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Saturday, February 3, 2018

खत की आड़ में प्रसिद्धि की चाहत


संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावत को लेकर उठा विवाद फिल्म की रिलीज के बाद शांत होने लगा था। उसी वक्त फिल्म अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने पद्मावत के निर्देशक संजय लीला भंसाली को एक लंबा उपदेशात्मक खत लिखकर एक और विवाद उठाने की कोशिश की। स्वरा के खत से बॉलीवुड में थोडा उद्वेलन हुआ। शाहिद कपूर और दीपिका ने अपने अंदाज में जवाब दिया। विवेक अग्निहोत्री समेत कई अन्य लोगों ने भी स्वरा के खत का उत्तर दिया। स्वरा ने फिल्म पद्मावत के बहाने से देश में महिलाओं को लेकर जो सवाल उठाए हैं उसपर समग्रता में विचार किया जाना आवश्यक प्रतीत होता है। स्वरा अपने खत में इस बात को रेखांकित करती हैं कि उन्होंने टिकट खरीदकर ये फिल्म देखी लेकिन वहां उनको ये महसूस हुआ कि संजय लीला भंसाली ने जौहर और सती को महिमामंडित किया है। उत्तेजना में उन्होंने यहां तक कह डाला कि आपकी भव्य फिल्म को देखने के बाद मुझे योनि जैसा होने का एहसास हुआ. मुझे ऐसा लगा कि मैं महज एक योनि में सीमित कर दी गयी हूं। स्वरा के विचारों का सम्मान किया जाना चाहिए लेकिन किसी भी विचार को अतीत की कसौटी पर भी कसे बिना उसकी वस्तुनिष्ठता का पता नहीं चल पाता है।
स्वरा के खत को अगर हम ठीक से ठहरकर पढ़ें तो शुरू से ही उसमें एक व्यंग्यात्मक भाव है। फिल्म पद्मावत के बहाने वो अपने विचारों को बढ़ाती हुई नजर आती हैं। इसके पहले कि स्वरा के विचारों को लेकर बात हो उनके पत्र की पहली पंक्ति पर बात कर लते हैं जो दोषपूर्ण ही नहीं महज कल्पना पर आधारित है। उस पंक्ति में स्वरा फिल्म पद्मावत में 70 कट की बात करती हैं जो गलत है। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की सदस्या वाणी त्रिपाठी टिक्कू ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान मंच से ये बात साफ कर दी थी कि फिल्म पद्मावत में कोई कट नहीं लगाया गया है। जयपुर लिट फेस्ट में भी एक सत्र में संचालक सलिल त्रिपाठी ने भी कुछ इसी तरह की बात की थी। सलिल त्रिपाठी पेन इंटरनेशनल से जुड़े हुए हैं और पुरस्कार वापसी के दौर में काफी सक्रियता से असहिष्णुता को लेकर लेखन कर रहे थे। खैर ये अलग प्रसंग है। अब वापस लौटते हैं स्वरा के पत्र पर जहां वो कहती हैं – और आज के इस सहिष्णुभारत में, जहां मीट को लेकर लोगों की हत्याएं हो जाती हैं और किसी आदिम मर्दाने गर्व की भावना का बदला लेने के लिए स्कूल जाते बच्चों को निशाना बनाया जाता है, उसके बीच आपकी फिल्म रिलीज हो सकी, यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है. इसलिए आपको एक बार फिर से बधाई।  बहुत चतुराई से स्वरा भास्कर ने फिल्म पद्मावत के बहाने देश में दो साल पहले चली सहिष्णुता और असहिष्णुता की बहस को भी छेड़ने की कोशिश की है। इससे भी इस खत को लिखने की मंशा के संकेत तो मिलते ही हैं। तंज कसते हुए वो इस बात का उल्लेख करती हैं कि भारत में मीट के लिए हत्या हो रही है। फिर वो सुनी सुनाई बातों पर यकीन कर उसको प्रचारित करने के दोष की शिकार हो रही हैं। कल्पना और परसेप्शन के आधार पर अपने तथ्य निर्मित करती चल रही हैं। और जब कल्पना के आधार पर यथार्थ का निर्माण होता है तो वो बहुत खोखला होता है।
अपने इस पत्र में स्वरा भास्कर ने ये भी दावा किया है कि उन्होंने संजय लीला भंसाली के लिए ट्विटर पर आभासी लठैतों से डटकर मुकाबला किया। स्वरा ने अपने पक्ष के साथ एक वीडियो क्लिप भी लगाया जिसमें वो फिल्म पद्मावत के बचाव का दावा कर रही हैं। उस वीडियो में भी अगर पहली पंक्ति देखी जाए तो वहां वो ये कहती नजर आ रही हैं कि विवाद जानबूझकर खड़ा किया गया और बढ़ने दिया गया। किसने जानबूझकर विवाद खड़ा किया, उनका इशारा किसकी ओर था, इसको साफ करना चाहिए। क्या वो इसके लिए संजय लीला भंसाली को जिम्मेदार मान रही हैं? लेकिन जो एक और बड़ी चूक स्वरा से हुई वो ये जब वो कहती हैं कि – मैंने पूरी सच्चाई के साथ यह यकीन किया कि और आज भी करती हूं कि इस देश के हर दूसरे व्यक्ति को वह कहानी कहने का हक है, जो वह कहना चाहता है और जिस तरह से कहना चाहता है।वह अपनी नायिका के पेट को जितना चाहे उघाड़ कर दिखा सकता है और ऐसा करते उन्हें अपने सेटों को जलाए जाने का, मारपीट किए जाने, अंगों को काटे जाने, जान जाने का डर नहीं सताएगा। हर व्यक्ति को कहानी कहने का हक है, जो वो कहना चाहता है लेकिन जिस तरह से कहना चाहता है उसकी कुछ सीमाएं संविधान में तय की गई हैं। अभिव्यक्ति की आजादी संपूर्ण नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में भारत की जनता को अभिव्यक्ति की आजादी का हक दिया गया है लेकिन उसके साथ ही संविधान का अनुच्छेध 19(2) इस हक की सीमाएं भी तय कर देता है। इसलिए कोई भी नायिका के पेट को जितना चाहे उघाड़कर नहीं दिखा सकता है। संविधान के अंतर्गत जो व्यवस्था है उसका सम्मान तो करना ही होगा । हां, ये भी साथ साथ देखा जाना चाहिए कि संविधान इसके उल्लंघन की स्थिति में कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं देता है । किसी भी प्रकार की हिंसा या हिंसा की धमकी कानूनन अपराध है। लेकिन स्वरा के पत्र में इस तरह की कई बातें हैं। बहुधा उत्तेजना में तर्क भटकने लगते हैं।
अपने इस पत्र में स्वरा ने एक बात गंभीरता से रेखांकित करने की कोशिश की है वो ये कि फिल्म सती या जौहर को बढ़ावा देती है। अपनी इस बात को पुष्ट करने के लिए स्वरा बहुत जोरदार तरीके से स्त्रियों की स्थितियों के बारे में बातें करती चलती हैं। भंसासी को 13 वीं शताब्दी से लेकर 21 वी शताब्दी के भारत की याद दिलाती हैं। एक माध्यम के तौर पर फिल्म के ताकत की तरफ भी इशारा करती हैं । यह ठीक है लेकिन स्वरा इस बात को भूल गई हैं कि इस फिल्म के पहले चार बड़े डिसक्लेमर लगाए गए हैं जिसमें फिल्म निर्माता की तरफ से कहा गया है कि यह जायसी के महाकाव् पद्मावत पर आधारित है। यह फिल्म सती या जौहर को महिमामंडित नहीं करती है आदि। स्वरा के पत्र के बाद इस फिल्म की अभिनेत्री दीपिका ने ठीक ही कहा प्रतीत होता है। दीपिका ने कहा कि ऐसा लगता है कि फिल्म शुरू होने के पहले वो पॉपकॉर्न खाने चली गई थीं जिससे कि फिल्म की शुरुआत में दिखाई गए डिसक्लेमर उनसे छूट गए। वैसे भी 13 वीं शताब्दी की स्थितियों का अगर चित्रण हो रहा है तो उसमें 21वीं शताब्दी की सोच को घुसाना उचित नहीं होगा। क्या फिल्म बाजी राव मस्तानी को बहुविवाह और व्यभिचार को बढ़ावा देने और इन कुप्रथाओ को बढ़ावा देनेवाला माना जाएगा। मैं यहां स्वरा की खुद की फिल्म तनु वेड्स मनु की चर्चा नहीं करना चाहता हूं क्योंकि उस फिल्म की कहानी तो उनको याद ही होगी। उस वक्त उनके अंदर का पत्र लेखक खामोश रहा।
अपने इस पत्र में स्वरा ने अपने समर्थन में विभाजन के वक्त के भारतीय महिलाओं के दर्द का उल्लेख कर इसको गंभीर बनाने की कोशिश की है। कुछ साहित्यक कृतियों का उदाहरण भी दिया है। लेकिन स्वरा भी उसी दोष का शिकार हो जाती हैं जिसके शिकार तुलसीदास की पंक्ति ढोल गंवार... को व्याख्यायित करनेवाले होते हैं। रामचरित मानस में चुलसीदास की इन दो पंक्तियों के आधार पर उनको पिछड़ी जातियों और महिलाओं का विरोधी करार देने की कोशिश लगातार की जाती रही, बगैर संदर्भ को समझे कि ये पंक्ति कौन कहता है। तुलसीदास की पंक्तियों की व्याख्या करनेवाले आलोचक या लेखक बहुधा बहुत ही सुनियोजित तरीके से तुलसीदास के उन पदों को प्रमुखता से उठाते हैं जिनसे उनकी छवि स्त्री विरोधी और वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक की बनती है। तुलसीदास को स्त्री विरोधी करार देनेवाले मानस में अन्यत्र स्त्रियों का जो वर्णन है उसकी ओर देखते ही नहीं हैं। एक प्रसंग में कहा गया हैं – ‘कत विधि सृजीं नारि जग माहीं, पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं। इसी तरह अगर देखें तो मानस में पुत्री की विदाई के समय के प्रसंग में कहा गया है- बहुरि बहुरि भेटहिं महतारी, कहहिं बिरंची रचीं कत नारी। इसके अलावा तुलसी साफ तौर पर कहते हैं- रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा।आकलन सदैव समग्रता में होना चाहिए। स्वरा के इस खत से उसको दो मिनट की प्रसिद्धि अवश्य मिल गई लेकिन अगर वो इस खत से बौद्धिक होने का रास्ता ढूंढ रही है तो वो भटकती हुई नजर आती है।  


Friday, January 27, 2017

सफलता तलाशती विवाद

जयपुर में फिल्मकार संजय लीला भंसाली के साथ एक अनाम से संगठन राजपूत कर्णी सेना के चंद हुड़दंगियों ने धक्कामुक्की की और भंसाली को थप्पड़ मारा। इस घटना की जितनी निंदा की जाए वो कम है । गांधी के देश में किसी को भी हिंसा की उजाजत नहीं दी जा सकती है । शूटिंग के दौरान जयपुर से जयगढ़ किले में पहुंचकर कर्णी सेना के मुट्ठीभर कार्यकर्ताओं ने उत्पात मचाया और पुलिस उनको रो नहीं पाई, यह किसी भी जगह के पुलिस की कार्यशैली पर सवाल खड़े करती है । हलांकि पुलिस ने हिंसा करनेवालों में से कइयों के गिरफ्तार किया है लेकिन अगर पहले रोक लिया जाता तो यह विवाद उठता ही नहीं।  इस अनाम से राजपूत संगठन को इस बात पर एतराज है कि संजय लीला भंसाली अपनी फिल्म पद्मावती में अलाउद्दीन खिलजी और रानी पद्मावती के बीच लवमेकिंग सीन क्यों दिखाया जा रहा है । सवाल तो यह भी उठता है कि ये राजपूत करणी सेना है क्या ? ये किन राजपूतों की नुमाइंदगी करता है ? करणी सेना को मीडिया की वजह से नाम मिलता है । जिस तरह से शुक्रवार की घटना को मीडिया खासकर न्यूज चैनलों ने उछाला उससे लगा कि कोई बड़ा संगठन है । इस घटना को दिखाने पर सवाल नहीं है, सवाल है दिखाने के तरीके पर । अमूमन किसी भी न्यूज चैनल ने इलस संगठन की वास्तविकता नहीं बताई । यह संगठन इसी तरह से फिल्मों आदि के रिलीज या शूटिंग आदि के मौकों पर न्यूज चैनलों के कैमरे पर हीनजर आते हैं । जमीन पर इसका कोई असर अबतक दिखा नहीं है । मीडिया में जैसे ही इस तरह के कागजी संगठनों को तवज्जो मिलनी बंद हो जाएगी वैसे ही इनकी हुंड़दंगबाजी भी बंद हो जाएगी । टी वी कैमरे के लिए किया जानेवाला विरोध अगर नहीं दिखाया जाए तो वो फुस्स हो जाएगा । एक जमाने में दिल्ली में शिवसेना के नाम पर एक शख्स इसी तरह का संगठन चलाता था । मीडिया ने उसको दिखाना बंद किया तो संगठन भी गायब हो गया ।

एक मिनट के लिए मान भी लिया जाए कि पद्मावती काल्पनिक चरित्र हैं और इतिहास में इस बात
के तथ्य मौजूद नहीं है लेकिन लोक में तो पद्मावती मौजूद है । खिलजी एक आक्रमणकारी था और स्थानीय रानी के साथ फिल्म में उसके लवमेकिंग सीन को फिल्माना कौन सी कल्पना है । राजस्थान के लोकगीतों से लेकर लोकमानस में रानी पद्मावती का एक स्थान है । मेवाड़ इलाके में रानी पद्मावती को लेकर एक खास समुदाय के लोग खुद को आईडंटिफाई करते हैं ।  पौराणिक आख्यानों और लोक में व्याप्त किसी चरित्र को गलत तरीके से पेश करने को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ना उचित नहीं होगा । संजय लीला भंसाली समेत कई फिल्मकार विवादों से बॉक्स ऑफिस पर सफलता का रास्ता भी तलाशते हैं । बहुधा सायास और कभी कभारा अनायास उनकी फिल्मों से विवाद होता है । इतिहास से लेकर पौराणिक कथाओं से छेड़छाड़ या लोक में स्थापित मान्यताओं का मजाक बनाकर । जैसे संजय लीला भंसाली ने ही जब राम-लीला फिल्म बनाई थी तो उस फिल्म का ना तो राम से कोई लेना देना था और ना ही रामलीला से । यह नाम इस लिए रखा गया था ताकि फिल्म के नाम को लेकर विवाद हो और फिल्म के लिए माइलेज हासिल किया जा सके । इसी तरह से अगर देखें तो संजय लीला भंसाली ने अपनी फिल्म देवदास में भी इतिहास से छेड़छाड़ किया था । मूल कहानी में पारो और चंद्रमुखी के बीच मुलाकात ही नहीं हुई थी लेकिन भंसाली ने अपनी फिल्म में ना केवल दोनों की मुलाकात करवा दी बल्कि दोनों के बीच एक गाना भी फिल्मा दिया – डोला रे डोला रे । अब यह तो माना नहीं जा सकता है कि संजय लीला भंसाली को यह बात पता नहीं होगी कि पारो और चंद्रमुखी के बीच मुलाकात नहीं हुई थी । तो जब आप जानबूझकर ऐतिहासिक तथ्यों या मिथकों या आख्यानों के साथ छेड़छाड़ करेंगें और मंशा विवाद पैदा करने की होगी तो फिर जयपुर जैसी घटनाओं की संभावना लगातार बनी रहेंगी । कोई भी सिरफिरा इस तरह की वारदात को अंजाम दे सकता है । दरअसल संजय लीला भंसाली लगभग हर फिल्म में ऐतिहासिकता को अपने हिसाब से इस्तेमाल करते चलते हैं । यह चीज बाजीराव मस्तानी में बाजीराव और मस्तानी के बीच के काल्पनिक प्रेम को देखकर भी मिलता है ।ऐतिहासिक चरित्रों कके बीच रोमांस का तड़का बगैर किसी आधार के विवाद को जन्म देती है । फिल्म बाजीराव मस्तानी के वक्त भी इसको लेकर छोटा मोटा विरोध हुआ था । इस तरह से अगर हम देखें तो आशुतोष गोवारीकर ने फिल्म मोहेंजोदाड़ो बनाई । इस फिल्म में मुअनजोदड़ो सभ्यता के तथ्यों से कोई लेना देना नहीं है । इसमें आर्यों को सभ्यता का रक्षक और अनार्यों को लुटेरा जैसा चित्रित किया गया है । अब तक कोई इतिहासकार इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया है । काल्पनिकता के आधार पर इतिहास की नई व्याख्या बहुधा विवादित होती ही है । विरोध करना हर किसी का लोकतांत्रिक हक है लेकिन उसमें हिंसक होना या कानून को अपने हाथ में लेना सर्वथा अनुचित है । विवाद खड़ा कर अपनी तिजोरी भरने की मंशा बेहद खतरनाक होती है । खतरा तब और बढ़ जाता है जब इसको कला के नाम पर या कलाकार की अभव्यक्ति की आजादी से जोड़ा जाता है । कलाकार की कल्पना जब जानबूझकर लोगों की भावनाओं को भड़काने लगे तो उसको रोकने के लिए संविधान में व्यवस्था है, हिंसक विरोध करनेवालों को इस रास्ते पर चलकर विरोध करना चाहिए ।