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Tuesday, July 30, 2013

पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है

हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार उदय प्रकाश प्रसिद्ध कथाकार हैं । उनकी कहानियों का मैं प्रशंसक हूं । उनकी कविताओं को भी पाठकों का एक बड़ा वर्ग पसंद करता है । उदय प्रकाश ने जब भी कोई भी कहानी लिखी उसको साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिखा । लेकिन शोहरत के साथ साथ उदय प्रकाश का विवादों से भी गहरा नाता रहा है । जब उन्होंने गोरखपुर में गोरक्षपीठ के कर्ताधर्ता और बीजेपी सांसद योगी आदित्यनाथ के हाथो पहला 'नरेन्द्र स्मृति सम्मान' लिया था तो उस वक्त अच्छा खासा बवाल मचा था । पूरे साहित्य जगत में उदय की जमकर आलोचना हुई थी । दरअसल उदय प्रकाश सार्वजनिक जीवन में कई दशकों से वामपंथी आदर्शों की दुहाई देते रहे हैं । लेकिन इस सम्मान ग्रहण के बाद उनके चेहरे का लाल रंग धुधंला होकर भगवा हो गया प्रतीत होता है । दरअसल उदय को नजदीक से जानने वालों का दावा है कि उदय प्रकाश हमेशा से अवसरवादी रहे हैं और जब भी, जहां भी मौका मिला है उन्होंने इसे साबित भी किया है । परिस्थितियों के अनुसार उदय प्रकाश अपनी प्राथमिकताएं और प्रतिबद्धताएं तय करते हैं और एक रणनीति के तहत उसपर अमल भी करते हुए उसका लाभ उठाते हैं ।
अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही है तो उदय प्रकाश ने अपने कविता संग्रह- सुनो कारीगर- को लगभग दर्जनभर साहित्यकारों को समर्पित किया था, जिसमें नामवर भी थे और काशीनाथ सिंह भी और नंदकिशोर नवल भी थे और भारत भारद्वाज भी । जाहिर तौर पर ये एक साथ दर्जनभर से ज्यादा साहित्यकारों/आलोचकों को साधने की कोशिश थी ।अपनी रचनाओं को लेकर आलोचकों का ध्यान खीचने की कोशिश भी थी ।  बाद में जब शिवनारायण सिंह संस्कृति मंत्रालय में उच्च पद पर थे तो उनको भी अपना एक कविता संग्रह समर्पित कर दिया था । यह अजीब संयोग था कि उसी वक्त के आसपास उदय प्रकाश को भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की फैलोशिप मिल गई । इस बात में कितनी सच्चाई है कि शिवनारायण सिंह ने उदय प्रकाश को फेलोशिप दिलाने में मदद की इसका तो पता नहीं लेकिन उस वक्त दिल्ली के साहित्य जगत के जानकारों दोनों घटनाओं को जोड़ा भी था । 
उदय प्रकाश भारत भवन की पत्रिका पूर्वग्रह से भी जुडे़ रहे हैं, यह उस वक्त की बात थी जब मध्य प्रदेश में साहित्य और संस्कृति की दुनिया में अशोक वाजपेयी का डंका बजा करता था और वो ही साहित्य और संस्कृति के कर्ताधर्ता हुआ करते थे । लेकिन जब किसी वजह से उदय प्रकाश को पूर्वग्रह से बाहर होना पड़ा था तो खबरों के मुताबिक उदय जी ने अशोक वाजपेयी और उनकी मित्रमंडली को 'भारत भवन के अल्सेशियंस' तक कह डाला था । जाहिर है उसके बाद से अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश साहित्य के दो अलग-अलग छोर पर रहे । लेकिन वर्षों बाद उदय प्रकाश को अशोक वाजपेयी में फिर से संभावना नजर आई और उन्होंने अशोक वाजपेयी जी के जन्मदिन पर उदय ने जिस अंदाज में वाजपेयी को शुभाकमनाएं अर्पित की उसके बाद दोनों के बीच जमी  बर्फ पिघली । रिश्तों में आई गर्माहट के बाद साहित्यिक हलके में इस बात की जोरदार चर्चा हुई थी कि अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश के बीच लंबी मुलाकात हुई। यहां भी एक संयोग घटित हुआ । उस मुलाकात के बाद  उदय प्रकाश को लखटकिया वैद सम्मान मिला । बार-बार उदय प्रकाश के साथ जो संयोग घटित होता है उससे लेखकों को ईर्ष्या होती है लेकिन यही हैं उदय प्रकाश  की प्राथमिकताएं और प्रतिबद्धता जिसकी वजह से इस तरह के संयोग घटित होते रहे हैं  ।
बीजेपी सांसद योगी आदित्यनाथ के हाथों सम्मान ग्रहण करने के बाद जब उदय पर चौतरफा हमले शुरू हुए तो अपने बचाव में उन्होंने बेहद लचर तर्कों का सहारा लिया । उदय प्रकाश ने कहा कि- एक नियोजित तरीके से मुझ पर आक्रमण करके बदनाम करने की घृणित जातिवादी राजनीति की जा रही है.....दरअसल इस हिंदू जातिवादी समाज में विचारधाराओं से लेकर राजनीति और साहित्य का जैसा छद्म और चतुर खेल खेला गया है, उसके हम सब शिकार हैं । मेरे परिवार में यह सच है कि कि कोई भी एक सदस्य ऐसा नहीं है ( इनमें मेरी पत्नी, बच्ची, बहू और पोता तक शामिल हैं और मेरे मित्र तथा पाठक भी ) जो किसी एक धर्म, क्षेत्र, जाति, नस्ल आदि से जुडे़ हों । लेकिन हिंदी साहित्य और ब्लॉगिंग में सक्रिय सवर्ण हिंदू उसी कट्टर वर्णाश्रम -व्यवस्थावदी माइंडसेट से प्रभावित पूर्व आधुनिक सामंती, अनपढ़ और घटिया लोग हैं -जिनके भीतर जैन, बौद्ध, नाथ, सिद्ध, ईसाइयत, दलित, इस्लाम आदि तमाम आस्थाओं और आइडेंटिटीज़ के प्रति घृणा और द्वेष है इसे वे भरसक ऊपर-ऊपर छिपाए रखने की चतुराई करते रहते हैं । मैंने जीवनभर इनका दंश और जहर झेला है और अभी भी झेल रहा हूं ।' अपनी लंबी सफाई के आखिर में धमकाने के अंदाज में सवर्ण लुटेरों के साम्राज्य को ध्वस्त करने का दावा भी करते हैं । उदय पर पहले भी जब-जब उनकी व्यक्तिवादी कहानियों को लेकर उंगली उठी थी तो किसी को मथुरा का पंडा, तो किसी को घनघोर अनपढ़ घोषित किया तो किसी को अफसर होकर साहित्य की दुनिया में अनाधिकार प्रवेश के लिए लताड़ा ।
इसके पहले जब वर्तमान साहित्य के मई दो हजार एक के अंक में उपेन्द्र कुमार की कहानी 'झूठ का मूठ' छपी थी तो अच्छा खास विवाद खड़ा हो गया था । साहित्य जगत में यह चर्चा जोर पकड़ी थी कि उक्त कहानी के केंद्र में उदय प्रकाश हैं । अब इस बात की तस्दीक तो कहानीकार उपेन्द्र कुमार ही कर सकते हैं कि उनकी कहानी झूठ का मूठ का लेखक कौन था । लेकिन जब उस कहानी पर साहित्य में विवाद हुआ था तो  उस वक्त भी सफाई देते हुए उदय प्रकाश ने कहा था कि- दरअसल ऐसा है कि दिल्ली में गृह मंत्रालय के भ्रष्ट अधिकारियों का एक क्लब है जो नाइट पार्टी का आयोजन करता है । इसमें शराब पी जाती है और अश्लील चर्चा होती है । जो इसमें शामिल नहीं होता है, ये लोग उसपर हमला करते हैं । ये साहित्येतर लोग हैं जो अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोध तो करते हैं मगर गली-मोहल्ले के मवालियों के साथ बैठकर शराब पीते हैं ।' उनका इशारा किन लोगों की ओर था उसे भी अगर खुलकर कहते तो गृह मंत्रालय के भ्रष्ट अधिकारियों से साहित्य जगत का परिचय होता। दरअसल उदय प्रकाश की दिक्कत यही है कि जब भी उनकी आलोचना होती है तो वो अपना आपा खो देते है और साहित्यक मर्यादा भूलकर अपने विरोधियों पर बिलो द बेल्ट हमला करते हैं । रविभूषण ने जब इनकी कहानियों पर विदेशी लेखकों की छाया की बात की थी तो मामला कानूनी दांव-पेंच में भी उलझा था ।
बीजेपी सांसद के हाथों सम्मानित होने के बाद साहित्य में उदय प्रकाश की जमकर आलोचना हुई थी ।  उदय की सफाई के बाद हिंदी के दो दर्जन से ज्यादा महत्वपूर्ण साहित्यकारों ने अपने हस्ताक्षर से एक बयान जारी कर उदय की भर्त्सना की । बयान जारी करनेवालों में प्रमुख नाम थे - ज्ञानरंजन, विद्यासागर नौटियाल, विष्णु खरे, भगवत रावत, मैनेजर पांडे, राजेन्द्र कुमार, इब्बार रब्बी, मदन कश्यप, देवीप्रसाद मिश्र आदि । चौतरफा घिरता देख उदय प्रकाश ने एक बार फिर से अपने ब्लॉग पर एक सफाई लिखी लेकिन ये सफाई कम धमकी ज्यादा है । इसके बाद उदय प्रकाश की ओर से कई व्लॉग चलानेवाले लोगों ने मोर्चा संभला और उदय प्रकाश की दलीलों को आगे बढा़या । उदय के समर्थन में जो तर्क दिए गए वो भी बेहद लचर थे जो साहित्य जगत के गले नहीं उतरा ।
उदय प्रकाश एक बेहतरीन कवि  माने जाते हैं, कई पाठकों का दावा है कि वो कहानियां अच्छी लिखते हैं, लेकिन उनकी कहानियां व्यक्तियों पर केंद्रित होकर लोगों को दुखी करती रही हैं । जब उपेन्द्र कुमार की कहानी 'झूठ का मूठ' छपी थी तो उसपर पटना से प्रकाशित 'प्रभात खबर' में एक लंबी परिचर्चा छपी थी । जिसमें सुधीश पचौरी ने लिखा था- अरसे से हिंदी कथा लेखन में एक न्यूरोटिक लेखक कई लेखकों को अपने मनोविक्षिप्त उपहास का पात्र बनाता आ रहा था । पहले उसने एक महत्वपूर्ण कवि की जीवनगत असफलताओं को अपनी एक कहानी में सार्वजनिक मजाक का विषय बनाया । फिर वामपंथी गीतकार की असफल प्रेमकथा का सैडिस्टिक उपहास उड़ाने के लिए कहानी लिखी । किसी ने रोका नहीं तो, तो जोश में कई हिंदी अद्यापकों और आलोचकों के निजी जीवन पर कीचड़ उचालनेवाली शैली में कविताएं भी लिख डाली ।  किसी दीक्षित मनोविक्षिप्त की तरह उसने ये समझा कि उसे सबको शिकार करने का लाइसेंस हासिल हो गया है । उसके शिकारों में से उक्त गीतकार तो आत्महत्या तक कर बैठा ।  हिंदी के कई पाठक उसकी आत्महत्या के पीछे का कारण इस साडिज्म को भी मानते हैं । यह लेखक दरअसल स्वयं एक 'माचोसाडिस्ट' है जो दूसरों को अपने 'मर्दवादी परपीड़क विक्षेप' में जलील करता और सताता आया है । यह पहली कहानी है जिसने एक दुष्ट शिकारी का सरेआम शिकार किया है । शठ को शठता से ही सबक दिया है ।' उदय प्रकाश की राजनीति और जोड़-तोड़ और दंद-फंद को समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है ।

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए अगर बात साहित्य अकादमी पुरस्कार की करें तो जिस वर्ष उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी पुरस्कार यशस्वी कथाकार और कवि उदय प्रकाश को उनके उपन्यास मोहनदास (वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली) के लिए दिया गया । तब भी मैंने यह लिखा था कि उदय प्रकाश साहित्य अकादमी पुरस्कार डिजर्व करते हैं बल्कि उन्हें तो अरुण कमल, राजेश जोशी और ज्ञानेन्द्रपति के पहले ही यह सम्मान मिल जाना चाहिए था । लेकिन जिस तरह से पुरस्कार देने के लिए पुरस्कार के चयन समिति की बैठक में जो बातें हुई, जो सौदेबाजी हुई उसने पुरस्कार को संदिग्ध बना दिया था । उस बार के पुरस्कार के चयन के लिए जो आधार सूची बनी थी उसमें रामदरश मिश्र, विष्णु नागर, नासिरा शर्मा, नीरजा माधव, शंभु बादल, मन्नू भंडारी और बलदेव वंशी के नाम थे । हिंदी के संयोजक विश्वनाथ तिवारी की इच्छा और घेरेबंदी रामदरश मिश्र को अकादमी पुरस्कार दिलवाने की थी । इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अशोक वाजपेयी, मैनेजर पांडे और चित्रा मुद्गल का नाम जूरी के सदस्य के रूप में प्रस्तावित किया और अध्यक्ष से स्वीकृति दिलवाई । लेकिन पता नहीं तिवारी जी की रणनीति क्यों फेल हो गई- जब पुरस्कार तय करने के लिए जूरी के सदस्य बैठे तो रामदरश मिश्र के नाम पर चर्चा तक नहीं हुई । बैठक शुरू होने पर अशोक वाजपेयी ने सबसे पहले रमेशचंद्र शाह का नाम प्रस्तावित किया । लेकिन उसपर मैनेजर पांडे और चित्रा मुदगल दोनों ने आपत्ति की । कुछ देर तक बहस चलती रही जब अशोक वाजपेयी को लगा कि रमेशचंद्र शाह के नाम पर सम्मति नहीं बनेगी तो उन्होंने नया दांव चला और उदय प्रकाश का नाम प्रस्तावित कर दिया । जाहिर सी बात है कि मैनेजर पांडे को फिर आपत्ति होनी थी क्योंकि वो उदय प्रकाश की कहानी पीली छतरी वाली लड़की को भुला नहीं पाए थे । उन्होंने उदय के नाम का पुरजोर तरीके से विरोध किया । पांडे जी के मुखर विरोध को देखते हुए उनसे उनकी राय पूछी गई । मैनेजर पांडे ने मैत्रेयी पुष्पा का नाम लिया और उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की वकालत करने लगे । मैनेजर पांडे के इस प्रस्ताव पर अशोक वाजपेयी खामोश रहे और उन्होंने चित्रा मुदग्ल से उनकी राय पूछी । बजाए किसी लेखक पर अपनी राय देने के चित्रा जी ने फटाक से अशोक वाजपेयी की हां में हां मिलाते हुए उदय प्रकाश के नाम पर अपनी सहमति दे दी । इस तरह से अशोक वाजपेयी की पहली पसंद ना होने के बावजूद उदय प्रकाश को एक के मुकाबले दो मतों से साहित्य अकादमी पुरस्कार देना तय किया गया । यहां यह भी बताते चलें कि उदय प्रकाश और रमेशचंद्र शाह दोनों के ही नाम हिंदी की आधार सूची में नहीं थे । लेकिन यहां कुछ गलत नहीं हुआ क्योंकि जूरी के सदस्यों को यह विशेषाधिकार प्राप्त है कि वो जिस वर्ष पुरस्कार दिए जा रहे हों उसके पहले के एक वर्ष को छोड़कर पिछले तीन वर्षों में प्रकाशित कृति प्रस्तावित कर सकते हैं । उस वर्ष दो हजार छह, सात और आठ में प्रकाशित कृति में से चुनाव होना था । साहित्य अकादमी का यह प्रसंग सिर्फ इस वजह से बता रहा हूं ताकि पुरस्कारों में होनेवाले समझौते और सौदोबाजी को समझा जा सके । उदय जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार बाइ डिफाल्ट मिला जबकि उनकी सारी कृतियां अकादमी पुरस्कारों के लायक है । लेकिन उदय जी हिंदी साहित्य को लेकर अपना एक फ्रस्टेशन है । उनको जितना मिलना चाहिए था उतना साहित्य से मिला नहीं । उनकी प्रतिभा का साहित्य में सही इस्तेमाल नहीं हो पाया । हो सकता है इन्ही वजहों ने मनोवैज्ञानिक रूप से उदय प्रकाश को कमजोर कर दिया हो और वो अपने ध्येय को प्राप्त करने के चक्कर में रास्ते से बार बार फिसलते रहे हों । लेकिन उदय प्रकाश की उन्हीं फिसलनों और विचलनों को देखकर मुक्तिबोध की आत्मा कराहती हुई पूछ रही होगी - पार्टनर ! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ? 

Monday, July 29, 2013

जाति के जंजाल में मोदी

किसी भी समाज के लोगों का दिल जीतने और उन पर राज करने के लिए उस क्षेत्र विशेष की सामाजिक संरचना को जानना और समझना बेहद आवश्यक है । हमारे देश की सामजिक संरचना का आकलन और उसके हिसाब से उस संरचना को अपने अनुकूल करने के लिए शासक वर्ग हमेशा से रणनीति बनाता रहा है । सिर्फ शासक वर्ग ही नहीं बल्कि बल्कि राजा बनने की ख्वाहिश रखनेवाले भी सामाजिक संरचना को अपने अनुकूल बनाने के लिए प्रयत्नशील रहता है और उसी हिसाब से अपनी चालें चलता है । इतिहास इस बात का गवाह है कि किस तरह से अंग्रेजों ने भारत की सामाजिक संरचना का बेहतरीन आकलन और इस्तेमाल कर अपनी सत्ता लंबे समय तक कायम रखी । समाजिक संरचना में जितनी तरह की विषमताएं या जटिलताएं होती हैं वो शासक लर्ग को अनुकूल स्थितियां प्रदान करती है । यह बात औपनिवेशिक काल से लेकर उत्तर औपनिवेशिक काल तक में कई बार साबित होती रही है । बिहार की राजनीति में जाति लंबे समय से अहम स्थान रखती है । देश के तकरीबन हर प्रांत में चुनाव के वक्त उम्मीदवारों के चयन में जाति को ध्यान में रखा जाता है लेकिन बिहार में कई सीटों की उम्मीदवारी तो सिर्फ और सिर्फ जाति के आधार पर किया जाता है । जातिगत आधार पर चुने गए ज्यादातर उम्मीदवार चुनाव जीतकर संसद और विधानसभा में पहुंचते भी रहे हैं । बिहार में जातिगत आधार पर चुनाव की जड़े बेहद गहरी हैं । नबंवर 1926 के काउंसिल चुनावों को अगर हम जातिगत वोटिंग पैटर्न का आधार मानें तो हम देखते हैं कि यह पैटर्न साल दर साल और ज्यादा मजबूत होता चला गया । 1927 में बोर्ड चुनाव के बाद तिरहुत के उस वक्त के कमिश्नर मिडलटन ने अपनी रिपोर्ट में इस बात के पर्याप्त संकेत दिए थे कि उम्मीदवारों के चयन का आधार सिद्धांत या सामाजिक क्रियाकलाप नहीं है बल्कि उनकी जाति है और कांग्रेस को भी यह मालूम है । यह कहना सही नहीं होगा कि बिहार में छियासी साल बाद भी हालात बदले नहीं हैं लेकिन इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि चुनाव में अब भी जाति एक मुख्य फैक्टर है । अन्य पिछड़ा वर्ग को मंडल कमीशन के तहत आरक्षण देने के फैसले के बाद से सूबे में एक बार फिर से जातीय ध्रुवीकरण हुआ । उसी ध्रुवीकरण और पिछड़ों की अस्मिता के नाम पर लालू यादव ने डेढ दशक तक बिहार पर राज किया । लेकिन लालू राज से त्रस्त लोगों ने बाद के चुनावों में विकास की राह को अपनाने की ठानी और नीतीश को सूबे की कमान मिली । नीतीश कुमार को भी यह मालूम था कि बगैर जातिगत वोट बैंक के लिए लंबे समय तक शासक बने रहना मुमकिन नहीं है । तो उन्होंने भी विकास के रास्ते पर चलते हुए अगड़ी जातियों और अति पिछड़ा, महादलित और पसमांदा मुसलमान के गठजोड़ की जमीन तैयार करने की लगातार कोशिश की । मेरा मकसद बिहार चुनाव में जातियों का इतिहास बताना नहीं बल्कि 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी को लेकर बिहार में भारतीय जनता पार्टी की विशेष रणनीति पर बात करना है ।
यह अकारण नहीं है कि जब देशभर में बीजेपी के नए नायक नरेन्द्र मोदी को हिंदुत्व के सबसे ताकतवर प्रतीक के तौर पर प्रोजेक्ट किया जा रहा है ठीक उसी वक्त बिहार में मोदी को पिछड़ा कह कर प्रचारित किया जा रहा है । 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए बिहार में जिस रणनीति पर भारतीय जनता पार्टी काम कर रही है उसमें मोदी की जाति को प्रचारित किया जाना बेहद अहम है । सूबे में भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रचार मशीनरी का भरपूर फायदा उठाने का भी फैसला लिया है । इस मशीनरी के तहत सूबे के सुदूर इलाकों में यह बात फैलाई जा रही है कि नरेन्द्र मोदी तेली जाति से आते हैं जो पिछड़ी जाति में शुमार होता है । रणनीति यह भी है कि बिहार में नरेन्द्र मोदी को पिछड़ों के नेता के तौर पर पेश किया जाए और पिछड़ी जाति के बीच यह संदेश दिया जाए कि जब एक पिछड़े के प्रधानमंत्री बनने का वक्त आया तो एक पिछड़े वर्ग के ही नेता नीतीश कुमार ने उन्हें धोखा दिया । इस रणनीति के पीछे पिछड़े वोट बैंक में सेंध लगाने की योजना है । नरेन्द्र मोदी को पिछड़े वर्ग का नेता प्रचारित करनेवाली भारतीय भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकारों के सामने सबसे बड़ी दिक्कत नीतीश और लालू यादव के बीच चुनाव करने की है । लालू और नीतीश दोनों का वोट बैंक पिछड़ी जाति के वोटर हैं । बिहार के जातीय समीकरण में अन्य पिछड़ी जातियां यानि ओबीसी और अति पिछड़ी जातियां यानि एमबीसी की अहम भूमिका है । सूबे में तकरीबन तैंतीस फीसदी ओबीसी हैं तो एमबीसी भी तकरीबन बाइस फीसदी हैं । इसमें अगर पिछड़ी जातियों के ग्यारह फीसदी कोयरी और कुर्मी को जोड़ दिया जाए तो एक तैंतीस फीसदी का मजबूत गठजोड़ बनता है । नीतीश कुमार इसको ही अपनी ताकत बनाना चाहते हैं । उन्हें मालूम है कि तकरीबन साढे चौदह फीसदी यादव उनके साथ नहीं आएंगे । उधर भारतीय जनता पार्टी भी पिछड़ों को यह कहकर अपने पाले में लाने की जुगत में है कि मोदी पिछड़ा वर्ग के नेता हैं । बिहार के वर्तमान विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी के इक्यानवे विधयकों में से इकतालीस विधायक अति पिछड़े और महादलित हैं । उन्हें विधयाकों की इस संख्या पर संतोष भी है लेकिन इस बात की चिंता भी सता रही है कि उनके अति पिछड़े और महादलित विधायक तो नीतीश के साथ रहकर चुनाव जीते थे । उनको अपने पाले में बचाए रखने की गंभीर चुनौती भारतीय जनता पार्टी के सामने है । भारतीय जनता पार्टी यह मान चल रही है कारोबारी वर्ग से उनको समर्थन मिलता रहा है । बिहार में सात फीसदी बनिया हैं जिनके वोट भारतीय जनता पार्टी को पारंपरिक रूप से मिलते रहे हैं । जातिगत आंकड़ों के इस उलझे हुए इस राजनीतिक गणित में तकरीबन पौने पांच फीसदी भूमिहार और पौने छह फीसदी ब्राह्मण अहम हो गए हैं । आज हर कोई ब्रह्मर्षि समाज की बात कर रहा है । भूरा बाल साफ करने का नारा बुलंद करनेवाले लालू यादव भी अब भूमिहारों को पटाने में लगे हैं । उधर नीतीश कुमार को लगता है कि लालू विरोध की वजह से स्वाभानिक रूप से भूमिहार उनके साथ हैं ।  उन्होंने प्रतीकात्मक तौर पर सूबे के डीजीपी और चीफ सेक्रेटरी भूमिहार को बनाया हुआ है । उधर भारतीय जनता पार्टी भी इस बात को लेकर काफी उत्साहित है कि भूमिहार उनके साथ हैं । राजनीतिक दलों को यह लगता है कि भूमिहारों की संख्या भले ही कम हो लेकिन वो कई सीटों के नतीजों को प्रभावित करते हैं । ब्राह्मण पारंपरिक तौर पर कांग्रेस के साथ रहे हैं लेकिन सूबे में कांग्रेस का ही कोई अस्तित्व नहीं बचा तो फिर उनके पास दूसरी पार्टी का रुख करने के अलावा कोई विकल्प है नहीं । ब्राह्मणों के वोटों का वंटवारा होगा ।
इन तमाम गुणा भाग के बीच मोदी की हिंदू हृदय सम्राट और विकास पुरुष की छवि को बिहार में पेश तो किया जाएगा साथ ही बोधगया में सीरियल धमाकों के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा का तड़का भी लगाया जाएगा । उधर जेडीयू मोदी के उग्र हिदुवादी छवि को प्रचारित कर मुसलमानों के वोट खींचने की कोशिश करेगी । मुसलमानों का वोट नीतीश को उस स्थिति में मिलने की उम्मीद है जब वो कांग्रेस के साथ जाने का फैसला करेगी । क्योंकि अगर ध्रुवीकरण होता है तो मुसलमान वोटर उसकी तरफ ही जाएगा जो मोदी को रोक पाएगा । लेकिन विराट हिंदू समाज की बात करनेवाली पार्टी का तेली और पिछड़े के नाम पर वोट मांगने की रणनीति बनाना उनके असली चाल चरित्र और चेहरे को भी उजागर करता है ।

Saturday, July 27, 2013

छद्मनामी लेखन का तिलिस्म

अंग्रेजी साहित्य में इन दिनों एक दिलचस्प वाकए पर जमकर चर्चा हो रही है, चुटकी ली जा रही है, क्षोभ प्रकट किया जा रहा है, आश्चर्य जताया जा रहा है । वाकया जुड़ा है एक खुलासे से । खुलासा भी जुड़ा है अंग्रेजी की बेहद लोकप्रिय लेखिकाओं में से एक से । उसका नाम है जे के रॉलिंग । जे के रॉलिंग ब्रिटिश उपन्यासकार हैं और उनके हैरी पॉटर सीरीज ने दुनिया भर में धूम मचाई हुई है । हैरी पॉटर सीरीज के नए उपन्यास के उपन्यास का पाठक बेसब्री से इंतजार करते हैं और उसकी महीनों पहले से एडवांस बुकिंग भी होती है । एक अनुमान के मुताबिक अबतक दुनियाभर में हैरी पॉटर सीरीज की चालीस करोड़ किताबें बिक चुकी हैं । इस सीरीज को विश्व साहित्य के इतिहास में अबतक का बेस्ट सेलर माना जाता है । 1997 में इस सीरीज का पहला उपन्यास आया था हैरी पॉटर एंड द फिलॉसफर्स स्टोन । सोलह साल से रॉलिंग साहित्य की दुनिया में अपना राज कायम रखे हुए है । लेकिन इन दिनों रॉलिंग गुस्से में है । हुआ यह था कि जे के रॉलिंग ने रॉबर्ट गॉलब्रेथ के नाम से एक क्राइम थ्रिलर द कुक्कूज कॉलिंग लिखा । इस उपन्यास ने छपते ही धूम मचा दिया और प्रकाशन के पहले ही दिन लंदन के एक दुकान से इस उपन्यास की पंद्रह सौ हॉर्ड बाउंड प्रतियां बिक गई । माना यह गया कि इस क्राइम थ्रिलर का लेखक सेना या फिर नागरिक सुरक्षा से जुड़ा कोई ऐसा शख्स है जो अपनी पहचान उजागर नहीं करना चाहता है । आलोचकों ने इस क्राइम थ्रिलर को हाथों हाथ लिया और लेखक के तौर पर रॉबर्ट गॉलब्रेथ की खूब सराहना की गई । कहा तो यहां तक गया कि रॉबर्ट गॉलब्रेथ ने थ्रिलर लेखन की दुनिया में एक नई शैली की शुरुआत की है । लेकिन यह सब चल ही रहा था कि एक दिन एक अखाबर ने खुलासा कर दिया कि रॉबर्ट गॉलब्रेथ दरअसल कोई और नहीं बल्कि जे के रॉलिंग हैं । उसके बाद तो साहित्य की दुनिया में भूचाल आ गया । छद्म नाम से लेखन को लेकर कई लेख छपने लगे । कुछ लोगों ने जे के रॉलिंग पर छद्म नाम से लेखन कर पैसे कमाने का आरोप भी जड़ा ।  आलोचना बढ़ता ख जे के रॉलिंग ने स्वीकार किया कि उन्होंने ही रॉबर्ट गॉलब्रेथ के नाम से यह उपन्यास लिखा था । रॉलिंग ने यह भी स्वीकार किया कि बगैर किसी अपेक्षा और शोर शराबे के बीच उपन्यास लिखना और फिर उसकी तारीफ सुनना एक अलग तरह का अनुभव था । अबतक होता यह रहा है कि जे के रॉलिंग के नए उपन्यास का आना अंग्रेजी साहित्य की दुनिया में खबर होती थी । रॉलिंग का कहना है कि इससे उनपर एक खास तरह का दबाव होता था जो छद्म नाम से लिखने पर नहीं था । रॉलिंग स्वीकार करती हैं कि जब उपन्यास को पाठकों के साथ-साथ आलोचकों ने स्वीकार किया तो उन्हें एक विशेष प्रकार की अनुभूति हुई थी और वो इसका आनंद उठा रही थी लेकिन तभी उसका खुलासा हो गया ।
जे के रॉलिंग का नाम खुलने के पीछे भी एक बेहद दिलचस्प कहानी है । जे के रॉलिंग जिस लीहल फर्म की क्लाइंट हैं उस फर्म के एक वकील ने यूं ही बातों बातों में अपनी पत्नी की दोस्त बता दिया कि क्राइम थ्रिलर द कुक्कूज कॉलिंग के लेखक रॉबर्ट गॉलब्रेथ असल में एक छद्म नाम है । उत्साह में वो यह भी कह गए कि रॉबर्ट गॉलब्रेथ के नाम से जे के रॉलिंग ने यह उपन्यास लिखा है । बात आई गई हो गई लेकिन उस मुलाकात के बाद वकील साहब की पत्नी की दोस्त वे ट्वीट कर दिया कि चर्चित उपन्यास द कुक्कूज कॉलिंग की असली लेखिका जे के रॉलिंग हैं । उस ट्वीट से क्लू लेते हुए एक अखबार ने यह खबर छाप दी । बाद में कानूनी फर्म ने यह स्वीकार किया कि उसके पार्टनर से यह गलती हुई है और उसके लिए उन्होंने जे के रॉलिंग से माफी भी मांग ली है । लेकिन रॉलिंग ने माना कि वो ठगी हुई महसूस कर रही हैं । उन्होंने इस बात पर भी आश्चर्य जताया कि एक ऐसी महिला ने उसके सबसे बड़े राज का फाश कर दिया जिसको वो जानती तक नहीं, मिलना तो दूर की बात है । एक ऐसे राज को खोल दिया जो उनके निकटतम मित्रों को भी नहीं पता था । खैर अंग्रेजी साहित्य की दुनिया में यह दिलचस्प प्रसंग चल रहा है । ऐसा नहीं है कि साहित्य की दुनिया में यह इकलौता वाकया हो । पहले भी हर भाषा में लेखक छद्म नाम से लेखन करते रहे हैं । छद्म नाम से लेखन के पीछे भी वही मानसिकता काम करती है जो कि फिल्मों में हीरो के एक ही तरीके के रोल निभाने को विवश कर देती है और वो टाइप्ड हो जाते हैं । लेखन की दुनिया में भी ऐसा ही होता है । प्रकाशक क्राइम फिक्शन लिखने वाले लेखक से रोमांटिक लेखन या फिर फैंटेसी लेखक से क्राइम फिक्शन की अपेक्षा नहीं करते हैं । अगर कोई लेखक इस तरह का जोखिम मोल लेना चाहते हैं तो प्रकाशक उसे हतोत्साहित करते हैं और यहीं से छद्म नाम से लिखने की शुरुआत होती है । अंग्रेजी में तो चार्ल्स डिकेंस से लेकर स्टेनली मार्टिन तक ने छद्म नाम से लेखन किया है । स्टेनली मार्टिन ने तो स्टेन ली के नाम से लंबे समय तक कॉमिक्स लिखा और स्पाइडरमैन जैसे चरित्र की रचना की ।

हिंदी साहित्य में भी छद्म नाम से लेखन की बेहद लंबी परंपरा रही है । अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जबकि हिंदी में कहानी लेखिका स्नोबा बार्नो की पहचान को लेकर खासा विवाद हुआ था । कई खोजी तो स्नोबा की तलाश में कुल्लू और मनाली की वादियों तक जा पहुंचे थे । स्नोबा बार्नो के नाम से जब पहली कहानी हंस में छपी तो उसने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा था । कहानी लोगों को पसंद आई तो कहानीकार पर चर्चा शुरु हुई । कहानीकार के बारे में पता लगाने की कोशिशें शुरू हुईं लेकिन हिंदी जगत में स्नोबा एक मिस्ट्री बनी रहीं । स्नोबा की कहानियों से ज्यादा उसके होने या ना होने पर चर्चा शुरू हो गई । कई लोगों ने कहा कि सैन्नी अशेष स्नोबा के नाम से लिखते हैं लेकिन वह भी सिर्फ कायसबाजी ही साबित हुई । अब भी स्नोबा की कहानियां छप रही हैं लेकिन स्नोबा को किसी ने देखा नहीं है लिहाजा उसके बारे में तरह-तरह की कयासबाजी समय समय पर होती रहती है । 1957 में जब विष्णुचंद्र शर्मा ने -कवि -पत्रिका निकाली थी तो उसमें नामवर जी कविमित्र के छद्म नाम से एक विशेष कालखंड में लिखी गई कविताओं पर टिप्पणी करते थे । उस स्तंभ की काफी चर्चा होती थी । बहुत बाद में जाकर भेद खुला कि कविमित्र असल में नामवर सिंह हैं । मुझे लगता है कि छद्म नाम से लेखन के पीछे एक मानसिकता यह भी होती है कि अपने समकालीनों पर तल्ख टिप्पणी की जा सके और उनके गुस्से से बचा भी जा सके । हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका कल्पना में सच्चिदानंद हीरानंद वात्साययन अज्ञेय भी कुट्टीचातन के नाम से लेखन किया करते थे । आलोचना की पत्रिका कसौटी के अंकों में विवेक सिंह के नाम से उसके संपादक नंदकिशोर नवल आलोचनात्मक टिप्पणियां लिखा करते थे । बाद में उन्होंने खुद ही स्वीकार किया था कि विवेक सिंह के नाम से वही लिखा करते थे । इसके अलावा साहित्य की गतिविधियों पर भारत भारद्वाज भी ब्रह्मराक्षस के नाम से -दुनिया इन दिनों-नाम की पत्रिका में लोगों की खबर लिया करते थे । हिंदी के आलोचक और प्रतिष्ठित लेखक सुधीश पचौरी अब भी अजदक के छद्म नाम से मीडिया पर टिप्पणी करते हैं । हलांकि सालों पहले उनका नाम खुल चुका है लेकिन स्तंभ अजदक के नाम से ही जारी है । इतनी लंबी सूची गिनाने का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ यह है कि साहित्य में कई बार अपनी छवि के विपरीत लेखन के लिए तो कई बार साथी लेखकों के कोप से बचने के लिए तो कई बार लेखन की वस्तुनिष्ठता को बचाए रखने के लिए छद्मनाम से लेखन का सहारा लिया जाता है । साहित्य की परंपरा को ही जे के रॉलिंग ने आगे बढ़ाने की कोशिश की थी और उनकी योजना रॉबर्ट गॉलब्रेथ के नाम से और कई उपन्यास लिखने की थी जो अब शायद ही परवान चढ़ सके । हलांकि इस खुलासे के बाद द कुक्कूज कॉलिंग की बिक्री और बढ़ गई है क्योंकि उसेक साथ जे के रॉलिंग का नाम जुड़ गया है । अब देखना दिलचस्प होगा कि फैंटेसी लेखिका रॉलिंग को पाठक ज्यादा पसंद करते हैं क्राइम थ्रिलर लेखिका को पाठकों का प्यार मिलता है । क्योंकि क्राइम थ्रिलर में रॉलिंग का मुकाबला जेम्स पैटरसन जैसे मशहूर अमेरिकी लेखक से होगा । आलोचकों के सामने भी रॉलिंग को उसके नए अवतार में परखने की चुनौती होगी । जो भी हो लेकिन विमर्शकारों के सामने आनेवाले दिनों में रॉलिंग और चुनौतियां पेश कर सकती हैं ।

 

Friday, July 19, 2013

आपदा को विपदा बनाते नेता

उत्तराखंड में आई आपदा को एक महीने से ज्यादा बीत चुके हैं लेकिन राज्य सरकार का तंत्र और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण अब तक इस प्राकृतिक विपत्ति से हुए नुकसान तक का आकलन नहीं कर पाया है अभी तक यह पता नहीं लगाया जा सका है कि इस भीषण आपदा में कितने लोगों की जान गई है और कितने लोग अपनों से बिछड़ गए हैं। अभी तक मलबे में दबे शवों तक को बाहर नहीं निकाला जा सका है, उनके अंतिम संस्कार की बात तो दूर है दावा यह किया गया था कि शवों से डीएनए के नमूने लिए जाएंगे और उनके आधार पर बाद में उनकी पहचान हो सकेगी। डीएनए के नमूने तो तब निकाले जाएंगे जब उनको मलबे से बाहर निकाला जा सकेगा अब तक विश्व प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर से मलबा साफ नहीं किया जा सका है , मंदिर में पूजा शुरू होने की बात तो बहुत दूर है अभी सिर्फ इस बात का दावा किया जा रहा है कि केदार घाटी में हवाई जहाज के जरिए जेसीबी मशीनें भेजी जाएंगी ताकि मलबों को हटाया जा सके इसके अलावा अब तक यह भी पता नहीं लगाया जा सका है कि इस आपदा में उत्तराखंड के कितने गांवों को नुकसान पहुंचा उधर आपदा प्रभावित इलाकों में महामारी फैलने का खतरा उत्पन्न हो गया है डॉक्टरों की एक टीम ने कुछ इलाकों का दौरा कर सरकार को आपात स्थिति से निबटने के लिए आगाह कर दिया है लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार इतनी बड़ी आपदा के बाद महामारी के आसन्न खतरे को भांपने में नाकाम क्यों और कैसे रही इतनी बड़ा आपदा के बाद भी प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में पूरी तरह से सफल नहीं रही है कुछ दिनों पहले सीएजी ने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को कठघड़े में खड़ा कर किया था इन सवालों के जवाब ढूढने पर सरकार की लोकल्याणकारी भूमिका सवालों के घेरे में जाती है  

अगर हम विस्तार से देश पर आई अबतक की आपदाओं का विश्लेषण करें तो यह पातें हैं कि हमारे देश के कर्ता-धर्ता और सियासत के रहनुमा आपदा को विपदा में तब्दील करने में अपनी सारी उर्जा खर्च करते हैं बजाए आपदा से निबटने की रणनीति बनाने और उसपर अमल करने-करवाने के, हमारे नेता अपनी अपनी राजनीति की दुकान चमकाने में लग जाते हैं उत्तराखंड में इतनी बड़ी तबाही आई लेकिन बजाए सभी राजनीतिक दल एकजुट होकर इस आपदा से डटकर मुकाबला करने के एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप में प्राणपन से लग गए भारतीय जनता पार्टी ने राहुल गांधी की उस दौरान देश से अनुपस्थिति पर कांग्रेस को घेरने की कोशिश की इस बात को लेकर उनकी जमकर लानत मलामत की गई कि देश में इतनी बड़ी आपदा के वक्त वो विदेश में अपना जन्मदिन मना रहे थे कांग्रेस ने भी जवाबी हमला किया और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को इस पर राजनीति ना करने की नसीहत दी भारतीय जनता पार्टी को राजनीति ना करने की नसीहत देनवाली कांग्रेस गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के उत्तराखंड दौरे को लेकर बिलबिला गई और उसपर राजनीतिक रोटियां सेंकने में जुट गई मोदी को उत्तराखंड के जमीनी दौरे करने की मंजूरी नहीं दी गई गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने तर्क दिया कि नेताओं के जमीनी दौरे से राहत कार्यों में बाधा आएगी उत्तराखंड में गुजरात के फंसे लोगों को मोदी की अगुवाई में निकालने की खबर को लेकर कांग्रेस ने जमकर बवाल काटा मोदी को इशारों इशारों में रैंबो तक करार दे दिया गया उस दौर में दोनों पक्षों से ऐसी बयानबाजी होने लगी कि लगा कि उत्तरखांड की आपदा से बड़ी कोई बात हो गई हो और देश की दो बड़ी राजनीति पार्टियां उसमें उलझ गईं हैं रैंबो से लेकर मोगैंबो और फेकू से लेकर पप्पू तक की बातों में उत्तराखंड पीड़ितों का दर्द गुम सा होता नजर आया दोनों पार्टियों के बयानवीर नेताओं ने पूरे देश का सर शर्म से झुका दिया आपदा की इस मुश्किल घड़ी में आपसी राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर उससे निबटने के लिए जब एकजुटता की जरूरत थी तब सियासत का बाजार गर्म था

दरअसल हमारे देश के नेताओं को आपदा में राजनीति का अवसर नजर आता है जिसके कालांतर में गंभीर परिणाम होते हैं जब देश को एक बेहतर कार्ययोजना की जरूरत होती है तब नेता आपसी स्कोर सेट कर रहे होते हैं आपदाग्रस्त इलाके के लोगों को जब राहत और मदद की उम्मीद होती है तो हमारे नेता राजनीति में मुब्तला रहते हैं नेताओं के इस आपसी झगड़े से पार्टी के कार्यकर्ता भी आक्रामक हो जाते हैं विरोधी दल के स्थानीय कार्यकर्ता राहत और बचाव में प्रशासन की मदद करने के बजाए उनके खिलाफ धरना प्रदर्शन में जुट जाते हैं आपदा के वक्त जब पीड़ितों के दुख दर्द को बांटने की जरूरत होती है तब नेताओं के बयान जख्मों पर मरहम लगाने के बजाए उसे कुरेदने का काम करते हैं। सरकार अपनी उर्जा आपदाग्रस्त इलाके में खर्च करने की बजाए इन धरना प्रदर्शनों को रोकने में खर्च करने में जुट जाती है नुकसान पीड़ितों का होता, दर्द उनका ही बढ़ता है

ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में आई इस विनाशकारी प्राकृतिक आपदा के दौरान ही ऐसा हो रहा है हमारे यहां जब भी किसी तरह की कोई आपदा आई है तो उसे विपदा में बदलने के लिए हमारा पूरा राजनीतिक और नौकरशाही का सिस्टम एकजुट हो जाता है चाहे वो उड़ीसा में आया भयंकर तूफान हो, तमिलनाडू में आई सूनामी हो या फिर भोपाल में यूनियन कार्बाइड के संयत्र से गैस रिसाव का मसला रहा हो हर जगह प्राथमिकता पर राजनीति रहती है उड़ीसा में नेताओं की बयानबाजियों और आपस में उलझने की वजह से आपदाग्रस्त इलाकों में भ्रष्टाचार अपने चरम पर पहुंच गया था वही हाल सूनामी के बाद तमिलनाडू का भी रहा उत्तराखंड से भी ऐसी खबरें आई कि राहत कार्य में लगे कर्मचारी अपने दफ्तरों में खाने पीने में लगे थे भ्रष्टाचार के अलावा इन इलाकों में राहत का काम कर रहे गैरसरकारी संगठनों के कामकाज में बाधा भी डालने की खबरें आती रहती हैं नतीजा यह होता है कि इन गैर सरकारी संगठनों के लोग हतोत्साहित होने लगते हैं नुकसान सिर्फ और सिर्फ पीड़ितों का होता है

अब वक्त गया है कि आपदा के वक्त राजनीतिक दलों को अपने सारे मतभेदों को भुलाकर पीडितों की मदद के लिए मिलजुलकर एक ठोस कार्ययोजना बनानी चाहिए हमारे सामने अमेरिका का उदाहरण है कि जब वहां बोस्टन में बम धमाका हुआ था तो पूरे देश से एक ही आवाज आई थी कि हम ना तो रिपब्लिकन हैं और ना ही डेमोक्रैट- संकट की इस घड़ी में हम सभी अमेरिकन हैं इस आवाज से एक संदेश गया कि आतंक के खिलाफ पूरी लड़ाई में अमेरिका एकजुट है लेकिन हमारे देश में आतंकवादी वारदातों के वक्त भी सियासी जमात एकजुटता का संदेश देने में नाकाम रहती है नतीजा हम सबके सामने है आतंकवादियों को जब भी जहां मौका मिलता है वहां धमाका कर देते हैं हाल के दिनों में जिस तरह से सुरक्षा एजेंसियों को राजनीति में घसीटा जा रहा है वह और भी दुखद है इससे आतंक के खिलाफ हमारी लड़ाई कमजोर होती है जिससे अंतिम रूप से नुकसान एक राष्ट्र का होता है, वहां रहनेवाले लोगों का होता है, जिनके बल पर सियासत की ये जमात खड़ी होती है, जिनके नाम पर ये सियासत करती है और ताकत पाती है अगर समय रहते हमारे सियासतदां नहीं चेतते हैं और आपदा को राष्ट्रीय विपदा में तब्दील करने से बाज नहीं आते हैं तो जनता ही उनको सबक सिखाने का कदम उठा सकती है और तब वो स्थिति बेहद अप्रिय होगी