Translate

Sunday, December 14, 2008

बुड्ढा अस्पताल में भी बुला रहा है !

सन् 2002 में जब चर्चित उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा का पहला खंड छपा था तो उसके शुरू में लेखिका की टिप्पणी थी - इसे उपन्यास कहूं या आपबीती......? तब इस बात को लेकर खासा विवाद हुआ था कि ये आत्मकथा है उपन्यास । लेकिन ये विवादज करने वालों ने शायद ये ध्यान नहीं दिया इस तरह का प्रयोग कोई नई बात नहीं थी ।
हिंदी में इस तरह का पहला प्रयोग भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 1876 में पहली बार - एक कहानी, कुछ आपबीती, कुछ जगबीती में किया था । लेकिन जब छह साल बाद जब मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा का दूसरा खंड- गुडिया भीतर गुडिया- प्रकाशित हुआ तो लेखिका ने इस बात से किनारा कर लिया और पाठकों के सामने पूरी तौर पर इसे आत्मकथा के रूप में प्रस्तुत किया, और एक अनावश्यक विवाद से मुक्ति पा ली।
पहले खंड - कस्तूरी कुंडल बसै- में लेखिका ने मैं के परतों को पूरी तरह खोल दिया लेकिन दूसरे खंड में मैं को खोलने में थोड़ी सावधानी बरती गई है, ऐसा लगता है। पहले खंड में मैत्रेयी और उनेक मां के संघर्षों की कहानी है और दूसरे में सिर्फ मैत्रेयी का संघर्ष है या कुछ हद तक उनके पति डॉक्टर शर्मा का द्वंद । पहला खंड इस वाक्य पर खत्म होता है - घर का कारागार टूट रहा है।
उससे ही दूसरे खंड का क्यू लिया जा सकता है और जब दूसरा खंड आया तो न केवल कारागार टूटा बल्कि घर का कैदी पूर्ण रूप से आजाद होकर सारा आकाश में विचरण करने लगा । 'गुडिया भीतर गुडिया' में शुरुआत में तो उत्तर प्रदेश के एक कस्बाई शहर से महानगर दिल्ली पहुंचने और वहां घर बसाने की जद्दोजहद है, साथ ही एक इशारा है पति के साथी डॉक्टर से प्रेम का का भी।
लेकिन दिलचस्प कहानी शुरू होती है दिल्ली से निकलनेवाले साप्ताहिक हिन्दुस्तान के सह संपादक की रंगीन मिजाजी के किस्सों से। किस तरह से एक सह संपादक नवोदित लेखिका को फांसने के लिए चालें चलता है, इसका बेहद ही दिलचस्प वर्णन है । साथ ही इस दौर में लेखिका की मित्र इल्माना का चरित्र चित्रण भी फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड के तौर पर हुआ है, कहना ना होगा कि इल्माना के भी अपने गम हैं और इसी के चलते दोनों करीब आती हैं।
मैत्रेयी पुष्पा और राजेन्द्र यादव के बारे में इतना ज्यादा लिखा गया कि मैत्रेयी की आत्मकथा की उत्सुकता से प्रतीक्षा करनेवाले पाठकों की रुचि ये जानने में भी थी कि मैत्रेयी, राजेन्द्र यादव के साथ अपने संबंधों को वो कितना खोलती हैं । लेकिन मैत्रेयी पुष्पा और राजेन्द्र यादव के संबंधों में सिमोन और सार्त्र जैसे संबंध की खुलासे की उम्मीद लगाए बैठे आलोचकों और पाठकों को निराशा हाथ लगेगी।
हद तो तब हो जाती है जब राजेन्द्र यादव राखी बंधवाने मैत्रेयी जी के घर पहुंच जाते हैं, हलांकि मैत्रेयी राखी बांधने से इंकार कर देती हैं। राजेन्द्र यादव को लेकर मैत्रेयी को अपने पति डॉक्टर शर्मा की नाराजगी और फिर जबरदस्त गुस्से का शिकार भी होना पड़ता है।
लेकिन शरीफ डॉक्टर गुस्से और नापसंदगी के बावजूद राजेन्द्र यादव की मदद के लिए हमेसा तत्पर दिखाई देते हैं, संभवत: अपनी पत्नी की इच्छाओं के सम्मान की वजह से। लेखिका ने अपने इस संबंध पर कितनी ईमानदारी बरती है, ये कह पाना तो मुश्किल है,लेकिन मैं सिर्फ टी एस इलियट के एक वाक्य के साथ इसे खत्म करूंगा- भोगनेवाले प्राणी और सृजनकरनेवाले कलाकार में सदा एक अंतर रहता है और जितना बड़ा वो कलाकार होता है वो अंतर उतना ही बड़ा होता है।
अगर मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा- गुडिया भीतर गुड़िया- को पहले खंड- कस्तूरी कुंडल बसै -के बरक्श रखकर एक रचना के रूप में विचार करें तो दूसरा खंड पहले की तुलना में कुछ कमजोर है। लेकिन इसमें भी मैत्रेयी जब-जब गांव और अपनी जमीन की ओर लौटती हैं तो उनकी भाषा, उनका कथ्य एकदम से चमक उठता है।
अंत में इतना कहा जा सकता है कि गुड़िया भीतर गुड़िया यशराज फिल्मस की उस मूवी की तरह है, जिसमें संवेदना है, संघर्ष है , जबरदस्त किस्सागोई है. दिल को छूने वाला रोमांस है , भव्य माहौल है और अंत में नायिका की जीत भी - जब राजेन्द्र यादव अस्पताल के बिस्तर पर पड़े हैं और मैत्रेय़ी को फोन करते हैं तो डॉक्टर शर्मा की प्रतिक्रिया - क्या बुड्ढा अस्पताल में भी तुम्हें बुला रहा है?
लेकिन वही डॉ. शर्मा कुछ देर बाद यादव जी के आपरेशन के कंसेंट फॉर्म पर दस्तखत कर रहे होते हैं । इस आत्मकथा में एक और बात जो रेखांकित करने योग्य है वो ये कि मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी आपबीती के बहाने दिल्ली के संपादकों और लेखक समुदाय के स्वार्थों बेनकाब किया है ।
--------------------------------------
समीक्ष्य पुस्तक- गुड़िया भीतर गुड़िया
लेखक- मैत्रेयी पुष्पा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- 395 रुपये

Thursday, December 4, 2008

बुड्डों ने किया बेड़ागर्क- अनुपम श्रीवास्तव

सचिन जब भी फ्लॉप होते हैं तो यही आवाज़ एडिटोरियल मीटिंगों में गूंजती है कि 'बाहर करो बूढ़ों को' मगर सचिन कभी न कभी मौका देखकर अपने खेल से सभी को चुप कर देते हैं। मैं उन पत्रकारों की बात नहीं कर रहा हूं जो सिर्फ़ इसको भगवान जाग उठा या भगवान सो गया से ज्यादा नहीं समझते। चूंकि सारे संपादकों की रुचि क्रिकेट में है तो क्रिकेट का गुरु बनने की हर कोई कोशिश करता है या फिर दिखने की।
जब मैंने पत्रकारिता का ये प्रोफेशन ज्वाइन ही किया था तब किसी ने कहा था कि सीख जाओगे वक्त के साथ और ये भी जोड़ दिया की तुम अभी बच्चे हो। 'अच्छे-अच्छे गधे घोड़े बन गए इस प्रोफेशन में।' चाहे वो नेता, क्षेत्र या अपने बाप के दम पर आए हों।
कुम्बले और गांगुली रिटायर हो गए और बाकी सभी बूढ़ों का यही हाल होना है मगर जाने क्यों सचिन की बात अलग है। ये खिलाड़ी सारी दुनिया से टक्कर लेता है। शायद भारत का राइस ग्राफ भी ऐसा है जैसा सचिन का रहा। पिछले 19 सालों में जैसा कि लोग अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैन की भूमिका में देखते थे। तब शायद भारत का भी लुकआउट वैसा ही था जैसा अमिताभ बच्चन की भूमिका रहती थी एंग्री यंग मैन में, जो शायद समाज से दुखी रहता था और उसका फ्रस्ट्रेशन परदे पर दिखता था।
मैंने सचिन के साथ जिया है क्योंकि जब से मैंने होश संभाला सचिन ही देखा। मुझे हमेशा से लगता है कि सचिन हम लोगों के मोटिवेटर हैं और 'सिंबल ऑफ़ होप' हमेशा रहे हैं। कहीं न कहीं मुझे मेरे पूरे स्ट्रगल पीरियड में जाने क्यों सचिन हमेशा याद रहते हैं।
चलो ये तो रहा हाल खेल का। देश-विदेश में जो घटनाएं हो रही हैं उससे हम पत्रकारों पर भारी संकट है। चुनाव का वक्त करीब है... तो आप किस आइडियोलॉजी से जुड़े पत्रकार हैं ये प्रश्न हमेशा आपसे जाने अंजाने पूछा जाता है मगर क्या जवाब है आपके पास। क्या आप संघी हैं या फिर वामपंथी या फिर बताएं कि leftist, rightist, centrist, capitalist हैं। हैं क्या आप। पत्रकार क्या कहे, साहब मैं तो पेट भरने आया हूं प्रोफेशनल हूं। मेरा इंटरेस्ट था इसलिए आया। 'आई एम हेयर बाई चॉइस नोट बाइ डीफॉल्ट ओर बाई चांस'... चल डॉयलाग मत मार। मुझे तो वही याद आता है जो मेरे रिश्तेदारों ने कहा था - जो कुछ नहीं कर पाता जिन्दगी में वही पत्रकार बनता है।
अब जमाना चाहे जो हो गया हो लाखों रुपये में मॉस कम्युनिकेशन की डिग्री मिलती हो या लाखों रुपये की नौकरी है और फिर वही मानसिक डाउनमार्केट सॉरी खांटी पत्रकारों के बीच की जिंदगी। मेरे पास नौकरी मांगने आए एक इन्टर्न ने कहा- सर मेरे पापा ने लाखों रुपये खर्चे कर ये कोर्स कराया है बस मुझे नौकरी दे दीजिए बाकी मैं कर लूंगा, नौकरी बची रहने का भी जुगाड़ देख लूंगा। बाकी मैं सीख लूंगा। मुझे बॉस, नौकरी दे दीजिये।
मैं जब मुंबई में था तो कई नए पत्रकार कहते थे कि जर्नलिस्ट "Is always ahead of times "। "master of all traits"- शायद वो अंग्रेजी के पत्रकार थे इसलिए कहते थे। मीडिया समाज का आईना होता है या फिर में पूछता हूं ' मीडिया में बीते लोग समाज का'... सही कहा बीड़ू
मैं भी कहां फंस गया, ज्ञान की बातों में, ज्ञान कि बातों से ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। खैर, आजकल दफ्तरों में भी खेल होने लगा है। कंट्रोल में रहेगा। आजकल जैसा सारे न्यूज चैनलों में माहौल है थोड़ा चिल्लाइये, डोज दीजिये फिर जानिये आपकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलेगा। सब डर कर काम करेंगे। खौफ का माहौल होगा, आपकी सब जी हुजूरी करेंगे बस खलीफा बन जाएंगे फिर क्या आप ही आप हैं।
शायद हम हिन्दुस्तानियों को डंडे के बिना काम करने की आदत ही नहीं है। तभी दिमागी शोरगुल में भी हमारी जिंदगी कटती है। नेचुरल इंस्टिंक्ट, टेलेंट क्या होता है। फ्लेयर इसलिये नहीं है क्योंकि सभी नौकरी या खानापूर्ति करने आए हैं। किसको दोष दें आप। अगर सब कुछ ठीक होता तो जो हाल हिन्दी न्यूज़ चैनलों का दिवालियापन है क्या दिवालियापान..अरे... भाई अगर ख़बर नहीं होगी तो हम क्या दिखायेंगे।
राखी सावंत का हैप्पी बर्थडे ही तो दिखायेंगे भले ही वो ऐश्वर्या, माधुरी या तब्बू, कैटरीना, दीपिका नहीं। अगर वो मीडिया को यूज, सॉरी..समय देना चाहें तो क्या बुराई है। ड्रामा हर रोज मिलता नहीं है। देश में हार्ड न्यूज़ देखता कौन है। हांलाकि चुनाव चल रहे हैं मगर फिर भी रेटिंग का सवाल है।
वो तो भला हो मुंबई ब्लास्ट का कि कुछ जर्नलिज्म करने को मिला। हम सब ने वो ही किया जो कभी भी किसी ने नहीं किया था। जाहिर तौर पर खबर ही ऐसी थी। मगर कहीं न कहीं हर पैमाने पर होड़ लगी हुई थी। आखिर बुराई क्या है इसमें। .......थैंक्स मुंबई ब्लास्ट....180 फीसदी का इजाफा हुआ व्यूअरशिप में। मगर अब तो ये खबर भी ख़त्म हो रही है। पब्लिक मेमोरी इज शॉर्ट ..अब फिर से नया कुछ खोजना पड़ेगा।
चुनाव है न मगर क्या जो जनता का गुस्सा है नेताओं के प्रति इससे चैनल संख्या या पोलिंग करने वालो की संख्या में इजाफा होगा। इस रिसेसन के दौर में भी हमारी निकल पड़ी..सही है बिड़ू। बाकवास बंद कर और नौकरी कर।
छोड़िए, नौकरी कीजिए..नौकरी...नहीं सर नहीं आपको सचिन बनना ही होगा... सचिन बनिए...सचिन बनिए...सचिन।