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Saturday, May 4, 2024

अमेठी से जीत का नहीं था भरोसा


लोकसभा चुनाव के दौरान अमेठी और रायबरेली से कांग्रेस प्रत्याशी की घोषणा को लेकर अनिश्चितता नामांकन के अंतिम दिन दूर हुई। कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी रायबरेली से कांग्रेस के उम्मीदवार बने। प्रियंका गांधी वाड्रा के चुनाव लड़ने पर भी कयास लगाए जा रहे थे लेकिन चुनावी रण से दूर रहेंगी। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने राहुल गांधी पर अमेठी का रण छोड़ने का आरोप लगाया। प्रियंका गांधी वाड्रा के बारे में ये कहा गया कि वो कांग्रेस की स्टार प्रचारक हैं, पूरे देश में पार्टी का प्रचार करना है, इस कारण वो चुनाव नहीं लड़ रही हैं। इस पूरे प्रकरण के दौरान कई ऐसी बातें आईं जिनके बारे में विचार करना आवश्यक है। तथ्यों को देखना भी। निरंतर ये कहा जाता रहा है कि रायबरेली और अमेठी गांधी परिवार का गढ़ है। आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि रायबरेली कांग्रेस पार्टी का गढ़ तो हो सकता है लेकिन गांधी परिवार का नहीं। इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव हारी थीं। उसके बाद के चुनाव में उन्होंने दक्षिण भारत की मेडक और रायबरेली सीट से चुनाव लड़कर जीत हासिल की। फइर रायबरेली सीट से इस्तीफा दे दिया। अब फिर से प्रश्न उठ रहा है कि अगर राहुल गांधी भी रायबरेली और वायनाड, दोनों क्षेत्र से चुनाव जीत जाते हैं, तो वायनाड को प्राथमिकता देंगे या रायबरेली को। केरल में दो वर्ष बाद विधानसभा का चुनाव होना है और अगर राहुल गांधी केरल के वायनाड की सीट से जीतने के बाद इस्तीफा दे देते हैं तो उसका असर उस चुनाव पर पड़ सकता है। कांग्रेस को लगातार दो बार केरल के विधानसभा चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा है। आगामी चुनाव को लेकर कांग्रेस को बड़ी उम्मीदें हैं। अगर वो वायनाड को प्राथमिकता देते हैं तो उसका असर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के भविष्य पर पड़ेगा। राहुल गांधी के सामने ये संकट है। देश का राजनीतिक इतिहास इस बात की पुष्टि करता है कि दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने के लिए उत्तर प्रदेश में बेहतरीन प्रदर्शन करना आवश्यक होता है। इसका कांग्रेस क्या उत्तर ढूंढती है ये देखना दिलचस्प होगा। 

अब बात अमेठी की। अमेठी से राहुल गांधी तीन बार सांसद निर्वाचित हुए। 2019 में स्मृति इरानी से पराजित हो गए। कई राजनीतिक पंडितों और कांग्रेस समर्थक विश्लेषकों का मानना है कि राहुल गांधी ने अमेठी को छोड़कर स्मृति इरानी की महत्ता को कम कर दिया। अब यहीं से निष्कर्ष दोषपूर्ण हो जाता है। स्मृति इरानी दो दशक से अधिक समय से राजनीति में सक्रिय हैं। पिछले दस वर्षों से वो कैबिनेट मंत्री हैं। उसके पहले भाजपा की महिला मोर्चा की अध्यक्ष रह चुकी हैं। दो बार पार्टी की राष्ट्रीय सचिव रही हैं। उनका एक सफल करियर रहा है। राहुल गांधी को एक बार पराजित कर इतिहास बना चुकी हैं। 2019 में जब राहुल गांधी पराजित हुए थे तब वो कांग्रेस पार्टी के अखिल भारतीय अध्यक्ष थे। स्मृति इरानी को कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष को हराने का गौरव भी हासिल है। राहुल गांधी के अमेठी से चुनाव नहीं लड़ने से उनकी अबतक बनी महत्ता कम नहीं होने वाली है। दोषपूर्ण निष्कर्षों से आगे जाकर हमें तथ्यों और आंकड़ों पर बात करनी चाहिए कि राहुल गांधी ने अमेठी का रण क्यों छोड़ा। राहुल गांधी पहली बार अमेठी से 2004 में सांसद बने। इस चुनाव में उनको दो लाख 90 हजार से अधिक वोटों से जीत मिली। 2009 में जीत का अंतर तीन लाख सत्तर हजार वोटों तक पहुंच गया। पर 2014 में जब स्मृति इरानी पहली बार अमेठी पहुंचीं तो उनके जीत का अंतर घटकर एक लाख सात हजार रह गया। जबकि स्मृति को करीब तीन सप्ताह का समय मिला था। 2019 में राहुल 55 हजार वोटों से हार गए। पिछले दो चुनावों में उनको मिलनेवाले मतों की संख्या कम हुई। इतना ही नहीं 2017 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अमेठी संसदीय क्षेत्र के पांच विधानसभा क्षेत्रों में से कांग्रेस एक पर भी जीत हासिल नहीं कर पाई। चार सीटें भारतीय जनता पार्टी को और एक समाजवादी पार्टी को मिली। 2022 के विधानसभा चुनाव में अमेठी लोकसभा के पांच विधानसभा क्षेत्रों में तीन पर भारतीय जनता पार्टी और दो पर समाजवादी पार्टी को जीत मिली। समाजवादी पार्टी के एक विधायक अब भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं। इस विधानसभा चुनाव में पूरे प्रदेश में कांग्रेस को मिले वोटों का प्रतिशत बहुत ही कम रहा, जबकि प्रियंका गांधी की देखरेख में वहां चुनाव हुए थे। 

एक और तथ्य की बात करना आवश्यक है जिसने अमेठी से राहुल की उम्मीदवारी टाली गई। जब 2019 के संसदीय चुनाव में राहुल गांधी अमेठी से पराजित हुए तो उसके बाद वो इस क्षेत्र के दौरे पर बहुत ही कम गए। चुनाव के समय वहां उनकी उपस्थिति पर मतदाताओँ के मन में स्वाभाविक तौर पर ये प्रश्न उठता कि इतने दिनों तक कहां थे। जबकि 2014 में पराजित होने के बाद स्मृति इरानी निरंतर अमेठी आती जाती रहीं। चुनाव हारने के 15 दिन के अंदर ही स्मृति इरानी अमेठी पहुंच गई थीं। राहुल गांधी अपने मतदाताओं के आसन्न प्रश्नों का उत्तर नहीं खोज पाने के कारण भी रायबरेली चले गए प्रतीत होता है। राजनीतिक विश्लेषकों का ये भी कहना है कि कांग्रेस पार्टी ने जो आंतरिक सर्वे करवाया उसमें अमेठी से बहुत सकारात्मक रुझान कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में नहीं मिले। जबकि रायबरेली के मतदाता राहुल को लेकर उत्साहित होने का संकेत दे रहे थे। चर्चा तो ये भी रही थी कि प्रियंका गांधी वाड्रा को अमेठी से और राहुल को रायबरेली से प्रत्याशी बना दिया जाए। विश्लेषकों का आकलन है कि सोनिया गांधी की सीट से जो भी प्रत्याशी होता उसको सोनिया की राजनीति का स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जाता। अगर रायबरेली से प्रियंका गांधी चुनाव लड़तीं तो संभव है कि ये संदेश जाता। सोनिया जी निरंतर राहुल गांधी के पक्ष में दिखती रही हैं। वो उनको ही आगे लाना चाहती हैं। अगर प्रियंका चुनावी राजनीति में आतीं तो पार्टी में एक और पावर सेंटर उभरने का खतरा था। दूसरे भारतीय जनता पार्टी का परिवारवाद का आरोप और गाढ़ा होता। रायबरेली से प्रियंका और वायनाड से राहुल गांधी जीत जाते तो परिवार के तीन लोग संसद के सदस्य होते। इन आरोपों से बचने के लिए भी प्रियंका को चुनाव नहीं लड़वाया गया। कुल मिलाकार अगर देखें तो राहुल के अमेठी से नहीं लड़ने के बहुत सारे कोण हैं। एक कोण जो बेहद महत्वपूर्ण है वो ये है कि स्मृति इरानी ने क्षेत्र में अपनी उपस्थिति से और वहां के मतदाताओं के साथ संवाद कायम करके अमेठी की जनता को गांधी परिवार के मोह से लगभग मुक्त कर दिया। अमेठी में ऐसे लोग अब कम ही हैं जो गांधी परिवार के साथ अपने रिश्तों को याद करते हुए आंख मूंदकर परिवार को वोट देते रहे हैं। राजीव गांधी के सांसद रहते तक तो क्षेत्र के लोगों से उनका मिलना जुलना था। राहुल गांधी के वहां आने के बाद से राजनीति को एक अलग ही तरह से चलाने का प्रयास हुआ। राजनीतिक संबंध रागात्मक न होकर प्रोफेशनल जैसे होने लगे। राजनीति कार्यकर्ताओं का स्थान प्रोफेशनल्स ने ले लिया। ऐसा प्रतीत होता है कि संजय गांधी ने 1976 में जिस राजनीतिक संबंध की नींव अमेठी में रखी थी उसका अंत हो गया। किशोरी लाल शर्मा को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाने से स्मृति इरानी की राह आसान हो गई है। कांग्रेस के प्रत्याशी की छवि नेता की नहीं रही है। वो गांधी परिवार के सहयोगी के तौर पर जाने जाते हैं। व्यवस्थापक और राजनेता का अंतर तो मतदाता समझता ही है। 


Friday, May 3, 2024

फिल्म फेस्टिवल की रोचक कथा


कोरोना महामारी के दौरान फिल्मों के भविष्य को लेकर खूब चर्चा हुई। फिल्म के कई विशेषज्ञों ने सिनेमा हाल में फिल्मों के प्रदर्शन के अंत की आशंका भी जताई थी। इस तरह की तमाम आशंकाएं गलत साबित हुईं और भारतीय फिल्में न केवल पहले की तरह लोकप्रिय हुईं बल्कि पूरे देश में फिल्म संस्कृति और गाढ़ी हुई। फिल्मों की संस्कृति को मजबूत करने में फिल्म फेस्टिवल्स का बड़ा योगदान रहा है। दिल्ली में कई फिल्म फेस्टिवल्स होते रहे हैं। विश्व का सबसे बड़ा घुमंतू फिल्म फेस्टिवल का आयोजन पिछले ग्यारह वर्षों से दैनिक जागरण करता रहा है। जागरण फिल्म फेस्टिवल का आरंभ दिल्ली से होता है और देश के 18 शहरों में आयोजित होता है। दिल्ली में ओशियान फिल्म फेस्टिवल भी होता था। बीते कल (शुक्रवार) से दिल्ली में हैबिटैट फिल्म फेस्टिवल का आरंभ हुआ है। गोवा में आयोजित होनेवाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया (इफी) की शुरुआत मुंबई में हुई थी लेकिन उसी वर्ष दिल्ली में भी इसका आयोजन किया गया था। तब इस फेस्टिवल का आयोजन भारत सरकार के फिल्म प्रभाग ने किया था। दिल्ली में अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल शुरु होने की भी एक दिलचस्प कहानी है। जब देश स्वाधीन हुआ तो उसके करीब एक वर्ष बाद 1948 में भारत सरकार ने फिल्म प्रभाग की स्थापना की थी। तब इसका काम भारत सरकार से जुड़े कार्यों के बारे में जनता को बताना था। महेन्द्र मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय सिनेमा’ में लिखा है, ‘सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत फिल्म्स डिवीजन की स्थापना 1948 में हुई। फिल्म्स डिवीजन उस समय शायद दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक केंद्र था जिसमें समाचार और अन्य राष्ट्रीय विषयों पर वृत्तचित्र बनाए जाते थे। ये वृत्तचित्र, समाचार चित्र और लघु फिल्में पूरे देश में प्रदर्शन के लिए बनती थीं। प्रत्येक फिल्म की नौ हजार प्रतियां बनती थीं जिनकी संख्या कभी कभी चालीस हजार तक पहुंच जाती थीं। ये भारत की तेरह प्रमुख भाषाओं और अंग्रेजी में पूरे देश में सभी सिनेमाहॉलों में मुफ्त प्रदर्शित की जाती थीं। समाचार चित्रों और लघु फिल्मों एवं वृत्तचित्रों का परोक्ष रूप से दर्शकों पर व्यापक प्रभाव पड़ा जिसने उनकी रुचि बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।‘ 

फिल्म प्रभाग के चीफ प्रोड्यूसर थे मोहन भवनानी। वो दिल्ली में ही सूचना और प्रसारण मंत्रालय के कार्यालय में बैठते थे। मोहन भवनानी जून 1951 में फिल्म विशेषज्ञों के एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए पेरिस गए थे। ये कार्यक्रम यूनेस्को ने आयोजित किया था। उस कार्यक्रम में फिल्म फेस्टिवल के आयोजनों और उसके प्रभाव पर जमकर चर्चा हुई थी। वहां से लौटकर मोहन भवनानी ने भारत सरकार को फिल्म फेस्टिवल के आयोजन संबंधी एक प्रस्ताव दिया। उनके इस प्रस्ताव को भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया। उस समय तय ये किया गया था कि फिल्म फेस्टिवल का आयोजन देश के चार शहरों- बांबे (अब मुंबई), दिल्ली, कलकत्ता (अब कोलकाता) और मद्रास (अब चेन्नई) में करवाने का निर्णय हुआ। तय ये किया गया कि इनमें देशी विदेशी दोनों फिल्में दिखाई जाएंगी। दिल्ली में इस आयोजन को लेकर काफी तैयारियां की गई थीं। फिल्मी सितारों ने नईदिल्ली इलाके में रोडशो किया था। सितारों को देखने के लिए दिल्ली की सड़कों पर भारी भीड़ उमड़ी थी। कहीं-कहीं इस बात का उल्लेख मिलता है कि राजकपूर और नरगिस के अलावा भी कुछ कलाकारों ने दिल्ली में आयोजित प्रथम इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भाग लिया था। दिल्ली में उस समय सिनेमाघरों की संख्या कम थी इस कारण कई जगहों पर अस्थायी टेंट लगाकर सिनेमाघर बनाए गए थे और प्रोजोक्टर पर फिल्में दिखाई गई थीं। दिल्ली में चार हजार दर्शकों के लिए अस्थायी सिनेमाघर तैयार किए गए थे। 21 फरवरी 1952 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली में आयोजित फिल्म फेस्टिवल का शुभारंभ किया था। इस समारोह में भाग लेनेवाले कलाकारों के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद ने राष्ट्रपति भवन में विशेष भोज का आयोजन किया था और बताया जाता है कि राजेन्द्र बाबू पूरे समय उपस्थित रहे थे। उन्होंने दुनियाभऱ में फिल्मों के ट्रेंड के बारे में कलाकारों से बातचीत की थी। इस रात्रिभोज में उस समय के सूचना और प्रसारण मंत्री आर आर दिवाकर भी उपस्थित थे।

दिल्ली में आयोजित फिल्म फेस्टिवल में अमेरिका, इटली, फ्रांस और रूस समेत 23 देशों के फिल्मकारों ने भाग लिया था। अमेरिका के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व मशहूर निर्देशक फ्रैंक कैपरा ने किया था। इसमें 40 फीचर फिल्में और करीब 100 गैर फीचर फिल्में प्रदर्शित की गई थीं। दिल्ली के दर्शकों ने इटली की फिल्म बायसकिल थीब्स, मिरेकल इन मिलान और ओपन सिटी को खूब पसंद किया था। इस फिल्म फेस्टिवल में ही जापान के प्रख्यात फिल्म निर्देशक अकीरा कुरोसावा की फिल्म राशोमन भी दिखाई गई थी। कहा जाता है कि पहले फिल्म फेस्टिवल में ही बिमल राय ने इटली की फिल्म बायसकिल थीब्स देखने के बाद ही उनके मन में दो बीघा जमीन बनाने का आयडिया आया। कहा तो ये भी जाता है कि इस फिल्म ने ही भारतीय फिल्मकारों को यथार्थवादी फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। 

1952 में आयोजित फिल्म फेस्टिवल के बाद अपने देश में विदेशी फिल्मों को लेकर रुचि जाग्रत हुई। कई अन्य देशों के फिल्मों से परिचय होना आरंभ हुआ। अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल की उस समय काफी चर्चा हुई थी, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी दिल्ली के आयोजन में उपस्थित थे। बावजूद इसके दूसरे आयोजन में नौ वर्ष लगे और अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का दूसरा संस्करण 1961 में आयोजित हो सका। फिल्म फेस्टिवल का दूसरा संस्करण नईदिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित किया था। चार वर्षों के बाद फिर फेस्टिवल का आयोजन हुआ। फिर चार वर्षों के अंतराल पर दिल्ली के अशोक होटल में इसका आयोजन हुआ। इसके बाद फिल्म फेस्टिवल का आयोजन तीन चार वर्षों के अंतराल पर होता रहा। 1983 में अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का आयोजन दिल्ली के सीरीफोर्ट आडिटोरियम में हुआ था।  फिल्म फेस्टिवल देश के अलग अलग शहरों में हो रहा था। लंबे अंतराल के बाद दिल्ली में होता था तो दर्शकों के बीच काफी उत्सुकता रहती थी। दिल्ली में भारतीय अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का 34वां संस्करण अक्तूबर 2003 में आयोजित किया गया था। इसके बाद से केंद्र सरकार ने निर्णय लिया और अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल को प्रतिवर्ष गोवा में आयोजित किया जाएगा। तब से गोवा में आयोजित हो रहा है। दिल्ली में जागरण फिल्म फेस्टिवल, हैबिटैट फिल्म फेस्टिवल और आईआईसी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन होता है जिसमें दर्शकों को क्षेत्रीय और विदेशी फिल्में देखना का अवसर मिल जाता है।   

Saturday, April 27, 2024

पार्टी भक्ति से संदिग्ध साहित्यधर्मिता


इस वक्त देश में आम-चुनाव चल रहे हैं। दो चरणों के लिए मतदान संपन्न हो चुके हैं। चुनाव के बीच इंटरनेट मीडिया पर साहित्यकारों का एक खेमा जमकर राजनीति की बात करता है। खुद को कथित रूप से प्रगतिशील कहने और देश में धर्मनिरपेक्षता की वकालत करनेवाले लेखक दिन-रात राजनीति पर लिखते रहते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते रहते हैं। कुछ लेखक तो राजनीतिक दलों के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर खुद को प्रस्तुत करते हैं। उनके लेखन में वामपंथ का एजेंडा साफ दिखता है। यह अलग बात है जबसे जनता ने वाम दलों को नकार दिया है तब से तमाम वामपंथी लेखकों को कांग्रेस में भविष्य नजर आने लगा है। ऐसे लेखक भी कांग्रेस की जयकार करते हुए भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचना में जुटे रहते हैं। स्वयं को प्रगतिशील साबित करने की होड़ में बहुधा आलोचना की मर्यादा तोड़ते नजर आते हैं। फेसबुक, एक्स (पहले ट्विटर) और इंस्टा चूंकि स्वच्छंद इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स हैं, इसलिए वहां मर्यादाविहीन टिप्पणियां देखने को मिलती हैं। इस स्तंभ में कई बार इसकी चर्चा की जा चुकी है कि लेखक संगठनों, प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच, से जुड़े लेखक अपनी लेखन के लिए अपने राजनीतिक आकाओं का मुंह जोहते रहते हैं। कहना न होगा कि इन संघों से जुड़े लेखक अपनी रचना में भी जबरन पार्टी के सिद्धांतों को ठूंसने का प्रयत्न करते रहे हैं, अब भी कर रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि हिंदी का पाठक साहित्य से दूर होता जा रहा है। इन वामपंथी लेखक संघों से जुड़े लेखक जिन साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक आदि हैं वो पत्रिकाएं भी संबंधित कम्युनिस्ट पार्टी का मुखपत्र नजर आता है। उसी तरह की कृतियों का चयन किया जाता है और उसपर एक खास वैचारिक दृष्टि से विचार करके उनको चर्चित करने का प्रयास किया जाता है। उन्हीं विषयों पर चर्चा की जाती है जिनमें भारतीय जनता पार्टी की आलोचना की संभावना हो। 

इंटरनेट मीडिया पर इन वामपंथी और कथित प्रगतिशील लेखकों की टिप्पणियों को देखते हुए 1974 में नामवर सिंह के लिखे एक लेख, प्रगतिशील साहित्य धारा में अंध लोकवादी रुझान, की पंक्तियों की याद आती है।  नामवर सिंह ने आज से पांच दशक पहले ये माना था कि वामपंथ से जुड़े लेखक पार्टी लाइन पर लेखन करते हैं। पचास वर्षों बाद भी बहुत कुछ नहीं बदला है। नामवर सिंह ने तब लिखा था, भारत में इस समय तीन या चार कम्युनिस्ट पार्टियां हैं और इनके अलावा भी अपने आपको मार्क्सवादी कहनेवाले कुछ समुदाय तथा व्यक्ति हैं, जिनमें से हर एक के पास कुछ न कुछ लेखक या तो संबद्ध हैं या सहानुभूति रखते हैं। इसलिए अपनी अपनी पार्टियों या समुदायों की राजनीतिक ‘लाइन’ के अनुसार लेखकों की राजनीतिक दृष्टि में भिन्नता स्वाभाविक है। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि इन लेखकों से दलगत निष्ठा, प्रतिबद्धता या राजनीति से ऊपर उठने की बात कहना ज्यादती है। ऐसा कहने के पीछे नामवर सिंह का उद्देश्य चाहे जो रहा हो लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि वो ये स्वीकार कर रहे हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों या मार्क्सवादी समुदायों से जुड़े लेखक राजनीतिक ‘लाइन’ पर लेखन कर रहे थे। नामवर सिंह ने अपने इस लेख में मार्क्सवाद को वैश्विक दृष्टि जरूर करार दिया लेकिन ऐसी कई बातें कह गए जो वामपंथी लेखकों की पोल खोल कर रख देते हैं। वो आगे कहते हैं कि एक निष्ठावान लेखक से उसकी राजनीति की साहित्यिक अंतर्वस्तु की मांग तो की ही जा सकती है क्योंकि एक लेखक के नाते उसका अपना कर्मक्षेत्र तो साहित्य ही है। विचित्र विडंबना है कि अधिकांश लेखक अपनी रराजनीति के अभीष्ट साहित्यिक रूपांतर में या तो असमर्थ हैं या फिर अनजान हैं। दरअसल इस समस्या के समाधान की उम्मीद अनेक निष्ठावान लेखकों को अपनी पार्टी के राजनीतिक नेताओं से है।...किसी समानधर्मा राजनीतिकर्मी तथा बुद्धिजीवी के अनुभव-ज्ञान का लाभ उठाना एक बात है, किंतु साहित्य के जिस क्षेत्र से उनका परिचय नही हैं उसके बारे में उससे समाधान की उम्मीद करना उसके साथ सरासर ज्यादती है। 

पता नहीं क्यों नामवर सिंह अपने वामपंथी कामरेडों पर इतने कुपित थे। उन्होंने यहां तक कह दिया कि राजनितिज्ञों से समाधान की उम्मीद करने से किसी लेखक की पार्टी-भक्ति भले ही प्रमाणित हो,उसकी अपनी सृजनशीलता और साहित्यधर्मिता संदिग्ध हो जाती है। राजनीति के पराश्रयी और राजनीतिक नेताओँ के पिछलग्गू लेखक ही इस दिशा में प्रवृत्त होते हैं। कोई स्वाभिमानी और सुबुद्ध साहित्यकार इस पराश्रयी वृत्ति को स्वीकार नहीं कर सकता है। नामवर की इन टिप्पणियों से स्पष्ट हो रहा है कि वामपंथी लेखक पार्टी-भक्ति करते रहे हैं, राजनीतिक नेताओं के पिछलग्गू रहे हैं और उनकी साहित्यधर्मिता संदिग्ध है। पार्टी भक्ति करनेवाले वामपंथी लेखकों पर नामवर सिंह ने 1974 जो बातें कही थीं उसका कोई असर नहीं दिखता है। अब भी जो पुराने, नववामपंथी या वामपंथ में इंटर्नशिप कर रहे लेखक सभी इसी लीक पर चल रहे हैं। वामपंथ कमजोर हुआ। वामपंथ कांग्रेस का पिछलग्गू बना। तो इस श्रेणी के लेखक भी कांग्रेस के पिछलग्गू बनकर इंटरनेट मीडिया पर क्रांति (?) करने में जुट गए। इस तरह के लेखक देशी विदेशी लेखकों का नाम लेकर अपनी विद्ता से जनता को प्रभावित करना चाहते हैं लेकिन जिस तरह से हर जगह ये सेलेक्टिव होकर बात करते हैं, वैसे ही विदेशी लेखकों को उद्धृत करने में भी इसी सलेक्टिव प्रविधि का उपयोग करते हैं। ग्राम्शी के लिखे को उद्धृत करते हैं। ये कभी नहीं बताते कि उन्होंने कहा था कि ‘राजनीतिज्ञ साहित्य-कला की दुनिया में अपने समय की एक निश्चित सांस्कृतिक दुनिया के निर्माण के लिए दबाव डालते हैं।‘ स्वाधीनता के बाद से ही कम्युनिस्ट नेता हमारे देश में भी साहित्य और कला के क्षेत्र में अपने तरह की सांस्कृतिक दुनिया बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्हें पहले सोवियत रूस से और बाद में चीन से दिशा निर्देश मिलते थे। उन दिशा निर्देशों के अनुसार उन्होंने कला जगत को अपने कब्जे में लिया। 

वामपंथी लेखकों के साथ दिक्कत ये रही है कि वो बहुधा अपनी रचनाओं में राजनीतिक परिवर्तन का नारा लगाते रहे हैं। उनके लिए विरोधी विचारधारा की सरकार और सत्ता हमेशा से दमन का माध्यम है। वो वैचारिक रूप से विरोधी सरकार पर तमाम तरह के आरोप लगाते रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वाधीनता से लेकर संविधान के खतरे में होने तक का। राजनीतिक आरोपों में वो ऐसे फंसते हैं कि सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के पक्ष में बातें नहीं कर पाते हैं। कम्युनिस्टों ने हमारे देश के लेखकों को प्रगतिशील संज्ञा दी। साथ ही प्रगतिशीलता और क्रांति की ऐसी घुट्टी पिलाई कि अधिकतर लेखक राजनीतिक बदलाव के पक्ष में रचनाएं लिखने लगे। होना यह चाहिए था कि वो समाज और संस्कृति को प्रभावित करनेवाली रचनाएं लिखते। ऐसी रचनाएं पाठकों के समक्ष रखते जिनसे पाठकों में भारत की संस्कृति के प्रति एक समझ बनती। भारत की सांस्कृतिक पहचान को गाढ़ा करनेवाली कहानियां, उपन्यास, कविताएं लिखी जाती। लेकिन हुआ इसके उलट। वामपंथी प्रगतिशील लेखकों ने खुद तो इस तरह की रचनाएं लिखी नहीं, जो लेखक इस तरह की रचनाएं लिख रहे थे उनको भी षडयंत्रपूर्वक हाशिए पर डाल दिया गया। कई बार अपमानित किया गया। योग्य लेखकों को सम्मान पुरस्कार से दूर रखा। लेखक संघों ने लेखकों के हितों में कोई कार्य किया हो ये ज्ञात नहीं है। वैचारिक संघर्ष की आड़ में ये दूसरे संघों से जुड़े लेखकों को नुकसान पहुंचाने में जुटे रहे। बेहतर होता कि ये लेखकों के हितों की रक्षा के लिए एकजुट होते। लेखकों के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए सरकार पर दबाव बनाते। पर ऐसा हो न सका। परिणाम लेखक संगठन भी अप्रसांगिक हो गए।  


Saturday, April 20, 2024

फिल्मों से निकलते साहित्यिक संदेश


फिल्मों में रुचि के कारण मित्रों से नई और पुरानी फिल्मों पर चर्चा होती रहती है। आपस में बातचीत करते रहते हैं कि कौन सी फिल्म या वेबसीरीज आई है, किसका ट्रीटमेंट कैसा है, संवाद कैसा है, कौन सी देखी जा सकती है। इसी क्रम में साइलेंस टू का नाम आया। बताया गया कि वो अमुक प्लेटफार्म पर उपलब्ध है। मैंने सोचा, मनोज वाजपेयी की फिल्म है, देख ली जाए। प्रशंसा भी हो रही थी कि अच्छी मर्डर मिस्ट्री है। इस फिल्म को देखने की इच्छा के साथ टीवी आन किया। अलेक्सा का बटन दबाकर कहा, साइलेंस टू। अलेक्सा सर्च करने लगा। चंद पलों में उसने साइलेंस टू को स्क्रीन पर उपस्थित कर दिया। फिल्म का पोस्टर लगा था और नीचे उसकी अवधि भी एक घंटे पचास मिनट उल्लिखित थी। मैंने उसको सेलेक्ट करके चालू कर दिया। फिल्म आरंभ हो गई। मनोज वाजेयी इस फिल्म में थे। कहानी अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी की थी। मेंने देखना आरंभ कर दिया। कुछ अंतराल के बाद मुझे लगा कि गलत फिल्म देख रहा हूं। मैंने उसको बंद किया और फिर अलेक्सा को बोला कि साइलेंट टू दिखाओ। वो फिर वहीं लेकर गया । मैं उसी फिल्म को देखने लगा। करीब पौने घंटे के बाद फिर मुझे लगा कि गलत फिल्म देख रहा हूं। अपने मित्र को फोन करके कहा कि आपने नाम गलत बता दिया । थोड़ी नाराजगी भी दिखाई। उन्होंने फिर से कहा कि साइलेंस टू सर्च करिए और देखिए। अच्छी फिल्म है। मैंने फिर से देखा तो फिल्म के ऊपर छोटे अक्षरों में लिखा आ रहा था साइलेंस टू, मनोज वाजपेयी, प्राची देसाई। मैं फिर निश्चिंत हो गया और आगे देखने लगा। थोड़ी देर बाद ये समझ आ गया कि मैं साइलेंस टू नहीं बल्कि मनोज वाजपेयी की ही एक और फिल्म अलीगढ़ देख रहा था। तबतक एक घंटा देख चुका था। खैर...फिल्म पूरी देख गया। इस फिल्म ने दो सूत्र दे दिए जिसकी चर्चा यहां करना चाहता हूं। पहला तो ये कि अलेक्सा को भी धोखा दिया जा सकता है। किसी ने अलीगढ़ फिल्म के ऊपर साइलेंस टू का थंबनेल लगा दिया था। तकनीकी तौर फिल्म अलीगढ़ को यूट्यूब पर इस तरह से लगाया था कि साइलेंस टू सर्च करने पर वही फिल्म आए। स्तंभ लिखने के पहले एक बार फिर चेक किया। अब भी यही हो रहा था। दरअसल मुझसे गलती ये हो गई थी कि मुझे जी 5 प्लेटफार्म पर जाकर इस फिल्म को सर्च करना चाहिए था। 

दूसरी महत्वपूर्ण बात साहित्य से जुड़ी है। अलीगढ़ फिल्म में प्रोफेसर सिरस (मनोज वाजपेयी) और युवा पत्रकार दीपू (राजकुमार राव) के बीच एक संवाद है। बुजुर्ग प्रोफेसर सिरस युवा पत्रकार दीपू से पूछते हैं कि अच्छा बताओ तुमने किन किन पोएट को पढ़ा है। उत्तर मिलता पोएट, अय्यो! ज्यादा कुछ तो नहीं पढ़ा है...शब्दों का जो खेल है वो सब ऊपर से चला जाता है। प्रोफेसर सिरस कहते हैं कि पोएट्री शब्दों में कहां होती है बाबा। कविता तो शब्दों के अंतराल में मिलती है, साइलेंसेज और पाजेज में होती है। लोग अपने हिसाब से उसका अर्थ निकालते रहते हैं। उम्र और मैच्युरिटी के हिसाब से। समझे। दीपू कहता है, समझा। इसके बाद दीपू उनकी कविता पुस्तक के बारे में पूछता है। प्रोफेसर सिरस बेहद गंभीर भाव भंगिमा में बोलते हैं, नैचुरली आजकल कविता खरीदता कौन है?  और तुम्हारे जेनरेशन के लोगों को तो पोएट्री की समझ ही नहीं है। वो तो हर चीज को किसी न किसी लेबल से चिपकाना चाहते हैं- फैंटेस्टिक, फैबुलस, सुपर, सुपर्ब, कूल और आसम। फिर दोनों की बात केस को लेकर आगे चलती रहती है। संवाद की उपरोक्त पंक्तियों को अगर समकालीन साहित्य के संदर्भ में समझने का प्रयत्न करें तो काफी हद तक ये सही प्रतीत होती है। अगर प्रकाशकों की मानें तो कविता संग्रहों के खरीदार पहले की अपेक्षा में कम हुए हैं। कवियों को अपने संग्रह को प्रकाशित करवाने में संघर्ष करना होता है। समकालीन कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर से स्वयं मुझसे कहा कि उन्होंने एक कविता संग्रह तैयार किया था। उसको प्रकाशित करवाना चाहते थे लेकिन प्रकाशक तैयार नहीं हो रहे थे। उनके मुताबिक प्रकाशकों के तर्क थे कि कविता आजकल खरीदता कौन है। कविता के पाठक घट गए हैं। कई बार फिल्मों के संवाद में साहित्यिक यथार्थ उद्घाटित हो जाते हैं। 

कविता के अलावा प्रोफेसर सिरस ने जो एक और बात कही वो भी महत्वपूर्ण है। युवा पत्रकार को जब वो कहते हैं कि तुम्हारी पीढ़ी हर चीज को किसी न लेबल से चिपकाना चाहती है, फैंटेस्टिक, फैबुलस, सुपर, सुपर्ब, कूल और आसम। ऐसा लेबलीकरण इंटरनेट मीडिया पर साफ तौर देखा जा सकता है। अगर किसी ने फेसबुक पर कोई कविता पोस्ट की तो कमोबेश इसी तरह की प्रतिक्रिया अधिक मिलती है। कई बार तो ऐसा लगता है कि कविता बिना पढ़े पोस्ट पर अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए प्रशंसात्मक लेबलनुमा टिप्पणी कर देते हैं। यह तो हुई वो बात जो सतह पर दिखती है। प्रो सिरस के लेबल लगानेवाली बात के गंभीर निहितार्थ भी हैं। इस तरह की टिप्पणियों (लेबलीकरण) से खराब कविता लिखनेवालों को बढ़ावा मिलता है। उनको लगता है कि वो पंत और निराला के स्तर की कविताएं लिख रहे हैं। तुकबंदी मिलाने और भावोच्छ्वास को कविता की तरह परोसनेवाले लेखकों का उत्साहवर्धन इतना हो जाता है कि इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर इस तरह की कविताएं बहुतायत में उपलब्ध होने लगती है। प्रशंसात्मक टिप्पणियों से उनको लगता है कि वो महान कवि हो गए हैं। अब उनकी कविताओं का संग्रह आना ही चाहिए। वो भावोच्छ्वास और तुकबंदी लेकर प्रकाशकों के यहां पहुंचने लगते हैं। कुछ प्रकाशक, दबाव या अन्य कारणों से संग्रह प्रकाशित भी कर देते हैं। इस तरह के संग्रह कविता के गंभीर पाठकों को भाते नहीं। परिणाम ये होता है कि वो बिक नहीं पाते और कविता को लेकर एक खराब धारणा बनने लगती है। 

इन प्रशंसात्मक लेबलों का एक और गंभीर नुकसान होता है। खराब कविता लिखकर भी प्रशंसा पाने वाले कवियों को ये लगता है कि आलोचकों की कोई भूमिका ही नहीं है। वो खुलेआम ये घोषणा करते नजर आते हैं कि पाठक उनकी कविताओं को पसंद कर रहे हैं तो आलोचकों की आवश्यकता क्या है। कवि और पाठक के बीच तीसरा क्यों ? आलोचकों के इस नकार का परिणाम आज युवा कवि ही सबसे अधिक झेल रहे हैं। संजय कुंदन, प्रेमरंजन अनिमेष, हेमंत कुकरेती की पीढ़ी की कविताओं पर तो कुछ आलोचकों ने विचार किया भी। उनकी कविताओं को रेखांकित किया। उनको साहित्य जगत में कवि रूप में स्थापित किया। इसके बाद की पीढ़ी के कवियों का क्या हुआ ?  इनके बाद की पीढ़ी का आलोचक नहीं होने के कारण अच्छे कवि भी रेखांकित नही हो पा रहे हैं। उनकी पहचान नहीं बन पा रही है। प्रोफेसर सिरस कह रहे हैं कि कविता शब्दों के अंतराल में उसके साइलेंस में होती है। इसी अंतराल और साइलेंस की कविता को उद्घाटित करने का कार्य आलोचक करते हैं। सामान्य लेबलीकरण से न तो अंतराल और न ही साइलेंस के अर्थ पाठकों के सम्मुख आ सकते हैं। आंत में प्रोफेसर सिरस अनुवाद की स्थिति पर भी टिप्पणी करते हुए कहते हैं अनुवाद भी स्तरीय न होने के कारण कविता का रूप बिगड़ जाता है। यह स्थिति सिर्फ कविता की नहीं है। अधिकतर गद्य के अनुवाद भी स्तरहीन हो रहे हैं। सिनेमा को जो लोग सिर्फ मनोरंजन का माध्यम मानते हैं उनको सिनेमा के दृश्यों और संवादों से निकलते संदेशों को पकड़ना चाहिए। कई बार फिल्मों और उसके संवादों से जो संदेश निकलते हैं वो समकालीन रचनात्मकता या सामाजिक संदर्भों पर टिप्पणी होती है।  


Sunday, April 14, 2024

जा पर कृपा राम की होई


चुनाव प्रचार के दौरान मेरठ से भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी अरुण गोविल की एक तस्वीर आई थी जिसमें वो श्रीराम की तस्वीर हाथ में लिए नजर आ रहे थे। कुछ लोगों ने उनकी इस तस्वीर पर आपत्ति जताई और उसको चुनाव प्रचार में धर्म का उपयोग बताना आरंभ किया था। ऐसा करनेवाले ये भूल गए कि उत्तर प्रदेश के एक उपचुनाव में अरुण गोविल और दीपिका चिखलिया को कांग्रेस ने राम और सीता की वेशभूषा में चुनाव प्रचार में उतारा था। कुछ ही दिनों पहले रामानंद सागर निर्मित सीरियल रामायण में इन दोनों ने राम और सीता की भूमिका निभाई थी। दरअसल राम और सीता या रामायण के पात्र धर्म नहीं हैं वो आस्था है। 1943 में भी जब विजय भट्ट निर्देशित फिल्म रामराज्य फिल्म आई थी तो लोगों ने उसमें राम और सीता की भूमिका निभानेवाले प्रेम अदीब और शोभना समर्थ को भी बहुत मान दिया था। वो जिधर निकल जाते थे उधर उनको देखने के लिए और उनको सम्मान देने के लिए आस्थावान भारतीयों की भीड़ उमड़ती थी। यह प्रभु श्रीराम और रामकथा में भारतीयों की आस्था ही है जिसने इस कथा के पात्रों को चुनाव में विजयश्री का हार पहनाकर भारतीय संसद में भेजा।

रामानंद सागर के सीरियल रामायण में सीता की भूमिका निभाने वाली दीपिका चिखलिया जब 1987-88 में सड़कों पर आती थीं लोग उनको सीता मानकर उनके प्रति सम्मान प्रकट करते थे। आस्थावान भारतीयों की भीड़ उनको घेर लेती थी। रामानंद सागर के रामयण में सीता की भूमिका में उनका जो गेटअप था, या उनका जो अभिनय था या उनकी जो संवाद अदायगी थी या जिन प्रसंगों में वो वो टीवी स्क्रीन पर आती थी वो सभी दर्शकों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ती थीं। वो रामकथा और माता सीता के प्रति आस्था ही थी कि जब 1991 में दीपिका चिखलिया बडोदरा से भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार बनीं तो जनता ने उनके सर पर जीत का सेहरा बांधकर लोकसभा भेजा। उस समय बडोदरा कांग्रेस पार्टी का गढ़ हुआ करता था। दीपिका ने बडोदरा राजघराने के रंजीत सिंह प्रताप सिंह गायकवाड़ को लोकसभा के चुनाव में पराजित किया था। यह रामकथा और माता सीता के प्रति आस्था की जीत थी। राजनीति में आई दीपिका ने दिग्गज कांग्रेसी उम्मीदवार को न केवल परास्त किया बल्कि करीब 50 प्रतिशत वोट भी हासिल किया। 

आस्था से जीत का दूसरा उदाहरण रामायण सीरियल में रावण का किरदार निभाने वाले अरविंद त्रिवेदी है जिनको जनता ने पसंद किया था। 1991 के चुनाव में ही अरविंद त्रिवेदी ने गुजरात के साबरकांठा से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर तुनाव लड़ा था। तब उनके खिलाफ महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी जनता दल के उम्मीदवार थे और जनता दल से टूटकर अलग हुए जनता दल(गुजरात) के उम्मीदवार मगनभाई पटेल थे। तीन वर्ष पहले ही रामायण सीरियल ने लोकप्रियता का नया कीर्तिमान स्थापित किया था। उस समय रामजन्मभूमि आंदोलन भी चल रहा था। लंकेश की भूमिका निभानेवाले अरविंद त्रिवेदी चुनावी मंच से गरजते थे कि राम की अवहेलना करने का परिणाम क्या होता है ये मुझसे बेहतर कौन जानता है तो जनता पर उसका प्रभाव पड़ता था। ये चुनाव परिणाम में दिखा और लंकेश की भूमिका निभानेवाले अरविंद त्रिवेदी ने जनता दल के प्रत्याशी राजमोहन गांधी को पराजित कर दिया। राजमोहन गांधी तीसरे नंबर पर रहे थे। रामायण में हनुमान का किरदार निभानेवाले दारा सिंह ने हलांकि कोई चुनाव नहीं लड़ा लेकिन पहले कांग्रेस का समर्थन किया और जब अखिल भारतीय जाट महासभा के अध्यक्ष बने तो अटल बिहारी वाजपेयी के करिश्मा के चलते उनका झुकाव भारतीय जनता पार्टी की तरफ हुआ। सीमा सोनिक ने लिखा है कि अटल जी के कहने पर ही दारा सिंह ने 1998 के लोकसभा चुनाव में अभिनेता विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा के लिए जमकर चुनाव प्रचार किया था। इन रैलियों में दारा सिंह रामायण सीरीयल में बोले गए हनुमान के संवाद दोहराते थे, उनके जैसी भाव भंगिमाएं बनाते थे। रैलियों में भारी भीड़ होती थी। बाद में भारतीय जनता पार्टी ने उनको राज्यसभा में भेजा था और वो 2003-09 तक सांसद रहे। 

लोक आस्था का ये रूप सिर्फ रामकथा को लेकर ही नहीं दिखता है। महाभारत सीरियल में श्रीकृष्ण की भूमिका निभानेवाले नीतीश भारद्वाज को भी जनता ने सम्मान दिया। यह श्रीकृष्ण में आस्था का ही परिणाम था कि जब नीतीश भारद्वाज ने 1996 में लोकसभा का चुनाव जीता था। नीतीश भारद्वाज ने झारखंड के जमशेदपुर से जनता दल के दिग्गज इंदर सिंह नामधारी को परास्त कर दिया था। श्रीरामकथा और श्रीकृष्णकथा में भारतीयों की प्रगाढ़ आस्था है। इसका प्रगटीकरण रील और रीयल दोनों में होता रहा है। 


Saturday, April 13, 2024

ईमानदारी और नैतिकता से बनेगी साख


कभी उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है। इस समय लोकसभा चुनाव की सरगर्मी है। पांच दिनों बाद लोकसभा चुनाव के पहले चरण के लिए मतदान होगा लेकिन राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल कहीं दिखाई नहीं दे रही है। ऐसा क्या हुआ कि राजनीति के आगे चलनेवाला साहित्य गौण हो गया और राजनीति प्रमुख हो गई। क्या राजनीति ने साहित्य और साहित्यकारों को महत्व देना बंद कर दिया, या राजनीति के आगे साहित्य की मशाल थाम कर चलनेवाला कद्दावर साहित्यकार समकालीन साहित्य जगत में कोई बचा ही नहीं। स्वाधीनता के बाद कई ऐसे साहित्यकार हुए जो राजनीति में भी गए। कई साहित्यकार तो संसद और विधानसभाओं में भी पहुंचे। वो किसी मुद्दे पर जब बोलते या लिखते थे तो पूरा देश उनको सुनता था और उनके कहे का एक सम्मान होता था। संविधान लागू होने के 15 वर्षों बाद जब हिंदी के राजभाषा के दर्जा को लेकर राजनीति होने लगी तो संसद में साहित्य जगत के प्रतिनिधि के तौर पर नामित साहित्यकारों ने अपने विचारों से सरकार और समाज दोनों को प्रभावित किया था। दिनकर ने राज्यसभा में अपने भाषण में लालबहादुर शास्त्री के एक वक्तव्य पर कटाक्ष किया था। लाल बहादुर शास्त्री ने एक वक्तव्य कहा था कि  ‘हम अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए जीवन-दान दे रहे हैं, अनंत काल के लिए नहीं।‘ तब दिनकर ने शास्त्री को घेरते हुए कहा था कि  ‘जिस प्रकार सरकार इस बारे में कार्य करती है, उससे मुझे भय होता है कि वह ‘कल-कल’ की बात अनंत काल तक बढ़ जाएगी।‘ 1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया था तब भी साहित्यकारों ने नेहरू जी को घेरा था। उनके निर्णयों की जमकर आलोचना की थी। इमरजेंसी के दौर में कई साहित्यकार जेल गए। इंदिरा गांधी का विरोध किया। कविताएं लिखीं, लेख लिखे। कई बार किसानों और गरीबों की समस्याओं पर लिखा। कहना न होगा कि साहित्यकारों ने समाज और राष्ट्र के प्रति अपनी भूमिका को समझते हुए अपनी आवाज से लोकतंत्र को बल दिया था। 

लेखक-साहित्यकार स्वयं को अपनी ईमानदारी और नैतिकता से स्थापित करता है। इमरजेंसी के बाद से ही साहित्य और साहित्यकारों की ईमानदारी कठघरे में आ गई थी। इमरजेंसी के दौर में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े कुछ लेखकों ने इंदिरा गांधी और इमरजेंसी का समर्थन किया था। उसके बाद लेखक संगठनों ने भी काफी गड़बड़ियां की जिससे जनता के बीच साहित्यकारों की छवि एक दल विशेष के कार्यकर्ता की बनती चली गई। विचारधारा विशेष की जकड़न में साहित्यकारों ने सच कहना बंद कर दिया। पार्टी और लेखक संघों से संबद्ध लेखक पार्टी और संघ की लाइन पर चलते दिखने लगे। उनके विचारों से वस्तुनिष्ठता कम होने लगी। लंबे अंतराल तक ऐसा चलने का परिणाम यह हुआ कि उनकी विश्वसनीयता छीजने लगी। 2015 में जब कुछ साहित्यकारों ने मोदी सरकार के विरुद्ध असहिष्णुता का आरोप लगाकर पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा तो शोर-शराबा तो बहुत हुआ, पर उसका प्रभाव जनमानस पर कम पड़ा। बाद में ये बात भी स्पष्ट हो गई कि बिहार विधानसभा चुनाव को प्रभावित करने के लिए कुछ लेखकों ने नेताओं के साथ मिलकर पुरस्कार वापसी का अभियान चलाया था। इस प्रसंग ने भी साहित्यकारों की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया। यह बात सार्वजनिक हो गई कि भारतीय जनता पार्टी और मोदी विरोध में पुरस्कार वापसी का अभियान चला था। कुछ लेखक और कलाकार राजनीति के टूल बन गए थे। 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले भी विचारधारा विशेष के इन्हीं लेखकों ने मोदी सरकार के विरुद्ध एक हस्ताक्षर अभियान चलाकर माहौल बनाने का प्रयास किया था। प्रभाव शून्य रहा था। यह अनायास नहीं है कि इस समय अधिकतर लेखक खामोश हैं या उनकी सर्जनात्मकता वो प्रभावोत्पादकता पैदा नहीं कर पा रही जो राजनीति के आगे मशाल  बनकर चल सके। 

इसका एक दूसरा पहलू भी है। जब प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है तब अपने उसी वक्तव्य में उन्होंने एक और बात कही थी। प्रेमचंद ने साहित्य को परिभाषित करते हुए कहा था कि साहित्य मन का संस्कार करता है। मन के संस्कार की बात तो दूर तथाकथित प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकारों ने व्यवहार को संस्कारित करने का कार्य करना भी बंद कर दिया। भारतीय संस्कारों को आगे बढ़ाने और समाज के बीच उन संस्कारों को गाढ़ा करने के बजाय विदेशी संस्कृति के संस्कारों को भारतीय पाठकों पर थोपने का कार्य किया था। विदेशी संस्कृति के रंग को गाढ़ा करने के लिए उन्होंने भारत और भारतीयता से जुड़े साहित्य और साहित्यकारों को नीचा दिखाना आरंभ कर दिया। जब उनकी ही विचारधारा के लेखक रामविलास शर्मा ने ऋगवेद पर लिखना आरंभ किया तो नामवर सिंह और उनकी मंडली ने उनको हिंदूवादी कहकर उपहास किया था। जब विद्यानिवास मिश्र जैसे लेखकों ने सनातन परंपराओं और पौराणिक ग्रंथों पर लिखना आरंभ किया तो नामवर सिंह ने उनको विद्याविनाश कहकर उनको अपमानित किया था। कुबेरनाथ राय जैसे निबंधकार को प्रगतिशीलों ने न केवल दरकिनार किया बल्कि लंबे समय तक उनके लेखन पर चर्चा ही नहीं की। भला हो साहित्य अकादमी और राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का कि इन दोनों संस्थाओ ने कुबेरनाथ राय की रचनाओँ का संचयन प्रकाशित किया। नरेन्द्र कोहली से लेकर कमलकिशोर गोयनका तक ऐसे कितने ही लेखक हैं जिनको इस विचारधारा के पोषकों ने अपमानित किया। 

इन सबका परिणाम यह हुआ कि कम्युनिस्ट पार्टी या विचारधारा से संबद्ध लेखकों की साख समाप्त होती चली गई । आज हालत ये है कि हिंदी में कोई सार्वजनिक बुद्धीजीवी बचा ही नहीं। अशोक वाजपेयी गाहे बगाहे पब्लिक इंटलैक्टुअल की पोजिशनिंग करने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन उनके पास इस पोजिशनिंग के लिए कुछ खास औजार नहीं बचे हैं। बार-बार असहिष्णुता और लोकतंत्र के सिकुड़न का राग अलापते हैं। कांग्रेस पार्टी से उनकी निकटता और उसके प्रदर्शन के कारण उनकी मनचाही छवि बन नहीं पाती। पहले अर्जुन सिंह से निकटता और अब राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में हिस्सा लेकर उन्होंने रही सही साख भी खो दी है। पहले अज्ञेय को बूढ़ा गिद्ध कहते हैं और बाद में अज्ञेय की प्रशंसा करते हैं। लेखकों की खामोशी का एक दूसरा पक्ष भी है। वह पक्ष है कि पिछले 10 वर्षों में नरेन्द्र मोदी सरकार ने साहित्य और शिक्षा को समृद्ध करने के लिए प्रशंसनीय प्रयास किया। साहित्य अकादमी ने अपने आयोजनों में विचारधारा को आधार बनाए बिना लेखकों को जुटाकर विश्वस्तरीय आयोजन किए। शिमला और भोपाल में उन्मेष नाम के कार्यक्रम में साहित्य अकादमी ने मोदी के विचार सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास और सबका विश्वास को साकार किया। एक जमाना था जब साहित्य अकादमी में वामपंथियों का दबदबा था और दूसरे विचार के साहित्यकार अघोषित प्रतिबंध का सामना करते थे। पिछले दस वर्षों में साहित्य अकादमी में सभी विचारों के लेखकों का प्रवेश संभव हुआ। सिर्फ इन दो कार्यक्रमों में ही नहीं बल्कि हाल ही समाप्त हुए साहित्योत्सव में भी संस्थान का समावेशी चरित्र गाढ़ा हुआ। ऐसे माहौल में वामपंथ से संबद्ध लेखकों को कहने के लिए कुछ बचा नहीं। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र को भी अभिजात्य से मुक्ति मिली और वह भी एक समावेशी संस्था के रूप में स्थपित हुआ। दस वर्ष पहले वहां भी भारत और भारतीयता को लेकर जो उपेक्षा भाव था वो खत्म हुआ, बिना किसी के प्रति नकारात्मक हुए। इसके अलावा 2020 में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं महत्व दिया गया। इसके कारण भारतीय भाषा भाषियों के बीच हिंदी को लेकर वैमनस्यता का भाव लगभग खत्म हो गया। साहित्य को राजनीति के आगे मशाल लेकर चलने की आवश्यकता आज भी है लेकिन उसके लिए विचार का साथ चाहिए विचारधारा की नहीं। 

Sunday, April 7, 2024

चुनावी जंग में साहित्यिक योद्धा


आगामी 19 अप्रेल को लोकसभा के चुनाव के प्रथम चरण के लिए वोट डाले जाएंगे। इस चुनाव में भारतीय भाषा के कई साहित्यकार और कवि अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। ऐसे राजनेता-साहित्यकार के बारे में देश को जानना चाहिए। ऐसे साहित्यकारों और कवियों के बारे में आगामी अंकों में बताएंगे लेकिन पहले उन पूर्वज साहित्यकारों के बारे में जान लेते हैं जिन्होंने सक्रिय राजनीति भी की और चुनाव भी लड़ा। 

एक बार किसी कार्यक्रम में राष्ट्रकवि दिनकर और उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पहुंचे थे। कार्यक्रम स्थल पर जाने के दौरान नेहरू सीढ़ियों पर लड़खड़ा गए थे, उस वक्त दिनकर ने उनका हाथ थाम लिया था। जवाहरलाल नेहरू ने इसके लिए दिनकर को धऩ्यवाद कहा। धन्यवाद के उत्तर में दिनकर ने कहा था ‘जब जब सत्ता लड़खड़ाती है तो सदैव साहित्य ही उसे संभालती है।‘ दिनकर ने उस समय चाहे ये बात हल्के अंदाज में कही हो लेकिन इसके मायने बहुत गंभीर हैं। स्वाधीनता के बाद कई ऐसे साहित्यकार हुए जिनको संसद के उच्च सदन में समय समय पर राष्ट्रपति ने नामित किया। कुछ ऐसे साहित्यकार-कवि हुए जिन्होंने लोकसभा चुनाव जीतकर संसद की गरिमा बढ़ाई तो कुछ ऐसे साहित्यकार हुए जिन्होंने लोकसभा का चुनाव तो लड़ा पर हार गए। 

सबसे पहले बात कर लेते हैं पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की। वाजपेयी कवि थे और उनके कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। राजनीति के मैदान में उतरे लेकिन उनका कवि मन पद्य में रमा रहा। पहला चुनाव 1952 में लड़ा लेकिन जीत नहीं सके। वाजपेयी ने हार नहीं मानी और 1957 में लोकसभा चुनाव जीत कर संसद पहुंचे। फिर हार जीत लगी रही। अटल जी की कविताओं का संग्रह मेरी इक्यावन कविताएं को लोगों ने खूब पसंद किया था। गीत नया गाता हूं और हिंदू तन मन हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय जैसी पंक्तियां अब भी लोगों को याद हैं। अटल जी कविताओं की भाषा उनको समकालीन कवियों से अलग दिखाती हैं। 

यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान वो धर्मवीर भारती के साथ मोर्च पर गए थे और वहां से उन्होंने रिपोर्ताज लिखे जो धर्मयुग पत्रिका में प्रकाशित हुए थे। विष्णुकांत शास्त्री कलकत्ता विश्वविद्यालय में आचार्य रहे। वे हिंदी के उन विरल आचार्यों में थे जिन्होंने कई विधाओं में श्रेष्ठ लेखन किया। आलोचना, निबंध, कविता के अलावा निराला और तुलसी की रचनाओं पर लिखा। दर्शन में उनकी विशेष रुचि थी और उन्होंने ज्ञान और कर्म के नाम से एक पुस्तक लिखी। 1944 में वो राष्ट्रीय स्वयंसेव संघ से जुड़े और 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर बंगाल विधानसभा के सदस्य चुने गए। कालांतर में उन्होंने हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल का दायित्व मिला। 

हिंदी आलोचना की जब भी चर्चा होती है तो नामवर सिंह का नाम आता है। उनकी पुस्तक दूसरी परंपरा की खोज काफी चर्चित रही और इस पुस्तक पर उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। उनकी पुस्तक हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग भी उल्लेखनीय रही। कहानियों पर वो नियमित स्तंभ लिखते रहे और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र के संस्थापक भी रहे। नामवर सिंह ने 1959 में चंदौली (उप्र) से कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा लेकिन बुरी तरह से पराजित हो गए। उसके बाद हलांकि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन प्रगतिशील लेखक संघ के माध्यम से राजनीति करते रहे। 

ख्यात हिंदी कवि बालकवि वैरागी में कवित्व के अलावा राजनीति भी कूट कूट कर भरी हुई थी। जितना वो काव्य मंचों पर सक्रिय रहते थे उससे अधिक राजनीति में उनकी सक्रियता रहती थी। जब वो मंच पर कविता पाठ करते थे तो उनकी ओजपूर्ण वाणी से श्रोता मुग्ध हो जाते थे। उनकी कविता झर गए पात, बिसर गए टहनी काफी लोकप्रिय रही। उन्होंने बच्चों के लिए भी काफी कविताएं लिखीं। कई फिल्मों के लिए गीत भी लिखे। वो मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के रहनेवाले थे। सक्रिय राजनीति में रहे और विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़कर विधायक और सांसद बने। राज्यसभा के भी सदस्य रहे।      

    


Saturday, April 6, 2024

अभिव्यक्ति की सुविधाजनक व्याख्या


फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ के बीते शुक्रवार को दूरदर्शन पर दिखाने को लेकर केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन से लेकर कई अन्य नेताओं ने विरोध जताया। इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर टिप्पणियों से लेकर मामला कोर्ट तक में पहुंचा। एक कवि ने केरल हाईकोर्ट से अनुरोध किया कि इस फिल्म को आमचुनाव के संपन्न होने तक दूरदर्शन पर दिखाए जाने पर रोक लगाई जानी चाहिए। तर्क ये दिया गया था कि ये फिल्म धार्मिक आतंकवाद दिखाती है। यह एक एजेंडा फिल्म है जो चुनाव के समय सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढावा देगी। याचिका में आरोप लगाया गया था कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी दूरदर्शन का दुरुपयोग कर रही है और दूरदर्शन के माध्यम से अपनी विचारधारा को बढ़ावा दे रही है। केरल हाईकोर्ट ने इस फिल्म को दूरदर्शन पर दिखाने के निर्णय पर रोक लगाने से इंकार कर दिया। याचिकाकर्ता ने चुनाव आयोग से लेकर दूरदर्शन के अधिकारियों को भी इस फिल्म के प्रसारण को रोकने के लिए ईमेल भेजी थी। केरल के मुख्यमंत्री विजयन ने लिखा कि राष्ट्रीय प्रसारणकर्ता दूरदर्शन को बीजेपी-आरएसएस का प्रोपेगैंडा मशीन बनने से बचना चाहिए। उनके मुताबिक ये फिल्म सांप्रदायिकता को बढ़ावा देनेवाली है और चुनाव के समय इसका प्रसारण अनुचित है। केरल से कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे शशि थरूर ने भी कुछ इसी तरह की बातें कीं। उनके मुताबिक ‘इस समय ‘द केरला स्टोरी’ को दिखाना शर्मनाक है। जब ये फिल्म आई थी तो सभी ने कहा था कि ये केरल की स्टोरी नहीं है। केरल तो सांप्रदायिक सद्भाव के लिए जाना जाता है।‘ इस मसले पर वामदलों और कांग्रेस के नेता एक सुर में बोल रहे हैं। दोनों का मानना है कि दूरदर्शन पर इस फिल्म को दिखाने का निर्णय चुनाव को प्रभावित करने की मंशा से किया जा रहा है। ये सभी वो लोग हैं जो स्वयं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चैंपियन बताते हैं। दिन रात संविधान को बचाने की कसमें खाते हैं। 

प्रश्न यही उठता है कि क्या संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वाधीनता कुछ चुनिंदा लोगों या विचारधारा को प्रदान की है। क्या ‘द केरला स्टोरी’ के निर्माताओं को संविधान अभिव्यक्ति की स्वाधीनता नहीं देता है। फिल्म का विरोध तब जबकि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इसको सार्वजनिक प्रदर्शन के उपयुक्त माना था। पिछले वर्ष इस फिल्म की रिलीज के समय भी इसी तरह का वैचारिक बवाल मचा था। जिन्होंने फिल्म देखी नहीं थी वो ट्रेलर को देखकर इसको एजेंडा फिल्म करार दे रहे थे। वाम दलों और कांग्रेस के नेताओं को अभिव्यक्ति की स्वाधीनता की इतनी ही चिंता होती तो वो इसके दूरदर्शन पर दिखाए जाने का विरोध नहीं करते। इस फिल्म को देखते या अपने समर्थकों को इसको देखने के लिए प्रेरित करते। फिल्म को देखने के बाद इसकी कमजोरियों को समाज के सामने प्रस्तुत करते। फिल्म देखे बिना उसका विरोध करना और उसको एजेंडा और प्रोपगैंडा बताना कानून समम्त तो नहीं ही कहा जा सकता है। आपको याद दिला दें कि जब ये फिल्म रिलीज होने वाली थी तब भी केरल हाईकोर्ट में इसके खिलाफ याचिका दाखिल कर प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग की गई थी। उस समय भी हाईकोर्ट ने फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने से मना कर दिया था। जब एकबार फिल्मों को प्रमाणपत्र देनेवाली संस्था केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इसको पास कर दिया था तो फिर से उसके प्रदर्शन को रोकने की मंशा सिर्फ और सिर्फ राजनीति प्रतीत होती है। क्या कोई विचारधारा इतनी कमजोर होती है कि वो एक फिल्म से हिल जाए या खतरे में आ जाए। विचार करना चाहिए। 

पिछले साल इस फिल्म को लेकर केरल हाईकोर्ट ने जो टिप्पणी की थी उसको एक बार फिर से याद दिलाने की आवश्यकता है। केरल हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के साथ फिल्म के ट्रेलर को कोर्ट में ही देखा था। देखने के बाद कहा था कि ये काल्पनिक है। याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि इस फिक्शनल फिल्म का उद्देश्य मुसलमानों को खलनायक के रूप में पेश करना है। कोर्ट ने इससे भी असहमति जताते हुए कहा था कि फिल्मों में कई तरह की चीजें दिखाई जाती हैं। भूत और पिशाच भी नहीं होते हैं लेकिन फिल्मों में काल्पनिक रूप से उनको दिखाया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी न्यायमूर्ति नागरेश ने की थी और कहा था कि कई फिल्मों में हिंदू संन्यासियों को तस्कर और बलात्कारी दिखाया गया है लेकिन कभी भी किसी ने उसपर आपत्ति नहीं जताई। हिंदी और मलयालम में इस तरह की कई फिल्में देखी होगी। मलयालम में तो एक फिल्म में पुजारी को मूर्ति पर थूकते दिखाया गया था लेकिन उससे भी किसी प्रकार की कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी। आप कल्पना कर सकते हैं कि वो फिल्म पुरस्कृत भी हुई थी। न्यायमूर्ति की इस टिप्पणी ने भारतीय फिल्म जगत के उस एजेंडे को बेनकाब कर दिया था जो अबतक फिल्मों में चल रहा है। कोर्ट की ये टिप्पणी भी उल्लेखनीय रही कि ‘द केरला स्टोरी’ में इस्लाम के विरुद्ध कुछ नहीं है, इस्लाम पर किसी तरह का आरोप नहीं लगाया गया है। इस फिल्म में आतंकवादी संगठन आईएसआईएस के करतूतों को दिखाया गया है। बावजूद इसके फिल्म का विरोध तब भी हुआ था और अब भी हुआ। आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ना बिल्कुल गलत है। ‘द केरला स्टोरी’ में इस्लाम के विरुद्ध कुछ भी नहीं है। ऐसा अदालत ने भी माना था।

दरअसल वाम दल और कांग्रेस पार्टी के नेता इस फिल्म के जरिए अपनी राजनीति चमकाने की फिराक में दिखाई देते हैं। फिल्म आतंकवादी संगठन के विरोध में है और वो इसको सांप्रदायिक सद्भाव भड़कानेवाली फिल्म बता रहे हैं। यह तो युवा पीढ़ी को आतंकवाद के खतरे से आगाह करती हुई फिल्म है। इसमें उन खतरों को दिखाया गया है जिसके कारण युवक और युवतियों की जिंदगियां तबाह हो रही हैं। दरअसल द केरला स्टोरी, द कश्मीर फाइल्स या वैक्सीन वार ऐसी फिल्में हैं जो वाम दलों के विचार का पोषण नहीं करती हैं। ये फिल्में भारतीय विचार को आगे बढ़ाती हैं जिसके कारण कुछ लोगों को आपत्ति होती है। उनको लगता है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में जिस तरह से मिशन कश्मीर और फना के माध्यम से आतंक और आतंकवादियों को लेकर एक रोमांटिसिज्म दिखाया जाता रहा है उसको चुनौती कैसे दी जा सकती है। जो लोग द केरला स्टोरी या द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों का विरोध करते हैं वो सच से मुंह मोड़ते नजर आते हैं। हमारे समाज में इस तरह का जो कुछ भी घटित हो रहा है, जो युवा पीढ़ी को बरगलाती है, इतिहास के क्रूर पन्ने को छिपाती है, उसको दिखाने का अधिकार संविधान भारत के हर नागरिक को देता है। दिखाने की क्या सीमा हो उसको केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड तय करता है। संसद से पारित चलचित्र अधिनियम में सबकुछ स्पष्ट लिखा है कि किस तरह की फिल्मों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जा सकता है और किसका नहीं। संविधान बचाने की बात करनेवाले दल और नेता जब संविधान के अंतर्गत निर्मित संस्था के निर्णयों के विरुद्ध जाकर राजनीति करते हैं तो ऐसा लगता है कि संविधान बचाने की बात सिर्फ राजनीति है। उनकी आस्था संवैधानिक संस्थाओं में नहीं है। संविधान सभी नागरिकों को विरोध करने का अधिकार देता है लेकिन यह भी बताता है कि विरोध किसी की अभिव्यक्ति की स्वाधीनता को बाधित न करे। फिल्मों पर राजनीति बंद होने चाहिए। फिल्मों के कंटेंट पर बात होनी चाहिए, उनके ट्रीटमेंट के तरीके पर बात होनी चाहिए। उसके पक्ष-विपक्ष में लिखा जाना चाहिए लेकिन सिरे से किसी भी प्रमाणित फिल्म के प्रसारण को रोकने की मांग अनुचित है। अभिव्यक्ति की स्वाधीनता का चुनिंदा होना खतरनाक है।  


Saturday, March 30, 2024

अकादमिक बौद्धिक वर्ग पर उठते प्रश्न


आमतौर पर इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स पर साहित्य को लेकर प्रशंसात्मक पोस्ट ही अधिक देखने को मिलती है। ‘तू पंत, मैं निराला’ वाली शैली में एक दूसरे की तारीफ करते हुए लेखक मिल जाते हैं। वैचारिक टिप्पणियां बहुत ही कम देखने को मिलती है।  जो भी टिप्पणियां होती हैं वो अपनी विचारधारा को पोषित करने या दूसरी विचारधारा को नीचा दिखाने के लिए की गई प्रतीत होती हैं। लेकिन पिछले दिनों फेसबुक पर एक ऐसी टिप्पणी देखने को मिली जिसने बहुत ही आधारभूत प्रश्न तो छुआ। टिप्पणी छोटी थी लेतिन उसके पीछे प्रश्न बहुत बड़ा था। उसने विचार करने पर मजबूर कर दिया। प्रकाशन जगत से जुड़े आलोक श्रीवास्तव ने एक टिप्पणी लिखी, किसी समय राष्ट्र बन रहा था इस भाषा के जरिए, अब इस भाषा में वैयक्तिक महात्वाकांक्षाएं, दुरभिसंधियां और उदासियां बची हैं। इसका साथ उन्होंने 1962 में उत्तर प्रदेश हिंदी समिति के प्रकाशनों की एक सूची डाली। उनका आश्य हिंदी भाषा से था क्योंकि उन्होंने जो सूची लगाई थी वो हिंदी में प्रकाशित पुस्तकों की थी। उनकी टिप्पणी को उद्धृत करते हुए कोलकाता में रहनेवाले साहित्य और इतिहास के अध्येता प्रोफेसर हितेन्द्र पटेल ने अपने विचार रखे। लिखा- स्वाधीन भारत में साठ के दशक तक भारतीय भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान की किताबें छपती थीं और सरकारी सहयोग भी था। स्वाधीनता आंदोलन और उसके पूर्व के नवजागरण काल में भारतीय भाषाओं में यह प्रयास मिशनरी भाव से होता रहा था। लेखकों ने त्याग और तपस्या का जीवन चुना था ताकि देश में एक नया बौद्धिक वातावरण तैयार कर सकें। उसके बाद एक नया अकादमिक बौद्धिक वर्ग उभरा जिसके लिए ज्ञान-विज्ञान की भाषा बस अंग्रेजी ही हो सकती थी। उन्होंने आगे लिखा कि इस पोस्ट को पढ़कर बस इसको याद दिलाने का मन हुआ। प्रोफेसर पटेल की इस टिप्पणी ने कई प्रश्न खड़े किए जिसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण अकादमिक बौद्धिक वर्ग को लेकर है। वो कौन सी स्थितियां थीं जिनमें साठ के दशक के बाद उभरे नए अकादमिक बौद्धिक वर्ग ने भारतीय भाषाओं को ज्ञान-विज्ञान की भाषा न मानकर अंग्रेजी को प्राथमिकता देना आरंभ किया। इसके लिए हमें साठ के दशक के उत्तरार्ध की स्थितियों के बारे में विचार करना होगा।  

यह वो दौर था जब देश ती जनता का नेहरू की नीतियों से मोहभंग हो रहा था। शास्त्री जी के असामयिक निधन के बाद इंदिरा युग का उदय हो रहा था। भाषा के आधार पर प्रांतों का गठन हो चुका था। हिंदी के विरुद्ध गैर हिंदी भाषी प्रदेशों में एक वातावरण बना दिया गया था। स्वाधीनता के बाद और नेहरू के शासनकाल में वामपंथियों ने अकादमिक जगत में जो बीज बोया था वो अब पेड़ बन गया था। साहित्य और मानविकी के क्षेत्र में वामपंथी अपनी जड़ें जमा चुके थे। उन्होंने माहौल बनाना आरंभ कर दिया था कि हिंदी और भारतीय भाषाओं में ज्ञान विज्ञान की बातें हो ही नहीं सकती हैं। वो अपने लेख से लेकर लेक्चर तक में विदेशी विद्वानों को उद्धृत करने लगे थे। पुस्तकें विदेशी अवधारणाओं के आधार पर तैयार की जाने लगी थी। भारतीय शब्दों को विदेशी शब्दों से विस्थापित किया जाने लगा था। भारतीय भाषाओं के शब्दों के अर्थ को संकुचिच करके उसके समान अर्थ वाले शब्द अकादमिक जगत में पेश किए गए थे। देशभर के विश्वविद्यालयों में इस तरह का माहौल बनाना गया था जैसे चेखव और ब्रेख्त कालिदास से बड़े नाटककार थे। समाज विज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में भारतीय विद्वानों की मान्यताओं पर विदेशी विद्वानों को महत्वपूर्ण बताया जाने लगा था। भारत की मेधा और बुद्धिमत्ता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया जाने लगा था। पूरी दुनिया को शून्य की अवधारणा से परिचित करानेवाले देश को बताया जाना लगा कि गणित और विज्ञान के लिए विदेशी फार्मूले अधिक उपयुक्त हैं। विदेशी फार्मूले को समझने के लिए विदेशी भाषा का ज्ञान आवश्यक है। मैकाले ने जो स्वप्न देखा था और जिसके आधार पर उसने भारत में शिक्षा पद्धति आरंभ करवाई थी, स्वाधीनता के बाद उसको रोकने का गंभीर प्रयास नहीं हुआ। हिंदी में लिखी पुस्तकें ओझल की जाने लगीं। हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी की पुस्तकों को प्राथमिकता मिलने से गैर साहित्यिक विषयों पर पुस्तकें प्रकाशित करनेवाले प्रकाशक कम होते चले गए। 

याद पड़ता है जबलपुर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास और संस्कृति विभाग के आचार्य और अध्यक्ष रहे डा राजबली पांडेय ने एक पुस्तक लिखी थी, भारतीय नीति का विकास। ये पुस्तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से साठ के दशक के मध्य में प्रकाशित हुई थी। इसमें डा राजबलि पांडेय ने नीतिशास्त्र पर विस्तार से अपनी बात रखी थी। इस पुस्तक की भूमिका में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के उस समय के निदेशक भुवनेश्वरनाथ मिश्र माधव ने लिखा है कि नीतिशास्त्र हिताहित का विवेचन करनेवाला शास्त्र है। इसका अध्ययन करने के मनुष्य को अपने कर्तव्य-अकर्तव्य, सत्य-असत्य, उचित अनुचित, शुभ-अशुभ आदि का ज्ञान होता है और वह जीवन यात्रा में उपयुक्त मार्ग पर अग्रसर होने में समर्थ होता है। नीति के अभाव में मानव का पथभ्रष्ट होना स्वाभाविक है। अब नीति की ऐसी व्याख्या या परिभाषा पश्चिम के विद्वानों के यहां नहीं मिलती। वो तो पालिसी की बात करते हैं और हमारे यहां के विद्वान नीति को पालिसी समझने की भूल कर बैठते हैं। सिर्फ नीतिशास्त्र ही नहीं बल्कि इतिहास, विज्ञान, गणित, दर्शन, पदार्थ शास्त्र, योग दर्शन, राजनीति शास्त्र, पश्चिम की विचारधाराओं और विदेश नीति पर हिंदी में मौलिक पुस्तकें लिखी गईं थी और प्रकाशित भी हुई थीं। चाहे वो राज्य सरकारों की अकादमियों से प्रकाशित हों या काशी नागरी प्रचारिणी सभा से या अन्य संस्थाओं से। आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी साहित्य में आलोचक के रूप में समादृत हैं लेकिन उन्होंने भारतीय वस्त्रों से लेकर राजनीति और अन्य विषयों पर विपुल लेखन किया है, अधिकतर हिंदी में। अगर प्राचीन हस्तलिखित पोथियों के विवरण पर नजर डालेंगे तो वहां भी हिंदी में विविध विषयों पर लिखी गई पुस्तकों के बारे में जानकारी मिलेगी। उस विवरण में दर्शन, विज्ञान और धर्म पर लिखी पोथियों की लंबी सूची दिखाई देती है।

आज जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू होने के प्राथमिक चरण में है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी निरंतर भारतीय भाषाओं में शिक्षा को लेकर आग्रही बने हुए हैं तो अब एक महती जिम्मेदारी आती है संस्थाओं पर। इन संस्थानों का दायित्व बनता है कि वो प्राचीन काल में हिंदी में विभिन्न विषयों पर लिखी गई मौलिक पुस्तकों को खोजें और उसको अद्यतन करवाकर फिर से प्रकाशित करें। आज शिक्षा के क्षेत्र में धन की कमी नहीं है, प्रचुर मात्रा में संसाध्न उपलब्ध करवाए जा रहे हैं, आवश्यकता है मजबूत इच्छाशक्ति की। अगर इस भ्रम को तोड़ना है कि ज्ञान विज्ञान की भाषा हिंदी नहीं हो सकती है तो पहले इस भाषा में ज्ञान विज्ञान की लिखी पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन करना होगा। प्रोफेसर हितेन्द्र पटेल भी कहते हैं कि उस स्वदेशी परंपरा का नवोन्मेष हो, इन किताबों का पढ़ने पढ़ाने का एक आंदोलन हो। और कुछ हो न हो करमजले यह कहना बंद करेंगे कि इन भाषाओं में भान विज्ञान की चर्चा कैसे करें। पढ़ने पढ़ानेवाले नवबौद्धिकों ने ही अंग्रेजी के प्रभुत्व को बढ़ाने में अपनी स्वार्थपरता, काहिली और लोलुपता से मदद की है। ये विस्मृत कर चुके हैं कि हिंदी, मराठी या बांग्ला में विपुव मात्रा में ज्ञान विज्ञान पर पुस्तकें लिखनेवाले लोग थे। अंत में एक बात और कह देना आवश्यक है कि इस कार्य में सरकारी संस्थाओं और विश्वविद्यालयों को पहल करनी होगी। साहित्य, कला, इतिहास और समाज शास्त्र से जुड़ी अधिकतर सरकारी संस्थाएं इवेंट मैनेजमेंट कंपनी बन गई हैं। सेमिनार और गोष्ठियां करवा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं। जबकि होना ये चाहिए कि ये संस्थाएं हिंदी में मौलिक लिखवाने का प्रयास करें। ऐसा करनेवाले लेखकों को बेहतर मानदेय दें। अगर ये संभव हो पाता है तो हिंदी का गौरव पुनस्थापित हो सकेगा।  



Saturday, March 23, 2024

सनातनी परंपरा के ध्वजवाहक


बीते शुक्रवार को चंद्रशेखर आजाद व्याख्यानमाला के सिलसिले में मध्यप्रदेश के झाबुआ जाना हुआ। झाबुआ पहुंचने के पहले रास्ते में एक जगह है कालीदेवी। वहां से गुजरते हुए सड़क के दोनों तरफ काफी भीड़ दिखी। रंग-बिरंगी पोशाकों में सजे युवक-युवतियां, किशोर-बालक और महिलाएं-पुरुष स्थानीय बाजार में अपनी उपस्थिति से उत्सवी वातावरण बना रहे थे। पहले तो लगा कि चुनाव का माहौल है और किसी राजनीतिक दल की कोई रैली या सभा होगी जिसके लिए लोगों को इकट्ठा किया गया है। लेकिन पता चला कि ये लोग होलिका दहन के पहले चलनेवाले उत्सव भगोरिया में हिस्सा लेने के लिए एक जगह जमा हुए हैं। कालीदेवी हाट में थोड़ी देर पैदल घूमने के बाद एक जगह पर एक बड़ा सा ढोल दिखा। ये ढोल आम ढोल से कई गुणा बड़ा था। कुछ लोग उसको बजा रहे थे तो कुछ अन्य उसको बजाने का प्रयत्न कर रहे थे। जब ढोल बजता तो उसके आपसाप खड़ी महिलाएं और युवतियां नृत्य करने लगतीं। वहां से आगे बढ़ने पर हाट में खान-पान की अनेक अस्थायी दुकानें दिखीं। पान की भी कई दुकानें थीं। गोदना वाले भी बैठे थे ।लड़कियां गोदना गोदवा रही थीं। कुल मिलाकर ऐसा दृश्य उत्पन्न हो रहा था जो भारतीय लोक की एक बेहद जीवंत तस्वीर पेश कर रहा था। उल्लास और आनंद के उस वातावरण में सभी अपनी मस्ती में रमे हुए थे। लोकरंग में डूबी जिंदगी। थोड़ी देर तक भगोरिया हाट मेला को देखने के बाद हम झाबुआ के लिए प्रस्थान कर गए। झाबुआ शहर में भी एक जगह हाट लगाने की तैयारी हो रही थी। बताया गया कि उस स्थान पर भगोरिया हाट लगेनेवाला है। इस उत्सव या आयोजन को लेकर जिज्ञासा बढ़ गई थी।

झाबुआ पहुंचने के बाद व्याख्यानमाला के आयोजन से जुड़े अश्विनी जी से मेले के बारे में पूछा। उन्होंने विस्तार से इसकी जानकारी दी। बताया कि मालवा और निमाड़ क्षेत्र में निवास करनेवाले वनवासियों का ये होली उत्सव है। होलिका दहन से सात दिनों पहले से ही मुख्य रूप से इस क्षेत्र में निवास करनेवाले भील जनजाति के लोग इस उत्सव को मनाते हैं। इसकी परंपरा काफी पुरानी है। जनश्रुति है कि राजा भोज के समय ये उत्सव आरंभ हुआ था। उस समय स्थानीय स्तर पर लगनेवाले हाट को भगोरिया कहा जाता था। उसी समय भील राजाओं ने भी अपने अपने क्षेत्रों में होली के आसपास हाट और मेला का आयोजन आरंभ किया था। इन मेलों को भील राजाओं का संरक्षण प्राप्त था और बनवासी समुदाय के लोग होली का उत्सव इन्हीं मेलों के दौरान मनाया करते थे। कुछ लोगों का कहना है कि भगोरिया भील समुदाय का प्रणय उत्सव भी है। इस तरह की परंपरा की बात भी होती है कि युवक और युवतियां इस मेले के दौरान एक दूसरे को पसंद करते हैं और अपना जीवन साथी बनाते हैं। पसंद करने का जो तरीका बताया गया वो भी बहुत दिलचस्प था। जिस लड़के को कोई लड़की पसंद आती है तो वो उसको पान भेंट करता है। लड़की अगर पान खा लेती तो माना जाता है कि उसने प्रणय निवेदन स्वीकार कर लिया है। इसी तरह प्रणय निवेदन का एक अन्य तरीका भी बताया गया। अगर कोई युवक किसी युवती के गाल पर गुलाल लगा दे और युवती भी पलटकर उसके गाल पर गुलाल लगा दे तो माना जाता है कि दोनों ने एक दूसरे को स्वीकर कर लिया है। कई बार ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं कि प्रणय निवेदन के स्वीकार करने के बाद युवक-युवती मेले से भाग जाते हैं और विवाह कर लेते हैं। इस कारण इसको भगोरिया कहा जाता है। पर अधिक प्रामाणिकता भोज काल से जुड़ी जनश्रुति में ही प्रतीत होती है। ऐसा कहने का करण ये है कि भील समुदाय में विवाह को लेकर बहुत विरोध आदि होता नहीं है। बताया तो यहां तक गया कि लड़के वालों को ही लड़की वालों को धनराशि या चांदी देनी पड़ती है। यह भी पता चला कि भील समुदाय की लड़कियां या महिलाएं सोने से अधिक चांदी के आभूषणों को पसंद करती हैं। कालीदेवी में मेला भ्रमण के दौरान इस ओर ध्यान नहीं गया था लेकिन जब झाबुआ में इस बारे में पता चला तो स्मरण आया कि हां उस मेले में तो युवतियां और महिलाएं तो चांदी के आभूषण ही पहनी थीं।

मध्यप्रदेश के धार, झाबुआ, अलीराजपुर और उसके पास के क्षेत्रों में व्याप्त होली की इस परंपरा को देखकर लगा कि वनवासी अपनी सनातनी परंपरा को अब भी अपनाए हुए हैं। होली के बारे में अपनी पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास में भारत रत्न पी वी काणे ने विस्तार से लिखा है। वो कहते हैं कि होली या होलिका आनंद और उल्लास का ऐसा उत्सव है जो संपूर्ण देश में मनाया जाता है। उत्सव मनाने के ढंग में कहीं कहीं अंतर पाया जाता है। अब अगर हम इस कथन पर विचार करें तो स्पष्ट है कि मध्यप्रदेश के भगोरिया मेला में भील समुदाय का होली मनाने का ढंग अलग है। उसमें आनंद, उल्लास, उमंग और मस्ती तो है लेकिन उसको विवाह संस्कार से जोड़कर आनंद का एक अलग ही आयाम दे दिया गया है। सनातन धर्म की विभिन्न पुस्तकों में होली के बारे में उल्लेख मिलता है। काणे कहते हैं कि होली का आरंभिक शब्द स्वरूप ‘होलाका’ था और भारत के पूर्वी भागों में ये शब्द प्रचलित था। काठकगृह्य में एक सूत्र है ‘राका होलाके’, जिसकी व्याख्या टीकाकारों ने इस प्रकार की है, होला एक कर्म विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए संपादित होता है। इसको भी भागोरिया से जोड़कर देखा जा सकता है। होलाका का उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र में भी मिलता है जब वो इसको बीस क्रीड़ाओं में शामिल करते हैं। इस त्योहार का उल्लेख जैमिनी और काठकगृह्य में मिलने से ये सिद्ध होता है कि ये ईसा से कई शताब्दियों पूर्व से अस्तित्व में है। काणे ने तो होली के बारे में कहा भी है कि इसमें वसंत की आनंदाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान प्रदान से प्रकट होती है। कहीं कहीं रंगों का खेल होली के कई दिन पहले से आरंभ हो जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते रहते हैं। भगोरिया मेला भी सात दिनों तक चलता है। राय बहादुर बी ए गुप्ते ने एक पुस्तक लिखी थी ‘हिंदू हालीडेज एंड सेरेमनीज’, इस पुस्तक में वो लिखते हैं कि होली का त्योहार मिस्त्र या यूनान से भारत आया। पी वी काणे उनकी इस अवधारणा का निषेध करते हुए उनके दृष्टिकोण को भ्रामक बताते हैं और कहते हैं कि उनकी धारणा को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए।

भगोरिया को देखने के बाद और प्राचीन भारतीय ग्रंथों के उद्धरणों को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि हम अपनी विरासत से कितने दूर होते जा रहे हैं। आज भील समुदाय अपनी परंपरा को कायम रखे हुए है जबकि शहरों में रहनेवाले और खुद को आधुनिक समझनेवाले लोग अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी जब ला किला की प्राचीर से पांच-प्रण की बात करते हैं वो अपनी विरासत पर गर्व करने पर जोर देते हैं। अमृत काल में जब हम विकसित भारत के लक्ष्य की बात कर रहे हैं तो हमें अपनी गौरवशाली परंपराओं का भी ध्यान रखना होगा। हमें अपने पर्व त्योहारों की ऐतिहासिकता के बारे में नई पीढ़ी को बताना होगा। आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल लोग आज विशेषज्ञो के पास जाकर हैप्पीनेस खोजते हैं, उनको पता ही नहीं कि ये हैप्पीनेस तो हमारे पर्व और त्योहारों में शामिल है। जरूरत इस बात की है कि हैप्पीनेस की अपनी परंपरा के साथ जीवन जिएं।

Saturday, March 16, 2024

विवाद के भंवर में लेखक-प्रकाशक संबंध


नई दिल्ली के रवीन्द्र भवन परिसर को साहित्य अकादमी ने अपने वार्षिक आयोजन साहित्योत्सव के कारण खूब सजाया था। शनिवार को संपन्न हुए साहित्योत्सव को विश्व का सबसे बड़ा साहित्य उत्सव बताया गया, जिसमें भारतीय और अन्य भाषाओं के 1100 से अधिक लेखकों के भाग लेने की बात कही गई। रवीन्द्र भवन परिसर में बनाए गए अलग अलग सभागारों में दिनभर विमर्श का दौर चला था। इसमें कन्नड के वरिष्ठ लेखक भैरप्पा से लेकर बिल्कु नवोदित लेखकों तक की भागीदारी रही। साहित्योत्सव के दौरान रवीन्द्र भवन परिसर में घूमते हुए सुरुचिपूर्ण तरीके से लगाए गए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित लेखकों के संक्षिप्त परिचय श्रोताओं का ध्यान आकृष्ट कर रहे थे। पुरस्कार विजेताओं की तस्वीर के साथ पुरस्कृत कृति की तस्वीर भी लगाई गई थी। इन पुरस्कार विजेताओं की तस्वीरों को देखने के क्रम में मेरी नजर वर्ष 2023 में हिंदी के लिए सम्मानित लेखक संजीव के परिचय पर चली गई। उनकी तस्वीर के साथ सेतु प्रकाशन के प्रकाशित उनकी कृति ‘मुझे पहचानो’ का कवर भी लगाया गया था। बताया गया था कि संजीव, जिनका मूल नाम राम सजीवन प्रसाद है, हिंदी के प्रख्यात लेखक और अनुवादक हैं। आपका जन्म 6 जुलाई 1947 को बांगर कलां, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। आपकी 17 कृतियां प्रकाशित हैं। ‘मुझे पहचानो’ हिंदी उपन्यास है, जो सती जैसे सामाजिक कुप्रथा के सामंती अवशेषों के विनाशकारी प्रभावों को उजागर करता है। यह उपन्यास आमजन की दुनिया के पाखंड, धर्म और धन के फंदों, बिगड़ते मानवीय मूल्यों की काली परछाइयों को भी प्रदर्शित करता है और मानवीय मूल्यों के पुनरुत्थान का आह्वान करता है। इस परिचय में तो जो बातें लिखी गई हैं उसपर मतैक्य संभव है और नहीं भी। संजीव उपाख्य राम सजीवन प्रसाद के इस पोस्टर को देखते हुए अचानक से कुछ दिनों पहले दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला के एक कार्यक्रम की बात दिमाग में कौंधी।

विश्व पुस्तक मेला के दौरान राजकमल प्रकाशन के मंच से संजीव ने ये घोषणा की थी कि उनकी सभी किताबें अब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगी। अवसर था उनके कहानी संग्रह प्रार्थना के लोकार्पण का। संजीव ने कहा था कि राजकमल प्रकाशन समूह पहले से हमारा प्रकाशक है और मेरे कई उपन्यास पूर्व में यहां से प्रकाशित है। प्रतिनिधि कहानियां प्रकाशित की है। इनसे पुराना संबंध और वर्षों का विश्वास है। इसी विश्वास के कारण उन्होंने राजकमल प्रकाशन को अपनी सभी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए अधिकृत किया है। अब इस अधिकृत करने से जो एक स्थिति बनेगी उसकी कल्पना करिए। सेतु प्रकाशन ने संजीव का उपन्यास प्रकाशित किया। वहां से प्रकाशित उपन्यास पर उनको साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। सेतु प्रकाशन ने इस उपन्यास को पाठकों और आलोचकों तक पहुंचाने का उपक्रम किया होगा। उपन्यास प्रकाशन पर धन खर्च हुआ होगा जिसको सेतु प्रकाशन ने वहन किया। जब उस उपन्यास को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया तो उसको दूसरे प्रकाशन गृह को देने की घोषणा कर दी गई। सेतु प्रकाशन के अमिताभ का कहना है अभी तक संजीव ने इस संबंध में उनसे कोई बात नहीं की है। अपने प्रकाशक से बगैर बात किए और बिना आपसी सहमति के दूसरे प्रकाशन को पुस्तक देने की घोषणा अनैतिक प्रतीत होती है। अगर राजकमल प्रकाशन समूह से उनका पुराना संबंध और वर्षों का विश्वास था तो उपन्यास वहीं से प्रकाशित करवाना चाहिए था। इससे सेतु प्रकाशन के लिए ये असहज स्थिति नहीं बनती। इसी तरह से संजीव की कई पुस्तकें वाणी प्रकाशन से भी प्रकाशित हैं। उनका क्या होगा, इस बारे में भी कयास लगाए जा रहे हैं। क्या ऐसी स्थिति बनेगी कि लेखक और प्रकाशकों के मसले अदालत से हल होगें? दरअसल संजीव हिंदी के ओवररेटेड लेखक हैं। उन्होंने सूत्रधार नाम से एक उपन्यास लिखा था। उनकी विचारधारा के लेखकों ने उसको चर्चित करने का प्रयास किया लेकिन तात्कालिक चर्चा के बाद वो उपन्यासों की भीड़ में गुम हो गया। गाहे बगाहे वो विवादित बयान देते रहते हैं लेकिन उसका नोटिस भी हिंदी जगत नहीं लेता।

इसके पहले हिंदी प्रकाशन जगत से एक और समाचार आया। स्वर्गीय निर्मल वर्मा की सभी पुस्तकें एक बार फिर से राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगी। निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल ने प्रकाशन के अधिकार राजकमल प्रकाशन को सौंप दिए। राजकमल प्रकाशन से उनकी कुछ पुस्तकें नई साज सज्जा के साथ प्रकाशित भी हो गईं। निर्मल जी की पुस्तकों की यात्रा दिलचस्प है। कुछ वर्षों पहले गगन गिल और राजकमल प्रकाशन में रायल्टी को लेकर विवाद हुआ था। तब इस तरह की खबरें आई थीं कि एक वर्ष में निर्मल वर्मा की सभी पुस्तकों की रायल्टी एक लाख रुपए भी नहीं होती है। उस समय हिंदी जगत में रायल्टी को लेकर खूब चर्चा हुई थी। तब निर्मल जी की सभी पुस्तकों के प्रकाशन का अधिकार राजकमल प्रकाशन से लेकर भारतीय ज्ञानपीठ को दे दिया गया था। वहां से कुछ वर्षों बाद निर्मल वर्मा की समस्त पुस्तकें वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुईं। संभव है कि एग्रीमेंट ही इस तरह का हो कि एक अंतराल के बाद पुस्तक प्रकाशन का अधिकार लेखक या उनके उत्तराधिकारी के पास वापस आ जाते हों। लेकिन जब विवाद और आरोप- प्रत्यारोप के बाद पुस्तकों के प्रकाशन का अधिकार एक जगह से दूसरे जगह जाता है तब प्रश्न उठते हैं। कुछ दिनों पूर्व विनोद कुमार शुक्ल ने भी रायल्टी का मुद्दा उठाकर अपनी कुछ पुस्तकों के प्रकाशन अधिकार दूसरे प्रकाशन को देने की घोषणा की थी। होना ये चाहिए कि लेखक और प्रकाशक दोनों को प्रकाशन एग्रीमेंट सार्वजनिक करना चाहिए ताकि भ्रम और विवाद की अप्रिय स्थिति न बने।

संजीव उपाख्य राम सजीवन प्रसाद ने जब अपनी सभी पुस्तकों के राजकमल प्रकाशन से छपने की बात की थी तब कहा था कि इससे पाठकों को सुविधा होगी और उनको सभी पुस्तकें एक जगह उपलब्ध होंगी। पाठकों को कितनी सुविधा होगी या भ्रमित होंगे ये तो समय तय करेगा लेकिन लेखकों के आर्थिक लाभ का संकेत तो मिल ही रहा है। हर किसी को अपना लाभ देखना चाहिए लेकिन उसको दूसरा रंग देना उचित नहीं कहा जा सकता है। पूरे हिंदी जगत को इसपर विचार करना चाहिए कि ऐसी स्थिति बन क्यों रही है। विचार किया जाए तो हिंदी प्रकाशन का जो स्वरूप वर्षों से बना है उसमें प्रकाशक और लेखक के बीच व्यावसायिक संबंध नहीं बन पाते हैं और वो बहुधा व्यक्तिगत होते हैं। वरिष्ठ लेखक अपनी पसंद के प्रकाशकों को अपनी पुस्तकें प्रकाशित होने के लिए दे देते हैं और प्रकाशक लेखक की साहित्यिक हैसियत या अपनी श्रद्धा के अनुसार उनको अग्रिम धनराशि देते हैं जो रायल्टी में एडजस्ट होते रहती है। लेखकों को अपने पुस्तकों के प्रकाशन की इतनी जल्दी होती है कि वो चाहते हैं कि प्रकाशक उनकी पुस्तक उनकी मर्जी की तिथि के अनुसार प्रकाशित कर दे। लेखकों का एक दूसरा वर्ग है जो प्रकाशकों के यहां चक्कर लगाता रहता है कि उसकी कृति किसी भी तरह से प्रकाशित हो जाए। कई प्रकाशक इस स्थिति का फायदा उठाते हैं और बिना किसी एग्रीमेंट के पुस्तक का प्रकाशन कर देते हैं। जब पुस्तकों की समीक्षा आदि छपने लगती है या कोई पुरस्कार मिल जाता है तो लेखक को लगता है कि प्रकाशक उनकी कृति से बहुत पैसे कमा रहा है। विवाद यहीं से उत्पन्न होने लगता है। ऐसी स्थिति में प्रकाशक कुछ धन लेखक को देकर विवाद को फौरी तौर पर शांत करने का प्रयास करते हैं। हो भी जाता है लेकिन ये स्थायी हल नहीं है। इस बारे में प्रकाशकों और लेखकों को एक साथ बैठकर बात करनी होगी या फिर हिंदी में अंग्रेजी की तरह लिटरेरी एजेंट हों जो लेखकों और प्रकाशकों दोनों का हित देख सकें। लेखकों और प्रकाशकों को भी दोनों के हितों का ध्यान रखना चाहिए।

Saturday, March 9, 2024

राष्ट्र और संस्कृति पर राजनीति


कुछ दिनों पूर्व द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के सांसद ए राजा ने भारत और राष्ट्र को लेकर कुछ बातें कहीं। उनकी बातों पर राजनीतिक दलों ने प्रतिक्रिया दी। दोनों बातें समाचार पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुईं। ए राजा कहते हैं कि भारत एक राष्ट्र नहीं है। भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा। एक राष्ट्र, एक भाषा एक परंपरा और एक संस्कृति को दर्शाता है और ऐसी विशेषताएं ही एक राष्ट्र का निर्माण करती है। डीएमके के सांसद इतने पर ही नहीं रुके, आगे बोले कि तमिल एक राष्ट्र है, उड़िया एक भाषा है और एक राष्ट्र है। ऐसी सभी इकाइयां मिलकर भारत का निर्माण करती हैं। ऐसे में भारत एक देश नहीं है बल्कि यह एक उपमहाद्वीप है इसमें विभिन्न प्रथाएं, परंपराएं और संस्कृतियां हैं। तमिलनाडु, केरल, दिल्ली और ओडिशा जैसे राज्यों में अपनी अपनी स्थानीय संस्कृति है। ए राजा ने इसके बाद भी अनेक विवादित बातें कीं। वो भारत के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि ये एक राष्ट्र नहीं बल्कि छोटे राष्ट्रों का समूह है। यहां की संस्कृति एक नहीं है। इस तरह की बातों से वो अपने अज्ञान का प्रदर्शन करते हैं। भारत एक राष्ट्र के तौर पर प्राचीन काल से पूरी दुनिया में जाना जाता रहा है। भारतीय संस्कृति भी एक है जिसको लेकर भी तमाम विद्वानों ने लिखा है। पौराणिक ग्रंथों में इसका उल्लेख कई बार मिलता है। ए राजा और उनकी पार्टी के नेताओं को भारत के पौराणिक ग्रंथों या सनातन से जुड़े ग्रंथों पर हो सकता है विश्वास न हो इस कारण उनकी धारणा का निषेध आधुनिक काल के इतिहासकारों के लेखन से ही करना उपयुक्त रहेगा। ए राजा से ये अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है कि उन्होंने ऋगवेद या स्मृतियों को पढ़ा होगा। अपेक्षा तो ये भी नहीं की जा सकती है कि उन्होंने आनंद कुमारस्वामी, वासुदेवशरण अग्रवाल, जैसे लेखकों को पढ़ा होगा। पर ये अपेक्षा तो की जा सकती है कि ए एल बैशम का पुस्तक द वंडर दैट वाज इंडिया पढ़ा होगा। रोमिला थापर और रामशरण शर्मा जैसे मार्क्सवादी इतिहासकारों के बारे में सुना होगा। उनके लेखन से परिचित होंगे। ए एल बैशम आस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी, कैनबरा में एशियन सिविलाइजेशन के प्रोफेसर थे। उन्होंने 1954 में ‘द वंडर दैट वाज इंडिया’ नाम की पुस्तक लिखी थी। ये कई वर्षों बाद भारत में प्रकाशित हुई थी। ये पुस्तक छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय हुई और इतिहास के छात्रों के लिए लगभग अनिवार्य भी। इस पुस्तक में बैशम ने भारत के बारे में विस्तार से लिखा है। दूसरे संस्करण की भूमिका की कुछ पंक्तियों का उल्लेख राजा के बयान के संदर्भ में करना उचित रहेगा। बैशम लिखते हैं कि इस पूरी किताब में ‘इंडिया’ शब्द का प्रयोग भौगोलिक आधार पर किया गया है, जिसमें पाकिस्तान समाहित है। इसका अर्थ है कि वो एक राष्ट्र के तौरा पर अखंड भारत की बात कर रहे हैं। इस पुस्तक के पहले अध्याय में भी ए एल बैशम ने विस्तार से भारत और उसकी प्राचीन संस्कृति के बारे में बताया है। इसमें भी वो ‘लैंड आफ इंडिया’ के बारे में जब लिखते हैं तो भारत को एक राष्ट्र के तौर पर ही रेखांकित करते हैं। जब वो हिमालय पर्वत शृंखला और नदियों की बात करते हैं तो दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत की सीमाओं की बात करते हैं। जब वो डिस्कवरी आफ इंडिया की बात करते हैं तो प्राचीन भारतीय सभ्यता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि प्राचीन भारत की सभ्यता मिस्त्र, मेसोपोटामिया और ग्रीस की सभ्यताओं से अलग हैं क्योंकि इनकी पंरपराएं सभ्यता के आरंभ से लेकर अबतक निर्बाध रूप से कायम हैं। इसके आगे वैशम एक पंक्ति बहुत महत्वपूर्ण कहते हैं, भारत और चीन प्राचीनतम सांस्कृतिक परंपरा वाले देश हैं जहां एक निरंतरता लक्षित की जा सकती है। लगभग 500 पृष्ठों की इस पुस्तक को ही राजा पढ़ लेते तो भारत को एक राष्ट्र नहीं कहने की अज्ञानता नहीं करते। इसको विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं का देश नहीं बताते। रोमिला थापर से लेकर रामशरण शर्मा तक ने भी जब भारत की बात की है तो एक देश के तौर पर ही की है। 

ए राजा के उपरोक्त बयान के कारणों पर आने के पहले सम्राट अशोक के शिलालेखों को भी देख लेते हैं। 1837 तक अशोक के शिलालेखों के बारे में पता नहीं था। 1837 में पहली बार जेम्स प्रिंसेप ने अशोक के शिलालेखों के बारे में लिखना आरंभ किया। 1901 के आसपास वी स्मिथ ने सम्राट अशोक पर एक मोनोग्राफ लिखा। इसके बाद अशोक के कालखंड के शिलालेखों की ओर पूरी दुनिया के इतिहासकारों का ध्यान गया। अब यह तो नहीं कहा जा सकता है कि ए राजा को वी स्मिथ के मोनोग्राफ को पढ़ना चाहिए। 1925 में डी आर भंडारकर ने सम्राट अशोक के शासनकाल पर दिए अपने व्याख्यानों को प्रकाशित करवाया। उससे भी भारत के एक राष्ट्र और एक पारंपरिक संस्कृति के बारे में पता चला है। 

इस स्तंभ में पहले भी सभ्यता और संस्कृति के बारे में लिखा जा चुका है। संस्कृति के चार अध्याय जैसा ग्रंथ लिखनेवाले रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है कि सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है और संस्कृति वो गुण है जो हममें व्याप्त है। वो ये भी कहते हैं कि संस्कृति सभ्यता की अपेक्षा महीन चीज होती है। वह सभ्यता के भीतर उसी तरह व्याप्त रहती है जैसे दूध में मक्खन या फूलों में सुगंध। संस्कृति ऐसी चीज नहीं जिसकी रचना दस-बीस या सौ-पचास वर्षों में की जा सकती है। संस्कृति का स्वभाव है कि वह आदान प्रदान से बढ़ती है। जब भी दो देश वाणिज्य-व्यापार अथवा शत्रुता-मित्रता के कारण आपसे में मिलते हैं तब उनकी संस्कृतियां एक दूसरे को प्रभावित करने लगती हैं। भारत वर्ष पर आक्रांताओं का आक्रमण हुआ। उन्होंने भारत पर शासन किया। उस कालखंड में भी भारत की संस्कृति प्रभावित हुई थी। संस्कृति के प्रभावित होने का ताजा उदाहरण हम 1991 के बाद के कालखंड में देख सकते हैं। भारत की अर्थव्यवस्था को जब खोला गया तो उसने भी हमारी संस्कृति को प्रभावित किया। जब भारत की संस्कृति कहा जाता है तो उसको संस्कृति के अर्थ में ही समझना होगा। कई इतिहासकारों और विद्वानों ने जब संस्कृति के प्रभावित होने की बात की तो उन्होंने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ये कहा कि भारत की संस्कृति एक ही है जहां हम विविधताओं का उत्सव मनाते हैं। संस्कृति की स्थापित परिभाषा के आलोक में उनकी ये बात सटीक प्रतीत होती है। 

दरअसल ए राजा का बयान एक राजनीतिक बयान है। जब एक चुना हुआ जनप्रतिनिधि इस तरह की बातें करता है तो उसका समाज पर असर पड़ता है। लोकतंत्र में जनता का अधिकार है कि वो अपने नेताओं की बातों के पीछे की राजनीति को समझे। राजा जब तमिल, तेलुगु और उड़िया की अलग संस्कृति की बात करते हैं या भारत के एक राष्ट्र की अवधारणा पर चोट करते हैं तो उनका सोच विभाजनकारी प्रतीत होता है। इस तरह के बयानों से फौरी तौर पर कुछ राजनीतिक लाभ हो सकता है लेकिन न तो उनको न ही पार्टी को कोई दीर्घकालिक फायदा होगा न ही उनको व्यक्तिगत रूप से। इस तरह के विभाजनकारी बयानों का प्रतिकार इस कारण भी किया जाना चाहिए ताकि विभाजनकारी सोच को रोका जा सके। कुछ दिनों से देश में उत्तर दक्षिण के बीच विवाद को हवा दी जा रही है। राजा के बयान को भी उसी आलोक में देखा जाना चाहिए। ऐसे लोग भारत के संविधान की शपथ लेकर संसद में बैठते हैं लेकिन प्रतीत होता है कि वो जिसकि शपथ लेते हैं उनमें भी उनकी आस्था नहीं है। 

आलम आरा ने बदली दिशा


भारतीय फिल्मों की सफलताओं का स्वर्णिम इतिहास रहा है। दादा साहब फाल्के ने जब पहली हिंदी फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई थी वो जबरदस्त सफल रही थी। कहा जाता है कि टिकटों की बिक्री की कमाई इतनी होती थी कि सिक्कों को बोरियों में भर कर रखना होता था। कुछ इसी तरह की कहानी दादा साहब फाल्के की एक और फिल्म से जुड़ी हुई है। 1917 में दादा साहब ने एक फिल्म बनाई  थी जिसका नाम था लंका दहन। नाम से ही स्पष्ट है कि फिल्म रामकथा पर आधारित है। 1917 में बनी इस फिल्म को पूरे देश में दर्शकों का खूब प्यार मिला था। कहा जाता है कि ये फिल्म मद्रास (अब चेन्नई) में इतनी हिट रही थी कि इसकी कमाई के सिक्कों को बोरियों में भरकर बैलगाड़ी पर लादकर ले जाया जीता था। फिल्मों को लेकर ये दीवानगी मूक फिल्मों के दौर में चल ही रही थी लेकिन उस दौर में फिल्मों को देखने के लिए घंटों पहले से सिनेमा हाल के बाहर जमा होने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। 14 मार्च 1931 को जब पहली बोलती फिल्म आलम आरा बांबे (अब मुंबई) के मैजेस्टिक सिनेमा हाल में रिलीज होने की खबर आम हुई तो लोग सूरज उगने के पहले अंधेरे में ही सिनेमा हाल के बाहर जमा होने लगे थे। मिहिर बोस ने अपनी पुस्तक बालीवुड में इसका विस्तार से उल्लेख किया है। इस फिल्म के निर्देशक अर्देशिर इरानी के बिजनेस पार्टनर के हवाले से लिखा गया है कि मैजेस्टिक सिनेमा के बाहर सुबह से ही इतनी भीड़ जमा हो गई कि हाल के कर्माचरियों को अंदर जाने में परेशानी हो रही थी। किसी तरह से वो अंदर जा पाए उस समय पंक्तिबद्ध होकर किसी काम को करने की अवधारणा नहीं थी इस कारण अफरातफरी मची थी। लोगों की भीड़ धीरे धीरे जब अराजक होने लगी तो सिनेमाघर के प्रबंधकों को पुलिस बुलानी पड़ी थी । तब जाकर फिल्म का प्रदर्शन हो सका था। कहा जाता है कि उस समय फिल्म के टिकट की कीमत चार आना थी जो ब्लैक में चार से पांच रुपए में बिकी थी। एक रुपए में चार आना होता था। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आलम आरा को लेकर कितनी दीवानगी थी। 

ये दीवानगी फिल्म को लेकर तो थी ही, दीवानगी का एक कारण अपनी भाषा में नायक और नायिका को बोलते सुनने का रोमांचकारी अनुभव भी था। आलम आरा पहली बोलती फिल्म तो थी ही लेकिन इसने हिंदी फिल्मों की दिशा बदल दी। इस फिल्म में तीस गाने थे। आलम आरा के बाद बनने वाली फिल्मों को अगर देखें तो सबमें खूब गाने होते थे। फिल्मकारों को लगता था कि जितना संगीत होगा फिल्म उतनी लोकप्रिय होगी। आलम आरा के बाद बनने वाली फिल्मों में 10 से 15 गाने तो होते ही थे। फिल्म इतिहासकारों का मानना है कि आलम आरा के पहले जब मूक फिल्मों का दौर था तब भारत में बनने वाली फिल्मों का ट्रीटमेंट वैसा ही होता था जैसे कि पूरी दुनिया में उस जानर की फिल्मों का होता था। जैसे ही बोलती फिल्मों का चलन आरंभ हुआ तो भारतीय फिल्में कथावाचन की अपने पारंपरिक शैली को अपनाने लगी। रंगमंच को लेकर जो अवधारणा थी वो पर्दे पर साकार होने लगी थी। इस लिहाज से देखा जाए तो आलम आरा को सिर्फ इसलिए याद नहीं किया जाना चाहिए कि उसने भारतीय फिल्मों के पात्रों को वाणी दी। इस फिल्म ने निर्माण की शैली को भी प्रभावित किया। गानों को फिल्म का अभिन्न अंग बनाने का आरंभ यहीं से होता है। गानों की परंपरा भारतीय रंगमंच में पहले से मौजूद थी। इस तरह से अगर हम विचार करें तो आलम आरा ने हिंदी फिल्मों को भारतीय कला के करीब लाने का कार्य भी किया। 1938 में प्रकाशित इंडियन सिनेमैटोग्राफ ईयरबुक में इस प्रवृत्ति को रेखांकित किया गया था। उसमें कहा गया था कि बोलती फिल्मों में गीत और संगीत के माध्यम से भारतीय चलचित्र जगत ने अपनी रचनात्मकता साबित की थी।  जो लोग तकनीक को कला का दुश्मन मानते हैं उनको यह सोचना चाहिए कि बहुधा तकनीक रचनात्मकता को बढ़ावा देती है । आज आर्टिफिशियल इंटेलिंजेंस (एआई) को लेकर भी फिल्म जगत से जुड़े कई लोग सशंकित हैं लेकिन जिस तरह से एआई ने किसी भाषा में बनी फिल्म को अन्य भाषाओं में जब करने की सहूलियत दी है वो भी रेखांकित की जानी चाहिए।    


Saturday, March 2, 2024

हिंदी और गांधी के सपनों पर ग्रहण


एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, जिसका नाम है महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय। ये विश्वविद्यालय महाराष्ट्र के वर्धा में स्थित है। इसकी वेबसाइट पर प्रकाशित परिचय में बताया गया है कि वर्ष 1997 में संसद में पारित एक अधिनियम के माध्यम से इसकी स्थापना की गई। इस विश्वविद्यालय के उद्देश्यों में क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी का सम्यक विकास करना, हिंदी को वैश्विक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए सुसंगत प्रयास करना। हिंदी को रोजगार की भाषा बनाने के लिए प्रयत्न करना, अंतराष्ट्रीय शोध और विमर्श केंद्र के रूप में विवविद्यालय का विकास करना। संसद के पारित अधिनियम के आलोक में कांग्रेस समर्थक अधिकारी अशोक वाजपेयी को विश्वविद्यालय का पहला कुलपति बनाया गया। वो लगभग चार वर्षों तक विश्वविद्यालय को दिल्ली से ही चलाते रहे। कभी कभार वर्धा चले जाते थे। उनके कार्यकाल में कुछ विवाद भी हुए। उनके बाद कई कुलपति नियुक्त हुए लेकिन विश्वविद्यालय अपने उद्देश्यों की तरफ बहुत धीरे-धीरे बढ़ पाया। वर्धा इस स्थित यह विश्वविद्यालय कभी छोटे तो कभी बड़े विवाद में घिरा रहा। तभी नियुक्तियों को लेकर तो कभी निर्माण को लेकर। पिछले वर्ष 14 अगस्त को अप्रिय परिस्थितियों में कुलपति रजनीश कुमार शुक्ल ने कुलपति के पद से इस्तीफा दे दिया। रजनीश शुक्ल का कार्यकाल भी विवादित रहा। जब उन्होंने पद छोड़ा तो विश्वविद्यालय के वरिष्ठतम प्रोफेसर एल कारूण्यकरा को कुलपति का प्रभार दिया। करीब दो महीने तक रजनीश शुक्ल का इस्तीफा स्वीकृत नहीं हुआ और प्रोफेसर कारूण्यकरा विश्वविद्यालय चलाते रहे। शिक्षा मंत्रालय ने जब रजनीश शुक्ल का इस्तीफा स्वीकृत किया तो साथ ही नागपुर के इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट (आईआईएम) के निदेशक को विश्वविद्यालय के कुलपति का अतिरिक्त प्रभार सौंप दिया। इसके बाद प्रोफेसर कारूण्यकरा अदालत चले गए जहां मामला अभी लंबित है। अतिरिक्त प्रभार के रूप में नागपुर आईआईएम के निदेशक विश्वविद्लाय चला रहे हैं। इस बीच नए कुलपति की नियुक्ति के लिए शिक्षा मंत्रालय ने विज्ञापन दे दिया। प्रक्रिया चल रही है। 

इस क्रोनोलाजी को बताने का उद्देश्य ये है कि किस तरह से महात्मा गांधी और हिंदी के नाम पर बना ये केंद्रीय विश्वविद्लाय निरंतर विवादों में रहा। इन विवादों का असर विश्वविद्यालय के कामकाज पर पड़ रहा है। स्थायी कुलपति के इस्तीफे के छह महीने की अवधि बीत जाने के बाद भी कुलपति की नियुक्ति नहीं होने के कारण विश्वविद्यालय के सामने जो बड़े उद्देश्य थे उन पर ब्रेक लग गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से शिक्षा के भारतीयकरण के लक्ष्य को पाना चाह रहे हैं। इसके लिए वो खुद बहुत सक्रिय रहे हैं, अब भी हैं। भारतीय भाषा भी प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय शिक्षा नीति की प्राथमिकता में है। भारतीय भाषा को रोजगार से जोड़ने के लिए भी बड़े स्तर पर कार्य हो रहे हैं। पाठ्यक्रम से लेकर पाठ्य सामग्री तक तैयार करने के लिए पिछले दो वर्षों से हर स्तर पर श्रम हो रहा है । लेकिन जब हिंदी के इस विश्वविद्यालय की स्थिति ऐसी लचर हो तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लक्ष्य को समग्रता में पाने में कठिनाई हो सकती है। इस समय जब  महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, के माध्यम से हिंदी को शक्ति देने का उपक्रम जोर शोर से चलाया जाना चाहिए था तब विश्वविद्यालय केस मुकदमों में उलझा हुआ है। जिनके पास विश्वविद्यालय का अतिरिक्त प्रभार है वो अतिरिक्त दायित्व की तरह ही निर्वाह भी कर रहे हैं। विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने अभी हाल ही में कुलपति को एक पत्र लिखने की बात कही है जिसमें वो ये मांग करेंगे कि प्रशासन विश्वविद्यालय की स्थिति पर एक श्वेत पत्र जारी करे। शिक्षकों को संबोधित उसी पत्र में शिक्षक संघ ने आरोप लगाया है कि विश्वविद्यालय में नियम कानून को दरकिनार कर निर्णय लिए जा रहे हैं। कर्माचरियों और शिक्षकों को परेशान किया जा रहा है आदि आदि। ये आरोप हैं और इनकी जांच होगी तभी सचाई का पता चल पाएगा। 

इन दिनों एक बेहद दिलचस्प बात इस विश्वविद्लय से जुड़ी है वो ये कि इसके रोजमर्रा के निर्णय व्हाट्सएप पर हो रहे हैं। चाहे वो शिक्षकों के अवकाश की स्वीकृति का मामला हो, चाहे किसी के जीपीएस खाते से पैसे निकालने की अनुमति का संदर्भ हो या किसी शिक्षक को किसी कार्यक्रम आदि में भाग लेने की अनुमति का मामला हो। अधिकतर मामलों में कुलपति का अप्रूवल व्हाट्सएप पर हो रहा है। इस प्रवृत्ति के कारण विश्वविद्यालय में ये चर्चा होने लगी है कि महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अब व्हाट्सएप युनिवर्सिटी बन गया है। अभी तक विमर्श या चर्चा के दौरान जब काल्पनिक बातों को तथ्य बनाकर पेश किया जाता था तो कहा जाता था कि व्हाट्सएप युनिवर्सिटी का ज्ञान मत दो। व्हाट्सएप युनिवर्सिटी का प्रयोग हल्के फुल्के अंदाज में होता था उसको अब महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से जुड़े कुछ लोग अपनी युनिवर्सिटी का मजाक बनाने के लिए प्रयोग करने लगे हैं। यह ऐसी स्थिति है जिसकी कभी कल्पना नहीं की गई थी। अकादमिक परिषद और कार्य परिषद की लंबे समय से बैठक नहीं होने के कारण बड़े निर्णय नहीं लिए जा रहे हें। व्हाट्सएप पर जितने निर्णय हो सकते हैं वो हो रहे हैं। व्हाट्सएप के स्क्रीन शाट के प्रिंट लेकर फाइलों में लगा दिए जाते हैं। 

महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय एक स्वप्न था। एस ऐसा स्वप्न जिसको 1975 में नागपुर में आयोजित पहले विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान देखा गया था। उस सम्मेलन के दौरान प्रस्ताव पारित किया गया था कि वर्धा में हिंदी के एक विश्वविद्यालय की स्थापना हो। 1993 में मारीशस में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान एक अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की आवश्यकता पर चर्चा हुई थी। तब ये भी कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए भी एक ऐसे विश्वविद्यालय की आवश्यकता है। महात्मा गांधी के हिंदी प्रेम को भी इस विश्वविद्लय की स्थापना की आवश्यकता से जोड़ा गया था। तब जाकर 1997 में संसद ने ऐसे विश्वविद्यालय की स्थपना को स्वीकृति दी थी। आज इस विश्वविद्लाय के दो मान्यता प्राप्त केंद्र कोलकाता और प्रयागराज में चल रहे हैं। महाराष्ट्र के अमरावती जिले में भी एक केंद्र कार्यरत है जिसको विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से मान्यता मिलना शेष है। गुवाहाटी में चौथा केंद्र खोलने की कवायद हो रही थी। कोलकाता का केंद्र काफी समय से किराए के मकान में चल रहा है। वहां बहुत कम जगह है। आरोप है कि अगर विश्वविद्यालय प्रशासन किसी को प्रताड़ित या दंडित करना चाहता है तो उसका तबादला कोलकाता केंद्र में कर दिया जाता है। प्रयागराज में विश्वविद्यालय का अपना परिसर है लेकिन वो भी आधारभूत सुविधाओं की बाट जोह रहा है। यह शोध का विषय हो सकता है कि इस केंद्र में जितने कर्मचारी या अध्यापक हैं उस अनुपात में विद्यार्थी रहे हैं या नहीं। अमरावती जिले के केंद्र को जब मान्यता ही प्राप्त नहीं है तो उसकी चर्चा व्यर्थ है। हिंदी के नाम पर बने इस विश्वविद्यालय पर केंद्र सरकार को तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। अगर ऐसा हो पाता है तो इसको एक ऐसे केंद्र के रूप में विकसित किया जाए जो हिंदी पठन पाठन के लिए एक वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित हो सके। विश्व के अन्य देशों के विश्वविद्लायों में हिंदी शिक्षण के समन्वयक के रूप में काम कर सके। वहां के लिए पाठ्यक्रम तैयार कर सके, शिक्षक तैयार कर सके। इस विश्वविद्यालय को उच्च शिक्षा के एक ऐसे वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित करना होगा जहां विश्व की अन्य भाषाओं में चल रही गतिविधियों पर विमर्श हो सके, शोध हो सके। अगर ऐसा हो पाता है तो प्रधानमंत्री के विकसित भारत के सोच को भी शक्ति मिल सकती है। अन्यथा व्हाट्सएप युनिवर्सिटी तो चलती ही रहेगी। 


आंधी ने उड़ाई अटकलें


जब भी चुनाव आते हैं, फिल्मों में राजनीति की बात होती है तो फिल्म आंधी की चर्चा अवश्य होती है। इस महीने देश में आम चुनाव की घोषणा होने जा रही है। नारी शक्ति वंदन अधिनियम संसद में पेश हो चुका है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि महिलाओं से जुड़े मुद्दे आगामी चुनाव में केंद्र में होंगे। फिल्म आंधी को भी देखें तो उसमें महिला और उसके संघर्ष की कहानी है। गुलजार ने माना भी था कि वो आधुनिक भारत की महिला राजनीतिज्ञ को केंद्र में रखकर फिल्म बनाना चाहते थे। एक आदर्श राजनीतिक महिला। गुलजार ने एक साक्षात्कार में कहा था कि जब वो फिल्म आंधी के चरित्र की कल्पना कर रहे थे तो उनके मस्तिष्क में इंदिरा गांधी और तारकेश्वरी सिन्हा की छवि थी। पर उन्होंने जोर देकर तब ये भी कहा था कि वो कभी भी इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत जीवन पर फिल्म नहीं बनाना चाहते थे। गुलजार चाहे जो भी कहें लेकिन इस फिल्म में कई ऐसे प्रसंग थे या कई ऐसी स्थितियां थीं जिनका मेल इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत जीवन से है। फिल्म और इंदिरा गांधी की कहानी में जो सबसे बड़ी समानता थी वो ये कि फिरोज गांधी से उनका अलगाव हुआ और वो अपनी पिता की मर्जी के अनुसार राजनीति में आईं। इंदिरा गांधी के पिता भई अपनी बेटी को अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर तैयार कर रहे थे और फिल्म में भी नायिका आरती के पिता इंदिरा गांधी के पिता की तरह अपनी बेटी को अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर देख रहे थे। सुचित्रा सेन का गेटअप भी इस तरह से बनाया गया था कि उससे भी इंदिरा गांधी की झलक दिखती थी। फिल्मकारों ने बस एक अहम अंतर रखा था वो ये कि फिल्म में नायिका की संतान एक लड़की थी और इंदिरा गांधी के दो पुत्र थे। इंदिरा गांधी के पुत्र उनके साथ रहते थे जबकि फिल्म में नायिका की पुत्री अपने पिता के साथ रहती थी। 

आंधी फिल्म की महिला पात्र आरती देवी और उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच कई समानताएं तो थीं लेकिन जब ये फिल्म रिलीज हुई तो इसके प्रचार में अति उत्साह ने इसको और विवादित बना दिया। दक्षिण भारत के अखबारों में एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ जिसमें फिल्म की नायिका सुचित्रा सेन के फिल्मी गेटअप वाली तस्वीर प्रकाशित हुई और उसके नीचे लिखा था अपने प्रधानमंत्री को स्क्रीन पर देखें। दिल्ली के समाचार पत्रों में इस फिल्म का जो विज्ञापन प्रकाशित हुआ, उसमें लिखा था स्वाधीन भारत की एक दमदार महिला राजनेता की कहानी देखिए। इंदिरा गांधी तक बातें पहुंचने लगीं थीं। उन्होंने फिल्म नहीं देखी थी। उन्होंने अपने दो सहयोगियों को फिल्म देखकर रिपोर्ट देने को कहा कि क्या वो सिनेमा हाल में प्रदर्शन के लिए उचित है। दोनों ने फिल्म देखी और उसमें ऐसा कुछ भी नहीं पाया कि फिल्म को प्रतिबंधित किया जाए। उस समय के सूचना और प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल को भी फिल्म में कुछ गलत नहीं लगा था। लेकिन बताया जाता है कि अखबारों के विज्ञापन और फिर एक दृश्य में सुचित्रा सेन को सिगरेट पीते दिखाने की बात जब इंदिरा गांधी तक पहुंची तो उन्होंने तय कर लिया कि फिल्म को रोक दिया जाए। फिल्म प्रतिबंधित हो गई। कुछ ही सप्ताह पहले रिलीज की गई फिल्म प्रतिबंधित। फिल्म को फिर से सिनेमा हाल तक पहुंचने में ढाई वर्ष की प्रतीक्षा करनी पड़ी। इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में जब इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी हारी तो इस फिल्म से प्रतिबंध हटा।  मोरारजी देसाई की अगुवाई वाली सरकार ने इस फिल्म को दूरदर्शन पर भी दिखाया। एक बेहद खूबसूरत फिल्म राजनीति की भंट चढ़ी। 

गुलजार ने जिस संवेदनशीलता के साथ इस फिल्म में प्रेम दृष्यों को फिल्माया है वो बेहद मर्यादित है। विवाह के पहले और विवाह के बाद के रोमांटिक दृष्यों को संजीव कुमार और सुचित्रा सेन ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिया है। याद करिए इस फिल्म का गीत तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं में दोनों के मन की तड़प, मिलने की आकांक्षा लेकिन परिस्थितियां विपरीत। कश्मीर के अनंतनाग इलाके के मार्तंड मंदिर के खंडहरों के बीच फिल्माए इस गीत का लोकेशन, गाने के दौरान नायक नायिका की पोजिशनिंग इस तरह कि रखी गई जो कहानी को मजबूती प्रदान करता है और दर्शकों को दृष्य से जोड़ता है। लेकिन राजनीति के निर्मम हाथों एक खूबसूरत फिल्म विवादित तो बनी लेकिन आज भी उसकी चर्चा होना ये साबित करता है कि कला को राजनीति दबा नहीं सकती। 

Saturday, February 24, 2024

महाआख्यान से बनता सत्ता विमर्श


दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि नरेन्द्र मोदी ने देश को सामूहिक हीन भावना से बाहर निकालने का काम किया। नरेन्द्र मोदी जी ने पहली बार इस देश में को गुलामी के प्रतीकों से मुक्ति दिलाने का आह्वान लाल किले की प्राचीर से किया था। आगे उन्होंने जो कहा उसका अर्थ ये था कि मोदी के शासन काल में देश को उग्रवाद, आतंकवाद और नक्सलवाद से लगभग मुक्ति मिली। इसके अलावा भी अमित शाह ने अपने भाषण में नरेन्द्र मोदी को कई समस्याओं से मुक्ति दिलानेवाले नेता के तौर पर रेखांकित किया। जब मुक्ति की बात होती है और उसके साथ कार्यों का लेखा जोखा दिया जाता है तो वो कोई साधारण बात नहीं होती है। राजनीतिक वक्तव्य नहीं होता है। उस वक्तव्य के पीछे एक सुचिंतित रणनीति होती है। अमित शाह के नेता नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों के माध्यम से एक पाठ (टेक्सट) का निर्माण करते चलते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों में मुक्ति का चाहत तो होती ही है, देश के उज्जवल भविष्य का स्वपन भी होता है। पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी के भाषणों और क्रियाकलापों को देखें तो वो इसके माध्यम से जो आख्यान रचते हैं उसमें इन सबकी झलक दिखाई देती है। नरेन्द्र मोदी ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के समय जो पंच प्रण की घोषणा की थी वो इसी आख्यान का एक भाग प्रतीत होता है। उसमें भी उन्होंने मुक्ति का स्वप्न देखा था। उसके बाद वो निरंतर विकसित भारत की बात कर रहे हैं। 2047 तक भारत को पूर्ण विकसित राष्ट्र बनाने का स्वप्न। जब नरेन्द्र मोदी विकसित भारत का आख्यान रचते हैं तो उसके साथ भारतीय अस्मिता को भी जोड़ते चलते हैं। अगर मोदी की इस अस्मितामूलक आख्यान को देखें और उसको स्टीफन ग्रीनब्लाट जैसे चिंतक की अवधारणों पर कसें तो स्थिति और स्पष्ट होती है। स्टीफन ग्रीनब्लाट कहते हैं कि हर अस्मिता एक कहानी है। कहानी के बार बार कहने से ही अस्मिता का निर्माण होता है। हमें यहां ये समझना होगा कि बार बार कहना क्या है। ये जो बार बार कहना होता है यही तो जनता के मानस पटल पर अंकित होकर एक ऐसे पाठ का निर्माण करते हैं जिससे एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में वातावरण का निर्माण होता है, जिसकी परिणति सत्तामूलक विमर्श में होती है। 

हिंदी के आलोचक सुधीश पचौरी ने अपनी पुस्तक तीसरी परंपरा की खोज में लिखा है कि जिस तरह से इतिहास एक टेक्सट (पाठ) है उसी तरह पद्मावत भी एक टेक्सट है और हर सत्ता समूह उसको अपने तरीके से पढ़ सकता है। उसका अर्थ फिक्सड नहीं तरल होता है उससे राजनीति भी की जा सकती है। वो आगे कहते हैं कि टेक्सट जब मास सर्कुलेशन में होता है तो उसकी मानी की परतें बढ़ती जाती हैं और उसकी एक इकोनामी भी काम करने लगती है।... कोई टेक्सट कभी बंद नहीं होती है, न किसी टेक्सट का समापन होता है। वह नए नए पाठों के लिए हमेशा खुली रहती है और इस तरह इतिहास के पाठों को बदलती रहती है।  अब अगर इस सिद्धांत के आलोक में नरेन्द्र मोदी के रचे आख्यानों को देखें तो वो जिस टेक्सट का सृजन करते हैं उसके मास सर्कुलेशन में होने के कारण व्याप्ति बढ़ती जाती है। प्रधानमंत्री मोदी अपने पाठ (टेक्सट) का समापन नहीं करते हैं बल्कि एक को दूसरे से जोड़कर एक नया टेक्सट जनता के सामने रखते चलते हैं। उदाहरण के तौर पर पहले वो संकल्प से सिद्धि की बात करते हैं। संकल्प और सिद्धि की बात करते करते वो स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के समय कई प्रकार की मुक्ति का पाठ रचते हैं। इस मुक्ति के बाद वो विकसित भारत के स्वप्न की संरचना करते हैं। इस तरह से प्रधानमंत्री मोदी न केवल नया टेक्सट रचते हैं बल्कि उसको इतिहास के तथ्यों के साथ मिलाकर मौखिक इतिहास (ओरल हिस्ट्री) का सृजन भी करते हैं। सुधीश पचौरी कहते हैं कि मौखिक इतिहास के इतिहासत्व को लेकर अतिरिक्त सजगता की आवश्यकता होती है। मौखिक इतिहास की चुनौतियां भी कई प्रकार की होती हैं। वो वाचक पर निर्भर करते है। कई बार मौखिक इतिहास में एक वाचक नहीं होता है बल्कि वो अलग अलग कालखंड में कई वाचकों के माध्यम से आगे बढ़ता है। प्रधानमंत्री के इस मौखिक पाठ को विश्लेषण करते हैं तो इतिहास के साथ साथ वो एक पावर टेक्सट (सत्तात्मक कृति) का निर्माण भी करते हैं। पाठ में जब मुक्ति और स्वप्न का रसायन मिला दिया जाता है तो वो पावर टेक्सट बनता है। आज अगर नरेन्द्र मोदी की साख और विश्वास है तो उसके पीछे यही पावर टेक्सट है। 

हमारे देश में पावर टेक्सट को समझने का सटीक उदाहरण तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस है। तुलसीदास ने जब मानस की रचना की तो कथा के साथ साथ उन्होंने मुक्ति का लक्ष्य भी रखा। जब तुलसीदास मानस की रचना कर रहे थे उस समय भारत की जनता का मनोबल गिरा हुआ था। हिंदू जनता आक्रांताओं की ज्यादातियों से परेशान थी और वो मुक्ति चाहती थी। तुलसीदास ने इसको समझते हुए एक ऐसे पाठ की रचना की जिसमें राम जैसा नायक था जिसका चरित्र लोगों में उत्साह का संचार करनेवाला था। तीसरी परंपरा की खोज करते करते लेखक कहते हैं कि रामकथा और उसमें राम का विष्णु के अवतार के रूप में आना और विराट हिंदू कथा में बदलना पूर्व लिखित बहुत सी रामकथाओं को विस्थापित कर देता है। भारत में तुलसी के रामकथा की व्याप्ति एक बहुत ही ताकतवर और सघन विमर्श पैदा करती है। इसके मूल में धार्मिक कारणों के अलावा सबसे बड़ा कारण है मानस के प्रतीकों, रूपकों और मुक्ति की कथा के रूप में उसके आदर्शों का सुदीर्घ और सतत संचरण। ये चिन्ह एक तरह से हिंदू जनता की स्मृति में चक्कर मारते रहते हैं। भारत में मानस को मनोरंजन का ग्रंथ नहीं बल्कि मुक्ति का ग्रंथ माना जाता है । एक मेटानेरेटिव ये बनता है कि वो कलियुग के अत्याचारों से मुक्ति देनेवाली एकमात्र कथा है। तुलसी के मानस के साथ विश्वास और आस्था जुड़कर उसको एक पावर टेक्स्ट बनाती है। 

आज नरेन्द्र मोदी जिस तरह पावर टेक्सट का आख्यान रच रहे हैं उससे उनके नेता की छवि के साथ मुक्तिदाता की छवि भी गाढ़ी होती जा रही है। उनके सहयोगी और उनकी पार्टी के लोग इस पावर टेक्सट को लेकर ही आगे बढ़ रहे हैं और जनमानस में इस छवि को गाढा करने के प्रयत्न में जुटे हुए हैं। जनता भी प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के इस पावर टेक्सट से सहमत ही नजर आती है। लोकतंत्र में जनता की सहमति का पैमाना चुनाव होता है। तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणामों में मोदी के इस पाव्र टेक्सट को मतदाताओं ने स्वीकार किया। विपक्ष के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती नरेन्द्र मोदी के पावर टेक्सट से पैदा हो रहे मेटानैरेटिव को समझने के साथ साथ उसका काट ढूंढने की है। विपक्षी दल अब भी राजनीति के पुराने औजारों से इसका काट ढूंढने का प्रयत्न कर रहे हैं और निरंतर विफल हो रहे हैं। वो अब भी जाति और धर्म का आधार लेकर मोदी के पावर टेक्सट के समझ अपना पाठ प्रस्तुत कर रहे हैं। लेकिन इन पाठ में न तो मुक्ति की बात है और न ही कोई स्वप्न। इसलिए जनविश्वास अर्जित करने में सफलता नहीं मिल पा रही है। तुलसीदास ने रामकथा को मिथक से प्रतिरोधात्मक कथा में बदला उसी तरह से प्रधानमंत्री मोदी विकसित भारत के संकल्प के नैरेटिव के साथ एक महाआख्यान रचा है। इसके परिणाम मिल रहे है।