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Tuesday, January 31, 2017

ऋतिक की जिंदगी में बहार

फिल्म काबिल की सफलता की चर्चा ऋतिक रोशन के डगमगाते करियर को तो सहारा देगा ही उनके परिवार में एक बार फिर से बहार आने के संकेत देने शुरू कर चुका है । ऋतिक रोशन जब सुजैन खान से अलग हुए थे तब उनके और कंगना के बीच कथित अफेयर की खबरें खूब आम होती थीं । दोनों के रोमांस के भी चर्चे आम थे । बाद में इस प्रेम कहानी में ईमेल का खलनायक आया जिसने ऋतिक और कंगना दोनों को कोर्ट कचहरी तक पहुंचा दिया । ईमेल के इस भंवर में प्रेम की नैया डूबती नजर आने लगी थी । दोनों तरफ से अलग अलग तरीके की खबरें आने लगी थीं । खैर यह अब इतिहास है, एक ऐसा अतीत जिसको ना तो ऋतिक याद रखना चाहते हैं और ना ही कंगना रनाउत । ऋतित के बारे में सवाल पूछने पर कंगना के चेहरे पर जिस तरह की विद्रूपता का भाव आता है उससे तो यह साफ तौर पर जाहिर होता है कि दोनों के बीच अब किसी तरह का प्रेम बचा नहीं है । कंगना और ऋतिक के प्रेमयुद्ध के बीच ऋतिक की फिल्म मोअनजोदड़ो रिलीज हुई जो बुरी तरह से पिट गई । इस फिल्म के पिटने के बाद ऋतिक की आस अपने होम प्रोडक्शन की फिल्म काबिल पर टिक गई । एक तरफ ऋतिक फिल्मों के पिटने से परेशान थे तो दूसरी तरफ कंगना के साथ केस मुकदमे को लेकर भी खिन्न रहने लगे थे । ऐसे में उनको एक साथी की तलाश थी । बॉलीवुड से जुड़े लोगों का कहना है कि ऋतिक आपसी बातचीत में सुजैन को मिस करने लगे थे । तलाक के दो साल बाद अब ऋतिक को लगने लगा था कि उसकी जिंदगी में सुजैन का जो स्थान था वह कोई और भर नहीं पा रहा है । ऋतिक से जब एक पत्रकार ने सवाल किया था कि आजकल वो किसको डेट कर रहे हैं तो ऋतिक ने साफ मना कर दिया था कि वो किसी को भी डेट नहीं कर रहे हैं बल्कि इन दिनों वो एक रिलेशनशिप में हैं । तब किसी को इस बात का अंदाजा नहीं था कि ऋतिक अपने सुजैन की बात कर रहे हैं । तरह तरह के कयास लगाए जा रहे थे ।
इस बीच सुजैन और ऋतिक दोनों अपने बेटों की खातिर मिलते जुलते थे । ऋतिक और सुजैन के फिर से साथ आने की खबरों को तब और बल मिला जब नए साल का जश्न मनाने ऋतिक और सुजैन अपने दोनों बेटों के साथ दुबई जा पहुंचे । वहां चारों ने कई दिन बिताए और कहा जा रहा है कि उस दौरान ऋतिक और सुजैन ने ये फैसला कर लिया कि वो अरने रिश्ते को एक और चांस देने की कोशिश करते हैं । दोनों के बीच इस बात को लेकर सहमति थी कि बेटों का खातिर भी ऋतिक और सुजैन को फिर से एक हो जाना चाहिए । इसके कुछ दिन बाद ऋतिक के जन्मदिन के मौके पर हुए जश्न में भी सुजैन को लोगों ने चहकते हुए देखा था । बर्थडे पार्टी में ऋतिक और सुजैन के बीच की क्लोजनेस इस बात की गवाही दे रहा था कि कुछ फिर से पकने लगा है । इसके बाद वो वक्त आ गया जब ऋतिक की फिल्म काबिल की प्राइवेट स्क्रिनिंग रखी गई । इस स्क्रीनिंग में भी सुनैजन पहुंची और ऋतिक के साथ ही बैठकर उसने पूरी फिल्म देखी । ऋतिक की हाथों में हाथ डाले उन्होंने मेहमानों का स्वागत भी किया । फिल्म देखने के बाद सुजैन ने सोशल मीडिया पर एक मैसेज पोस्ट किया – सो, सो प्राउड ऑफ यू ऋतिक । इस मैसेज को ऋतिक के उस इंटरव्यू से जोड़कर देखा जाने लगा जिसमें उन्होंने कहा था कि वो इन दिनों रिलेशनशिप में हैं । दरअसल बॉलीवुड में दोनों के एक साथ दुबई में नए साल का जश्न मनाए जाने की खबर के बाद ही ये माना जाने लगा था कि दोनों एक होने वाले हैं ।  
ऋतिक और सुजैन के बीच की इस रियल लाइफ केमिस्ट्री को देखकर कोई भी अंदाज लगा सकता है कि दो साल पहले तलाक लेने वाले इस खूबसूरत जोड़े ने एक फिर से जिंदगी को खूबसूरत बनाने का फैसला कर लिया है । सुजैन भी अपनी तरफ से इस रिश्ते को फिर से शुरू करने में जुटी है । हुआ यह कि ऋतिक की बहन के जन्मदिन के मौके पर सुजैन उसके ससुराल जा पहुंची । वहां ऋतिक और पूरा रोशन परिवार तो मौजूद था ही, ऋतिक की बहन के ससुरालवाले सभी रिश्तेदार भी मौजूद थे । जब सुजैन वहां पहुंची तो ऋतिक ने ईदे बढ़कर उसका हाथ थाम लिया । रोशन सीनियर भी इसको देखककर बेहद खुश नजर आ रहे थे । दोनों परिवारों को निकट से जानने वाले एक शख्स का दावा है कि राकेश रोशन भी चाहते हैं कि ऋतिक और सुजैन फिर से एक हो जाएं और उनका बिखरा परिवार फिर से संवर जाए । इसलिए रोशन परिवार की तरफ से भी कोशिशें हो रही हैं ।

बॉलीवुड में अलग हुए सेलिब्रिटीज को लेकर कयासों का दौर चलता रहता है । अभी बीच में ये भी खबर आई थी कि अरबाज खानऔर मलाइका अरोड़ा एक बार फिर से साथ आ सकते हैं । दोनों के एक होटल में साथ खाना खाते तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी । बावजूद इसके दोनों के एक होने की संभावना क्षीण हो गई क्योंकि उसके कुछ ही दिन बाद दोनों मुंबई की एक अलादत मे तलाक के मुकदमे के सिलसिले में नजर आए थे । कहा तो ये भी जाता है कि सैफ अब भी अमृता सिंह से जुड़े हुए हैं और अमृता सिंह से अपनी बेटी के फिल्मी करियर को संवारने में लगे हुए हैं । हाल ही में ये खबर आई थी कि अमृता सिंह की बेटी ऋतिक के साथ फिल्म में डेब्यू करेंगी यह जानकर अमृता खफा हो गई थी वो नहीं चाहती थी कि उनकी बेटी अपने से दस साल बड़े अभिनेता के साथ डेब्यू क्यों कर रही हैं । उन्होंने इसके लिए सैफ को जिम्मेदार भी माना था । होता यह है कि असल जिंदगी में अलग हुए सितारे अपने बच्चों की खातिर एक दूसरे से जुड़े होते हैं । इसी जुड़ाव में कभी कभार प्रेम के अंकुर फिर से फूटने लगते हैं । ऋतिक औक सुजैन के मामले में तो कम से कम यही लगता है ।   

Monday, January 30, 2017

अपाराधियों का हाथ, मायावती के साथ

किसी जमाने में यूपी में बहुजन समाज पार्टी का नारा गूंजता था- चढ़ गुडों की छाती पर बटन दबेगा हाथी पर । वही बीएसपी अब अपने इस नारे को भूल गई है । बीएसपी ने हाल ही में जेल में बंद माफिया डॉन मुख्तार अंसारी को अपनी पार्टी में परिवार समेत शामिल कर अपने इस नारे को ना केवल भुला दिया बल्कि मायावती ने अपने शासनकाल के दौरान बेहतर कानून व्यवस्था की अतीतजीविता को भी धूमिल कर दिया है । इस विधानसभा चुनाव के दौरान लोग यह कहते थे कि समाजवादियों के राज में अपराधी बेखौफ हो जाते हैं और बीएसपी के शासनकाल के दौरान वो दुबक जाते हैं । मायावती के राज में भ्रष्टाचार को लोग इसी बिनाह पर बर्दाश्त करते रहे हैं । मायावती ने ना केवल मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का विलय बीएसपी में किया बल्कि मुख्तार, उसके भाई और बेटे को भी पार्टी टिकट देकर इस बात को पुख्ता कर दिया कि अब अपराध और अपराधी से उनको परहेज नहीं है । उनके लिए सूबे की सत्ता महत्वपूर्ण है । गुंडा मुक्त प्रदेश का दावा करनेवाली मायावती ने जिस मुख्तार अंसारी को पार्टी में शामिल करवाया है उसपर हत्या से लेकर कई संगीन जुर्म के मुकदमे दर्ज हैं । दो हजार पांच में बीजेपी के विधायक कृष्णानंद राय की हत्या के आरोप में वो जेल में बंद हैं और इस हत्याकांड की सीबीआई जांच चल रही है ।
मायावती ने उसी मुख्तार को गले लगाया है जिसको उन्होंने दो बार पार्टी के बाहर का रास्ता दिखाया था । पहली बार 1997 में जब मुख्तार अंसारी पर विश्व हिंदू परिषद के कोषाध्यक्ष को अगवा करने का आरोप लगा था । इसके बाद फिर से उनको पार्टी में वापस लिया गया था और दो हजार दस में आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में पार्टी से निकाल बाहर किया गया था । अब एक बार फिर से उनको यह कहते हुए पार्टी में शामिल किया गया है कि वो भटक गए हैं और अब सुधरने की कोशिश कर रहे हैं । अपराधियों को सुधरने का मौका देने का ये तरीका लोगों को पच नहीं रहा है । दरअसल यह गुंडा से ज्यादा वोटबैंक की राजनीति है । माना जाता है कि मुख्तार अंसारी और उसके परिवार का बनारस, आजमगढ़ और मऊ इलाके के मुसलमान वोटरों पर प्रभाव है । उसके इस प्रभाव को भुनाने के चक्कर में ही मायावती ने मुख्तार अंसारी के दल का विलय बीएसपी में करवाया । यही सोच शिवपाल यादव की भी थी जब उन्होंने कौमी एकता दल का विलय चंद महीने पहले समाजवादी पार्टी में करवाया था । तब अखिलेश ने इसका तगड़ा विरोध किया था और माना जाता है कि चाचा-भतीजे के रिश्ते में दरार की बुनियाद वहीं से पड़ी थी । अखिलेश ने मुख्तार और उसके भाई को टिकट देने का भी विरोध किया था । अब मायावती को लगता है कि वो मुख्तार अंसारी को पार्टी में शामिल कर पूर्वांचल के मुसलमानों के वोट हासिल कर लेगी । अगर चंद पलों के लिए यह मान भी लिया जाए कि मुख्तार का प्रभाव तीन जिलों के मुसलमान मतदाताओं पर है भी तो तीन जिलों के चंद वोटों की खातिर मायावती पूरे सूबे में अपनी अपराध और अपराधी विरोधी छवि को दांव पर लगाकर क्या हासिल कर लेगी ।
इस बार उत्तर प्रदेश में मायावती अपने सियासी जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रही हैं । अब से कुछ महीने पहले तक माना जाता था कि मायावती को ही यूपी की जनता शासन की कमान सौंपेंगी लेकिन बीजेपी ने जिस तरह से धीरे-धीरे जमीनी राजनीति करते हुए खुद को मजबूत किया उससे फिजां बदलती नजर आ रही है । उधर अखिलेश ने भी खुद की अपराध विरोधी छवि पेशकर समाजववादी पार्टी के खिलाफ लोगों का गुस्सा कम करने में सफलता हासिल की । कांग्रेस और समाजवादी पार्टी में गठबंधन होने के बाद अब मुसलमान मतदाताओं के बीच भ्रम की स्थिति बन सकती है । दरअसल पिछले कई सालों में अगर मुस्लिम बहुल इलाकों के वोटिंग पैटर्न का विश्लेषण करें तो यह पता चलता है कि वो उस पार्टी या उस उम्मीदवार को वोट करते हैं जो बीजेपी को हराने की क्षमता रखता है । इस बार शुरुआत में मुस्लिम वोटरों का रुझान बीएसपी की ओर था लेकिन जैसे जैसे अखिलेश को मजबूती मिलती दिखने लगी और परिवार का झगड़ा शांत होने लगा वैसे वैसे ये रुझान कम होने लगा । समाजवादी पार्टी के प्रचारतंत्र ने मुस्लिम मतदाताओं के बीच इस बात पर जोर देना प्रारंभ किया कि बीएसपी तो बीजेपी के साथ जा सकती है क्योंकि पूर्व में दोनों दल साथ मिलकर सरकार चला चुके हैं । समाजवादी पार्टी के इस सियासी दांव के जवाब में बीएसपी ने थोक के भाव में मुसलमान उम्मीदवारों को पार्टी का टिकट दिया । बीएसपी लगभग हर चुनाव में अपना नारा बदलती रहती है । तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार का नारा देनेवाली पार्टी ने नारा बदला और कहा हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश हैं । दो हजार सात में जब ब्राह्मणों का वोट मिल गया तो फिर चुनाव में नारा बदला और सर्वसमाज के सम्मान में बहनजी मैदान में । वोटों की खातिर बदलते स्टैंड को यूपी की जनता को समझना होगा और उसी हिसाब से मतदान करना होगा ।


Saturday, January 28, 2017

टैगोर पर भारी धर्मांधता

क्या रचनात्मक लेखन का कोई धर्म होता है ? क्या कोई साहित्यक रचना किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देती है ? क्या किसी रचना में धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल से वो रचना सांप्रदायिक हो सकती है ? क्या किसी रचना में किताबों की बात करने से किसी धर्म विशेष के ग्रंथ की अवहेलना हो सकती है ?  ये कुछ चंद सवाल हैं जो इन दिनों वैश्विक स्तर पर उन बुद्धिजीवियों को मथ रहे हैं जो साहित्य को साहित्यक संदर्भ में देखते हैं और उसपर विचार विमर्श करते हैं । ये सवाल उठे हैं बांग्लादेश से जहां पहली से लेकर आठवीं कक्षा तक के पाठ्यक्रम में भारी बदलाव किया गया है । पाठ्यक्रमों में बदलाव होते रहते हैं लेकिन जब ये बदलाव किसी दबाव में किए जाएं और किसी रचना या पुस्तक को हटवाने के पीछे कट्टरपंथी हो तो चिंता का सबब बन जाता है । बांग्लादेश सरकार ने अभी हाल ही में स्कूलों में पढ़ाई जानेवाली किताबों से नोबेल पुरस्कार से सम्मानित गुरवर रविन्द्रनाथ टैगोर और जाने माने लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की कविता और कहानी हटा दी है । बांग्लादेश सरकार ने यह कदम एक कट्टरपंथी संगठन हिफाजत-ए-इस्लाम के विरोध के बाद उठाया है । यह संगठन वहां मदरसों में पढ़ानेवाले शिक्षकों और वहां पढ़ाई करनेवाले छात्रों का माना जाता है । दो साल से बांग्लादेश में मदरसों में छात्रों की संख्या काफी बढ़ी है, बढ़ी को बुर्का पहनने वाली लड़कियों की संख्या भी है ।
हिफाजत-ए-इस्लाम नाम के इस संगठन ने लंबे समय से कई लेखकों की आधे दर्जन के अधिक रचनाओं को चिन्हित किया हुआ था और बांग्लादेश सरकार पर दबाव बना रहे थे कि इन सबको पाठ्यक्रमों से हटा दिया जाए । हिफाजत-ए-इस्लाम की दलील है कि इन लेखकों की रचनाओं में इस्लाम का विरोध है और हिंदू धर्म को बढ़ावा मिल रहा है । छठे वर्ग की एक किताब में रबिन्द्रनाथ टैगोर की कविता बांग्लादेशेर ह्दोयपढ़ाई जाती थी। गुरवर की इस कविता में मातृभूमि को ऊंचे स्थान पर रखते हुए टैगोर ने उसकी खूबसूरती की प्रशंसा की है। रबिन्द्र नाथ टैगोर की यह कविता कई सालों से छात्रों को पढ़ाई जा रही थी लेकिन कुछ दिनों पहले हिफाजत-ए-इस्लाम को लगा कि गुरुवर की इस कविता में हिंदुओं की एक देवी को बहुत ऊंचे स्थान पर रखा गया है या कह सकते हैं कि उनको इस बात पर आपत्ति थी कि टैगोर की इस कविता में हिंदू देवी की तारीफ की गई है । हिंदू देवी के उल्लेख और उसकी तारीफ को इस संगठन ने इस्लाम के खिलाफ माना, लिहाजा इस कविता को पाठ्यक्रम से हटाने की मुहिम शुरू कर दी थी । टैगोर के अलावा हिफाजत-ए-इस्लाम के निशाने पर शरतचंद्र चट्टोपाध्याय कहानी ललू भी थी । इस कहानी के केंद्र में पशु बलि है जिसपर पर लेखक ने विस्तार से लिखा है और बताया है कि कैसे एक बच्चा जानवरों की बलि को रोकने के लिए संघर्ष करता है । पशुबलि रोकने के बालक के संघर्ष में भी कट्टरपंथियों को धर्म का बढ़ावा दिखाई दे गया । हिफाजत-ए-इस्लाम का तर्क है कि इस कहानी से हिंदू धर्म में व्याप्त पशु बलि को बढ़ावा मिलता है लिहाजा बच्चों को यह कहानी नहीं पढ़ाई जानी चाहिए । सत्येन सेन की कहानी लाल गोरूटा को भी पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है । इस कहानी में इसके केंदीय पात्र निधिराम और गाय के बीच के संवेदनशील संबंध को दर्शाया गया है । इस्लामिक कट्टर पंथियों की दलील है कि इस कहानी में कहानीकार ने गाय को मां के रूप में दिखाया है । गाय को मां के रूप में दिखाने को हिंदू धर्म से जोड़कर कट्टरपंथियों ने इसका विरोध शुरू किया था । उनका तर्क है कि इस तरह की कहानियों से हिंदू धर्म के उपदेशों को बढ़ावा मिलता है जो उनको किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है ।
अगर हम देखें तो हिफाजत-ए-इस्लाम जैसे कट्टरपंथी संगठनों के सामने सारे तर्क बेकार होते हैं । वो तो धर्म के चश्मे से सबको देखते हैं और लिहाजा जो उनकी कसौटी पर खरा नहीं उतरता है उसको खारिज करवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं । इस मामले में ही अगर हम अन्य उदाहरणों को देखें तो यह धारणा और पुष्ट होती नजर आती है । हुमांयू आजाद की की कविता बोई को भी पांचवीं कक्षा के सिलेबस से हटा दिया गया है । यह कविता किताब की महत्ता के बारे में बात करती है । कट्टरपंथियों को यह लगता है कि इस कविता से जो संदेश निकलता है उससे कुरान की महत्ता कम होती है । उनके तर्कों के मुताबिक कुरान के अलावा किसी और किताब की महत्ता पर बात नहीं होनी चाहिए और अगर किसी और किताब पर बात होगी तो यह कुरान को नहीं पढ़ने के लिए उकसाने जैसी बात होगी । यह अजीबोगरीब तर्क है। तालीम को बढ़ावा देने के लिए किताब की महत्ता पर बल देना ही होगा । पाक कुरानशरीफ की महत्ता भी तालीम हासिल करने के बाद ज्यादा बेहतर तरीके से समझ आएगी ।
इन कट्टरपंथियों को धर्म की आड़ में विरोध करना बेहतर लगता है । तभी को उन्होंने उपेन्द्र किशोर रे की रामायण पर आधारित छोटी छोटी कहानियों का भी विरोध कर उसको हटवा दिया । यही नहीं छठी कक्षा में ही एक यात्रा वृत्तांत था जिसमें उत्तर भारत के एक शहर का वर्णन था, उसको हटाकर मिस्त्र के एक शहर के बारे में पढ़ाया जाने लगा ।  कट्टरपंथी इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने तो वर्णमाला को सिखाने के तौर तरीके में भी बदलाव करवा दिया । से ओल की बजाए अब से ओरना पढाया जाएगा । ओल एक सब्जी है और ओरना मुस्लिम लड़कियों द्वारा ओढा जानेवाला एक स्कार्फ । इन शब्दों के प्रतीकों से वो बच्चों में किस तरह की शिक्षा देना चाहते हैं यह सोचनेवाली बात है । दरअसल कट्टरपंथियों ने दो हजार चौदह से ये मुहिम शुरू की जब बांग्लादेश सरकार ने मदरसों में आधुनिक शिक्षा वाली किताबों को पढ़ाने का प्रस्ताव दिया था । तब कट्टरपंथियों को ये लगने लगा था कि अगर मदरसों में धार्मिक कट्टरता की बजाए तर्कवादी दृष्टिकोण से शिक्षा का आधुनिकीकरण होगा तो उनकी दुकान बंद हो जाएगी ।
अब अगर इन कट्टरपंथी घटनाओं के बढ़ने और आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने वालों के पढ़ा लिखे होने को जोड़कर देखें तो बहुत चिंतित करनेवाली तस्वीर सामने आती है । हाल के आतंकवादी वारदातों ,चाहे वो बांग्लादेश की आतंकीवादी वारदात हो या फिर पेरिस में भीड़ पर आतंकवादी हमला या तुर्की में हुआ आतंकवादी हमला, पर नजर डालें तो खतरनाक प्रवृत्ति दिखती है । इन हमलावरों की प्रोफाइल देखने पर आतंकवाद को लेकर चिंता बढ़ जाती है । पहले कम पढ़े लिखे लोगों को आतंकवादी संगठन अपना शिकार बनाते थे । उसको धर्म की आड़ में जन्नत और हूर आदि का ख्वाब दिखाकर और पैसों का लालच देकर आतंकवाद की दुनिया में दाखिला दिलवाया जाता था । अनपढ़ों और जाहिलों को धर्म का डर दिखाकर बरगलाया जाता था। आश्चर्य तब होता है जब एमबीएम और इंजीनियरिंग के छात्र भी आतंकवाद की ओर प्रवृत्त होने लगते हैं, हमले करने लगे हैं । रमजान के पाक महीने में बांग्लादेश, पेरिस और मक्का समेत कई जगहों पर आतंकवादी वारदातें हुईं थीं । ढाका पुलिस के मुताबिक बम धमाके के मुजरिम शहर के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय में पढ़नेवाले छात्र थे । पूरी दुनिया में इस बात पर मंथन हो रहा है कि इस्लाम को मानने वाले पढ़े लिखे युवकों का रैडिकलाइजेशन कैसे संभव हो पा रहा है । बांग्ललादेश में तो दो हजार तेरह के बाद से ही इस तरह की घटनाओं में बढोतरी देखने को मिल रही है । कई तर्कवादी ब्लागर की नृशंस तरीके मौत के घाट उतार देने की वारदातों ने हमारे पड़ोसी देश को झकझोर कर रख दिया था ।

अब इस बात पर विचार करना होगा कि धार्मिक कट्टरता के खिलाफ किस तरह की रणनीति बनाई जाए क्योंकि कट्टरता ही आतंकवाद की नर्सरी है । कट्टरता के खात्मे के लिए आवश्यक है कि पूरी दुनिया के बौद्धिक इसके खिलाफ एकजुट हों और अपने अपने देशों में आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा को बढ़ावा दें । इस्लामिक बुद्धिजीवियों पर जिम्मेदारी ज्यादा है । उनको धर्म की आड़ में कट्टरता को पनपने से रोकने के लिए धर्म की गलवत व्याख्या पर प्रहार करना होगा । धर्म के ठेकेदारों के खिलाफ बोलना शुरू करना होगा । हर विचारधारा और धर्म के लोगों को गलत को गलत कहने का साहस दिखाना होगा । हम किसी अन्य धर्म में बढ़ रही कट्टरता का विरोध करना इस तर्क के आधार पर नहीं छोड़ सकते हैं कि यह उनका आंतरिक मामला है । जब बात मानवता और इंसानियत की आती है तो फिर वो मामला किसी का भी आंतरिक नहीं रह जाता है क्योंकि आतंक की तबाही ना तो धर्म देखती है और ना ही रंग वो तो सिर्फ जान लेती है । चुनी हुई चुप्पीकी सियासत इस समस्या को बढ़ाएगी, लिहाजा बोलने का वक्त है ।  

लेखन को सम्मान

पूरी दुनिया में रामकथा अलग अलग रूपों में मौजूद है । हमारे देश में ही लगभग हर भाषा में राम कथा मौजूद हैं । वाल्मीकि रामायण के अलावा हर भाषा में रामकथा लिखे गए जिनमें देश काल और परिस्थिति के हिसाब से बदलाव भी लक्षित किया जा सकता है । हमारे समय में रामकथा को आधुनिकता के साथ पेश करनेवाले नरेन्द्र कोहली को भारत सरकार ने पद्धश्री से सम्मानित करने का एलान किया है । यह हिंदी के उन लेखकों का भी सम्मान है जो किसी वाद या पंथ के खूंटे से बंधे बगैर पाठकों को ध्यान में रखकर लेखन करते हैं । नरेन्द्र कोहली को एक खास विचारधारा के लोगों ने लगातार साहित्य की कथित मुख्यधारा से अलग रखा और कोशिश करके उनको हाशिए से साहित्य के केंद्र में नहीं आने दिया । यह तो पाठकों के साथ की ताकत थी अपने लेखन पर भरोसा कि नरेन्द्र कोहली उपेक्षा के इस दंश को झेल गए । लगभग छह दशकों से लेखन कर रहे नरेन्द्र कोहली को अब जाकर पद्म सम्मान के लायक समझा गया जबकि पिछले दिनों तो ऐसे ऐसे लोगों को पद्म पुरस्कार दिए गए जिनके बारे में लिखना भी व्यर्थ है । नरेन्द्र कोहली यह मानते हैं कि विचारधारा के ध्वजवाहकों ने उनकी साहित्यक हत्या की कोशिश की लेकिन अपने लेखन के दम पर वो प्रासंगिक बने रहे । खैर यह अवांतर प्रसंग है । हाल के दिनों में पौराणिक कथाओं और आख्यानों को लेकर एक उत्सुकता का वातावरण बना है । हिंदी में नरेन्द्र कोहली के लेखन के बाद अंग्रेजी में भी कुछ युवा लेखकों ने पौराणिक आख्यानों को लेकर लेखन प्रारंभ किया है । नरेन्द्र कोहली ने हिंदी के जिस विशाल पाठकवर्ग को अपने साथ जोड़ा उसमें अंग्रेजी के लेखकों को भी संभावनाएं नजर आईं । परोक्ष रूप से एक कार्यक्रम में अमिष त्रिपाठी ने इस बात को स्वीकार भी किया । यह अच्छी बात है कि साहित्य का एक वर्ग वापस अपनी जड़ों की ओर लौट रहे हैं ।

नरेन्द्र कोहली ने व्यंग्य लेखन भी किया ।व्यंग्य लेखन की शुरुआत की कहानी भी बेहद मार्मिक है । सत्तर के दशक की बात उनके घर जुड़वा बच्चों ने जन्म लिया । जन्म के बाद ही दोनों बहुत बीमार पड़ गए और उनको दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती करवाना पड़ा जहां उनकी बच्ची की मौत हो गई और बेटा लंबी बीमारी से उबर कर घर लौटा । नरेन्द्र कोहली ने बातचीत में बताया कि अपने बच्चों की बीमारी के वक्त उन्होंने व्यवस्थागत संवेदनहीनता को बेहद नजदीक से देखा । यह संवेदनहीनता ही उनको व्यंग्य लेखन की ओर ले गया । विवेकानंद पर भी उन्होंने– तोड़ो कारा तोड़ो -के नाम से दो खंड लिखे । उन्होंने रामकथा पर भी विस्तार से लिखा और तुलसी और वाल्मीकि के रामायण को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित किया । महाभारत के चरित्रों को केंद्र में रखकर भी नरेन्द्र कोहली ने विपुल लेखन किया । महाभारत को पढ़ते हुए बहुधा उसके पात्रों को याद रखना मुश्किल होता है लेकिन कोहली जी ने बेहद कुशलता से कुछ पात्रों को पकड़े रखा और बाकियों को छोड़कर रोचकता के साथ प्रस्तुत कर दिया । रामकथा और महाभारत पर लिखने के बाद कोहली जी ने गीता पर लिखना प्रारंभ किया । वाणी प्रकाशन से प्रकाशिक अपनी पुस्तक शरणम में वो स्वीकार करते हैं कि उनको ना तो संस्कृत का ज्ञान था और ना ही गीता के दर्शन का लेकिन अपने परिवार में गीता के पाठ ने उनको गीता पर लिखने के लिए प्रेरित किया। सतहत्तर साल की उम्र में भी कोहली जी का लगातार लेखन आश्वस्तिकारक है । उनके लेखन को लेकर हिंदी साहित्य में व्याप्त उदासीनता बी अब दरकने लगी है यह भी संतोष की बात है । कोहली जी को पद्म सम्मान मिलने पर बधाई ।      

Friday, January 27, 2017

सफलता तलाशती विवाद

जयपुर में फिल्मकार संजय लीला भंसाली के साथ एक अनाम से संगठन राजपूत कर्णी सेना के चंद हुड़दंगियों ने धक्कामुक्की की और भंसाली को थप्पड़ मारा। इस घटना की जितनी निंदा की जाए वो कम है । गांधी के देश में किसी को भी हिंसा की उजाजत नहीं दी जा सकती है । शूटिंग के दौरान जयपुर से जयगढ़ किले में पहुंचकर कर्णी सेना के मुट्ठीभर कार्यकर्ताओं ने उत्पात मचाया और पुलिस उनको रो नहीं पाई, यह किसी भी जगह के पुलिस की कार्यशैली पर सवाल खड़े करती है । हलांकि पुलिस ने हिंसा करनेवालों में से कइयों के गिरफ्तार किया है लेकिन अगर पहले रोक लिया जाता तो यह विवाद उठता ही नहीं।  इस अनाम से राजपूत संगठन को इस बात पर एतराज है कि संजय लीला भंसाली अपनी फिल्म पद्मावती में अलाउद्दीन खिलजी और रानी पद्मावती के बीच लवमेकिंग सीन क्यों दिखाया जा रहा है । सवाल तो यह भी उठता है कि ये राजपूत करणी सेना है क्या ? ये किन राजपूतों की नुमाइंदगी करता है ? करणी सेना को मीडिया की वजह से नाम मिलता है । जिस तरह से शुक्रवार की घटना को मीडिया खासकर न्यूज चैनलों ने उछाला उससे लगा कि कोई बड़ा संगठन है । इस घटना को दिखाने पर सवाल नहीं है, सवाल है दिखाने के तरीके पर । अमूमन किसी भी न्यूज चैनल ने इलस संगठन की वास्तविकता नहीं बताई । यह संगठन इसी तरह से फिल्मों आदि के रिलीज या शूटिंग आदि के मौकों पर न्यूज चैनलों के कैमरे पर हीनजर आते हैं । जमीन पर इसका कोई असर अबतक दिखा नहीं है । मीडिया में जैसे ही इस तरह के कागजी संगठनों को तवज्जो मिलनी बंद हो जाएगी वैसे ही इनकी हुंड़दंगबाजी भी बंद हो जाएगी । टी वी कैमरे के लिए किया जानेवाला विरोध अगर नहीं दिखाया जाए तो वो फुस्स हो जाएगा । एक जमाने में दिल्ली में शिवसेना के नाम पर एक शख्स इसी तरह का संगठन चलाता था । मीडिया ने उसको दिखाना बंद किया तो संगठन भी गायब हो गया ।

एक मिनट के लिए मान भी लिया जाए कि पद्मावती काल्पनिक चरित्र हैं और इतिहास में इस बात
के तथ्य मौजूद नहीं है लेकिन लोक में तो पद्मावती मौजूद है । खिलजी एक आक्रमणकारी था और स्थानीय रानी के साथ फिल्म में उसके लवमेकिंग सीन को फिल्माना कौन सी कल्पना है । राजस्थान के लोकगीतों से लेकर लोकमानस में रानी पद्मावती का एक स्थान है । मेवाड़ इलाके में रानी पद्मावती को लेकर एक खास समुदाय के लोग खुद को आईडंटिफाई करते हैं ।  पौराणिक आख्यानों और लोक में व्याप्त किसी चरित्र को गलत तरीके से पेश करने को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ना उचित नहीं होगा । संजय लीला भंसाली समेत कई फिल्मकार विवादों से बॉक्स ऑफिस पर सफलता का रास्ता भी तलाशते हैं । बहुधा सायास और कभी कभारा अनायास उनकी फिल्मों से विवाद होता है । इतिहास से लेकर पौराणिक कथाओं से छेड़छाड़ या लोक में स्थापित मान्यताओं का मजाक बनाकर । जैसे संजय लीला भंसाली ने ही जब राम-लीला फिल्म बनाई थी तो उस फिल्म का ना तो राम से कोई लेना देना था और ना ही रामलीला से । यह नाम इस लिए रखा गया था ताकि फिल्म के नाम को लेकर विवाद हो और फिल्म के लिए माइलेज हासिल किया जा सके । इसी तरह से अगर देखें तो संजय लीला भंसाली ने अपनी फिल्म देवदास में भी इतिहास से छेड़छाड़ किया था । मूल कहानी में पारो और चंद्रमुखी के बीच मुलाकात ही नहीं हुई थी लेकिन भंसाली ने अपनी फिल्म में ना केवल दोनों की मुलाकात करवा दी बल्कि दोनों के बीच एक गाना भी फिल्मा दिया – डोला रे डोला रे । अब यह तो माना नहीं जा सकता है कि संजय लीला भंसाली को यह बात पता नहीं होगी कि पारो और चंद्रमुखी के बीच मुलाकात नहीं हुई थी । तो जब आप जानबूझकर ऐतिहासिक तथ्यों या मिथकों या आख्यानों के साथ छेड़छाड़ करेंगें और मंशा विवाद पैदा करने की होगी तो फिर जयपुर जैसी घटनाओं की संभावना लगातार बनी रहेंगी । कोई भी सिरफिरा इस तरह की वारदात को अंजाम दे सकता है । दरअसल संजय लीला भंसाली लगभग हर फिल्म में ऐतिहासिकता को अपने हिसाब से इस्तेमाल करते चलते हैं । यह चीज बाजीराव मस्तानी में बाजीराव और मस्तानी के बीच के काल्पनिक प्रेम को देखकर भी मिलता है ।ऐतिहासिक चरित्रों कके बीच रोमांस का तड़का बगैर किसी आधार के विवाद को जन्म देती है । फिल्म बाजीराव मस्तानी के वक्त भी इसको लेकर छोटा मोटा विरोध हुआ था । इस तरह से अगर हम देखें तो आशुतोष गोवारीकर ने फिल्म मोहेंजोदाड़ो बनाई । इस फिल्म में मुअनजोदड़ो सभ्यता के तथ्यों से कोई लेना देना नहीं है । इसमें आर्यों को सभ्यता का रक्षक और अनार्यों को लुटेरा जैसा चित्रित किया गया है । अब तक कोई इतिहासकार इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया है । काल्पनिकता के आधार पर इतिहास की नई व्याख्या बहुधा विवादित होती ही है । विरोध करना हर किसी का लोकतांत्रिक हक है लेकिन उसमें हिंसक होना या कानून को अपने हाथ में लेना सर्वथा अनुचित है । विवाद खड़ा कर अपनी तिजोरी भरने की मंशा बेहद खतरनाक होती है । खतरा तब और बढ़ जाता है जब इसको कला के नाम पर या कलाकार की अभव्यक्ति की आजादी से जोड़ा जाता है । कलाकार की कल्पना जब जानबूझकर लोगों की भावनाओं को भड़काने लगे तो उसको रोकने के लिए संविधान में व्यवस्था है, हिंसक विरोध करनेवालों को इस रास्ते पर चलकर विरोध करना चाहिए । 

वैचारिक समानता की ओर बढ़ते कदम

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल और विवादों का चोली दामन का साथ रहा है । इस वर्ष अभी हाल ही में समाप्त हुए साहित्यके इस सबसे बड़े उत्सव में भी एक अलग ही किस्म का विवाद खड़ा करने की कोशिश की गई । इस विवाद की पृष्ठभूमि उस वक्त ही शुरू हो गई थी जब मेला के आयोजकों ने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले और संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य को मेले में वक्ता को तौर पर निमंत्रित किया था । संघ के बड़े अधिकारियों की जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उपस्थिति और लगभग हर वर्ष इस आयोजन में दिखाई देनेवाले हिंदी के वरिष्ठ कवि और पुरस्कार वापसी के अगुवा अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश की अनुपस्थिति से जोड़कर देखा गया । दरअसल आयोजन के दसवें साल में अशोक वाजपेयी और असहिष्णुता के कथित झंडाबरदारों को जयपुर के इस साहित्यक महाकुंभ में निमंत्रित ही नहीं किया गया था । यह आश्चर्य की बात थी क्योंकि अशोक जी इस लिट फेस्ट में स्थायी अतिथि होते थे । अशोक वाजपेयी, उदय प्रकाश और हरि कुंजरू आदि को निमंत्रित नहीं करना और दत्तात्रेय होसबोले और मनमोहन वैद्य की उपस्थिति से कई लेखकों के चहरे पर बेचैनी के भाव दिखाई दे रहे थे । यह बात भी फैलाने की कोशिश की गई कि असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी समूह के लेखकों ने इस बार जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का बहिष्कार किया जबकि सच्चाई इससे इतर थी । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की साख और वैश्विक ब्रांड के मद्देनजर यह बात किसी के भी गले नहीं उतर रही थी कि कोई लेखक इस उत्सव का बहिष्कार कर सकता है । कुळ लोगों ने सोशल साइट्स पर यह भ्रम फैलाने की कोशिश की । राजस्थान के कुछ लेखकों ने आयोजकों से दबी जुबान में फेस्टिवल के निदेशकों से अपनी आपत्ति दर्ज करवाई । बावजूद इसके संघ के पदाधाकरियों के सत्र में श्रोताओं की जबरदस्त भागीदारी रही । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में मौजूद लेखकों में भी उनको सुनने का कौतूहल देखने को मिल रहा था । अमूमन सभी लेखकों का कहना था कि संघ के विचारों को सुने बिना खारिज किया जाना उचित नहीं है ।
दरअसल अगर हम देखें तो भारत में संवाद की परंपरा रही है, वाद विवाद की नहीं । आजादी के बाद से एक खास तरीके से ऑर्ग्यूमेंट यानि बहस की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाने लगा । किसी प्रकार की बहस या वाद विवाद से तबतक कुछ हासिल नहीं होता जबतक संवाद ना हो । वाद विवाद या बहस की इसी संस्कृति को सत्ता के साथ लंबे समय तक चिपकी एक विचारधारा ने अपनाया । सत्ता की परजीवी इस विचारधारा ने समान विचार वाले लोगों से ही बहस की, ऐसा माहौल बनाया गया कि समाज में बौद्धिक विमर्श अपने चरम पर है लेकिन उससे कहीं कुछ असाधारण हासिल हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं है । बल्कि चिंतन की जो हमारी थाती थी उसपर भी आयातित बौद्धिकता लाद कर उसके विस्तार को अवरुद्ध किया गया । पाणिनी ने जो अष्टाध्ययी की रचना की और उसको एक वैज्ञानिक आधार दिया उसको भी धीरे-धीरे भुला दिया गया । संसार की सबसे वैज्ञानिक भाषाओं में से एक संस्कृत को पवित्रता के दायरे में बांधकर उसको पूजा पाठ की भाषा घोषित कर उसका गला घोंट दिया गया । मशहूर डच भाषाविज्ञानी और दार्शनिक फ्रिट्स स्टाल ने पाणिनी के मूल सिद्धांतों की तुलना यूक्लिड के ज्यामिती के सिद्धांतों से की है और कहा है कि जिस तरह से यूक्लिड ने ज्यामिती के सिद्धांतों को पूरे यूरोप में स्थापित किया उसी तरह से पाणिनी ने भारतीय ज्ञान परंपरा को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया । पहले विदेशी आक्रमणकारियों की वजह से इस परंपरा को नुकसान पहुंचा और बाद में वैचारिक आक्रमण ने इसके विकास को बाधित किया ।
भारतीय ज्ञान परंपरा को रोकने के लिए आजादी के बाद ऑर्ग्यूमेंट की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाने लगा । होना यह चाहिए था कि ऑर्ग्यूमेंट की जगह कनवरसेशन यानि विचार विनियमय होता लेकिन अमर्त्य सेन जैसे महान विद्वान ने भी आरग्यूमेंटेटिव इंडियन की अवधारणा को ही आगे बढ़ाया । नतीजा यह हुआ कि विचार विनिमय का दौर रुक गया । बहस वाली विचारधारा के अलावा जो भी विचारधारा थी उसको अस्पृश्य माना जाने लगा । उनसे संवाद तक रोक दिया गया । नतीजा, दशकों तक एक विचारधारा का एकाधिकार और जहां एकाधिकार होता है वहां अधिनायकवाद का जन्म होता है । इसी वाद के चलते पिछले नौ साल तक जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में संघ से सीधे तौर पर जुड़े किसी विचारक या प्रचारक को वहां आमंत्रित नहीं किया गया । बगैर संघ के विचारों को सुने, बगैर उनसे संवाद किए उस विचारधारा को खारिज किया जाता रहा । जिस तरह से किसी प्रोडक्ट की एक लाइफ साइकिल होती है उसी तरह से विचारधारा भी उपर नीचे होती रहती है । वामपंथी विचारधारा के अंतर्विरोधों और मार्क्स के अनुयायियों के विचार और व्यवहार में अंतर ने उसको कमजोर किया तो लोग वैकल्पिक विचारधारा की ओर बढ़े । उसको जानने की कोशिश की जाने लगी और उसी कोशिश का नतीजा है मनमोहन वैद्य और दत्तात्रेय होसबोले का जयपुर लिटरेचपर फेस्टिवल में जाना । उनको विचारों को सुना गया अब उसके बाद अगर उसपर विचार विनिमय हो और विचारों की आवाजाही हो तो अस्पृश्यता की दीवार टूटेगी और यह स्थिति लोकतंत्र को मजबूत करने में सहायक होगी । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल साहित्यक और वैचारिक विमर्श का मंच है और जब उसमें सभी विचारधारा के लोगों को समान मौका मिलेगा तो उसकी साख भी बढ़ेगी ।

जिस तरह से आयोजकों ने पुरस्कार वापसी समूह को इस बार निमंत्रित नहीं करके उनको अपनी राजनीति चमकाने का मौका नहीं दिया उसी तरह से उनको तस्लीमा नसरीन के विरोध को भी दरकिनार करना होगा । तस्लीमा का विरोध कर रहे चंद मुस्लिम संगठनों के दबाव में आकर अगर उनको बोलेने ता मंच नीं देने का फैसला वापस नहीं होता है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा । तस्मीमा के विरोध और जयपुर लिट फेस्ट के आयोजकों की उनको भविष्य में नहीं बुलाने के आश्वासन पर भी हमारे बौद्धिक समाज में किसी तरह का कोई स्पंदन नहीं हुआ । यह भी एक किस्म की बौद्धिक बेइमानी है जब अभिव्यक्ति की आजादी पर चुनिंदा तरीके से अपनी प्रतिक्रिया देते हैं । जब बौद्धिक समाज या कोई विचारधारा अपने आंकलन में पक्षपात करने लगता है तब यह मान लेना चाहिए कि उसका संक्रमण काल है और वाम विचारधारा के अनुयायी करीब करीब हमेशा इस तरह का ही प्रतिक्रिया प्रदर्शन करते हैं ।  

Tuesday, January 24, 2017

बजट का बेवजह विरोध

लोकतंत्र में विपक्ष की रचनात्मक भूमिका की परिकल्पना की गई थी । भारत के संविधान में विपक्ष को यह अधिकार दिया गया है कि वो सरकार के कामकाज पर नजर रखे और अगर सरकार निरंकुशता की ओर कदम बढ़ाए तो उसपर अंकुश लगाने के लिए वो विरोध आदि करे जिससे कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया मजबूती से कायम रह सके । इस अधिकार को देते वक्त विपक्ष से कुछ जिम्मेदारी की भी अपेक्षा की गई थी । संविधान में सारी चीजें लिखी नहीं होती हैं, कुछ परंपराएं भी कानून का आधार बनती हैं । सिर्फ विरोध के लिए विरोध या सरकार के हर कदम का विरोध करते रहने से विपक्ष की साख पर असर पड़ता है और धीरे-धीरे लोग इस तरह के कदमों से ऊबने लगते हैं । अभी जिस तरह से पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर विपक्ष ने केंद्र सरकार के आम बजट को रोकने के लिए कार्य किया वह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक गैरजरूरी कदम है । पहले तो विपक्ष ने चुनाव आयोग में अर्जी दी और मांग की विधानसभा चुनावों के मद्देनजर एक फरवरी को पेश होनेवाले केंद्रीय बजट को टाल दिया जाए । सरकार ने इसका विरोध किया और तर्क दिया कि इससे राज्यों के चुनाव पर असर नहीं पड़ेगा । इस बीच एक याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर सरकार को बजट पेश करने से रोकने का निर्देश देने की मांग की । बजट को लेकर एक तरफ चुनाव आयोग तो दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट में मामला था । सोमवार को सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता की बजट पर रोक लगाने की मांग को खारिज कर दिया । जिरह के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह ने टिप्पणी की उससे भी जाहिर था कि ये मांग बेजा थी । सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस खेहर की अध्यक्षतावाली तीन जजों की बेंच ने इस मामले की सुनवाई की और याचिकाकर्ता की मांग को कानून सम्मत नहीं पाया । सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक बजट से चुनाव की आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन होता नहीं दिख रहा है । याचिकाकर्ता की दलील थी कि बजट की घोषणाओं से पांच राज्यों के चुनाव में मतदाताओं पर असर पड़ सकता है । याचिकाकर्ता से सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वो एक भी ऐसा उदाहरण पेश करें जिससे ये साबित हो कि केंद्रीय बजट से मतदाताओं पर प्रभाव पड़ता है या वोटरों को रिझाया जा सकता है । कोर्ट ने तो याचिकाकर्ता से यहां तक पूछा कि वो पिछले बजट से एक उदाहरण निकालकर ये बताएं कि वो राज्यों के मतदाताओं पर प्रभाव डाल सकते हैं । जब याचिकाकर्ता कोई ठोस दलील पेश नहीं कर पाए तो कोर्ट ने टिप्पणी कि इस देश में सालों भर चुनाव चलते रहते हैं और अगर राज्यों के चुनाव को आधार मान लिया जाए तो फिर तो केंद्र सरकार कभी बजट पेश ही नहीं कर पाएगी । बजट पेश करने से रोकने की याचिका को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि वो केंद्र सरकार के एक फरवरी को बजट पेश करने के फैसले में दखल नहीं डालेंगे । कोर्ट से याचिका खारिज होने के बाद यह साफ हो गया था कि अब चुनाव आयोग भी बजट रोकने के बारे में कोई फैसला शायद ही दे । अब अगर विपक्ष सचमुच संजीदा है तो उसको प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आमचुनाव और विधानसभाओं के चुनाव साथ कराने के प्रस्ताव पर विचार करना चाहिए और इसपर अपना स्पष्ट मत प्रकट करना चाहिए । अगर दोनों चुनाव साथ हो जाएं तो इस तरह के मामलों से भी छुटकारा मिल जाएगा ।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद सोमवार को ही देर शाम चुनाव आयोग ने भी विपक्ष की बजट रोकने की मांग को ठुकरा दिया । चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को दो शर्तों के साथ एक फरवरी को बजट पेश करने का रास्ता साफ कर दिया । चुनाव आयोग ने कहा कि वित्त मंत्री अपने बजट भाषण में उत्तर प्रदेश, गोवा, पंजाब, उत्तराखंड और मणिपुर के लिए अलग से कोई विशेष ऐलान नहीं करें । दूसरी शर्त ये रखी गई है कि वित्त मंत्री अपने बजट भाषण में अलग से चुनाव वाले पांच राज्यों में केंद्र सरकार की स्कीमों की उपलब्धियों का बखान ना करें । इसके अलावा चुनाव आयोग ने चुनाव वाले राज्यों में पूर्ण हजट की बजाए जरूरत पड़ने पर लेखानुदान पेश और पास करने की इजाजत दे दी । दरअसल जनवरी के पहले हफ्ते में कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद की अगुवाई में चुनाव आयोग से मांग की थी कि वो आदर्श चुनाव संहिता को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार को एक फरवरी को बजट पेश नहीं करने का आदेश दे । कांग्रेस ने यह आशंका जताई थी कि विधानसभा चुनाव के चंद दिनों पहले पेश किए जानेवाले बजट में केंद्र सरकार वोटरों को लुभाने के लिए कई तरह की घोषणाएं कर सकती हैं । कांग्रेस के नेताओं ने विरोध करते वक्त संविधान को भी नजरअंदाज किया ।  हमारे देश के संविधान में समवर्ती सूची में राज्य और केंद्र सरकार के अधिकारों के बारे में साफ तौर पर दिशा निर्देश दिए गए हैं । वहां इसके बारे में विस्तार से चर्चा है । विपक्ष को यह समझना चाहिए कि केंद्र का बजट पूरे देश के लिए होता है ना कि किसी राज्य विशेष के लिए । इस बात को सुप्रीम कोर्ट ने समझा और उसी हिसाब से अपना फैसला सुनाया ।   

Saturday, January 21, 2017

पीढ़ियों के विस्थापन के संकेत !

हाल ही में खत्म हुए दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले को पाठकों की बढ़ती संख्या, नोटबंदी के दौरान मुद्रा की कमी के बावजूद बेहतर बिक्री और युवाओं की बढ़ती भागीदारी के लिए तो याद किया ही जाएगा लेकिन एक और साहित्यक घटना हुई जिसको भी रेखांकित किया जाना आवश्यक है । इस बार के पुस्तक मेले में वरिष्ठतम और उस पीढ़ी के बाद की पीढ़ी के लेखकों की धमक भी कम महसूस की गई । पहले तो यह होता था कि नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र यादव, निर्मला जैन जैसी वरिष्ठतम पीढ़ी की लेखिकाओं को लेकर पुस्तक मेले के हिंदी मंडप में खासा उत्साह रहता था । हर लेखक चाहता था कि उनकी किताब का विमोचन इन्हीं महानुभावों के करकमलों से संपन्न हो । याद आता है  वो दौर जब नामवर सिंह को एक पुस्तक मेले के दौरान राजेन्द्र जी विमोचनाचार्य ही कहते रहे थे । उस दौर में हर लेखक की इच्छा होती थी कि वो नामवर सिंह जी से अपनी किताब का लोकार्पण करवाए और किताब पर उनके दो शब्द लेखक के लिए अमूल्य थाती की तरह होते थे । नामवर जी के बाद राजेन्द्र यादव और अशोक वाजपेयी लेखकों की पसंद हुआ करते थे । पुस्तक मेले का अतीत इस बात का गवाह है कि इन लोगों ने एक एक दिन में दर्जनों किताबों का मेलार्पण किया था । नामवर सिंह तो कई किताबों का विमोचन एक साथ कर देते थे और अपनी विद्धवता की वजह से सारी किताबों पर एक साथ बोल भी जाते थे । कहानीकारों में राजेन्द्र यादव को लेकर एक खास किस्म का उत्साह देखने को मिलता था । दावे के साथ तो यह नहीं कही जा सकता है कि उनके द्वारा संपादिक पत्रिका हंस की वजह से वो लेखकों की पसंद थे या कोई अन्य वजह, लेकिन वो थोक के भाव से लोकार्पण करते थे ।  इन दोनों के अलावा अशोक वाजपेयी से सत्ताशीर्वाद की आकांक्षा रखनेवालों से लेकर एक खास समूह के लेखक उनसे अपनी किताबों का विमोचन करवाते थे । रवीन्द्र कालिया जी के दिल्ली आने के बाद वो भी विमोचनों में नजर आने लगे थे ।
लेकिन हाल ही में संपन्न हुए पुस्तक मेले में यह पीढ़ी लगभग समारोहों से दूर ही नजर आई । नामवर जी ने भले ही पुरानी नई कविता पुस्तकों के सेट का विमोचन किया, इसके अलावा भी एक दिन दो चार किताबों के विमोचन उन्होंने किया लेकिन पुस्तक मेले में एक ही प्रकाशक के स्टॉल पर । मेले में उनको लेकर एक खास किस्म की उदासीनता भी देखने को मिली । यह बात भी थी कि वो अपनी बढ़ती उम्र और स्वास्थय की वजहों से ज्यादा विमोचन नहीं कर पाए । यादव जी और कालिया जी अब रहे नहीं । बचते हैं अशोक वाजपेयी तो उनको लेकर मेले में कोई खास उत्साह देखने को नहीं मिला । लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर इन लोगों ने विमोचन नहीं किया तो फिर किताबें इतनी भारी संख्या में जारी कैसे हुईं और फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया साइट्स इस तरह के समारोहों की तस्वीरों से भरे कैसे । यहां यही रेखांकित करने की जरूरत है कि इस मेले में नई पीढ़ी ने अपनी ही पीढ़ी के लेखकों से अपनी किताबों का विमोचन करवा लिया और उसपर चर्चा भी करवा ली । मैत्रेयी पुष्पा और चित्रा मुद्गल मे करीब दर्जन भर किताबों का विमोचन किया होगा लेकिन युवा लेखकों ने अपने साथियों के साथ सैकड़ों किताबों का विमोचन किया । क्या इसको पीढ़ी के विस्थापन के तौर पर देखा जाना चाहिए । क्या अब नई पीढ़ी ने एलान कर दिया कि पुरानी पीढ़ी का सम्मान है लेकिन वो अपनी किताबें के लिए उनका मुंह नहीं जोहेगी । यह हर दौर में होता रहा है है लेकिन हिंदी में इस बार बहुत दिनों बाद हुआ । यह सिर्फ विमोचन के स्तर पर नहीं हुआ रचनात्मक स्तर पर नई पीढ़ी ने पुरानी पीढ़ी को विस्थापित कर दिया । पुरानी पीढ़ी की जितनी किताबें छपी उनसे कहीं ज्यादा नई पीढ़ी के लेखकों की किताबें छपीं। इसपर पहले भी विचार किया जा चुका है नई पीढ़ी के लेखकों की किताबें छपने में किस तरह के जुगाड़ लगाए गए थे । पर छपे तो ।
यही हाल कविता को लेकर भी देखने को मिला । इस बात को रेखांकित किया जाना आवश्यक है कि हिंदी के स्थापित कवियों के संग्रह मेले के दौरान प्रकाशित नहीं हुए । जैसा कि उपर कहा चुका है नामवर जी ने कई कवियों के संग्रहों का विमोचन किया लेकिन वो ज्यादातर पुराने संगहों के नए संस्करण थे । मेले के दौरान हलाला जैसा उपन्यास लिखनेवाले भगवानदास मोरवाल ने एक ल्कुल नई पहल की । उन्होंने अपनी टीम से मेले के दौरान करीब चार पांच दिनों तक एक सर्वे करवाया था दिसके नतीजों की सूचना वो फेसबुक पर साझा करते थे । मोरवाल जी द्वारा करवाए गए सर्वे के मुताबिक - मेले से हिंदी कविता लगभग पूरी तरह अनुपस्थित है. प्रकाशकों के स्टाल्स पर एक के बाद एक ,कहानी संग्रह और उपन्यासों के लोकार्पण और उन पर चर्चा कराई जा रही है ,या हो रही है वहां कविता एक तरह से उपेक्षित-सी रही है. हिंदी के बड़े कवि कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेय, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल , लीलाधर जगूड़ी, उदय प्रकाश,कृष्ण कल्पित , अनामिका, सविता सिंह , नरेश सक्सेना , लीलाधर मंडलोई, मदन कश्यप का कोई कविता संग्रह मेले में नहीं आया । इसके अलावा भी संजय कुंदन, पवन करन, संजय चतुर्वेदी, कात्यायनी , अनीता वर्मा जैसे उनके बाद की पीढ़ी के कवियों के संग्रह भी प्रकाशित नहीं हुए । इस सर्वे के मुताबिक लगभग यही स्थिति फेसबुक से उपजे युवा कवि-कवयित्रियों की भी रही। चर्चा हुई भी होगी तो उस तरह नहीं जिस तरह मंचीय कवियों और ग़ज़लों के नाम पर लोकप्रिय शायरी को प्रोत्साहित किया जा रहा है । अगर इस सर्वे के नतीजों को सही माना जाए तो कविता के लिए ये स्थिति उत्साहजनक तो नहीं ही कही जाएगी । कविता एक ऐसी विधा है जो साहित्य को हमेशा से नये आयाम देती रही है अगर उसपर किसी तरह की आंच आती है तो यह गंभीर बात होगी । हिंदी के कवियों को इस पर विचार करने की जरूरत है कि क्या वजह है कि प्रकाशन जगत के इस सबसे बड़े आयोजन में स्थापित कवियों की अनुपस्थिति दर्ज की गई । क्या पुराने कवि अपने समय से पिछड़ गए उसको पकड़ नहीं पा रहे हैं । दूसरी बात ये भी देखने को मिली कि छोटे छोटे कई प्रकाशकों की सूची के नए प्रकाशनों में कविता संग्रहों को अच्छी खासी जगह मिली हुई है । संभव है कि ये प्रकाशन जगत की नई इकोनॉमी की वजह से हो । मोरवाल जी द्वारा कराए गए सर्वे के आधार पर इस बात पर तो विचार किया ही जा सकता है कि क्या ये नतीजा भी पीढियों के विस्थापन का संकेत दे रहा है ।
हिंदी साहित्य में युवा पीढ़ी को लेकर बहुत शोर मचा था अब भी मच रहा है । युवा लेखन को लेकर भी कई तरह की बातें होती रहती हैं । कई लेखक तो युवा लेखन को उम्र के खांचे में बांटने का विरोध करते हैं और उनका कहना है कि लेखन का युवा होना जरूरी है लेखक का नहीं । इस तर्क के आदार पर ही हिंदी में पचास के करीब के लेखक या उसके पार के लेखक भी अबतक युवा ही माने जा रहे हैं । युवा उत्सवों और समारोहों में आमंत्रित भी किए जा रहे हैं। बावजूद इसके इस पीढ़ी के सामने एक तरीके के पहचान का संकट था । समारोहों से लेकर फेसबुक आदि पर यह पीढ़ी लाख घोषणा करे कि उनको किसी से किसी तरह के समर्थन आदि की दरकार नहीं है । आलोचकों की जरूरत नहीं है लेकिन उनके मन के कोने अंतरे में कहीं यह बात गहरे धंसी है कि उनकी पीढ़ी के लेखन को ढंग से रेखांकित नहीं किया जा रहा है । हमारा मानना है कि पुस्तक मेले में जिस तरह के वरिष्ठतम पीढ़ी के विस्थापन देखने को मिला वह इस पीढ़ी के लेखकों का गुस्सा भी हो सकता है । उनके मन में इस तरह की बात तो बैठती ही जा रही है कि पुरानी पीढ़ी के लेखक उनके लेखन पर गंभीरता से लिखते/ बोलते नहीं हैं । संभव है कि पुस्तक मेले में उनके इसी गुस्से का प्रकटीकरण देखने को मिला हो । अब जब एक तरीके से पीढ़ियों का विस्थापन के संकेत मिलने शुरू हो गए हैं तब यह देखना और दिलचस्प होगा कि कथित तौर पर युवा पीढ़ी के लेखक आगे भी इनसे आशीर्वाद लेने के लिए पंक्तिबद्ध या करबद्ध होते हैं या नहीं ।अगर अपनी रचनाओं के लिए ये अब भी वरिठतम पीढ़ी से प्रमाणपत्र की अपेक्षा रखते हैं तो फिर मेले में जो उपेक्षाभाव दिखा था वह अस्थायी माना जाएगा और हो सकता है कि यह भी मान लिया जाए कि वो पीढ़ियों का विस्थापन ना होकर अपना क्षोभ प्रकट करने का एक तरीका था ।


विरासत को लेकर साहित्यक संघर्ष

हिंदी साहित्य में आमतौर पर यह माना जाता है कि दस साल में लेखकों की एक नई पीढ़ी सामने आ जाती है । लेखकों की जो नई पीढ़ी सामने आती है वो अपने से पुरानी पीढ़ी के लेखन का अपनी रचनात्मकता से विस्तार करती है । नई और पुरानी पीढ़ी का द्वंद भी हर दौर में देखने को मिलता रहा है । नई पीढ़ी खुद को परंपरा या विरासत के डंडे से हांके जाने को लेकर विरोध भी प्रकट करती रही है कभी उग्र होकर तो कभी शांति से विरोध करके तो कभी अपनी रचनाओं से पुरानी पीढ़ी से लंबी लकीर खींचकर । इस परिपाटी का निर्वाह कमोबेश हर युग में हुआ है लेकिन समकालीन साहित्यक परिदृश्य में एक अलग ही किस्म की रस्साकशी देखने को मिल रही है । युवावस्था की दहलीज को पार चुकी पीढ़ी खुद को परंपरा और विरासत के नाम पर हांके जाने के खिलाफ तो नजर आती है लेकिन उसको अपने से पुरानी पीढ़ी को रचनात्मकता के नाम पर नकारने की बेचैनी नहीं दिखाई देती है । जबकि अबतक तो यही होता आया है कि अपेक्षाकृत नई पीढ़ी अपने से पहले वाली पीढ़ी को रचनात्मक स्तर पर चुनौती देती रही है । चाहे वो नई कहानी का दौर रहा हो या या फिर बीटनिक पीढ़ी का किसी भी अन्य पीढ़ी को देखें तो यह साफ तौर पर नजर आती है । अगर हम भारतेन्दु युग से लेकर अबतक के परिदृश्य पर नजर डालें तो लगभग इसीतरह की प्रवृत्ति को रेखांकित किया जा सकता है । तो अब क्यों कर ऐसा हो रहा है कि रचनात्मक स्तर पर अपेक्षित यह पीढ़ियों का संघर्ष एक अलग ही रूप लेता जा रहा है । रचनाओं के माध्यम से होनेवाले संघर्ष की बजाए यह व्यक्तिगत संघर्ष में तब्दील हो गया है जो साहित्यक माहौल में एक अलग ही किस्म की कटुता के वातावरण का निर्माण कर रहा हो जो चिंता का विषय है ।   
साहित्य की इस प्रवृत्ति पर विचार करने की आवश्यकता है । दस साल में अगर पीढ़ियों के बदल जाने या नई पीढ़ी के साहित्यक परिदृश्य पर आगमन के सिद्धांत को मानें तो इस वक्त हिंदी साहित्य में करीब आठ पीढ़ियां सक्रिय हैं । नामवर सिंह और रामदरश मिश्र जैसे नब्बे पार लेखकों से लेकर सुजाता और श्रद्धा थवाइत तक । इसको हम हिंदी की रचनात्मकता की ताकत मान सकते हैं । तो फिर इसकी क्या वजह है कि बीच की एक पीढ़ी अपनी मौजूदगी को लेकर या साहित्यक परिदृश्य में अपनी उपस्थिति को लेकर इतनी संवेदनशील हो रही है । उसको अपने से वरिष्ठ पीढ़ी से अपने लेखन की वैधता पर मोहर क्यों चाहिए । उसके अंदर इतनी बेचैनी क्यों हैं । क्यों नहीं उस पीढ़ी के लेखकों/ लेखिकाओं को अपने लेखन पर भरोसा है। अगर हम संजीदगी से इसपर विचार करते हैं तो यह लगता है कि यह मामला इतना सरल नहीं है और इसको इस तरह से देखने पर यह समस्या के विश्लेषण का सरलीकरण हो सकता है । बीच की पीढ़ी के लेखकों के बीच अपनी रचनाओं की मान्यता को लेकर जो बेचैनी दिखाई देती है दरअसल वो इस वजह से है कि उस पीढ़ी के पास अपना कोई आलोचक नहीं है । आज के दौर के ज्यादातर लेखक आलोचकों को नकारने में लगे रहते हैं । बहुधा मुक्तिबोध की पंक्ति तोड़ने ही होंगे सारे गढ़ और मठ को नारे की तरह इस्तेमाल करते हुए । आलोचकों को नकराने की यह प्रवृति इन दिनों ज्यादा बढ़ गई है ।

आलोचना की अपनी दिक्कतें हैं, वो सतही हो गई है, उसमें पूर्वग्रह ज्यादा दिखाई देता है आदि आदि । बावजूद इसके साहित्य में इस विधा की अपनी एक अहमियत है जिसको नकारने की ना तो आवश्यकता है और ना ही गढ़ और मठ तोड़ने की नारेबाजी की । आलोचना की गलत प्रवृत्तियों पर रचनात्मक तरीके बात होनी चाहिए । वैसे भी हिंदी आलोचना के इतने बुरे दिन नहीं आए हैं कि उसको रचनाकारों से किसी भी तरह के प्रमाण-पत्र की आवश्यकता हो । बावजूद इसके आलोचना के खिलाफ जिस तरह का माहौल बनाया जा रहा है वह साहित्य की हर विधा के लिए नुकसानदेह हो सकती है । जो पीढ़ी इन दिनों अपने से पुरानी पीढ़ी से विरासत और वसीयत की मांग कर रही है अगर उस पीढ़ी के लेखकों की रचनाओं पर गंभीरता से विचार होता तो यह दिक्कत नहीं आती । सालों से लिख रहे लेखकों/लेखिकाओं के रचनाकर्म पर गंभीरता से विचार करनेवाला कोई आलोचक सामने नहीं आ रहा है । जो खुद के आलोचक होने का दावा करते हैं वो उतनी तैयारी के साथ इस कर्म में नहीं उतरते हैं । आलोचना के लिए जिस अध्ययन की आवश्यकता होती है या फिर जिस तरह से वैश्विक प्रवृत्तियों के बरक्श देसी रचनाओं को रखकर तुलनात्मक विश्लेषण की आवश्यकता होती है उसका सर्वथा अभाव दिखता है । जिन लोगों के सर पर युवा आलोचक की कलगी लगाई जा रही है उनके लेखन को देखकर भी निराशा होती है । या तो वो मार्क्सवाद के भोथरे औजारों से आलोचना करने में लगे हैं या फिर अलग अलग लेखकों से समीक्षानुमा टिप्पणी लिखवाकर किताब का संपादन कर आलोचक बने बैठे हैं । मामला यहीं तक नहीं रुकता है । कई बार आलोचनात्मक लेखों को पढ़ने के बाद मन में यह सवाल उठता है कि आलोचक की राय क्या है । होता यह है कि वो लिखना शुरू करते ही उद्धरण देना शुरू कर देते हैं । नेम ड्रापिंग कर कर के अपने लेख को वजनदार बनाने के चक्कर में उनका खुद का कोई मत सामने आ नहीं पाता है । इसका सबसे ज्यादा नुकसान उस लेखक का होता है जिसकी रचनाओं पर उस लेख में विचार किया जाता है । ना तो रचना पर बात हो पाती है ना ही रचना के क्राफ्ट आदि पर । अगर कोई आलोचक सामने आकर उक्त पीढ़ी की लेखिकाओं/ लेखकों पर गंभीरता से विचार करेगा तो पीढ़ीगत संघर्ष दिखाई नहीं देगी । इसके अलावा उस पीढ़ी को यह भी करना होगा कि वो अपनी बी पीढ़ी के साथी लेखकों की रचनाओं पर लिखना शुरू करे । इसका एक फायदा ये होगा कि उनकी रचनाओं पर बात शुरू हो जाएगी । राजेन्द्र यादव, कमलेश्नर और मोहन राकेश की त्रयी ने भी ये किया था जिसका उनके लेखन को कितना फायदा हुआ ये तो इतिहास में दर्ज है । अपने साथी लेखकों की रचनाओं को खारिज करने की बजाए वो उसपर विमर्श की शुरुआत करें, कटुता भी घटेगी और स्वीकार्यता भी बढ़ेगी ।  ।    

स्वायत्ता से कैसा समझौता ?

नोटबंदी के मुद्दे पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्वयत्ता को लेकर इन दिनों खूब सवाल उठ रहे हैं । रिजर्व बैंक के कुछ पूर्व गवर्नर, नोबेल सम्मान से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन आदि रिजर्व बैंक की स्वायत्ता और उसकी आजादी को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं । इनका कहना है कि विमुद्रीकरण के दौरान सरकार ने रिजर्व बैंक के कामकाज में दखल दिया और सरकार के कहने पर ही बैंक के बोर्ड ने छियासी फीसदी करेंसी को रद्द करने का फैसला लिया । इस तरह से केंद्र की मोदी सरकार ने केंद्रीय बैंक के कामकाज में या फैसलों में दखल दिया या उनको प्रभावित किया। नोटबंदी से लेकर अबतक इस फैसले के पक्ष और विपक्ष में तमाम तरह के आरोप लगते ही रहे हैं । तर्क वितर्क और कुतर्क भी देखने को मिले । सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नरों के आरोपों पर कोई सफाई नहीं दी । जब रिजर्व बैंक के चार कर्मचारी संघों ने अपनी आपत्ति दर्ज करवाई तो सरकार हरकत में आई । नोटबंदी के दौरान नए करेंसी के संयोजन के लिए वित्त मंत्रालय के संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी को रिजर्व बैंक में तैनाती पर आपत्ति जताते हुए बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल को खत लिखकर कर्मचारी संघों ने स्वायत्ता से समझौता नहीं करने का अनुरोध किया तो सरकार ने फौरन अपनी प्रतिक्रिया दी । वित्त मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा कि सरकार रिजर्व बैंक की आजादी और स्वायत्ता का सम्मान करती है। सरकार के इस बयान के बाद रिजर्व बैंक की स्वायत्ता को लेकर बहस और तेज हो गई । रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर वाई वी रेड्डी और विमल जालान को भी नोटबंदी के पहले रिजर्व बैंक के बोर्ड को सरकार की सलाह में स्वायत्ता का हनन नजर आया । दोनों ने इस मसले पर अपनी आपत्ति दर्ज करवाई । दरअसल अगर हम देखें तो रिजर्व बैंक की स्वायत्ता को लेकर यह बहस नई नहीं है या इसके पहले की केंद्र सरकारो पर इस तरह के आरोप लगते रहे हैं । रिजर्व बैंक की स्वायत्ता की बहस बहुत पुरानी है और अमूमन हर गवर्नर के कार्यकाल में अलग अलग मुद्दों पर इस तरह की बहस होती रहती है । कभी नियुक्ति को लेकर तो कभी कर्ज की दरों को लेकर ।
यह बात तय है कि रिजर्व बैंक बोर्ड सरकार की सलाह पर काम करता रहा है । इस संबंध में एक घटना का उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है । मनमोहन सिंह जब देश के वित्त मंत्री थे आर्थिक सुधार का दौर शुरू हो रहा था तब उन्होंने एक जुलाई उन्नीस सौ इक्यानवे को रुपए का करीब सात से लेकर नौ फीसदी तक अलमूल्यन किया था । विश्व की अन्य करेंसी के मुकाबले रुपए के इतने कम अवमूल्यन से मनमोहन सिंह संतुष्ट नहीं थे । वो करीब बीस फीसदी तक का अवमूल्यन करना चाहते थे । लिहाजा पहले फैसले के एलान के एक दिन बाद ही उन्होंने तीन जुलाई को रुपए के और ज्यादा अवमूल्यन करने का फैसला ले लिया था । एक जुलाई के फैसले को लेकर ही उस वक्त के प्रधानमंत्री नरसिंह राव पर राजनीतिक दबाव बढ़ रहा था । मनमोहन सिंह उनको दूसरे अवमूल्यन की जानकारी दे चुके थे । बढ़ते राजनीतिक दबाव के मद्देनजर राव को लगा कि अब और अवमूल्यन नहीं होना चाहिए तो उन्होंने तीन जुलाई उन्नीस सा इक्यानवे की सुबह मनमोहन सिंह को फोन करके दूसरे अवमूल्यन को रोकने का आदेश दिया । मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री राव को कहा कि वो रिजर्व बैंक से चेक करके बताते हैं । तबतक देर हो चुकी थी । जब मनमोहन सिंह ने उस वक्त के रिजर्व बैंक के गवर्नर सी रंगराजन को फोन किया और फैसले को रोकने को कहा तो रंगराजन ने उनको बताया कि अवमूल्यन का एलान कर दिया गया है । मनमोबन सिंह ने पलटकर प्रदानमंऊ राव को फोन किया फैसले को रोकने में असमर्थता जताते हुए अपने इस्तीफे की पेशकश की जिसे नरसिंह राव ने ठुकरा दिया था। इस प्रसंग का उल्लेख इस वजह से किया गया ताकि रिजर्व बैंक के क्रियाकलापों के बारे में जो भ्रम है उसको दूर किया जा सके । सरकारें समय समय पर रिजर्व बैंक को निर्देशित करती रहती हैं क्योंकि एक्ट की दो धाराओं में इसका प्रावधान है । रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया एक्ट 1934 की धारा 7 के मुताबिक केंद्र सरकार समय समय पर रिजर्व बैंक के गवर्नर से सलाह मशविरे के बाद बैंक के बोर्ड को लोकहित में निर्देश या सलाह दे सकती है । लिहाजा विमुद्रीकरण के सरकार की सलाह में कुछ गलत प्रतीत नहीं होता है । इसके अलावा भी अगर देखें तो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया एक्ट 1934 की धारा 26(2) के मुताबिक अगर रिजर्व बैंक बोर्ड सरकार को किसी भी करेंसी को रद्द करने का प्रस्ताव देती है तो सरकार इसके गजट नोटिफिकेशन के बाद लागू कर सकती है । लिहाजा पांच सौ और हजार रुपए की करंसी को बंद करने का फैसला कानून सम्मत था और लगता नहीं है कि इस मसले में रिजर्व बैंक की स्वायत्ता से किसी तरह का समझौता किया गया है । सरकार और रिजर्व बैंक के बीच तनातनी निजी बैंक आईसीआईसीआई में विदेशी निवेश को लेकर देखने को मिली थी । वित्त मंत्री चिदंबरम से लेकर प्रणब मुखर्जी तक के कार्यकाल में अलग अलग मुद्दों पर रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय में मतभेद देखने को मिले हैं । तब भी स्वायत्ता की ये बहस चली थी जो समय के साथ-साथ धीरे धीरे खत्म हो गई ।
दरअसल अगर हम इस पूरे मसले को देखें तो रिजर्व बैंक एक्ट के दो शब्द को लेकर विवाद है वो शब्द है पब्लिक इंटरेस्ट यानि जनहित। कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि नोटबंदी का फैसला जनहित में नहीं था लिहाजा रिजर्व बैंक को सरकार के इस कदम का विरोध करना चाहिए था । चूंकि रिजर्व बैंक ने सरकार के इस कदम का किसी तरह का प्रतिवाद नहीं किया इस वजह से माना जा रहा है कि रिजर्व बैंक ने अपनी स्वायत्ता के साथ समझौता कर लिया है । यह भी हो सकता है कि रिजर्व बैंक को सरकार के नोटबंदी के कदम में जनता का हित नजर आ रहा हो । दरअसल इस पूरे मसले पर रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल का नेपथ्य में रहकर काम करने को लेकर भी भ्रम की स्थिति बनी । फैसलों का एलान इस तरह से हो रहा था कि लग रहा था कि फैसले भी सरकार ले रही है और उसका एलान भी सरकार ही कर रही है । उर्जित पटेल का नेपथ्य में रहना और वित्त मंत्रालय में सचिव शक्तिकांत दास के फ्रंटफुट पर रहने की वजह से इस तरह का भ्रम फैला । रिजर्व बैंक पर लगातार नियमों में बदलाव को लेकर भी सरकार के दबाव में काम करने का आरोप लगा लेकिन रिजर्व बैंक एक्ट ही जनहित की बात करता है तो जो भी फैसले बदले गए या उनमें संशोधन किया गया वो इसी लोकहित को ध्यान में रखकर किया गया ।
अब फिर से सवाल उठता है कि इतने विवाद के बावजूद नोटबंदी का हासिल आखिर क्या रहा ? एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में जिस तरह से नोटबंदी का फैसला लिया गया क्या उससे आर्थिक सुधार में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिलेगा । इस बारे में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना बहुत जल्दबाजी होगी । नोटबंदी का फैसला ऐसा है जिसके दूरगामी परिणाम होगें और तुरत फुरत किसी फैसले पर पहुंचने की जल्दबाजी से गलती संभव है ।  


Tuesday, January 17, 2017

दिलचस्प किस्सों की दास्तां

कयामत से कयामत तक एक ऐसी फिल्म जिसने अस्सी के दशक के आखिर में बॉलीवुड फिल्मों के लिए टेंड सेटर बना । उस ट्रेंड पर चलकर आगे भी कई फिल्में बनीं । अभी इस फिल्म को केंद्र में रखकर गौतम चिंतामणि ने एक किताब- कयामत से कयामत तक, द फिल्म दैट रिवाइव्ड हिंदी सिनेमा लिखी । इस वक्त जितने भी लोग फिल्मों पर लिख रहे हैं उसमें गौतम चिंतामणि को गंभीरता से लिया जा रहा है । इसके पहले उन्होंने राजेश खन्ना पर भी एक किताब- डार्क स्टार- लिखी थी जिसे पाठकों ने हाथों हाथ लिया था । उसका हिंदी अनुवाद भी बेस्ट सेलर बना । अपनी इस किताब कयामत से कयामत तक में गौतम चिंतामणि ने इस फिल्म के आइडिया लेकर उसके बनने और रिलीज होने तक की कहानी को समेटा है । इस किताब की भूमिका फिल्म के डायरेक्टर मंसूर खान ने लिखी है । इस किताब में लेखक गौतम चिंतामणि ने दो पीढ़ियों की सोच में आ रहे बदलाव को बेहद संजीदगी से पकड़ा और लिखा है । मंसूर खान और उनके पिता नासिर हुसैन के बीच फिल्मों को लेकर जिस तरह से बहसें होती थीं उसको पढ़ते हुए बॉलीवुड के बदलाव को भी पकड़ा जा सकता है । फिल्म के अंत को लेकर दोनों के बीच बहस स्क्रिप्ट, कास्ट और कॉस्टूयम को लेकर मंथन बेहद दिलचस्प है । इन बहसों के साथ गौतम पीढ़ियों में आ रहे बदलाव को तोसामने रखते ही हैं अस्सी के दशक की फिल्मों की पड़ताल भी करते चलते हैं ।
फिल्म में आमिर खान को लीड रोल में लेने का भी दिलचस्प किस्सा है । आमिर खान उस वक्त नासिर हुसैन के असिस्टेंट हुआ करते थे । फिल्म मंजिल-मंजिल पर बात करने के लिए आमिर और नासिर लोनावला के एक रिसॉर्ट में थे । संयोग से वहीं जावेद अख्तर भी रुके थे जो उन दिनों शेखर कपूर और राहुल रवैल के दो प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे । उन्हें पता चला कि नासिर हुसैन भी वहीं हैं तो जावेद उनके कमरे में पहुंच गए । कमरे में आमिर खान को बैठा देखकर जावेद ने पूछा कि ये कौन हैं ? नासिर हुसैन ने जब बताया आमिर उनके असिस्टेंट हैं तो जावेद साहब ने कहा- अरे ! ये असिस्टेंट क्यों है, इसे तो आपका हीरो होना चाहिए । बात आई गई हो गई लेकिन तीन-चार महीने बाद जब एक दिन नासिर साहब ने आमिर को बलाकर कहा कि वो उनके साथ एक फिल्म बनाने का फैसला कर चुके हैं । तो इस तरह से आमिर का कयामत से कयामत तक में पहुंचने का रास्ता बना । बाद में हलांकि आमिर को भी तय प्रक्रिया से गुजरना पड़ा था । इसी तरह से जूही चावला के चुनाव को लेकर भी किस्सा दिलचस्प है । कयामत से कयामत तक फिल्म में संगीत को लेकर मंसूर खान ने अपनी गाड़ी में बैठकर संगीतकार के साथ ट्यून तय किया था । पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा लिखकर जब मजरूह सुल्तानपुरी लाए तो नासिर खुश नहीं हुए । पापा कहते हैं को लेकर नासिर साहब से उसकी गर्मागर्म बहस हुई लेकिन नासिर साहब के कहने से मंसूर  मान गये । पूरी फिल्म में नासिर हुसैन की इतनी ही बात मानी गई, ऐसा लगता है ।   
अंग्रेजी में इस तरह की किताबें को देखकर ये लगता है कि काश हिंदी के लेखक भी फिल्मों पर इतनी ही गंभीरता से किताबें लिखते । हिंदी में हाल के दिनों में फिल्मों पर किताबें लिखने का चलन शुरू हुआ है लेकिन अपेक्षा के मुताबिक लेखन नहीं हो रहा है । अब भी सिनेमा पर गंभीर किताबें अंग्रेजी में ही आती हैं जो चर्चित होने के बाद हिंदी में अनुदित होकर पाठकों तक पहुंचती हैं । 
(8 जनवरी 2016, अमर उजाला)

जायरा वसीम के मसले पर बौद्धिक पाखंड

कश्मीर की सोलह साल की लड़की जायरा वसीम ने फिल्म दंगल में अपनी भूमिका से लोगों का दिल जीत लिया था । गीता फोगट के बचपन का रोल करनेवाली जायरा ने अपने सशक्त अभिनय से ना केवल आमिर खान को प्रभावित किया था बल्कि दर्शकों पर भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी थी । हाल ही में जायरा नसीम जब फिल्म की सफलता के बाद जब अपने घर कश्मीर गईं तो सूबे की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती से मिलीं । शनिवार को मुख्यमंत्री से उनकी मुलाकात की फोटो सोशल मीडिया पर आने के बाद उनको ट्रोल किया जाने लगा । परेशान जायरा वसीम ने सोशल मीडिया पर ही इस मुलाकात को लेकर पोस्ट लिखी और माफी मांगी । उन्होंने लिखा कि हाल ही में उनकी मुलाकात से कुछ लोग खफा हो गए हैं लिहाजा वो माफी मांगती हैं । उन्होंने दो पोस्ट लिखे और दोनों को बाद में डिलीट भी कर दिया । एक पोस्ट में तो उन्होंने यहां तक लिख दिया कि कश्मीरी युवा उनको रोल मॉडल नहीं मानें, सूबे में और भी लोग हैं । जायरा ने यह भी लिखा कि उनकी मंशा किसी को भी ठेस पहुंचाने की नहीं थी । इसके बाद सोशल मीडिया पर उनको घेरा जाने लगा तो उन्होंने एक और पोस्ट लिखी और अनुरोध किया इस मसले को तूल ना दिया जाए लेकिन इसके बाद अपने इस पोस्ट को भी डिलीट कर दिया । दरअसल कश्मीर में पिछले दिनों जिस तरह का बवाल रहा उसके बाद वहां के चंद लोगों ने जायरा को मुख्यमंत्री के बहाने से निशाने पर लिया । किसी ने यह सोचने की कोशिश भी नहीं की कि एक सोलह साल की बच्ची पर क्या गुजरेगी । अभी जिसने अपनी सफलता को ठीक से एंजॉय भी नहीं किया उसपर इस तरह का हमलावर रुख अख्तियार कर कश्मीरी अलगाववादी वहां के युवा को क्या संदेश देना चाहते हैं । जायरा वसीम को जान से मारने तक की धमकी दी गई । इस बच्ची का जुर्म क्या है । क्यों इसको राजनीति का शिकार बनाया जा रहा है । जायरा को जान से मारने की धमकी का मुद्दा जम्मू कश्मीर विधानसभा में भी उठा और आसन ने सरकार को इस मसले पर ध्यान देने का निर्देश दिया । शनिवार से जायरा वसीम के साथ यह सब घटित हो रहा है लेकिन इस बारे में छिटपुट प्रतिक्रिया ही देखने को मिल रही है । सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री इमर अबदुल्ला और लेखक गीतकार जावेद अख्तर ने जरूर ट्वीट कर इस मुद्दे पर जायरा को समर्थन दिया ।

सवाल समर्थन का तो है लेकिन उससे भी बड़ा सवाल है अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों की खामोशी का है। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बुक्का फाड़कर लेक्के रहेंगे आजादी चिल्लानेवाले भी खामोश हैं । उनकी जुबां पर ताला लग गया है । जायरा को कश्मीरी कट्टरपंथियों की तरफ से जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियन खामोश हैं । जायरा वसीम एक कलाकार है और कलाकार को मिल रही धमकियों पर कलाकारों और लेखकों का खामोश रहना चिंता का सबब है । बात-बात पर देश में फासीवाद की आहट सुननेवाले भी जायरा पर जारी शोरगुल को सुन नहीं पा पा हैं । जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच भी तीन दिन बीत जाने के बाद भी इस घटना पर आधिकारिक प्रतिक्रिया देने से बच रहे हैं । ऐसा क्यों होता है इसको जब सूक्ष्मता से विश्लेषित करते हैं तो बौद्धिक पाखंड का बहुत ही वीभत्स और सांप्रदायिक रूप सामने आता है । जायरा को अगर इसी तरह की धमकी किसी अनाम से हिंदू संगठन से मिली होती तो फिर देखते ये लोग किस तरह से आसमान सर पर उठा लेते । पाठकों को याद होगा कि किस तरह से जेएनयू में उमर खालिद के मसले पर बड़े बड़े लेख लिखे गए थे । उस वक्त जिनको भी सामाजिक ताना-बाना टूटता नजर आ रहा था उनको भी जायरा को मिल रही धमकी दिखाई नहीं देती है । यह चुनी हुई चुप्पी देश के लिए तो खतरनाक है ही लोकतंत्र के लिए भी बेहद नुकसानदायक है । जब एक समुदाय यह देखता है कि दूसरे समुदाय के मसले पर अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियन खामोश हो जाते हैं तो एक खास किस्म की प्रतिक्रिया घर करने लगती है जिसका विस्फोट तुरंत नहीं होता है लेकिन लंबे समय तक जब बार बार इस तरह की चुनी हुई चुप्पी देखी जाती है तो विरोध का स्वर मजबूत होने लगता है । ऐसे कई मौके आए जब खुद को गरीबों, शोषितों और वंचितों की मसीहा बताने वाली विचारधारा के पोषक चुनी हुई चुप्पी ओढ़ लेते हैं । पिछले दिनों जब केरल की सरकार ने लेखक कमल चवारा पर देशद्रोह का मुकदमा लगाया तब भी कमोबेश वामपंथी विचारधारा के ध्वजवाहक खामोश रहे । खामोश इस वजह से रहे कि वहां उनकी विचारधारा वाली पार्टी का शासन था, वर्ना अगर किसी अन्य विचारधारा वाली पार्टी का शासन होता तो फिर ये बताते नहीं थकते कि दिल्ली के बाद अब केरल में भी फासीवाद आ पहुंचा है । तमिल लेखक मुरुगन ने जब नहीं लिखने का ऐलान किया था और कहा था कि एक लेखक की मौत हो गई है तब भी देशभर के एक खास विचारधारा के लोगों ने जमकर शोरगुल मचाया था । जब कमल चवारा ने ये ऐलान किया कि अगर उनपर से देशद्रोह का मुकदमा नहीं हटाया गया तो अपनी सारी किताबें जला देंगे तो कहीं कोई स्पंदन तक नहीं हुआ । अब वक्त आ गया है कि देशभर के उन बौद्धिकों को अगर अपनी साख बचानी है तो समान भाव से सवाल खड़े करने होंगे बगैर विचारधारा या धर्म-संप्रदाय पर ध्यान दिए, वर्ना हाशिए पर जा चुके ये लोग इतिहास के बियावान में बिला जाएंगें । 

Monday, January 16, 2017

बाबा के भेष में बहुरूपिया !

इन दिनों खबरिया चैनलों पर साधु की वेशभूषा में एक शख्स कई राजनीतिक दावे कर रहा है । इंदिरा गांधी से नजदीकी और चंद्रशेखर और नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बवनाने में अपनी भूमिका का बखान कर रहा है । वो यहीं तक नहीं रुकता है, उसका दावा है कि उसने सलमान खान को थप्पड़ मारा है और बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक की कई अभिनेत्रियां उसकी शिष्या हैं । ये साधुनुमा शख्सियत है स्वयंभू बाबा ओम, जिसका असली नाम विनोदानंद झा है । ओम पर साइकिल चोरी से लेकर विस्फोटक रखने तक के मामले में टाडा जैसे केस दिल्ली के थानों में दर्ज हैं । फिर क्या वजह है कि एक आरोपी को नेशनल न्यूज चैनलों पर इतनी तवज्जो मिल रही है । दरअसल टीवी सीरियल बिग बॉस में ओम ने जिस तरह का उधम मचाया उसने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा । साधु के वेश में महिला के साथ स्वीमिंग पूल में नहाने से लेकर नागिन डांस करनेवाले बाबा को शर्तों को तोड़ने के आरोप में बिग बॉस के घऱ से बाहर कर दिया गया था । बड़बोले बाबा ने अपने बयानों से न्यूज चैनलों का ध्यान अपनी ओर खींचा । बाबा में टीआरपी की संभावनाएं देखते हुए बड़े बड़े चैनलों के संपादक तक उसका इंटरव्यू करने कूद पड़े । ओम को स्टूडियो में बुलाकर पूरे देश को घंटों तक उनका बकवास सुनाया गया । इन शोज़ के दौरान उनका बड़बोलापन बढ़ता चला गया । एक शो के दौरान दर्शकों में बैठी एक महिला को बेहद असंसदीय शब्द कहने से भीड़ और मेहमान दोनों भड़क गए और जमकर लात जूते चले । बाबजूद इसके शो चलता रहा, ओम दावे करते रहे ।
दरअसल अगर हम देखें तो ओम पिछले साल एक न्यूज चैनल के स्टूडियो में हुए थप्पड़ कांड से चर्चित हुआ । उसके पहले भी वो एक न्यूज चैनल के दफ्तर में पिटते पिटते बचे थे । लाइव शो में हुए थप्पड़ कांड के बाद वो चर्चित हो गए । महिला को थप्पड़ मारने के बाद पुलिस के डर से स्टूडियो से ये कहते हुए रफूचक्कर हो गए थे कि उनकी मुलायम सिंह यादव से बात हो गई है । उस केस का क्या हुआ ज्ञात नहीं है लेकिन ओम का हौसला उसके बाद बुलंद हो गया । ओम का उद्भव न्यूज चैनलों की भीड़ भरी दुनिया में उस वक्त हुआ जब डिबेट शो के दौरान चीखने चिल्लाने का दौर शुरू हुआ । ओम जैसी बेसिर-पैर की बातें करनेवाले लोग न्यूज चैनलों के प्रोड्यूसर्स की पसंद बनने लगे । खुद को हिंदी धर्म का रक्षक घोषित करनेवाले ओम का मकसद सिर्फ स्टूडियो में हंगामा करना और विरोधियों को बोलने नहीं देना होता था । उस वक्त ओम की मांग इतनी ज्यादा थी कि उसके टाइम स्लॉट बुक घंटे के हिसाब से बुक हुआ करते थे । स्टूडियो में थप्पड़ कांड के बाद ओम की मांग कम होने लगी थी लेकिन बिग बॉस के सीजन दस ने इस स्वयंभू बाबा को नया जीवन दे दिया । बिग बॉस में उलजलूल हरकतों ने ओम को फिर से चर्चा में ला दिया । हिंदू बाबा के नाम से खुद को प्रचारित करनेवाला ये बाबा हंसी का पात्र बनता चला गया और किसी भी सीरियल में एक अहमकनुमा जोकर तो चाहिए ही होता है ।

ओम को अहमियत से दो सवाल उठते हैं एक तो न्यूज चैनलों के कर्ताधर्ताओं पर । क्यों और कैसे उलजलूल बातें करनेवालों को इतना एयर टाइम दिया जाता है । यह सही है कि न्यूज चैनलों के लिए टीआरपी आवश्यक है लेकिन टीआरपी यानि रेटिंग के लिए कुछ भी किया जाए । कई वैसे लोग भी जो इस तरह के बाबा, भूत प्रेत आदि को टीवी पर दिखाए जाने के खिलाफ होते थे, संपादक बनते ही इनके ही शरण में जाते दिखने लगते हैं । ओम के कारनामों के दौरान और बाद में इस तरह की बातें सुनाई देती हैं कि फलां चैनल का इनके बयानों से कोई लेना देना नहीं है या फिर चैनल उनकी बातों और क्रियाकलापों से इत्तफाक नहीं रखता है । सही है इस तरह के डिस्क्लेमर बोले जाने चाहिए ताकि दर्शकों को जागरूक किया जा सके । लेकिन केबल एंड टेलीविजन एक्ट कहता है कि ब्राडकास्टर यानि चैनल की भी उतनी ही जिम्मेदारी होती है, जितना बोलने वाले की । किसी भी तरह का भड़काऊ बयान, आपत्तिजनक कटेंट, या फिर असंसदीय भाषा के टेलीकास्ट करने की जिम्मेदारी चैनलों की भी होती है । ओम के मामले में कई चैनल इस कानून की धाराओं का उल्लंघन करते दिखे । अब अगर सरकार उनको नोटिस देती है तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले का शोर मचने लगेगा । जरूरत जिम्मेदारी समझने की है । दूसरी तरफ जिस तरह से हिंदू धर्मगुरू होने दा दावा करनेवाला ये शख्स ओछी हरकतें कर रहा है उसके बारे में संत समाज को भी सोचना चाहिए । क्या कोई वेशभूषा से साधु होता है या फिर आचरण- व्यवहार से, इस पर विचार करने की आवश्यकता है । ओम को अंतराष्ट्रीय मीडिया हिंदू गॉडमैन लिख रहे हैं जिससे पूरी दुनिया में हिंदी संतों की छवि खराब हो रही है । संतों की प्रतिनिधि सभा अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद को ओम की हरकतों का संज्ञान लेना चाहिए और उसपर अंकुश लगाने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए । 

Saturday, January 14, 2017

कविता की अनुपस्थिति !

दिल्ली में चल रहे विश्व पुस्तक मेले का आज आखिरी दिन है । विश्व पुस्तक मेले में ताबड़तोड़ किताबों का विमोचन हुआ । हर विधा की सैकड़ों किताबों का मेलार्पण हुआ कभी लेखक मंच पर तो कभी प्रकाशकों के स्टॉल पर ही विमोचन हुआ । कहीं ताजा ताजा छप कर आई किताबों का विमोचन हुई तो कहीं पखवाड़े भर पहले छपी किताबों को वहां मौजूद लेखकों से मेलार्पण करवा दिया गया । जाहिर है कि इस तरह के मेलार्पण सोशल मीडिया के लिए किए करवाए गए । इसमें कोई बुराई भी नहीं है कम से कम फेसबुक आदि पर फोटो पोस्ट करने से पाठकों तक जानकारी तो पहुंची कि अमुक लेखक की अमुक किताब अमिक प्रकाशन से प्रकाशित हुई । किताबों की बड़ी संख्या में विमोचन और मेले में हर दिन पाठकों की उपस्थिति ने पुस्तकों को लेकर पाठकों के बढ़ते प्रेम की ओर भी इशारा किया जिससे एक आश्वस्तिकरक स्थिति बनी । मेले पर नोटबंदी का भी कोई असर दिखाई नहीं दिया । पाठकों की स्टॉलों पर भीड़ लगी रही और खरीद भी हुई । इतना बदलाव अवश्य देखने को मिला कि लगभग सभी प्रकाशकों ने पेटीएम से या फिर क्रेडिट कार्ड से भुगतान की सहूलियत का इंतजाम कर रखा था । मेले में किताबों पर चर्चा के दौरान छिटपुट विवाद भी हुए । मैत्रेयी पुष्पा की राजेन्द्र यादव पर लिखी किताब पर चर्चा के दौरान लेखकों में पीढ़ियों की टकराहट भी देखने को मिली । लेकिन जिस एक बात को रेखांकित किया जाना आवश्यक है वह है हिंदी के स्थापित कवियों के संग्रह का मेले के दौरान प्रकाशित नहीं होना । उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल ने अपनी टीम से एक सर्वे करवाया है जिसकी सूचना उन्होंने फेसबुक पर साझा की है ।
मोरवाल जी द्वारा करवाए गए सर्वे के मुताबिक - मेले से हिंदी कविता लगभग पूरी तरह अनुपस्थित है. प्रकाशकों के स्टाल्स पर एक के बाद एक ,कहानी संग्रह और उपन्यासों के लोकार्पण और उन पर चर्चा कराई जा रही है ,या हो रही है वहां कविता एक तरह से उपेक्षित-सी रही है. हिंदी के बड़े कवि कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेय, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल , लीलाधर जगूड़ी, उदय प्रकाश,कृष्ण कल्पित , अनामिका, सविता सिंह , नरेश सक्सेना , लीलाधर मंडलोई, मदन कश्यप का कोई कविता संग्रह मेले में नहीं आया । इसके अलावा भी संजय कुंदन, पवन करन, संजय चतुर्वेदी, कात्यायनी , अनीता वर्मा जैसे उनके बाद की पीढ़ी के कवियों के संग्रह भी प्रकाशित नहीं हुए । इस सर्वे के मुताबिक लगभग यही स्थिति फेसबुक से उपजे युवा कवि-कवयित्रियों की भी रही। चर्चा हुई भी होगी तो उस तरह नहीं जिस तरह मंचीय कवियों और ग़ज़लों के नाम पर लोकप्रिय शायरी को प्रोत्साहित किया जा रहा है । अगर इस सर्वे के नतीजों को सही माना जाए तो कविता के लिए ये स्थिति उत्साहजनक तो नहीं ही कही जाएगी । हिंदी के कवियों को इस पर विचार करने की जरूरत है कि क्या वजह है कि प्रकाशन जगत के इस सबसे बड़े आयोजन में स्थापित कवियों की अनुपस्थिति दर्ज की गई । क्या कविता अपने समय से पिछड़ गई है या फिर कविता को लेकर पाठकों में कोई उत्साह नहीं रहा जिसका प्रभाव प्रकाशकों की उदासीनता के रूप में सामने आ रहा है । दूसरी बात ये भी देखने को मिली कि छोटे छोटे कई प्रकाशकों की सूची के नए प्रकाशनों में कविता संग्रहों को अच्छी खासी जगह मिली हुई है । तो क्या कविता को लेकर प्रकाशन का अर्थशास्त्र बदल रहा है । या फिर कोई और वजह है । कविता एक ऐसी विधा है जो साहित्य को हमेशा से नये आयाम देती रही है अगर उसपर किसी तरह की आंच आती है तो यह गंभीर बात होगी ।


किताब पढ़ी नहीं है लेकिन...

दिल्ली में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा आयोजित विश्व पुस्तक मेला आज समाप्त हो रहा है । इस वर्ष का विश्व पुस्तक मेला कई मायनों में अनोखा रहा । पुस्तक मेलों में हर वर्ष ताबड़तोड़ पुस्तक विमोचन होते रहे हैं लेकिन इस बार ये मेला विमचनों के रेला के लिए याद किया जाएगा । यह कोई बहुत असमान्य बात नहीं है, समय बीतने के साथ साथ हर चीज में बढ़ोतरी होती ही है । लेकिन इसके साथ जो असमान्य प्रवृत्ति देखने को मिली वो ये कि जिन पुस्तकों का विमोचन महानुभाव कर रहे थे उनको उसके बारे में कोई जानकारी नहीं होती थी । विमोचन के बाद अमूमन हर वक्ता यह कहता था मैंने इनकी कहानी पढ़ी नहीं है लेकिन..., मैंने इनका उपन्यास पढ़ा नहीं है लेकिन...। क्या आलोचक, क्या वरिष्ठ कथाकार सबों की जुबां पर यही लफ्ज आते थे । यह प्रवृत्ति लगभग सभी प्रकाशकों के विमोचनों में देखने को मिली । सवाल यही उठता है कि विमोचनों की इतनी हड़बड़ी क्यों ? क्यों नहीं इस बात का इंतजार किया जा रहा था कि जिस भी पुस्तक का विमोचन हो, विमोचनकर्ता तैयारी के साथ आएं । कृति पर थोड़ी बात हो ताकि वहां मौजूद पाठकों के बीच जारी होनेवाली किताब को लेकर उत्सुकता बने और वो इसको खरीद सकें । हालात तो ये हो रहे थे कि विमोचन वाले स्टॉल के आगे से कोई वरिष्ठ, कनिष्ठ, समकालीन रचनाकार गुजर रहा हो तो उनको भी बुला लिया जाता था कि आइए आइए जरा विमोचन कर दीजिए । गुजरनेवाले भी खुशी खुशी किताब हाथ में लेकर पंक्ति में खड़े हो जाते थे । समारोह में शामिल होनेकी तस्वीर कैमरे में कैद हो जाती थी । भारतीय परंपरा में खुशी बांटने की परंपरा भी है लेकिन हद तब हो जाती थी जब खुशी बांटने के लिए विमोचन समारोह में शामिल होने वाले लेखक से कहा जाता था कि आप भी विमोचित कृति पर कुछ बोलिए । फिर वही शब्द गूंजता हैं, मैंने इस कृति को पढ़ा तो नहीं है लेकिन...। यहां जानबूझकर किसी विमोचनकर्ता का नाम नहीं लिखा जा रहा है क्योंकि लेख का उद्देश्य इस प्रवृत्ति को रेखांकित करना है किसी का नाम लेकर उनका उल्लेख करना नहीं । इसके अलावा इस बार कई पुस्तक विमोचन हाईटेक रहे । लेखकों ने तकनीक का फयदा उठाया । जिस लेखक की किताब विमोचित हो रही हो और वो किसी वजह से पुस्तक मेले में मौजूद नहीं रह पाया तो उनके मित्रों ने उनको फोन कर स्पीकर ऑन कर दिया या फिर स्काइप या वीडियो क़लिंग के जरिए उनको कार्यक्रम से जोड़ लिया । यह तकनीक का फायदा रहा लेकिन वीडियो कॉल या फोन के जरिए जुड़े लेखक को भी सुनना पड़ा कि- इनकी कृति मैंने पढ़ी तो नहीं है लेकिन...। विश्व पुस्तक मेले की इस प्रवृत्ति को इस वजह से भी रेखांकित किए जाने की जरूरत है क्योंकि प्रसिद्धि की फौरी चाहत में साहित्य पिछड़ता जा रहा है । पढ़ी नहीं है लेकिन... की प्रवृत्ति ज्यादातर वरिष्ठ लेखकों में देखने को मिली, कुछ प्रौढ होते लेखक भी इस तरह से विमोचन करते घूमते दिखे । दरअसल होता क्या है कि लेखकों को लगता है कि अपने से वरिष्ठों से विमोचन करवाकर फोटो उतार लिए जाएं और उसको फेसबुक पर चढ़ा कर लाइक्स की लोकप्रियता हासिल कर ली जाए । ज्यादातर विमोचनों को देखकर यही लगा कि इस बार भी पुस्तक मेले में फेसबुक को ध्यान में रखकर बहुत से काम किए गए । लेकिन फेसबुक की लाइक्स से साहित्य सृजन में गहराई आए या फिर बेहतर रचना के लिए लेखक और मेहनत करें ऐसा अबतक देखने को नहीं मिला है ।
इसके अलावा इस वर्ष के पुस्तक मेले में साहित्य की वरिष्ठम पीढ़ी की लगभग अनुपस्थिति भी दर्ज की गई । ऐसा लगता है कि नामवर सिंह अस्वस्थता और कड़ाके की ढंड की वजह से कम आ पाए । कुंवर नारायण बहुत कम बाहर निकलते हैं । विश्वनाथ त्रिपाठी और अशोक वाजपेयी मेले में दिखाई अवश्य दिए लेकिन एकाध विमोचन या कार्यक्रमों की अध्यक्षता की ही जानकारी मिल पाई । इसके अलावा कई वरिष्ठ साहित्यकार अकेले घूमते नजर आए । तो क्या इन वरिष्ठ लेखकों का दौर या आकर्षण या फिर इनसे अपने कृति के बारे में प्रमाण-पत्र लेने का दौर खत्म हो गया । या फिर इन लोगों ने इतने प्रमाण-पत्र बांट दिए कि अब उनके स्टॉक में सर्टिफिकेट्स खत्म हो गए हैं । यह भी हो सकता है कि वरिष्ठतम लेखकों ने नई पीढ़ी के आकांक्षाओं की रफ्तार से तालमेल नहीं बिठा पाए और नेपथ्य में चले गए । वाजपेयी जी जैसे स्टार लेखकों की स्टार वैल्यू को छीजता देखकर दुख होता है । एक जमाना होता था कि पुस्तक मेले में वाजपेयी जी के आगमन के साथ हिन्दी के हॉल में लगता था कि बहार आ गई हो । वो जब चलते थे तो उनके आगे पीछे लेखकों की फौज होती थी । इस बार वैसा नजारा देखने को नहीं मिला । वाजपेयी जी के अकेले होने की वजह उनका सत्ता से दूर होना भी हो सकता है । यह पहली बार हुआ है कि वाजपेयी जी की सत्ता प्रतिष्ठान में कोई पूछ नहीं रही । वो किसी सरकारी पद आदि पर भी नहीं हैं, लिहाजा हिंदी लेखकों को पहली बार हवाई यात्रा करवाने जैसा दंभपूर्ण बयान भी नहीं दे सकते हैं, पुरस्कार आदि देना तो दूर की बात है । अब यह देखना दिलचस्प होगा कि साहित्यक सत्ता के केंद्रों की अहमियत कम होने के बाद नया साहित्यक सत्ता केंद्र उभरेगा या फिर उसका विकेन्द्रीकरण हो जाएगा ।
विश्व पुस्तक मेले में छिटपुट विवाद भी हुआ । हिंदी अकादमी दिल्ली की उपाध्यक्ष और मशहूर उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा और अपेक्षाकृत नई पीढ़ी की लेखिकाओं में टकराहट लंबे समय से चल रही है । पुस्तक मेले में एक बार फिर से प्रत्यक्ष रूप से इस टकराहट से पाठक भी रूबरू हुए । एक चर्चा के दौरान लेखकीय विरासत के बाबत पूछे गए सव सवाल का जब मैत्रेयी पुष्पा ने नकारात्मक जवाब दिया तो विवाद बढ़ा । वहां मौजूद उपन्यासकार अल्पना मिश्र ने विरोध दर्ज करवाया । अब सवाल यही है कि लेखकीय विरासत है क्या ? क्या लेखन कोई संपत्ति है जिसकी विरासत किसी को सौंपी जाए या फिर उसकी वसीयत की जाए । दरअसल पिछले दिनों नासिरा शर्मा ने एक पत्रिका में अपनी साहित्यक वसीयत लिखी थी और कुछ रचनाकारों का नाम भी लिया था । उनके वसीयतनामे के बाद विरासत की साहित्यक राजनीति शुरू हो गई । संगीत में तो विरासत फिर भी मुमकिन है लेकिन साहित्य में विरासत की अवधारणा ही गलत है । बेहतर साहित्यक लेखन तो वो होता है जो परंपरा से अलग हटकर अपनी राह खुद बनाए । यह बात भी समझ से परे है कि मैत्रेयी पुष्पा से स्वीकृति की मोहर क्यों लगवाने की जरूरत है । मैत्रेयी ने अपने तरह का लेखन किया और अब नई पीढ़ी की लेखिकाएं अपनी तरह का लेखन कर रही हैं । इस विवाद की जड़ में विरासत आदि होगा लेकिन आपत्ति इस बात को लेकर ज्यादा हुई होगी कि मैत्रेयी पुष्पा ने मनीषा कुलश्रेष्ठ का नाम ले लिया । कुछ दिनों पहले जब मैत्रेयी पुष्पा ने अपेक्षाकृत युवा लेखिकाओं को निशाने पर लेते हुए एक लेख लिखा था तब मनीषा कुलश्रेष्ठ ने भी विरोध का झंडा उठाया था । अब बदले साहित्यक परिदृश्य में मैत्रेयी जी ने मनीषा को बेहतर रचनाकार माना तो उनसे सवाल पूछे जाने लगे । स्त्री लेखन में साहित्यक विरासत की गूंज मेले में रही लेकिन एक दो दिनों में ही ये थम सा गया । इन दिनों हिंदी साहित्य में असहिष्णुता भी बढती जा रही है । कोई भी अपनी रचनात्मक आलोचना सुनने को तैयार नहीं है । अगर किसी ने रचना की भी आलोचना कर दी तो लेखक आगबबूला हो जाता है । प्रकरांतर में इस प्रवृत्ति का नुकसान साहित्य की अलग अलग विधाओं को होता है । देश में बढ़ती असहिष्णुता को लेकर छाती कूटनेवालों में भी सहिष्णुता का आभाव दिखाई देता है । वो अपनी आलोचना तो क्या ही बर्दाश्त करेंगे अपनी रचना पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी उनको नहीं सुहाती है । लेखकों के लिए आत्ममंथन का वक्त है ।

इस बार विश्व पुस्तक मेले के पहले प्रकाशकों को इस बात का अंदेशा था कि नोटबंदी का असर दिखाई देगा । कई प्रकाशकों ने कार्ड से लेकर पेटीएम तक से भुगतान लेने का इंतजाम किया हुआ था । लेकिन जिन प्रकाशकों के यहां ईपेमेंट का इंतजाम नहीं था उनको भी कोई दिक्कत नहीं हुई । नोटबंदी का किसी प्रकार का कोई असर देखने को नहीं मिला । भारी संख्या में पाठक पुस्तक मेले में पहुंचे और जमकर खरीदारी की । आमतौर पर होता था कि हिंदी के मंडप में अंग्रेजी की तुलना में कम पाठक पहुंचते थे लेकिन इस बार ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हिंदी के पाठकों ने अंग्रेजी वालों को पीछे छोड़ दिया है, संख्या के लिहाज से भी और बिक्री के हिसाब से भी । यह हिंदी के लिए सुखद संकेत है ।