Saturday, June 1, 2024

फिल्मों पर प्रधानमंत्री की मन की बात


लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव लोकसभा चुनाव के लिए मतदान संपन्न हो चुका है। सबकी निगाहें चार जून को होनेवाली मतगणना पर टिकी है। चुनावी शोरगुल के बीच कुछ ऐसी बातें अलक्षित रह गईं जिनको रेखांकित करना आवश्यक है। समाचार एजेंसी आईएएनएस के साथ अपने साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फिल्म इंडस्ट्री को लेकर ऐसी बात कही जिसका गहरा और दूरगामी असर हो सकता है। भारतीय स्टार्टअप्स और अन्य क्षेत्रों के बारे में बात करते हुए प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के मुताबिक जब 2014 में वो देश के प्रधानमंत्री निर्वचित हुए, तब उन्होंने हर क्षेत्र के लोगों के साथ बैठकें कीं। उन्होंने कहा कि ‘मैं 2014 में आया और 2015-16 के भीतर-भीतर मैंने जो स्टार्टअप की दुनिया शुरु हुई थी उनकी मैंने एक वर्कशाप ली। कभी मैंने स्पोर्ट्सपर्सन्स की ली, कभी कोचेज के साथ बैठा, इतना ही नहीं मैंने फिल्म दुनिया वालों के साथ ऐसी ही एक मीटिंग की। मैं जानता हूं कि वो बिरादरी हमारे विचारों से काफी दूर है, मेरी सरकार से भी दूर है। लेकिन मेरा काम था कि उनकी समस्याओं को समझूं क्योंकि बालीवुड अगर मुझे ग्लोबल मार्केट में उपयोगी होता है, अगर मेरी तेलुगू फिल्में दुनिया में पापुलर हो सकती हैं, मेरी तमिल फिल्में पूरी दुनिया में पापुलर हो सकती हैं तो मुझे तो ग्लोबल मार्केट लेना है। मेरे देश की हर चीज को आगे बढ़ाना है।‘ राजनीतिक बातों के बीच प्रधानमंत्री का ये बयान काफी गंभीर है। ऐसा जानते हुए कि फिल्म वालों की बिरादरी उनके विचारों से दूर है उन्होंने उसके वैश्विक बाजार के लिए प्रयत्न किया। ये प्रयत्न उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में ही किया। 

आपको याद दिलाता चलूं कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में ही पुरस्कार वापसी का अभियान चला था। जिसमें असहिष्णुता का बहाना बनाकर साहित्यकारों और लेखकों के साथ कई फिल्मकारों ने अपने पुरस्कार लौटाने की घोषणा करके सरकार के खिलाफ अपना विरोध जताया था। इतना ही नहीं एक तरफ प्रधानमंत्री फिल्म उद्योग की बेहतरी के लिए कार्य करने की ओर बढ़ रहे थे तो दूसरी ओर कुछ फिल्मकार गोवा में आयोजित होनेवाले अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल को विवादित करने में लगे थे। फिल्म एस दुर्गा और न्यूड को इंडियन पैनोरमा से बाहर करने के खिलाफ जूरी के अध्यक्ष सुजय घोष ने इस्तीफा दे दिया था। कुछ फिल्मकारों और फिल्म से जुड़े लोगों ने राष्ट्रीय पुरस्कार वितरण समारोह का बहिष्कार करके सरकार को कठघरे में खड़ा करने का प्रयत्न किया था। इसके अलावा कुछ फिल्म निर्देशक निरंतर इंटरनेट मीडिया पर सरकार और प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह के खिलाफ टिप्पणियां करते रहते हैं। लोकतंत्र में ऐसा करने का उनको अधिकार है लेकिन जब टिप्पणियां व्यक्तिगत हो जाती हैं तो उनकी मंशा पर संदेह होता है। इतना ही नहीं वो अपनी फिल्मों के माध्यम से राजनीतिक एजेंडा चलाने का प्रयत्न करते हैं। फिल्मों के दृश्य, उसके संवाद और उसकी कहानी को ऐसे मोड़ दे दिया जाता है जिससे मोदी, उनकी सरकार या उनकी विचारधारा पर कटाक्ष किया जा सके। इस संबंध में फिल्म मुक्काबाज के एक संवाद का उदाहरण देना काफी होगा। इस फिल्म में बगैर किसी संदर्भ के एक संवाद है, वो आएंगे, पीट-पीट कर तुम्हारी हत्या कर देंगे और भारत माता की जय के नारे लगाकर चले जाएंगे। फिल्मकार क्या संकेत करना चाह रहे थे ये स्पष्ट है। मनोरंजन जगत में कथित प्रगतिशीलता इतनी हावी है कि वहां भारतीयता और हिंदूत्व की बात करनेवालों को फिल्म समाज से अलग करने की प्रवृत्ति काम करती है। विवेक अग्निहोत्री, सुदीप्तो सेन और विपुल शाह इसके उदाहरण हैं। इन तीनों का साहस और पुरुषार्थ है कि बालीलुड की लीक से अलग हटकर फिल्म बनाकर, तमाम तरह के अघोषित बहिष्कार को झेलते हुए भी अपनी राह पर डटे हुए हैं। 

प्रधानमंत्री अगर ये कहते हैं कि फिल्म बिरादरी उनके विचारों से दूर है तो ये फिल्मों से लेकर ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म पर दिखाई जानेवाली सामग्री में परिलक्षित होता है। कई सारी डाक्यूमेंट्री ऐसी बनाई जाती है जिसमें सरकार और उनकी नीतियों की आलोचना होती है। सरकार और उनकी नीतियों की आलोचना हो लेकिन जब किसी विशेष एजेंडा के आधार पर नीतियों की आलोचना होती है तो फिल्मकार राजनीति का हिस्सा बन जाता है। फिल्मों का तो लंबा इतिहास रहा है जहां हिंदू धर्म प्रतीकों को गलत परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया जाता रहा है। हिंदू धर्म के देवी देवताओं के नाम पर खलनायकों और खलनायिकाओं के नाम रखे गए। नायक को ईश्वर के सामने खड़े होकर भड़ास निकालते हुए दिखाया गया। जबकि अन्य धर्मों को बहुत इज्जत बख्शी गई। अब एक नया चलन आरंभ हुआ है। यह चलन है डाक्यूमेंट्री के सहारे राजनीति चमकाने की। एक उदाहरण आप सबके सामने रखता हूं। आपको समझ आ जाएगा कि किस तरह से मनोरंजन के माध्यम को राजनीतिक एजेंडा के लिए उपयोग में लाया जाता है। एक डाक्यूमेंट्री है आल दैट ब्रीद्स। जब इसको कान फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कृत किया गया तो इलकी काफी चर्चा हुई। प्रचारित किया गया कि इसमें घायल पक्षियों की देखभाल करनेवाले दिल्ली के दो भाइयों के संघर्ष की कहानी है। वो भी है पर उसके अलावा इस डाक्यूमेंट्री में सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (सीएए) और नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजन्स (एनआरसी) पर भी सियासी टिप्पणियां है। फारेन कंट्रीव्यूशन रेगुलेशन एक्ट (एफसीआरए) के बारे में तथ्यहीन बातें हैं। डाक्यूमेंट्री में दिल्ली दंगों की कहानी के समय पृष्ठभूमि से लेके रहेंगे आजादी जैसे नारे भी लगते रहते हैं। इतना ही नहीं एक पत्रकार की आवाज भी गूंजती है जिसमें वो बताता है सीएए के पास होने पर पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान के मुसलमानों को वहां प्रताड़ित होने की दशा में भारत में नागरिकता नहीं मिलेगी जबकि अन्य धर्म के लोगों को मिलेगी। दरअसल ये ऐसी बातें हैं जिसका पक्षियों की देखभाल से कोई लेना देना नहीं है। परोक्ष रूप से मुसलमानों की कथित प्रताड़ना को रेखांकित किया करना ही उद्देश्य है। 

मनोरंजन के अपेक्षाकृत नए माध्यम ओटीटी के बारे में तो कहना ही क्या। वहां तो किसी प्रकार की कोई रोक टोक नहीं है। स्वनियम की व्यवस्था अवश्य है लेकिन बावजूद इसके जिस तरह की सामग्री दिखा दी जाती है उससे तो यही प्रतीत होता है कि व्यवस्था में झोल है। याद करिए जब अयोध्या के राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह होनेवाला था तो उसके पहले एक तमिल फिल्म अन्नपूर्णी का प्रदर्शन हुआ था। इसके संवाद में प्रभु श्रीराम को मांसाहारी बताया गया । एक दृश्य में शेफ बनने की चाहत रखनेवाली ब्राह्मण लड़की को बिरयानी बनाने के पहले नमाज पढ़ते हुए दिखाया गया था। विरोध के बाद नेटफ्लिक्स पर इसका प्रदर्शन रोका गया था। अब इस बारे में फिल्म जगत के लोगों को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि देश का प्रधानमंत्री फिल्मों के लिए वैश्विक बाजार की संभावनाओं पर बात कर रहे हैं, वो भारतीय भाषाओं की फिल्मों को दुनियाभर में लोकप्रिय बनाने की चिंता कर रहे हैं वहीं अधिकतर फिल्मकार, कथाकार, संवाद लेखक फिल्मों के माध्यम से अपनी राजनीति चमकाने की चेष्टा कर रहे हैं। सुधीर मिश्रा जैसे फिल्मकार तो दर्शकों को भी विचारधारा के आधार पर बांटने की बात कर चुके हैं। फिल्मकारों को खुले मन से सरकार के साथ मिलकर भारतीय फिल्मों को वैश्विक बनाने का प्रयास करना चाहिए। 


No comments:

Post a Comment