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Saturday, October 26, 2024

अमेरिकी चुनाव में धर्म की राजनीति


अपने देश में राजनीति में धर्म के उपयोग की खूब चर्चा होती है। एक विशेष वैचारिक ईकोचैंबर में बैठे कथित विचारक और विश्लेषक इस बात पर चुनाव के समय शोर मचाते हैं। वो राजनीति में धर्म के उपयोग के लिए भारतीय जनता पार्टी को आज से नहीं बल्कि बल्कि इसके गठन के बाद से ही दिम्मेदार ठहराते आ रहे हैं। किसी प्रकार का तर्क नहीं सूझता तो इस तरह के विश्लेषक राम मंदिर मुक्ति के लिए चलाए गए आंदोलन को भी धर्म से जोड़कर कर भारतीय जनता पार्टी पर प्रहार करने से नहीं चूकते। मंदिरों के भव्य और नव्य स्वरूप को देखकर भी इनको धर्म और राजनीति की याद आती है। धर्म के राजनीति में घालमेल को लेकर इसस ईकोचैंबर में बैठे लोग नेतों के मंदिरों में जाने से लेकर टीका लगाने पर टिप्पणी करते हैं। इस संदर्भ में वो अमेरिका और ब्रिटेन का उदाहरण देते हुए सलाह देते हैं कि भारत के राजनेताओं को अमेरिका से सीखना चाहिए। राजनीति में धर्म के कथित घालमेल को ऐसे लोग देश के सामाजिक तानेबाने के लिए खतरा मानते हैं। कई बार तो धर्मनिरपेक्षता को भी इस तरह परिभाषित करते हैं जैसे उसका अर्थ नास्तिकता हो। ईकोचैंबर में बैठे इस तरह के कथित विद्वान या विश्लेषक धर्म को समझने में चूक जाते हैं। संभव है कि समझकर भी ईकोचैंबर को प्राणवायु देनेवाली शक्तियों के प्रति स्वामिभक्ति के कारण गलत व्याख्या करते हों। इस तरह के कथित विद्वान आपको कई देशों में मिलेंगे जो भारतीय मूल के होते हुए भी धर्म को लेकर भ्रमित हैं या भ्रमित होने का दिखावा करते हैं। 

अब जरा अमेरिका चलते हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव प्रचार हो रहे हैं। डेमोक्रैट्स और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवारों डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस के बीच बेहद कड़ा मुकाबला है। कई तरह के सर्वे आ रहे हैं जो इस कड़े मुकाबले में ट्रंप की स्थिति थोड़ी बेहतर दिखा रहे हैं। जो लोग भारत में धर्म के राजनीति में घालमेल को लेकर विलाप करते रहते हैं उनको अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव को देखना चाहिए। वहां किस प्रकार से चुनाव में जीजस क्राइस्ट और क्रिश्चियन धर्म की चर्चा होती है। चुनावी रैलियों में धर्म और आस्तिकता को जोर शोर से उठाया जाता है। राष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों की रैली में बार-बार लार्ड जीजस का नाम गूंजता रहता है। इस समय अमेरिका के राजनेता इंटरनेट मीडिया पर निरंतर आस्था और आस्तिकता को लेकर पोस्ट लिख रहे हैं। अपनी रैलियों में बोल रहे हैं। वहां के समाचारपत्रों में भी उम्मीदवारों के जीजस को लेकर रैलियों में दिए गए बयानों की चर्चा हो रही है। अमेरिका के समाज में धर्म को लेकर जिस प्रकार की बातें की जाती हैं या जिस प्रकार से वहां जीजस और बाइबिल को लेकर श्रद्धा और उसका सार्वजनिक प्रकटीकरण होता है उसको भी देखना चाहिए। चुनावी रैलियों में क्राइस्ट इज किंग और जीजस इज लार्ड जैसे नारे उछाले जा रहे हैं। क्रिश्चियन आबादी में इसको लेकर एक अलग ही तरह का माहैल देखने को मिल रहा है। अमेरिका में जेन जी की बहुत चर्चा है। जो युवा इस चुनाव में वहां पहली बार वोट डालने जा रहे हैं उनमें से कई ने इंटरनेट मीडिया पर लिखा है कि मैं एक प्राउड क्रिश्चियन हूं। पहली बार वोट डालने को लेकर उत्साहित हूं। मैं डोनाल्ड ट्रंप को वोट डालूंगा। इस टिप्पणी में गौर करनेवाली बात ये नहीं है कि वो डोनाल्ड ट्रंप को वोट डालेगा। इस बात को देखा जानिए कि किस तरह वो अपने धर्म को लेकर गौरवान्वित है। जो अमेरिका भारत और भारतीयों को धर्म और कट्टरता पर ज्ञान देता है उस देश के युवा खुलेआम धर्म के आधार पर वोट डालने की बात कर रहा है। लेकिन भारत में वैचारिक ईकोचैंबर में बैठे लोगों को ये नहीं दिखता है। अमेरिकी ज्ञान को लेकर यहां शोर मचाने में लग जाते हैं। हमेशा से भारत के बाहर के विचार को लेकर यहां आरोपित करनेवाले इन कथित बौद्धिकों को ये सोचना चाहिए कि इस देश में आयातित विचार लंबे समय तक नहीं चल सकता है। मार्क्सवाद को लेकर भी एक जमाने में रोमांटिसिज्म दिखता था लेकिन समय के साथ वो रोमांटिसिज्म खत्म हो गया। इसका कारण ये रहा कि मार्क्सवादी भारत और भारतीय विचारों को समझ नहीं सके। 

अगर भारतीय जनता पार्टी का नेता अपने चुनाव प्रचार के समय किसी मंदिर में चले जाएं तो उसकी ये कहकर आलोचना होने लगती है कि वो हिंदुओं को आकर्षित करने के लिए ऐसा कर रहे हैं। अमेरिका में खुलेआम राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रार्थना करते हैं और जीजस के नाम पर लोग उम्मीदवार को आशीर्वाद देते हैं। यहां अगर इस तरह से किसी नेता के लिए प्रार्थना की जाए और उसको धर्म से जोड़ा जाए तो जोड़नेवाले को भक्त या अंध भक्त कहकर उपहास किया जाता है। अपेक्षा ये की जाती है कि धर्म को लेकर हमारी राजनीति उदासीन रहे। क्यों? इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। अगर उत्तर होता भी है तो वो ये कि इससे अल्पसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है। संविधान का हवाला दिया जाने लगता है। क्या भारतीय समाज धर्म के बिना चल सकता है? उत्तर होगा नहीं। मुझे कई बार ये प्रसंग याद आता है। उस प्रसंग को बताने के पहले नेहरू के बारे में आधुनिक भारत के इतिहासकारों की राय देखते हैं। इतिहासकारों ने इस बात पर बल दिया है कि नेहरू धर्म को शासन से अलग रखना चाहते थे। इतिहासकारों से इस आकलन में चूक हुई। नेहरू को जब लगता था कि सत्ता के लिए धर्म का उपयोग आवश्यक है तो वो बिल्कुल नहीं हिचकते थे। अब उस प्रसंग की चर्चा। 14 अगस्त 1947। शाम के समय दिल्ली में डा राजेन्द्र प्रसाद के घर हवन-पूजा का आयोजन किया गया था। हवन के लिए पुरोहितों को बुलाया गया था। भारत की नदियों से जल मंगवाए गए थे। डा राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे। महिलाओं ने दोनों के माथे पर तिलक लगाया। फिर नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने सार्वजनिक रूप से ये स्टैंड लिया था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया था कि सत्ता प्राप्त करने का ये हिंदू तरीका है। नेहरू इस हिंदू तरीके को अपनाने को तैयार हो गए थे। इसका उल्लेख ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’ नाम की पुस्तक में मिलता है। इंदिरा गांधी तो निरंतर मंदिरों में जाती रही हैं। चुनाव हारने के बाद भी और चुनाव के समय भी। कई पुस्तकों में इस बात का उल्लेख है। लेकिन जब से सोनिया गांधी और उसके बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस को संभाला तो धर्म पर ज्यादा ही कोलाहल होने लगा। अब कांग्रेस को अमेरिका में बैठे कुछ लोगों से ज्ञान और योजनाएं मिलने लगी हैं तो ये नैरेटिव और गाढ़ा होने लगा है। पर अब ये समझना होगा कि देश की जनता जागरूक हो चुकी है और धर्म को धारण करने में उनको कोई परेशानी भी नहीं। 


Sunday, October 20, 2024

अपराध कथाओं का नया दौर


हिंदी के श्रेष्ठ आलोचकों में से एक सुधीश पचौरी जी से बात हो रही थी। बात लोकप्रिय साहित्य तक जा पहुंची। चर्चा में सुरेन्द्र मोहन पाठक का लेखन भी आया। उन्होंने साफगोई से कहा कि वो लोकप्रिय लेखक हैं और उनको मास साइकोलाजी की समझ है, उनका सांस्कृतिक दायरा विस्तृत है जिसके कारण उनके उपन्यास लोकप्रिय होते हैं। उनकी बात सुनते ही मैंने विनोद कुमार शुक्ल का नाम लिया तो पचौरी जी बोले कि वो लोकप्रिय लेखक नहीं है वो इलीटिस्ट रायटर हैं। अब उनके इस कथन को समझने और इन दो लेखकों के लेखन को समझने की चुनौती सामने थी। एक तरफ सुरेन्द्र मोहन पाठक थे जिनके उपन्यास पैंसठ लाख की डकैती के दो दर्जन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और दूसरी तरफ विनोद कुमार शुक्ल थे जो पिछले साल तक रायल्टी की मिलनेवाली राशि को लेकर परेशान थे। विनोद कुमार शुक्ल को हिंदी साहित्य से जुड़ा एक वर्ग बेहद महत्वपूर्ण लेखक मानता था या है लेकिन आम पाठकों के बीच न तो उनकी पहचान है और ना ही लोकप्रियता। सुरेन्द्र मोहन पाठक को हिंदी के आलोचकों ने कभी लेखक माना ही नहीं बल्कि उनको साहित्य की परिधि पर भी नहीं रखा। पाठकों के बीच उनकी लोकप्रियता असंदिग्ध है। जासूसी उपन्यास या अपराध कथा को हिंदी की अध्यापकीय आलोचना ने साहित्य ही नहीं माना। परिणाम ये हुआ कि उन उपन्यासों पर ना तो शोध हुए और ना ही उनके लेखकों को साहित्यकार के तौर पर मान्यता मिली। जबकि पश्चिम के देशों में इस तरह की कृतियों पर खूब कार्य हुए हैं। इसका एक दुष्परिणाम ये भी हुआ कि हिंदी में जासूसी और अपराध कथा लिखनेवालों की कमी होती चली गई। नए लेखकों में से बहुत ही कम लोग उस तरफ जाने की हिम्मत जुटा पा रहे थे। 

पिछले कुछ वर्षों से स्थिति बदली दिख रही है।  हिंदी में अपराध कथा लेखन की ओर नए और युवा लेखकों का ध्यान गया। पुस्तकें भी आईं और चर्चित भी हुईं। दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की सूची में कई बार अपना स्थान बनाने वाले लेखक सत्य व्यास ने सात चर्चित पुस्तकें लिखने के बाद थ्रिलर, लकड़बग्घा लिखने का साहस जुटाया। उन्होंने माना है कि मैं बस अपनी स्याही इस जुर्रत पर जियां करूंगा कि पहली बार मैंने कुछ ऐसा लिखने की कोशिश की है जिसके लिए अक्सर दीगर अदीब मना करते हैं। ऐसी विधा जिसमें मैंने पहली बार कोई उपन्यास लिखा है-थ्रिलर। नए विषयों पर लिखने की चुनौती सत्य व्यास को इस विषय तक लेकर आया। सत्य व्यास हिंदी की परंपरा को भी जानते हैं और रहस्य कथा, अपराध और जासूसी कथा लिखनेवाले लेखकों की उपेक्षा का अनुमान उनको है। बावजूद इसके उन्होंने थ्रिलर लिखा और उसको पाठक पसंद भी कर रहे हैं। संजीव पालीवाल का चौथा उपन्यास मुंबई नाइट्स भी क्राइम थ्रिलर है। इसको पाठक पसंद कर रहे हैं। संजीव कहते हैं कि वो ओटीटी (ओवर द टाप) पर वेब सीरीज देखनेवालों के लिए उपन्यास लिखते हैं पीएचडी करनेवालों के लिए नहीं। साहित्य ने पहले ही पाठकों पर बहुत बोझ डाल रखा है वो औरनहीं डालना चाहते हैं। वो लोक रुचियों का ध्यान रखते हुए लेखन करते हैं और लोकप्रिय लेखक ही बनना चाहते हैं, साहित्यकार नहीं। इसी तरह से मनोज राजन त्रिपाठी ने भी सत्य घटना पर आधारित अपराध कथा कसारी मसारी लिखी। उनके इस अपराध कथा में उत्तर प्रदेश के एक माफिया राजनेता का मर्डर केंद्र में है। उसके इर्द गिर्द उन्होंने कहानी बुनी है। मनोज राजन अपनी कृति को क्राइम थ्रिलर नहीं मानते हैं बल्कि इसको पालिटिकल थ्रिलर नाम देते हैं। चाहे जो नाम दिया जाए पर है ये भी लोकप्रिय उपन्यास की श्रेणी में ही। मनोज भी पाठकों और उनकी रुचि को सर्वोपरि मानते हैं। भारतीय सेना में कर्नल और गजलकार के तौर पर जाने जानेवाले गौतम राजऋषि ने भी एक क्राइम थ्रिलर लिखा है हैशटैग। ये उपन्यास भी शीघ्र ही बाजार में आनेवाला है। इसके कवर पर लिखी पंक्ति इसके बारे में संकेत कर रही है, मुहब्बत ने फौजी बनाया महबूब ने कातिल। 

दरअसल हिंदी में मार्क्सवादी आलोचकों ने अपनी कमजोरी के कारण रहस्य रोमांच और अपराध कथाओं को साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा से दूर रखा। उनकी आलोचना में लोकप्रिय साहित्य को परखने के औजार ही नहीं हैं जिसके कारण उन्होंने लोकप्रियता को चालू कहकर खारिज करने की प्रविधि अपनाई। अपराध और रहस्य रोमांच कथा का आर्थिक दायरा क्या हो सकता है, जन के मन को समझने के लिए जिस संवेदना की आवश्यकता होती है मार्क्सवादी आलोचना उससे दूर है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि किसी भी कृति का एक मार्मिक स्थल होता है। मार्क्सवादी आलोचकों ने अपराध कथाओं के मार्मिक स्थल को पहचाना ही नहीं। हिंदी के लिए अच्छी बात है कि कई लेखक जन मनोविज्ञान को समझते हुए लेखन में आगे आ रहे हैं। इससे हिंदी का सांस्कृतिक दायरा बढ़ेगा।  


Saturday, October 19, 2024

प्राचीन पुस्तकों-फिल्मों का नया दौर


बेहद चर्चित और सफल फिल्म निर्देशक सुभाष घई का एक दिन मैसेज आया। उसमें दिलचस्प सूचना थी। घई साहब ने लिखा था कि 1999 में रिलीज हुई उनकी फिल्म ताल देशभर में रिलीज की जा रही है। उनके इस मैसेज को पढ़कर पहले तो चौंका लेकिन फिर याद आया कि हाल के दिनों में कई पुरानी लेकिन हिट फिल्मों को फिर से प्रदर्शित किया गया। शोले, हम आपके हैं कौन, रहना है तेरे दिल में जैसी फिल्मों को फिर से प्रदर्शित किया गया। दर्शकों ने पसंद भी किया। अमिताभ बच्चन के 80 वर्ष पूरे होने पर भी उनकी कई फिल्मों का प्रदर्शन हुआ था। हिंदी फिल्मों के व्यवसाय को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि फिल्मों का पुनर्प्रदर्शन दो कारणों से किया जाता है। एक तो क्लासिक फिल्मों के बारे में नई पीढ़ी को जानने समझने का अवसर मिलता है। कई बार जब फिल्मों पर चर्चा होती है तो क्लासिक फिल्मों के बारे में बातें होती हैं तो युवाओं में इनको देखने की ललक पैदा होती है। दूसरा कारण ये कि जब नई फिल्में नहीं चलती हैं तो उनको सिनेमा हाल से हटाना पड़ता है। जल्दी जल्दी नई फिल्में आती नहीं हैं। ऐसे में सिनेमा हाल को अपना कारोबार चलाने के लिए क्लासिक्स का सहारा लेना पड़ता है। हाल के दिनों में ये चलन बढ़ा है। हिंदी फिल्मों से जुड़े लोग ये नहीं चाहते हैं कि फिल्मों के नए दर्शक सिनेमा हाल पहुंचें और उनको निराशा हाथ लगे। विकल्प देकर वो दर्शकों को बांधे रखना चाहते हैं। 

फिल्मों के अलावा एक दूसरी बात पता चली जो साहित्य जगत से जुड़ी हुई है। हिंदी के एक प्रकाशन गृह सर्वभाषा ट्रस्ट के केशव मोहन पांडे और कवि आलोचक ओम निश्चल से भेंट हुई। चर्चा के क्रम में केशव जी ने एक जानकारी दी। उन्होंने बताया कि उनके प्रकाशन गृह से लाला लाजपत राय की 1928 में प्रकाशित पुस्तक दुखी भारत का पुनर्प्रकाशन हो रहा है। ये पुस्तक काफी चर्चित रही है। 1928 में इसका प्रकाशन इंडियन प्रेस, प्रयाग से हुआ था। अधिक चर्चा इस कारण भी हुई थी कि लाला लाजपत राय की ये पुस्तक कैथरीन मेयो की पुस्तक मदर इंडिया के उत्तर में लिखी गई थी। लाला लाजपत राय की पुस्तक के कवर पर ही इस बात का प्रमुखता से उल्लेख था। दुखी भारत के नीचे लिखा था, मिस कैथरीन मेयो की पुस्तक ‘मदर इंडिया’ का उत्तर। लाला लाजपत राय की इस पुस्तक की कहानी बेहद दिलचस्प है। अमेरिका की पत्रकार कैथरीन मेयो ने 1927 में मदर इंडिया के नाम से एक पुस्तक लिखी थी। उस पुस्तक में कथित तौर पर भारत के तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थितियों के बारे में लिखा गया था। इनकी स्थिति को हिंदू समाज से जोड़कर आपत्तिजनक तरीके से व्याख्यायित किया गया था। पश्चिमी देशों में कैथरीन मेयो की ये पुस्तक काफी चर्चित हुई थी। यूरोप की कई भाषाओ में इसका अनुवाद हुआ था। पुस्तक के कई संस्करण प्रकाशित हुए थे। पराधीन भारत में कैथरीन मेयो की पुस्तक का काफी विरोध हुआ था। माना गया था कि अमेरिकी पत्रकार ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद वो उचित ठहराने के लिए ये पुस्तक लिखी थी। उसके लिए उनको विशेष रूप से भारत भेजा गया था। इस पुस्तक में कैथरीन मेयो ने ना केवल हिंदू समाज और संस्कृति की तीखी आलोचना की थी बल्कि स्वाधीनता आंदोलन के नायकों और उनके सोच पर भी प्रश्न उठाए थे। 

लाला लाजपत राय ने इस पुस्तक का सिलसिलेवार उत्तर देते हुए दुखी भारत के नाम से पुस्तक लिखी। इसमें राय ने लिखा था कि प्रत्येक विद्यार्थी ये जानता है कि यूरोप शताब्दियों तक असभ्यता, मूर्खता और गुलामियों का शिकार रहा है। यूरोप से हमारा मतलब संसार की सब गोरी जातियों से है। अर्थात यूरोप और अमेरिका दोनों। अमेरिका तो अभी यूरोप का बच्चा ही है। इन गोरी जातियों ने एशिया से अपना धर्म पाया। मिस्त्र की कला और उद्योग का अनुसरण किया। भारत से सदाचार संबंधी आदर्श उधार लिए। संसार की आधुनिक उन्नत जातियों में इस समय जो कुछ भी वास्तविक खूबी और अच्छाई है वह अधिकांश में उनको पूर्व से मिली है।...मिस मेयो का मनोभाव एशिया की काली, भूरी और पीली सभी जातियों के विरुद्ध यूरोप की गोरी जातियों का ही मनोभाव है। पूरब को दबानेवालों के मुंह की वो पिपहरी मात्र ही है। पूर्व की जागृति ने अमेरिका और यूरोप दोनों को भयभीत कर दिया है। इसी से इतनी प्राचीन और सभ्य जाति के विरुद्ध इस पागलपने का प्रदर्शन हो रहा है और खूब अध्ययन के साथ तथा जानबूझकर यह आंदोलन खड़ा किया जा रहा है। लाला लाजपत राय इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने कैथरीन मेयो पर और भी तीखा हमला बोला, मिस कैथरीन मेयो, जैसा कि उसके लेखों से जान पड़ता है, अमेरिका की जिंगो जाति का एक औजार है। ग्रंथकार होने का उसका दावा केवल इतना ही है कि उसकी लेखन शैली मनोरंजक है, सनसनी पैदा करनेवाले उड़ते हुए शब्दों का प्रयोग करना उसे आता है और संदेहपूर्ण कथाओं को मनोरंजक शैली में लिखने का उसे अभ्यास है। एक मामूली पाठक भी उसके इतिहास और राज-नीति-विज्ञान में उसकी अज्ञानता को दिखला सकता है। अपनी इस पुस्तक के विषय प्रवेश में ही लाला लाजपत राय ने काफी विस्तार से कैथरीन मेयो की स्थापनाओं को ध्वस्त कर दिया था।

दुखी भारत नाम की लाला लाजपत राय की ये पुस्तक खूब पढ़ी गई। इसपर काफी चर्चा हुई। लेकिन कालांतर में ये पुस्तक ना केवल चलन से बाहर हो गई या कर दी गई बल्कि नई पीढ़ी को इसके बारे में बताया भी नहीं गया। अब इसका पुनर्प्रकाशन एक सुखद घटना है। सिर्फ यही एक पुस्तक नहीं बल्कि हिंदी की कई कालजयी पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन हो रहा है। जैसे प्रेमचंद पर पहली आलोचनात्मक पुस्तक लिखनेवाले जनार्दन झा द्विज की अनुपलब्ध पुस्तक का प्रकाशन हुआ। निराला जी ने श्रीरामचरितमानस के कुछ अंशों का अवधी से हिंदी में अनुवाद किया था जिसका फिर से प्रकाशन रामायण विनय खंड के नाम से हुआ है। श्रेष्ठ हिंदी पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन को कई तरह से देखा जा सकता है। एक तो अगर इसको फिल्मों के पुनर्प्रदर्शन से जोड़कर देखें तो इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि जब अच्छी पुस्तकें ना आ रही हों तो पूर्व प्रकाशित अच्छी और अनुपलब्ध पुस्तकों को खोजकर उसका प्रकाशन किया जाए। इसका एक लाभ ये होगा कि पाठकों का जुड़ाव हिंदी के साथ बना रहेगा और वो निराश नहीं होंगे। दूसरी अच्छी बात ये होगी कि स्वाधीनता के बाद जिस तरह का एकतरफा नैरेटिव बनाया गया उसका भी बहुत हद तक निषेध होगा। लाला लाजपत राय ने जिस तरह से अपनी पुस्तक दुखी भारत में हिंदू समाज और संस्कृति को लेकर कैथरीन मेयो के नैरेटिव को ध्वस्त किया था उसके बारे में आज की पीढ़ी को भी जानना चाहिए। आज भी हमारे समाज में कैथरीन मेयो की अवधारणा के लेकर कई लोग घूम रहे हैं। उनके निशाने पर भारत का हिंदू समाज होता है। अगर लाला लाजपत राय की इस पुस्तक का प्रचार प्रसार होगा तो हिंदू समाज को लेकर फैलाई जानेवाली भ्रांतियां दूर होंगी। 


Sunday, October 13, 2024

देविका रानी के सामने कांपे थे अशोक


सुबह के साढे नौ बजे थे। बांबे टाकीज की एक फिल्म की शूटिंग शुरु होनेवाली थी। बांबे टाकीज के कर्ता-धर्ता हिमांशु राय ने अपनी नई फिल्म में एक नए लड़के को नायक के तौर पर लेने का निर्णय किया था। फिल्म का नाम था जीवन नैया और युवक थे अशोक कुमार। सुबह सुबह जब अशोक शूटिंग के लिए फिल्म के सेट पर पहुंचे तो उनको देखकर हिमांशु राय चौंके। अशोक कुमार ने बेतरतीब तरीके से अपने बाल कटवा लिए थे। हिमांशु राय ने उनसे पूछा कि ये क्या है अशोक? हकलाते हुए अशोक कुछ बोलते इसके पहले ही हिमांशु राय ने हेयर ड्रेसर को बुलाकर कहा कि इनके बाल ठीक करो। विग लगाओ। अशोक ने हिमांशु राय की ओर कातर भाव से देखा, सर कुछ कहना चाहता हूं। हिमांशु राय ने अपने अंदाज में कहा कि बोलो। अशोक ने हिमांशु राय का हाथ पकड़ा और उनको सेट के एक कोने में लेकर जाकर धीरे से बोले कि मैं आपके कहने पर फिल्म में काम तो कर लूंगा पर मुझे नायिका के आलिंगन के लिए मत कहिएगा। वो मुझसे हो नहीं हो पाएगा। क्यों? पूछा हिमांशु राय ने। अशोक चुप रहे तो हिमांशु ने आश्वस्त किया कि ऐसा कोई दृष्य फिल्म में नहीं होगा। उसके बाद मेकअप आर्टिस्ट अशोक को लेकर चली गई। मेकअप और गेटअप ठीक होकर जब अशोक सेट पर पहुंचे तो उनके होश उड़ गए। सामने देविका रानी थीं जिनके साथ उनको पहला ही शाट देना था।

अशोक को निर्देशक ने सीन समझाया। अशोक नर्वस हो रहे थे। हिमांशु राय उनके पास पहुंचे उनके कंधे पर हाथ रखकर बोले कि ये बहुत ही सामान्य बात है कि एक लड़का अपनी प्रेमिका के लिए सोने का हार लाता है और फिर उसके गले में डालता है। तुमको इतना ही करना है। अशोक कुमार हाथ में सोने की चेन लेकर देविका रानी के पास पहुंचते हैं। नायिका के करीब पहुंचते ही वो नर्वस हो जाते हैं और दौड़कर बाथरूम की ओर भाग जाते हैं। थोड़ी देर बाद वापस आते हैं। दृश्यांकन आरेभ होता है। अशोक कांपते हाथों से देविका रानी के गले में हार डालने का प्रयास करते हैं। हार उनकी बालों में उलझ जाता है। फिर से प्रयास करने को कहा जाता है। इस बार निर्देशक शूटिंग नहीं रोकते हैं और अशोक कुमार को कहते हैं कि वो गले में हार डालें। अशोक कुमार ने इतनी जोर से हार पहनाने का प्रयास किया कि देविका रानी के बाल ही खुल गए और फिर निर्देशक ने सर पीट लिया। दरअसल अशोक कुमार दो बातों से बुरी तरह से घबरा रहे थे। एक तो उनके बास की पत्नी नायिका थी, दूसरे उनकी मां ने कह रखा था कि फिल्मों में काम करने जा तो रहे हो लेकिन लड़कियों से दूर ही रहना। आखिरकार ये सीन बाद में शूट करने का निर्णय हुआ। दूसरा सीन कुछ यूं था कि फिल्म का खलनायक अभिनेत्री को छेड़ने की कोशिश करेगा। अशोक कुमार को उसको धक्का देकर गिराना था। निर्देशक ने उनको सीन समझाया। कहा कि वो दस गिनेंगे और जैसे ही दस पूरा होगा धक्का देना था। शाट आरंभ हुआ। निर्देशक ने गिनती आरंभ की। घबराए अशोक कुमार ने दस पूरा होने की प्रतीक्षा नहीं की और खलनायक को धक्का दे दिया। धक्का इतनी जोर का था कि देविका रानी और खलनायक दोनों धड़ाम से फर्श पर गिरे। खलनायक का पांव टूट गया। देविका रानी खिलखिलाते हुए उठ खड़ी हुईं। उस दिन शूटिंग रोकनी पड़ी। 

दरअल अशोक कुमार के जीवन की कहानी बहुत दिलचस्प है। उनका ननिहाल बिहार के भागलपुर में था। उनकी मां ने एक लड़की के साथ उनका रिश्ता तय किया था। लड़की के पिता को जब पता चला कि अशोक कुमार फिल्मों में काम करनेवाले हैं तो उन्होंने रिश्ता तोड़ दिया था। 1934 में अशोक कुमार ने हिमांशु राय की कंपनी बांबे टाकीज में नौकरी आरंभ की थी। हिमांशु राय ने उनको अभिनेता बना दिया। उधर उनकी मां को भी जब पता चला कि उनका बेटा फिल्मों में काम करनेवाला है तो उन्होंने नसीहत दी कि फिल्मी लड़कियों से दूर रहना। 

1938 तक अशोक कुमार की छह फिल्में आ चुकी थीं। फिल्म अछूत कन्या से उनको प्रसिद्धि भी मिल चुकी थी। उधर उनकी मां परेशान थी कि बेटा इतनी लड़कियों के बीच रहता है क्या पता क्या कर ले। वो अपने बेटे की शादी को लेकर चिंतित रहने लगी थी। 1938 के अप्रैल में मुंबई में अशोक कुमार को एक टेलीग्राम मिला जो उके पिता ने भेजा था। उसमें लिखा था जल्द से खंडवा आ जाओ अति आवश्यक है। उस समय अशोक कुमार फिल्म वचन की शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने फौरन निर्देशक और निर्माता से बात की खंडवा रवाना हो गए। ट्रेन खंडवा पहुंची। अशोक कुमार ट्रेन से उतरने लगे तो देखा कि उनके पिताजी ट्रेन के अंदर आ रहे हैं। वो रुक गए। पिताजी ने आते ही कहा कि ट्रेन से उतरने की जरूरत नहीं है। हमें आगे कलकत्ता (अब कोलकाता) जाना है। उनको पिताजी से पूछने की हिम्मत नहीं हुई। पिताजी ने ही कहा कि लेडीज डब्बे में जाकर अपनी भाभी से मिल लो। वो भाभी से मिलने पहुंचे तो भाभी मुस्कुरा दीं। अशोक कुमार ने पूछा कि हम कोलकाता क्यों जा रहे हैं। भाभी ने शरारती मुस्कान के साथ कहा कि देवर जी बनो मत, हम तुम्हारी शादी के लिए कलकत्ता जा रहे हैं। अशोक जोर से हंसे और अपने डब्बे में आ गए। कलकत्ता पहुंचे तो उनकी मां और अन्य रिश्तेदार पहले से वहां थे। नाटकीय घटनाक्रम में अशोक कुमार की शादी कर दी जाती है। उनके बहनोई शशधर मुखर्जी भी शादी में नहीं पहुंच पाते हैं। ये दिन था 14 अप्रैल 1938 और अशोक कुमार की पत्नी का नाम था शोभा। अशोक कुमार शादी के बाद वापस मुंबई (तब बांबे) लौटे। शादी के बाद अशोक कुमार की प्रसिद्धि और आय दोनों में बढ़ोतरी हुई। अशोक कुमार की मां निश्चिंत हो गईं कि बेटा फिल्मों में काम करके भी बिगड़ेगा नहीं।  


Saturday, October 12, 2024

शील के साथ सबल राष्ट्र का आह्वान


विजयादशमी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस लंबी यात्रा में संघ ने बहुत उतार चढ़ाव देखे। स्वयंसेवकों की निरंतर तपस्या ने इसको विश्व का सबसे बड़ा संगठन बना दिया। एक ऐसा संगठन जो व्यक्ति निर्माण के माध्यम से राष्ट्र को सशक्त करने में लगा है। ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को 100 वर्ष तक की यात्रा पूरी करने में विरोध नहीं झेलना पड़ा। अकादमिक और पत्रकारिता के क्षेत्र में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम सुनकर ही आगबबूला होनेवाले लोगों की बड़ी संख्या रही है। अकादमिक जगत में सैकड़ों पुस्तकें लिखी गईं जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्रियाकलापों को बिना जाने धारणा के आधार पर निष्कर्ष निकाले गए। अब भी निकाल रहे हैं। अंग्रेजी के कई लेखक जो स्वयं को लिबरल कहते हैं वो सहजता के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मिलिटेंट संगठन लिख रहे हैं। संघ को कट्टरपंथी संगठन और प्रगतिशील नहीं माननेवाले अकादमिक जगत के तथाकथित विद्वानों को विजयादशमी के अवसर पर सरसंघचालक मोहन भागवत का व्याख्यान सुनना और समझना चाहिए। अपने इस व्याख्यान में मोहन भागवत जी ने जिस तरह से भारतीय समाज के यथार्थ को उद्घाटित किया उसके गहरे निहितार्थ हैं। समाज में क्या चल रहा है, किस तरह से भारतीय समाज को बांटने की राजनीति हो रही है, किस तरह से भारत को कमजोर करने के लिए अंतराष्ट्रीय स्तर पर रणनीति बनाई जा रही है, किस तरह से देश के कुछ लोगों और समूहों को प्रभावित करके भारत विरोधी ताकतें सक्रिय हैं उन सब पर मोहन भागवत जी ने विस्तार से बोला। समाज को सचेत भी किया।

मोहन भागवत जी ने स्पष्ट रूप से कहा कि पिछले कुछ वर्षों में भारत की धमक पूरे विश्व में बढ़ी है। देशहित की प्रेरणा से युवा शक्ति, मातृशक्ति, उद्यमी किसान, श्रमिक, जवान, प्रशासन, शासन सभी से प्रतिबद्धतापूर्वक अपने कार्य में डटे रहने से विश्वपटल पर भारत की छवि, शक्ति, कीर्ति व स्थान निरंतर उन्नत हो रहा है। यह कहने के बाद वो समाज को चेताते भी हैं, हम सबके इस कृतनिश्चय की परीक्षा लेने के लिए कुछ मायावी षडयंत्र हमारे सामने उपस्थित हुए हैं जिनको ठीक से समझना आवश्यक है। अगर पूरे देश पर नजर डालें तो चारो तरफ के क्षेत्रों को अशांत व अस्थिर करने के प्रयास गति पकड़ते हुए दिखाई देते हैं। मोहन भागवत के भाषण को अगर समग्रता में विश्लेषित करने की कोशिश करें तो इस चेतावनी के बाद वो उन अदृष्य अंतराष्ट्रीय शक्तियों की भी चर्चा करते हैं जो पूरी दुनिया में अपने स्वार्थ के कारण लोकतंत्र के नाम पर दूसरे देशों में गड़बड़ियां फैलाने का कार्य करते हैं। वो अरब स्प्रिंग से लेकर बांग्लादेश में हिंसक तख्तापलट का उदाहरण देते हुए हिंदू समाज को संगठित और सबल बनने की बात को रेखांकित करते हैं।

डा मोहन भागवत समाज में भारतीय संस्कारों के नष्ट करनेवाली शक्तियों की पहचान करते हुए उनसे सतर्क भी करते हैं। डीप स्टेट, वोकिज्म, कल्चरल मार्क्सिस्ट जैसे शब्दों की चर्चा करते हुए इसको सांस्कृतिक परंपराओं का घोषित शत्रु करार देते हैं। वो बेहद तीखे शब्दों में इनपर आक्रमण करते हैं, सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं तथा जहां जहां जो भी भद्र, मंगल माना जाता है उसका समूल उच्छेद इस समूह की कार्यप्रणाली का अंग है। समाज मन बनाने वाले तंत्र व संस्थानों यथा शिक्षा तंत्र, शिक्षा संस्थान, संवाद माध्यम, बौद्धिक संवाद से अपने प्रभाव में लाना, उनके द्वारा समाज का विचार, संस्कार तथा आस्था को नष्ट करना यह इस कार्यप्रणाली का प्रथम चरण है। इसको हम इस तरह से भी समझ सकते हैं कि हिंदू त्योहारों के समय इस समूह को पर्यावरण की चिंता सताने लगती है। हिंदू धर्म प्रतीकों को पिछड़ेपन की निशानी बताने का अभियान चलाया जाता है। हिंदू समाज की किसी एक घटना से पूरे समाज को प्रश्नांकित किया जाता है। समाज में टकराव की संभावनाओं की निरंतर तलाश की जाती रहती है। जैसे ही कहीं कोई फाल्ट लाइन मिलती है तो ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं कि प्रतीत होता है कि ये समस्या बहुत बड़ी है। प्रत्यक्ष टकराव की जमीन भी तैयार कर दी जाती है। इसको नागरिकता संशोधन कानून के समय, किसान आंदोलन के समय और 2015 के पुरस्कार वापसी अभियान में देखा जा सकता है। किस तरह से एक छोटी सी घटना को इकोचैंबर में बैठे अकादमिक, लेखन, सिनेमा से जुड़े लोगों ने गुब्बारे की तरह फुला दिया था। मोहन भागवत की राय है कि देश में बिना कारण कट्टरपन को उकसानेवाली घटनाओँ में अचानक वृद्धि हो रही है। परिस्थिति या नीतियों को लेकर मन में असंतुष्टि हो सकती है परंतु उसको व्यक्त करने या विरोध करने के प्रजातांत्रिक मार्ग होने चाहिए। उनका अवलंबन न करते हुए हिंसा पर उतर आना और भय पैदा करने के प्रयास करने को वो बेहद तल्ख शब्दों में गुंडागर्दी कहते हैं। अकारण हिंसा फैलाकर तंत्र को बाधित करने के इन प्रयासों को बाबासाहेब अराजकता का व्याकरण कहते थे।

विजयादशमी पर डा मोहन भागवत के भाषण को दो हिस्सों में बांटकर देखा जाना चाहिए। पहला हिस्सा जिसमें वो सबल राष्ट्र की बात करते हैं। वो हिंदुओं के संगठित होने की अपेक्षा करते हैं। कहते हैं कि इस देश को एकात्म, सुख शांतिमय, समृद्ध और बल संपन्न बनाना यह सबकी इच्छा है और सबका कर्तव्य भी है। इसमें हिंदू समाज की जिम्मेवारी अधिक है। यहां वो बहुत अच्छा उदाहरण देते हैं, समाज स्वयं जगता है, अपने भाग्य को अपने पुरुषार्थ से लिखता है तब महापुरुष, संगठन, संस्थाएं, शासन, प्रशासन आदि सब सहायक होते हैं। शरीर की स्वस्थ अवस्था में क्षरण पहले आता है बाद में रोग उसको घेरते हैं। वो जब सबलता की बात करते हैं तो एक सुभाषित के माध्यम से कहते हैं कि दुर्बलों की परवाह तो देव भी नहीं करते। अपने भाषण के दूसरे हिस्से में वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष में संगठन की कार्ययोजना प्रस्तुत करते हैं। सामाजिक समरसता, पर्यावरण, संस्कार जागरण, नागरिक अनुशासन और स्व गौरव आदि की बात करते हैं। वो इस बात की अपेक्षा भी जताते हैं कि संवाद माध्यमों का उपयोग करनेवालों को इनका उपयोग समाज को जोड़ने के लिए करना चाहिए ना कि तोड़ने के लिए, सुसंस्कृत बनाने के लिए हो ना कि अपसंस्कृति फैलाने के लिए। अपने व्याख्यान में उन्होंने ओटीटी प्लेटफार्म पर चलनेवाली सामग्री की गुणवत्ता को लेकर चिंता प्रकट की। ओटीटी पर आनेवाली सामग्री पर कानून के नियंत्रण पर भी बल दिया। यह सरकार के लिए भी एक संदेश है। जब संस्कारों और उसके क्षरण की बातें होंगी या जब सरकार के विरुद्ध जन के मानस में गलत छवि आरोपित करने की बात होगी तो ओटीटी प्लेटफार्म्स पर परोसी जानेवाली मनोरंजन सामग्री पर विचार करना ही होगा। समाज को संगठित करते हुए सबल बनाने की बात करते हुए मोहन भागवत ने ये भी स्पष्ट किया कि सबलता शील के साथ आनी चाहिए। विश्व मंगल की अवधारणा पर आधारित व्यवस्था में भारत को एक सबल राष्ट्र के तौर पर स्थापित करने के लिए प्रत्येक भारतवासी को कार्य करना चाहिए। उन तत्वों की पहचान करके उनको परास्त करना होगा जो भारत के सिस्टम में रहते हुए भारत को कमजोर करने के प्रयत्न में लगे रहते हैं।

 

Saturday, October 5, 2024

शास्त्रीय भाषाओं परअकारण राजनीति


पिछले दिनों भारत सरकार ने पांच भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने की घोषणा की। मराठी, बंगाली, पालि, प्राकृत और असमिया को हाल ही में संपन्न केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में शास्त्रीय भाषा के तौर पर स्वीकार किया गया। जैसे ही इस, बात की घोषणा की गई कुछ विघ्नसंतोषी किस्म के लोग इसको महाराष्ट्र चुनाव के जोड़कर देखने लगे। इस तरह की बातें की जाने लगीं कि चूंकि कुछ दिनों बाद महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं इस कारण सरकार ने मराठी को क्लासिकल भाषा का दर्जा देने की घोषणा की। इसको मराठी मतदाताओं को लुभाने के प्रयास की तरह देखा गया। हर चीज में राजनीति ढूंढनेवालों को ये समझना चाहिए कि इन पांच भाषाओं को क्लासिकल भाषा की श्रेणी में रखने का निर्णय आकस्मिक तौर पर नहीं लिया गया है। भारतीय भाषाओं के इतिहास में आकस्मिक कुछ नहीं होता। बड़ी बड़ी क्रांतियां भी भाषा में कोई बदलवा नहीं कर पाती हैं। उसके लिए सैकड़ों वर्षों का समय लगता है। पांच भाषाओं को क्लासिकल भाषा का दर्जा देना मोदी सरकार का सुचिंतित निर्णय है। प्रधानमंत्री मोदी ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के बाद लालकिले की प्राचीर से अमृतकाल में विकसित भारत बनाने के लिए पंच-प्रण की घोषणा की थी। उसमें से एक प्रण था विरासत पर गर्व। विरासत पर गर्व को व्याख्यायित करने का प्रयास करें तो इन भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देना राजनीति नहीं लगेगी। न ही किसी चुनाव में मतदाता को लुभाने के लिए उठाया गया कदम प्रतीत होगा। प्रधानमंत्री मोदी अपने निर्णयों में स्वयं उन पंच प्रण तो लेकर सतर्क दिखते हैं। प्रतीत होता है कि वो विरासत पर गर्व को लेकर देश में एक ऐसा वातावरण बनाना चाहते हैं जिसपर पूरे देश को गर्व हो सके। अपनी भाषाओं को शास्त्रीय भाषा की श्रेणी में डालने के पीछे इस तरह का सोच ही संभव है। 

किसी भी भाषा को जब शास्त्रीय भाषा के तौर पर मानने का निर्णय केंद्र सरकार लेती है तो उसके साथ कई कदम भी उठाए जाते हैं। शिक्षा मंत्रालय इन भाषाओं के उन्नयन के लिए कई प्रकार के कार्य आरंभ करती हैं। 2020 में तीन संस्थाओं को संस्कृत के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालय बना दिया गया। पूर्व में घोषित भारतीय भाषाओं के लिए सेंटर आफ एक्सिलेंस बनाया गया। मराठी की बात कुछ देर के लिए छोड़ दी जाए। विचार इसपर होना चाहिए कि पालि और प्राकृत को क्लासिकल भाषा का दर्जा देने में इतनी देर क्यों लगी। पालि और प्राकृत में इतनी अकूत बौद्धिक संपदा है जिसके आधार पर इन दोनों भाषाओं को तो आरंभ में ही शास्त्रीय भाषा की श्रेणी में रखना चाहिए था। बौद्ध और जैन साहित्य तो उन्हीं भाषाओं में लिखा गया। इनमें से कई पुस्तकों का अनुवाद आधुनिक भारत की भाषाओं में अबतक नहीं हो सका है। हम अपनी ही ज्ञान परंपरा से कितने परिचित हैं इसके बारे में विचार करना आवश्यक है। इन दिनों उत्तर भारत के किसी भी विश्वविद्यालय के किसी सेमिनार में जाने पर विषय या वक्तव्य में भारतीय ज्ञान परंपरा अवश्य दिखाई या सुनाई देगा। इन सेमिनारों में उपस्थित कथित विद्वान वक्ताओं में से अधिकतर को भारतीय ज्ञान परपंरा के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं होता है। भारत की शास्त्रीय भाषाओं के बारे में जितना अधिक विचार होगा, उसमें उपलब्ध उत्कृष्ट सामग्री का जितना अधिक अनुवाद होगा वो हमारी समृद्ध विरासत के बारे में लोगों को बताने का एक उपक्रम होगा। आज अगर बौद्ध मठों में पाली या प्राकृत भाषा में लिखी सामग्री हैं तो आवश्यकता है उनको बाहर निकालकर अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाकर आमजन तक पहुंचाने का कार्य किया जाए। इससे सबका लाभ होगा। संभव है कि देश का इतिहास भी बदल जाए। 

आवश्यकता इस बात की है कि मोदी कैबिनेट ने जो निर्णय लिया है उसको लागू करवाया जाए। शिक्षा मंत्रालय के मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान योग्य और समर्पित व्यक्ति हैं। उनको भाषा के बारे में विशेष रूप से रुचि लेकर, संगठन के कार्य के व्यस्त समय से थोड़ा सा वक्त निकालकर इसको देखना चाहिए। उनके मंत्रालय के अधीन एक संस्था है भारतीय भाषा समिति। इस समिति का गठन 2021 में भारतीय भाषाओं के प्रचार प्रसार के लिए किया गया था। इस संस्था के आधे अधूरे वेवसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसका कार्य राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में परिकल्पित भारतीय भाषाओं के समग्र और बहु-विषयक विकास के मार्गों की सम्यक जानकारी प्राप्त करना और उनके क्रयान्वयन की दिशा में सार्थक प्रयास करना है। इस समिति का जो तीसरा उद्देश्य है वो बहुत ही महत्वपूर्ण है। समिति को मौजूदा भाषा-शिक्षण और अनुसंधान को पुनर्जीवित करने और देश में विभिन्न संस्थाओं में इसके विस्तार से संबंधित सभी मामलों पर मंत्रालय को परामर्श का कार्य भी सौंपा गया है। ये महत्वपूर्ण अवश्य है लेकिन इसका दूसरा पहलू ये है कि समिति ने मंत्रालय को क्या परामर्श दिए इसका पता नहीं चल पाता है। पता तो इसका भी नहीं चल पाता है कि समिति के किन परामर्शों पर मंत्रालय ने कार्य किया और किस पर नहीं किया। इस संस्था के गठन के तीन वर्ष होने को आए हैं लेकिन इसकी एक ढंग की वेबसाइट तक नहीं बन पाई। इनके कार्यों के बारे में भी कुछ ज्ञात नहीं हो पाया है। बताया जाता है कि इनके परामर्श पर कुछ संपादित पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है। इसके अध्यक्ष चमू कृष्ण शास्त्री संस्कृत के ज्ञाता हैं। संस्कृत को लेकर उनका प्रेम सर्वज्ञात है। संस्कृत के कितने ग्रंथ ऐसे हैं जिनका भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाकर उसको स्कूलों से लेकर महाविद्यालयों की शिक्षा से जोड़ा जा सकता है। बताया जाता है कि काशी-तमिल संगमम जैसे कार्यक्रम इस समिति के परामर्श पर आयोजित किए गए थे। आयोजन से अधिक ठोस कार्य करने की आवश्यकता है जो दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ सके । 

दरअसल सबसे बड़ी दिक्कत शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय के अधिकतर संस्थानों के साथ यही हो गई है कि वो आयोजन प्रेमी हो गए हैं। आयोजनों में कुछ ही चेहरे आपको हर जगह दिखाई देंगे। वो इतने प्रतिभाशाली हैं कि उनको हर विषय़ का ज्ञान है या फिर किसी के कृपापात्र। समितियों और संस्थाओं को लगता है कि किसी विषय पर आयोजन करवाकर, उसके व्याख्यानों को संपादित कराकर पुस्तक प्रकाशन से भारतीय भाषाओं का भला हो जाएगा। संभव है कि हो भी जाए। पर आयोजनों से अधिक आवश्यक है कि इस तरह की समितियां सरकार को शोध प्रस्ताव दें, विषयों का चयन करके उसपर कार्य करवाने की सलाह विश्वविद्यालयों को दें। प्राचीन और अप्राप्य ग्रंथों की सूची बनाकर मंत्रालय को सौंपे जिससे उनका प्रकाशन सुनिश्चित किया जा सके। और इन सारी जानकारियों को अपनी वेबसाइट पर अपलोड करे। जबतक शास्त्रीय भाषाओं को लेकर गंभीरता से कार्य नहीं होगा, जबतक भाषा के प्राचीन रूपों के ह्रास और नवीन रूपों के विकास की प्रक्रिया से पाठकों को अवगत नहीं करवाया जाएगा तबतक ना तो भाषा की समृद्धि आएगी और ना ही गौरव बोध। भारतीय भाषाओं के लिए कार्य करनेवाली संस्थाओं की प्रशासनिक चूलें कसने की भी आवश्यकता है। मैसूर स्थित भाषा संस्थान मृतप्राय है उसको नया जीवन देना होगा तभी वहां भाषा संबंधी कार्य हो सकेगा। इसपर फिर कभी चर्चा लेकिन फिलहाल इन शास्त्रीय भाषाओं को लेकर जो चर्चा आरंभ हुई है उसको लक्ष्य तक पहुंचते देखना सुखद होगा।