कुछ समय पूर्व सरस्वती पत्रिका के अंक देखने और उसकी सामग्री के बारे में जानने की आकांक्षा के साथ प्रयागराज पहुंचा था। पता चला था कि सरस्वती पत्रिका के संपादक रहे देवीदत्त शुक्ल के पौत्र व्रतशील शर्मा के पास सरस्वती के पुराने अंक हैं। प्रयागराज में उनके अलोपीबाग स्थित घर पहुंचा। सरस्वती के कई अंक देखे, उसमें प्रकाशित सामग्री पर व्रतशील जी से चर्चा हुई। सरस्वती पर हो रही चर्चा में महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी के अन्य आधार स्तंभों की चर्चा हुई। चर्चा में पंडित बालकृष्ण भट्ट जी का नाम आया। ये तो याद नहीं कि क्यों कैसे ये तय हुआ कि पंडित बालकृष्ण भट्ट के घर चला जाए। लेकिन हमलोग अलोपीबाग से मालवीय नगर की गलियों से होते हुए पंडित बालकृष्ण भट्ट जी के घर पहुंचे थे। घर की हालत बहुत अच्छी नहीं थी। भट्ट जी के परिवार ने सत्कार किया। हमलोगों ने वो काठ की छोटी चौकोर चौकी भी देखी जिसपर बैठकर भट्ट जी प्रदीप का संपादन किया करते थे। पता चला कि वो घंटों इस चौकी पर बैठकर कालेखन-संपादन किया करते रहते थे। घर के छोटे से कक्ष में कई तस्वीरें लगी थीं। एक चित्र उनके हस्तलेख का भी था। उनके घर के पास ही मदन मोहन मालवीय भी रहा करते थे। उनके नाम पर उस मुहल्ले का नाम मालवीय नगर रखा गया है। संभवत: इस इलाके को पहले अतरसुइंया कहा जाता था। उनके परिवारीजनों से बातचीत करके ये आभास हुआ कि किस तरह से बालकृष्ण भट्ट जी ने अपना जीवन हिंदी के विकास और सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में होम कर दिया था।
पंडित बालकृष्ण भट्ट का हिंदी और हिंदी पत्रकारिता के विकास में बड़ा योगदान है। कई लोग उनके हिंदी के पहले आलोचकों में गिनते हैं। लाला श्रीनिवासदास के नाटक संयोगिता स्वयंवर की उन्होंने विस्तार से आलोचनात्मक लेख लिखा था। सितंबर 1877 में बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी प्रदीप निकालना आरंभ किया। इस पत्र को निकालने में उनको काफी कठिनाई का समाना करना पड़ा पर उन्होंने तमाम आर्थिक कठिनाइयों को झेलते हुए अकेले ही इस कार्य को अंजाम दिया। भट्ट जी ने तीन दशकों से अधिक समय तक इसका प्रकाशन और संपादन किया। एक तरफ काशी से भारतेन्दु कवि वचन सुधा से हिंदी पत्रकारिता को संवार रहे थे तो दूसरी तरफ बालकृष्ण भट्ट हिंदी प्रदीप के माध्यम से हिंदी पत्रकारिता की नई राह बना रहे थे। इन दोनों के प्रयास से हिंदी पत्रकारिता का विकास हुआ। बालकृष्ण भट्ट के संपादन में निकलने वाले पत्र में अधिकतर साहित्यिक सामग्री होती थी। इसके अलावा लेखों और कविताओं के माध्यम से अंग्रेज सरकार के विरोध में जनजागरण का कार्य भी होता था। पंडित बालकृष्ण भट्ट ने जब हिंदी प्रदीप के प्रकाशन का निर्णय लिया तो भारतेन्दु से उनकी बातचीत हुई। कई जगह इस बात का उल्लेख मिलता है कि प्रदीप के पहले अंक को जारी करने के लिए भारतेन्दु प्रयागराज आए थे।
पंडित बालकृष्ण भट्ट ने ना केवल हिंदी पत्रकारिता बल्कि हिंदी भाषा को भी समृद्ध किया। उनका कार्य इतना बड़ा है लेकिन अफसोस कि हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने भट्ट जी पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। हलांकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उनका उल्लेख करते हुए लिखा- पं. बालकृष्ण भट्ट की भाषा अधिकतर वैसी ही होती थी जैसी खरी खरी सुनाने में काम में लाई जाती है। जिन लेखों में उनकी चिड़चिड़ाहट झलकती है वे विशेष मनोरंजक हैं। नूतन पुरातन का वह संघर्षकाल था इसमें भट्टजी को चिढ़ाने की पर्याप्त सामग्री मिल जाया करती थी। समय के प्रतिकूल पुराने बद्ध मूल विचारों को उखाड़ने और परिस्थिति के अनुकूल नए विचारों को जमाने में उनकी लेखनी सदा तत्पर रहती थी। रामचंद्र शुक्ल ने आगे लिखा कि बालकृष्ण भट्ट का जन्म प्रयाग में संवत् 1901 में और परलोकवास संवत् 1971 में हुआ। ये प्रयाग के 'कायस्थ पाठशाला' कॉलेज में संस्कृत के अध्यापक थे। उन्होंने संवत् 1933 में अपना 'हिन्दी प्रदीप' गद्य साहित्य का ढर्रा निकालने के लिए ही निकाला था। सामाजिक, साहित्यिक, राजनीतिक, नैतिक सब प्रकार के छोटे छोटे गद्य प्रबंध ये अपने पत्र में तीस वर्ष तक निकालते रहे। उनके लिखने का ढंग पं. प्रतापनारायण के ढंग से मिलता-जुलता है। उनकी भाषा में पूरबी प्रयोग बराबर मिलते हैं 'समझा बुझाकर' के स्थान पर 'समझाय बुझाय' वे प्राय: लिख जाते थे। उनके लिखने के ढंग से यह जान पड़ता है कि वे अंग्रेजी पढ़े लिखे नवशिक्षित लोगों को हिन्दी की ओर आकर्षित करने के लिए लिख रहे हैं। उनकी भाषा में हास्य का पुट भी होता था। लगता है जैसे वो लेखन से आनंद लेते हों। एक किस्सा बहुत ही प्रचलित है कि एक बार भट्ट जी अपने परिचित के घर गए। वहां एक किशोर आंख पर हाथ रखे था। उन्होंने जानना चाहा कि वो आंख पर हाथ क्यों धरे है। पता लगा कि उसकी आंख आई है। भट्ट जी ने विनोदपूर्वक कहा था यह आंख बड़ी बला है, इसका आना, जाना, उठना, बैठना सब बुरा है।
पंडित बालकृष्ण भट्ट बाल गंगाधर तिलक के विचारों से बहुत प्रभावित थे। हिंदी साहित्य और भाषा को समृद्ध करने के अलावा भट्ट ने पराधीन भारत में समाज में व्याप्त कुरीतियों पर भी प्रहार किया था। विधवा विवाह के वो प्रबल समर्थक थे और छूआछूत और जाति व्यवस्था के विरोधी। अपनी लेखनी के माध्यम से समाजिक विसंगतियों को ना केवल उजागर करते थे बल्कि उसका निदान भी सुझाते थे। बालकृष्ण भट्ट जी प्रदीप के संपादन और उसके अन्य कार्यों से समय निकालकर अपने घर के बाहर ही बालिकाओं को पढ़ाया करते थे। उनका मानना था कि सबल राष्ट्र के लिए स्त्रियों का शिक्षित होना बहुत आवश्यक है। आज प्रयागराज में जो गौरी महाविद्यालय है उसकी स्थापना के तार भट्ट जी की बालिका शिक्षा के प्रयासों से जुड़े बताए जाते हैं। ऐसे तपस्वी और मनीषी पत्रकार और साहित्यकार बालकृष्ण भट्ट के बारे में नई पीढ़ी को बताने का उपक्रम राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए था। अफसोस कि कहीं भी बड़े स्तर पर भट्ट जी की स्मृति को संजोने का कार्य नहीं हो सका है।
बहुत सुंदर लेख। यह गंभीर एवं चिंतनीय है कि अभी तक बड़े स्तर पर भट्ट जी की स्मृति को संजोने का कार्य नहीं हो सका है।
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