Saturday, May 17, 2025

काल की चौहद्दी तोड़ती कविताएं


पहलगाम  में आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया तो देश के माहौल में अलग ही स्तर की राष्ट्रभक्ति दिखाई दे रही थी। हर भारतीय अपनी इस राष्ट्रभक्ति को भिन्न भिन्न तरीके से प्रकट कर रहा था। आतंकी हमले के बाद और इसके पहले भी कई महत्वपूर्ण अवसरों पर राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्तियों से लोग और संस्थाएं अपनी भावनाओं को प्रकट करती रहीं। आपरेशन सिंदूर के बाद जब भारतीय सेना पूरे घटनाक्रम की जानकारी देने आई तो दिनकर की प्रसिद्ध कविता की पंक्तियों से आरंभ किया। वे पंक्तियां कुछ इस तरह से हैं –हित वचन नहीं तूने माना/मैत्री का मूल्य न पहचाना/तो ले, मैं भी अब जाता हूं/अंतिम संकल्प सुनाता हूं/याचना नहीं, अब रण होगा/जीवन जय या कि मरण होगा। दिनकर की ये पंक्तियां रश्मिरथी के तृतीय सर्ग में है। इस कविता के माध्यम से भारत ने पाकिस्तान को संदेश देते हुए अपना अंतिम संकल्प सुना दिया। इसके पहले जब पहलगाम आतंकी हमला हुआ था। जनता आतंकवादियों से प्रतिशोध की अपेक्षा कर रही थी, तब भी दिनकर की पंक्तियां सुनाई दे रही थीं। रे रोक युधिष्ठिर को न यहां/ जाने दे उसको स्वर्ग धीर/ पर फिरा हमें गांडीव गदा/ लौटा दे अर्जुन भीम वीर। कह दे शंकर से आज, करें वो प्रलय नृत्य फिर एक बार/सारे भारत में गूंज उठे, हर हर बम का फिर महोच्चार। दिनकर की इस कविता का शीर्षक हिमालय है। जनता के मन में आतंकवादी हमला का बदला लेने की आकांक्षा प्रबल होने लगी तो वे इन पंक्तियों के माध्यम से अपनी भावनाओं का प्रकटीकरण कर रहे थे। आशय ये था कि बहुत हुई बातचीत, बहुत हुई समाझाने बुझाने की प्रक्रिया। अब समय है सबक सिखाने का । सबक सिखाने के लिए धर्मराज युधिष्ठिर की आवश्यकता नहीं है उसके लिए बलशाली अर्जुन और भीम की जरूरत है।

दिनकर की ये कविता हिमालय, भारत चीन युद्ध के दौरान भी खूब गाई गई थी। उस समय जवाहरलाल नेहरू की छवि शांति चाहनेवाले नेता के रूप में थी। जब चीन, भारतीय सेना पर भारी पड़ने लगा था तब दिनकर की इस कविता से नेहरू को ललकारा गया था। इसी तरह से दिनकर के प्रबंध काव्य रश्मिरथी के तीसरे सर्ग की ही कुछ और पंक्तियां बहुधा सुनाई देती हैं। वे पंक्तियां हैं, जब नाश मनुज पर छाता है तो पहले विवेक मर जाता है। दिनकर हिंदी कविता के ऐसे कवि हैं जो देश काल और परिस्थिति से ऊपर उठ चुके हैं। सही मायनों में अगर देखा जाए तो तुलसीदास के बाद दिनकर ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं लोक में काफी पसंद की जाती हैं। कई लोगों को कंठस्थ भी हैं। चाहे वो उर्वशी के सर्ग हों या कुरुक्षेत्र या रश्मिरथी के। सिर्फ युद्ध ही नहीं, इमरजेंसी के दौरान भी दिनकर की कविताएं गाई जा रही थीं। पूरा देश इंदिरा गांधी के विरुद्ध खड़ा था। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन जोर पकड़ रहा था। कहा तो यहां तक जाता है कि दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण ने दिनकर की कविता का पाठ किया था। इसकी कविता की अंतिम पंक्तियां हैं, फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं /धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है/दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो /सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। समय का घर्घर-नाद है उसके माद्यम से इंदिरा गांधी को जयप्रकाश नारायण संदेश दे रहे थे। क्या जनता पार्ची का चुनाव चिन्ह हलधर किसान भी इस कविता से ही प्रेरित है? दिनकर की यही पंक्तियां 2011 में दिल्ली में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान भी सुनने को मिली थीं। दिनकर ने ये कविता देश में इमरजेंसी लगाए जाने के दशकों पहले लिखी थी। इतने वर्षों बाद भी लोगों के मानस पर अंकित थीं। इसी तरह से रश्मिरथी का रचनाकाल भी 1952 का है, लेकिन जब सेना को 2025 में पाकिस्तान को संदेश देना था तो उसने दिनकर की कविता चुनी।

इतना ही नहीं आप न्यूज चैनलों पर चलनेवाले डिबेट्स में या विचार गोष्ठियों में एक पंक्ति अवश्य सुनते होंगे। कई बार नेता अपनी चुनावी रैलियों में भी इस पंक्ति का उपयोग करते हुए दिखाई देते हैं। वो पंक्ति है, समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध। अब दिनकर की कविता के साथ एक खूबसूरत बात ये है कि अलग अलग पक्षों के लोग उनकी पंक्तियों का उपयोग अपने तर्कों को बल प्रदान करने के लिए करते हैं। अगर विपक्षी दलों को प्रधानमंत्री मोदी के समर्थकों को घेरना होता है तो वो इस पंक्ति का उपयोग करते हैं। मोदी के कुछ समर्थक जिनका दिनकर की इस कविता से परिचय है वो विपक्षी दलों को इसी कविता की अन्य पंक्ति से घेर लेते हैं। वो पंक्ति है, समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल। इस तरह से देखें तो दिनकर की एक ही कविता पक्ष और विपक्ष दोनों उद्धृत करते हैं। इतना ही नहीं जब देश में जाति गणना की बात हुई तो समाचार चैनलों पर बहस चलने लगी थी। अलग अलग पक्ष के लोग अलग अलग दलीलें दे रहे थे। जाति गणना में भी दिनकर की कविता की पंक्ति सामने आ रही थी। रश्मिरथी के प्रथम सर्ग में जब कर्ण से कहा जाता है कि वो अगर अर्जुन से लड़ना चाहता है तो उसको अपनी जाति बतानी होगी। तब कर्ण व्यथित होता है। झुब्ध भी। कर्ण की मनोदशा को चित्रित करते हुए दिनकर रचते हैं- ‘जाति!, हाय री जाति!’ कर्ण का ह्रदय क्षोभ से डोला/कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला/जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड/मैं क्या जानूं जाति?/जाति हैं मेरे ये भुजदंड। इस कविता की पंक्ति जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड जमकर उद्धृत होती है।    

दरअसल दिनकर की कविताओं विशेषकर उनके प्रबंध काव्य या कथा काव्य पर गंभीरता से विचार करें तो ये स्पष्ट होता है कि दिनकर अतीत और वर्तमान दोनों को साथ लेकर चलते हैं। ना केवल साथ लेकर चलते हैं बल्कि परंपरा और आधुनिकता का निर्वाह भी करते हैं। कई लोग उनके इन काव्यों को युद्ध काव्य कहते हैं लेकिन अगर समग्रता में विचार करें तो दिनकर अपने इन प्रबंध काव्यों में कहीं भी युद्ध का समर्थन नहीं करते हैं। दिनकर का कवित्व इन्हीं गुणों के कारण समकालीन बना रहता है। दिनकर की सिर्फ कविताएं ही नहीं बल्कि उनके लिखे गद्या भी असाधारण रूप से काल की चौहद्दी को तोड़ते चलते हैं। इसी असाधारण गुण के कारण उनकी रचनाएं कालजयी हो गई हैं।  

Saturday, May 10, 2025

साइबर आतंकवादी भी युद्ध में सक्रिय


भरत-पाकिस्तान के बीच भले ही युद्ध विराम की सहमति बन गई हो लेकिन  एक युद्ध इंटरनेट मीडिया पर भी लड़ा गया और ऐसा लगता है कि आगे भी लड़ा जाएगा। एक्स, फेसबुक और अन्य इंटरनेट प्लेटफार्म पर तरह तरह के वीडियो की बाढ आई है। पुराने वीडियो भी नए बताकर चलाए जा रहे हैं। कई पाकिस्तानी हैंडल से फेक सूचनाओं को प्रसारित किया जा रहा है। एआई का उपयोग करके फेक वीडियो इंटरनेट मीडिया पर प्रचलित हो रहे हैं। आपरेशन सिंदूर के चौथे दिन एआई से बना एक वीडियो इंटनेट मीडिया पर खूब प्रचलित हो रहा है। इस फेक वीडियो में विदेश मंत्री डा एस जयशंकर युद्ध के लिए क्षमा मांगते दिख रहे हैं। एआई की मदद से बने इस फेक वीडियो को इंटरनेट मीडिया पर पाकिस्तानी साइबर आतंकवादी प्रचलित कर रहे हैं। इस कारण सूचनाओं के लिए इन प्लेटफार्म्स पर आ रहे वीडियो को सही मानना जोखिम भरा है। दो देशों के बीच गोला बारूद से लड़े गए युद्ध में एक युद्ध साइबर स्पेस में भी लड़ा गया और आगे भी ये जारी रह सकता है। दिन रात कई साइबर लड़ाके इस काम में लगे हुए हैं। उनका काम ही मिसइनफार्मेशन फैलाना है। ये एक ऐसा स्पेस है जहां मनोबल बढ़ाने या तोड़ने का काम होता है। पाकिस्तान से सक्रिय कई एक्स हैंडल हिंदू नाम से बनाए गए। वो प्रामाणिक तरीके से पोस्ट करते हैं जिससे ये प्रतीत हो कि वो भारत से पोस्ट हो रहे हैं। इन फेक पोस्ट को लेकर पाकिस्तान  मीडिया अपने चैनलों पर चलाने लगते हैं। शनिवार को पाकिस्तान के साइबर फिदायीनों ने इसी तरह का समाचार चलाया। इसे पहले तो राष्ट्रभक्त नाम के एक हैंडल से प्रसारित किया गया। लेकिन अब इन मूर्खों को कौन समझाए कि युद्ध के समय थोड़ी सी चूक भी किसी भी पक्ष के लिए भारी पड़ सकती है। इस हैंडल ने लिख दिया कि पाकिस्तानी नेवी के हमले में बेंगलुरू और पटना के पोर्ट तबाह हो गए। इसको लेकर पाकिस्तान के एक न्यूज चैनल ने खबर चला दी। कहने लगे कि भारतीय खुद मान रहे हैं कि पाकिस्तानी नेवी के हमले में उनके दो बंदरगाह तबाह हो गए। अब इन अक्ल के कच्चों को कौन बताए कि ना तो पटना में बंदरगाह है और ना ही बेंगलुरू में। थोड़ी बाद ये खबर पाकिस्तानी न्यूज चैनल से हटा। 

दरअसल एआई के आने और उसके टूल्स के निरंतर विकसित होने से से ये सब काम आसान हो गया है। अब किसी भी व्यक्ति की आवाज में वक्तव्य दिलवाया जा सकता है। अगर जनता शिक्षित नहीं है और उसको एआई और उसके कारनामों का ज्ञान नहीं है तो वो इनको सच मान लेती है। वक्तव्यों के अलावा भी एआई से कई ऐसे वीडियो बनाए जा रहे हैं जिसमें विमानों को नष्ट करते हुए दिखाया जा सकता है।किसी भी पुराने वीडियो को नए स्वरूप में ढालकर पेश किया जा सकता है। जब तक फैक्ट चेक होगा तब तक उसका असर हो चुका होता है। जैसे भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान पाकिस्तानी हैंडल से साइबर आतंकवादियों ने एक वीडियो पोस्ट किया जिसमें वो ये दिखा रहे हैं कि एक पायलट पैराशूट से किसी खेत में उतर रही है और उसके सामने पाकिस्तानी सैनिक खड़ा है। फिर महिला पायलट की एक जमीन पर लेटी फोटो आती है जिसमें वो मुंह ढ़के है। उसके हाथ में फोन है। इसमें टिप्पणी लिखी है कि इंडियन फीमेल पायलट अरेस्टेड। माशाअल्लाह फोन नहीं छूटा लेकिन जहाज नष्ट हो गया। इस फेक वीडियो और फोटो को इस तरह से चलाया गया कि भारतीय पायलट शिवांगी सिंह के विमान को पाकिस्तानी फाइटर प्लेन ने गिरा दिया। शिवांगी सिंह बच गई और पाकिस्तानी सेना के कब्जे में है। सचाई ये है कि ये पुरानी इमेज है। जून 2023 में कर्नाटक में एक ट्रेनर विमान गिरा था उसकी महिला पायलट की फोटो है। भारत के प्रेस इंफैर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) ने फैक्ट चेक करके बता दिया। इस युद्ध के दौरान प्रोपगैंडा को थामने में पीआईबी की फैक्ट चेकिंग यूनिट ने शानदार काम किया है। 

दूसरी समस्या भारत के कथित बुद्धिजीवियों की है। जो पता नहीं किस दबाव में या किन परिस्थितियों के चलते युद्ध के विरोध में लिखने लगते हैं। कुछ कथित नारीवादियों ने आपरेशन सिंदूर को लेकर प्रश्न उठाए। उनको इस नाम में पितृसत्तात्मकता की बू आ रही थी। ऐसे लोगों की मानसिक स्थिति का सहसा अनुमान लगाना कठिन है। इनके लिखे का नोटिस लेकर अकारण इनको चर्चित करने से भी बचा जाना चाहिए। सिंदूर की भारतीय समाज में क्या महत्ता है इसको ये नारीवादी शायद समझती नहीं हैं। भारतीय समाज, यहां की परंपरा, यहां के रीति रिवाजों को मूर्खतापूर्ण विदेशी वाक्यांशों और अधकचरे ज्ञान से समझना मुश्किल है। हां इतना अवश्य है कि उनको फेसबुक आदि पर थोड़ी चर्चा मिल जाती है। इंगेजमेंट से रीच बढ़ाने में मदद मिलती है। इस तरह की ऊलजलूल टिप्पणी भी तकनीक और उससे होनेवाले लाभ को ध्यान में रखकर की जाती है। फेसबुक के प्रोफेशनल डैशबोर्ड पर जाकर इंगेजमेंट से होनेवाले लाभ को देखा जा सकता है। जिस तरह से कुछ यूट्यूबर्स हर दिन मोदी की सरकार गिरा देते हैं, मोदी और अमित शाह के बीच झगड़ा करवा देते हैं जैसे मूर्खतापूर्ण और मनोरंजक थंबनेल लगाकर दर्शकों को खींचने का प्रयास करते हैं उसी तरह से फेसबुकिया फेमीनाजी भी इस तरह का उपक्रम करती हैं। 

भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान भारत सरकार ने कुछ यूट्यूब चैनल्स को उनकी कंटेंट के आधार पर प्रतिबंधित किया। इसके अलावा कुछेक वेबसाइट्स को भी प्रतिबंधित किया गया। ऐसे ही एक बेवसाइट को प्रतिबंधित करने की खबर पर हिंदी की बुजुर्ग साहित्यकार मृदुला गर्ग ने लिखा, लास्ट नेल इन द काफीन आफ डेमोक्रेसी। मृदुला जी की प्रतिष्ठा एक पढ़ी लिखी समझदार लेखिका के तौर पर हिंदी समाज में थी। पहलगाम में आतंकवादी हमले के बाद से उन्होंने जिस तरह की टिप्पणियां करनी आरंभ की जिससे लगा कि उनकी समझ पर उनकी उम्र हावी हो गई है। उपरोक्त टिपप्णी से तो ऐसा प्रतीत होता है कि मृदुला जी को ना तो लोकतंत्र की समझ है और ना ही युद्ध के समय सरकार के निर्णयों को लेकर उनकी समझ परिपक्व हुई है। कहीं से कुछ सुन लिया किसी ने कुछ समझा दिया और फेसबुक पर आकर टिप्पणी कर क्रांति करने लगीं। मृदुला जी जैसी कई अन्य लेखिकाएं हिंदी में हैं जो इस कारण से हर विषय में कूदती हैं ताकि उनको भी वैचारिक रूप से समृद्ध माना जाए। ऐसा करने के क्रम में वो खुद को उपहास का पात्र बना डालती हैं।  

Saturday, May 3, 2025

स्क्रीन का आकार छोटा संभावनाएं अनंत


भारत कथावाचकों का देश रहा है, इस बात की लंबे समय से चर्चा होती रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पिछले कार्यकाल में मन की बात कार्यक्रम में इस बात को रेखांकित भी किया था। मनोरंजन के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर इस बात को कहा जाता रहा है। इस स्तंभ में भी इसकी चर्चा होती रही है। मुंबई के नीता मुकेश अंबानी कल्चरल सेंटर में 1 से 4 मई तक विश्व दृश्य श्रव्य और मनोरंजन शिखर सम्मेलन- वेव्स का आयोजन हुआ। इसके शुभारंभ के अवसर भी प्रधानमंत्री ने इस बात को दोहराया कि भारत कथावाचकों की भूमि रही है। उन्होंने कहा कि भारत न केवल एक अरब से अधिक आबादी का घर है, बल्कि एक अरब से अधिक कहानियों का भी घर है। देश के समृद्ध कलात्मक इतिहास का संदर्भ  देते हुए उन्होंने याद दिलाया कि दो हज़ार साल पहले, भरत मुनि के नाट्य शास्त्र ने भावनाओं और मानवीय अनुभवों को आकार देने में कला की शक्ति पर बल दिया था। उन्होंने कहा कि सदियों पहले, कालिदास के अभिज्ञान-शाकुंतलम ने शास्त्रीय नाटक में एक नई दिशा प्रस्तुत की। प्रधानमंत्री ने भारत की गहरी सांस्कृतिक जड़ों को रेखांकित करते हुए कहा कि हर गली की एक कहानी है, हर पहाड़ का एक गीत है और हर नदी एक धुन गुनगुनाती है। उन्होंने कहा कि भारत के छह लाख गांवों में से प्रत्येक की अपनी लोक परंपराएं और अनूठी कहानी कहने की शैली है, जहां समुदाय लोकगीतों के माध्यम से अपने इतिहास को संरक्षित करते हैं। उन्होंने भारतीय संगीत के आध्यात्मिक महत्व का भी उल्लेख करते हुए कहा कि चाहे वह भजन हो, ग़ज़ल हो, शास्त्रीय रचनाएं हों या समकालीन धुनें हों, हर धुन में एक कहानी होती है और हर लय में एक आत्मा होती है। इस शिखर सम्मेलन में चार दिनों तक कई सत्रों में देश विदेश के फिल्मों, ब्राडिंग, मार्केटिंग,गेमिंग और एनिमेशन से जुड़े लोगों ने इन क्षेत्रों में वैश्विक स्तर पर उफलब्ध संभावनाओं पर चर्चा की। कई देशों के मंत्री भी इसमें शामिल हुए।

इस सम्मेलन के दौरान काफी बड़ी संख्या में लोग जुटे। इससे ये पता चलता है कि मनोरंजन जगत में लोगों की बहुत रुचि है। यहां गेमिंग और एनिमेशन से जुड़े युवाओं को प्रोत्साहित किया गया। मंच पर पुरस्कृत होनेवाले कटेंट क्रिएटर्स की औसत उम्र 25 वर्ष के आसपास लग रही थी। लगभग सभी युवा थे जिन्होंने बेहतर कटेंट क्रिएट किया। भारत को विकसित राष्ट्र बनाना है तो सिर्फ पारपंरिक तरीके से विकास के रास्ते पर चलकर इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है। इसके लिए गैर पारंपरिक क्षेत्रों से देश की आर्थिकी को मजबूती प्रदान करनेवाले और आय बढ़ाने के रास्ते खोजने होंगे। भारत में जिस तरह की कहानियों का भंडार है और उन कहानियों पर बेहतर कटेंट क्रिएट करने की प्रतिभा है उसका वैश्विक स्तर पर उपयोग करके देश की आय बढ़ाई जा सकती है। भारत में हर क्षेत्र में कितनी प्रतिभा है इसका आकलन सिलिकान वैली में कंप्यूटर साफ्टवेयर के क्षेत्र में कार्य कर रहे भारतीयों और उनकी उपल्बधियों को देखकर सहज ही किया जा सकता है। गेमिंग के बढ़ते हुए बाजार को ध्यान में रखते हुए उस दिशा में कार्य करना होगा। गेमिंग का वैश्विक बाजार बहुत बड़ा हो गया है। बड़ी बड़ी कंपनियां इसमें हजारों करोड़ रुपए का निवेश कर रही हैं। इस शिखर सम्मेलन के दौरान होने वाली चर्चाओं में ये बात स्पष्ट रूप से निकलकर आई कि भारत को इस क्षेत्र में मजबूती से स्थापित होने की आवश्यकता है। सरकार ने इस दिशा में पहल की है। इसका स्वागत अभिनेता आमिर खान जैसे लोगों ने भी किया। आमिर खान ने माना कि पहली बार किसी सरकार ने मनोरंजन जगत के लोगों से संवाद करने की पहल की है। उनके साथ बैठकर इस क्षेत्र को आगे बढ़ाने की योजनों और संभावनों पर विचार किया है। वेव्स में दुनिया भर के क्रिएटर्स, स्टार्टअप्स, उद्योग प्रमुखों और नीति निर्माताओं को एक मंच पर लाकर मीडिया, मनोरंजन और डिजिटल नवाचार का वैश्विक केंद्र बनाना लक्ष्य है।

भारत की फिल्मों को साफ्ट पावर के तौर पर उपयोग करने की बात भी लंबे समय से होती रही है। मुझे याद आ रहा है 2012 का एक किस्सा। इस वर्ष जोहानिसबर्ग में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ था। मारीशस के तत्कालीन कला और संस्कृति मंत्री चुन्नी रामप्रकाश ने कहा था कि हिंदी के प्रचार प्रसार में फिल्में और टेलीविजन पर चलनेवाले सीरियल्स का बड़ा योगदान है। उन्होंने मंच से स्वीकार किया कि हिंदी फिल्मों और टीवी सीरियल्स के कारण ही उन्होंने हिंदी सीखी। अपने वक्तव्य में उन्होंने भारत में बनने वाले टीवी सीरियल्स के नाम भी लिए और कहा उनकी लोकप्रियता की वजह से विदेश में गैर हिंदी भाषी भी उसको देखते हैं। इसी तरह 2023 में फिजी के नांदी में विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान मंच पर भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और फिजी के राष्ट्रपति रातू विलियामे काटोनिवेरी बैठे थे। दोनों के बीच बातचीत हो रही थी। राष्ट्रपति रातू हिंदी फिल्मों की चर्चा कर रहे थे। जयशंकर ने इनसे पूछा कि उनको सबसे अच्छी हिंदी फिल्म कौन से लगी तो राष्ट्रपति ने उनसे कहा कि शोले। इस फिल्म का कोई मुकाबला नहीं है। 

वेव्स का आयोजन पहले दिल्ली में होना था लेकिन बाद में किसी कारणवश इसको मुंबई शिफ्ट किया गया। आयोजन की भव्यता और भागीदारी देखने के बाद लगा कि मुंबई ही सही जगह है। वेव्स के आयोजन के बाद अब गोवा में होनेवाले अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल (ईफ्फी) के कई आयामों को लेकर संशय उत्पन्न हो गया है। ईफ्फी में फिल्म बाजार लगता है और वेव्स में भी इस प्रकार का ही एक आयोजन है। ईफ्फी में 75 क्रिएटिव माइडंस का आयोजन होता है, वेव्स में भी क्रिएटिव अवार्ड दिए गए। ईफ्फी में फिल्मकारों को कई तरह के पुरस्कार दिए जाते हैं, वेव्स के लिए भी प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि अगले संस्करणों में पुरस्कार देने की योजना है। दोनों आयोजन भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के हैं। जब वेव्स के आयोजन को सरकार प्राथमिकता देगी तो ईफ्फी पर इसका असर पड़ सकता है। वैसे भी ईफ्फी को लेकर एक कंफ्यूजन लंबे समय से है कि वो फिल्म फेस्टिवल रहे या उसको अवार्ड का मंच बने। ईफ्फी के आयोजन के दौरान ये ब्रम दिखता है। ईफ्फी को बेहतरीन फिल्म फेस्टिवल बनाने पर जोर देना चाहिए। वहां जिस तरह से प्रदर्शनियां और फूड कोर्ट आदि लगाए जाते हैं उससे बचना होगा। इसमें खर्च होनेवाले संसाधनों को फेस्टिवल में बेहतर फिल्मों को लाने और चर्चा सत्रों पर उपयोग किया जा सकता है। वेव्स के सफल आयोजन के बाद ईफ्फी को लेकर सूचना और प्रसारण मंत्रालय को पुनर्विचार करना चाहिए। 

वेव्स का आयोजन मनोरंजन जगत के लिए अच्छे दिन का संकेत तो है भविष्य में इनसे जुड़कर युवाओं को रोजगार की संभावनाएं तलाशने में मदद मिलेगी। प्रधानमंत्री ने भी माना कि स्क्रीन का आकार छोटा हो सकता है, लेकिन दायरा अनंत होता जा रहा है, स्क्रीन छोटी हो रही है, लेकिन संदेश व्‍यापक होता जा रहा है। कहा जा सकता है कि यही समय है सही समय है। 


Saturday, April 26, 2025

सीन के बाद रील आधारित लेखन


पिछले सप्ताह कुछ मित्रों के साथ हिंदी में प्रकाशित नई पुस्तकों पर चर्चा हो रही थी। हिंदी में लिखा जा रहा साहित्य भी इस चर्चा में आया। साहित्य में जिस तरह का लेखन हो रहा है उसको लेकर एक दो मित्रों की राय नकारात्मक थी। चर्चा में ये बात भी आई कि औसत या खराब तो हर काल में लिखा जाता रहा है। जो रचना अच्छी या स्तरीय होती है वो लंबे समय तक पाठकों की पसंद बनी रहती है। इसी चर्चा में एक दिलचस्प बात निकलकर आई। वो ये कि इन दिनों हिंदी के कई प्रकाशक उन्हीं विषयों को प्राथमिकता दे रहे हैं जिन विषयों पर बहुतायत में रील्स इंस्टा या एक्स पर प्रसारित हो रहे हैं। इसके लिए प्रकाशक किसी भी भाषा में लिखी पुस्तक के अधिकार खरीदकर उसको हिंदी में प्रकाशित भी कर रहे हैं। आज रील्स की दुनिया में सफल बनने के नुस्खे, पैसे कमाने की विधि, जल्द से जल्द अमीर कैसे बनें, करियर में बेहतर कैसे करें, नौकरी कैसे मिलेगी, शेयर बाजार में निवेश से कैसे बनें करोड़पति, भगवान की aपूजा कैसे करें, किस भगवान की पूजा किस दिन करने से प्रभु प्रसन्न होते हैं आदि आदि विषय पर काफी कंटेंट है। सफलता कैसे प्राप्त करें, नौकरी में कैसे व्यवहार करें, टाइम मैनेजमेंट, शेयर बाजार में निवेश पर दर्जनों किताब हाल के दिनों में मेरी नजर से गुजरी है। एक और विषय इन दिनों हिंदी के प्रकाशकों को लुभा रहा है वो है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस( एआई) यानि कृत्रिम बुद्धिमत्ता। इस वुषय पर भी हिंदी में कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं लेकिन अभी इन पुस्तकों को स्तर प्राप्त करना शेष है। इस विषय की अधिकतर पुस्तकें गूगल बाबा की कृपा से प्रकाशित हुई हैं। 

चर्चा में ही एक बात और निकल कर आई कि इन दिनों कई प्रकाशक नए लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित करने के पहले  जानना चाहते हैं कि उनके इंस्टाग्राम और एक्स या फेसबुक पर कितने फालोवर हैं। पुस्तक प्रकाशन की शर्त पहले बेहतर कृति होती थी लेकिन समय बदला और पुस्तक प्रकाशन के मानक और निर्णय के कारक भी बदलने लगे। इस शताब्दी के आरंभिक वर्षों तक इंटरनेट मीडिया का चलन इतना अधिक नहीं था। डाटा की उपलब्धता भी कम थी। इंटरनेट का देश में घनत्व कम था और डाटा इतना सस्ता भी नहीं था। जैसे जैसे कम मूल्य पर डाटा की उपलब्धता बढ़ी तो लोग इंटरनेट मीडिया का उपयोग करने लगे। 2009 के आसपास फेसबुक और ट्विटर (अब एक्स) पर लोग जुड़ने लगे थे। ये जुड़ाव समय के साथ बढ़ता चला गया। याद है कि 2014-15 के आसपास मेरे कई मित्र कहा करते थे कि फेसबुक समय बर्बादी की जगह है। वे इस माध्यम पर कभी नहीं आएंगे। उन्हीं मित्रों के फेसबुक अकाउंट की हरी बत्ती दिनभर जली देखकर मजा आता है। अब तो अधिकतर साहित्यिक बहसें फेसबुक पर ही होती हैं, कई बार सकारात्मक और बहुधा नकारात्मक। साहित्यकारों के कुंठा प्रदर्शन का भी सार्वजनिक मंच बन गया है फेसबुक। पहलगाम में हिंदुओं के नरसंहार पर कई साहित्यकारों ने ना केवल अपनी अज्ञान का सार्वजनिक प्रदर्शन किया बल्कि अपनी विचारधारा के पोषण की वफादारी में अपनी जगहंसाई भी करवाई। खैर ये अवांतर प्रसंग है जिसकी चर्चा फिर कभी। 

हम बात कर रहे थे रील प्रेरित लेखन की। दरअसल हुआ ये है कि रील्स की विषयों की लोकप्रियता को देखते हुए कुछ प्रकाशकों ने पुस्तक प्रकाशन में भी उसका प्रयोग किया। पटना और दिल्ली में आयोजित पुस्तक मेला के अनुभव ये बताते हैं कि युवा पाठक इस तरह की पुस्तकों की ओर आकर्षित हुए। अब भी हो रहे हैं। एक बात तो तय माननी चाहिए कि हिंदी के प्रकाशकों को अगर लाभ नहीं होगा तो वो बहुत दिनों तक किसी भी ट्रेंड को लेकर नहीं चलेंगे। ये कारोबार का आधार भी है। हिंदी में कविता के पाठक कम होने आरंभ हुए तो प्रकाशकों ने कविता संग्रह का प्रकाशन लगभग बंद कर दिया। कुछ दिनों पहले नई वाली हिंदी के कई लेखक आए थे। उनकी पुस्तकें खूब बिकीं । दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की सूची में कईयों को स्थान मिला, अब भी मिल रहा है। नई वाली हिंदी का परचम लेकर चलनेवाले लेखकों में से सत्य व्यास और नीलोत्पल मृणाल के अलावा कम ही लेखकों के यहां विषयों कि विविधता दिखती है। 

सत्य व्यास ने अपने उपन्यासों में लिखने की प्रविधि में बदलाव किया। कथा के प्रवाह के साथ नहीं बहे बल्कि इन्होंने शिल्प में बदलाव किया। सत्य ने अपने उपन्यासों में सीन लिखना आरंभ किया। लंबे लंबे सीन जिसका उपयोग या तो फिल्म में या फिर वेब सीरीज में किया जा सकता हो। सत्य के एक उपन्यास पर बेव सीरीज भी बनी, एकाध पर और बनने की खबर है। सत्य की सफलता से उत्साहित होकर कई नए लेखकों ने अपनी कहानियों के शिल्प में बदलाव करके सीन को अपनाया। छोटी कहानियां और छोटो उपन्यासों में सीन लेखन आसान भी है। अगर आप 600 पन्ने का कोई उपन्यास लिखेंगे तो आपको सीन की निरंतरता को बरकार रखने में पसीने छूट जाएंगे। क्रमभंग का खतरा भी उपस्थित हो सकता है। इस कारण से भी उपन्यास 150-200 पृष्ठों के आने लगे। इसको पाठकों ने भी पसंद किया। पुरानी प्रविधि से लिखे जा रहे कथा साहित्य को अपेक्षाकृत कम पाठक मिल रहे हैं। पहले इस तरह के सीन लिखने का प्रयोग सुरेन्द्र मोहन पाठक से लेकर वेद प्रकाश शर्मा, और इस जानर के ही अन्य उपन्यासकार करते थे। उन सबकी लोकप्रियता का एक कारण ये भी था। 

अब हिंदी के पाठक सीन को तो पसंद कर ही रहे हैं लेकिन सीन के बाद अब रील वाले विषयों को भी पसंद करने लगे हैं। हिंदी लेखन में आए इस बदलाव को या इस नए ट्रेंड को समझना आवश्यक है। आज के इस भौतिकवादी युग में हर कोई सफल और अमीर बनना चाहता है। इंटरनेट और मीडिया के प्रसार ने भारत की अधिकांश जनता को भैतिक सुख सुविधाओं से परिचित करवा दिया। हमारे देश में प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है, साक्षरता भी। जाहिर है सपने भी बड़े होते जा रहे हैं। इन सपनों और आकांक्षाओं को पुरानी प्रविधि से लेखन करनेवाले पकड़ नहीं पा रहे हैं। वे अब भी खेत-खलिहान, गरीब-अमीर, शोषण-शोषित, जात-पात जैसे विषयों में उलझे हैं। हमारा समाज काफी आगे बढ़ गया है। जो युवा लेखक नए विषयों को लेकर आगे बढ़े और कहानी का ट्रीटमेंट अलग तरीके से किया उनकी  पुस्तकें बिक रही हैं। प्रकाशक भी उनको छापने के लिए पलक पांवड़े बिछाए हैं। इस बात का सामने आना शेष है कि जिन लेखकों के फेसबुक या इंस्टाग्राम के फालोवर्स अधिक हैं उनकी पुस्तकें उसी अनुपात में बिक पाती हैं या नहीं। बिकने की बात हिंदी में जरा मुश्किल से पता चलती हैं। पर इतना तय है कि जिनके इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स पर फालोवर्स की संख्या अधिक है उनको अपनी पुस्तकों के प्रचार प्रसार में सहूलियत होती है। अगर ढंग से प्रचार हो जाए तो पुस्तकों के बारे में आनलाइन और आफलाइन प्लेटफार्म पर एक प्रकार की जिज्ञासा देखी जाती है। कई बार ये जिज्ञासा बिक्री तक पहुंचती है। 


Saturday, April 19, 2025

उर्दू अलग भाषा नहीं, हिंदी की बोली


हिंदी से उर्दू बनी है, उर्दू से हिंदी नहीं। हिंदी में अरबी, फारसी, तुर्की शब्द बढ़ा देने और फारसी मुहावरे चला देने से उर्दू का जन्म हुआ। वस्तुस्थिति यह है कि हिंदी के बिना उर्दू एक पग नहीं धर सकती और उर्दू के बिना हिंदी के महाग्रंथ लिखे जा सकते हैं- पंडित अंबिका प्रसाद वाजपेयी ।

आज से उन्नीस वर्ष पहले जब हिंदी साहित्य सम्मेलन का जन्म नहीं हुआ था और उसके जन्म के पश्चात भी कई वर्षों तक अपनी मातृभाषा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए पग-पग पर न केवल संस्कृत, प्राकृत, शौरसैनी, मागधी, सौराष्ट्री आदि की छानबीन करते हुए शब्द-विज्ञान और भाषा-विज्ञान के आधार पर यह सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ा करती थी कि हिंदी भाषा संस्कृत या प्राकृत की बड़ी कन्या है, किंतु बहुधा बात यहां तक पहुंच जाया करती थी और यह भी सिद्ध करना पड़ता था कि नानक और कबीर, सूर और तुलसी की भाषा का बादशाह शाहजहां के समय जन्म लेनेवाली उर्दू बोली के पहले, कोई अलग गद्य रूप भी था- गणेश शंकर विद्यार्थी- 2 मार्च 1930, गोरखपुर। 

उर्दू जिस जमीन पर खड़ी है. वह जमीन हिंदी की है। हिंदी को हम अपनी जबान के लिए उम्मुलिसान (भाषा की जननी) और हमूलाए-अव्वल (मूल तत्व) कह सकते हैं। इसके बगैर हमारे जबान की कोई हस्ती नहीं है। इसकी मदद के बगैर हम एक जुमला भी नहीं बोल सकते। जो लोग हिंदी से मुहब्बत नहीं रखते वे उर्दू जबान के हामी नहीं हैं। फारसी, अरबी या किसी दूसरी जबान के हामी हों तो हों- प्रोफेसर मौलवी वहीउद्दीन अपनी पुस्तक वजै-इस्तलाहात (परिभाषा निर्माण) में। 

इन तीन विद्वानों के उर्दू के संबंध में जो बात कही है लगभग वही बात 15 अप्रैल 2025 के अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीशों ने कही। दो जजों की बेंच ने अपने फैसले में हिंदी और उर्दू के विद्वानों के कथन के आधार पर हिंदी और उर्दू को एक ही माना प्रतीत होता है। जब अपने जमनेंट में डा रामविलास शर्मा को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि, हिंदी और उर्दू दो अलग भाषाएं नहीं है बल्कि मूलत: दोनों एक ही हैं। दोनों के सर्वनाम, क्रिया और शब्द भंडार भी लगभग एक जैसे हैं। पूरी दुनिया में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जहां दो भाषाओं के सर्वनाम और क्रिया एक ही हों। रूसी और यूक्रेनियन भाषा एक जैसे हैं लेकिन उनमें भी वो समानता नहीं है जो हिंदी और उर्दू में है। इसके अलावा भी कई लोगों के लेखन को विद्वान जजों ने उद्धृत करते हुए हिंदी और उर्दू को एक ही बताया है। बावजूद इसके सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद बहुत ही करीने से उर्दू को अलग भाषा के तौर पर स्थापित करने वाली टिप्पणियां देखने को मिली। कुछ लोगों ने लेख लिखकर उर्दू को बहुत खूबसूरत भाषा के तौर पर रेखांकित करने का प्रयास किया। 

अपने इस जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने विस्तार से हिन्दुस्तानी का उल्लेख किया है। हिन्दुस्तानी के पक्ष में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के संविधान को भी देखा और उसके अंश फैसले में लिखे। 1923 के एक संशोधन का उल्लेख करते हुए जजों ने हिन्दुस्तानी को भाषा के तौर पर लिखा है। कांग्रेस पार्टी ने अगर तय कर लिया कि उसकी कार्यवाही हिन्दुस्तानी में लिखी जाएगी तो उससे ये कैसे तय होता है कि हिन्दुस्तानी एक भाषा के तौर पर चलन में आ गया था। किसी भी भाषा का अपना विज्ञान और व्याकरण होता है। हिन्दुस्तानी का क्या है ? भारतेन्दु हरिश्चंद्र के समय भी हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर विवाद उठा था। तब राजा शिव प्रसाद ने जो भाषा फारसी में चल रही थी उसको देवनागरी में लिखने का दुस्साहस किया, लेकिन उनको सफलता नहीं मिली। राजा शिवप्रसाद अंग्रेजों की नौकरी ही नहीं कर रहे थे उनके हिसाब से कार्य भी कर रहे थे। अंग्रेजों ने उनको सितारे-हिंद का खिताब भी दिया। दिनकर जी ने लिखा है कि राजा शिवप्रसाद जिसको हिंदुस्तानी कहकर चलाना चाहते थे वो चली नहीं, चली वो हिंदी जो फोर्ट विलियम में पंडित सदल मिश्र ने लिखी थी अथवा जिस शैली का प्रवर्तन मुंशी सदासुखलाल ने सन 1800 के आसपास किया था अथवा जो हिंदी काशी में हरिश्चंद्र लिख रहे थे। इसपर भी विद्वान जजों को ध्यान देना चाहिए कि भाषा किसी राजनीतिक दल के संविधान से नहीं बनती भाषा बनती है जनस्वीकार्यता और अपने स्वभाव से। गांधी जी ने हिंदुस्तानी की बहुत वकालत की थी। उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन के लोगों को मना लिया था लेकिन उस समय मुसलमानों ने गांधी पर आरोप लगा दिया कि वो हिन्दुस्तानी कि आड़ में हिंदी का प्रचार कर रहे हैं और उर्दू की हस्ती को मिटाना चाहते हैं। तब गांधी जी को 1 फरवरी 1942 के हरिजन में लिखना पड़ा- कभी कभी लोग उर्दू को ही हिन्दुस्तानी कहते हैं। तो क्या कांग्रेस ने अपने विधान में उर्दू को ही हिन्दुस्तानी माना है। क्या उसमें हिंदी का, जो सबसे अधिक बोली जाती है, कोई स्थान नहीं है। यह तो अर्थ का अनर्थ करना होगा। कहना ना होगा कि हिन्दुस्तानी के नाम पर हर जगह भ्रम की स्थिति बनी रही।  

दरअसल हिंदी की बोली उर्दू को अलग करने का काम अंग्रेजों ने आरंभ किया जब वो फोर्ट विलियम में भाषा पर काम करने लगे। अंग्रेजों ने हिंदी और उर्दू को दो अलग अलग भाषा माना और उसके आधार पर ही काम करवाना आरंभ किया। इसका कारण भी दिनकर बताते हैं जब वो कहते हैं कि नागरी का आंदोलन अगर 1857 की क्रांति की पीठ पर चलकर आया होता तो अंग्रेज इस मांग को तुरंत स्वीकार कर लेते। मगर अंग्रेज अबतक समझ चुके थे कि भारत में राष्ट्रीयता की रीढ हिंदू जाति है, अतएव, मुसलमानों का पक्ष लिए बिना हिंदुओं का उत्थान रोका नहीं जा सकता। इसके बाद अंग्रेजों ने मुसलामानों को उर्दू के पक्ष में गोलबंद करना आरंभ कर दिया। इसका भयंकर परिणाम विभाजन के समय देखने को मिला। जब इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान अलग देश बना तो जिन्ना ने उर्दू को मुसलमानौं की भाषा करार दे दिया। जो बीज अंग्रेजों ने बोया था उसको जिन्ना ने खूब सींचा। हिंदुओं में इसकी प्रतिक्रिया हुई। वो हिंदी के पक्ष में खड़े हो गए। बाद में कुछ लोगों ने हिंदी को सांप्रदायिक भाषा भी कहा। संस्कृत के शब्दों को लेकर फिर उसके कठिन होने को लेकर प्रश्न खड़े किए गए। लेकिन अगर समग्रता में विचार करेंगे तो पाएंगे कि मजहब के नाम पर देश बनानेवालों मे उर्दू को मुसलमानों की भाषा बताकर हिंदी की बोली को सांप्रदायिक बना दिया। संस्कृत के शब्द तो कई भारतीय भाषाओं में मिलते हैं। आज अगर उर्दू को लेकर हिंदुओं के एक वर्ग के मन में शंका है तो उसके ऐतिहासिक कारण हैं। इसके लिए मुसलमानों का एक वर्ग जिम्मेदार है। हंस पत्रिका में एक लेख बासी भात में खुदा का साझा में नामवर सिंह ने भी स्पष्ट किया था कैसे सर सैयद अहमद ने अलीगढ़ में उर्दू डिफेंस एकेडमी कायम किया था। जब 1900 में संयुक्त प्रांत के गवर्नर मैकडानल ने हिंदी को उर्दू के बराबर दर्जा देने का ऐलान किया तो सर सैयद अहमद के उत्तराधिकारी नवाब मोहसिन ने विरोध की अगुवाई की। सुप्रीम कोर्ट को भाषा जैसे मुद्दे पर निर्णय देते समय समग्रता का ध्यान रखना चाहिए था। 


Sunday, April 13, 2025

भारतीयता से संपृक्त रचनाकार


पिछले दिनों भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से धर्मवीर भारती की पुस्तक गुनाहों का देवता का जन्मशती संस्करण आया। इस पुस्तक को पलटने के बाद स्मरण हुआ कि यह वर्ष प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मवीर भारती का जन्म शताब्दी वर्ष है। धर्मवीर भारती ऐसे संपादक के तौर पर याद किए जाते हैं जिन्होंने अपने संपादन में निकलनेवाली पत्रिका को लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंचा दिया था। इसके अलावा उनकी कई रचनाएं कालजयी कृतियों की श्रेणी में हैं। गुनाहों के देवता को ही लीजिए। इसके पेपरबैक और हार्ड बाउंड मिलाकर 160 से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। अब भी पुस्तक मेलों में इस उपन्यास की काफी मांग रहती है। सुधा और चंदर की प्रेम कहानी में किशोर पाठकों को अपना प्रेम नजर आता है। धर्मवीर भारती ने एक काव्य नाटक लिखा, अंधा युग। आज से करीब सात दशक पहले लिखा गया ये काव्य नाटक आज भी भारतीय रंगमंच निर्देशकों की पसंद बना हुआ है। महाभारत पर आधारित इस काव्य नाटक में भारत है, भारत की पौराणिकता है, इसके रीति रिवाज हैं। इस काव्य नाटक का कालखंड महाभारत के अठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु के क्षण तक का है। इसका आरंभ मंगलाचरण से होता है। पर्दा उठने से पहले जो गीत लिखा गया है वो रंगमंच निर्देशकों के लिए चुनौती भी है और उनका हर्ष भी। अश्वत्थामा का अर्धसत्य और गांधारी का शाप ये दो अंक ऐसे हैं जिसको देखते-सुनते हुए श्रोता इसी काल में चले जाते हैं। इस काव्य नाटक का निर्देशन अब्राहम अल्काजी से लेकर मोहन महर्षि तक ने किया है। 

अंधा युग के बारे में धर्मवीर भारती ने लिखा है कि अंधा युग कदापि न लिखा जाता यदि उसका लिखना न लिखना मेरे बस की बात रह गई होती। इस पूरी कृति का जटिल वितान जब मेरे अंतर में उतरा तो मैं असमंजस में पड़ गया। थोड़ा डर भी लगा। लगा कि इस अभिशप्त भूमि पर एक कदम भी रखा कि फिर बचकर नहीं लौटूंगा। पर एक नशा होता है अंधकार से गरजते महासागर की चुनौती स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों से खाली हाथ जूझने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, सत्य के, मर्यादा के कुछ कणों को बटोरकर, बचाकर धरातल तक ले आने का- इस नशे में इतनी गहरी वेदना और इतना तीखा सुख घुला मिला रहता है कि उसके आस्वादान के लिए मन बेबस हो उठता है। उसके लिए ही ये कृति लिखी है। अंधा युग के अंकों से गुजरते हुए धर्मवीर भारतीय की रचनात्मकता और उसके पीछे के दर्शन को सोच कर लगता है कि नाटककार के पास ज्ञान का समृद्ध भंडार रहा होगा। अंधा युग में स्वतंत्रता के बाद के दशकों में भारतीय राजनीति और समाज में जिस प्रकार की मूल्यहीनता सामने आई उसका चित्रण किया गया है। 

धर्मवीर भारती की ही एक और कृति है कनुप्रिया। कनुप्रिया एक काव्य रचना है जिसकी भी रचना भूमि महाभारत ही है। महाभारत और कृष्ण, धर्मवीर भारती को इतने प्रिय थे कि उनकी रचनाओं में ये बारबार लौट कर आते थे। धर्मवीर भारती के निधन के बाद उनकी पत्नी पुष्पा भारती ने लिखा है कि- जीवनभर प्रकृति के अटूट प्रेम के बाद अगर भारती जी ने किसी से अलौकिक प्रेम किया वो है श्रीमदभागवत्। सामने रखी गेरुए रंग के कपड़े में लिपटी भागवत मुझे बता रही है कि उनके प्राण वहीं उसके पृष्ठों में बसते थे। वहां से सूत्र पकड़कर कितना तो विचार मंथन किया था उन्होंने। जीवन की हर उलझन के सुलझाव का रास्ता इसी के पृष्ठों में खोज लेते थे। किशोर उम्र से ही कृष्ण काव्य के ऐसे रसिया बन गए थे कि हिंदी में लिखा सारा का सारा कृष्ण साहित्य मथ डाला था। यहीं से तो उपजे होंगे अंधा युग और कनुप्रिया- कृष्ण, कृष्ण और कृष्ण। इसी संस्मरण में पुष्पा जी एक किस्सा भी सुनाती हैं कि किस तरह से एक रात भारती जी और पंडित जसराज के बीच भागवत पर चर्चा हो रही थी। अचानक पंडित जी ने हारमोनियम की मांग की। घर में हारमोनियम नहीं था तो पंडित जी ने कहा कि एक परात ले आइए। उसके बाद पंडित जी परात को बजाते हुए कनुप्रिया की पंक्तियों गाने लगे। ऐसा ही एक वाकया हुआ बंबई विश्वविद्यालय में। भारती जी बंबई विश्वविद्यालय के क्नवोकेशन हाल में कनुप्रिया का पाठ कर रहे थे। अचानक सामने बैठी प्रतिमा बेदी मंच के सामने नृत्य करने लगीं। यह देखकर भारती जी का गला रुंध गया लेकिन काव्य पाठ जारी रखा। कनुप्रिया एक ऐसी रचना है जो पाठकों को अपने साथ बांध लेती है। धर्मवीर भारती की एक ऐसी ही कालजयी कृति है सूरज का सातवां घोड़ा। स्वाधीनता के कुछ ही वर्षों बाद लिखी गई ये कृति अपने आकार में तो छोटी है लेकिन इसका जो कलेवर है वो आज भी मानक बना हुआ है। इसकी कथा कहन शैली अनुपम है। 

धर्मवीर भारती को पेड़ पौधों से बहुत लगाव था। जब वो प्रयागराज (तब इलाहाबाद) से मुंबई (तब बांबे) पहुंचे थे तो उनके टैरेस गार्डेन की काफी चर्चा होती थी। बाद में महाराष्ट्र सरकार ने लेखकों साहित्यकारों के लिए बांद्रा में एक हाउसिंग सोसाइटी साहित्य सहवास बनाई तो भारती ने इस आवासीय सोसाइटी में कई पेड़ लगाए। परिसर में कदंब का पेड़ लगाने के बाद भारती जी को छितवन वृक्ष की याद आई। छितवन वही वृक्ष है जिसके नीचे शरद पूर्णिमा की रात कन्हैया माहारास रचाते थे। भारती जी ने छितवन की खोज आरंभ की। काफी दिनों बाद पता चला कि वो दिल्ली की एक नर्सरी में है। दिल्ली से मंगवाकर भारती जी ने उसको अपनी स्डटी के पास लगा दिया। कंदब और छितवन के अतिरिक्त धर्मवीर भारती ने कृष्ण कथा से जुड़े फरद का पेड़ भी अपनी सोसाइटी में लगाया था। धर्मवीर भारती के जन्म शताब्दी वर्ष में उनको एक ऐसे रचनाकार के रूप में याद करना चाहिए जिनकी जड़ें भारत और भारतीयता से गहरी जुड़ी थीं। वो भारतीय पौराणिक कथाओं को नए संदर्भों और नई शैली के साथ प्रस्तुत कर नया आयाम प्रदान करने की क्षमता रखते थे। ऐसे महान रचनाकार और प्रकृति प्रेमी का पुण्य स्मरण। 


Saturday, April 12, 2025

साहित्यिक बाजार में नया कारोबार


कुछ दिनों पूर्व मेरे एक मित्र का फोन आया। इधर-उधर की बातें करने के बाद बोला कि यार! मैं कविताएं लिखना चाहता हूं। मुझे लगा ये सनक गया है या मजाक कर रहा है। हमाररी मित्रता लंबे समय से है उसने कभी इस तरह की बातें नहीं की। बात टालने के लिए मैंने कहा कविताएं लिखना तुम्हारे वश में नहीं है। तुम अपने करियर में अच्छा कर रहे हो वहीं ध्यान दो। उसने बहुत प्यार से उत्तर दिया। कहा मैं इस बात से सहमत हूं कि कविता लिखना कठिन है। पर सोचो अगर अनामिका जी जैसी सिद्धहस्त कवयित्री कविता लेखन की बारीकियां सिखाएंगीं तो मेरे जैसा व्यक्ति भी कविता लिख लेगा। अब मैं थोड़ा घबराया कि वो मुझे इस बात के लिए कहेगा कि मैं अनामिका जी से उसको समय दिला दूं। उसको टालने के लिए मैंने कहा कि अनामिका जी बहुत व्यस्त रहती हैं। उनका अपना लेखन है, कालेज की व्यस्तता है और पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियां हैं, वो समय नहीं दे पाएंगी। उसने तपाक से उत्तर दिया कि मुझे तो अनामिका जी का समय मिल गया है। वो हमें कविता लेखन की बारीकियां सिखाएंगी। मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। उसने मेरे मनोभाव को समझकर पूरी बात बताई कि साहित्यिक पत्रिका नईधारा ने कविता लेखन वर्कशाप का आयोजन किया है। इस वर्कशाप का विज्ञापन उसने फेसबुक पर देखा था। विज्ञापन में वकर्शाप में भाग लेने की पूरी प्रक्रिया थी। उसने प्रक्रिया पूरी की और निर्धारित शुल्क जमाकर वो निश्चिंत हो गया था। इस बात से प्रसन्न भी कि अनामिका जी से वो कविता लेखन की बारीकियां सीखने जा रहा है। 

हमारी बातचीत समाप्त हो गई लेकिन बाद में मैं सोचने लगा कि चार घंटे के वर्कशाप में कोई कविता लेखन की बारीकियां कैसे सीख सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि अनामिका जी कविता लेखन पर विस्तार से बात कर सकती हैं। कविता का स्ट्रक्चर बता सकती हैं। हिंदी-अंग्रेजी कविता की सुदीर्घ और समृद्ध परंपरा पर बात कर सकती हैं। पर कोई किसी वर्कशाप में बारीकियां सीख कर कवि कैसे बन सकता है। कविता की उन परिभाषाओं का क्या होगा जो विभिन्न भाषाओं में प्रचलित है। हम तो बचपन से सुनते आए हैं कि वियोगी होगा पहला वो कवि आह से उपजा होगा गान। अगर वर्कशाप से कविता लिखना सीख जाएगा तो फिर न तो वियोग की आवश्यकता होगी और न ही आह की। विलियम वर्ड्सवर्थ की उस उक्ति का क्या होगा जिसमें वो कहते हैं, पोएट्री इज द स्पांटेनियस ओवरफ्लो आफ पावरफुल फीलिंग्स, इट टेक्स इट्स आरिजन फ्राम इमोशंस रिकलेक्टेड इन ट्रैंक्विलिटि। वर्ड्सवर्थ भी पावरफुल फीलिंग्स की बात कर रहे हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का एक लंबा लेख है कविता क्या है? उसमें एक जगह शुक्ल कहते हैं, जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार ह्रदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। ह्रदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। विचार करने की बात है कि कुछ घंटों में ह्रदय की मुक्ति साधना के लिए शब्द विधान सीखा जा सकता है। इन प्रश्नों के बारे में विचार किया जाना चाहिए। वरिष्ठ कवियों की नियमित संगति कविता से, उसकी लेखन पद्धति से हमें परिचित करवा सकती है पर लिखना तो अलग ही बात है। इन दिनों कविता छंद आदि से भी दूर हो गई है तो कह सकते हैं कि बारीकियां तो बची नहीं। छंद, मीटर आदि की आवश्यकता रही नहीं। 

इन दिनों होता ये है कि जैसे ही आप फेसबुक पर कोई एक विषय सर्च करते हैं तो उसी से संबंधित पोस्ट आपकी टाइमलाइन पर आने लग जाती है। चूंकि मैंने नईधारा का विज्ञापन उनकी पोस्ट पर जाकर देखा था। विज्ञापन के नीचे लिखे विवरण को पढ़ा भी था। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरी टाइमलाइन पर विभिन्न प्रकार के साहित्य लेखन सिखानेवाले पोस्ट आने लग गए। उनमें से तो कई लेखक ऐसे हैं जो उपन्यास और गद्य लिखना सिखा रहे हैं। उनकी अच्छी खासी फीस है। सिखानेवाले भी इस तरह के लेखक हैं जिनको अभी लेखक के तौर पर स्वयं को स्थापित करना है। स्वयं शुद्ध हिंदी लिखना सीखना है। वाक्य विन्यास ठीक हो इसपर मेहनत करने की आवश्यकता है। इन सबको देखकर मैं इस सोच में पड़ गया कि हिंदी साहित्य कितना विविधरंगी हो गया है। जो हिंदी साहित्य कभी बाजार के विरुद्ध चीखता नहीं थकता था आज उसी हिंदी साहित्य में लिखना सिखाना कारोबार हो गया है। साहित्य का बाजार सज चुका है। आकांक्षी लेखकों के लिए तरह-तरह की दुकानें हैं जिनपर विभिन्न विधाओं के बोर्ड लगे हुए हैं। उन बोर्ड को देखिए और अपनी पसंद की विधा का चयन कीजिए। भुगतान करिए और लेखक बनने की राह पर आगे बढ़ जाइए। कविता लिखना सीखिए, उपन्यास लेखन करिए, कहानियां लिखना सीखिए जो चाहें वो सीख सकते हैं। और अब तो आनलाइन के इस युग में सीखना भी आसान हो गया है। आप गाड़ी चलाते हुए सीख सकते हैं, जिम करते हुए सीख सकते हैं। 

प्रश्न ये है कि लेखन सिखाने की ये दुकानें क्यों खुल रही हैं और उनको पैसे देकर सीखने वाले मिल कहां से रहे हैं। ये जानने के लिए मैंने अपने मित्र को ही फोन मिलाया। मैंने उससे वर्कशाप के बारे में तो नहीं पूछा लेकिन कहा कि आप कवि बनकर क्या हासिल करना चाहते हैं। उन्होंने चहकते हुए कहा कि दोस्त तुम पता नहीं क्यों, समझना नहीं चाहते हो? अगर कविताएं लिखने लग गया तो रोज लिखूंगा। फेसबुक पर डालता रहूंगा। लाइक्स आदि तो मिल ही जाएंगे। सौ दिन में सौ कविताएं लिख दूंगा। आजकल दर्जनों ऐसे प्रकाशक हैं जो पैसे लेकर पुस्तकें छाप दे रहे हैं। उनसे अपनी कविताओं का संकलन छपवा लूंगा। सौ दो सौ प्रतियां बांट दूंगा। हो गया कवि। लिटरेचर फेस्टिवल में बुलाया जाने लगूंगा। कविता पाठ करने लग जाऊंगा। समाज में एक प्रतिष्ठा बन जाएगी। 

इसके बाद मैंने एक दूसरे आकांक्षी लेखक को फोन किया। उसने पिछले साल उपन्यास लेखन की वर्कशाप की थी। उसने बताया कि कहानी लिखना तो बहुत ही आसान है। आप किसी घटना को जैसे देखते हैं लिख दीजिए। अधिक से अधिक 1000 शब्द में। दस-बीस कहानी हो गई तो संग्रह प्रकाशित करवा लीजिए। एक प्रकाशक के पास पैकेज है, सिल्वर, गोल्ड और डायमंड। अगर आप डायमंड पैकेज लेते हैं तो वो आपकी पुस्तक और आपको प्रमोट करेगा, लिट फेस्ट में भी भेजने की व्यवस्था करेगा। ऐसे कई कथित उपन्यासकार या कहानीकार समकालीन हिंदी साहित्य की दुनिया में विचरण कर रहे हैं। और तो और ऐसे ही एक उपन्यासकार कहानी लिखना सिखाने की कार्यशाला का आयोजन भी करने जा रहे हैं। दरअसल साहित्य की दुनिया पिछले दिनों इतनी ग्लैमरस हो गई है कि हर कोई उस दुनिया में जाना चाहता है। वहां मंच है, सेल्फी है, सेल्फ प्रमोशन है, नेटवर्किंग का अवसर है, गासिप है। कहना ना होगा कि वहां हर चीज है जो ग्लैमरस दुनिया में होनी चाहिए। पर सबको ये समझना होगा कि साहित्य रचना एक लंबी तपस्या है जिसके बाद ही कोई विधा सधती है। ये कोई इंस्टैंट नुडल नहीं है कि झट डाला पट तैयार। 


इतिहास लेखन की विसंगतियों पर प्रहार


पहले महाराष्ट्र में औरंगजेब की कब्र को लेकर बवाल मचा। इस विवाद को लेकर नागपुर में हिंसा और आगजनी भी हुई। उसके बाद संसद में समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन ने राणा सांगा पर बाबर को लेकर अपमानजनक टिप्पणी कर दी। उसके बाद इतिहास लेखन को लेकर एक बार फिर से विमर्श आरंभ हो गया। हमारे देश में स्वाधीनता के बाद से ही इतिहास लेखन में एक वैकल्पिक धारा भी रही है। इतिहास लेखन की उस वैकल्पिक धारा को बल प्रदान करते हैं युवा इतिहासकार विक्रम संपत। यूके के रायल हिस्टारिकल सोसाइटी के फेलो रहे विक्रम संपत ने 10 बेस्टसेलर पुस्तकों का लेखन किया है। वीर सावरकर पर दो खंडो में लिखी विक्रम की पुस्तक इतिहास के बहुत सारे जाले को साफ करती है। हाल ही में टीपू सुल्तान पर उनकी एक वृहदाकार पुस्तक आई है जिसमें उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर विक्रम ने टीपू की क्रूरता को सामने लाया है। उनको युवा सहित्य अकादेमी सम्मान भी मिल चुका है। औरंगजेब और बाबर को लेकर मचे बवाल के बीच एसोसिएट एडीटर अनंत विजय ने इतिहासकार विक्रम संपत से बात की।  

प्रश्न- सबसे पहले तो ये बतिए कि हमारे देश में औरंगजेब जैसे आक्रांता को लेकर कुछ लोगों का प्रेम क्यों उमड़ता है। 

देखिए जब हमारे देश का धर्म के आधार पर, नहीं-नहीं धर्म बोलना उचित नहीं होगा, बल्कि इस्लाम के आधार पर देश का बंटवारा हुआ। उसके तुरंत बाद ये कहा जाने लगा कि अगर हम ऐतिहासिक घावों को कुरेदेंगे तो तनाव फैल सकता है। स्वाधीनता के शुरुआती दौर में ऐसा मानना फिर भी थोड़ा जायज हो सकता था। ये भी गलत है लेकिन इसी के बाद ऐसी धारणा बन गई कि सारे आंक्राताओं, मोहम्मद गजनी, मोहम्मद गौरी, औरंगजेब, तैमूर, टीपू सुल्तान आदि ने जिस तरह के बर्बरतापूर्ण कृत्य किए, अगर उसका सत्य चित्रण प्रस्तुत किया जाए तो एक समुदाय आहत हो जाएगा। मेरे हिसाब से ये बिडंबना है। उस समुदाय के लोग इन आंक्रातांओं की क्रूरताओं के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। उसके लिए हम किसी को जिम्मेदार ठहरा भी नहीं सकते हैं। पर इसका उल्टा भी सही है कि आज उस समुदाय के लोग इन सारे आक्रांताओं और आक्रमणकारियों को अपना आदर्श या हीरो क्यों समझें। 

प्रश्न- एक इतिहासकार के तौर अतीत की बातें उठाकर समाज में कटुता फैलाने को कितना उचित मानते है। 

सबसे पहले तो ये सोचना चाहिए कि अगर किसी मुसलमान को भारत में सुरक्षित महसूस करना है तो उसके लिए किसी एक मुसलमान को ही आदर्श मानने की आवश्यकता नहीं है, कोई एक हिंदू भी उसका आदर्श हो सकता है। दूसरा अतीत पर लीपापोती करके या आक्रांताओं के अपराध को मिटाकर कुछ हासिल नहीं होगा। लीपापोती करके जो इतिहास लिखा गया ये उसी का परिणाम है। आज का दौर सूचना का दौर है, आज हर हाथ में मोबाइल में है और इंटरनेट सबकी पहुंच में है। आज के युग में सभी सत्य जानना चाहते हैं। ऐसे में कुछ विशेष लोग जो जेएनयू और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में बैठकर कहते हैं कि देश का इतिहास ऐसा होना चाहिए या इसी को आपको मानना चाहिए। जनता उनको मानने को तैयार नहीं। अब लोग सत्य की खोज खुद कर रहे हैं। ऐसे में समाज में तनाव और बढ़ रहा है, पर यह जो सिलसिला आज का नहीं है। 

प्रश्न- हमारे देश में स्वाधीनता के बाद जो इतिहास लिखा गया और जो स्कूलों में पढ़ाया गया उसपर आपकी क्या राय है। 

प्रसिद्ध इतिहासकार अरुण शौरी ने एक बात का जिक्र किया था। संभवत: ये बात 1989 की है, तब बंगाल में ज्योति बसु की सरकार थी। इस दौरान एक सर्कुलर निकाला गया था कि राज्य में इतिहास की किताबों में जो दो कालम हैं- शुद्धो और एक अशुद्धो। अशुद्धो में इन सारी बातों का जिक्र किया गया था कि किस तरह मोहम्मद गजनी ने सोमनाथ का मंदिर तोड़ा था और किस तरह से औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ का मंदिर तोड़ा था आदि। शुद्धो में इस बात का जिक्र किया गया था कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था, इन सब बातों के बारे में बात नहीं करना है और इन सबको हटा दो। मैं जिस राज्य कर्नाटक से आता हूं  वहां के डा. भैरप्पा जब एनसीईआरटी की कमेटी में थे और एक नेशनल सिलेबस बनना था। तब इसी तरह की बातों को लेकर कमेटी के तत्कालीन चेयरपर्सन पार्थसारथी से उनकी बहस हो गई थी। चेयरमैन कह रहे थे कि ऐसा बोलने से सामाजिक समरसता खत्म हो जाएगी और राष्ट्रीय एकीकरण खतरे में आ जाएगा। 

प्रश्न- अंग्रेजों ने जो अत्याचार किए, उनके बारे में खुल्लम-खुल्ला बोलते हैं तब तो कोई नहीं सोचता कि ईसाइयों को बुरा लगेगा। 

यही तो दिलचस्प है कि चर्चिल को डिक्टेटर, जनरल डायर को हत्यारा कहने पर किसी को आपत्ति नहीं होती। इन सबके बारे में खुलकर बोलने के दौरान हमें ये नहीं लगता है कि देश के जो ईसाई हैं उन्हें बुरा लगेगा। फिर औरंगजेब, टीपू और गजनी के बारे में बात करने पर हमें ये क्यों लगता है कि इससे देश के जो मुसलमान हैं वे नाराज हो जाएंगे। ऐसा करते-करते हम खुद ही ये हाइफनेट कर रहे हैं कि ये लोग आपके रोल माडल हैं और इनको आपका रोल माडल बनाए रखने के लिए इनके द्वारा किए गए सारे कृत्यों को हम पूरी तरह साफ कर देंगे। 

प्रश्न- हम टीपू पर आपसे बात करेंगे, आपने उसपर एक बड़ी किताब लिखी है। अभी हम औरंगजेब और अन्य आक्रांताओं पर ही रहते हैं। मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों को ऐसा क्यों लगता है या इसके पीछे का मनोविज्ञान क्या है कि आक्रांता ही हमारे आदर्श हैं। 

अथर अली नामक एक शोधकर्ता ने मुगलकाल के दौरान भारत के मुस्लिमों की स्थिति के बारे में लिखा है कि मुगल बादशाह बाहर से आए विभिन्न देशों के लोगों को अपने दरबार में प्रमुख जिम्मेदारी देते थे। इनमें पर्शियन, ईरानी, तूरानी आदि प्रमुख रूप से शामिल थे। जबकि देश के मुस्लिमों की दरबार में भागीदारी मुश्किल से सात-आठ प्रतिशत ही होती थी। फिर भी आज के मुस्लिमों को यही लगता है कि जिसने काफिरों के धर्म का हनन किया वे ही हमारे आदर्श हैं। औरंगजेब के भाई दारा शिकोह को अगर देखें तो एक हद तक वो थोड़ा सा आदर्श हो सकता है, लेकिन हम उसको आदर्श नहीं मानते हैं। दरअसल उसने गंगा-जमुनी तहजीब शब्द का प्रयोग किया था, लेकिन उसके भाई औरंगजेब ने ही उसका सिर कलम किया और गंगा-जमुनी तहजीब का भी। फिर भी हम गंगा-जमुनी तहजीब की बात करते हैं। गंगा भी हमारी है और जमुना भी हमारी है, जमुना को हम किसी को देने के बारे में सोच भी नहीं सकते हैं। मुस्लिम समुदाय के कुछ नेता अपने भाषणों में कहते हैं कि हमने यहां आठ सौ साल राज किया है। यह पाकिस्तान वाला सोच है और इसी सोच का परिणाम है कि पाकिस्तान बना। मैंने अपनी वीर सावरकर वाली किताब लिखने के क्रम में मुस्लिम लीग के काफी नेताओं के 900 से अधिक भाषणों का अध्ययन किया था। इससे यह बात निकलकर आई कि मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों का सोच था कि हमने यहां शासन किया था और जब अंग्रेज चले जाएंगे तो जिनपर हमने शासन किया था हम उनसे शासित हो जाएंगे। कारण, प्रजातंत्र का मूलमंत्र यही है कि बहुसंख्यक ही शासन करता है। इसलिए हमारा एक अलग देश बनना चाहिए और इसी से अलगाववाद शुरू हुआ और यह श्रंखला अभी तक चली आ रही है। यह बहुत दुख की बात है कि जिस नेहरूवाद ने यह सोचा कि इतिहास में फेरबदल करके लोगों को आपस में जोड़ा जा सकता है इससे प्रेम और सद्भाव तो नहीं बढ़ा, बल्कि अलगाववाद ही फैला। 

प्रश्न- कुछ इतिहासकार कहते हैं कि मुगल आक्रांता के तौर पर आए लेकिन यहां बस गए और भारतीय हो गए। 

देखिए जब यहां राज करेंगे तो बस ही जाएंगे। उनकी कब्र भी यहीं होगी। पर अपने दौ सौ-ढाई सौ साल के शासनकाल में उन्होंने कितनी यूनिवर्सिटी बनाईं और लोगों के उद्धार के लिए क्या काम किए, इसपर विचार करना होगा। जब ताजमहल बन रहा था तब पूरे दक्षिण भारत में कर वसूली के लिए वहां कितने लोग मारे गए, इसको देखना होगा। ताजमहल बन रहा था तब दक्षिण में हुई बगावत में करीब 60 से 70 लाख प्रभावित हुए थे। अगर हम चर्चिल को बंगाल में 40 लाख लोगों को मारने के लिए एक नरहंतक बोलते हैं तो ये लोग कोई कम नहीं थे। उससे भी कई गुना ज्यादा थे। लोग कहते हैं कि उस समय जीडीपी बढ़ रही थी। वास्तविकता ये है कि वैश्विक स्तर पर भारत की जीडीपी जो पहले थोड़ा बेहतर थी वो मुगलकाल में गिरकर काफी नीचे आ गई थी। उन्होंने मुगल प्रशासन में भारतीयों को वो दर्जा नहीं दिया जो पर्शियन, ईरानी और तूरानियों को दिया। इतिहासकार अथर अली लिखते हैं कि औरंगजेब का शासनकाल जब अपने चरम पर था तब उसके शासन में भारतीयों की भागीदारी बमुश्किल सात-आठ प्रतिशत थी। 

प्रश्न- हमने इतिहास की किताबों में पढ़ा है कि अकबर महान थे। मध्यकाल का इतिहास लिखनेवाले कुछ इतिहासकार कहते हैं कि अकबर ने समाज में ऊंच-नीच को खत्म किया था। 

हम भी तो अब तक यही जानते हैं कि अकबर महान थे। मेरे खयाल से अब तक तीन ही महान हुए हैं अकबर महान, अशोक महान और सिकंदर महान। अशोक के बारे में बोला जाता है कि कलिंग युद्ध के बाद वे इतने आहत हुए कि जो पहले चंड अशोक थे, उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। जबकि तथ्य यै है कि कलिंग युद्ध के दो साल पहले ही वह बौद्ध धर्म को स्वीकार कर चुके थे। ये जो महान वाली उपाधि दी गई है ये फर्जी ही है और ये सब एक प्रकार से गढ़ी हुई कहानी है। अकबर का शासन उत्तरार्द्ध में ही थोड़ा बेहतर था, पूर्वार्द्ध में चित्तौड़गढ़ में उन्होंने जो किया और उनके दरबार के इतिहासकार बंदायूनी ने जब कहा कि मैं अपनी दाढ़ी को काफिरों के खून से रंगना चाहता हूं तो वह उससे इतने खुश हुए कि उनको सोने की अशरफियां दीं। राजस्थान और चित्तौड़ में जो उन्होंने किया, वो तो इतिहास की बात है, लेकिन उनका जो सेकंड हाफ है उसमें उन्होंने दीन ए इलाही आदि की स्थापना की। इसीलिए आज भी अगर देखें तो पाकिस्तान में अकबर की उतनी वाहवाही नहीं होती। 

प्रश्न- कैसे 

पाकिस्तान के जो पांच नेवी के जहाज हैं, वो सभी आक्रांताओं के नाम पर हैं। जहाजों के नाम बाबर, शाहजहां, जहांगीर, आलमगीर और टीपू सुल्तान के नाम पर रखे हैं, लेकिन अकबर के नाम का प्रयोग नहीं किया। वर्ष 1965 में जब भारत-पाक युद्ध शुरू हुआ तो भारत पर आक्रमण करने के लिए उसने आपरेशन का नाम सोमनाथ चुना था जो बीते दिनों और गजनी की याद दिलाता था। उत्तरार्द्ध के शासन की कुछ खूबियों के कारण पाकिस्तान में अकबर वहां के स्टाक वैल्यू में निचले पायदान पर हैं। अकबर के उत्तरार्द्ध के शासन के बारे में इटैलियन ट्रैवेलर मनूची और निकोल आंखों देखा हाल लिखते हैं। अकबर के शासनकाल में आगरा में रोज हजारों हिंदुओं के सिर कलम किए जाते थे कि वे गलियों में पड़े रहते थे और गलियां दुर्गंध से भरी रहती थीं। उनसे इतनी बदबू आती थी कि लोगों को वहां पर नाक और मुंह ढककर चलना पड़ता था। यह तब की बात है जब अकबर ने दीन ए इलाही की स्थापना कर दी थी और उन्हें अकबर महान कहा जाने लगा था। 

प्रश्न- अब टीपू सुल्तान के बारे में जरा बताइए। आमधारणा है कि टीपू सुल्तान भारत की रक्षा के लिए लड़े, अंग्रेजों को रोका। 

टीपू को लेकर मेरी राय उलटी नहीं है, बल्कि सच्ची राय है। यह तथ्यों पर आधारित है। देश की स्वाधीनता के बाद टीपू का स्वतंत्रता सेनानी के रूप में चित्रण किया गया। ये बोलने वाले वही मार्क्सवादी इतिहासकार हैं, जो बोलते रहते हैं कि भारत नाम का कोई राष्ट्र था ही नहीं और ब्रिटिशर के आने के बाद ही हम एक राष्ट्र बने। अगर एक ही राष्ट्र नहीं था तो फिर वो किस राष्ट्र के स्वतंत्रता सेनानी बने। एक तरफ कहा जाता है कि वे भारत के लिए लड़ रहे दूसरी तरफ कहते हैं कि भारत 1947 में बना। चित्त भी मेरी और पट भी मेरी। टीपू ने ब्रिटिशर के साथ लड़ाई के लिए फ्रेंच की सहायता ली थी। फ्रेंच कोई कम कोलोनियल और इंपीरियलिस्ट नहीं थे। दक्षिण में जो कर्नाटक युद्ध हुआ उसमें देखा गया था कि हैदर और टीपू दोनों ने फ्रेंच की सहायता ली। यही नहीं वो जमनशाह जो अफगान के दुराणी शासक हैं उनको चिट्ठी लिखकर बुला रहे हैं कि आप भारत पर आक्रमण करो। हम दो साल का एक कार्यक्रम बनाएंगे साथ में। पहले साल में पूरे उत्तर भारत को काफिरों से मुक्त करेंगे और दूसरे साल में दक्षिण भारत को काफिरों से मुक्त करेंगे। 

प्रश्न- पत्र में लिखा है कि काफिरों से मुक्त करेंगे? 

जी, हर पत्र में काफिर शब्द है और लिखा है कि जो सच्चा दीन है उसको स्थापित करने के लिए हम ये लड़ाई लड़ रहे हैं। काफिर शब्द भी बार-बार उसका इस्तेमाल हो ही रहा है। दो साल के बाद हम ये पूरे सबकांटिनेंट को आपस में इस्लामिक कैलिफेट की तरह विभाजन कर लेंगे। ये कैसे स्वतंत्रता सेनानी हुए जो इस तरह के पत्र लिख रहे थे। ये उनके खुद के पत्र हैं। टीपू सुल्तान की जो तथाकथित तलवार है उस पर भी लिखा है कि इस तलवार का मकसद है कि काफिरों के खून से इसको रंगा जाए। उसका जो मैनिफेस्टो था जो मैसूर का इस्लामीकरण करके सल्तनते खुदादाद बनाया जाए और काफिरों का पूर्ण निर्मूलन होना चाहिए। काफिर मतलब गैर मुस्लिम्स, क्योंकि उनके आतंकी हमले ईसाइयों ने भी सहे हैं कर्नाटक में। 

प्रश्न- आप तो जिस राज्य से आते हैं, वहां तो लंबे समय तक टीपू जयंती मनाई जाती रही। 

देखिए अगर कांग्रेस कुछ करेगी तो भाजपा उसका विरोध करेगी और अगर भाजपा कुछ करेगी तो कांग्रेस उसका विरोध करेगी। उसमें हमें पड़ना ही नहीं है। हम तो पूरी तरह एकेडमिक बात कर रहे हैं। जब ये जयंती मनाई गई तो उसमें कई समुदाय, उसमें मैंगलोर के ईसाई भी शामिल थे वो भी सड़क पर उतरे थे। उनका कहना था जिसने हमारे पूर्वजों के साथ इतने अत्याचार किए, जो लिखित रूप में मौजूद हैं, सब जानते हुए भी आप इसका महिमामंडन कैसे कर सकते हैं? वहां आयंगार जो ब्राह्मण समुदाय है वो तो 250 वर्ष के बाद भी आज दीपावली नहीं मनाते, क्योंकि उसी दिन करीब सात सौ लोगों को उसने बर्बरता से मार डाला था, जिसमें महिलाएं, बच्चे और पुरुष शामिल थे। 

प्रश्न- इस घटना को थोड़ा विस्तार से बताएंगे कि दीवाली पर क्या हुआ था?

दीवाली के एक दिन पहले नरक चतुर्दशी होती है। उस दिन टीपू सुलतान ने श्रीरंगापट्टन के श्रीलक्ष्मीनरसिम्हा मंदिर में एक सामूहिक भोज के बहाने सात सौ लोगों को बुलाया था। इस मंदिर के प्रांगण में दो दरवाजे थे। जब लोग खाना  खा रहे थे तो दोनों तरह के दरवाजे बंद कर दिए गए। इसके बाद एक दरवाजे को खोला गया और इसके जरिए जो उत्पाती हाथी थे उनको अंदर भेज दिया गया। इसमें बहुत सारे लोग कुचलकर मर गए। जो बचकर भागना चाहते थे उनका कत्ल कर दिया गया। 

प्रश्न- ये हिंदू जनता थी? 

हां, सारे ब्राम्हण थे। इसीलिए आज भी 250 साल बाद ये लोग दीवाली की रात को कालरात्रि के रूप में मानते हैं। जब पूरा देश दीवाली मना रहा होता है तो भी वे अंधेरे में होते हैं। तो ये भी एक घाव है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से औऱ लोक कथाओं के रूप में हमारे समाज जीवन में है। 

प्रश्न- इतिहास को लेकर जो भ्रम है उसको कैसे दूर किया जा सकता है।

एक इतिहासकार होने के नाते मैं बोल रहा हूं कि हमें आगे बढ़ना चाहिए। पूर्व की बातों को लेकर बैठना नहीं चाहिए।लेकिन जब हम पूर्व की बातों पर लीपापोती करने लगते हैं तब हम देश को पीछे ढकेल रहे होते हैं। क्योंकि लोग तो और नई चीजें खोजने लगते हैं तो इससे कलह और बढ़ती है। 

प्रश्न- कहा जाता है कि जो आल्टरनेट व्यू वाले हिस्टोरियन मोदी के सत्ता में आने के बाद सक्रिय हुए। 

ये तो मीडिया की बदौलत है। आप लोग हमें ज्यादा फोकस देते हैं नहीं तो मैं 17 साल से लिख रहा हूं। तब मोदी जी शायद गुज़रात में मुख्यमंत्री थे। इसका सत्ता परिवर्तन से कोई संबंध नहीं है। हां, ये मानता हूं कि आज देश का माहौल बदला है। 2014 के बाद लोगों में सत्य जानने का वातावरण बना है। इतिहास एक ऐसा विषय है जहां अलग-अलग राय को पनपने के लिए जगह देनी चाहिए। ये विडंबना है कि जब हम परतंत्र थे तब इतिहास लेखन के लिए राष्ट्रवादी स्कूल अलाउड था। जब जेम्स मिल ने पहली बार ब्रिटिश इंडिया का इतिहास लिखा तो उसका खंडन करने के लिए महराष्ट्र से बहुत सारे लोगों ने गुमनाम पत्र लिखे। एक राष्ट्रवादी विचार धारा का इतिहास लेखन शुरू हुआ जिसमें सर जदुनाथ सरकार, आर सी मजूमदार, वी के रजवाडे, भंडारकर ये सारे लोग ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान थे। उनको पनपने के लिए आजादी थी। स्वतंत्रता के बाद जो राष्ट्रवादी स्कूल हैं उसको हाशिए पर डाल दिया गया। मार्क्सवादी इतिहासकारों का दबदबा बना।


Saturday, April 5, 2025

अज्ञान से उपजता अहंकार


इस वर्ष कई साहित्य उत्सवों में जाने का अवसर मिला। विभिन्न विषयों पर विभिन्न श्रोताओं को सुना भी। बहुत कुछ सीखने को मिला। एक साहित्य उत्सव में अजीब घटना घटी। एक सत्र में हिंदी उपन्यास पर चर्चा हो रही थी। चर्चा के दौरान उपन्यास की कथावस्तु पर बात होते-होते उसके आकार-प्रकार पर चली गई। इस चर्चा में तीन अलग अलग पीढ़ियों के उपन्यासकार थे। इनमें से एक कथित नई वाली हिंदी के युवा उपन्यासकार थे। एक वरिष्ठ पीढ़ी के उपन्यासकार ने समकालीन युवा लेखकों के उपन्यासों पर कहा कि आज तो सौ डेढ सौ पेज के उपन्यास लिखे जा रहे हैं। हलांकि उन्होंने इसके बाद आज के पाठकों की रुचि पर भी विस्तार से बोला लेकिन नई वाली हिंदी के उपन्यासकार का मन सौ डेढ़ सौ पेज पर ही अटक गया। उन्होंने जिस प्रकार की टिप्पणी की उससे लगा कि वो सौ डेढ सौ पेज वाली टिप्पणी से आहत हो गए हैं। यह बात सही है कि आजकल मोटे उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं। चंद्रकिशोर जायसवाल का चिरंजीव या दीर्घ नारायण का रामघाट में कोरोना आठ सौ से अधिक पृष्ठों का उपन्यास है। पर इस शताब्दी के आरंभिक वर्षों में अमरकांत का इन्हीं हथियारों से, भगवानदास मोरवाल का बाबल तेरे देस में, असगर वजाहत का कैसी आग लगाई जैसे चार पांच सौ पन्नों के उपन्यास प्रकाशित होते थे। अब ज्यादातर उपन्यास सौ से सवा सौ पेज का होता है। उस समय भी पतले उपन्यास प्रकाशित होते थे लेकिन इतने पतले नहीं होते थे कि मंचों पर उनकी चर्चा हो। 

सत्र में बैठे नई वाली हिंदी के उपन्यासकार इतने उत्तेजित हो गए कि उन्होंने कहा कि पुराने उपन्यासों को पढ़ने से क्या होता है, ना तो उनमें भारतीय समाज होता है और ना ही शहरी जीवन दिखता है। गांव और कस्बों की कहानियों में उलझा रहा हिंदी उपन्यास। इस क्रम में उन्होंने प्रेमचंद से लेकर रेणु और मोरवाल तक के नाम गिना दिए। वो इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद के उपन्यासों को पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। उनकी कृतियों को पढ़ा जाना चाहिए। उत्तेजना में तो वो यहां तक कह गए कि परंपरा आदि बेकार की बातें हैं और ये सब कोर्स के लिए ठीक हो सकती हैं, साहित्य के लिए नहीं। मामला उलझता इसके पहले ही संवादकर्ता ने बहुत चतुराई से विषय बदल दिया। लेकिन मेरे दिमाग में उनकी बात अटकी रह गई।

कुछ दिनों बाद एक अन्य साहित्य उत्सव में कविता पर हो रही एक चर्चा सत्र में बैठा कवियों को सुन रहा था। वहां भी इस बात की चर्चा होने लगी कि आज के कवियों को हिंदी कविता की परंपरा का ज्ञान है या नहीं। छह प्रतिभागी थे जिनमें से अधिकतर की ये राय थी कि परंपरा हमको रचना सिखाती है। यहां भी एक युवा कवि एकदम से ये मानने को तैयार नहीं थे कि परंपरा से साहित्य सृजन का कोई लेना देना है। वो यहीं पर नहीं रुके बल्कि आत्मप्रशंसा में जुट गए कि वो कितने महान हैं। उनकी कविताएं इंटरनेट ममीडिया पर कितनी लोकप्रिय होती हैं। उनको हजारों लाइक्स मिलते हैं आदि आदि। इस पैनल में ही एक और युवा कवि था। वो बार बार कहने का प्रयास कर रहा था कि परंपरा हमें बहुत सिखाती है। हम परंपरा को अगर जान पाएं तो हमें कविताएं लिखने में, शब्दों के चयन में, कविताओं में भावों को अभिव्यक्ति करने में मदद मिलती है। इससे रचने में बड़ा लाभ होता है। पर दूसरा युवा कवि सुनने को तैयार नहीं था। वो तो बस परंपरा को ही नकार रहा था। जोश में तो यहां तक कह गया कि हमें निराला और पंत से सीखने की क्या जरूरत है। अगर हम उनकी कविताएं अधिक पढ़ेंगे तो उनके जैसे ही लिखने लग जाएंगे, आदि आदि। इस सत्र की बातें सुनकर उपन्यास वाले सत्र का स्मरण हो उठा। सत्र के बाद ये सोचने लगा कि आज के कुछ युवा लेखक स्वयं को इतना महान क्यों समझते हैं। महान समझने को लेकर मैंने स्वयं को समझा लिया कि आत्मप्रशंसा हर अवस्था के लेखकों में पाई जाती है। यह विभिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करता है लेकिन परंपरा का नकार क्यों। अपने पूर्वज लेखकों की कृतियों को लेकर उपेक्षा भाव क्यों। इस बात का उत्तर नहीं मिल पा रहा था। 

इसी साहित्य उत्सव में अपने एक मित्र से दोनों घटनाओं की चर्चा की और बुझे मन से पूछा कि साहित्य की युवा पीढ़ी के कुछ लेखक क्यों सार्वजनिक रूप से ऐसा व्यवहार करते हैं। मित्र ने फटाक से कहा कि तुम नाहक इस बात को लेकर परेशान हो। जो लोग अपनी परंपरा को या पूर्वज लेखकों को नकारते हैं उन्हें न तो अपनी परंपरा का ज्ञान होता है और ना ही उन्होंने पूर्वज लेखकों की रचनाओं को ध्यान से पढ़ा है। आप इसको इस तरह से समझिए कि ज्ञान तो सीमित होता है जबकि अज्ञान असीमित होता है। जो चीज असीमित होती है उसके बारे में सोचकर किसी निष्कर्ष तक पहुंचना संभव नहीं है। परंपरा को समझने और उसको अपनी रचनाओँ में बरतने के लिए बहुत श्रम करना पड़ता है। परंपरा से जुड़े लेखन का संपूर्ण अध्ययन आवश्यक ना भी हो लेकिन उससे परिचय तो होना ही चाहिए। उन्होंने एक वाकया बताया। कुछ दिनों पहले महिला दिवस पर एक गोष्ठी का आयोजन हुआ था जिसका विषय था – रामचरितमानस और स्त्रियां। एक से एक धुरंधर वक्ता उसमें उपस्थित थीं। उनमें से एक ने बहुत जोशीला भाषण दिया। इसी क्रम में श्रीराम को सीता को त्यागने को लेकर कठघरे में खड़ा करने लगीं। एक श्रोता अचानक खड़े हो गए, कहा कि आपने ये कहां पढ़ लिया कि श्रीराम ने सीता का त्याग किया था। उन्होंने हंसते हुए कहा कि जब विषय ही रामचरितमानस है तो और कहां पढेंगी, वहीं पढ़ी है पूरी कहानी। इसपर श्रोता ने उनको आड़े हाथों लेते हुए खूब खरी खोटी सुना दी। कहा कि रामचरितमानस तो प्रभु श्रीराम  के राज्याभिषेक के साथ समाप्त हो जाता है। उसके बाद कागभुसुंडि और गरुड़ जी का संवाद है जिसको विद्वान मानस वेदांत कहते हैं। पर वो महिला नहीं मानीं। 

इन प्रसंगों को सुनने के बाद ये लगा कि हमारे समाज में भांति भांति के लोग हैं। भांति-भांति की भ्रांतियां हैं। इतिहास से लेकर साहित्य तक में भ्रम की स्थिति बनाई गई। इन्हीं भ्रम और भ्रांतियों का जब अज्ञान से मिलन होता है तो उससे अहंकार का जन्म होता है। यही अहंकार परंपरा को नकारता है। रचनात्मकता को कुंद करता है। हर दौर में इस प्रकार की घटनाएं होती होंगी परंतु इंटरनेट मीडिया के इस दौर में इस तरह की घटनाएं अधिक होने लगी हैं। युवा रचनाकार अपनी थोड़ी सी प्रशंसा पर स्वयं को निर्मल और अज्ञेय मानने लगते हैं। आज स्वयं को दिनकर और निराला से श्रेष्ठ मानने वाले कई कवि आपको फेसबुक पर नजर आएंगे। उनकी श्रेष्ठता बोध का आधार फेसबुक के लाइक्स हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी परंपरा को पहचानें, अध्ययन करें और स्वयं को उस परंपरा में रखकर देखें कि हम कहां हैं, अन्यथा इतिहास के बियावान में खोते समय नहीं लगता। 


Sunday, March 30, 2025

रजतपट की पहली रानी


कौन जानता था कि 1933 के उत्तरार्ध में लंदन से भारत आनेवाले दो युवा भारतीय हिंदी फिल्मों की दिशा बदलनेवाले साबित होंगे। ये दोनों थे हिमांशु राय और देविका रानी। हिमांशु राय और देविका रानी ने ना केवल भारत में फिल्म स्टूडियो की नींव रखी बल्कि उनको व्यावसायिक तरीके से चलाया भी। बांबे टाकीज ने हिंदी फिल्मों को कई चमकदार सितारे दिए। एक तरफ जहां हिमांशु राय ने अशोक कुमार के अंदर फिल्म अभिनेता बनने की संभावनाएं देखीं। उनको अपनी फिल्म में काम देकर सफलतम अभिनेताओं में एक बनने का अवसर प्रदान किया। वो अशोक कुमार जिनकी मां ने उनको लड़कियों से दूर रहने की हिदायत दी थी, वो अशोक कुमार जो अपनी पहली फिल्म में अपनी अभिनेत्री के गले में हार नहीं पहना पा रहे थे क्योंकि वो इस बात पर नर्वस थे कि हीरोइन उनको छू न दे। इसी तरह से देविका रानी ने हिंदी फिल्म को दिलीप कुमार जैसा अभिनेता दिया। अपने पति हिमांशु राय के निधन के बाद देविका रानी बांबे टॉकीज चला रही थीं। फिल्म ‘किस्मत’ को लेकर अशोक कुमार और अमिय चक्रवर्ती में विवाद हुआ और अशोक ने बांबे टॉकीज छोड़ दिया। ये बांबे टॉकीज के लिए बड़ा झटका था। जब अशोक कुमार बांबे टॉकीज छोड़ गए तो देविका रानी किसी नए हीरो की खोज में जपुट गईं। कई जगह इस बात की चर्चा मिलती है कि देविका रानी ने दिलीप कुमार को नैनीताल के फल मार्केट में देखा। वहीं उनको मुंबई में मिलने को कहा। परंतु दिलीप कुमार अपनी आत्मकथा, ‘द सब्सटेंस एंड द शैडो’ में अलग ही कहानी बताते हैं। एक दिन बांबे (अब मुंबई) के चर्चगेट पर उनकी भेंट मनोविज्ञानी डा मसानी से होती है। बातों बातों में डा मसानी ने बताया कि वो बांबे टॉकीज की मालकिन से मिलने जा रहे हैं। दिलीप कुमार जो तब युसूफ खान थे, मसानी के साथ हो लिए। मसानी ने युसूफ खान का परिचय देविका रानी से  करवाया और साथ लाने का उद्देश्य बताया। देविका रानी ने युसूफ से पूछा क्या आप उर्दू जानते हैं। फिर पूछा कि क्या आप सिगरेट पीते हैं और अगला प्रश्न था कि क्या कभी अभिनय किया है।  सभी उत्तर सुनने के बाद देविका रानी ने पूछा कि क्या आप अभिनय करना चाहते हैं। जवाब आया हां। देविका रानी ने युसूफ खान के सामने 1250 प्रतिमाह के वेतन का प्रस्ताव दे दिया। उनको इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था कि 1250 प्रतिमाह वेतन मिलेगा। ये वो समय था जब हीरो मासिक वेतन पर काम किया करते थे। अगले दिन जब वो काम पर पहुंचे तो देविका रानी ने युसूफ खान का नाम बदलने का प्रस्ताव किया। उन्होंने युसूफ खान के सामने तीन नाम रखे- जहांगीर, वासुदेव और दिलीप कुमार। देविका रानी को दिलीप कुमार नाम पसंद था क्योंकि ये अशोक कुमार से मिलता जुलता था। जाहिर सी बात है कि दिलीप कुमार के नाम पर ही सहमति बनी। 

लंदन से भारत लौटने के तीन साल बाद देविका रानी ने अशोक कुमार के साथ अछूत कन्या फिल्म की। स्वाधीनता संग्राम के इस दौर में अस्पृश्ता पर गांधी निरंतर प्रहार कर रहे थे। ऐसे समय में अछूत कन्या फिल्म ने इस विमर्श को बल दिया। माना जाता है कि देविका रानी के अभिनय के कारण ये फिल्म बेहद सफल रही थी। आज भी इसको क्लासिक फिल्म माना जाता है। कुछ फिल्म समीक्षकों ने तो देविका रानी के इस रोल की तुलना ग्रेटा गार्बो के अभिनय से की थी। ये अकारण नहीं है कि देविका रानी को हिंदी फिल्मों में वही रुतबा हासिल है जो हालीवुड में ग्रेटा गार्बो को है। इस फिल्म की एक और विशेषता रही है। इसमें देविका रानी और अशोक कुमार ने गाना भी गाया है। इन्होंने अलग अलग भी अपने गाने गाए और देविका रानी और अशोक कुमार का एक युगल गीत भी है, मैं बन की चिड़ियां...। इस गाने की रिकार्डिंग के समय काफी दिक्कत हुई थी। अशोक कुमार और देविका रानी को जिस तरह से म्यूजिक डायरेक्टर सरस्वती देवी गवाना चाहती थीं वो हो नहीं पा रहा था। इसके अलावा 1937 में देविका रानी ने एक और फिल्म में अभिनय किया था जिसका नाम है सावित्री। इस फिल्म में भी देविका रानी का अभिनय उत्कृष्ट रहा। सावित्री और सत्यवान की कहानी हमारे देश के लोक में व्याप्त है। उस रोल को पर्दे पर सफलतापूर्वक निभाना बड़ी चुनौती थी। देविका ने वो चुनौती स्वीकार की। 1933 में पहली फिल्म कर्मा से आरंभ करें तो देविका रानी के खाते में 15 फिल्में हैं लेकिन बांबे टाकीज में हिमांशु राय के साथ उनका काम बहुत महत्वपूर्ण है। देविका रानी ने स्वभाव से बेहद बिंदास और खुले विचारों की थीं। हिमांशु राय से प्रेम विवाह किया। बांबे टाकीज के दौरान एक साथी कलाकार के साथ उनका नाम जुड़ा। हिमांशु के निधन के बाद फिर उन्होंने विवाह किया और कुछ समय तक बांबे टाकीज को चलाया। उसके बाद कुछ दिनों तक मनाली में रहीं और फिर बेंगलुरू के पास अपने फार्म हाउस में अपना जीवन बिताया। जब दादा साहेब फाल्के पुर्साकर की स्थापना हुई तो पहले पुरस्कार के लिए देविका रानी का चयन हुआ। भारत सरकार ने उनको पद्मश्री से भी अलंकृत किया। 


Saturday, March 29, 2025

इतिहास में दौड़ते कल्पना के घोड़े


समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सदस्य रामजीलाल सुमन के राणा सांगा और बाबर पर संसद में दिए बयान पर बवाल मचा हुआ है। सुमन ने कहा था कि राणा सांगा ने बाबर को भारत पर हमले के लिए आमंत्रित किया। वो इतने पर ही नहीं रुके बल्कि राणा सांगा को लेकर एक अभद्र टिप्पणी भी कर दी। इस बयान के बाद समाजवादी पार्टी और उसके सहयोगी दलों से समानुभूति रखने वाले बौद्धिकों ने इसको उचित ठहराना आरंभ कर दिया। चैटजीपीटी और एआई के सहारे ये साबित करने की कोशिश की जाने लगी कि इस प्रसंग का उल्लेख बाबर ने अपने संस्मरणों की किताब बाबरनामा में किया है। अनुदित बाबरनामा की प्रामाणिकता को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। आगे बढ़ने से पहले बाबरनामा के बारे में थोड़ी चर्चा कर लेते हैं। बाबरनामा तुर्की भाषा में लिखा गया था। 1590 में अकबर के शासनकाल के दौरान अब्दुरर्हीम खानखाना ने इसका फारसी में अनुवाद किया। 1826 में इसका अंगेजी में अनुवाद हुआ जिसको लायडन और इर्सिकन ने किया। इसके बाद फ्रांसीसी भाषा में भी इसका अनुवाद हुआ। ये सभी अनुवाद मूल से नहीं होकर फारसी से हो रहे थे। इसके बाद ए एस बेवरेज ने मूल तुर्की से अंग्रेजी में अनुवाद किया जो अपेक्षाकृत प्रामाणिक माना गया। मजे की बात ये है कि बाबरनामा में राणा सांगा का उल्लेख उस समय नहीं होता है जब बाबर भारत पर बार-बार आक्रमण कर रहा था। बाबरनामा में 1519 से लेकर 1525 तक की एंट्री नहीं है या वो उपलब्ध नहीं है। कुछ भाषा के अनुवाद में राणा सांगा का प्रसंग नहीं है लेकिन जिसमें है वो पुस्तक में बहुत बाद में आता है। जहां लिखा गया कि राणा सांगा ने बाबर के पास एक दूत भेजा था और कहा था कि आप उत्तर से आक्रमण करो हम पश्चिम से करेंगे। लेकिन इस दूत वाली कहानी की प्रामाणिकता पर कई इतिहासकार संदेह जता चुके हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रकाशित पुस्तक मध्यकालीन भारत, जिसकी भूमिका सैयद नुरुल हसन ने लिखी है, में इस बात का उल्लेख है कि- ‘तारीख के बारे में निश्चयपूर्वक भले ही न कहा जा सके पर यही वो समय था जब बाबर को राणा सांगा का आमंत्रण मिला था। इस आमंत्रण का उल्लेख केवल बाबर ने ही किया है और अन्य किसी साक्ष्य से इसकी पुष्टि नहीं होती।‘ (पृ. 283) यही बात अन्य इतिहासकार भी करते रहे हैं। इतिहासकार जी एन शर्मा ने भी राणा के दूत वाली कहानी पर संदेह व्यक्त करते हुए अपनी पुस्तक मेवाड़ और मुगल सम्राट में लिखा है कि बाबर ने राणा सांगा को शक्तिशाली समझते हुए उनकी मित्रता और सहायता प्रात करने के लिए अपना दूत चित्तौड़ भेजा था। इनके अपने तर्क हैं। किस तरह से इतिहास को विकृत किया गया और भ्रामक अनुवाद के आधार पर तरह तरह की भ्रांतियां फैलाई गईं उसका उदाहरण भी इतिहास की पुस्तकों में उपस्थित है। इतिहासकार रोमिला थापर की एक पुस्तक है भारत का इतिहास। इसमें थापर लिखती हैं, केवल अफगानों ने ही बाबर को सहयाता नहीं दी, एक राजपूत राजा भी दिल्ली से राज्य करने का स्वप्न देख रहा था और उसने बाबर से संधि कर ली। चार पृष्ठ के बाद फिर से राणा सांगा और बाबर का उल्लेख रोमिला थापर करती हैं, ‘1509 में राणा सांगा मेवाड़ का राजा बना और दिल्ली की सत्ता का विरोध करने लगा...सांगा ने दिल्ली पर आक्रमण का विचार किया। सांगा ने इब्राहिम लोदी के विरुद्ध बाबर से मैत्री कर ली और इस बात पर सहमत हो गया कि जब बाबर दिल्ली पर उत्तर से आक्रमण करेगा तो वह दक्षिण और पश्चिम से कर देगा।‘ अब देखिए कैसे इतिहास को बदलने का खेल खेला जाता है। अगर बाबरनामा के अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर हम ये मान भी लें कि राणा सांगा ने बाबर के पास दूत भेजा था तो उससे ये कहां से सिद्ध होता है कि दोनों के बीच संधि और मैत्री हो गई जिसका दावा थापर कर रही हैं। संधि और मैत्री का अर्थ तो थापर को ज्ञात ही होगा। 

इस प्रसंग पर एक और इतिहासकार सतीश चंद्रा की राय देख लेते हैं। सतीश चंद्रा की लिखी ये पुस्तक लंबे समय तक ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ाई जाती रही है। वो लिखते हैं कि इसी समय बाबर को दौलत खां के पुत्र दिलावर खां ने भारत आने का निमंत्रण दिया और आग्रह किया कि वो इब्राहिम लोदी को सत्ता से हटाने में मदद करें क्योंकि वो तानाशाह है। अब इसकी जो अगली पंक्ति है वो बहुत महत्वपूर्ण है। सतीश चंद्रा लिखते हैं, ये संभव है कि इसी समय राणा सांगा का भी एक दूत बाबर के पास पहुंचा और उनको भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया। अब इस पूरे वाक्य से एक इतिहासकार का छल सामने आ जाता है। सतीश चंद्रा के पास इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि राणा सांगा का दूत बाबर के पास पहुंचा था। संभव लगाकर उन्होंने पाठ्य पुस्तक में ये बात लिख दी। इस संभावित मुलाकात, जिसका कोई प्रमाण नहीं है, को वर्षों से ग्यारहवीं के विद्यार्थियों को पढ़ाया जा रहा है। उनके मानस पर तथ्यहीन बात अंकित की जा रही है। इतिहास संभावनाओं के आधार पर नहीं उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर लिखा जाता है। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने तो इतिहास लेखन में भी साक्ष्य की अनदेखी करके एजेंडा को प्राथमिकता दी। इसी पुस्तक में सतीश चंद्रा जब खानवा युद्ध के बारे में लिखते हैं तो बताते हैं कि राणा सांगा की वीरता की कहानियां सुनकर बाबर के सैनिकों का मनोबल गिरा हुआ था। सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए बाबर ने राणा सांगा के खिलाफ युद्ध को जेहाद घोषित किया। उसने युद्ध आरंभ करने के पहले शराब की सभी बरतनों को तोड़ डाला ताकि वो अपने सैनिकों को भरोसा दिला सके कि वो कट्टर मुस्लिम है और जेहाद के पहले शराब छोड़ रहा है। जिससे युद्ध के लिए बाबर को धर्म का सहारा लेना पड़ा हो उससे मैत्री और संधि कैसे हो सकती थी। वो भी चंद महीने पहले। कुछ मार्क्सवादी इतिहासकार ये तर्क देते हैं कि बाबर ने जब लोदी को पराजित कर दिया तो उसने भारत में रहने का निर्णय लिया। इससे राणा सांगा नाराज हो गए। क्या तथाकथित संधि में इस बात का उल्लेख था कि बाबर इब्राहिम लोदी को हराकर लौट जाएगा। रोमिला थापर जैसी इतिहासकार को ये भी बताना चाहिए था। 

हमारे देश के इतिहास के साथ स्वाधीनता के बाद के मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इतने तथ्यों को छिपाया और इतने तथ्यों को गढ़ा जिसने भारतीय इतिहास की सूरत और सीरत दोनों बिगाड़ दी है। आज हमारे देश के नायक पर संसद में अशोभनीय टिप्पणी की जा रही है तो उसके लिए ये इतिहासकार ही जिम्मेदार हैं। आज अगर भारत के मध्यकालीन इतिहास को लेकर भ्रम का वातावरण बना है तो उसके लिए भी अर्धसत्य लिखनेवाले ये इतिहासकार ही जिम्मेदार हैं। अगर आप 1946 में प्रकाशित नेहरू की पुस्तक डिस्कवरी आफ इंडिया पढ़ लेंगे तो अनुमान हो जाएगा कि मार्क्सवादी इतिहासकारों ने मुगल आक्रांताओं को नायक बनाने का प्रयास क्यों किया। आज आवश्यकता है कि इतिहास को साक्ष्यों के आधार पर लिखा जाए संभावनाओं के आधार पर नहीं। 


Sunday, March 23, 2025

तमिल को हिंदी नहीं अंग्रेजी से खतरा- शास्त्री


राष्ट्रीय शिक्षा नीति के त्रिभाषा फार्मूले को लेकर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन निरंतर गैर हिंदी भाषी प्रदेशों पर हिंदी थोपने का आरोप लगा रहे हैं। संसद में भी इस आरोप पर हंगामा हुआ और गृहमंत्री अमित शाह ने पलटवार करते हुए स्टालिन की पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पर भाषा के नाम पर समाज में जहर घोलने का आरोप लगाया। शिक्षा मंत्रालय में एक भारतीय भाषा समिति कार्य करती है जो सभी भारतीय भाषाओं के प्रोन्नयन के लिए मंत्रालय को सुझाव देती है। हिंदी को लेकर उठ रहे विवादों के बीच शिक्षा मंत्रालय में भारतीय भाषा समिति के अध्यक्ष प्रो चमू कृष्ण शास्त्री से राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हिंदी और भारतीय भाषाओं की स्थिति, हिंदी थोपने के आरोप और त्रिभाषा फार्मूले के क्रियान्वयन पर एसोसिएट एडीटर अनंत विजय ने उनसे बातचीत की।  

प्रश्न- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में त्रिभाषा फर्मूला क्या है जिसको लेकर इतना विवाद हो रहा है? 

त्रिभाषा सूत्र सबसे पहले 1968 में आया था। उसको ही वर्ष 1986 की शिक्षा नीति में दोहराया गया जो कि वर्ष 2019 तक चला। त्रिभाषा सूत्र में फर्स्ट लैंग्वेज यानी पहली भाषा मातृभाषा, दूसरी भाषा अंग्रेजी, तीसरी भाषा हिंदी राज्यों में अन्य किसी राज्य की भाषा और अन्य अहिंदी भाषी राज्यों में हिंदी भाषा होती थी। त्रिभाषा का सारांश यह था। वर्ष 2020 में पहली बार त्रिभाषा सूत्र के बारे में यह कहा गया कि यह आगे भी प्रचलित रहेगा। हालांकि उसमें राज्यों व छात्रों की आकांक्षाएं, प्रादेशिक आवश्यकताएं और संविधानसम्मत प्रविधान को ध्यान में रखते हुए सभी राज्य अपना त्रिभाषा सूत्र का क्रियान्वयन करेंगे। एक तरह से इसे इतना लचीला बनाया गया, जिसमें कोई प्रिस्क्रिप्शन नहीं है। यानी किसी भी भाषा विशेष के लिए कोई निर्देश नहीं दिया गया। शिक्षा की दृष्टि से देखें तो स्वाधीन भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है। 

प्रश्न- आपकी बातों से तो ऐसा प्रतीत होता है कि त्रिभाषा फार्मूले में हिंदी की अनिवार्यता नहीं है? 

बिल्कुल नहीं। हिंदी की अनिवार्यता नहीं है परंतु साथ ही अंग्रेजी की अनिवार्यता भी नहीं है। यदि आप देखेंगे तो पाएंगें कि पूरे देश में हिंदी से ज्यादा यदि कोई एक भाषा पढ़ी जाती है तो वह अंग्रेजी है। दूसरी भाषा के रूप में पूरे देश में अंग्रेजी ही पढ़ाई जाती है। एक दृष्टि से अंग्रेजी की अनिवार्यता को भी खत्म किया गया। यह पहली बार हुआ। बेशक, त्रिभाषा फार्मूला नीति है, लेकिन इसके क्रियान्वयन के लिए तीन साल तक नेशनल या स्टेट एजुकेशन बोर्ड और अन्य भागीदारों की मदद से कैरिकुलम फ्रेम वर्क (पाठ्यक्रम) बनाया गया। इसे स्कीम आफ स्टडीज कहते हैं। इस पर फिर तीन साल काम किया गया। वर्ष 2023 में नेशनल कैरिकुलम फ्रेमर्वक बना। इस स्कीम आफ स्टडीज में किसी भाषा विशेष का उल्लेख न करते हुए उसे समभाव तरीके से परिभाषित किया गया। एक नए सोच को सामने रखते हुए पहली, दूसरी और तीसरी भाषा की जगह आर-1, आर-2 और आर-3 शब्द  का प्रयोग किया गया। साक्षरता की शुरूआत रीडिंग से होती है...यानी पढ़ने से।  आर-1 में मातृभाषा या राज्य की भाषा को स्थान दिया गया। इसमें मातृभाषा और राज्य दोनों को रखा गया क्योंकि यह जरूरी नहीं कि मातृभाषा और राज्य भाषा एक हो। दोनों अलग-अलग हो सकते हैं। आर-2 में आर-1 के अलावा कोई भी भाषा, आर-3 में आर-1 और आर-2 के अलावा कोई भारतीय भाषा। दरअसल, होता क्या था कि वर्ष 2020 से पहले बच्चे थर्ड लैंग्वेज के रूप में फ्रेंच, जर्मन या अंग्रेजी पढ़कर आगे निकल जाते थे। राज्यों में तो ऐसा नहीं हो पाता था, लेकिन  सीबीएएसई में इस तरह से किया जाता था। अब नई शिक्षा नीति के तहत ऐसा नहीं हो पाएगा। सबसे अहम यह है कि अब हर विद्यार्थी को दो भारतीय भाषा अनिवार्य रूप से सीखनी होगी। अब बताइए, कि इसमें हिंदी कहां थोपी गई है ? वर्तमान सरकार ने सर्वसमावेशक, सार्वभौमिक व सार्वदेशिक भाषा नीति अपनाई है।

प्रश्न- आर-1, आर-2,आर-3 उत्तर प्रदेश और बिहार में कैसे लागू होगा? कौन कौन सी भाषाएं छात्र चुन सकते हैं। 

सिर्फ उप्र ही नहीं बल्कि हिंदी भाषी 10 राज्यो में यह चुनौती है। बिहार- उत्तर प्रदेश में मगधी, अवधी, भोजपुरी जैसी भाषा है। दरअसल, नई शिक्षा नीति के तरह बहुभाषिता को बढ़ावा देना ही प्राथमिकता है। अन्य प्रदेश की एक भाषा सीखना है। अब सवाल यह है कि यह कैसे सीखेंगे? आनलाइन सीख सकते हैं। समर वेकेशन में अन्य राज्य में जाकर भाषा सीख सकते हैं। स्कूलों द्वारा 15 दिनों का क्रैश कोर्स शुरू किया जा सकता है। एक राज्य के स्कूल दूसरे राज्यों के स्कूलों से पेयरिंग कर सकते हैं। क्लस्टर बना सकते हैं। इसी तरह अंतरराज्यीय यानी कुछ दिनों के लिए वहां जाकर रहकर भी बच्चे एक भारतीय भाषा सीख सकते हैं। इससे आत्मीयता बढ़ेगी या एकता बढ़ेगी। 

प्रश्न- क्या यह व्यवहारिक है? संसाधन कहां से लाएंगे? उप्र, बिहार जैसे राज्यों में जहां शिक्षकों की भारी कमी है, वहां नई भाषा सीखाने के लिए शिक्षक कैसे मिलेंगे? 

ये सब हो जाएगा अगर इससे राजनीति निकल जाएगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लेकर जितनी भ्रांतियां हैं उसको पहले दूर करना होगा। इस शिक्षा नीति में सबकुछ सुझाव मात्र है, सजेस्टिव है, निर्णय तो राज्य सरकारों को ही करना है, क्रियान्वयन भी।

प्रश्न- फिर इतना विरोध क्यों हो रहा है? हिंदी थोपने की बात कहां से आई?राष्ट्रीय  शिक्षा नीति में तो कहीं भी हिंदी शब्द तक का उपयोग नहीं किया गया? वह भी चार साल बाद इसके विरोध का क्या औचित्य? 

देखिए, राजनीति मेरा विषय नहीं है। मैं भाषाविद् हूं। मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भाषा नीति को लेकर जो सोच है और इसको उन्होंने प्रकट भी किया है कि सभी भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय भाषाएं हैं। तमिल संगमम जैसे कार्यक्रम के जरिये तमिल भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर लेकर आए। अब तक अलगाववादी ताकतों व विभाजनकारी सोच रखने वाले तत्वों द्वारा भाषा का उपयोग समाज और देश को तोड़ने के लिए किया जाता रहा है। प्रधानमंत्री ने इसी भाषा को समाज व देश को आपस में जोड़ने का साधन बनाया। भाषाओं के बीच में जो आत्मीयता है, उसका उपयोग किया। उनका कहना है भारत में अलग-अलग भाषा बोलने वालों के बीच जो आत्मीयता है, यह आत्मीयता ही एकता का निर्माण करती है। विविधता सौंदर्य है, एकता शक्ति है। विविधता का सौंदर्य एकता की शक्ति के आधार पर ही सुदीर्ष काल जीवंत और विकसित रह सकता है। एकता की शक्ति के बिना यह विविधता टिक नहीं सकती है। आत्मीयता, विविधता और एकता...यही भारतीयता है। इससे ही लाखों सालों से भारत एक राष्ट्र के नाते अडिग रहा। भारत राष्ट्र के नाते सब प्रकार के विदेशी आक्रमणों को झेलते हुए भी एक रहा। सभ्यता पर आक्रमण के साथ-साथ वैचारिक आक्रमण भी हुआ। अब जब प्रधानमंत्री की भाषा नीति से एकता का सूत्र और सुदृढ़ हो रहा है, तो कुछ अलगाववादी तत्व भाषा को साधन बना रहे हैं। आने वाले समय में चुनाव भी होने वाले वाले हैं। हो सकता है विरोध का यही कारण हो। 

प्रश्न- आपने अभी तमिल संगमम का नाम लिया...कहा जाता है कि ये कार्यक्रम आपका ब्रेन चाइल्ड है? 

(हंसते हुए) नहीं...नहीं। ऐसा नहीं है। 

प्रश्न-आपने प्रधानमंत्री का नाम जरूर लिया, लेकिन कहा जाता है कि प्रस्ताव आपका था। सच्चाई क्या है? 

सच्चाई यही है कि विचार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का है। शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने इसे दिशा दिया और भारतीय भाषा समिति ने संयोजक के रूप में मैंने इसे क्रियान्वित किया। 

प्रश्न- क्या तमिल संगमम जैसे आयोजन से कोई फायदा हुआ? 

निश्चित रूप से लाभ हुआ। की के अलावा गुजरात के सौराष्ट्र में भी तमिल संगमम का आयोजन किया गया। दरअसल, लगभग 500 साल पहले गुजरात के जो लोग तमिलनाडु के जाकर बसे, वे सौराष्ट्री कहलाते हैं। उनके लिए आयोजन किया गया। 

प्रश्न- क्या श्रीनगर में भी भारतीय भाषाओं को लेकर आप लोगों ने कुछ किया था? 

जम्मू-कश्मीर सहित सभी राज्यों में भारतीय भाषा संगम कार्यक्रम किया था। इस आयोजन में उस राज्य में अलग-अलग भाषा बोलने वाले लोग एक दिन एक मंच पर एकत्रित होते हैं और अपनी-अपनी बात रखते हैं। इसके अलावा मोदी सरकार ने भारतीय भाषा उत्सव शुरू किया। महाकवि सुब्रह्रमणयम भारती के जन्मदिवस (11 दिसंबर) पर भारतीय भाषा उत्सव के रूप में मनाना शुरू किया। काशी विश्वविद्यालय में कवि सुब्रह्रमणय भारती के नाम से एक चेयर की स्थापना भी की गई। 

प्रश्न- तमिलनाडु सरकार को फिर क्या परेशानी है, सभी जगह अगर ऐसा होगा तो वहां भी होगा। 

देखिए, तमिलनाडु में वर्ष 1965-1968 से कभी न कभी हिंदी विरोध की आवाज उठती रहती है। सही मायने में मैं इसे हिंदी विरोधी नहीं बल्कि यह हिंदू समाज विरोधी आंदोलन कहना चाहूंगा। वह द्रविड़ राज्य बनाने का आंदोलन था। द्रविड़ अलग है...आर्य अलग है। इसको बढ़ावा देने के लिए वहां टू लैंग्वेज यानी द्विभाषा फर्मूला रखा गया। इसके तहत वे तमिल और अंग्रेजी ही पढ़ाते हैं। तमिलनाडु में 12 प्रतिशत लोग गैर तमिलभाषी है। यह 14 अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं। इससे समस्या यह होती है कि तमिलनाडु के 12 प्रतिशत विद्यार्थी अपनी मातृभाषा नहीं सीख पाते हैं। यह  बड़ा अन्याय है। दूसरी, बड़ी परेशानी यह है कि एक और भारतीय भाषा नहीं जानने के कारण यहां के युवा राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित प्रतियोगी परीक्षा और दूसरे राज्यों में नौकरी के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षाओं से वंचित रह जाते हैं। तीसरी परेशानी, तमिलनाडु से अलग-बगल के राज्यों में काम करनेवाले मजदूरों को भाषा की परेशानी होती है। वहीं, दूसरे राज्यों से यहां आने वाले कर्मचारियों व मजदूरों के बच्चे भी अपनी भाषा नहीं सीख पाते हैं। दरअसल, यह तमिलनाडु को देश के अन्य राज्यों से काटने का एक प्रयास है। भाषा के नाम पर अकारण विवाद खड़ा करके तमिनलाडु को एक अलग द्वीप बना रहे हैं। चेन्नई के 44 प्रतिशत गैर तमिलाभाषी हैं। उनके साथ अन्याय हो रहा है। केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र से सटे राज्यों की  सीमाओं पर सदियों से बसे गैर तमिलभाषी भी अपनी मातृभाषा पढ़ नहीं पा रहे हैं, सीख नहीं पा रहे हैं। 

प्रश्न - तो असली चुनौती क्या है? भारतीय भाषा समिति इसे कैसे देखती है?

देश में द्वि या त्रिभाषा फार्मूला से कहीं ज्यादा बड़ा व अहम मुद्दा है शिक्षा की 'माध्यम भाषा'। असली लड़ाई तो मातृभाषा माध्यम या भारतीय भाषा माध्यम और अंग्रेजी माध्यम के बीच है। वर्ष 2011 में तमिलनाडु में बारहवीं में 65 प्रतिशत विद्यार्थी तमिल माध्यम में पढते थे। वर्ष 2021 तक यह आंकड़ा 54 प्रतिशत तक आ गया। अब यह घटकर 47 प्रतिशत हो गया। तमिल का नुकसान हिंदी की वजह से नहीं बल्कि अंग्रेजी माध्यम की वजह से हो रहा है। यही हाल पूरे देश का है। देशभर के प्राइवेट स्कूलों में 65 प्रतिशत विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे हैं। सरकारी, अनुदान प्राप्त और निजी स्कूलों को मिला लें तो आंकड़ा निकाले तो 35 प्रतिशत विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे हैं। हर साल डेढ़ से दो करोड़ विद्यार्थी मातृभाषा या राज्यभाषा से आंग्रेजी माध्यम में 'माइग्रेट' हो रहे हैं। मैं अपने परिवार का उदाहरण देता हूं। मेरे परिवार में हम लोग नौ भाई-बहन हैं। दो को छोड़कर शेष सात भाई-बहन के परिवारों में उनके बच्चे मातृभाषा में पढ़-लिख नहीं सकते हैं क्योंकि वह अंग्रेजी भाषा में पढ़े हैं। उनका सोचना, लिखना-पढ़ना सबकुछ अंग्रेजी भाषा में हो रहा है। वह अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। अंग्रेजी भाषा का एक प्रवाह है। हायर एजुकेशन और आइआइएम, आइआइटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान अंग्रेजी माध्यम से है। यह क्यों है ? इसलिए, क्योंकि इकोसिस्टम अंग्रेजी माध्यम में है। कोर्ट, प्रशासन, व्यापार, उद्योग, साइंस-टेक्नोलाजी सब जगह अंग्रेजी माध्यम में ही काम हो रहा है। एक गांव का बच्चा यदि चिप्स का एक पैकेट भी खरीदता है तो उसके सामने पैकेट पर अंग्रेजी में लिखा शब्द आता है। पूरा इको सिस्टम ही अंग्रेजी माध्यम के नीचे दबता जा रहा है। स्थिति भयावह है। 

प्रश्न- तो आगे रास्ता क्या है, कैसे और क्या करना होगा? 

अंग्रेजी के इकोसिस्टम को बदलकर भारतीय भाषाओं का इकोसिस्टम बनाना होगा।  

 प्रश्न- राष्ट्रीय शिक्षा नीति कब तक इम्प्लीमेंट हो सकेगा? पांच साल तो निकल गया है? 

कूरिकुलम फ्रेमवर्क बन रहा है। दो-तीन साल में क्रियान्वयन हो जाना चाहिए।   

 प्रश्न- क्या आपको नहीं लगता कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति का क्रियान्वयन धीमी गति से चल रहा है। 

देर इसलिए हो रही है क्योंकि सभी को लेकर काम करना है। कांग्रेस की सरकार के दौरान सबको लेकर चलना जरूरी नहीं होता था,लेकिन वर्तमान सरकार में सभी को साथ मिलाना जरूरी है। सिर्फ पाठ्यक्रम बदलना ही काम नहीं है बल्कि मानसिकता बदलना भी जरूरी है। इसमें भारतीय दृष्टिकोण और उस विषय में भारतीय इतिहास को जोड़ना है। इस पाठ्यक्रम के आधार पर जो पढ़कर आगे बढ़ेंगे, वह भारत की जड़ों से जुड़ेंगे। इसलिए समय लग रहा है। अभी तक समझाया गया कि भाषा और संस्कृति अलग-अलग है, लेकिन ऐसा नहीं है। भाषा और संस्कृति एक ही है। उनकी अभिव्यक्ति अलग-अलग है। मूल तत्व एक है। यह भी पढ़ाना है। अब तक जो-जो गलत सिखाया गया, उसे भी सुधारना है। 

प्रश्न-यानी भाषा के साथ-साथ संस्कृति से जोड़ना ही उद्देश्य है?   

बिलकुल। कर्नाटक के गांव में आज भी एक व्यवस्था है। वहां खाने से पहले व्यक्ति घर के सामने खड़े होकर कहते हैं कि गांव में कोई भूखा है तो वह हमारे घर पर आकर खाना खाएं। यह पंरपरा आज भी कुछ जगहों पर हैं। यह जीवन व्यवस्था में लाना है।   

प्रश्न- भाषा के विकास के लिए क्या करना चाहिए? 

इसके लिए सात चीजें जरूरी है। उस भाषा में बोलने वाले लोग हों, माध्यम भाषा के रूप में प्रयोग हो,.समकालीन शब्द निर्माण, एडाप्टेशन आफ टेक्नोलाजी, टीचींग-लर्निंग, सर्टिफिकेशन और पैट्रनेज (स्टेट या कार्पोरेट)। एडाप्टेशन आफ टेक्नोलाजी की जरूरत को इस तरह से समझा जा सकता है कि दुनिया में 6000 भाषाएं थीं, लेकिन जिनका उपयोग प्रिटिंग में नहीं हुआ, वह खत्म हो गए। सर्टिफिकेशन से आशय यह है कि अंग्रेजी की प्रोफेशिएंसी (योग्यता) परीक्षण के लिए टोफेल की परीक्षा होती है, लेकिन भारतीय भाषाओं के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं है। इन सात आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए हर राज्य में बहुभाषिता को बढ़ना देना चाहिए।  हिंदी राष्ट्रभाषा है ऐसा मानकर लड़ रहे हैं। जबकि प्रधानमंत्री बार-बार कह रहे हैं सभी भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय भाषा हैं। दरअसल, भाषाओं को अलग-अलग वर्गों में बांटकर बहुत नुकसान पहुंचाया गया।  

Saturday, March 22, 2025

रील्स की मायावी दुनिया और साहित्य


इन दिनों रील्स और उसके कटेंट की अच्छे और बुरे कारणों से खूब चर्चा होती रहती है। रील्स देखना भी लोकप्रिय होता जा रहा है। चकित करने वाली बात ये है कि रील्स के विषयों का फलक इतना व्यापक है कि वो किसी को भी घंटों तक रोके रख सकता है। अब तो स्थिति ये हो गई है कि रील्स में दिखाई गई बातों को सत्य माना जाने लगा है। रील्स की दुनिया में भविष्यवक्ताओं की बाढ़ आई हुई है। कोई आपके नाम के आधार पर तो कोई आपके नाम में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या को जोड़कर आपका भविष्य बता रहा है। कई महिलाएं भी भविष्य के बारे में बात करती नजर आएंगी। वो भी बता रही हैं कि कैसे शुक्रवार को पति के साथ व्यवहार करने से लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं। कोई बताती हैं कि पत्नी को हर दिन पति के पांब दबाने चाहिए। क्योंकि लक्ष्मी जी भी विष्णु जी के पांव दबाती हैं। कोई महिला ये बताती है कि अमुक अंक लिखकर अपने घर की तिजोरी में रख दो या अमुक नंबर के नोट अगर आपने अपने घर में पैसे रखने के स्थान पर रख दिया तो पैसौं की कमी नहीं होगी। इतना ही नहीं रील्स की दुनिया में बिजनेस करने के तौर तरीकों और और जमाधन को दुगुना और तिगुना करने के नुस्खे भी बताए जाने लगे हैं। ये सब इतने रोचक अंदाज में बताया जाता है कि देखनेवाला मोबाइल से चिपका रहता है। आमतौर पर यह देखा जाता है कि अगर रील्स देखना आरंभ कर दें तो घंटे दो घंटे तो ऐसे ही निकल जाते हैं। कहना न होगा कि रील्स की दुनिया एक ऐसी मनोरंजक दुनिया है जो लोगों को बेहतर भविष्य का सपना भी दिखाती है। लोगों को पैसे कमाने से लेकर घर परिवार की सुख समृद्धि के नुस्खे बताती है। ये नुस्खे कितने सफल होते हैं ये पता नहीं क्योंकि इस तरह का कोई रील देखने में नहीं आता है कि फलां नुस्खे ये उनका लाभ हुआ या इस तरह की कोई केस स्टडी भी सामने नहीं आई है कि फलां नंबर के नोट तिजोरी में रखने से उसकी आमदनी निरंतर बढ़ती चली गई। पर हां इतना अवश्य है कि रील्स एक ऐसी काल्पनिक दुनिया में ले जाता है जहां सबकुछ मोहक और मायावी लगता है। 

रील्स की दुनिया को हल्के फुल्के मनोरंजन के तौर पर लिया जाना चाहिए। लिया जा भी रहा है। लेकिन इन दिनों साहित्य, कला और कविता से जुड़े कुछ ऐसे रील्स देखने को मिले जो चिंतित करते हैं। हाल के दिनों में कई ऐसे रील्स देखने को मिले जिनमें सेलिब्रेटी कविता पढ़ते नजर आ रहे हैं। वो कविता किसी और की पढ़ते हैं और रील्स के डिस्क्रप्शन में कवि का नाम लिख देते हैं। रील में कहीं कवि का नाम नहीं होता है। सेलिब्रिटी की टीम उसको इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर पोस्ट कर देती है और अश्वत्थामा हतो नरो...वाली ईमानदारी के साथ वीडियो के डिस्क्रिप्शन में कवि का नाम लिख देती है। होता ये है कि सेलिब्रटी की पढ़ी गई कविताओं का वीडियो इन प्लेटफार्म्स से डाउनलोड करके उनके प्रशंसक उसको फिर से उन्हीं प्लेटफार्म्स पर साझा करना आरंभ कर देते हैं। प्रशंसक अश्वत्थामा वाली ईमानदारी को समझ नहीं पाते और वो सेलिब्रिटी की कविता के नाम से ही उसको साझा करना आरंभ कर देते हैं। दिनकर जी जैसे श्रेष्ठ कवियों की कविताएं तो लोगों को पता है तो उसमें ये खेल नहीं हो पाता है लेकिन कई नवोदित कवि की कविताएँ सेलिब्रिटि के नाम से चलने लगती हैं। कवि को पता भी नहीं चलता और वो कविता सेलिब्रिटी के नाम हो जाती है। रील्स की दुनिया में इस बेईमानी से कई साहित्यिक प्रतिभा कुंद हो जा रही हैं। इसका निदान कहीं न कहीं बौदधिक जगत को ढूंढना ही चाहिए। 

एक और नुकसान जो साहित्य का हो रहा है वो ये कि पौराणिक ग्रंथों से बगैर संदर्भ के किस्सों को उठाकर प्रमाणिक तरीके से पेश कर दिया जा रहा है। पिछले दिनों जब अल्लाबदिया का केस हुआ था तो उसके कुछ दिनों बाद एक रील मेरी नजर से गुजरा। एक बेहद लोकप्रिय व्यक्ति उसमें एक किस्सा सुना रहे थे। किस्से में वो बता रहे थे कि कालिदास अपना ग्रंथ कुमारसंभव पूरा क्यों नहीं कर पाए? उनके हिसाब से कालिदास जब कुमारसंभव में पार्वती और शंकर जी की रतिक्रिया के बारे में लिखने जा रहे थे तब पार्वती जी को पता चल गया। उन्होंने सरस्वती जी तो बुलाया और कहा कि ये कौन सा कवि है और क्या लिखने जा रहा है। इसको रोकना होगा। फिर किस्सागोई के अंदाज में ये प्रसंग आगे बढ़ता है। वो बताते हैं कि सरस्वती जी ने क्रोधित होकर उनको श्राप दे दिया और वो बीमार हो गए। इस कारण से कुमारसंभव पूरा नहीं हो पाया। कालिदास बीमार अवश्य हुए थे। उनको पक्षाघात हो गया और वो भी सरस्वती के श्राप के कारण इसको कहां से उद्धृत किया गया था यह सामने आना चाहिए। इस पूरे प्रसंग में शब्द कुछ अलग हो सकते हैं पर उनका भाव यही था। चिंता की बात ये है कि ये पूरा प्रसंग जैसे सुनाया गया वो विश्वसनीय सा लगता है। इसको सुनकर नई पीढ़ी के लोगों में से कई सच मान सकते हैं, विशेषकर वो जो उनके प्रशंसक हैं। इससे तो एक अलग तरह का इतिहास बनता है। बौद्धिक समाज को इस तरह के प्रसंगों पर विचार करते हुए इसपर विमर्श को बढ़ावा देना चाहिए। चिंता तब और अधिक होती है जब इस तरह के रील बनानेवाले लोग बेहद लोकप्रिय होते हैं।

रील्स की दुनिया के पहले फेसबुक ने साहित्य का बहुत नुकसान किया, विशेषकर कविता का। फेसबुक के लाइक्स और कमेंट ने कवियों औ रचनाकारों के दिमाग में ये बैठा दिया कि अब उनके आलोचकों की आवश्यकता ही नहीं है। वो सीधे पाठक तक पहुंच रहे हैं। ऐसे लोग ये मानते थे कि आलोचक पाठकों तक पहुंचने का एक जरिया है। जबकि आलोचकों की भूमिका उससे कहीं अलग होती है। आलोचक रचना के अंदर प्रवेश करके उसकी गांठों को खोलकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। रचनाओं में अंतर्निहित भावों को आसान शब्दों में पाठकों को समझाने का प्रयत्न करता है। इससे रचनाकार और पाठक के बीच एक ऐसा संबंध बनता था जो फेसबुक के कमेंट से नहीं बन सकता है। फेसबुक पर जिस तरह के कमेंट आते हैं उनमें से अधिकतर तो प्रशंसा के ही होते हैं जो रचना का ना तो आकलन कर पातें हैं और ना ही रचना के भीतर प्रवेश करके उसकी परतों को पाठकों के लिए खोलते हैं। कुल मिलाकार आज जो परिस्थितियां बन रही हैं उनमें प्रमाणिक स्त्रोंतो के आधार पर तथ्यों को प्रस्तुत करने के लिए साहित्यकारों को आगे आना होगा। प्रो जगदीश्वर चतुर्वेदी कई वर्षों से ये आह्वान कर रहे हैं कि साहित्यकारों को इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर लिखना चाहिए। उनके नहीं लिखने से अनर्गल लिखनेवालों का बोलबाला होता जा रहा है। तकनीक को साहित्यकारों को अपनाना चाहिए और उसके नए माध्यमों को पाठकों तक पहुंचने का औजार बनाना चाहिए।