Saturday, August 6, 2022

प्रेमचंद ने उर्दू में लिखना क्यों छोड़ा?


हिंदी में कथा सम्राट के नाम से प्रसिद्ध प्रेमचंद के कृतित्व और व्यक्तित्व को लेकर हिंदी में विपुल लेखन हुआ है। उनकी रचनाओं को आधार बनाकर देशभर के विश्वविद्यालयों में सैकड़ों शोध हुए हैं। इस बारे में भी सैकड़ों लेख लिखे गए कि कैसे प्रेमचंद गरीबों और किसानों की समस्याओं को अपनी रचनाओं में स्थान देते थे। उनकी रचनाओं में गरीबों और किसानों की समस्या के चित्रण के आधार पर उनकी प्रगतिशीलता और जनपक्षधरता को भी रेखांकित किया जाता रहा है। इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि प्रेमचंद पहले उर्दू में नवाबराय के नाम से लिखते थे। कई जगह इस बात का उल्लेख मिलता है कि जुलाई 1908 में कानपुर से सोजेवतन नामक उनके पहले कहानी संग्रह का प्रकाशन हुआ था। इस संग्रह में प्रकाशित देशप्रेम की कहानियों को अंग्रेजों ने आपत्तिजनक माना था। तब कानपुर के कलक्टर ने उनको बुलाकर फटकारा था और कहा था कि अगर मुगलों का राज होता तो तुम्हारे दोनों हाथ काट लिए जाते। तुम्हारी कहानियां एकांगी हैं और तुमने अंग्रेजी राज की तौहीन की है। कलक्टर ने कहानी संग्रह को जब्त कर उसमें आग लगवा दी थी। फिर पुलिस के अफसरों के साथ कलेक्टर ने मीटिंग की जिसमें ये निष्कर्ष निकाला गया कि कहानियां राजद्रोह की श्रेणी में आती हैं। प्रेमचंद ने लिखा- ‘पुलिस के देवता ने कहा कि ऐसे खतरनाक आदमी को जरूर सख्त सजा देनी चाहिए।‘ मामला किसी तरह रफा दफा हुआ। उनको चेतावनी दी गई थी कि वो अपनी रचनाएं प्रकाशन पूर्व प्रशासन को दिखवा लिया करें। कहानी संग्रह की जब्ती और अंग्रेज कलेक्टर की फटकार के बाद नवाबराय ने प्रेमचंद के नाम से हिंदी में लिखना आरंभ कर दिया। इस तरह के आलेखों में ये बताया जाता रहा है कि इस कारण से ही प्रेमचंद ने उर्दू में लिखना बंद कर दिया। लेकिन ये सत्य नहीं बल्कि अर्धसत्य है। इस बात की चर्चा कम होती है कि प्रेमचंद ने जब ‘कर्बला’ नाम का नाटक लिखा था तो उसका उस दौर के मुस्लिम लेखकों ने जमकर विरोध किया था। ये तर्क दिया गया था कि हिंदू लेखक मुसलमानों के इतिहास को आधार बनाकर कैसे लिख सकते हैं। प्रेमचंद इस तरह की बातों के आधार पर अपनी आलोचना से बेहद खिन्न हुए थे। इस बात की चर्चा हिंदी के प्रगतिशील लेखकों ने बिल्कुल ही नहीं की है बल्कि उनके जीवनीकार ने भी इसका उल्लेख नहीं किया। कमलकिशोर गोयनका जैसे प्रेमचंद साहित्य के अध्येता इस बात को रेखांकित करते रहे हैं। 

अब देखते हैं कि प्रेमचंद ने स्वयं उर्दू में नहीं लिखने का क्या कारण बताया है। 1964 में साहित्य अकादमी से एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी जिसका नाम है प्रेमचंद रचना संचयन। इस पुस्तक का संपादन निर्मल वर्मा और कमलकिशोर गोयनका ने किया था। इस पुस्तक में 1 सितंबर 1915 का प्रेमचंद का अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को लिखे एक पत्र का अंश प्रकाशित है। इस पत्र में प्रेमचंद ने लिखा है, ‘अब हिंदी लिखने की मश्क (अभ्यास) भी कर रहा हूं। उर्दू में अब गुजर नहीं। यह मालूम होता है कि बालमुकुंद गुप्त मरहूम की तरह मैं भी हिंदी लिखने में जिंदगी सर्फ (खर्च) कर दूंगा। उर्दू नवीसी में किस हिंदू को फैज (लाभ) हुआ है, जो मुझे हो जाएगा।‘  इस वाक्यांश को ध्यान से समझने की आवश्यकता है, उर्दू में अब गुजर नहीं है और उर्दू नवीसी में किस हिंदू को लाभ हुआ है। इससे प्रेमचंद के आहत मन का पता चलता है कि वो उर्दू वालों या अपने समकालीन मुसलमान लेखकों के विरोध से कितने खिन्न थे। वो स्पष्ट रूप से प्रश्न की शक्ल में कह रहे थे कि उर्दू में लिखने से किसी हिंदू को लाभ नहीं हो सकता । प्रेमचंद के इस आहत मन को प्रगतिशील आलोचकों और लेखकों ने या तो समझा नहीं या समझबूझ कर योजनाबद्ध तरीके से दबा दिया। इस बात की संभावना अधिक है कि जानबूझकर इस प्रसंग को नजरअंदाज किया गया। प्रेमचंद को प्रगतिशील जो साबित करना था। जानबूझकर इस वजह से क्योंकि प्रेमचंद से संबंधित कई तथ्यों को ओझल किया गया। नई पीढ़ी को ये जानना चाहिए कि 1920 में प्रकाशित कृति ‘वरदान’ को प्रेमचंद ने राजा हरिश्चंद्र को समर्पित किया था। उसको बाद के संस्करणों में हटा दिया गया। इसी तरह प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ का नाम ही बदल दिया गया। पंडित जनार्दन झा ‘द्विज’ ने अपनी ‘पुस्तक प्रेमचंद की उपन्यास कला’ में स्पष्ट किया है कि प्रेमचंद ने पहले अपने उपन्यास का नाम गौ-दान रखा था। द्विज जी के कहने पर उसका नाम गो-दान किया गया। गो-दान 1936 में सरस्वती प्रेस, बनारस और हिंदी ग्रंथ-रत्नाकर कार्यालय, बंबई (अब मुंबई) से प्रकाशित हुआ। लेकिन आज जो उपन्यास उपलब्ध हैं उसका नाम गोदान है। गो और दान के बीच के चिन्ह को हटाकर इसको मिला दिया गया। प्रेमचंद की रचनाओं में भी बदलाव किए गए जिसके प्रमाण उपलब्ध हैं। 

प्रेमचंद के उपरोक्त कथन कि उर्दू में लिखने से किसी हिंदू को लाभ नहीं हो सकता, में उपेक्षा का दर्द है और वो दर्द कालांतर में हिंदी-उर्दू संबंध में भी दिखता है। प्रगतिशीलों ने उर्दू में हिंदू लेखकों की उपेक्षा को अपने लेखन में प्रमुखता नहीं दी और उर्दू के पक्ष में खड़े होकर गंगा-जमुनी तहजीब के विचार को प्रमुखता देते रहे। यह अनायास नहीं है कि उर्दू लेखकों को जितना मान-सम्मान और स्थान हिंदी साहित्य में मिला उस अनुपात में हिंदी लेखकों को उर्दू में नहीं मिल पाया। उर्दू के तमाम शायर इकबाल से लेकर फैज तक देशभर में तब लोकप्रिय हो पाए जब उनके दीवान देवनागरी लिपि में छपकर आए। उर्दू वालों ने ये सह्रदयता हिंदी के लेखकों को लेकर नहीं दिखाई। निराला, दिनकर, पंत आदि की रचनाओं का उर्दू में अपेक्षाकृत कम अनुवाद हुआ। अंग्रेजों के साथ मिलकर उर्दू ने करीब सौ सालों तक हिंदी को दबाने का काम किया। उन्नसवीं सदी के आखिरी वर्षों में जब हिंदी अपने अधिकार की लड़ाई लड़ रही थी तो सर सैयद अहमद ने अलीगढ़ में ‘उर्दू डिफेंस एसोसिएशन’ नाम की संस्था बनाई। इसी तरह जब 1900 में संयुक्त प्रांत के गवर्नर मैकडानल ने हिंदी को उर्दू के बराबर दर्जा देने की घोषणा की तो सर सैयद के उत्तराधिकारी मोहसिन उल मुल्क ने इसका विरोध किया था। ये बातें नामवर सिंह भी स्वीकार करते थे। लेकिन नामवर के इस स्वीकार का भी प्रचार प्रसार नहीं हो पाया और उसको दबा दिया गया। कहना न होगा कि प्रगतिशील विचार के झंडाबरदार हर उस विचार को दबा देते थे जिससे उर्दू और उर्दू वालों की छवि हिंदी और हिंदीवालों के विरोध की बनती थी। 

स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में या अमृतकाल में प्रेमचंद के साथ हुए इन छल के दोषियों को चिन्हित करना चाहिए। चिन्हित करने के साथ-साथ प्रेमचंद की रचनाओं को मूल स्वरूप में लाकर उनका समग्रता में मूल्यांकन भी होना चाहिए। साहित्य अकादमी  लेकर प्रेमचंद के नाम पर बनी संस्थाएं और विष्वविद्यालयों के हिंदी विभागों का ये उत्तरदायित्व है कि वो अपने पूर्वज लेखक की रचनाओं के साथ हुए इस अनाचार को दूर करने की दिशा में ठोस और सकारात्मक पहल करें। एक लेखक जिसका मन हिंदू धर्म में पगा है, जो अपनी रचनाओँ में भारत और भारतीयता की बात करता है, जो बच्चों के लिए रामचर्चा जैसी कथा पुस्तक लिखता है, जो स्वामी विवेकानंद को उद्धृत करता है उसको मूल रूप में पुनर्स्थापित किया जाए। प्रेमचंद को मार्क्सवाद की जकड़न से आजाद करवाने के लिए सांस्थानिक प्रयत्व किए जाने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन के लिए बनाए जानेवाले पाठ्यक्रमों में प्रेमचंद के वास्तविक स्वरूप को छात्रों को पढ़ाया जा सके, इसकी व्यवस्था की जानी चाहिए।   

3 comments:

  1. विचारोत्तेजक. सचमुच नए आलोक में सत्य स्थापित होना चाहिए.

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  2. कोहरे में छिपे सच को उजाला दिखाने के लिए बधाई ।

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  3. आपको इतना कुछ लिखने के लिए समय कब मिल जाता है बंधु😀? प्रेमचंद जी से संबंधित अनमोल जानकारी देने के लिए आपका बहुत धन्यवाद।🙏🙏

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