हिंदी के श्रेष्ठ आलोचकों में से एक सुधीश पचौरी जी से बात हो रही थी। बात लोकप्रिय साहित्य तक जा पहुंची। चर्चा में सुरेन्द्र मोहन पाठक का लेखन भी आया। उन्होंने साफगोई से कहा कि वो लोकप्रिय लेखक हैं और उनको मास साइकोलाजी की समझ है, उनका सांस्कृतिक दायरा विस्तृत है जिसके कारण उनके उपन्यास लोकप्रिय होते हैं। उनकी बात सुनते ही मैंने विनोद कुमार शुक्ल का नाम लिया तो पचौरी जी बोले कि वो लोकप्रिय लेखक नहीं है वो इलीटिस्ट रायटर हैं। अब उनके इस कथन को समझने और इन दो लेखकों के लेखन को समझने की चुनौती सामने थी। एक तरफ सुरेन्द्र मोहन पाठक थे जिनके उपन्यास पैंसठ लाख की डकैती के दो दर्जन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और दूसरी तरफ विनोद कुमार शुक्ल थे जो पिछले साल तक रायल्टी की मिलनेवाली राशि को लेकर परेशान थे। विनोद कुमार शुक्ल को हिंदी साहित्य से जुड़ा एक वर्ग बेहद महत्वपूर्ण लेखक मानता था या है लेकिन आम पाठकों के बीच न तो उनकी पहचान है और ना ही लोकप्रियता। सुरेन्द्र मोहन पाठक को हिंदी के आलोचकों ने कभी लेखक माना ही नहीं बल्कि उनको साहित्य की परिधि पर भी नहीं रखा। पाठकों के बीच उनकी लोकप्रियता असंदिग्ध है। जासूसी उपन्यास या अपराध कथा को हिंदी की अध्यापकीय आलोचना ने साहित्य ही नहीं माना। परिणाम ये हुआ कि उन उपन्यासों पर ना तो शोध हुए और ना ही उनके लेखकों को साहित्यकार के तौर पर मान्यता मिली। जबकि पश्चिम के देशों में इस तरह की कृतियों पर खूब कार्य हुए हैं। इसका एक दुष्परिणाम ये भी हुआ कि हिंदी में जासूसी और अपराध कथा लिखनेवालों की कमी होती चली गई। नए लेखकों में से बहुत ही कम लोग उस तरफ जाने की हिम्मत जुटा पा रहे थे।
पिछले कुछ वर्षों से स्थिति बदली दिख रही है। हिंदी में अपराध कथा लेखन की ओर नए और युवा लेखकों का ध्यान गया। पुस्तकें भी आईं और चर्चित भी हुईं। दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की सूची में कई बार अपना स्थान बनाने वाले लेखक सत्य व्यास ने सात चर्चित पुस्तकें लिखने के बाद थ्रिलर, लकड़बग्घा लिखने का साहस जुटाया। उन्होंने माना है कि मैं बस अपनी स्याही इस जुर्रत पर जियां करूंगा कि पहली बार मैंने कुछ ऐसा लिखने की कोशिश की है जिसके लिए अक्सर दीगर अदीब मना करते हैं। ऐसी विधा जिसमें मैंने पहली बार कोई उपन्यास लिखा है-थ्रिलर। नए विषयों पर लिखने की चुनौती सत्य व्यास को इस विषय तक लेकर आया। सत्य व्यास हिंदी की परंपरा को भी जानते हैं और रहस्य कथा, अपराध और जासूसी कथा लिखनेवाले लेखकों की उपेक्षा का अनुमान उनको है। बावजूद इसके उन्होंने थ्रिलर लिखा और उसको पाठक पसंद भी कर रहे हैं। संजीव पालीवाल का चौथा उपन्यास मुंबई नाइट्स भी क्राइम थ्रिलर है। इसको पाठक पसंद कर रहे हैं। संजीव कहते हैं कि वो ओटीटी (ओवर द टाप) पर वेब सीरीज देखनेवालों के लिए उपन्यास लिखते हैं पीएचडी करनेवालों के लिए नहीं। साहित्य ने पहले ही पाठकों पर बहुत बोझ डाल रखा है वो औरनहीं डालना चाहते हैं। वो लोक रुचियों का ध्यान रखते हुए लेखन करते हैं और लोकप्रिय लेखक ही बनना चाहते हैं, साहित्यकार नहीं। इसी तरह से मनोज राजन त्रिपाठी ने भी सत्य घटना पर आधारित अपराध कथा कसारी मसारी लिखी। उनके इस अपराध कथा में उत्तर प्रदेश के एक माफिया राजनेता का मर्डर केंद्र में है। उसके इर्द गिर्द उन्होंने कहानी बुनी है। मनोज राजन अपनी कृति को क्राइम थ्रिलर नहीं मानते हैं बल्कि इसको पालिटिकल थ्रिलर नाम देते हैं। चाहे जो नाम दिया जाए पर है ये भी लोकप्रिय उपन्यास की श्रेणी में ही। मनोज भी पाठकों और उनकी रुचि को सर्वोपरि मानते हैं। भारतीय सेना में कर्नल और गजलकार के तौर पर जाने जानेवाले गौतम राजऋषि ने भी एक क्राइम थ्रिलर लिखा है हैशटैग। ये उपन्यास भी शीघ्र ही बाजार में आनेवाला है। इसके कवर पर लिखी पंक्ति इसके बारे में संकेत कर रही है, मुहब्बत ने फौजी बनाया महबूब ने कातिल।
दरअसल हिंदी में मार्क्सवादी आलोचकों ने अपनी कमजोरी के कारण रहस्य रोमांच और अपराध कथाओं को साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा से दूर रखा। उनकी आलोचना में लोकप्रिय साहित्य को परखने के औजार ही नहीं हैं जिसके कारण उन्होंने लोकप्रियता को चालू कहकर खारिज करने की प्रविधि अपनाई। अपराध और रहस्य रोमांच कथा का आर्थिक दायरा क्या हो सकता है, जन के मन को समझने के लिए जिस संवेदना की आवश्यकता होती है मार्क्सवादी आलोचना उससे दूर है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि किसी भी कृति का एक मार्मिक स्थल होता है। मार्क्सवादी आलोचकों ने अपराध कथाओं के मार्मिक स्थल को पहचाना ही नहीं। हिंदी के लिए अच्छी बात है कि कई लेखक जन मनोविज्ञान को समझते हुए लेखन में आगे आ रहे हैं। इससे हिंदी का सांस्कृतिक दायरा बढ़ेगा।
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