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Sunday, November 10, 2024

प्रगतिशीलता का अधिनायकवाद


इन दिनों हिंदी साहित्य जगत में एक बार फिर से वाम दलों से संबद्ध लेखक संगठनों की चर्चा हो रही है। चर्चा इस बात पर नहीं हो रही है कि लेखक संगठनों ने लेखकों के हित में कोई कदम उठाया है बल्कि इस बात पर हो रही है कि जनवादी लेखक संघ के संस्थापक सदस्य और राष्ट्रीय अध्यक्ष असगर वजाहत ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने 2 नवंबर को अपना त्यागपत्र संगठन के महासचिव और कार्यकारिणी सदस्यों को भेजा। उसके बाद गुरुवार को प्रगतिशील लेखक संघ के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष पद से वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने भी त्यागपत्र दे दिया। उनके त्याग पत्र में उनका दर्द झलक रहा है। नरेश सक्सेना ने लिखा कि मैं मित्रों की असहमति का सम्मान करता हूं, किंतु अपने प्रति व्यंग्य और संदेह का नहीं। हार्दिक विनम्रता के साथ मैं तत्काल प्रभाव से उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखख संघ के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देता हूं। गौर करने की बात है कि नरेश सक्सेना जी ने ये बात फेसबुक पर लिखी। उनके लिखने के बाद उनके समर्थन और विरोध में टिप्पणियां आने लगीं। कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति आस्थावान कुछ लेखकों ने उनको नसीहत दी तो अधिकतर लेखकों ने उनका समर्थन किया। कर्मेन्दु शिशिर ने अच्छी टिप्पणी की, संगठन और सृजन दोनों का अपना महत्व है। जब एक रचनाकार को संगठन और सृजन में चयन करना पड़े तो सच्चा रचनाकार तो सृजन का ही चयन करेगा। असगर वजाहत जैसे बड़े कथाकार/नाटककार और नरेश सक्सेना जैसे बड़े कवि को जब संगठन ही ट्रोल करने लगे तो वो क्या करें। नरेश सक्सेना का त्याग पत्र और उनपर आई टिप्पणियों को पढ़ने के बाद इस बात के संकेत मिलते हैं कि संघ की कोई बैठक चंडीगढ़ में हुई थी जिसमें ये तय किया गया था कि संघ से जुड़ा कोई लेखक किस मंच पर जाएगा ये संगठन तय करेगा। 

कम्युनिस्ट पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ठ की तरह काम करनेवाला प्रगतिशील लेखक संघ हो, जनवादी लेखक संघ हो या जन संस्कृति मंच सबमें एक अधिनायकवादी प्रवृत्ति दिखाई देती है। इस संबंध में राहुल सांकृत्यायन से जुड़ा एक प्रसंग का उल्लेख उचित होगा। स्वाधीनता के बाद दिसंबर 1947 में हिंदी साहित्य सम्मेलन का एक अधिवेशन बांबे (अब मुंबई) में होना था। राहुल सांकृत्यायन को अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए मंत्रित किया गया था। उस समय राहुल सांकृत्यायन कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। जब वो बांब पहुंचे तो पार्टी के कार्यालय पहुंचे। वहां कामरेडों ने उनके तैयार भाषण की कापी पढ़ी। उसके बाद तो वहां विवाद खड़ा हो गया। राहुल सांकृत्यायन ने अपने भाषण में लिखा था इस्लाम को भारतीय बनना चाहिए। उनका भारतीयता के प्रति विद्वेष सदियों से चला आया है। नवीन भारत में कोई भी धर्म भारतीयता को पूर्णतया स्वीकार किए बिना फल फूल नहीं सकता।ईसाइयों, पारसियों और बौद्धों को भारतीयता से एतराज नहीं फिर इस्लाम को ही क्यों? इस्लाम की आत्मरक्षा के लिए भी आवश्यक है कि वह उसी तरह हिन्दुस्तान की सभ्यता, साहित्, इतिहास, वेशभूषा, मनोभाव के साथ समझौता करे जैसे उसने तुर्की, ईरान और सोवियत मध्य-एशिय़ा के प्रजातंत्रों में किया। कामरेड चाहते थे कि राहुल अपने लिखे भाषण में बदलाव करें। उन हिस्सों को हटा दें जहां उन्होंने इस्लाम के भारतीयकरण की बात की है। मामला काफी गंभीर हो गया। राहुल जी भाषण में संशोधन के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हो रहे थे। कम्युनिस्ट पार्टी के कामरेड ने उनको पत्र लिखा और कहा कि आप अपने भाषण में आवश्यक रूप से ये कहें कि ये पार्टी का स्टैंड नहीं है। इसका राहुल सांकृत्यायन ने बहुत अच्छा इत्तर दिया । उन्होंने लिखा कि पार्टी की नीति के साथ नहीं होने के कारण वो स्वयं को पार्टी में रहने लायक नहीं समझते हैं और उन्होंने पार्टी छोड़ दी। कुछ ऐसा ही भाव नरेश सक्सेना के त्याग पत्र से भी प्रतिबिंबित हो रहा है। 

एक भयावह उदाहरण है शायर कैफी आजमी की पत्नी शौकत कैफी से जुड़ा।  शौकत कैफी ने अपनी किताब ‘यादों की रहगुजर’ में लिखा है कि जब उनकी शादी हुई तो वो मुंबई में एक कम्यून में रहते थे। उनका जीवन सामान्य चल रहा था। उनके घर एक बेटे का जन्म हुआ था। अचानक सालभर में बच्चा टी बी का शिकार होकर काल के गाल में समा गयॉ। इस विपदा से शौकत पूरी तरह से टूट गई थीं। अपने इस पहाड़ जैसे दुख से उबरने की कोशिश में जैसे ही शौकत को पता चला कि वो फिर से मां बनने जा रही हैं तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । अपनी इस खुशी को शौकत ने कम्यून में साझा की । उस वक्त तक शौकत कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले चुकी थी । जब शौकत की पार्टी को इसका पता चला तो तो पार्टी ने शौकत से गर्भ गिरा देने का फरमान जारी किया। उस वक्त शौकत पार्टी के इस फैसले के खिलाफ अड़ गईं थी और तमाम कोशिशों के बाद बच्चे को जन्म देने की अनुमति मिली थी। स्वाधीनता, स्त्री अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करनेवाले कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों को जैसे ही अवसर मिलता है इनको दबाने का पूरा प्रयत्न करते हैं। नरेश सक्सेना इसके हालिया शिकार हैं।  

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