तकनीक के विस्तार ने साहित्य की एक विधा ‘पत्र-साहित्य’ को लगभग खत्म कर दिया है । जब मोबाइल और
इंटरवेट का विस्तार नहीं हुआ था तब साहित्यकारों के बीच पत्रों का आदान प्रदान
होता था और लेखक साहित्यक सवालों पर एक दूसरे से मुठभेड़ ही नहीं करते थे बल्कि
सार्थक विमर्श भी होता था । समय के साथ साथ उन पत्रों का प्रकाशन भी होता था जिससे
उस दौर की साहित्यक प्रवृत्तियों का इतिहास भी बनता था । तकनीक के विस्तार की वजह
से ईमेल और एसएमएस, व्हाट्सएप जैसे प्लेटफॉर्म ने साहित्य की इस विधा को नेपथ्य
में धकेला और अब तो पत्र लेखन लगभग समाप्त हो चुका है । नामवर सिंह के काशीनाथ
सिंह के नाम पत्र या फिर मुक्तिबोध और नेमिचंद्र जैन के बीच का पत्र व्यवहार हिंदी
साहित्य की थाती है । हिंदी साहित्य में पत्र-साहित्य की विधा काफी समृद्ध रही है-
व्यक्तिगत पत्रों से लेकर पत्रिकाओं को लिखे पत्रों के संकलन प्रकाशित हो चुके हैं
। ‘प्राचीन हिंदी पत्र-संग्रह’ और ‘अठारहवीं शती के हिंदी पत्र’ जैसी किताबें से मराठी साहित्य की अहम
जानकारी मिलती है । ‘चांद’ पत्रिका ने तो अपना एक पूरा अंक
पत्र-साहित्य पर ही केंद्रित किया था । दरअसल साहित्यकारों के पत्र संकलनों से
हिंदी के पाठकों के लिए साहित्यिक ज्ञान और अनुभव का एक ऐसा संसार खुलता है जो
आमतौर पर कृतियों में नहीं आ पाता है लेकिन अब इस संसार का रास्ता बाधित हो गया है
और निकट भविष्य में इसके खुलने की उम्मीद भी बेमानी है ।
हाल ही में दिल्ली में खत्म हुए विश्व पुस्तक
मेले में वरिष्ठ लेखक आलोचक भारत भारद्वाज की दो पुस्तकें देखने को मिली । पहली
पुस्तक है ‘प्रिय भग्गन’ जो उनके अग्रज और आलोचक नंदकिशोर नवल के
उनको लिखे पत्रों का संकलन है । इन पत्रों में सत्तर के दशक से लेकर दो हजार तक के
साहित्यक परिदृश्य पर टिप्पणियां भी हैं । ‘भी’ इस वजह से क्योंकि इन पत्रों में दोनों के पारिवारिक समस्याओं का भी
जिक्र भी है । इन पत्रों में लेखक-प्रकाशक संबंध, लेखक-लेखक संबंध, दिल्ली की
साहित्यक गतिविधियों से लेकर एक वरिष्ठ लेखक की अपनी कृतियों की समीक्षा छपवाने की
बेचैनी भी साफ नजर आती है । लेखकों के बारे में बदलती राय या फिर विचलन को भी
रेखांकित किया जा सकता है । उस दौर में भी लेखक रॉयल्टी को लेकर कितना परेशान रहते
थे इसके विस्फोटक प्रसंग इस किताब में हैं । सरकारी खरीद की तिकड़मों से लेकर अपनी
किताब की खराब छपाई पर भी टिप्पणियां हैं । दूसरी किताब है – ‘ये पुराने पत्र’ । यह किताब भारत भारद्वाज को ही लिखे हिंदी के
तैंतीस वरिष्ठ लेखकों के पत्रों का संकलन है जिनमें से कई तो अब इस दुनिया में
नहीं रहे । भारत भारद्वाज का कहना है कि हिंदी के महान साहित्यकारों के ये पत्र इस
दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं कि इसमें ना केवल अपने समय की आहट है बल्कि समकालीन
रचनाशीलता का बजता संगीत भी है । इसमें ये जोड़ा जा सकता है कि उस वक्त की सामाजिक
हकीकतों का चित्र भी उभरता है । जैसे अमृतलाल नागर एक पत्र में लिखते हैं – ‘भारत जतियों का देश है, यहां जातियां
उठाईं और गिराई भी गई हैं । उनका इतिहास जाने बिना नया भारतीय बहुत सी बौद्धिक
गलतियों का शिकार हो रहा है, और अधिक भी हो सकता है । इसलिए जाति समस्या से मुक्त
होने के लिए हमें जातियों का इतिहास समझना होगा ।‘ अब नागर साहब की ये टिप्पणी भारतीय बौद्धिक
परिदृश्य पर कितनी बड़ी टिप्पणी है । बगैर जातियों के इतिहास को समझे जिस तरह का
शोर पिछले कई दशकों से मचाया जा रहा है उससे उनकी अधिक गलतियों की आशंका सही साबित
हो रही है । इन दोनों किताबों का प्रकाशन आश्वस्तिकारक है ।
पुस्तकें रुचिकर हैं। ऑनलाइन ढूंढने की कोशिश लेकिन नही मिली। अगर प्रकाशक की जानकारी भी होती तो ज्यादा आसानी होती। धन्यवाद।
ReplyDeleteप्रिय भग्गन - प्रकाशन संस्थान से और दूसरी किताब- किताबवाले प्रकाशन से छपी है
ReplyDeleteशुक्रिया, अनंत जी।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 16-02-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2594 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद