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Saturday, August 25, 2012

हिंदी के युवा लेखकों से उम्मीद


हिंदी में सालों से प्रकाशक और लेखक दोनों पाठकों की कमी का रोना रोते रहते हैं । बहुत शोर मचता है कि हिंदी के पाठक कम हो रहे हैं । हिंदी के आलोचकों ने भी कई बार इस बात का ऐलान किया है कि हिंदी में गंभीर लेखन पढ़नेवालों की लगातार कमी होती जा रही है । कई उत्साही आलोचकों ने तो नए पाठकों की अपनी भाषा से विमुखता को भी रेखांकित किया । वर्षों से पाठकों की कमी के कोलाहल के बीच हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ती रही जो लेखकों, प्रकाशकों और आलोचकों की पाठकों की कमी की चिंता के विपरीत था । हिंदी के प्रकाशकों का कारोबार भी लगातार फैलता जा रहा है वह भी इस चिंता के उलट है । एक अनुमान के मुताबिक हिंदी में अलग अलग विधाओं की करीब पच्चीस से तीस हजार किताबें हर साल छापी जाती हैं । सवाल ये है कि अगर बिकती नहीं हैं तो इतनी किताबें छपती क्यों हैं । इन सवालों के बरक्श हम हिंदीवालों को अपने अंदर झांक कर देखने की जरूरत है । किताबें क्यों नहीं बिकती या किताबें पाठकों के बीच क्यों नहीं लोकप्रिय होती है । सामाजशास्त्रीय विश्लेषण करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इक्कीसवीं सदी के पाठकों की रुचि में सत्तर और अस्सी के दशक के पाठकों की रुचि में जमीन आसमान का अंतर आ चुका है । सन 1991 को हम इस रुचि का प्रस्थान बिंदु मान सकते हैं । हमारे देश में 1991 से अर्थव्वयस्था को विदेशी कंपनियों के लिए खोला गया और उससे करीब सात साल पहले देश में संचार क्रांति की शुरुआत हो चुकी थी । हमारे देश के लिए ये दो बहद अहम पड़ाव थे जिसका असर देश की साहित्य संस्कृति पर बेहद गहरा पड़ा । लेकिन वो एक अवांतर प्रसंग है जिसपर चर्चा इस लेख में उपयुक्त नहीं है । संचार क्रांति और उदारीकरण का असर यह हुआ कि देश में पश्चिमी संस्कृति से देश की जनता का परिचय हुआ । जो बातें अबतक सुनी जाती थी वो प्रत्यक्ष रूप से देखी जानी लगी । बाजारवाद और नवउदारवाद के प्रभाव में भारत में आम जनता की और खासकर युवा वर्ग की रुचि में बदलाव तो साफ तौर पर रेखांकित किया जा सकता है ।
युवा वर्ग और उन दशकों में जवान होती पीढ़ी में धैर्य कम होता चला गया और एक तरह से इंस्टैंट का जमाना आ गया चाहे वो काफी हो या अफेयर । यह अधीरता कालांतर में और बढ़ी । यह लगभग वही दौर था जब हमारे देश के आकाश को निजी टेलीविजन के तरंगों के लिए खोल दिया गया । मतलब यह है कि देश में कई देशी विदेशी मनोरंजन और न्यूज चैनलों ने अपना प्रसारण शुरू किया । यह वही वक्त था जब हिंसा प्रधान फिल्मों की जगह बेहतरीन रोमांटिक फिल्मों ने ली । मार-धाड़ वाली फिल्मों की बजाय शाहरुख काजोल की रोमांटिक फिल्मों को जबरदस्त सफलता मिली । लगभग इसी वक्त राष्ट्रीय अखबारों के पन्ने रंगीन होने लगे और फिल्मों के रंगीन परिशिष्ट अखबारों का एक अहम अंग बन गया । यह सब बताने का तात्पर्य यह है कि नवें दशक में हमारे देश की लोगों की पसंद बदलने लगी । लेकिन इतने बदलाव को हिंदी के लेखक सालों तक नहीं पकड़ पाए और उनके लेखन का अंदाज बदला जरूर लेकिन वो बदलते समय के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल पाए । नतीजा यह हुआ कि हिंदी का फिक्शन लेखन पाठकों की पसंद में लगातार पिछड़ता चला गया । पहले हिंदी में किसी भी उपन्यास का एक संस्करण हजार प्रतियों का होता था जो बाद में घटकर पांच सौ प्रतियों का होने लगा और अब तो प्रकाशन जगत के जानकारों का दावा है कि ये आंकड़ा तीन सौ का हो गया है । कुछ प्रकाशक तो इतना भी नहीं छाप रहे । जितनी प्रतियों का ऑर्डर मिल जाता है उसको छापकर तैयार कर लेते हैं । आधुनिक तकनीक की वजह से यह मुमकिन भी है । हिंदी के फिक्शन लेखक जब अपनी किताबें नहीं बिक पाने का रोना रोते हैं तो उसके पीछे कम से कम पाठकों की कमी, तो वजह बिल्कुल नहीं है । हिंदी में फिक्शन पढ़नेवाले पाठक हैं लेकिन लेखकों को उनकी रुचि के हिसाब से लेखन शैली बदलनी होगी । लेखकों को इस बारे में गंभीरता से विचार करना होगा कि हिंदी के प्रकाशकों की सूची से फिक्शन का अनुपात कम क्यों होता जा रहा है । आज प्रकाशकों की रुचि गैर साहित्यक किताबें छापने में ज्यादा हो गई है । प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से लुई एल हे की यू कैन हील योर लाइफ, दीपक चोपड़ा की सफलता और अध्यात्म से जुड़ी किताबें बिक रही हैं तो उसके पीछे पाठकों की बदलती रुचि है । हिंदी में इन दिनों आत्मकथा और जीवनियों की भी जमकर बिक्री हो रही है । चाहे वो सायना नेहवाल की जीवनी हो, चाहे कलाम की टर्निंग प्वाइंट्स हो । पाठकों के इस मनोविज्ञान का विश्लेषण करने से यह बात और साफ होती है कि अब हिंदी का पाठक यथार्थ के नाम पर नारेबाजी, क्रांति के नाम पर भाषणबाजी, सामाजिक बदलाव के नाम पर विचारधारा विशेष का पोषण को पसंद नहीं कर रहा है ।
अब हिंदी प्रकाशन जगत के लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि पाठकों की पसंद क्या है और किस तरह की किताबें धड़ाधड़ बिक सकती हैं । अगर हम अंग्रेजी प्रकाशन जगत को देखें तो युवाओं को केंद्र में रखकर लिखे गए रोमांटिक प्लॉट वाले उपन्यास या कहानी संग्रह खूब बिक रहे हैं । इसके अलावा चिक लिट बुक्स हैं जो अपनी रोमांटिक और चमक दमक वाली जिंदगी की वजह से युवतियों के बीच खासी लोकप्रिय हो जाती हैं । अंग्रेजी में ज्यादातर बेस्ट सेलर किताबों में लव सेक्स और संघर्ष की कहानी होती है जो बीस से तीस वर्ष के युवाओं को लुभाता है और उन्हें खरीदकर पढ़ने को मजबूर करता है । अंग्रेजी में भी भारतीय लेखकों की एक नई फौज आई है जो इस तरह के प्लॉट को उठा रही हैं जिनमें कविता दासवानी, सिद्धार्थ नारायण ,प्रीति शिनॉय, निकिता सिंह, नवनील चक्रवर्ती और सचिन गर्ग जैसे लेखक प्रमुख हैं । इनका लेखन और प्लॉट अमिताभ घोष, अमिश त्रिपाठी, ताबिश खैर जैसे भारतीय लेखकों से अलग है । अंग्रेजी में लिखनेवाले इन लेखकों की सफलता का राज उनकी भाषा और उनके उपन्यासों के शीर्षक हैं जो गंभीरता के बोझ से मुक्त हैं । इन युवा लेखकों की वही भाषा है जो आज के युवाओं के बीच बोली जाती है । उनके उपन्यासों के शीर्षक भी उन्हीं बोलचाल के शब्दों से उठाए जाते हैं । जैसे ओह शिट्, नॉट अगेन, नॉटी मैन, बॉंबे गर्ल, ऑफ कोर्स आई लव यू, ओह यस आई एम सिंगल जैसे दो सवा दो सौ पन्नों के उपन्यास खासे लोकप्रिय हो रहे हैं । जाहिर तौर पर इन उपन्यासों के नायक नायिकाएं युवा होते हैं और उपन्यासों का परिवेश भी उनके आस पास का ही होता है । ऐसा नहीं है कि सारे के सारे युवा लेखक सिर्फ हल्के फुल्के प्रेम प्रसंगों पर ही लिख रहे हैं । कई लेखक तो गंभीर बीमारियों को भी अपने उपन्यास का विषय बना चुके हैं लेकिन उसमें भी कहीं ना कहीं प्रेम का तत्व डाल ही देते हैं । इन उपन्यासों की एक विशेषता और है कि ये दो सौ रुपए से कम में पाठकों को उपलब्ध है जिसकी वजह से चलते चलाते भी उसकी खरीदारी हो जाती है ।
हिंदी में इस तरह का लेखन-प्रकाशन जरा कम हुआ है । हिंदी में युवाओं के बदलते मनमिजाज और प्राथमिकताओं पर गीताश्री ने कई बेहतर कहानियां लिखी हैं लेकिन उनका कोई संग्रह या उपन्यास नहीं आया है जिससे लोकप्रियता का मूल्यांकन हो सके । अभी अभी सामयिक प्रकाशन दिल्ली ने युवा लेखक लेखिकाओं की कहानियों और उपन्यासों को पूरा सेट प्रकाशिकत किया है । जिसमें जयश्री राय, अजय नावरिया, पंकज सुबीर, कविता,रजनी गुप्त, शरद सिंह, मनीषा कुलश्रेष्ठ की किताबें एक साथ प्रकाशित की हैं । लेकिन अब हिंदी के पुराने लेखक सर्वहारा और उस तरहब की नारेबाजी से मुक्त नहीं हो पाए हैं । जयश्री राय के कहानी संग्रह के ब्लर्ब पर संजीव ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया है उससे खूबसूरत कहानियां उभरती नहीं है बल्कि बौद्धिकता के बोझ से दब जाती हैं । दरअसल अब हिंदी के प्रकाशकों को भी ब्लर्ब की शास्त्रीयता से मुक्त होने की जरूरत है । रजनी गुप्त ने अपने उपन्यास कुल जमा बीस में जो विषय चुना है वो समय के साथ है । उसमें किशोर के मनस्थिति उसके संघर्ष, वर्चुअल दुनिया को लेकर उसके मन में चल रहे द्वंद के इर्द-गिर्द कथा बुनी गई है । युवाओं के बीच इस उपन्यास को पढ़े जाने की उम्मीद है । कविता का पहला उपन्यास -मेरा पता कोई और है -को भी पाठक पसंद करेंगे लेकिन यहां भी ब्लर्ब पर वही बौद्धिकता और भारी भारी शब्दों का इस्तेमाल । सामयिक प्रकाशन से जिस तरह से हिंदी के अहम युवा लेखक लेखिकाओं की किताबें एक साथ प्रकाशित हुई हैं उससे एक उम्मीद तो जगती है । हॉर्ड बाउंड में छपी इन किताबों के मूल्य ढाई सौ से चार सौ रुपए तक हैं लेकिन प्रकाशक को युवाओं तक पहुंचने के लिए उसको दो सौ के अंदर रखना होगा भले ही चाहे वो पेपर बैक में क्यों ना छपे ।

Friday, August 24, 2012

राजनैतिक चेतना की कविताएं


हिंदी में एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त करीब पांच सौ कवि एक साथ सक्रिय हैं और लगातार कविकाएं लिख रहे हैं । हिंदी के कई नासमझ संपादक उन कविताओं को छाप कर अच्छी कविताओं को ओझल कर दे रहे हैं । इसको देखकर रामवृक्ष बेनीपुरी जी का वो कथन याद आता है जो उन्होंने दशकों पहले कवियों की बहुतायत पर कहा था- हम बाढ से नहीं सुखाड़ से घबराते हैं । लेकिन वह बाढ़ भी क्या घबराने की चीज नहीं है जिसका पानी फसलों को इस कदर डुबा दे कि उनकी फुनगियां मुश्किल से नजर आएं । आज हिंदी कविता की उन्हीं फुनगियों को बचाए रखने की जद्दोजहद में संजय कुंदन जैसे कवि लगे हैं । संज कुंदन का नया कविता संग्रह -योजनाओं का शहर -हिंदी कविता के पाठकों को आश्वस्त करता है । संजय कुंदन का पहला कविता संग्रह दो हजार एक में आया था कागज के प्रदेश में, उसके बाद आया चुप्पी का शोर और अब ये समीक्ष्य संग्रह । इस संग्रह में संजय की कविता में जो कथा तत्व है वो पहले संग्रह की तुलना में और बेहतर हुई है । नामवर सिंह ने हाल ही में एक गोष्ठी में फिर दोहराया कि जो कवि अच्छा गद्य नहीं लिख सकता वो अच्छा कवि नहीं हो सकता है । नामवर की इस कसौटी पर भी संजय खड़े उतरते हैं । उनके कहानी संग्रह- बॉस की पार्टी और उपन्यास - टूटने के बाद - में संजय के मोहक गद्य को महसूस किया जा सकता है ।
अपने इस संग्रह में संजय कुंदन ने  राजनैतिक व्यवस्था पर चोट और तंज करते हुए कई कविताएं लिखी है । जैसे बढ़ती महंगाई पर तंज करते हुए संजय की एक कविता है दाल- जिसमें वो कहते हैं दाल की बात करो तो कहा जाता है /निवेश तो बढ़ा है, विदेशी मुद्रा तो बढ़ी है /आप यह क्यों नहीं देखते/कि आपके पास कितने यन्त्र हैं/यही क्या कम है कि जनतंत्र है/दाल अर्थशास्त्री की तरह /बोलने लगी है /अर्थशास्त्री राजा की तरह /और राजा व्यापारी की तरह । इस एक कविता में कवि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को उघाड़कर रख दिया है । किस तरह से एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री अपने जार्गन से देश की जनता को भरमा रहे हैं उसको एक्सपोज करती है यह कविता । इस संग्रह की एक और कविता है कार्यकर्ता । इस कविता में एक साथ कवि ने बाजार के आक्रमणकारी और अतिक्रमणकारी रूपों से आम जनता को आगाह किया है । इस कविता में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन की झलक भी देखी जा सकती है । संजय जहां भी अपनी कविता से आज की राजनीति पर चोट करते हैं वहां उनकी कविताएं उन्हें समकालीन कवियों की भीड़ से अलग कर देती है । कवि की राजनैतिक चेतना और उसपर तंज कसती कविता है योजनाओं का शहर । इस लंबी कविता में कवि ने वर्तमान राजनीति को तो निशाना बनाया ही है साथ ही समाज के उन लोगों को भी बेनकाब किया है जो योजनाएं बनाकर भ्रच्टाचार करते हैं और खुद को आगे बढ़ाने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं । इस लंबी कविता में कवि एक जगह कहता है जो दुनियादार थे वे योजनाकार थे /जो समझदार थे वो योजनाकार थे /एक लड़का रोज एक लड़की को /गुलदस्ता भेंट करता था/उसकी योजना में /लड़की एक सीढ़ी थी /जिसके सहारे वह/उतर जाना चाहता था /दूसरी योजना में । इन पंक्तियों में कवि ने अपनी महात्वाकांझा की पूर्ति के लिए कुछ भी कर डालने और किसी भी रिश्ते को दांव पर लगा देने की प्रवृत्ति पर चोट की है । आगे इसी कविता में कुंदन कहते हैं -/योजनाओं में हरियाली थी/धूप खिली थी, बह रहे थे मीठे झरने /एक दिन योजनाकार को /रास्ते में प्यास से तड़पता एक आदमी मिला/योजनाकार को दया आ गयी/उसने झट उसके मुंह में एक योजना डाल दी । यहां कवि राजनीति में जारी सरकारी धन के लूट और उसके क्रियान्वयन में हो रहे घपलों को अपनी शैली में बेनकाब किया है ।
संजय कुंदन के कविताओं को पढ़ने के बाद यह तो साफ तौर पर लगता है कि सारी कविताओं में प्रगतिशीलता का एक अंडरटोन है जो अपने तरीके से हर जगह व्यवस्था का विरोध करता चलता है । लेकिन संजय कुंदन की प्रगतिशीलता रूढिमुक्त है जो एक साथ कविता में समाज और राजनीति के महत्व को स्थापित भी करती है । मुक्तिबोध ने एक बार कम्युनिस्ट पार्टी के आला नेता को एक पत्र लिखकर कहा था कि प्रगतिशील लेखन का टोन बदलने की आवश्यकता है । संजय कुंदन की कविताओं में वही प्रगतिशीलता अपने बदले हुए टोन के साथ मौजूद है । इनकी कविताएं छद्म क्रांतिकारिता और नारेबाजी से मुक्त हैं लेकिन इन कविताओं ने जनतांत्रिक मूल्यों को नहीं छोड़ा और भारतीय राजनीति में जो अवरसवाद और भ्रष्टाचार अपने चरम पर है उसकी कवि ने अपनी कविताओं के माध्यम से धज्जियां उड़ा कर रख दी हैं । दरवाजा और चोर दरवाजा -कविता में कवि ने चोर दरवाजे को मुख्य दरवाजा होने की कहानी के बहाने आज की भ्रष्ट होती सामाजिक व्यवस्था और भ्रष्टाचार के आम आदमी की जिंदगी का हिस्सा बनते जाने के साथ साथ उसपर इतराने की प्रवृत्ति पर गहरी चोट की है । लिखते हैं धीरे धीरे फैलने लगी यह बात/और एक समय ऐसा आया/जब हर आदमी खुलेआम/चोर दरवाजे का इस्तेमाल करने लगा/यही चलन बन गया/अब इक्का दुक्का लोग ही/दरवाजे से होकर जदाते थे/धीरे धीरे कुत्तों ने दरवाजे पर डेरा जमा लिया । उसी कविता में आगे कहते हैं - कुछ लोग दूर से दरवाजे को दंडवत करते/और जय हो जय हो कहते हुए /चोर दरवाजे की ओर सरक जाते हैं । इसी कविता में दरवाजे का चौकीदार ही लोगों को चोर दरवाजे की ओर खिसक जाने की सलाह देता है । मतलब साफ है कि जिसपर व्यवस्था को बनाए रखने की जिम्मेदारी है वही उसको तोड़ने और गलत तरीके से लाभ उठाने की सलाह दे रहा है । यही तो आज का राजनैतिक चरित्र है । इन कविताओं की शैली और बिंब इतनी खास है कि कुछ लोग उसपर सपाटबयानी का आरोप जड़ सकते हैं लेकिन इनकी कविताओं में जो राजनैतिक चेतना बेहद सधे और नपे तुले रूप में आती है जो पाठकों को एक नया आस्वाद देती है ।
राजनीति चेतना से लैस कवि की काव्य भूमि पर और विषयों की कविताएं भा आकार लेती हैं । इस संग्रह की एक और लंबी कविता है अपराध कथा जिसकी पहली लाइन है कि ये साधारण लोगों के पराजय की कहानियां है । सचमुच । इस कविता में कवि ने समाज की आपराधिक प्रवृतियों को उसके बाद घटने वाले घटनाओं को विषय बनाया है । इस कविता में सूअर से लेकर बार गर्ल तक के बहाने से कवि ने अपनी बात कही है । एक जगह कवि कहता है वो पूरी धरती में /अपना वीर्य रोपना चाहते थे । यहां लड़की के लिए धरती बिंब का इस्तेमाल कर कवि ने कविता को एक नई उंचाई दी है ।
इटली के ख्याति प्राप्त आलोचक रोबेर्तो कालास्सो ने अपनी किताब लिटरेचर एंड द गॉड्स के अंतिम लेख एब्सोल्युट लिटरेचर में कहते हैं कि साहित्य विचार के भारी फर्शी पत्थरों के बीच घास की तरह उगता है । संजय कुंदन की कविताओं को देखने के बाद रोबर्तो कालास्सो से एक कदम आगे बढ़कर कहा जा सकता है कि कविता राजनीति और सामाजिक व्यवस्थाओं में आ रही गिरावट से पैदा हुए निराशा के बीच से उपजा हुआ ऐसा पेड़ है जिससे आशा और उम्मीद की किरण निकलती है । इसलिए इस संग्रह को पढ़ने के बाद यह साफ है कि पिछले दिनों प्रकाशित कविता संग्रहों के बीच बेहद विशिष्ठ है ।

Thursday, August 16, 2012

रामदेव का संघ योग



दिल्ली के रामलीला मैदान में भगवा वेश धारी बाबा रामदेव का आंदोलन खत्म हो गया और वो वापस अपने घर हरिद्वार लौट गए हैं । रामदेव इस बार के अपने आंदोलन से बेहद खुश हैं और अंबेडकर स्टेडियम से निकलने के पहले अपनी जीत की दुंदुभि बजाते हुए हरिद्वार रवाना हुए । उनके समर्थक भी ये प्रचारित कर रहे हैं कि रामदेव ने पिछले साल रामलीला मैदान से अनशन के बीच से औरत का वेश धारण कर भागने का दाग अपने दामन से छुड़ा लिया है । जयघोष और जीत के इस जश्न के बीच रामदेव और उनके समर्थक ये भूल गए कि दिल्ली में छह दिनों तक के आंदोलन का आकलन होना शेष है । पिछले साल जब जून में रामदेव दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे थे तो सत्याग्रह ज्यादा दिन टिक नहीं पाया था और वो पुलिस के डर से वहां से भागते धरे गए थे । रामदेव ने उस वक्त दलील दी थी कि अगर वो वहां से भागने का प्रयास नहीं करते तो पुलिस उन्हें मार डालती । रामदेव के मैदान छोड़कर भागने और उसके बाद जान से मार डालने की दलील से उनकी जमकर फजीहत हुई थी । अपनी उस फजीहत को रामदेव भूले नहीं थे । इसलिए इस बार वो पुलिस के सामने सीना तानकर खड़े थे औऱ उनसे बहस भी कर रहे थे । उन्हें ये बात समझ में आ गई थी कि चौबीस घंटों के समाचार चैनलों के दौर में फर्जी मुठभेड़ लगभग नामुमकिन है । अब सवाल यह उठता है कि रामदेव को इस बार दिल्ली में छह दिन के आंदोलन से क्या हासिल हुआ । रामदेव पिछले दो तीन सालों से काला धन के खिलाफ देशभर में मुहिम चला रहे हैं । इस बार वो अपने आंदोलन के एक दिन पहले तक ये बताने को तैयार नहीं थे कि उनकी मांगे क्या है । वो अनशन कर रहे हैं या आंदोलन । लगातार सस्पेंस बनाए रखने और धीरे-धीरे खोलने की रणनीति पर काम रहे थे । पहले दिन रामदेव ने लगभग घंटेभर के अपने भाषण में देश दुनिया के तमाम मुददे गिनाए और सरकार से उन सभी पर त्वरित कार्रवाई की मांग की । रामदेव ने काले धन के अलावा अन्ना हजारे की मांगों मसलन लोकपाल, सिटीजन चार्टर, ज्यूडिशियल अकाउंटिबिलिटी बिल के अलावा देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट को रोकने की मांग की । उन्होंने ना केवल अन्ना की मांगों को अपनी मांगों में शामिल किया बल्कि अन्ना की टोली के अहम सदस्य अरविंद केजरीवाल पर निशाना साधते हुए कहा कि शुगर के मरीज शिकंजी पिएं । गौरतलब है कि अरविंद शुगर के मरीज हैं । इसमें कोई दो राय नहीं कि योग शिविरों में भाषण देते देते रामदेव ने जनता से बेहतरीन संवाद करने की कला मै महारात हासिल कर ली। अब अगर हम पहले दिन के भाषण को देखें तो रामदेव ने कांग्रेस समेत किसी भी दल के नेता के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया बल्कि सोनिया गांधी को तो सोनिया माता और राहुल को राहुल भाई कहकर संबोधित किया । पहले दिन तो रामलीला मैदान में ठीक ठाक भीड जुटी थी लेकिन बाद में के दो दिनों में भीड़ अपेक्षा से कम जुटने से रामदेव और उनके रणनीतिकार बौखला गए । इसी बौखलाहट में वो मीडिया पर गलत कवरेज का आरोप जड़ बैठे और कहा कि मीडिया कम भीड़ की बात को प्रचारित कर रहा है । लेकिन कम भीड़ से रामदेव और उनके सिपहसलारों के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी । रामदेव के भाषण का ओज निस्तेज होने लगा था । हताशा और निराशा उनकी बॉडी लैंग्वेज में साफ झलकने लगी थी । पिछली बार जिस सरकार के चार बड़े मंत्री रामदेव की अगवानी के लिए एयरपोर्ट गए थे वही सरकार इस बार रामदेव की उपेक्षा पर उतारू थी । तीसरे दिन तक आंदोलन के बेअसर होने के आसार बनने लगे थे ।
कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार से जब किसी तरह की कोई पहल नहीं हुई तो रामदेव ने अन्य दलों का दरवाजा खटखटाना शुरू किया । आरएसएस में रामदेव के समर्थकों ने भी दिल्ली से लेकर हरिद्वार तक में आपात बैठकें हुई। संघ की तरफ से जनता पार्टी के अध्यक्ष और आजकल बीजेपी की आंखों के तारे सुब्रहम्ण्यम स्वामी सक्रिय हो गए । फिर तय हुआ कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक शरद यादव रामदेव के मंच पर आएंगे । एक राष्ट्रीय पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष किसी आंदोलन के मंच पर जा रहा होता है तो उस पार्टी और उसके जुड़े संगठनों का दायित्व होता है कि उनको सुनने के लिए भीड़ का इंतजाम किया जाए । ना सिर्फ प्रमुख विपक्षी पार्टी का अध्यक्ष बल्कि प्रमुख विपक्षी गठबंधन का संयोजक भी जा रहा हो तो ये दायित्व और बढ़ जाता है । लिहाजा जब रामदेव के आंदोलन के चौथे दिन नितिन गडकरी और शरद यादव रामदेव के मंच पर पहुंचे तो रामलीला मैदान में ठीक ठाक भीड़ जमा कर दी गई थी । प्रत्यक्ष रूप से गडकरी और शरद यादव का साथ मिलने से बाबा बम बम करने लगे । यहां से रामदेव के बॉडी लैंग्वेज में साफ तौर पर बदलाव को लक्षित किया जा सकता था । अब जब गडकरी और शरद यादव मंच पर हों तो सोनिया गांधी को माता तो कहा नहीं जा सकता है लिहाजा रामदेव ने आक्रामक अंदाज में कांग्रेस पर जमकर हमला बोला और उसे देश की सबसे भ्रष्ट पार्टी करार देते हुए जनता से उसे हराने की अपील तक कर डाली । मनमोहन सिंह पर भी जमकर हमला बोला । मंच पर स्वामी के साथ गलबहियां करते मौजूद जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर बेहद संगीन इल्जाम मढे ।

अबतक जो कुछ पर्दे के पीछे था वो आईने की तरह साफ हो गया कि रामदेव का एक राजनैतिक एजेंडा है और वो उसी पर काम कर  रहे हैं । रामदेव का राजनैतिक एजेंडा वही है जो संघ के रणनीतिकार तय कर रहे हैं । संघ को लगता है कि बीजेपी नेताओं की साख उतनी नहीं रही कि केंद्र में सरकार बनाई जा सके । महंगाई के खिलाफ दो साल पहले बीजेपी के देशव्यापी आंदेलन का हश्र वो देख चुके थे । लिहाजा पहले अन्ना और बाद में रामदेव को साथ लेकर आगे बढ़ने की रणनीति पर काम शुरू हुआ । संघ हमेशा से दूसरों का इस्तेमाल बीजेपी को स्थापित करने में करते आया है चाहे वो जयप्रकाश नारायण हों या विश्वनाथ प्रताप सिंह । कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप से आंदोलनों से जुड़कर बीजेपी को फायदा पहुंचाता है । रामदेव ने कहा कि 2014 के चुनाव में कांग्रेस को हराना है लेकिन किसे जिताना है उस बारे में चुनाव के पहले बताएंगे । रामदेव को अब जनता को बताने की जरूरत नहीं है । जनता समझ उनकी मंशा और राजनीति दोनों समझ चुकी है । मुमकिन है रामदेव खुलकर चुनावी मैदान में ना आएं लेकिन अपनी राजनैतिक महात्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए वो बीजेपी से टिकटों का मोलतोल जरूर करेंगे तब शुरू होगा असली खेल । जिसके सूत्रधार ना तो रामदेव होंगे और ना ही गडकरी । सब कह रहे होंगे संघम शरण गच्छामि

Wednesday, August 1, 2012

प्रसिद्धि के बोझ से दबा आंदोलन

मोदी मानवता के हत्यारे हैं- संजय सिंह
इस कीचड़ में मुझे मत डाले- अन्ना हजारे
मोदी ना केवल सांप्रदायिक हैं बल्कि भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा देते हैं- अरविंद केजरीवाल
मोदी इस देश के निर्वाचित मुख्यमंत्री हैं और कोई उनसे मिले तो किसी को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए- कुमार विश्वास
कालेधन पर बाबा के जंग में हम उनके साथ हैं किरण बेदी
ये पांच बयान हैं जो दो दिनों के अंदर टीम अन्ना के अहम सदस्यों ने दिए हैं । इस बयान के केंद्र में है गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और बाबा रामदेव का मंच साझा करना और उसी मंच से रामदेव का नरेन्द्र मोदी की तारीफ करना । रामदेव और नरेन्द्र मोदी के एक साथ मंच पर आने से टीम अन्ना के अंदर का झगड़ा और मतभेद दोनों सामने आ गए । मोदी और रामदेव के मसले पर अन्ना हजारे, किरण बेदी और कुमार विश्वास गोलबंद हो गए हैं वहीं दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया हैं । रामदेव के मोदी के साथ मंच साझा करने और नितिन गडकरी की रामदेव के पांव छूती तस्वीर, फिछले साल दिल्ली में रामदेव के आंदोलन में हिंदूवादी साध्वी ऋतंभरा का शामिल होने  को अगर मिलाकर देखें तो एक साफ तस्वीर उभरती है । जो तस्वीर है वो धर्मनिरपेक्ष तो नहीं ही है । इन्हीं तस्वीरों के आधार पर कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह तो साफ तौर यह आरोप लगा चुके हैं कि रामदेव और अन्ना हजारे का पूरा आंदोलन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की योजना के मुताबिक चल रहा है । हम यहां याद दिला दें कि अन्ना हजारे भी एक बार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर चुके हैं । बाद में जब अन्ना हजारे घिरे तो मीडिया पर तथ्यों को तोड़ मरोड़कर पेश करने का आरोप लगाकर टीम अन्ना ने बेहद सफाई से अन्ना के उस बयान से पल्ला झाड़ लिया था । लेकिन जिस तरह से अब टीम अन्ना रामदेव के साथ कंधा से कंधा मिलाकर आंदोलन कर रही है उससे दिग्विजय सिंह के आरोप और गहराने लगे हैं । जंतर मंतर पर चल रहे अनशन के दौरान इस तरह का विवाद उठना अनशन और आंदोलन दोनों की विश्वसनीयता को कठघरे में खड़ा कर देती है । अन्ना हजारे बार बार पंथ निरपेक्षता की बात करते हैं लेकिन लगातार रामदेव के साथ गलबहियां भी करते नजर आते हैं । रामदेव की आस्था और प्रतिबद्धता दोनों बिल्कुल साफ है । अनशन के दौरान जंतर मंतर पर रामदेव अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के साथ हाथ खड़े कर हुंकार भरते हैं और अगले ही दिन अहमदाबाद जाकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की वंदना करने लग जाते हैं ।
मोदी-रामदेव मुलाकात पर जिस तरह से टीम अन्ना में मतभेद खुलकर सामने आया है वो आंदोलन के भविष्य और उसकी साख के लिए अच्छा नहीं है । जिस जनता की टीम अन्ना लगातार दुहाई देती है वही जनता आज टीम अन्ना से और विशेष तौर पर अन्ना हजारे से ये जानना चाहती है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी तारीफों के पुल बांधनेवाले रामदेव के बारे में उनकी राय क्या है । अन्ना हजारे को इस बारे में अपनी राय साफ करनी होगी कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर उनकी सोच क्या है । जो व्यक्ति दो हजार दो के गुजरात दंगों के लिए कठघरे में खड़ा हो, जिसके मुख्यमंत्रित्व काल में राज्य में तमाम संवैधानिक संस्थाओं की धज्जियां उड़ी हों, जिसके शासनकाल के दौरान राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो पाई हो उसके बारे में चुप्पी साधना टीम अन्ना की विश्वसनीयता के साथ साथ उनकी मंशा पर भी शक का धुंधलका बनकर छाने लग गई है ।
ऐसा नहीं है कि रामदेव और मोदी के मुद्दे पर ही टीम अन्ना के सदस्यों के बीच मतभेद हैं । और कई अन्य मुद्दे भी हैं जिसको लेकर मतैक्य नहीं है । एक ही मुद्दे पर अलग अलग बयान से जनता के बीच भ्रम फैलता है, जिससे आंदोलन के बिखर जाने का खतरा बन गया है । मसलन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को लेकर भी अन्ना और अरविंद केजरीवाल में मतभेद खुलकर सामने आ गए । अनशन के दौरान एक दिन अरविंद केजरीवाल ने सरेआम अन्ना हजारे से असहमति जताते हुए कहा कि कुछ लोग कह रहे हैं कि राष्ट्रपति बनने के बाद प्रणब मुखर्जी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगाए जाने चाहिए । अरविंद केजरीवाल जिन कुछ लोगों की बात कर रहे थे वो अन्ना हजारे और बाबा रामदेव थे जिन्होंने एक दिन पहले उसी मंच से ये ऐलान किया था कि राष्ट्रपति बनने के बाद प्रणब मुखर्जी के खिलाफ आरोप लगाने बंद होने चाहिए । अन्ना की मौजूदगी में अरविंद केजरीवाल ने महामहिम पर हमले किए । अरविंद केजरीवाल बेहद ईमानदार होंगे, उनके अंदर देशप्रेम का जज्बा भी होगा, वो देश के लिए वो बलिदान देने को भी तैयार होंगे लेकिन अरविंद केजरीवाल को यह बात समझनी होगी कि देश के राष्ट्रपति पद की कोई मर्यादा होती है और पूरा देश उस पद को एक इज्जत बख्शता है । लिहाजा प्रचारप्रियता के लिए देश के प्रथम नागरिक पर आरोप जड़ने से आम जनता के मन में केजरीवाल की क्रांतिकारी छवि नहीं बल्कि एक वैसे अराजक इंसान की छवि बनती है जो हर किसी को गाली देता चलता है । इसका नतीजा यह होता है कि उसकी गंभीरता कम होती है और लोग उनकी बातों को शिद्दत से लेना बंद करने लगेंगे ।  
इस तरह की बयानबाजियों और टीम के सदस्यों के बीच मतभिन्नता से ये साफ है कि इस आंदोलन को नेतृत्व देनेवालों के बीच मुद्दों को लेकर जबरदस्त मतभेद हैं । इंडिया अगेंस्ट करप्शन में भी सबकुछ ठीक नहीं चल रहा । पिछले एक साल से जिस तरह से कई लोगों ने संगठन में पारदर्शिता के आभाव और अरविंद केजरीवाल पर मनमानी के आरोप लगाते हुए खुद को अलग किया उससे भी जनता के बीच गलत संदेश गया । सोशल मीडिया में आंदोलन की कमान संभालने वाले शिवेन्द्र सिंह ने भी खत लिखकर टीम में चल रही राजनीति और टीम के नेतृत्व के गैरलोकतांत्रिक होने का मुद्दा उठाया था । लेकिन उन मुद्दों को तवज्जो नहीं दिए जाने से शिवेन्द्र सिंह ने अपने आपको समेट लिया । पिछले साल अपना सबकुछ छोड़ छाड़कर इस आंदोलन से जुड़े कितने ऐसे शिवेन्द्र हैं जिन्होंने नेतृत्व पर संगठन को गैरलोकतांत्रिक तरीके से चलाने के आरोप लगाते हुए टीम का साथ छोड़ दिया । इसके अलावा टीम के कई लोगों को तुरंत फुरंत मिली प्रसिद्धि ने भी काम बिगाड़ा । चौबीस घंटे न्यूज चैनलों के इस दौर में बहुत जल्दी प्रसिद्धि मिलती है उससे उस शख्स से अपेक्षा भी बढ़ जाती है । बहुधा होता यह है कि प्रसिद्दि के बोझ और नशे में जिम्मेदारियों से दूर हट जाते हैं । टीम अन्ना के कुछ सदस्यों के साथ भी ऐसा हो रहा है । प्रसिद्दि के दंभ में वो धरती छोड़ने  लगे है जो ना तो आंदोलन के लिए अच्छा है और ना ही उनके खुद के लिए