवर सिंह जीवित होते तो बेहद खुश होते क्योंकि जिस वाचिक परंपरा को उन्होंने अपनाया और लेखन को छोड़कर व्याख्यान की ओर गए उसको पल्लवित और पुष्पित होते देखकर वो आनंद से भर उठते। लेकिन कोरोना संकट के इस दौर में लेखकों के लाइव को देखने के बाद एक महत्वूपूर्ण तथ्य को भी रेखांकित किया जाना चाहिए। दरअसल आभासी माध्यम बेहद पारदर्शी है, वो हाथ के हाथ ये बता देता है कि आपको कितने लोग सुन रहे हैं या आपके लाइव का वीडियो कितने लोगों तक पहुंचा। तो हम जिस महत्वपूर्ण तथ्य की बात कह रहे थे वो ये कि बुजुर्ग और वरिष्ठ लेखकों को सुनने के लिए ही ज्यादा श्रोता या दर्शक फेसबुक पर पहुंचे। इनकी तुलना में युवाओं को बहुत ही कम दर्शक या श्रोता मिले। लगभग नगण्य। हिंदी की वरिष्ठ लेखिका ऊषाकिरण खान हों या मैत्रेयी पुष्पा या फिर विनोद कुमार शुक्ल या अशोक वाजपेयी ही क्यों न हों, इनको उन युवा लेखकों के मुकाबले ज्यादा लोगों ने सुना और देखा जो खुद को साहित्य का सितारा मानते हैं। अगर इस संख्या को लोकप्रियता का पैमाना माना जाए तो हमारे वरिष्ठ लेखक अब भी युवाओं पर भारी हैं। हिंदी साहित्य की आभासी दुनिया में जो भी उपस्थिति हो उसको ही पैमाना मानें तो ये बात और स्पष्ट हो जाती है। बहुत कम युवा लेखक ऐसे रहे जिनको सुनने के लिए सौ दर्शक फेसबुक पर लाइव जुड़े या फिर बाद में उनके वीडियो की पहुंच एक हजार लोगों तक हुई। साहित्य के भविष्य के लिए यह बहुत ही चिंता की बात है।
इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि हमारे युवा लेखक जो खुद को साहित्य का सितारा मानते हैं, श्रेष्ठता बोध इतना कि वो अपने आगे न तो रामचंद्र शुक्ल को कुछ मानते हैं और न ही प्रेमचंद को। एक वाक्य बोलकर या लिखकर अपने पूर्वज लेखकों का सब किया धरा लीप-पोत कर रखने की कोशिश करते हैं। हिंदी साहित्य के इसी लाइव काल में फेसबुक पर एक निरर्थक बहस चली जिसमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल को लेकर न सिर्फ अनाप-शनाप कहा गया बल्कि उनके योगदान को खारिज करने जैसी बातें भी हुईं। रामचंद्र शुक्ल को खारिज करने के लिए कम से कम उनका लिखा पढ़ना आवश्यक है। बगैर रामचंद्र शुक्ल को पढ़े, सुनी सुनाई बातों के आधार पर और उनके नाम में लगे शुक्ल के आधार पर उनपर हमले किए गए। जिन लोगों ने भी रामचंद्र शुक्ल पर हमले किए या उनके साहित्यिक अवदान को न्यूनतम बताने की कोशिश की उनकी टिप्पणियां बेहद स्तरहीन और मूर्खतापूर्ण थीं। शुक्ल जी को कबीर विरोधी करार देनेवाले फेसबुक वीर अतिउत्साह में शुक्ल जी को ब्राह्मणवादी आलोचक तक करार देने में नहीं हिचके। काशी हिंदू विश्वविद्लय से जब हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को जाना पड़ा था तब वो कुछ पंक्तियां कहा करते थे, उनमें से एक पंक्ति क्षमा सहित थोड़े बदलाव के साथ कि ‘वे द्विज और होंगे जो उल्लू के नखों की चोट से घायल हो जाते हैं।‘ 
आचार्य रामचंद्र शुक्ल की स्थापनाओं पर प्रश्न खड़े करने के लिए नामवर सिंह को भी ‘दूसरी परंपरा की खोज’ जैसी पुस्तक लिखनी पड़ी लेकिन उसमें भी नामवर सिंह ने बहुत संभलकर शुक्ल जी की आलोचना की। उद्धरणों के सहारे ही शुक्ल जी के लेखन पर सवाल उठाए। कई युवा लेखक आत्ममुग्धता में इतने पर भी नहीं रुकते हैं बल्कि वो इस बात में गौरव महसूस करते हैं कि वो हिंदी परंपरा को नहीं जानते हैं। वो बहुत गर्व से कहते हैं कि वो पंत और महादेवी को नहीं जानते या सिर्फ इतना जानते हैं कि वो हिंदी में ‘कुछ’ लिखते थे। इस तरह की टिप्पणियां अहंकारी लग सकती हैं पर दरअसल ये अज्ञान का सार्वजनिक प्रदर्शन है। अस्वीकार का साहस भी उन लेखकों के पास ही होता है जिसे अपनी परंपरा का ज्ञान होता है। नामवर सिंह ने भी दूसरी परंपरा की खोज लिखा था तो उसकी भूमिका में उल्लेख किया था, ‘अनपेक्षित प्रसंग वे कहे जा सकते हैं जहां अन्य विद्वानों की आलोचना है, लेकिन उसके बिना द्विवेदी जी के वैचारिक संघर्ष का संदर्भ अस्पष्ट और अमूर्त रह जाता। इसलिए शिष्टता पर स्पष्टता को तरजीह क्षम्य होनी चाहिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि पूर्वपक्ष के ऋषि कुछ कम पूज्य नहीं-यह एहसास मुझमें है। लेकिन इन दिनों तो शिष्टता पर मूर्खता को तरजीह मिल रही है।‘ यह भी एक वजह हो सकती है कि जिससे उन युवा लेखकों को दर्शक या श्रोता नहीं मिल पा रहे हैं जिनको हिंदी साहित्य की परंपरा का ज्ञान नहीं है इसलिए जब वो विषय विशेष को उठाते हैं तो उसमें न तो गंभीरता रहती है और न ही कोई ऐसा रोचक प्रसंग जो दर्शक या श्रोता को समृद्ध कर सके। दरअसल लाइव अपने श्रोताओं से पाठकों से या दर्शकों के समझ जाना और उनको बांधे रखना एक अलग ही किस्म की कला है। या तो आपकी वक्तृत्व कला ऐसी हो जो दर्शकों को बांध सके या फिर आपके कहने में ऐसा कंटेंट हो जिसको सुनने के लिए लोग वक्ता के साथ जुड़े रह सकें। इन दोनों ही कसौटी पर हमारे दौर के वरिष्ठ लेखक युवाओं पर भारी पड़ते हैं।
किसी भी साहित्य में चलने वाले विमर्श, साहित्यकारों के बीच के नोंक-झोंक, हास परिहास और रचनात्मक आक्रमण उसकी जीवंतता को भी इंगित करते हैं लेकिन अगर फेसबुक पर चलनेवाले इन लाइव को हिंदी साहित्य का विमर्श मान लें तो जीवंतता कम आत्ममुग्धता ज्यादा दिखाई देती है। इसके अलावा एक और प्रवृत्ति है जिसको भी रेखांमकित करना आवश्यक है वो है युवा लेखकों में अपनी रचनाओं की कमी के बारे में सुनने का धैर्य नहीं होना। अपनी रचना में कमी या कमजोरी को वो सुनना नगीं चाहते हैं और अगर कोई वरिष्ठ साहित्यकार इस ओर ध्यान दिलाना चाहता है तो वो अपने मित्रों के साथ उनपर ही टूट पड़ते हैं। आलोचना और आलोचक को लेकर एक अजीब किस्म की उदासीनता और उपेक्षा का भाव दिखाई देता है। ज्यादातर युवा लेखक फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को आलोचकों की जगह रखते हैं और इसको लिखकर स्वीकार भी करते हैं। नतीजा यह है कि अभी अभी लिख रही युवा पीढ़ी का कोई अपना आलोचक तैयार नहीं हो सका जो उनकी रचनाओं के अर्थ खोलकर पाठकों तक पहुंचा सके। ऐसी परिस्थिति में अगर कोई युवा लेखक अपनी रचना को लेकर पाठकों के बीच भी जाता है और लाइव करता है तो उसको भी अपेक्षित संख्या नहीं मिल पाती है। इन स्थितियों पर विचार करने से स्थिति स्पष्ट होगी। 

1 comment:

  1. अच्छा लिखा है आपने. वरिष्ठ लेखकों को अधिक श्रोता-दर्शक मिलने की एक वजह यह भी है उन्हें हम लम्बे समय से पढ़ते रहे हैं, इसलिए उनकी एक छवि हमारे मानस पटल पर पहले से मौज़ूद रहती है, जबकि किसी नए लेखक की तरफ हम तभी जाते हैं जब उसने अपने लेखन से हमारे मन में कोई जगह बनाई हो. जिसकी चार रचनाएं हमने पढ़ी उस पर चालीस रचनाओं वाले को वरीयता दें, यह अस्वाभाविक नहीं है. आपकी इस बात से मैं पूरे एतरह सहमत हूं कि नए लेखक अपनी आलोचना सुनने को तैयार नहीं हैं. अधिकांश नए लेखक.

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