1981 में राहुल रवैल के निर्देशन में एक फिल्म आई थी, लव
स्टोरी। फिल्म जबरदस्त हिट रही थी। इस फिल्म में अपने जमाने के जुबली कुमार कहे
जाने वाले राजेन्द्र कुमार के अभिनेता पुत्र कुमार गौरव को लॉंच किया गया था। उनके
साथ नायिका की भूमिका में भी एक लड़की विजयता पंडित को लिया गया था जो अबतक
फिल्मों की दुनिया में बिल्कुल नई थी। अमिताभ बच्चन की एंग्री यंगमैन की छवि के
दबदबे के बीच इस फिल्म ने ताजगी का एहसास करवाया था। इस जबरदस्त सफल फिल्म के
बावजूद कुमार गौरव चल नहीं पाए और धीरे-धीरे सिनेमा के परिदृष्य से बाहर हो गए। इसी
तरह एक फिल्म आई थी ‘आशिकी’ उसके हीरो थे राहुल
रॉय और नायिका थी अनु अग्रवाल। ये फिल्म भी जबरदस्त हिट रही थी लेकिन इस फिल्म के
बाद अनु अग्रवाल या राहुल रॉय इतनी बड़ी हिट नहीं दे पाए और लगभग हाशिए पर चले गए।
हिंदी फिल्मों में इस तरह के कई उदाहरण हैं। इस तरह के नायकों को ‘वन फिल्म वंडर’ कहा
जाता है। एक फिल्म में आए, चमत्कारिक सफलता हासिल की और फिर गायब हो गए।
पिछले दिनों इसी तरह की फिल्मों और इसी तरह के
नायक-नायिकाओं पर बात हो रही थी। हमारी बातचीत को एक तीसरा मित्र भी सुन रहा था।
धीऱे-धीरे वो भी बातचीत में शामिल हो गया। उसने इस चर्चा को पूरी तौर पर साहित्य
की ओर कब मोड़ दिया हमें पता ही नहीं चल पाया। फिल्मों में ‘वन फिल्म वंडर’ की बात
आते ही उसने कहा कि ये तो साहित्य में भी होता है वहां भी दर्जनों ऐसे उदाहरण हैं।
किसी लेखक की एक किताब आई, उसपर जमकर चर्चा हुई और फिर वो गुमनामी में चले गए। मैंने
इसका प्रतिवाद किया और कहा कि ऐसा कम होता है लेकिन तीसरा मित्र मानने को तैयार
नहीं था। उसने मेरे प्रतिवाद करते ही कहा कि आपके ही राज्य बिहार के एक कवि हैं,
बहुत क्रांतिकारी माने जाते हैं, खूब इज्जत-प्रतिष्ठा भी उन मिलती है, नाम है आलोक
धन्वा। आजतक उनका एक ही संग्रह आया है, ‘दुनिया रोज बनती है’। वहां खड़े मेरे मित्र ने कहा कि आलोक धन्वा को
संग्रह की जरूरत नहीं है तो वो और उत्तेजित हो गए कि बीस साल से कोई संग्रह आया
नहीं है, रचनात्मक निरंतरता कोई बात होती है या नहीं। बातचीत में थोड़ा ठहराव आ
गया था। मैं हतप्रभ।
बाद बदलने की गरज से मैंने कहा कि अगर आलोक धन्वा
को छोड़ देते हैं तो फिर कौन है। उसने मेरी ओर क्रोधित निगाहों से देखा और कहा कि ‘चलिए हम वरिष्ठ लेखकों को छोड़ देते हैं क्योंकि
आप असहज हो रहे हैं। आपको समकालीन परिदृष्य के लेखकों के नाम गिनवाते हैं कि कैसे
एक संग्रह आया, खूब शोर-शराबा हुआ और अब लेखक का कहीं अता पता नहीं।‘ वो एकदम अपनी रौ में था और किसी की सुनने को
तैयार नहीं था। उसने कहा कि ‘2013 में युवा
लेखिका ज्योति कुमारी का एक संग्रह आया था, दस्तखत और अन्य कहानियां। बहुत गाजे-बाजे
के साथ उसको छापा गया था। छपने के पहले ही उसके प्रकाशन के अधिकार को लेकर विवाद
भी हुआ था। नामवर सिंह ने हस्ताक्षरित शुभकामनाएं दी थीं। कहानी संग्रह के प्रकाशन
के दो महीनों के भीतर उसके प्रकाशक ने घोषणा की थी कि उस संग्रह की एक हजार से
अधिक प्रतियां बिक गईं। दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में समारोहपूर्वक ये
घोषणा की गई थी।‘ इतना बोलने के बाद वो मेरी ओर पलटा और पूछा कि
अब बताओ कहां है वो लेखिका?
पहले संग्रह के प्रकाशन के छह साल बीतने को आए लेकिन
दूसरे संग्रह की कोई खबर हो तो बताया जाए। हम खामोश। कोई जानकारी नहीं होने की वजह
से उसकी बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं था। वो इतने पर भी रुकने को तैयार नहीं
था। अब हमलोग भी उसकी सुनना चाह रहे थे क्योंकि उसने ज्योति कुमारी का उदाहरण तो
ठीक दिया था। उसने साफ तौर पर हमलोगों के कहा कि वो कई उदाहरण देने जा रहा है और
उसको ये अपेक्षा नहीं है कि हममें से कोई चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी का उदाहरण देकर
उसकी बात को कमजोर करेगा, क्योंकि गुलेरी जैसी ऊंचाई किसी के पास है नहीं।
हमारा प्रतिवाद कम होने से उसका उत्साह और बढ़ने
लगा था। उसने कहा कि ज्योति कुमारी का उदाहरण इसलिए दे रहा है कि वो तत्काल उसके
दिमाग में आया। ऐसे लेखकों की एक बड़ी संख्या है जो सोशल मीडिया के दौर में अपनी
एक किताब के बूते साहित्यकार, कथाकार, कवि, आलोचक बने हुए हैं। उसने पूछा कि आज से
छह सात साल पहले एक विधा आई थी लप्रेक। क्या हुआ उसका? और क्या हुआ उनके लेखकों का। उसने गिरीन्द्र नाथ
झा का उदाहरण दिया कि ‘आज से करीब पांच साल पहले उनकी एक किताब आई थी ‘इश्क में माटी सोना’। कितना शोर मचा था, इस किताब का भी और इस विधा
का भी। लेकिन अब ना तो कोई इस विधा का नाम लेता है और ना ही इस किताब की चर्चा
होती है।‘ मैंने कहा कि इतनी तल्खी की जरूरत नहीं है
क्योंकि एक तो गिरीन्द्र नाथ झा अच्छे व्यक्ति हैं, दूसरे वो दिल्ली छोड़कर अपने
गांव में काम कर रहे हैं। उसने छूटते ही कहा कि हम कृति पर बात कर रहे हैं कृतिकार
पर नहीं। लप्रेक के दूसरे अन्य लेखक भी इस विधा में कोई और किताब पेश नहीं कर पाए। मेरे मित्र ने जोर देकर कहा कि आपलोगों को मान लेना चाहिए कि लप्रेक एक असफल प्रयोग था। मैने
कहा कि थोड़ा इंतजार करना चाहिए क्योंकि विधाएं बनने में समय लगता है। उसने तपाक
से कहा कि इंतजार कर लीजिए लेकिन मेरी बात को याद रखिएगा। मैंने फिर उसको कोंचने की
नीयत से बोला कि दो लेखकों के उदाहरण से आप कोई विमर्श खड़ा नहीं कर सकते हैं। वो
फिर उत्तेजित हो गया और बोलने लगा, ज्यादा उदाहरण देने से कोई फायदा नहीं है
आपलोगों को ये मान लेना चाहिए कि हिंदी के ज्यादातर युवा लेखकों में नैसर्गिक
प्रतिभा की कमी है और वो सभी सोशल मीडिया के सहारे मशहूर होना चाहते हैं। मेहनत
नहीं करते हैं।
चूंकि उसने अपनी बातचीत का दायरा बढ़ा दिया था
इसलिए मुझे भी थोड़ा गुस्सा आने लगा था। मैंने उससे कहा कि ऐसा नहीं है। ढेर सारे
युवा हैं जो निरंतर लेखन कर रहे हैं और अच्छा लिख रहे हैं। वो मेरी बात से सहमत
नहीं नजर आ रहा था लेकिन चुप था। अबतक बातचीत सुन रहे तीसरे मित्र ने शरारत की और
उसको उकसाने के अंदाज में कहा कि ‘लगता है कि तुम्हारे
पास भी नाम खत्म हो गए हैं।‘ जो लगभग चुप हो गया
था वो फिर से मैदान में आ गया, बोला अभी अशोक वाजपेयी ने युवा सम्मेलन किया जाकर
लेखकों की सूची देखो, उनकी उम्र देखो और उनकी रचनाएं देखो आपको स्वयं अंदाज हो
जाएगा। एक जमाना था जब हिंदी के लेखक युवावस्था में विपुल लेखन कर रहे थे। व्यंग्यात्मक
लहजे में उसने कहा कि आपलोगों ने रांगेय राघव का नाम सुना होगा, भारतेन्दु और
प्रेमचंद को जानते होंगे। जरा जाइए उनकी उम्र और रचनाओं की संख्या और स्तर देख
लीजिए आपको अंदाज हो जाएगा। रांगेय राघव को 39 साल की आयु मिली और कितना लिखा,
प्रेमचंद को 56 साल की उम्र मिली, भारतेन्दु 34 साल की उम्र में चले गए। हम दोनों
खामोशी से उसको सुन रहे थे। वो बोले जा रहा था। उसने कहा कि सोशल मीडिया पर जारी
शोरगुल की वजह से उसने तीन किताबें पढ़ी है, गौरव सोलंकी का कहानी संग्रह ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’, हिमांशु वाजपेयी की पुस्तक ‘किस्सा किस्सा लखनउवा’ और अविनाश मिश्र का ‘नए शेखर की जीवनी’। उसकी
राय थी कि ये तीनों रचनाएं बेहद कमजोर हैं। मैंने उनसे पूछा कि कैसे आप इस
निष्कर्ष पर पहुंचे तो उसने तमाम वजहें गिनाईं। मेरी सहमति नहीं थी लेकिन वो अपनी
बात पर कायम था। मैंने ये कहकर जान बचाई कि ना वो भविष्य जानता है और ना ही हम।
इस चर्चा में चाहे मेरे मित्र की उत्तेजना हावी
हो लेकिन उसने कई ऐसी बातें कहीं जिनपर हिंदी साहित्य के लोगों को विचार करना
चाहिए। करना होगा भी। उसने सोशल मीडिया पर शोर मचाकर स्थापित होने की जिस
प्रवृत्ति को रेखांकित किया उसमें दम तो है। ऐसे कई लेखक तो हैं जो अपनी
रचनात्मकता की वजह से नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर गिरोहबाजी की वजह से साहित्य की
दुनिया में अपने डटे होने का एहसास करवाते हैं। पर हिंदी का साहित्य समाज फेसबुक
से कहीं अधिक विस्तृत है। फेसबुक आदि पर तत्काल सफलता मिलती दिख सकती है लेकिन वो
स्थायी होगी, इसमें मुझे भी संदेह है।
सही बात कहता है आपका मित्र. सोशल मीडिया पर चर्चा करने वालों में से अधिकांश ने रचना पढ़ने का जोखिम नहीं उठाया होता. सोशल मीडिया पर रचना छपने की सूचना पर बधाईओं के सन्देश से ये मान लेना कि रचना उत्तम या सफल है. शायद भूल होगी. एक कहावत भी है कि एक उपन्यास या कहानी तो सब के मन में होती है. लेखक वो जो लगातार लिखता रहे.
ReplyDeleteबहुत उम्दा और विचारणीय लेख है।
ReplyDeleteone story wonder को कवर करता !