Tuesday, June 11, 2024

उत्कृष्टता के आग्रही निर्देशक


करीम आसिफ। उत्तर प्रदेश के इटावा में पैदा हुए। अपने मामू नसीर अहमद खान के साथ सत्रह बरस की उम्र में बांबे (अब मुंबई) पहुंचे। नसीर खान अपने समय के जाने माने फिल्म निर्माता निर्देशक थे। कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया था। करीम आसिफ अपने मामू के साथ बांबे पहुंचते हैं तो वहां कुछ समय के लिए एक फिल्म कंपनी में सिलाई का काम करते हैं। इसी दौर में वो करीम आसिफ से के आसिफ हो जाते हैं। इन्होंने अपने जीवन में दो ही फिल्में निर्देशित कीं, फूल और मुगल ए आजम। फिल्म फूल सफल रही। दूसरी ने तो इतिहास ही रच दिया। बहुधा इस बात की चर्चा होती है कि के आसिफ ने मुगल ए आजम के निर्माण में दस वर्ष लगा दिए। फिल्म पर होनेवाले खर्च को लेकर निर्माता और निर्देशक के बीच मतभेद के कारण काम रुक जाता था। फिल्म की भव्यता को लेकर के आसिफ छोटे से छोटा समझौता भी नहीं करना चाहते थे। ये कम ज्ञात है कि के आसिफ ने पहले भी मुगल ए आजम के नाम से फिल्म बनाने का असफल प्रयास किया था। पहली बार के आसिफ ने सिराज अली हकीम को अपनी फिल्म में पैसा लगाने के लिए राजी किया था। हकीम बांबे के बेहद धनवान व्यक्ति थे। 1946 में ही के आसिफ की फिल्म मुगल ए आजम फ्लोर पर चली गई थी। यह जानना दिलचस्प है कि मुगल ए आजम में अनारकली की भूमिका के लिए मधुबाला निर्देशक के आसिफ की पहली पसंद नहीं थीं। ना ही बादशाह अकबर के लिए पृथ्वीराज कपूर और शहजादा सलीम के लिए दिलीप कुमार। अगर के आसिफ की मूल परिकल्पना साकार होती तो अकबर की भूमिका चंदरमोहन निभाते और सलीम की सप्रू। अनाकरली के रूप में आज हम नर्गिस को देख रहे होते। नियति को कुछ और ही मंजूर था। फिल्म एक चौथाई शूट हो चुकी थी। अचानक चंदरमोहन का निधन हो गया। सबकुछ रुक गया। देश का विभाजन हो चुका था। विभाजन का असर भी फिल्म निर्माण पर पड़ा। फिल्म के फाइनेंसर सिराज अली हाकिम पाकिस्तान जाने की तैयारी करने लगे। एक दिन के आसिफ को सूचना मिली कि हाकिम साहब हिन्दुस्तान छोड़कर जा रहे हैं और वो फिल्म में निवेश नहीं कर पाएंगे। फिल्म रुक गई। कोई भी निवेशक फिल्म में के आसिफ के खर्चे उठाने को तैयार नहीं हो रहा था। उन्होंने काफी कोशिश की। सफलता नहीं मिल पाई। 

दो वर्ष बाद उनको बांबे के बड़े बिल्डर पिता-पुत्र शोपोरजी-पालनजी मिस्त्री का साथ मिला। फिल्म नए सिरे बनाने की योजना बनी। दुर्गा खोटे को छोड़कर पूरी स्टार कास्ट बदल दी गई। उसके बाद की कहानी इतिहास में दर्ज है। के आसिफ ने जिस उत्कृष्टता से फिल्म का निर्माण किया वो अप्रतिम है। फिल्म मुगल ए आजम का गीत याद करिए मोहे पनघट पर नंदलाल...। ये गाना जब आरंभ होता है तो बाल- कृष्ण का स्वरूप में झूले दिखता है। इस दृष्य को शूट करने की बारी आई तो के आसिफ ने कहा कि कृष्ण जी की सोने की मूर्ति बनवाई जाए। शोपोर जी तैयार नहीं थे। वो इस बात पर अड़े हुए थे कि मूर्ति किसी भी धातु की बनवाकर सुनहला रंग चढ़ा दिया जाए। के आसिफ का तर्क था कि बादशाह के दरबार में तो सोने की ही मूर्ति होनी चाहिए। उनका कहना था कि ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म में सोने की बनी मूर्ति का रंग और सुनहले रंग चढ़ा कर बनाई गई मूर्ति का रंग अलग दिखेगा। आखिरकार के आसिफ की ही चली। निर्देशक और निवेशक की तनातनी में फिल्म की शूटिंग कई दिन रुक गई। गाने में भगवान कृष्ण का सीन चंद फ्रेम का है लेकिन आसिफ माने नहीं। एक और दृष्य याद करिए। जब 14 वर्षों के बाद युद्ध कला में निपुण होकर शहजादा सलीम वापस महल में आनेवाले होते हैं तो जोधाबाई कहती है कि उनके बेटे का स्वागत मोतियों बरसा कर की जाए। मामला फिर फंस गया। आसिफ चाहते थे कि शहजादा जब दरबार में आएं तो उनका स्वागत असली मोतियों से हो। शोपोर जी कहने लगे कि दो चार सेकेंड के दृश्य के लिए इतने सारे असली मोती पर खर्च करना मूर्खता है। आसिफ डटे रहे। उनका तर्क था कि असली मोती की चमक नकली मोती में नहीं दिखेगी। नकली मोती पकड़ में आ जाएगी। असली मोती जब फर्श पर गिरेंगी तो उसकी आवाज नकली मोतियों के गिरने की आवाज से अलग होगी। बात इतवनी बढ़ गई कि के आसिफ ने फिल्म की शूटिंग रोक दी। महीने भर बाद शोपोर जी किसी तरह से तैयार हुए। असली मोती मंगवाए गए और शूट आरंभ हो सका। उत्कृष्टता के आग्रही के आसिफ और मुगल ए आजम से जुड़े इतने प्रामाणिक किस्से मौजूद हैं कि उनपर ही एक रोचक फिल्म बन सकती है। पर ये साहस कोई के आसिफ जैसा निर्देशक और शोपोर जी जैसा निवेशक ही कर सकता है। 


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