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Sunday, November 29, 2015

साहित्य शेष है…

हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ महीप सिंह का पिछले दिनों छियासी साल की उम्र में निधन हो गया है । महीप सिंह हिंदी के उन चंद साहित्यकारों में से थे जो किसी वाद या विवाद से दूर रहकर साहित्य साधना में लगे थे । वो किसी धारा या गुट के खूंटे से नहीं बंधे, इसका नुकसान भी उनको हुआ । यथोचित प्रसिद्धि उनको नहींमिली लेकिन वो अपने चुने हुए रास्ते से नहीं डिगे । गैर हिंदी भाषी परिवार में पैदा होने के बावजूद महीप सिंह ने हिंदी को अपनाया और अपने लंबे साहित्यक जीवन में महीप सिंह ने इस भाषा में ही कई उपन्यास और कहानियां लिखी । । महीप सिंह का परिवार पाकिस्तान के झेलम का रहने वाला था लेकिन उनके पिता विभाजन से काफी पहले यानि उन्नीस सौ तीस में ही उत्तर प्रदेश के उन्नाव आ गए थे । महीप सिंह का जन्म उन्नाव में हुआ था और साहित्यक लिहाज से उर्वर कानपुर की धरती पर वो पले बढे । फिर वो आगरा चले गए जहां से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की । कानपुर के बाद आगरा होते हुए डॉ महीप सिंह दिल्ली आ गए और दिल्ली विश्वविद्यालय के खालसा कॉलेज में अध्यापन शुरू कर दिया । दिल्ली आने के बाद महीप सिंह की साहित्यक रचना को पंख लगे लेकिन महीप सिंह हमेशा अपनी जड़ों से ना केवल जुडे रहे बल्कि अपनी माटी के सोंधेपन के साथ साहित्य में मौजूद रहे । देश में जब इमरजेंसी लगी थी तो लगभग उसी वक्त उन्नीस सौ छिहत्तर में महीप सिंह का एक उपन्यास यह भी नहीं- प्रकाशित हुआ था । अपने इस उपन्यास में महीप सिंह ने महानगर की आपाधापी और भागमभाग के बीच स्त्री और पुरुष के संबंधों को केंद्र में रखा था । स्त्री-पुरुष पात्रों के बीच परस्पर तनाव, मानसिक अवसाद, स्वार्थ, झूठा दर्प आदि का बेहतर चित्रण महीप सिंह ने अपने इस उपन्यास में किया था । पति पत्नी के संबंधों को उकेरते हुए महीप सिंह ने उन वजहों की पड़ताल की थी जिनसे किसी के भी दांपत्य जीवन में जहर घुल जाता है । आज से करीब चार दशक पहले महीप सिंह ने अपने इस उपन्यास में माहानगरीय जीवन में परिवार के दरकने और संबंधों की संवेदनहीनता का जो चित्रण किया था वह लगता है कि बस अभी की स्थिति है । सफल लेखक हमेशा अपने समय से आगे की स्थितियों को भांप लेता है । इस उपन्यास में सोहन और शांता का जो चरित्र महीप सिंह ने गढ़ा था वो महानगर के दांपत्य जीवन की विश्वसनीय तस्वीर पेश करता है। अब भी महानगरों के कई घरों में आपको सोहन और शांता मिल जाएंगे जो समाज और अपने इगो की वजह से रिश्तों को स्वाहा कर रहे होते हैं । यह वो दौर था जब कई लेखक मध्यवर्गीय जीवन को केंद्र में रखकर कहानियां लिख रहे थे । इस तरह के उपन्यास लेखकों की रचनाओं में योगेश गुप्त का - फैसला, देवेश ठाकुर का - भ्रमभंग आदि प्रमुख हैं। आजादी के करीब ढाई दशक बाद समाज के सामने संबंध नए तरीके से परिभाषित हो रहे थे जो लेखकों की रचनाओं में प्रतिबिंबित हो रहे थे । चार दशक के अपने रचनाकाल में उन्होंने सवा सौ के करीब कहानियां लिखकर हिंदी साहित्य में अपनी उपस्थिति को गाढा किया । उनकी कहानियों में काला बाप गोरा बाप, पानी और पुल , सहमे हुए आदि श्रेष्ठ कहानियां हैं । साठ के दशक के अंतिम वर्षों में सचेतन कहानी को आधार बनाकर महीप सिंह ने संचेतना नाम की पत्रिका की शुरुआत की । इस पत्रिका ने अपनी कहानियों से हिंदी साहित्य में सार्थक हस्तक्षेप किया । डॉ महीप सिंह ने कई पत्र-पत्रिकाओं में लगातार समसायमिक विषयों पर लिखा । महीप सिंह के जाने से हिंदी की अपूरणीय क्षति हुई है लेकिन उनके साहित्य पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है । 

हिंदी विरोध बहाना, वोट निशाना

आजाद भारत ने पचास और साठ के दशक में भाषा के आधार पर बेहद हिंसक आंदोलन देखा है । भाषा के आधार 1953 में सबसे पहले आंद्र प्रदेश का गठन हुआ था । उसके बाद भाषाई आधार पर राज्यों के बंटवारे को लेकर उस वक्त की हिंसा में कई लोगों की जान गई थी । तमिलनाडू भी बाद में हिंदी विरोध की आग में झुलसा था तब उस वक्त केंद्र सरकार में मंत्री इंदिरा गांधी की सूझबूझ और पहल की वजह से उस आंदोलन के दौरान होनेवाली हिंसा-आगजनी खत्म हुई थी । उसी इंदिरा गांधी की पार्टी के एक मुख्यमंत्री ने चुनावी जीत हासिल करने के लिए एक बार फिर से भाषा के आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण का खतरनाक खेल शुरू किया है । असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने कहा है कि भारतीय जनता पार्टी हिंदी बोलनेवाले नेताओं की पार्टी है जो असम पर आक्रमण करना चाहती है । तरुण गगोई ने आरोप लगाया है कि भारतीय जनता पार्टी के नेता हिंदी के उच्चारणों को असमिया पर थोपना चाहते हैं । उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के असम के प्रभारी महेन्द्र सिंह को निशाने पर लेते हुए कहा कि महान वैष्णव संत श्रीमंत शंकरदेवा को उन्होंने बाबा शंकरदेव कहा । इस तरह के कई नामों का गिनाते हुए असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने कहा कि हिंदी बोलनेवाले असम पर धावा बोलने और असमिया भाषा को भ्रष्ट करने की जुगत में हैं । गोगोई साहब इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने साफ तौर पर कहा कि हिंदी वालों का असम और असमिया पर आक्रमण करने की कोशिशों का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा । एक राज्य का मुख्मंत्री, जिसने संविधान के नाम की शपथ ली हो, उसके मुंह से इस तरह की बातें घोर आपत्तिजनक है । असम में करीब अट्ठावन फीसदी लोग असमिया बोलते हैं वहीं करीब पांच फीसदी लोग हिंदी भाषी हैं । असम में हिंदी और हिंदीवालों के विरोध का लंबा इतिहास रहा है । पिछले कई सालों में हिंदी बोलनेवालों की वहां हत्याएं भी की जाती रही हैं । ये हत्याएं तरुण गोगोई के कार्यकाल में नियमित अंतराल पर हुई । इस साल ही असम के तिनसुकिया जिले में एक अठारह साल की लड़की समेत दो हिंदी बोलनेवालों को बेवजह मौत के घाट उतार दिया गया । उनके घर में घुसकर गोलीमारी गई । उसके पहले एक साथ तेरह हिंदीवालों के कत्ल के सनसनीखेज वारदात को अंजाम दिया गया । हिंदी भाषी लोगों के खिलाफ जिस मुख्यमंत्री के दिल में इतनी नफरत हो उससे हत्यारों के खिलाफ कार्रवाई की उम्मीद बेमानी है । आप हिंदी विरोधी रहें लेकिन जब आपने संविधान की शपथ ली है कि धर्म, लिंग, जाति भाषा आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होने देंगे तो ऐसे में खुद ही आप भाषिक आधार पर नफरत की राजनीति को हवा देने लगें तो संविधान की मर्यादा तो तार-तार होती ही है, सामाजिक ताना-बाना भी छिन्न भिन्न हो जाता है । असम के मुख्यमंत्री के इस बयान का मामला संसद में संविधान पर होनेवाली बहस में संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू ने उठाया था । उनके इस बयान पर मुख्यमंत्री के सांसद पुत्र ने असम के राज्यपाल के बयान का मुद्दा उठा दिया । दरअसल अब हमारे देश की राजनीति में यह आमचलन हो गया है कि पूर्ववर्ती पार्टियों ने ये किया इस वजह से हमारा कदम गलत नहीं है । इस सोच को निगेट करने की आवश्कता है । क्या पूर्ववर्ती सरकारों ने जो गलतियां की उसके आधार पर मौजूदा सरकार को गलतियां करने का हक मिल जाता है । अंग्रेजी में एक कहावत है कि टू ब्लैक डज नॉट मेक अ व्हाइट । दो काले चाहे जितना भी मिल जाएं एक सफेद नहीं बना सकते हैं । मुख्यमंत्री तरुण गोगोई का भाषा के आधार पर राजनीति करना भारत को नफरत की सियासत के दलदल में धकेलने जैसा कदम है और पूरे देश में इस पर गंभीरता से बात होनी चाहिए ।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है भाषा का प्रश्न केवल सांस्कृतिक प्रश्न नहीं है । अवस्था विशेष में यह राजनीति से भी जुड़ जाता है, इसका असर देश की स्वाधीनता पर भी पड़ता है । मुख्यत: भाषाओं के कारण ही भारत-राष्ट्र के राजनीतिक तंत्र को संघ का रूप लेना पड़ा है । सौभाग्य से भारत में केंद्र की शक्ति काफी बड़ी है और सभी प्रांत उसकी अधीनता स्वीकार करते हैं । लेकिन इससे इस बात पर पर्दा नहीं पड़ता कि प्रांतों की संख्या इस देश में जितनी ही बढ़ेगी, केंद्र की शक्ति पर दुर्दिन में आनेवाले खतरे उतने ही ज्यादा होते जाएंगे । अतएव हमारे उपभाषा प्रेम को उस गलत दिशा की ओर नहीं जाना चाहिए, जहां वह अपनी अभिव्यक्ति नए प्रांतों की मांग के रूप में करता है ।दिनकर ने ये बातें तब कही थी जब भारत में भाषा और बोलियों के आधार पर प्रांतों के गठन को लेकर आंदोलन चल रहे थे । भाषा के आधार पर राजनीति की जा रही थी । भाषा के आधार पर की जानेवाली राजनीति के केंद्र में उस वक्त हिंदी विरोध की अंतर्रेखा भी चल रही थी । हिंदी और हिंदी भाषियों के खिलाफ नफरत के बीज बोकर सिसायत की लहलहाती फसल काटने के नापाक सपने देखे जा रहे थे । पूरे देश ने उस वक्त की भाषाई नफरत के नतीजों को देखा था । लेकिन कालंतर में भाषा के आधार पर नफरत की राजनीति दब सी गई थी लेकिन बाद में शिवसेना के बाल ठाकरे ने एक बार फिर से भाषा को आधार बनाकर अपनी राजनीतिक जमीन पुख्ता की थी । गैर मराठी और हिंदी भाषी लोगों के साथ मारपीट और हिंसा के सहारे बाल ठाकरे ने राजनीति की । दो तीन दशकों तक भाषाई नफरत के आधार पर यह राजनीति चलती रही लेकिन बाद में महाराष्ट्र की जनता ने ही उस राजनीति को नकारना शुरू कर दिया । भाषा के आधार पर राजनीति के सपने संजोनेवाले राज ठाकरे को पिछले लोकसभा चुनाव में मराठी जनता ने ही हाशिए पर डाल दिया । अब भी राज ठाकरे की पार्टी मराठी और धरती पुत्र के नाम पर राजनीति करने की कोशिश में कभी हिंदी भाषी महिला रेल अफसर से बदसलूकी करते हैं तो कभी ठेले खोमचेवालों से मारपीट करते हैं । हिंसा और नफरत की राजनीति अब जनता को रास नहीं आती है । तरुण गोगोई के बयान में अवस्था विशेष सूबे में होनेवाला विधानसभा का चुनाव है जिसके लिए वो असमिया वोटरों का ध्रुवीकरण चाहते हैं । लेकिन वो भूल गए हैं कि उनेक इस बयान से देश कमजोर हो सकता है ।
ऐसा लगता है कि लंबे समय से असम के मुख्यमंत्री पद संभाल रहे तरुण गोगोई को अब अपनी राजनीतिक जमीन खिसकती नजर आ रही है, लिहाजा वो हिंदी और हिंदी भाषी जनता के खिलाफ नफरत कर असमिया जनता का ध्रुवीकरण करना चाहते हैं । इस ध्रुवीकरण में वो असमिया के पुरोधाओं का नाम भी इस्तेमाल करते हैं जहां वो कहते हैं कि हिंदी भाषी लोग गलत उच्चारण कर असमिया को भ्रष्ट करना चाहते हैं । असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई को शायद यह मालूम नहीं है कि आजादी के पहले उनके पड़ोसी राज्य मणिपुर के राजकाज में हिंदी का प्रयोग किया जाता रहा है । कई किताबों में इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि मणिपुर के सिक्कों पर नाम नागरी लिपि में ढाले जाते थे । उल्लेख तो इस बात का भी मिलता है कि 1890 में मणिपुर के सेनापति जनरल टेकेन्द्रजीत सिंह पर अंग्रेजों ने जब केस किया था तब उन्होंने अपना बयान हिंदी में दिया था और उस केस में बयान पर दस्तखत भी जनरल ने हिंदी में किए थे । पूर्वोत्तर से हिंदी और नागरी का सदियों पुराना रिश्ता रहा है । आजादी के बाद जब देश में हिंदी के खिलाफ ध्रुवीकरण की सियासत शुरु हुई तो इन बातों को साजिशन दबा दिया गया क्योंकि इन बातों के प्रचलन में आने से हिंदी विरोधियों को ताकत नहीं मिलती है ।

असम के राज्यपाल के हिंदू राष्ट्र के भाषण पर बवंडर खड़ा कर देनेवाले बुद्धिजीवियों की नजर संभवत: तरुण गोगोई के भाषण पर नहीं पड़ी । राज्यपाल पर निशाना साधनेवालों को गोगई का भाषण या बयान नहीं दिखा । हर बात पर फेसबुक पर संघ को गाली देने के लिए तत्पर रहनेवाले प्रगतिशील लेखकों की जमात ने भी तरुण गोगोई के इस खतरनाक बयान पर कोई विरोध नहीं जताया । नफरत और असहिषणुता को लेकर चिंतित नजर आनेवाले साहित्यकारों से लेकर वाम विचारकों के पेशानी पर गोगोई के इस बयान के बाद कोई बल नहीं पड़ा । सामाजिक और राजनीति रूप से सजग इन विचारकों के इस बयान पर नजर ना पड़ने की संभावना कम है बल्कि इस बात की संभावना ज्यादा है कि वो लोग जानबूझकर इसको इग्नोर कर रहे हैं । लेकिन तरुण के बयान को इग्नोर करना भारतीय लोकतंत्र के साथ छल है और उसको कमजोर करनेवालों का परोक्ष रूप से समर्थन भी । आखिर क्यों । 

Tuesday, November 24, 2015

गरमाहट भरा होगा शीतकालीन सत्र

बिहार विधानसभा चुनाव में शानदार जीत और असहिष्णुता को लेकर देश विदेश में मचे कोलाहल के बीच संसद का शीतकालीन सत्र हंगामेदार होने के आसार नजर आ रहे हैं । विपक्ष के हौसले सातवें आसमान पर हैं और वो सरकार को घेरने की रणनीति बनाने में जुटा है । बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने विपक्ष को एकजुट होकर सरकार पर हमला करने का मौका भी दे दिया है । विफ7 इस सत्र में आक्रामक नजर आ सकता है लेकिन लोकसभा में संख्याबल एनडीए के पक्ष में है । राज्यसभा में सत्तापक्ष अल्पमत में है । यही लोकतंत्र की खूबसूरती है । लेकिन लोकतंत्र की सार्थकता इस बात में भी है कि पक्ष-विपक्ष इस खूबसूरती को बचाते हुए विधायी कार्यों को संपन्न करने में सहयोग करें । इस वक्त भारत की स्थिति वहां तक पहुंच चुकी है कि विकास के लिए दूसरे दौर के रिफॉर्म की जरूरत है । इस रिफॉर्म के लिए कई बिल पास होने हैं जिसके लिहाज से संसद का शीतकालीन सत्र बेहद अहम है । कई सालों से गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स बिल यानि जीएसटी बिल लटका हुआ है । यूपीए शासनकाल के दौरान भी इस बिल को लेकर लंबे समय तक माथापच्ची हुई थी लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका था । सरकार के फ्लोर मैनेजरों के लिए ये बात राहत की हो सकती है कि गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स बिल को लेकर कांग्रेस ने बहस में भाग लेने के संकेत दिए हैं । हाल ही में वित्त मंत्री अरुण जेटली और राहुल गांधी की मुलाकात के बाद बीजेपी-कांग्रेस के बीच जमी रिश्तों की बर्फ पिघली है । कांग्रेस पार्टी की तरफ से बयान आया है कि ये उनका बिल है और वो इस बिल को पास करवाना चाहते हैं । लेकिन उसने साफ कर दिया कि मौजूदा बिल को लेकर उनके सुझावों पर सरकार लचीला रुख अपनाए और उसके हिसाब से बिल में संशोधन हो । जीएसटी पर सरकार को उम्मीद है कि जयललिता की पार्टी उनका समर्थन कर देगी लेकिन अब तक एआईएडीएमके की तरफ से किसी ने भी इस तरह के संकेत नहीं दिए हैं । जीएसटी बिल पास करवाना सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है । कर सुधार के लिए यह बेहद आवश्यक है । जीएसटी के रेट को लेकर ही अबतक सहमति नहीं बन पाई है । पूरी दुनिया में जीएसटी की बीस फीसदी के इर्द गिर्द है लिहाजा विशेषज्ञों की राय इसके पक्ष में है । लेकिन मौजूदा वक्त में राज्य और केंद्र के बीच जो समझ बनी है उसके मुताबिक जीएसटी के तीन दर होंगे । इसको लेकर विशेषज्ञों की कमेटी ने सरकार के सामने तेइस से लेकर 25 फीसदी तक के जीएसटी की सिफारिश की है । दरों के दायरे में उलझा ये बिल सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है । इसके अलावा आगामी सत्र में रीयल एस्टेट बिल, फैक्टरी अमेंडमेंट बिल, जुवेनाइल जस्टिस केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन बिल भी पास होना है । आज देश में रीयल एस्टेट सेक्टर का हाल बहुत ही बुरा है । कई लाख फ्लैट बनकर तैयार हैं लेकिन खरीदार नहीं होने की वजह से इस सैक्टर का ग्रोथ निगेटिव में दिखाई दे रहा है । स्मार्ट सिटी को लेकर महात्वाकांक्षी योजना पर काम रही केंद्र सरकार के सामने रीयल एस्टेट सेक्टर को निगेटिव ग्रोथ से निकालने के लिए यह आवश्यक है कि इस सेक्टर में निवेश हो । निवेश के लिए आवश्यक है आर्थिक सुधार । आर्थिक सुधार का एजेंडा लागू करने के लिए सरकार को विपक्ष से बेहतर रिश्ते रखने होंगे । सरकार को विपक्ष को विश्वास में लेकर अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना होगा । सरकार और विपक्ष के बीच तनातनी से आर्थिक सुधार का एजेंडा लागू होना संभव नहीं है । एक जिम्मेदार विपक्ष होने के नाते कांग्रेस की भी जिम्मेदारी है कि वो सरकार के आर्थिक सुधार की राह में रोड़े ना अटकाए । संसदीय लोकतंत्र में सरकार की जिम्मेदारी बिल पास करवाने कि होती है और विपक्ष का सहयोग हासिल करने की प्राथमिक जिम्मेदारी भी सत्तादारी दल की होती है । 26 नवंबर से शुरू होकर करीब महीने भर चलनेवाले शीतकालीन सत्र में विपक्ष के साथ बेहतर रिश्ते बनाकर बिल पास करवाने होंगे ।
अब दूसरी चुनौती केंद्र सरकार के सामने राजनीतिक है । पिछले अठारह महीनों में जब से केंद्र में मोदी सरकार बनी है तो पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पूरे देश में बीजेपी को मजबूत करने में लगे हैं । अपनी पार्टी को मजबूत करने की योजना की वजह से सरकार को खामोशी से सपोर्ट कर रही पार्टियों के बीच मतभेद की खाई चौड़ी होती जा रही है । इसको बीजू जनता दल के रुख से साफ तौर पर समझा जा सकता है । पिछले अठारह महीने से सरकार को समर्थन कर रही बीजू जनता दल ने एलान कर दिया है कि वो संसद में विपक्ष की भूमिका में होगी । बीजेडी का आरोप है कि सरकार का समर्थन करने के बावजूद ओडीशा के लिए केंद्र सरकार ने पिछले डेढ साल में कुछ नहीं किया । बीजेडी को भी अब देश में बढ़ रही असहिष्णुता नजर आने लगी है । इस मसले पर अकाली दल और शिवसेना ने सरकार के कदमों से अपनी नाखुशी पहले ही जता चुकी है । सरकार के समर्थक दलों के रुख को भांपते हुए कांग्रेस इसका फायदा उठाने की फिराक में है । कांग्रेस ने लोकसभा सचिवालय को देश में बढ़ते असहिष्णुता पर बहस के लिए नोटिस दे दिया है । सहिष्णुता को लेकर संसद में गर्मागर्म बहस होने की पूरी संभावना है । सहिष्णुता- असहिष्णुता की इस बहस में आर्थिक सुधार का एजेंडा कमजोर ना पड़े इसके लिए सरकार को ओवरटाइम करना होगा ।
 

छोटा दायरा, बड़ा कलेवर

हिंदी में लघु पत्रिकाओं को लेकर अब भी खासा उत्साह बना हुआ है । एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त हिंदी में करी सौ साहित्यक पत्रिकाएं निकल रही हैं जिनके पीछे कोई संस्थागत पूंजी नहीं है । व्यक्तिगत प्रयास से निकलनेवाली ये साहित्यक पत्रिका ज्यादातर अनियतकालीन निकलती हैं यानि कि इन पत्रिकाओं की आवर्तिता निश्चित नहीं है । जब साधन और रचनाएं जुट जाएं तो पत्रिका निकल आती है ।हिंदी में साहित्यक पत्रिकाओं का बेहद समृद्ध इतिहास रहा है । कई पत्रिकाएं महानगरों से निकलती हैं । दिल्ली सरकार ने एक वक्त लघु पत्रिकाओं को प्रति अंक तीस हजार रुपए की आर्थिक सहायता देनी शुरू की थी । उस वक्त कई साहित्यक पत्रिकाएं दिल्ली सरकार की इस सहायता के बाद कब्र से बाहर निकल आई थी । उनका आवर्तिता भी नियमित हो गई थी । कुछ लोगों का कहना था कि सरकारी आर्थिक सहायता की वजह से वो नियमित रूप से निकलने लगी थी । बाद में दिल्ली सरकार की वो स्कीम बंद हो गई तो वो पत्रिकाएं फिर कब्र में चली गई और वहां इंतजार में हैं कि फिर कोई सरकार आर्थिक सहायता की स्कीम शुरू करे । ये तो रही उन पत्रिकाओं की बात जो सरकारी सहायता से निकल रही थी । पर खी कई पत्रिकाएं देश के सुदूर इलाकों से निकल रही हैं जो अपने संपादक की जिद जुनून और मेहनत से निकल रही हैं । उनके पीछे उनका साहित्य प्रेम तो होता ही है, एक नया पाठक वर्ग तैयार करना भी मकसद होता है । मकसद तो स्थानीय प्रतिभाओं को मौका देना भी होता है । लघु पत्रिकाओं का यह हिंदी साहित्य को बड़ा योगदान है । उन पत्रिकाओं से अपने लेखन की शुरुआत करनेवाले लेखकों की एक लंबी फेहरिश्त है जो अब हिंदी के मूर्धन्य लेखक हैं । कुछ लघु पत्रिकाएं तो स्थानीय बोलियों में भी निकल रही हैं और उस बोली. भाषा के लेखकों को देश के पाठकों के सामने ला रही है ।
ऐसी ही एक पत्रिका है अंगिका लोक जो खुद को अंग देश का अमृत मंथन कहती है और अंगिका के मान सम्मान पहचान के लिए संकल्पित है। बिहार के दरभंगा से निकलनेवाली यह पत्रिका अंगिका भाषा में निकलती है । अंगिका ऐतिहासिक अंग प्रदेश में बोली जाती है जिसका ओइलाका मुख्यत: भागलपुर, मुंगेर के इलाके हैं । भारत में जिन सोलह जनपदों की बात की जाती है उसमें काशी और कोशल के बाद अंग का ही नाम आता है । अंग प्रदेश से महाभारत के चरित्र कर्ण भी जुड़े हुए हैं । पौराणिक कथाओं के मुताबिक मुंगेर के कर्णचौरा से ही अंग प्रदेश के राजा कर्ण दान किया करते थे । आज उस स्थान पर पूरी दुनिया मे मशहूर बिहार स्कूल ऑफ योग का मुख्यालय है । अंगिकालोक पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपी जानकारी के मुताबिक यह पत्रिका पिछले ग्यारह सालों से निकल रही है । पत्रिका का ताजा अंक ( अक्तूबर-दिसंबर 2015 ) डॉ लक्ष्मी नाराय़ण सुधांशु पर केंद्रित है । इस पत्रिका में सुधांशु जी के कई लेख प्रकाशित हैं । संपादकीय भले ही अंगिका में लिखा गया है लेकिन बाकी सामग्री देवनागरी में ही है । इसमें कुछ रचनाएं अंगिका में भी हैं । अंगिका में कविता पढ़ते समय पाठकों को एरक अलग ही तरह का स्वाद मिलता है । कई लोग ये कह सकते हैं कि इस तरह की पत्रिकाओं का दायरा बहुत छोटा होता है । संभव है उसमें सचाई हो लेकिन मुझे लगता है इस तरह की पत्रिकाओं का दायरा छोटा हो लेकिन इनका फलक बहुत बड़ा होता है । हिंदी में लगभग विस्मृत लक्ष्मी नारायण सुधांशु जी के बारे मे हिंदी के नए पाठकों को बताना ही एक बेहद महत्वपूर्ण काम है । इस तरह की पत्रिकाओं से ही साहित्य समृद्ध होता है और पाठकों का दायरा बढ़ता है ।

चुनिंदा खामोशी, नपुंसक कलम

अभी हाल में कई खबरें आई जिसपर हमारे देश के प्रगतिशील साहित्यकारों का ध्यान लगभग नहीं के बराबर गया । चीन के एक विश्वविद्यालय ने अपने छात्रों के लिए एक फरमान जारी किया । इस फरमान के मुताबिक कैंपस में कोई लड़का या लड़की एक दूसरे के हाथ में हाथ डालकर नहीं चल सकते हैं । इसी फरमान में ये भी आदेश दिया गया कि लड़का-लड़की एक दूसरे के कंधे पर हाथ भी नहीं रख सकते हैं और उनको एक दूसरे को खाना खिलाने पर भी पाबंदी लगाई गई । इसके अलावा भी इस फरमान में कई ऐसी बातें हैं जो बालिग छात्र-छात्राओं के फैसले लेने पर बाधा बनती है । चीन के एक विश्वविद्यालय का ये फैसला एक खबर की तरह आया और चला गया । देश में हर बात पर प्रगतिशीलता को गले में मैडल की तरह जाल कर घूमने वाले बुद्धिजीवी या लेखक संगठनों के मुंह से चूं तक नहीं निकली । किसी को निजता का हनन नजर नहीं आया । प्रगतिशील जमात में से किसी ने चीनी विश्वविद्यालय के इस फैसले पर विरोध नहीं जताया, बयान जारी करने तक की औपचारिकता नहीं निभाई गई । दूसरा मसला भी चीन का ही था । चीन के कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमेटी ने एक बार फिर से अजीबोगरीब फरमान जारी कर पूरी दुनिया को चौंका दिया है । वहां के शासक दल के नए हुक्मनामे के मुताबिक पार्टी कॉडर के गोल्फ खेलने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया है । तर्क यह दिया गया है कि इससे भ्रष्टाचार को रोकने में मदद मिलेगी । चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमिटी के नए फरमान के मुताबिक पार्टी के करीब पौने नौ करोड़ सदस्यों के लिए जिस आठ सूत्रीय नैतिक फॉर्मूले को जारी किया गया है उसमें गोल्फ के अलावा होटलों में अधिक खाने पीने की मनाही तो है ही विवाहेत्तर संबंधों पर रोक भी लगा दी गई है । गोल्फ से तो कम्युनिल्ट पार्टी का पुराना बैर रहा है । माओ ने इसको बुर्जुआ खेल मानते हुए इसपर पाबंदी लगाई थी । उसके बाद देंग के शासनकाल में गोल्फ को अनुमति मिली थी लेकिन लगातार इस खेल के खिलाफ चीन में मुहिम चलती रही । चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के इस नए निर्देशों के बाद पूरी दुनिया में मानवाधिकार को लेकर सचेत लोगों ने विरोध के स्वर तेज कर दिए हैं लेकिन चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को मानवाधिकार की कहां फिक्र है । सेंट्रल कमटेी ने अपने कॉडर से साफ तौर पर कहा है कि वो व्यक्तिगत बातों को पार्टी के साथ साझा करें और फैसले की जिम्मेदारी पार्टी पर छोड़े । कार्यकर्ताओं की रुचि से लेकर उसकी व्यक्तिगत जिंदगी तक तो पार्टी के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है । उनका चेयरमैन हमारा चेयरमैन का नारा लगानेवाली प्रगतिशील जमात चीन के इस कदम पर खामोश है । ये दोनों मसले चीन के थे में लिहाजा उनके मुंह पर ताला लग गया । जहां से वैचारिक ऊर्जा मिलती हो वहां की हुकूमत के फैसले के खिलाफ कैसे मुंह खुल सकता है । आस्था से लेकर प्रतिबद्धता का सवाल जो ठहरा । प्रतिबद्धता के बौद्धिक गुलामों से ये अपेक्षा भी नहीं की जानी चाहिए कि वो चीन के किसी फैसले के खिलाफ कोई आवाज उठाएंगे । यही फैसला अगर बीजेपी शासित किसी राज्य में हो जाता तो अब तक ये जमात उस राज्य के मुख्यमंत्री समेत देश के प्रधानंमत्री से जवाब तलब कर रहे होते । देश में निजता के दखल को लेकर छाती कूट रहे होते । इस तरह की चुनिंदा प्रतिरोध से ही प्रगतिशील जमात के विरोध को देश की जनता ने गंभीरता से लेना छोड़ दिया । बिहार चुनाव में तमाम वामपंथी दलों ने एकजुट होकर चुनाव लड़ा लेकिन सिर्फ तीन सीटों पर संतोष करना पड़ा । लोकतंत्र में जब साख छीजती है तो जनता की अदालत में यही हश्र होता है ।
अब जरा एक और खबर की ओर नजर डाल लेते हैं । अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में एक नाटक में भारतीय चरित्र के लिए श्वेत अमेरिकी लड़कों के चुनाव के बाद हंगामा मच गया । पश्चिमी पेनसिलवेनिया के एक सरकारी संस्थान में होनेवाले इस लॉयड सुह के इस नाटक को रद्द कर दिया गया । अपने नाटक के मंचन का अधिकार लेखक ने नहीं दिया क्योंकि उनका कहना था कि ये नाटक की मूल भावना के खिलाफ होगा कि श्वेत शख्सियत के चरित्र को कोई अश्वेत निभाए । । उसके बाद पूरे विश्वविद्यालय में नस्लवाद पर बहस शुरू हो गई है । नाटककार लॉयड ने अपने इस नाटक जीजस इन इंडिया- के रद्द होने को जायज ठहराते हुए कहा कि दक्षिण एशिया के लोगों के चरित्र में गोरे लोगों को दिखाना उचित नहीं होगा । उन्होंने कहा कि ये नाटककार की जिम्मेदारी है कि वो अपने नाटक में जिल रंग के चरित्र को गढ़ता है उसके मंचन के वक्त उसी रंग या नस्ल का कलाकार उस चरित्र को निभाए । नाटक को रद्द करने का फैसला लेने के पहले लॉयड ने विश्वविद्यालय के छात्रों से अभिनय कर रहे छात्रों को बदलने को कहा । बातचीत के बाद नाटकककार लॉयड ने जब यह कह दिया कि श्वेत चरित्र को अश्वेत कलाकार से अभिनय करवाना नाटक के साथ अन्याय होगा । इसके बाद बातचीत टूट गई और नाटक का मंचन रद्द करना पड़ा । इस नाटक के निर्देशक मार्लियो मिशेल ने लेख लिखा और नाटककार को करारा जवाब देते हुए कहा कि ये निर्देशक का फैसला होता है कि वो अपने किस चरित्र में किस अभिनेता से अभिनय करवाए । विश्नविद्यालय ने भी नाटककार के फैसले पर दुख जताते हुए कहा कि इससे छात्रों का दिल टूट गया है और अब वो लॉयड के साथ किसी तरह की बातचीत नहीं करना चाहते हैं । ये खबर भी भारत के अखबारों में छपी लेकिन नस्लभेद की इस संगीन घटना पर हमारे यहां किसी भी कोने अंतरे से आवाज नहीं आई । क्या साहित्य जगत में इस तरह की बातों पर विमर्श नहीं होना चाहिए । क्या दुनिया के किसी कोने में भारत के लोगों के साथ इस तरह का बर्ताव हो तो हमारे देश के बुद्धिजीवियों को खामोश रहना चाहिए ।

भारत में बढ़ते असहिष्णुता का आरोप लगाकर उसके खिलाफ अमेरिका से अपील करनेवालों ने भी नस्लभेद की इस गंभीर घटना पर कुछ नहीं कहा । बात बात पर संयुक्त राष्ट्र में जाने की बात करनेवाले हमारे सियासतदां ने भी इस खबर को गंभीरता से नहीं लिया । भारत में बढ़ रही कथित असहिष्णुकता पर अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के एक बयान को उद्धृत करनेवाले भी खामोश हैं । ये खामोशी बहुत परेशान करनेवाली है । इसी तरह का एक विवाद दो हजार ग्यारह में लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में पंकज मिश्रा और नील फरग्युसन के बीच हुआ था । दोनों के बीटच नस्लवादी लेखन पर कई अंकों में लेख-प्रतिलेख छपे थे । नील परग्युसन की  किताब- सिविलाइजेशन, द वेस्ट एंड द रेस्ट पर पंकज मिश्रा ने लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में समीक्षा लिखी थी जिसको लेकर विवाद शुरू हुआ था । उस वक्त भी भारत के लेखक खामोश रहे थे । हमें इन खामोशियों का मतलब समझ नहीं आता है । अगर आप बौद्धिक रूप से ईमानदार हैं, अगर आप किसी विचारधारा की बेड़ियों में जकड़े हुए नहीं हैं तो साहित्यक और सामाजिक मुद्दों पर आपकी कलम वस्तुनिष्ठ होकर चलनी चाहिए । यही कलम जब वस्तुनिष्ठ नहीं रहती है और चुनिंदा प्रतिक्रिया देती है तब पाठकों का विश्वास लेखक से डिगता है । चीन से लेकर अमेरिका से लेकर लंदन तक मे घटी घटनाओं पर लाल कलम पता नहीं क्यों नपुंसक हो जाती है । कलम में वो धार होनी चाहिए वो तेज होनी चाहिए जो कि एक न्यायप्रिय शासक के पास हुआ करती थी । जो बगैर धारा, विचारधारा, संगठन, स्वार्थ, जाति समुदाय आदि को देखे न्याय करता था । कलम को अगर हम किसी खास विचारधारा का गुलाम बनाएंगे या फिर कलम की धार किसी खास समुदाय के समर्थन में उठा करेगी तो समय के साथ उस कलम पर से पाठकों का विश्वास  उठता चला जाएगा । भारत के ज्यादातर प्रगतिशील लेखकों के साथ यही हुआ है । उनकी कलम चुनिंदा मसलों पर चलती रही है । एम एफ हुसैन पर वो बोलते रहे लेकिन तसलीमा पर साजिशन खामोश रहे । हिंदुओं के बीच बढ़ रहे कथित कट्टरता पर उन्होंने जोरदार प्रतिवाद किया लेकिन जब मुस्लिम कट्टरपन की बात आए तो एक अजीब तरह की खामोशी या उदासीनता देखने को मिली । यह दोहरा रवैया प्रगतिशीलों ने जानबूझकर रखा इस बात के तो प्रमाण नहीं हें लेकिन जब कई मसलों पर ऐसा हुआ तो लगा कि इसके पीछे कुछ है । अब वक्त आ गया है कि प्रगतिशील जमात अपने पूर्व के कारनामों पर सफाई दे और ये साफ करे कि उनकी प्रतिक्रिया किन मसलों पर नहीं आई । यह उनके भविष्य के लिए भी अच्छा होगा और लोकतंत्र की मजबूती के लिए भी क्योंकि विचारों का प्रवाह लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करता है । 

Sunday, November 15, 2015

संस्कृति पर हो बहस

आज हमारे बौद्धिक जगत में संस्कृति को लेकर काफी बातें हो रही हैं । भारतीय संस्कृति बनाम आयातित संस्कृति को लेकर देश में लंबे समय से बहस चल रही है लेकिन केंद्र में बीजेपी की सरकार आने के बाद और पूरे देश में वामपंथी पार्टियों के लगभग हाशिए पर जाने के बाद यह बहस और तेज हो गई है । वामपंथियों ने हमेशा लोकप्रिय संस्कृति को दूर रखने की कोशिश की । उसका प्रतिबिंब साहित्य में भी देखने को मिला । पॉपुलर कल्चर को इस तरह से पेश और स्थापित किया गया कि वो घटिया ही हो सकते हैं । हमें पॉपुलर शब्द पर विचार करना चाहिए । जब भी संस्कृति के संदर्भ में पॉपुलर का इस्तेमाल होता है तो उसमें नकारात्मकता दिखाई देती है । जैसे जब हम कहते हैं कि ये तो पॉपुलर कल्चर का हिस्सा है या फलां फिल्म तो पॉपुलर सिनेमा है तो यह धव्नित होता है कि वो स्तरहीन है । इसकी वजहों की पड़ताल करनी होनी चाहिए कि किस तरह से शब्दों को नकारात्मकता से जोड़ दिया गया । अब जरा इस शब्द को इस तरह से देखिए । जब पॉपुलर शब्द लीडर के साथ जुड़ता है तो वो अर्थ बदल देता है । यहां उससे हल्कापन या नकारात्मकता का बोध नहीं होता है । अब इसको ही अगर दूसरे तरह से देखें और पॉपुलर के हिंदी अनुवाद को लेकर चलें तो यह बेहतर नजर आता है । हिंदी में लोक संस्कृति, लोक पर्व, लोकगीत आदि को श्रेष्ठ नजर से देखा जाता है । हमारे यहां तो लोक संस्कृति पश्चिम की लोक संस्कृतियों से बिल्कुल ही अलग है । लोक और लोक से जुड़ी हर चीज हमारे यहां समाज में जीवंतता के साथ हर शख्स की जिंदगी में मौजूद हैं । हमारी लोक संस्कृति बहुधा हमारे लोक साहित्य को भी प्रभावित करती है । पियूष दइया की किताब लोक में इस बात का विस्तार से उल्लेख मिलता है । जहां तक मुझे याद आता है कि उक्त किताब के एक लेख में इस बात का विस्तार से वर्णन है कि आंध्र प्रदेश में जो तेलुगू रामायण है उसमें वर्णित लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के चरित्र को लोकगीतों में बहुत प्रतिषठा हासिल हुई । कई बार तो यह माना जाता है कि आंध्र प्रदेश के लोकगीतों में जितना सम्मान उर्मिला को मिला है उतना रामचरित मानस की सीता को हिंदी पट्टी में नहीं मिला ।
अब हम अगर लोक संस्कृति की बात करें तो इसका निर्माण भाषा से भी होता है । अगर आप अवधी या वृजभाषा की लोक संस्कृति को देखें तो यह साफ तौर पर दिखाई देता है । आज असहिष्णुता को लेकर बहुत बातें हो रही हैं लेकिन अगर आप देखें तो हमारी लोक संस्कृतियों में हर समुदाय आपको उदार नजर आएगा । हिंदू और मुसलमानों के बीच का प्रेम और सद्भाव जो लोक संस्कृतियों में नजर आता है वो कालांतर के साहित्य में गायब होता चला गया ।  दरअसल अगर हम गंभीरता से विचार करें तो जब से लोक संस्कृति के ठेकेदार सामने आए हैं तब से हमारी संस्कृति को लेकर कई लकीरें दिखाई देने लगी हैं । लोक संस्कृति का दावेदार कोई पार्टी नहीं हो सकती है और ना ही इसको हिंदू धर्म या इस्लाम से जोड़ा जा सकता है । कई लोगों का तो मानना है कि जबतक भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं था तब तक हमारा समाज ज्यादा धर्मनिरपेक्ष और उदार था । उन्नीस सौ छिहत्तर में जब भारत के संविधान में सॉवरिन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक को संशोधित कर सॉवरिन सोशलिस्ट सेक्युलर डेमोक्रेटिक रिपब्लिक किया गया तब से लोक और संस्कृति दोनों पर असर पड़ा । इस बात पर अब भी बहस होनी चाहिए कि क्या संविधान में धर्मनिरपेक्ष लिखकर हमने अपने समाज को धर्मनिरपेक्ष बना दिया ।


असहिष्णुता की आड़ में सियासत

बिहार चुनाव के खत्म होते ही देश में बढ़ रहे असहिष्णुता को लेकर हर रोज हो रहा हंगामा लगभग खत्म सा हो गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि बिहार चुनाव में एनडीए और बीजेपी की हार के बाद देश के असहिष्णु होने को लेकर छाती कूटनेवालों के कलेजे को ठंडक पड़ गई हो । संभव है कि असहिष्णुता का मुद्दा केंद्र की मोदी सरकार को बिहार चुनाव के दौरान बैकफुट पर लाने के लिए उठाया गया हो । इस बात के पुष्ट प्रमाण तो नहीं मिल सकते हैं लेकिन पर्याप्त संकेत अवश्य मौजूद हैं । बिहार में भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद लगता है देश का माहौल अपेक्षाकृत सहिष्णु हो गया है और पुरस्कार लौटा रहे साहित्यकारों, फिल्मकारों आदि की आहत संवेदना पर मरहम लग गया हो । पुरस्कार वापसी की राजनीति पर इस स्तंभ में कई बार चर्चा हो चुकी है लेकिन इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में किस तरह से भारत की वैश्विक छवि को दरकाने की कोशिश की गई । आज जबकि भारत को विकास की पटरी पर तेज रफ्तार से दौड़ने के लिए विदेशी निवेश की सख्त आवश्यकता है । लंबे समय बाद देश में बहुमत वाली सरकार के आने के बाद विदेशी निवेशकों में आर्थिक सुधार को लेकर भरोसा बनना शुरू हुआ था लेकिन देश की राजनीति के चक्कर में विरोध पक्ष इतना आगे बढ़ गया कि उन्होंने हमारे देश को ही असहिष्णु घोषित करने का काम शुरू कर दिया । स्थितियां इस तरह की बनाई गई कि कानून व्यवस्था के मुद्दे को मानवाधिकार का मुद्दा बना दिया गया, गैर सरकारी संगठनों के विदेशी चंदों की जांच और कुछ संगठनों पर पाबंदी को परोक्ष रूप से अभिवयक्ति की आजादी से जोड़ दिया गया । अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा बताने वाले बहुधा यह भूल जाते हैं कि इतने तीखे विरोध की आजादी उनको है जिसमें वो पूरे देश की छवि को भी उन्मुक्त होकर दांव पर लगा सकते हैं । भारत के असहिष्णु होने की बात करनेवालों की अज्ञानता पर क्षोभ होता है । बगैर भारत को, उसकी संस्कृति को, उसके समाज को जाने-समझे उसके असहिष्णु होने की बात कहना और फिर उसको प्रचारित करने से पूरे देश की बदनामी होती है जिसके लिए किसी को क्षमा नहीं किया जाना चाहिए । क्या कोई एक संगठन, एक व्यक्ति पूरे हिंदुत्व का ठेकेदार हो सकता है । कदापि नहीं । किसी एक संतनुमा नेता या नेत्री के बयान के आधार पर पूरे धर्म को कठघरे में खड़े करने से आरोप लगाने वाले समुदाय पर ही सवाल खड़े हो जाते हैं । द हिंदूज एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री और ऑन हिंदुइज्म जैसी किताब की लेखिका वेंडी डोनिगर ने भी अपनी किताब ऑन हिंदुइज्म में लिखा है हिंदू धर्म की विशेषता उसकी विविधता है । हिंदू धर्म की एक और विशेषता है कि वो गैर हिंदुओं के आइडिया और परंपरा को भी अपने में आत्मसात कर लेती है । इस वजह से हिंदी धर्म इस्लाम, क्रिश्चैनियटी आदि से बिल्किल अलग दिखता है । वो यह भी मानती है कि हिंदू धर्म की विविधता ही उसकी ताकत है और वो इस्लाम या क्रिश्चैनियटी की तरह एक खुदा, गॉड या एक भगवान के इर्द गिर्द नहीं घूमती है और ना ही किसी एक किताब के आधार पर चलती है । हलांकि वेंडी डोनिगर इस बात पर चिंता जताती हैं कि हिंदू धर्म में कट्टरता के तत्व दिखाई देने लगे हैं लेकिन ये तत्व धार्मिक नहीं होकर राजनीतिक हैं । इस बात पर बहस हो सकती है लेकिन चंद लोगों के विवादित बयानों के आधार पर पूरे धर्म को या फिर पूरे देश को बदनाम करना बेहद आपत्तिजनक है ।
देश में बढ़ते असहिष्णुता का प्रचार करने में कामयाबी पाने के बाद वही ताकतें अब विदेश में भी सक्रिय हो गई हैं और भारत की छवि पर बट्टा लगाने की कोशिश हो रही है । जब देश में पुरस्कार वापसी का आंदोलन चल रहा था तो अमेरिका और ब्रिटेन के अखबारों ने इस पर लेख लिखे थे । भारत को असहिष्णु बताने वाले इन अखबारों को अमेरिका में गुजरातियों और ब्रिटेन में सिखों पर नस्लीय हमले नजर नहीं आते हैं । दूसरे देश की चिंता करने के पहले इन अखबारों को अपने देश की कट्टरता को बेनकाब करना चाहिए । जब भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ब्रिटेन के दौरे पर थे तो उनके वहां पहुंचने के दिन ही एक अखबार ने अनीश कपूर का एक लेख छापा । इस लेख का शीर्षक था- इंडिया इज बीइंग रूल्ड बाय अ हिंदू तालिबान । अनीश कपूर के इस लेख में तमाम तरह की आपत्तिजनक बाते हैं जो ना सिर्फ भारत का अपमान है बल्कि यहां की सवा सौ करोड़ जनता का भी अपमान है । अनीश कपूर ने उत्साह में ऐसे ऐेसे शब्दों का प्रयोग किया है जिसमें वो लोकतांत्रिक मर्यादाओं को लांघते और छिन्न भिन्न करते मजर आते हैं । अनीश कपूर ने अपने लेख की शुरुआत इस बात से की भारत में विविधता की संस्कृति गंभीर खतरे के दौर से गुजर रही है । कपूर इस बात को लेकर उत्तेजित नजर आते हैं कि मोदी सरकार उन अराजक हिंदुओं को सहन कर रही है जो बीफ खानेवालों को अनुशासित कर रहे हैं, जो जाति व्यवस्था के खिलाफ और हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के खिलाफ बोलनेवालों को कथित तौर पर सुधारने का काम कर रहे हैं । उत्तेजना में बहुधा लोग अतार्किक हो जाते हैं । यह अनीश कपूर की भड़ास है जो उनके लेख में उनके विचार के तौर पर सामने आई है । भड़ास इस वजह से क्योंकि उसमें तर्क का कोई स्थान नहीं होता है । इस पूरे लेख में सिर्फ फतवेबाजी की गई है कहीं कोई दृष्टांत या तर्क नहीं है ।
इस लेख का शीर्षक ही अनीश कपूर की भारत के बारे में अज्ञानता को प्रदर्शित करती है । अनीश को यह मालूम होना चाहिए कि भारत में लोकतंत्र की जड़े इतनी गहरी हो गई हैं कि यहां कोई तालिबान शासन नहीं कर सकता है । दरअसल अनीश का यह लेख पूरे तौर पर भारत को बदनाम करने की मंशा से लिखा गया है । वो अपने लेख में लिखते हैं कि भारत को ब्रिटेन के लोग कश्मीर में हो रहे अत्याचार और हाल के दिल दहला देनेवाले रेप केस की वजह से जानते हैं । अनीश को कश्मीर में होनेवाला कथित अत्याचार दिखाई देता है लेकिन गुलाम कश्मीर में मानवाधिकार के उड़ रहे चीथड़े उनको दिखाई नहीं देते हैं । जिस ब्रिटेन का वो गुणगान करते नजर आ रहे हैं वहां सिखों पर पिछले दिनों हुए हमले का जिक्र नहीं करते हैं । कश्मीर के किस अत्याचार की बात कर रहे हैं अनीश । वहां लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार काम कर रही है । पता नहीं अनीश कपूर किस दुनिया में रहते हैं कि उनको भारत में हिंदू अत्याचार की लहर दिखाई दे रही है । अनीश ने अपने लेख में लिखा है कि भारत में हिंदू वर्जन ऑफ तालिबान अपना प्रभाव बढ़ा रहा है । अनीश को यह जानना आवश्यक है कि हिंदू और तालिबान दोनों दो ध्रुव हैं जो कभी नहीं मिल सकते । भारत की सवा सौ करोड़ जनता किसी भी प्रकार के तालिबान को पनपने नहीं देगी चाहे उसे राजाश्रय ही क्यों ना मिला हो । अनीश भारत के लोकतंत्र को बहुत ही हल्के में ले रहे हैं । दरअसल उनके लेख की मंशा आखिर में आकर स्पष्ट होती है जहां वो ग्रीनपीस पर पाबंदी और तीस्ता शीतलवाड का मुद्दा उठाते हैं । तीस्ता किसी और वजह से नहीं बल्कि अपने ट्रस्ट के पैसों में हेराफेरी के आरोप में अदालतों के चक्कर लगा रही है । क्या सिर्फ इस बात को लेकर कि वो गुजरात दंगों के पीड़ितों की लड़ाई लड़ रही हैं उनको इस बात का हक मिल जाता है कि वो चंदे में गड़बड़ी के आरोपों से बच निकले ।

दरअसल अगर हम देखें तो यह एक बड़े अंतराष्ट्रीय डिजायन का हिस्सा नजर आता है । नरेन्द्र मोदी के दौरे के ठीक एक दिन पहले पेन इंटरनेशनल, जो कि साहित्य और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए काम करनेवाली संगठन हैं, के बैनर तले सलमान रश्दी जैसे करीब सौ लेखकों ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र भेजा ।इस पत्र में डेविड कैमरून से मांग की गई है कि वो भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कदम उठाएं । अपने पत्र में उन्होंने भारत में पिछले दो वर्षों में सार्वजनिक बुद्धिजीवियों पर हुए हमले को मुद्दा बनाया गया है । यह ठीक है कि हर संस्था को अपनी बात कहने का हक है लेकिन उतना ही हक उसका प्रतिवाद करनेवाले को भी है । पेन इंटरनेशनल भी तब खामोश रही थी जब दाभोलकर की हत्या की गई थी, या जब कामरेड पानसारे को मार डाला गया था । विचार और धारा की लड़ाई में देश की छवि को बट्टा लगानेवालों को सोचना होगा क्योंकि इस लड़ाई से अंतत देश की जनता का नुकसान होगा । 

Thursday, November 12, 2015

पुरस्कारों के खेल पर खामोशी

देशभर में इस वक्त अवॉर्ड वापसी पर घमासान चल रहा है । पक्ष और विपक्ष में मार्च निकाले जा रहे हैं । सोशल मीडिया से लेकर अखबारों तक में इस पर काफी चर्चा हो रही है । करीब पचहत्तर लेखकों, कलाकारों, फिल्मकारों, चित्रकारों ने अपने-अपने पुरस्कार लौटा कर सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश भी की है । उधर पुरस्कार वापसी के विरोध में भी सेमिनार से लेकर किताब वापसी तक का अभियान शुरू हो चुका है । केंद्र सरकार के मंत्री भी इस विवाद में कूद पड़े हैं और अरुण जेटली लगातार पेसबुक पर अपनी राय रख रहे हैं । युद्ध की तरह दोनों खेमों से हर तरह के दांव पेंच का इस्तेमाल हो रहा है । पुरस्कार वापसी के अभियान से जुड़े लेखकों ने असहिष्णुता का सवाल उठाया है लेकिन क्या इनमें से किसी ने भी साहित्य खासकर हिंदी साहित्य में पुरस्कार की गड़बडियों की ओर कभी ध्यान दिया। क्या इनमें से किसी ने भी कभी साहित्य अकादमी पुरस्कार की बंदरबांट को लेकर कोई विरोध प्रदर्शन किया । साहित्य अकादमी में भाषा के संयोजकों की अयोग्यता पर कभी कोई सवाल उठा । कम से कम साहित्य जगत को यह ज्ञात नहीं है । हिंदी में पुरस्कारों की स्थिति कितनी दयनीय है, किस तरह से खेमेबाजी होती है या फिर किस तरह से पुरस्कार बांटे जाते हैं यह सबको ज्ञात है । ज्ञात तो यह भी है कि इस साल का साहित्य अकादमी पुरस्कार किसको दिया जाना है । उसके हिसाब से ही आधार सूची बनानेवालों से लेकर जूरी के सदस्य तय किए जा चुके हैं । क्या इसके खिलाफ कभी किसी कोने से आवाज आई । साहित्य अकादमी के अलावा सरकारी थोक पुरस्कारों में जिस तरह की गड़बड़ियों होती हैं उसपर भी ज्यातार लोग खामोश ही रहे । जिस उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर दंगा होता है या फिर जिस उत्तर प्रदेश में गोमांस की अफवाह के बाद अखलाक की पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है उसी उत्तर प्रदेश सरकार के मुखिया से चंद दिनों पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले से लेकर छोटे-बड़े-मंझोले सभी प्रकार के साहित्यकारों ने सिर झुकाकर पुरस्कार ग्रहण किया। अखिलेश यादव सरकार से तिकड़म भिड़ाकर पुरस्कार हासिल करनेवाले लेखक कभी रायपुर साहित्य महोत्सव तो कभी असहिष्णुता को मुद्दा बनाते हैं । लेकिन यूपी सरकार पर लिखते वक्त उनकी कलम नपुंसक हो जाती है ।

हिंदी में कई व्यक्तिगत पुरस्कार दिए जाते हैं जिसमें धन लगानेवाले अपनी मर्जी, सुविधा और साहित्य की मौजूदा राजनीति को ध्यान में रखते हुए लेखकों का चुनाव करते हैं । अब तो पुरस्कार की विधा भी बदल दी जा रही है । इस तरह के व्यक्तिगत पुरस्कारों में होनेवाली गड़बड़ियों पर कभी नहीं बोला गया । यह तर्क दिया गया कि ये पुरस्कार प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह काम करते हैं लिहाजा उनको इस बात की छूट होनी चाहिए । लेकिन ये प्राइवेट लिमिटेड पुरस्कार जब लोकतांत्रिक और पारदर्शी होने का दावा करते हैं तब भी हिंदी जगत खामोश रहता है ।  कई पुरस्कारों के आयोजक तो लेखकों से निविदा आमंत्रित करते हैं और पुस्तकों की प्रति के साथ साथ कुछ धनराशि भी सेक्युरिटी राशि के तौर पर मंगवाई जाती है । हिंदी के अति महात्वाकांक्षी लेखक इस जाल में फंसते हैं और पैसे रुपए देकर पुरस्कृत होते हैं । उसके बाद की कहानी सबको मालूम है कि पुरस्कृत होने की तस्वीर किस तरह से फेसबुक आदि पर अपलोड कर यश लूटा जाता है । इसपर हिंदी साहित्य के कर्ताधर्ता क्यों खामोश रहते हैं । यह सही है कि विरोध करने का अधिकार उसके करनेवाले के पास सुरक्षित है लेकिन जब उस अधिकार के पीछे की मंशा एक्सपोज होती है तो साहित्यकारों की साख के साथ साथ साहित्य की साख पर भी बट्टा लगता है ।    

Sunday, November 8, 2015

बिहार में फिर नीतीशे कुमार

बिहार की राजनीति में महागठबंधन की ऐतिहासिक जीत ने एक बार फिर से साबित कर दिया कि देश में लोकतंत्र की जड़ें गहरी हो चुकी हैं । बीजेपी की तमाम चुनावी रणनीति को महागठबंधन ने मात दी । एक बार फिर से बिहार की राजनीति में लालू यादव को पुनर्जीवन मिला है और नीतीश कुमार ने अपनी धमक साबित की है । दरअसल अगर हम महागठबंधन की इस जीत के पीछे की वजहों पर गौर करें तो मोटे तौर पर तीन चार वजहें नजर आ रही है । बिहार चुनाव की बिसात अभी बिछी थी और दोनों तरफ से चालें चली जारही थीं । उसी वक्त पहले चरण के पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत का आरक्षण को लेकर एक बयान आया । इस बयान में आरक्षण पर फिर से विचार करने की बात कही गई थी लेकिन मोहन भागवत के बयान को लेकर लालू यादव ने ऐसा माहौल बना दिया कि बीजेपी आरक्षण के खिलाफ है । लालू यादव ने बेहद चतुराई के साथ मोहन भागवत के बयान के एक अंश को लेकर आक्रमक हो गए । पूरे बिहार में घूम घूमकर ये कहने लगे कि बीजेपी आरक्षण के खिलाफ है । मोहन भागवत के बयान के आधार पर लालू यादव ने बिहार विधानसभा चुनाव को अगड़े और पिछड़े की लड़ाई में तब्दील कर दिया । नतीजा यह हुआ कि बीजेपी बैकफुट पर आ गई । केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सफाई दी और उसके नेता ये कहते हुए घूमने लगे कि बीजेपी आरक्षण के पक्ष में है । बीजेपी के स्टार प्रचारकों ने पीएम नरेन्द्र मोदी की जाति को प्रचारित करना शुरू कर दिया । उनको पिछड़ा और अति पिछड़ा बताया जाने लगा । यहीं से रणनीतिक चूक हुई और बीजेपी के हाथ से विकास के नारे का सिरा छूटा और वो लालू के अखाडे में जाकर उनसे लड़ने लगे । इस हड़बडाहट का नतीजा पूरे चुनाव प्रचार के दौरान दिखा । चुनावी रणनीति में ये बात कही जाती है कि विरोधी को अपने अखाड़े में लाने की रणनीति पर काम होना चाहिए और लालू यादव ने इस रणनीति पर तुलनात्मक रूप से बेहतर काम किया और नतीजा सबके सामने है । इस चुनाव में सजायाफ्ता मुजरिम लालू यादव तो चुनाव नहीं लड़ रह थे लेकिन बिहार की जनता के मानस को पकड़कर उन्होंने एनडीए को पटखनी दी और बार फिर से खुद को भी भारतीय राजनीति में प्रासंगिक बना दिया । लालू यादव बिहार चुनाव के नतीजों में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरे और करीब पचहत्तर सीटों पर जीत हासिल की । जेडीयू दूसरे और बीजेपी तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई ।  बीजेपी का विकास का मुद्दा और सवा लाख का स्पेशल पैकेज नेपथ्य में चला गया उसको भी नीतीश कुमार ने चुनावी हवा बताने में कामयाबी हासिल कर ली ।

बीजेपी से बिहार में दूसरी रणनीतिक चूक हुई पीएम मोदी और अमित शाह के चेहरे को लेकर । बीजेपी ने अपने तमाम पोस्टरों और प्रचार सामग्री पर नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की तस्वीरें छापी । इसका नतीजा यह हुआ कि नीतीश कुमार को एक और मौका मिला और उन्होंने बिहारी और बाहरी का मुद्दा उछाल दिया । बिहार की जनता को वो ये समझाने में कामयाब हो गए कि सूबे में बीजेपी के पास कोई नेता नहीं है और बाहरी यानि दोनों गुजराती नेता ही बिहार की किस्मत तय करेंगे । बिहार के लोग राजनीतिक तौर पर बेहद जागरूक होते हैं और उनके मन में ये बात बैठने लगी । जब यह बात बहुत बढ़ गई तबतक बिहार में दो फेज के चुनाव हो गए थे । फिर ये बात जोर शोर से प्रचारित की जाने लगी कि बीजेपी चुनाव हार रही है और पहले दो चरणों में बिहारी और बाहरी का मुद्दा हावी हो गया । फिर ये खबर आई कि मोदी ने अपनी कुछ रैलियां रद्द की हैं । प्रचार सामग्री में बिहार के स्थानीय नेताओं को जगह मिलनी शुरू गई और रातों रात मोदी और अमित शाह के साथ बिहार बीजेपी के नेताओं की तस्वीर नजर आने लगी । इसके साथ ही बीजेपी ने दूसरे राज्यों के कार्यकर्ताओं को बूथ मैनेजमेंट मे लगाया । इसका असर भी स्थानीय कार्यकर्ताओं पर उल्टा पड़ा । मोनवैज्ञानिक रूप से बेहद संवेदनशील बिहारियों को लगा कि इतने सालों से उन्होंने मेहनत की और जब वक्त आया तो बाहर क लोगों को उनके ऊपर बिठा दिया गया । बीजेपी अपने स्थानीय कार्यकर्ताओं की भावनाओं को समझ नहीं पाई । इस बात को इससे भी समझा जा सकता है कि बिहार से बीजेपी के आधे से अधिक सांसद चुनाव प्रचार से दूर रह । बीजेपी ने टिकट बंटवारे में भी कई गलतियां की और सुखदा पांडे जैसी नेताओं का टिकट काटकर नाराजगी मोल ले ली । जिस तरह से दिल्ली में बीजेपी ने किरण बेदी पर दांव लगाकर स्थानीय नेताओं के खफा कर दिया था कुछ उसी तरह की गलती बिहार में मांझी को ज्यादा भाव देकर हुई । जीतन राम मांझी की बिहार की राजनीति में ना तो साख थी और ना ही वोटबैंक । इससे इतर जिस तरह से गौमांस और बीफ पर पोलराइज करने की कोशिश की गई उसका भी अपेक्षित असर नहीं हुआ । सीमांचल इलाके में असदुद्दीन ओवैसी भी खुच नहीं कर पाए । विपक्ष ओवैशी और बीजेपी के मिले होने को प्रचारित करने में कामयाब रहा । इसके अलावा नीतीश कुमार की बेहतर छवि का भी महागठबंधन की जीत में अहम रोल रहा । मोदी के आक्रामक भाषणों में जहां नीतीश कुमार पर विश्वासघात से लेकर खाने की थाली छीनने से लेकर डीएनए की बातें की गई उसका भी असर उल्टा हुआ । नीतीश कुमार लालू यादव  नरेन्द्र मोदी ने बिहार में तीस बड़ी रैलियां की उसके जवाब में नीतीश ने छोटी रैलियों का फॉर्मूला अपनाते हुए सवा दो सौ से ज्यादा रैलियां की और जनता तक पहुंचे । नीतीश कुमार का हर घर दस्तक का नारा भी जनता को अपने पाले में लाने में कामयाब हुआ । बिहार के नतीजे का भारतीय राजनीति पर दूरगामी असर होगा और 2019 के लोकसभा चुनाव तक होनेवाले विधानसभा चुनावों को यह प्रभावित करेगा ।



साहित्यक असहिष्णुता कब रुकेगी ?

पिछले दिनों जिस तरह से देश में बढ़ती असहिष्णुता को लेकर लेखकों ने विरोध जताया, पुरस्कार वापसी आदि हुआ उससे बाद दिल्ली में पहले सोनिया गांधी की अगुवाई में राष्ट्रपति को ज्ञापन सौपा गया फिर अभिनेता अनुपम खेर ने मार्च ऑफ इंडिया किया । उसमें भी तमाम कलाकार, गायक, लेखक, वैज्ञानिक आदि जुड़े । असहिष्णुता की आड़ में जिस तरह से राजनीति की गई उसको देखते हुए राष्ट्रकवि दिनकर का उन्नीस अक्तूबर उन्नीस सौ पैंतालीस में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के तैंतीसवें अधिवेशन में दिया गया भाषण याद आ रहा है । तब दिनकर ने कहा था साहित्य राजनीति का अनुचर नहीं, वरन उससे भिन्न एक स्वतंत्र देवता है और उसे पूरा अधिकार है कि वो जीवन के विशाल क्षेत्र में से वह अपने काम के योग्य वे सभी द्रव्य उठा ले जिन्हें राजनीति अपने काम में लाता है । अगर कार्ल मार्क्स और गांधी जी को यह अधिकार प्राप्त है कि जीवन के अवस्था-विशेष की अनुभूति से वे राजनीति के सिद्धांत निकाल लें तो एक कवि को यह अधिकार सुलभ होना चाहिए कि वह ठीक उसी अवस्था की कलात्मक अनुभूति से ज्वलंत काव्य की सृष्टि करे ।अगर राजनीति अपनी शक्ति से सत्य की प्रतिभा गढ़कर तैयार कर सकती है तो साहित्य में भी इतनी सामर्थ्य है कि वह उसके मुख में जीभ धर दे ।दिनकर ने आज से सत्तर साल पहले जो कहा था वो आज भी मौजूं है । आज जिस तरह से असहिष्णुता को मुद्दा बनाकर लेखक अपने राजनीतिक आकाओं के हाथ के मोहरे बन रहे हैं उससे बेहतर होता कि वो अपनी लेखनी से सत्य की प्रतिभा गढ़ते और विरोध के मुंह में जीभ धर देते । दिनकर ने अपने उसी भाषण में यह भी कहा था साहित्य जहां तक अपनी मर्यादा के भीतर रहकर जीवन के विशाल क्षेत्र में अपना स्वर ऊंचा करता है वहां तक वह पूज्य और चिरायु है किंतु जभी वह राजनीति की अनुचरता स्वीकार करके उसका प्रचार करने लगेगा तभी उसकी दीप्ति छिन जाएगी और वह कला के उच्च पद से पतित हो जाएगा ।दशकों तक प्रगतिशीलता के नाम पर साहित्यकारों ने राजनीति की अनुचरता स्वीकार करते हुए उसका प्रचार किया  । नतीजा सबके सामने है ।
यह तो एक पहलू है, लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है जिसपर भी साहित्य जगत को गंभीरता से विचार करना चाहिए ।  हिंदी के लेखक रूप सिंह चंदेल ने फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखी पिछले कुछ समय से व्यस्तावश में अपने ब्लॉग वातायन को अपेक्षित समय नहीं दे पा रहा था अत: मेंने व्हाट्सएप पर इसी नाम से एक समूह बनाया और हिंदी के गणमान्य साहित्यकारों को इसमें जोडा़ । किन्हीं कारणों से बहुत भारी मन के साथ मुझे इस फलते फूलते समूह को बंद करना पड़ा । इस टिप्पणी के बाद चंदेल ने किसी साथी को दुख पहुंचने पर क्षमा आदि जैसी औपचारिकता निभाई । सतह पर देखें तो यह लगता है कि ये तो सामान्य बात है और इसका उल्लेख गैरजरूरी है लेकिन अगर रूप सिंह चंदेल की बातों पर ध्यान दें और उसके शब्दों को ठहरकर देखें तो एक बड़ी तस्वीर मजर आती है । वह तस्वीर है हिंदी के लेखकों और साहित्यकारों के बीच बढ़ रही असहिष्णुता की । अपनी आलोचना नहीं सुन पाने की प्रवृत्ति के लगातार ह्रास होने की । चंदेल ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि उन्होंने साहित्यक समूह में गणमान्य साहित्यकारों को इससे जोड़ा और फिर भारी मन से बंद करना पड़ा । इस टिप्पणी में इन्हीं दो शब्दों पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए । गणमान्य साहित्यकार और भारी मन । इन दो शब्दों की विवेचना करने से हिंदी के लेखकों के बीच बढ़ी असहिष्णुता सामने आती है जिसके नतीजे में चंदेल जैसे लेखक भारी मन से साहित्यिक समूह बंद करने के फैसले पर विवश होते हैं । 
पुरस्कार वापसी और उसके विरोध के शोरगुल में साहित्य में बढ़ती असहिष्णुता का मुद्दा लगभग दब सा गया है । समाज में बढती असहिष्णुता, अगर सचमुच यह बढ़ रही है तो , पर छाती कूटनेवाले लेखकों को साहित्य में बढ़ती असहिष्णुता नजर नहीं आती । बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि जो लोग समाज में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ झंडा बुलंद कर रहे हैं उनमें से ज्यादातर साहित्यक असहिष्णुता के ध्वजवाहक हैं । समकालीन हिंदी साहित्यक परिदृश्य पर अगर विचार करें तो इस बात पर सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि वो कौन सी वजह थी कि हिंदी की वरिष्ठ आलोचक निर्मला जैन को यह लिखना पड़ा था कि आलोचना लिखने में हिचक होती है कि कौन कब नाराज हो जाए । यह सही है कि आलोचकों को किसी के नाराज होने या खफ होने से डरना नहीं चाहिए लेकिन यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि अस्सी साल की आलोचक को यह कहने पर क्योंकर मजबूर होना पड़ा । दरअसल हिंदी में कवियों से लेकर कथाकारों तक में अपनी आलोचना सुनने सहने की क्षमता का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है । यह इसी बढ़ती प्रवृत्ति का नतीजा है कि चंदेल जैसे लेखकों को व्हाट्सएप पर चलनेवाले साहित्यक समूह को बंद करना पड़ा है और अपनी पीड़ा का इजहार फेसबुक पर करना पड़ा है । फेसबुक पर इस बढ़ती असहिष्णुता के तमाम चिन्ह आपको दिखाई पड़ सकते हैं । व्हाट्स एप पर चलनेवाले ज्यादतर साहित्य समूह उसको बनानेवालों की प्रशंसा करने का मंच है । जहां इससे विचल होता है वहीं समूह अल्पायु का हो जाता है या फिर उसके सदस्य एक एक कर अलग होने लगते हैं और फिर जो बच जाते हैं वो जुलूस की शक्ल में एक दूसरे के लिए नारेबाजी करते नजर आते हैं । व्हाट्सएप पर चलनेवाले समूहों में आलोचनात्मक टिप्पणी के लिए कोई जगह नहीं है । अगर किसी ने कर दी तो उसकी खैर नहीं । वहां तो बस एक दूसरे की प्रशंसा करने की होड़ लगी रहती है । जिनको कविता की समझ नहीं वो खुद को रामविलास शर्मा और जिनको गजल की समझ नहीं वो अपने को दुश्यंत कुमार मानकर बैठे रहते हैं । अब अगर कोई यह मानकर बैठ जाए कि वो रामविलास शर्मा या दुश्यंत कुमार है तो फिर वो अपनी रचनाओं की आलोचना कैसे बर्दाश्त कर सकता है । उनके समर्थक आलोचना करनेवालों पर संगठित होकर हमले करने लगते हैं और अपमानित करने की हद तक टिप्पणी आपको समूह छोड़ने को विवश कर देता है जो हिंदी साहित्य समाज के असहिष्णु होने का संकेत है । इस असहिष्णु प्रवृत्ति का विकास युवा लेखकों में ज्यादा हुआ है । दो चार कविताएं लिखकर अपने को निराला मानने वाले युवा कवियों को ना तो मर्यादा का ख्याल होता है और ना ही वरिष्ठता का । बीच संवाद में कूदकर उसको खराब कर देना उनका उद्देश्य होता है । दरअसल फेसबुक ने अपनी आलोचना ना सहने की प्रवृत्ति को खूब हवा दी है । तुकबंदी कर खुद को कवि मानने वालों पर अखबारों आदि में प्रायोजित टिप्पणी छप जाती है तो वो बेलगाम हो जाते हैं । मर्यादा भूलते हुए संवाद के बीच में कूदते हैं और बगैर जाने बूझे बस शुरू हो जाते हैं । हमारे वरिष्ठ लेखकों ने कभी युवा लेखकों के बीच बढ़ती इस प्रवृत्ति पर कुछ नहीं कहा । कहें भी तो कैसे उनके सामने देश के बड़े सवाल हैं जिनसे वो टकरा रहे हैं । उनको याद रखना चाहिए कि ये असहिष्णु युवा लेखक ही आनेवाले दिनों में साहित्य को अपने कंधे पर उठाएंगे तब क्या स्थिति होगी । देश का सामाजिक ताना बाना तो इतना मजबूत है कि उसको तोड़ने में सदियां लग सकती हैं लेकिन साहित्य की डोर बहुत कमजोर है उसको टूटते वक्त नहीं लगेगा ।
एक जमाने में बिहार से निकलनेवाली एक साहित्यक पत्रिका में खराब किताबों की सूची प्रकाशित की जाती थी और उसके कवर पर लिखा होता था कि इन किताबों को नहीं पढ़ें ये स्तरहीन किताबें हैं । क्या आज के साहित्यक माहौल में इस तरह की हिम्मत की जा सकती है क्या कोई आलोचक या समीक्षक इतने बेबाक ढंग से कृतियों पर टिप्पणी कर सकता है । इन दिनों तो हालत ये है कि किसी उपन्यास या कविता या कहानी पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने से पहले कई बार सोचना पड़ता है । यह मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर भी कह रहा हूं । करीब चार पांच साल पहले जब निर्मला जैन की उक्त टिप्पणी छपी थी तो मैंने उसपर प्रति टिप्पणी करते हुए एक लेख लिखा था कि क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात करना छोड़ देना होगा । तब लगता था कि निर्मला जैन ने ठीक वहीं कहा है लेकिन अब लगता है कि उन्होंने दशकों के अपने समीक्षाकर्म के अनुभव के आधार पर अपनी बात कही थी । अब तो हालत ये है कि किसी कृति की आलोचना आपको रचनाकार से दूर कर सकता है । दरअसल रचनाकार रचना की आलोचना को अपनी व्यक्तिगत आलोचना मानने लगा है । जैसे ही ये बात उसके दिमाग में घर करती है तो फिर वो समीक्षक को व्यक्तिगत दुश्मन के तौर पर देखने लगता है उसको निबटाने की रणनीति पर काम शुरू हो जाता है ।


Friday, November 6, 2015

तकनीक पर मानवीयता को तरजीह

बहुधा यह कहा जाता है कि कानून अंधा होता है और न्याय की मूर्ति की आंखों पर बंधी पट्टी की वजह से उसके फैसले सिर्फ कानूनी, किताबी और तकनीक रूप से दिए जाते हैं । इस तरह के फैसलों में कानून की किताब में लिखे अक्षरों का तो पालन होता है लेकिन कई बार वो व्यावहारिकता से कोसों दूर होता है । जैसे दिल्ली के निर्भया रेप कांड का नाबालिग मुजरिम चंद दिनों के बाद जेल से रिहा गो जाएगा । अब कानून की नजरों में वो नाबालिग है लिहाजा उसकी बर्बरता पर विचार तो हुआ लेकिन सजा देते वक्त उसको दरकिनार कर दिया गया । यह वही मुजरिम है जिसने निर्भया के साथ वो हरकतें की थी जिसको देखकर शैतान की भी रूह कांप जाए । यह भारतीय न्याय व्यवस्था का एक ऐसा पहलू है जिसपर गंभीरता से विचार होना चाहिए । लेकिन कई बार अपवादस्वरूप न्यायालय के फैसलों में कानून की किताबों से इतर मानवीयता पर भी विचार किया जाता है । इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने अभी ऐसा ही एक मानवीय फैसला दिया जो कानून की तमाम तकनीकी पेंचों से अलग है । पूरा मामला एक तेरह साल की बच्ची से रेप और उसके गर्भवती होने से जुड़ा है । रेप के बाद गर्भ का पता सात महीने के बाद चला और कानूनी लड़ाई के बाद उसको गर्भ गिराने की इजाजत नहीं मिली । बलात्कार की शिकार तेरह साल की लड़की ने एक बच्चे को जन्म दिया । गरीबी की वजह से नाबालिग और उसका पिता ने इस बच्चे को अपने साथ रखने में असमर्थता जताई । मामला कोर्ट तक गया । हाईकोर्ट ने बच्चे के परवरिश की जिम्मेदारी चाइल्ड वेलफेयर सोसाइटी को सौंपी । इसके अलावा जो दो और बातें फैसले में कही गई हैं वो बेहद अहम हैं । हाईकोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि बलात्कार से जन्मी संतान का अपने जैविक पिता की संपत्ति में अधिकार होगा । अदालत ने साफ कहा कि वारिसाना हक के लिए ये बात अप्रासंगिक है कि बच्चे का जन्म बलात्कार से हुआ या आपसी यौन संबंध से । उसका अपने पिता की संपत्ति में हक होगा । अदालत ने उसके बाद कई सारी चीजें भी साफ की कि किन परिस्थितियों में ये हक मिलेगा और किन में नहीं । लेकिन इस फैसले को देखें तो न्यायाधीशों ने मानवीयता को तकनीक पर तरजीह दी । इस फैसले से रेप को रोकने में मदद मिल सकती है । दूसरी बात जो इस फैसले में कही गई है वो है राज्य सरकार को निर्देश । राज्य सरकार को बच्चे के बालिग होने तक परवरिश की जिम्मेदारी सौंपी गई है । ऐसे हालात में जब बच्चे को पालने के लिए कोई आगे नहीं आता है तब सरकार की जिम्मेदारी बनती है । कानून व्यवस्था राज्य सरकार की जिम्मेदारी है और ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें ढिलाई से बढ़ रहे अपराध के नतीजों की जिम्मेदारी भी सरकार होती है । ये दोनों फैसले अहम हैं और भविष्य में भी नजीर बनेंगे ।

सुप्रीम कोर्ट भी समय समय पर बलात्कार के खिलाफ अपनी चिंता जता चुका है । चंद महीनों पहले सर्वोच्च अदालत ने रेप की बढ़ती वारदातों पर ये जानना चाहा था कि क्या समाज और सिस्टम में कोई खामी आ गई है या सामाजिक मूल्यों में गिरावट आती जा रही है या पर्याप्त कानून नहीं होने की वजह से ऐसा हो रहा है या फिर कानून को लागू करनेवाले इसे ठीक से लागू नहीं कर पा रहे हैं । बलात्कार के खिलाफ कानून लागू करनेवालों के बारे में सुप्रीम कोर्ट का सवाल उचित है । इसके बारे में पूरे समाज को गंभीरता से विचार करना होगा । लेकिन अगर अदालतें अपने फैसलों में कानून के काले अक्षरों पर मानवीय पहलुओं पर ज्यादा गंभीरता से ध्यान देते हुए कानून की व्याख्या करती हैं तो समाज में एक अलग ही संदेश जाएगा जिसके दूरगामी परिणाम होंगे । 

Sunday, November 1, 2015

चुटकुले पर फैसले का इंतजार

लेखकीय आजादी और समाज में बढ़ती असहिष्णुता पर देशभर में कुछ चुनिंदा लेखकों, फिल्मकारों, इतिहासकारों और वैज्ञानिकों की पुरस्कार वापसी कार्यक्रम के बीच सुप्रीम कोर्ट में एक बेहद दिलचस्प याचिका दायर हुई है । एक सिख वकील ने जनहित याचिका दायर कर मांग की है कि संता-बंता जैसे जोक्स पर रोक लगनी चाहिए । अपनी याचिका में उन्होंने सरदारों पर जोक्स प्रकाशित करनेवाली करीब पांच हजार बेवसाइट पर रोक लगाने की मांग भी की है । उनका तर्क है कि इस तरह के चुटकुलों से सरदारों का अपमान होता है लिहाजा इस पर रोक लगाई जानी चाहिए । देश की सबसे बड़ी अदालत में याचिकाकर्ता वकील हरविंदर चौधरी ने कहा कि देश में किसी भी समुदाय पर कोई टिप्पणी होती है तो बवाल मच जाता है लेकिन सिखों पर अपमानजनक तरह से बनाए जानेवाले चुटकुलों पर कोई गंभीरता से नहीं सोचता है ।  कोर्ट में जिरह के दौरान वकील साहिबा ने दलील दी कि इन चुटकुलों में सरदारों को कम बुद्धि का और बेककूफों के तौर पर पेश किया जाता है । अहम बात यह है कि कोर्ट इस याचिका पर अगले साल चार जनवरी को सुनवाई करेगी । अगर हम इस पर विचार करें तो पाते हैं कि सतही तौर पर यह अगंभीर याचिका नजर आती है जिसमें चुटकुलों पर बैन की मांग की गई है लेकिन इस याचिका पर फैसला ऐतिहासिक हो सकता है । यह पूरा मामला अभिव्यक्ति की आजादी तक जा सकता है । संविधान में भारत के हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी मिली हुई है लेकिन साथ ही यह बात भी तय की गई है कि अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा क्या है । अगर यह बात साबित हो जाए कि सरदारों पर बननेवाले जोक्स से एक समुदाय विशेष के लोगों का अपमान होता है तो इसपर रोक लग सकती है ।
अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियनों का रुख इस याचिका पर जानना अहम होगा । भारतीय इतिहास के मिथकों के बारे में शोध के नाम पर जिस तरह से खिलवाड़ किया जाता रहा है वो सबके सामने है । दरअसल उस तरह के शोध में जब मिथकीय चरित्र को उठाया जाता है तो मंशा शोध की नहीं बल्कि समाज में चली आ रही मान्यताओं को निगेट करने की होती है । सबसे पहला सवाल तो यही उठता है कि अगर चरित्र मिथकीय और काल्पनिक है तो फिर उसपर शोध की क्या आवश्यकता है । मिथकीय चरित्रों की काल्पनिक व्याख्या को शोध के नाम पर पेश करके यश कमाना उद्देश्य होता है । उसपर से तुर्रा यह कि उसको कल्पना या फिक्शन मानने से भी इंकार कर दिया जाता है । भारतीय लेखन परिदृश्य में सत्तर अस्सी के दशक में तो इस तरह के सैकड़ों काल्पनिक शोध आदि हुए जिसको पुरस्कृत, सम्मानित और चर्चित किया करवाया गया । कालांतर में कई विदेशी लेखकों ने भी अपनी तरह से मिथकीय चरित्रों की पुनर्वव्याख्या की, पुराणों और धर्मग्रंथों में वर्णित चरित्रों को फिर से गढा और उसकी अपनी तरह से व्याख्या की । कई बार इस तरह की व्याख्या को लेकर कुछ संगठनों ने आपत्ति जताई, मामला कोर्ट में भी गया, धरना प्रदर्शन आदि भी हुए, भावनाएं आहत होने कि बात भी सामने आई । आहत भावनाओं को लेकर देश भर में बहस भी हुई और यह कहकर मजाक भी उड़ाया गया कि भारत आहत भावनाओं का गणतंत्र बनता जा रहा है । अब वक्त आ गया है कि इस बात पर व्यापक विमर्श हो कि अभिव्यक्ति की आजादी के मायने क्या हों । हो सकता है कि जोक्स को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका पर फैसले के बाद इस बहस को एक आधार मिले और फिर कोई पक्की तस्वीर बन सके । हलांकि समय समाज और परिस्थिति के अनुसार बदलाव की हर वक्त गुंजाइश रहती है लिहाजा इस आजादी को इस वक्त के हिसाब से तय करने की आवश्यकता है ।  

लेखक संगठनों की शतरंजी बिसात

देश में पुरस्कार वापसी के माहौल में अचानक से लेखक संगठनों की सक्रियता चौकानेवाली है । साहित्य अकादमी के खिलाफ प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के साझा बैनर के तले दिल्ली में चंद लेखकों ने मौन जुलूस निकालते हुए क्रांति का बिगुल फूंका था। लगभग सुसुप्तावस्था में पड़े इन लेखक संगठनों ने जिस तरह से आनन फानन में विरोध किया उसके बाद उनकी मंशा पर सवाल खड़े होने लगे हैं । साहित्य जगत में मौजूद ये तीन लेखक संगठन दरअसल अपनी अपनी राजनीतिक पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ठ हैं । लिहाजा जिस तरह से राजनीतिक दलों के बौद्धिक प्रकोष्ठ काम करते हैं उसी तरह से ये भी ऑपरेट करते हैं । जैसे जैसे इन राजनीतिक दलों में विभाजन होता गया लेखक संगठन भी बंटते चले गए । प्रगतिशील लेखक संघ सीपीआई का बौद्धिक प्रकोष्ठ है । इसी तरह से सीपीएम का जनवादी लेखक संघ और सीपीआई माले का जन संस्कृति मंच । लेखकों के नाम पर बने इन पार्टियों के बौद्धिक संगठनों ने लेखकों का कुछ भला किया हो या लेखकों की बेहतरी के लिए कोई लड़ाई लड़ी हो, याद नहीं पड़ता । ये अपने हर कदम के लिए पहले अजय भवन आदि की ओर देखते हैं और वहां से ग्रीन सिग्नल मिलने के बाद ही कोई कदम आगे बढ़ा पाते हैं । समाज में बढ़ रही असहिष्णुता और लेखकों पर कथित सुन्योजित हमलों के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले इन लेखक संगठनों को कभी भी कॉपीराइट औप रॉयल्टी जैसे अहम मसलों पर विमर्श करते हुए नहीं देखा गया है । हिंदी में तो कम से कम से कम रॉयल्टी एक अहम मुद्दा है । बहुधा लेखकों की तरफ से ऐसे बयान आते हैं कि उनको प्रकाशककों से उचित रॉयल्टी नहीं मिलती है । लेखकों को लगता है कि प्रकाशक उनका हक मारकर मोटा मुनाफा कमाते हैं । यह बात भी बार बार कही जाती है कि हिंदी के लेखक गरीब होते जा रहे हैं जबकि प्रकाशक लगातार अमीर होते जा रहे हैं। हिंदी के इस सबसे अहम मुद्दे पर इन तीनों लेखक संगठनों ने कभी कोई आंदोलन नहीं किया । कभी कोई मौन जुलूस लेकर किसी प्रकाशक के दफ्तर पर प्रदर्शन नहीं किया । धरना प्रदर्शन आदि की बात छोड़ भी दें तो क्या इन लेखक संगठनों ती तरफ से इस बारे में कोई पहल की गई । इसका जवाब अबतक तो नहीं है । इस वक्त साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर सुर्खियों में आए मंगलेश डबराल ने कहा था लेखक संगठन लेखकों के यूनियन नहीं हैं जो क़पीराइट आदि के मुद्दों पर संघर्ष करें । ये तो वैचारिक संगठन हैं जिनका काम साहित्य की दुनिया में वैचारिक संवेदना का प्रचार करना है । यह जानना भी दिलचस्प होगा कि किस तरह की वैचारिक संवेदना को फैलाने का काम इन लेखक संगठनों ने किया । इसके अलावा इन लेखक संगठनों ने लेखकों की मदद के लिए कभी कोई पहल की, इस बारे में भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है । हिंदी के कई लेखक मुफलिसी में जिंदगी काटकर गुजर गए, कई गंभीर बीमारी और आर्थिक संकट की वजह से अपना समुचित इलाज नहीं करवा पाने की वजह से चल बसे लेकिन इन लेखक संगठनों ने उनकी कोई सुध नहीं ली । कई लेखक तो ऐसे थे जो कि इन संगठनों में बेहद सक्रिय थे लेकिन जब वो बीमार पड़े या फिर उनके सामने आर्थिक संकट आया तो लेखक संगठनों ने उनको दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका । आज कन्नड़ के लेखक कालबुर्गी की हत्या पर साहित्य अकादमी के शोक नहीं मनाने, जो कि तथ्यहीन है, को लेकर सड़कों पर उतरे साहित्यकारों को स्मरण दिलाना चाहता हूं कि हिंदी के वरिष्ठ लेखक अरुण प्रकाश की मौत के बाद लेखक संगठन कितने निष्क्रिय रहे थे । अरुण प्रकाश दिल्ली का निधन दिल्ली के मयूर विहार इलाके में हुआ था । लेखक संगठनों से जुड़े तमाम वरिष्ठ साहित्यकार उनके फ्लैट के आधे एक किलोमीटर के दायरे में रहते हैं लेकिन कोई उनके घर शोक व्यक्त करने तक नहीं पहुंचा था । उनके अंतिम संस्कार में भी गिने चुने साहित्यकार थे । इस तरह की संवेदनहीनता के दर्जनों उदाहरण इन लेखक संगठनों के सर पर कलगी की तरह लगे हैं । दुखद ये कि इन लेखक संगठनों को अपनी इस संवेदनहीनता पर शर्मिंदगी भी नहीं है । इसके अलावा साहित्य अकादमी में सालों से चली आ रही गड़बड़ियों को लेकर भी लेखक संगठनों ने कभी कोई आवाज वहीं उठाई, क्योंकि इन लेखक संगठनों से जुड़े लेखकों को वहां से फायदा मिल रहा था । वो पुरस्कृत हो रहे थे, साहित्यक विदेश यात्राएं कर रहे थे,, देश भर में सेमिनार आदि के नाम पर घूमना फिरना हो रहा था । उन्नीस सौ पचहत्तर के बाद साहित्य अकादमी का इतिहास घोटालों और घपलों का रहा है । उसपर किसी तरह का स्पंदन उस वक्त साहित्य जगत में नहीं दिखा । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष गोपीचंद नारंग पर कई तरह के संगीन इल्जाम लगे थे लेकिन पंकज विष्ठ के अलावा किसी लेखक ने आवाज उठाई हो याद नहीं पड़ता, लेखक संगठन की बात तो दूर  । इसी तरह से साहित्य अकादमी के सचिव को घपलों के आरोप में सस्पेंड किया गया था । उनके खिलाफ जांच बैठी थी । इस बीच उनको रिटायर कर दिया गया । उनके घपलों की जांच रिपोर्ट के नतीजे क्या आए, ये जानने की कोशिश किसी लेखक संगठन ने की या नहीं इसको देखने की आवश्यकता है । साहित्य जगत में इस बात की चर्चा लगातार रही कि उक्त सचिव ने कई वामपंथी लेखकों को उपकृत किया था लिहाजा उन सबों का अकादमी पर दबाव था कि इस मामले को रफा दफा कर दिया जाए। वही हुआ । विश्वनाथ तिवारी उन घपलों की जांच कर रहे थे लेकिन नतीजा क्या रहा पता नहीं चल पाया । सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में घुमा-फिरा कर टाल दिया गया ।  
अब जरा इन लेखक संगठनों के क्रियाकलापों पर नजर डालते हैं। इन लेखक संगठनों में विश्वविद्लाय के शिक्षकों के दबदबे पर राजेन्द्र यादव ने कहा था- साहित्यकारों में ज्यादातर प्राध्यापक हैं, क्या ईमानदारी से इनमें से कोई वो काम करता है जिसके लिए उनको वेतन मिलता है । ये लोग ना तो अपने पाठ्यक्रम के साथ न्याय करते हैं न अपने छात्रों के साथ । साहित्य में उतरकर उनका लगभग यही उठाईगीर रवैया हम सबके सामने है । पुराने कवियों लेखकों को छोड़कर न इऩमें से किसी ने भी कोई ऐसी पुस्तक लिखी है जो वैचारिक रूप से आंदोलित करे या देश-विदेश के विचारों के परीक्षण का जोखिम उठाए । आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्र की तरह सब बाहर से माल लाकर अपना ठप्पा ठोंक देते हैं । कभी कभी मैं सोचता हूं कि हिंदी में कबीर, तुलसी और निराला ना होते तो इन बेचारों की जिंदगी क्या होती । अपनी विद्वता कहां झाड़ते । समीक्षक वीरेन्द्र यादव ने भी माना था लेखक संगठनों की निष्क्रियता के मूल में वामपंथी राजनीति कीपस्त हिम्मती, सुविधाजीविता और परिप्रेक्ष्यविहीनता है, वहीं लेखकों के बीच पद, प्रतिष्ठा व पुरस्कार आदि को लेकर लोलुपता बढ़ी है । वैचारिक उदारतावाद का स्थान नग्न अवसरवाद ले रहा है । इन्हीं दुर्गुणों को प्रगतिशील लेखक संघ में लक्ष्य करके जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच का गठन हुआ था , लेकिन ये संगठन भी कमोबेश आज के प्रगतिशील लेखक संघ की तरह झंडा-बैनर अधिक रह गए, सक्रिय लेखक संगठन कम ( कोलाहल कलह में-पृ 60)। यहां वीरेन्द्र यादव, मंगलेश से इतर विचार रखते हैं जब वो कहते हैं कि लेखक संगठनों को कॉपीराइट आदि के मुद्दों पर गंभीरता से काम करने की आवश्यकता है । लेखक संगठनों को लेकर इनसे वैचारिक और सांगठनिक रूप से जुड़े लेखकों के बीच जबरदस्त कंफ्यूजन की स्थिति है और यह कंफ्यूजन इनकी निष्क्रियता की वजह है ।

अब जरा हम इन लेखक संगठनों के क्रियाकलापों में पारदर्शिता की परख करते हैं । इन लेखक संगठनों का सालाना या द्वैवार्षिक अधिवेशन होता है । उन अधिवेशनों में क्या क्या प्रस्ताव आदि पारित होते हैं उसका कोई दस्तावेजी रिकॉर्ड कहीं मिलता नहीं है । इन लेखक संगठनों से जुड़े मठाधीशों ने अपने कितने चेले चपाटों की किताबें छपवाकर उनको प्रोफेसर बनवा दिया लेकिन अपने संगठन के क्रियाकलापों के दस्तावेज छपवाने के लिए उनके पास वक्त नहीं है । हो सकता है कि उन अधिवेशनों में जो होता हो उसका रिकॉर्ड रखना संगठन के हित मे ना हो लिहाजा उसको संभालने की उचित व्यवस्था नहीं की गई । अधिवेशनों में पारित प्रस्ताव अगर मौजूद होते तो उसको कसौटी पर कस कर काल और परिस्थिति के मुताबिक इन संगठनों का मूल्यांकन हो सकता था । जो हो नहीं पा रहा है । क्या ये माना जाए कि जानबूझकर इन संगठनों के क्रियाकलापों के सबूत को छिपाकर रखा गया है ताकि उनका मूल्यांकन ना हो सके । निर्मल वर्मा ने कम्युनिस्टों के बारे में कहा था- उनका लगाव और प्रेम अपने सिवा किसी और से नहीं है । उनके शतरंजी खेल में कोई भी वर्ग , चाहे वो कितना भी उत्पीड़ित क्यों ना हो, उनके लिए बाजी जीतने की मुहर से अधिक महत्व नहीं रखता । साहित्य अकादमी के बाहर इकट्ठे लेखक संगठन के लोगों को देखकर यही सवाल मन में कौंधा था कि इस बार शतरंजी खेल में असहिष्णुता के मोहरे का इस्तेमाल हो रहा है ।