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Wednesday, August 31, 2011

सपाट बयानी की कविता

बहुत ही दिलचस्प वाकया है । राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तकों की सूची उनके बेवसाइट पर जाकर देख रहा था । कई किताबें पसंद आई । यह सोचकर नाम लिखता गया कि उन पुस्तकों को मंगवाकर पढूंगा और अगर मन बना तो उनपर अपने स्तंभ में या अन्यत्र कुछ लिखूंगा भी । सूची बनाते बनाते एक किताब दिखाई दी- मरजानी, लेखिका वर्तिका नंदा । मैंने अशोक महेश्वरी जी को जो किताबों की सूची भेजी उसमें मरजानी का नाम भी भेज दिया। मेरे पत्र के कुछ दिनों बाद ही झा जी घर पर आकर किताबें दे गए । मैंने किताबें देखनी शुरू की । पलटते-पलटते मरजानी की बारी आई । जैसे ही मैंने किताब खोली तो हैरान रह गया । मरजानी, वर्तिका नंदा का नया कविता संग्रह निकला । अपनी अज्ञानता में मैंने उसे उपन्यास समझ कर मंगवा लिया था । मेरी ज्यादातर रुति उपन्यास या फिर कहानी संग्रह में ही रहती है । खैर हाल के दिनों में जिस तरह से वर्तिका नंदा ने अपने ताबड़तोड़ लेखन से हिंदी में सारा आकाश छेकने की कोशिश की है उसके बाद से ही उनके लेखन को लेकर पाठकों के मन में दिलचस्पी बढ़ी है । मेरे मन में भी । अखबारों में लगातार लेखन करके भी वर्तिका ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है । दो हजार दस में राजकमल प्रकाशन से ही नंदा की किताब टेलीविजन और क्राइम रिपोर्टिंग को मैं उलटपुलट कर देख चुका था, लिखना चाह रहा था लेकिन काहिली की वजह से लिख नहीं पाया । गद्य में मेरी रुचि है लेकिन पद्य में मेरी रुचि जरा कम या यों कहें कि बेहद कम है । मैं यह स्वीकार करता हूं कि मुझे पुराने कवियों जैसे दिनकर, अज्ञेय, निराला, नागार्जुन, आदि को पढ़ने में आनंद आता है । आनंद इस वजह से आता है कि वो कविताएं मेरी समझ में आती है । मुक्तिबोध को कोर्स में होने की वजह से पढ़ा, पहले अंधेरे में बहुत ही दुरूह कविता लगी थी लेकिन बाद में जब उस कविता पर कई आलोचकों की राय पढ़ी तो समझ में आई । लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह की कविता लिखी जा रही है वो उसको मेरी अल्पबुद्धि जरा कम ही समझ पाती है । समझने की बहुत कोशिश की, कई कवियों की कविताओं को पढ़ा भी लेकिन समझ ना पाने की वजह से उनपर लिख नहीं पाया । वर्तिका की इस किताब को पलटते हुए मैंने सोचा कि एक पत्रकार और अब पत्रकारिता के शिक्षक की कविताएं पढ़ लेनी चाहिए । संग्रह को दो बार पढ़ा ।
कवयित्री ने अपनी भूमिकानुमा लेख- कविता से पहले लिखा है –वैसे कविताएं निजी दस्तावेज की तरह होती है । आमतौर पर वो तकिए के नीचे छिपी रहती हैं या अकेलेपन का साथी बनती हैं और जब हवाओं का रुख आसमान की तरफ ले जा रहा होता है, तब भी ये घास की तरह जमीन पर रहकर मजबूत बनी रहती है । कवयित्री ने कविता को भावुकता की जमीन दे दी है – मन के करीब रहनेवाली, साथ साथ चलनेवाली, ओढनी बनी और तकिया भी । कविता को ओढनी बताने का उनका निहितार्थ क्या है इसके साफ संकेत कहीं नहीं मिल पा रहे हैं लेकिन प्रचलित अर्थ में ओढनी लड़कियां और औरतें अपने को ढकने के लिए इस्तेमाल करती है । मुझे ये समझ नहीं आया कि कविता ओढनी कैसे बन सकती है और किस लाज को ढ़कने के काम आ सकती है । कविता में शब्दों का चयन उसे चमका देती है लेकिन अगर वही शब्द अगर जबरदस्ती ठूंसे जाते हैं तो स्पीड ब्रेकर की तरह झटके भी देते हैं । अपनी कविता को लेकर इमोशनल कवयित्री इतने पर ही नहीं रुकती हैं- पाठकों से भी आग्रह करती है कि – इन्हें मैंने नजाकत से रखा था । आप भी इन्हें नजाकत से ही पढ़िएगा । कवयित्री का यह आग्रह उनकी कविताओं में एक जबरदस्त मोह के रूप में लामने आता है – ख्याल ही तो है- में वो कहती है – क्या वो कविता ही थी/ जो उस दिन कपड़े धोते-धोते/साबुन के साथ घुलकर बह निकली थी/एक ख्याल की तरह आई /ख्याल की ही तरह/धूप की आंच के सामने बिछ गई/पर बनी रही नर्म ही/ । यहां भी वर्तिका के लिए कविता नर्म और नाजुक है ।
एक कवयित्री का अपनी कविताओं को लेकर मोह तो जायज है लेकिन पाठक तो कविता को कविता की कसौटी पर कसेंगे ही । वर्तिका नंदा की कविताओं को पढ़ते हुए एक बार फिर से मेरे मन में पुराना सवाल कौंधा - कविता क्या है । जवाब में फिर से कविता के नए प्रतिमान में नामवर सिंह का लिखा याद आया- किसी काव्य कृति का कविता होने के साथ ही नई होना अभीष्ट है । वह नई हो और कविता ना हो, यह स्थिति साहित्य में कभी स्वीकार्य नहीं हो सकती । वर्तिका की कविताएं पढ़ते हुए मुझे कुछ भी नया नहीं लगा, ना तो कविता की भावभूमि और ना ही कथन और ना ही बिंब । इनकी कविताओं में अक्सर घूमफिर कर घर,परिवार और उनका पेशा और परिवेश आता रहता है और कवयित्री, लगता है, उसके ही चारो ओर चक्कर लगाती रहती है । वर्तिका की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे लगा कि अपनी कविताओं में वो कई बार बेहद सपाट हो जाती है और कविता और नारो के बीच का फर्क भी भूल जाती है । उदाहरण के तौर पर अगर हम उसकी कविता –क्यों भेजूं स्कूल को देखें- नहीं भेजनी अपनी बेटी मुझे स्कूल /नहीम बनाना उसे पत्रकार/क्या करेगी वह पत्रकार बनकर/अगर नाम कमा लेगी तो नहीं बन पाएगी पूरी औरत/ । यह एक कवि का अपने पेशे से मोहभंग की अभिवयक्ति है जो उसकी कविताओं में नारे की शक्ल में उपस्थित होता है । नारे भीड़ में जोश तो भर सकते हैं लेकिन जब वो कविता की जमीन पर पहुंचते हैं तो औंधे मुंह गिर जाते हैं । समीक्ष्य संग्रह में यह कई बार घटता है । इसके अलावा मरजानी की अन्य कविताओं में भी जो बिंब उठाए गए हैं वो भी पहली नजर में वास्तविकता को मूर्त करती प्रतीत होती है लेकिन अगर उसपर गंभीरता से विचार किया जाए तो वास्तविकता का अनावश्यक भार उठाते हुए कविताएं हांफती नजर आती है –चाहे वो टीवी एंकर और तुम हो या फिर कसाईगिरी । निष्कर्ष यह कि बिंब के बोझ तले कविता इतनी दब गई है कि वो उठ ही नहीं पाई ।
वर्तिका नंदा की छोटी बड़ी कविताओं को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इन कविताओं में जो भावुकता है या जो वैयक्तिकता है वह संरचना में शिथिलता और काव्यानुभूति की कमजोरी का परिणाम है । इस संग्रह में जिस तरह से तात्कालिक परिवेश की जमीन पर कवयित्री ने सपाटबयानी की है उससे भी उनकी कविताओं की दुर्बलता सामने आती है । घटनाओं को यथार्थपरकता की चाशनी में डुबाकर कविता गढ़ने की जो एक प्रवृत्ति हाल के दिनों में सामने आई हैं, वर्तिका की कविताएं उसका सर्वोत्तम उदाहरण है । वर्तिका नंदा का यह कविता संग्रह एक कमजोर और सपाट कविताओं का संग्रह है जो हिंदी साहित्य में जगत में अगर अननोटिस्ड रह जाए तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा । अंत में एक और चौंकाने वाली बात राजकमल प्रकाशन ने अब अपनी किताबों का मूल्य डॉलर में भी देना शुरू कर दिया है । इस संग्रह का दाम है आठ डॉलर ।
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Saturday, August 13, 2011

मंजिल से भटका सफर

आज देश आजादी का जश्न भले ही मना रहा हो लेकिन देश की जनता के बीच अपनी इस आजादी को लेकर एक संदेह, एक आशंका, एक रोष पैदा हो गया है । इस संदेह की वजह यह है कि पूर् देश में इस वक्त भ्रष्टाचार का बोलबाला है । समाज के सबसे निचले स्तर से लेकर देश के शीर्ष स्तर को भ्रष्टाचार की विषबेल ने जकड़ लिया है । चाहे वो पौने दो लाख करोड़ का टेलीकॉम घोटाला हो, सत्तर हजार करोड़ का कॉमनवेल्थ घोटाला हो, हजारों करोड़ का अंतरिक्ष घोटाला हो, चाहे देश के शहीदों के परिवारों को मिलने वाले घर का आदर्श घोटाला हो या फिर आईपीएल घोटाला । आज जिधर नजर दौड़ाइये घोटाले उधर ही मुंह बाए खड़े हैं । सारे घोटालों के केंद्र में या यों कहें कि हर भ्रष्टाचार की धुरी या तो कोई कांग्रेस का नेता है या फिर कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही केंद्र सरकार को समर्थन दे रही पार्टी का नेता । हर घोटाले के बाद कांग्रेस पार्टी यह दलील देती नजर आती है कि अमुक घोटाले के लिए फलां नेता और मंत्री जिम्मेदार है । लेकिन इस बात को लेकर कभी कोई सवाल नहीं उठता कि जिस मंत्रिमंडल के सदस्य घोटाले कर रहे हैं उनके मुखिया की कोई जिम्मेदारी बनती भी है या नहीं । हर कोई इस बात की दुहाई देता नजर आता है कि देश के प्रधानमंत्री बहुत साफ सुथरे छवि के हैं । उनके दामन पर दाग नहीं है । अरे भाई उस साफ सुथरी छवि को लेकर देश की जनता क्या करे । देश छवि से नहीं चलता । देश चलाने के लिए कड़े फैसले लेने होते हैं । उस भले और ईमानदार आदमी का हम क्या करें जिनकी नाक के नीचे घोटाले हो रहे हैं लेकिन वो और उनके कारिंदे कहते हैं ये सब उनकी जानकारी में नहीं हुआ । क्या हम यह मान लें कि आजादी के लगभग साढ़े छह दशक बाद प्रधानमंत्री नाम की संस्था को गठबंधन की राजनीति ने कमजोर कर दिया है । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बहुत ईमानदार हैं, होंगे, लेकिन जिस तरह उन्होंने भ्रष्टाचार की तरफ से आंखें मूंद ली है उससे एक संदेह का वातावरण तो उनके इर्द गिर्द भी बन ही जाता है । आप लाख ईमानदार हों लेकिन आपके सहयोगी भ्रष्टाचारी हैं तो उसके छींटे तो आपके दामन पर भी पड़ेंगें ही । अंग्रेजी में एक मशहूर कहावत है – अ मैन इज नोन बाइ हिज कंपनी, ही कीप्स ।
ऐसा नहीं है कि देश में सिर्फ कांग्रेस पार्टी और उसके नेता ही भ्रष्ट हैं । देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी में भी येदुरप्पा जैसे लोग हैं जिनका दामन दागदार है । येदुरप्पा पर जमीन घोटाले के आरोप लगे लेकिन बीजेपी को उनपर कार्रवाई करने में लोकायुक्त की रिपोर्ट का इंतजार करना पड़ा । सार्वजनिक जीवन में शुचिता और उच्च सामाजिक मानदंड की वकालत करनावली पार्टी बीजेपी, झारखंड में शिबू सोरेने के साथ मिलकर सरकार चला रही है । शिवू सोरेन पर पहले भी भ्रष्टाचार समेत हत्या और हत्य़ा की साजिश रचने के संगीन इल्जाम लग चुके हैं । उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की सरकार पर भी राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन समेत कई सरकारी योजनाओं में घपले घोटाले की जांच चल रही है । मायावती पर आय से अधिक संपत्ति का मुकदमा विचाराधीन है । उत्तर प्रदेश सरकार पर कैग की ताजा रिपोर्ट में बेहद गंभीर आरोप लगे हैं । तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता पर भी भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा है । समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और हरियाणा के चौटाला पिता पुत्र के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट में आय से अधिक संपत्ति का केस जारी है । लालू यादव और कई सूबों के और नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच चल रही है, यह सूची बहुत लंबी है । अभी-अभी आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी के बेटे जगनमोहन रेड्डी की संपत्ति की जांच के आदेश दिए हैं ।
यह अकारण नहीं है कि देश के तीस मुख्यमत्रियों की कुल संपत्ति करीब ढाई सौ करोड़ रुपये हैं । इस अनुमान के मुताबिक राज्यों के मुख्यमंत्रियों की औसत संपत्ति आठ करोड़ रुपये है । लेकिन अगर उसमें से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और तमिलनाडू के मुख्यमंत्री(अब पूर्व) करुणानिधि की संपत्ति हटा दी जाए तो देश के मुख्यमंत्रियों की औसत संपत्ति घटकर करीब चार करोड़ रुपए रह जाएगी । तकरीबन 87 करोड़ रुपये की संपत्ति के साथ उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और दलित नेता मायावती देश की सबसे अमीर मुख्यमंत्री हैं । दो हजार दस में मायावती ने बताया था कि उनकी संपत्ति तीन साल में 35 करोड़ रुपये बढ़ गई है यानि की तीन साल में बावन करोड़ से बढ़कर सत्तासी करोड़, तकरीबन सड़सठ फीसदी का इजाफा । केंद्रीय मंत्रियों की लिस्ट पर भी अगर नजर डालेंगे तो यह अमीरी नजर आएगी । कहां से आ रहे हैं ये पैसे, ये तो घोषित संपत्ति है, क्या कोई अघोषित संपत्ति भी है । इस तरह के सवाल पूरे देश को मथ रहे हैं । कोई कहता है कि उनके समर्थक चंदा देते हैं तो कोई अपने कारोबार के बूते करोड़पति बनने की बात कर रहा है । नतीजा यह हो रहा है कि पूरे देश में इस वक्त पॉलिटिकल क्लास को लेकर जनता के मन में एक गंभीर सवाल खड़ा हो गया है । आजादी के तकरीबन चौंसठ साल बाद भी आज देश की जनता अपने चुने हुए नेताओं पर भरोसा नहीं कर पा रही है तो यह लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक बात है । देश की आजादी की वर्षगांठ पर पॉलिटिकल क्लास के लोगों के लिए आत्ममंथन का भी वक्त है ।
इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि सत्ताधरी पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करनेवाली संस्थाओं पर ही हमले करने लगे हैं । जब सीएजी की रिपोर्ट में दिल्ली की मुख्यमंत्री के खिलाफ आता है तो कांग्रेस के प्रवक्ता उस संस्था को ही सवालों के घेरे में ले लेते हैं । उसके पहले टेलीकॉम घोटाले में कैग की रिपोर्ट की जांच कर रही संसद की लोकलेखा समिति पर भी कांग्रेस के लोगों ने इस तरह से ही सवाल खड़े कर दिए थे । भ्रष्टाचारियों को बचाने या फिर उनके समर्थन के लिए लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं पर हमले से ऐसा लगता है कि कांग्रेस को भ्रष्ट लोगों की ज्यादा चिंता है बजाए संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा की । आजादी के बाद जिस तरह से उन्नीस सौ पचास में सीएजी को बनाकर उसे संवैधानिक आजादी दी गई और जिसे जवाहरलाल नेहरू ने अपने शासनकाल में मजबूकी दी आज उसपर ही इस वक्त के कांग्रेसी उंगली उठा रहे हैं ।
पूरा देश यह भी देख रहा है कि किस तरह से अन्ना हजारे, जो कि आज भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के प्रतीक बन चुके हैं, को परेशान किया जा रहा है । उनकी आवाज को दबाने या फिर उनको या उनकी टीम को परेशान करने का कोई मौका सरकार नहीं छोड़ रही है । चाहे वो दिल्ली में अनशन करने देने के लिए जगह देना का मामला हो या फिर लोकपाल बिल में मनमानी करने का । अन्ना के खिलाफ खड़े होकर सरकार ने इतनी बड़ी गलती कर दी है जिसकी भरपाई निकट भविष्य में संभव नहीं है । दरअसल आज कांग्रेस के पास आजादी के आंदोलन से तपकर निकले जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, एस राधाकृष्णन और डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद जौसे नेता नहीं हैं जो एक नैतिक उदाहरण पेश कर सकें । अन्ना ने ईमानदारी की जो नैतिक चुनौती सरकार को दी है उसका जवाब देने के लिए कांग्रेस के पास कोई नेता नहीं है । कपिल सिब्बल हों या फिर चिदंबरम या फिर विवादित बयानों के लिए चर्चित दिग्विजय सिंह- इन सबमें वो नैतिक ताकत नहीं है जो अन्ना हजारे का मुकाबला कर सके । लेकिन उससे भी चिंता की बात यह है कि देश में इन भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ कार्रवाई ना होते देख जनता क्षुब्ध होने लगी है, उनका धैर्य जवाब देने लगा है । आज जश्ने आजादी के बीच पॉलिटिकल क्लास को जनता की इस नाराजगी का संज्ञान लेना चाहिए ।

Friday, August 12, 2011

...किसी से हो नहीं सकता


हर साल 31 जुलाई हिंदी साहित्य के लिए एक बेहद खास दिन होता है । इस दिन हिंदी के महान उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन होता है । लेकिन हिंदी पट्टी में अपने इस गौरव को लेकर कोई उत्साह देखने को मिलता हो यह ज्ञात नहीं है । प्रेमचंद के गांव लमही में कुछ सरकारी टाइप के कार्यक्रम हो जाते हैं जिसमें मंत्री वगैरा भाषण आदि देकर रस्म अदायगी कर लेते हैं । इस बार भी वहां कुछ वैसा ही हुआ । लेकिन तकरीबन पिछले पच्चीस साल से हंस पत्रिका प्रेमचंद के जन्मदिन पर दिल्ली में एक विचार गोष्ठी का आयोजन करती रही है । इस बार भी किया । राजेन्द्र यादव के संपादन में निकलते हुए इस पत्रिका के पच्चीस साल हो गए हैं, लिहाजा मौका खास था । हंस की रजत जयंती वर्ष और प्रेमचंद की जयंती । दिल्ली के ऐवान-ए-गालिब के हॉल में हंस और साहित्यिक पत्रकारिता पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया था । हर साल की तरह इस वर्ष भी साहित्यक जमात का ठीक-ठाक जमावड़ा लगा था । हर तबके के लेखक वहां मौजूद थे। दो तीन पीढ़ी के लेखक तो थे ही । मैं जब पहुंचा तो उसके कुछ देर बाद बांग्लादेश की विवादास्पद लेखिका तस्लीमा नसरीन भी वहां आईं । तसलीमा के साथ एक सुरक्षाकर्मी भी था । लेकिन मैं ये देखकर हैरान रह गया कि तसलीमा को काफी देर तक खड़ा रहकर इधर उधर देखना पड़ा । उनको लेकर वहां मौजूद लोगों में कोई उत्साह नहीं दिखा । लेकिन कुछ देर जब वो अकेली खड़ी रहीं तो फिर किसी ने उन्हें हॉल का रास्ता दिखाया । ये वही तसलीमा थी जो तकरीबन दस साल पहले वाणी प्रकाशन के एक कार्यक्रम में दिल्ली आई थी तो लगा था कि राजधानी में कोई घटना घटी हो । दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के हॉल में तिल रखने की जगह नहीं थी । देशी-विदेशी मीडिया के दर्जनों कैमरे और पत्रकार तो वहां मौजूद थे ही, हिंदी का बड़ा से बड़ा लेखक भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने को बेताब था । तस्लीमा की एक झलक पाने के लिए लोग उतावले हो रहे थे, तस्लीमा के साथ फोटो खिंचवाने के लिए लोग सिफारिश कर रहे थे । हमारे मित्र अरुण महेश्वरी से । लेकिन उस वक्त अपने आयोजन की सफलता से गदगद अरुण जी ने लोगों को छोड़ दिया और तसलीमा के साथ अशोक वाजपेयी और कुंवर नारायण को लेकर लंच के लिए चले गए । जबतक तसलीमा वहां रही कैमरे का फ्लैश बंद होने का नाम नहीं ले रहा था । जींस और टी शर्ट पहने छरहरी काया की तस्लीमा अपने स्वागत से भाव विभोर थी । लेकिन सिर्फ दस साल में माहौल कितना बदल गया । तस्लीमा दिल्ली की उसी साहित्यिक जमात के बीच खड़ी थी लेकिन उनका कोई नोटिस नहीं ले रहा था । वजह चाहे जो भी हो । खैर ये एक अलग बात है जो प्रसंगवश मैं कह गया ।
हम बात कर रहे थे हंस के 25 साल पूरे होने की ।राजेन्द्र यादव जी ने कार्यक्रम की शुरूआत की और हंस के शुरुआती दिनों के अपने दोस्तो- लालानी जी और गौतम नवलखा आदि को शिद्दत से याद किया । छोटा सा भाषण भी दिया और टॉलस्टॉय की एक कहानी भी सुनाई । मैं लंबे समय से राजेन्द्र जी को सुनते आ रहा हूं उस दिन पहली बार लगा कि पाइप और सिगरेट के कश ने उनको काफी कमजोर कर दिया है । हिंदी साहित्य का अस्सी साल का ये जवान शारीरिक रूप से भले ही कमजोर लग रहा हो लेकिन हौसले अब भी बुलंद नजर आ रहे थे । राजेन्द्र यादव ने अपना भाषण समाप्त कर हिंदी के दलित लेखक अजय नावरिया को मंच संचालन के लिए बुला लिया । यहीं से समारोह की गरिमा के खत्म होने की शुरूआत हो गई । अजय नावरिया ने बेहद मसखरेपन के साथ मंच संचालन शुरू किया । मंच संचालन इतना खराब था कि उसकी चर्चा करना समय बर्बाद करना है । लेकिन जिस अपमानजनक तरीके की टिप्पणी अजय ने अपने मंच संचालन के दौरान की उसके लिए उसे कम से कम दुर्गा से तो माफी मांगनी ही चाहिए । दुर्गा प्रसाद राजेन्द्र जी के पुराने सहयोगी हैं । उन्हें भी इस मौके पर सम्मानित किया गया । स्मृति चिन्ह के साथ एक लिफाफा दिया गया । गिफ्ट देते वक्त अजय ने कहा – दुर्गा जी तो दो पैंट शर्ट के कपड़ा दिया जा रहा है जो उनके लिए उपयोगी है । वो इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने सार्वजनिक रूप से दुर्गा की खुराक के बारे में टिप्पणी कर डाली। काफी देर तक साहित्यिक जमात ने अजय तो झेला लेकिन जब लोगों का धैक्य जवाब दे गया तो कुछ उत्साही लोगों ने उसे हूट कर बैठा दिया । भीड़ जबतक इंसाफ कर पाती तबतक अजय नावरिया ने साहित्यिक समारोह की गरिमा को समूल रूप से नष्ट कर दिया था । काफी देर तक चले मसखरेपन के बाद लालानी जी ने बोलना शुरू किया । उन्होंने राजेन्द्र यादव के साथ अपने शुरुआती दिनों को याद किया । बोले तो गौतम नवलखा और अर्चना वर्मा भी । दोनों ने बेहद संक्षिप्त बोला और सिर्फ हंस की तारीफों के पुल बांधे । अर्चना वर्मा ने हंस के साथ के अपने दिनों को बताया कि किस तरह से वो सिर्फ परख देखने के लिए हंस में आई थी और किस तरह से उन्हें कहानी और फिर कम पड़ रहे लेख भी लिखवाया जाने लगा ।
इसके बाद बारी थी हिंदी के हिरामन नामवर सिंह की । नामवर जी को हंस और साहित्यिक पत्रकारिता पर बोलना था लेकिन बोले वो सिर्फ हंस पर । शुरुआत तो उन्होंने – मेरे दुश्मन राजेन्द्र यादव से की लेकिन उसके बाद उन्होंने राजेन्द्र यादव के हौसले की जबरदस्त तारीफ की । सार्वजनिक रूप से अपनी तारीफ सुनकर मंच पर बैठे यादव जी का चेहरा लाल-लाल हो रहा था । शरमा इस तरह रहे थे जैसे कोई नई नवेली दुल्हन शर्माती है । लेकिन नामवर जी तो अपनी रौ में थे । अपने विरोधियों को अपनी पत्रिका में जगह देने के लिए भी उन्होंने यादव जी की नामवरी अंदाज में सराहना की । उसी नामवरी अंदाज में अशोक वाजपेयी पर हमला भी बोला । नामवर जी ने कहा कि अशोक जब पूर्वग्रह के संपादक थे तो अपने पूर्वग्रहों के साथ उसका संपादन करते थे । उन्होंने कभी राजेन्द्र यादव को पत्रिका में नहीं छापा लेकिन राजेन्द्र ने हंस के छब्बीसवें वर्ष के पहले अंक में अशोक वाजपेयी से ही लिखवाया । बोलते बोलते नामवर सिंह ने अशोक वजपेयी को कायर और यादव जी को बहादुर करार दे दिया । नाम तो रवीन्द्र कालिया और अखिलेश का भी आया है । नामवर सिंह बहुत कम बोले । साहित्यिक पत्रकारिता पर भी प्रकाश डालते तो मौजूद श्रोताओं का ज्ञानवर्धन होता । उसके बाद कुछ सवाल जवाब भी हुए । लेकिन नामवर सिंह ने एक जोरदार शेर के साथ अपनी बात खत्म की – जो हो सकता है इससे वो किसी से हो नहीं सकता, मगर देखो तो जो हो सकता है वो आदमी से हो नहीं सकता ।
दिल्ली में हुए इस साहित्यक जलसे से एक बात साफ हो गई कि राजेन्द्र यादव हर उम्र के बीच खासे लोकप्रिय हैं । कार्यक्रम से बाहर निकलते हुए मैं एक बार फिर से सोच रहा था कि अंग्रेजी में अगर किसी लिटरेरी मैगजीन के प्रकाशन के पच्चीस साल पूरे होते तो क्या इस तरह का ही समारोह मनाया जाता । जवाब मिला नहीं । तो फिर हम हिंदी के लोग क्यों नहीं अपने गौरव का सम्मान कर पाते हैं । क्यों नहीं हमारा मीडिया इस तरह की समारोह को कवरेज देता है । इन सवालों से जूझता हुआ मैं घर लौट आया । सवाल अब भी मेरा पीछा कर रहे हैं ।

Friday, August 5, 2011

सफलता के नशे में बेअंदाज धोनी

भारतीय क्रिकेट टीम को बुलंदी के शिखर पर पहुंचाने वाला शख्स- महेन्द्र सिहं धौनी । पहले टी 20 में देश को विश्वविजेता बनाने वाला शख्स महेन्द्र सिंह धौनी । तकरीबन अट्ठाइस साल बाद भारतीय क्रिकेट के लिए विश्वविजेता का ताज हासिल करने वाला शख्स महेन्द्र सिंह धौनी । टेस्ट क्रिकेट में टीम इंडिया को नंबर वन की कुर्सी तक पहुंचाने वाला शख्स महेन्द्र सिंह धौनी । अबतक अपने देश की धरती या फिर विदेश में कोई भी टेस्ट सीरीज नहीं हारने वाला शख्स महेन्द्र सिंह धौनी । बहुत कम समय में इतनी सारी सफलताओं का स्वाद चखना और उसको जज्ब करके शांत चित्त रहकर दुनिया भर में अपनी नेतृत्व क्षमता का लोहा मनवा लेना वाला शख्स महेन्द्र सिंह धोनी। लेकिन अब लगता है कि सफलता के शीर्ष पर बैठा भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान पर वही सफलता उनके सर चढ़कर बोलने लगी है । सफलात के नशे में वो इतना चूर हो गए हैं कि अपने अलावा उन्हें कुछ और दिखता ही नहीं है । पिछले दिनों लंदन में भारत के उच्चायोग की पार्टी में समय देकर महेन्द्र सिंह धोनी नहीं गए । वह अपनी पत्नी के फाइंडेशन के लिए धन इकट्ठा करने के लिए एक होटल में नीलामी के लिए मौजूद थे । मौजूद तो वहां सचिन तेंदुलकर समेत पूरी टीम इंडिया भी थी । इस वजह से उच्चायोग को अंतिम समय में क्रिकेटरों के सम्मान में आयोजित अपनी पार्टी रद्द करनी पड़ी । डिप्लोमैटिक सर्किल में देश की ना सिर्फ बेइज्जती हुई बल्कि उच्चायोग के लिए यह एक बेहद शर्मिंदगी लेकर भी आया। लंदन के भारतीय उच्चायोग की यह पार्टी भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के नियमों और परंपराओं के मुताबिक ही थी । नियम ये कहता है कि विदेश यात्रा पर जा रही टीम इंडिया को उच्चायोग या राजदूतावास के दावत में सम्मिलित होना आवश्यक है । लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि क्रिकेट के मैदान में प्रचलित मान्यताओं की धज्जी उड़ानेवाले धौनी को यह याद नहीं रहा कि डिप्लोमेसी में इस तरह के कदम पूरे देश की किरकिरी हो सकती है । हुई भी । क्रिकेट के मैदान पर विकेट कीपर को गेंदबाजी करते हुए नहीं देखा गया है । लेकिन इंगलैंड के खिलाफ टेस्ट सिरीज में धौनी ने प्रचलिक मान्यताओं को धता बता दिया। दस्ताने उतार कर भारत के इस विकेटकीपर को दुनिया ने गेंदबाजी करते हुए देखा। भारतीय टीम के पूर्व कप्तान कपिलदेव और सौरव गांगुली ने धौनी के इस कदम को क्रिकेट का माखौल उड़ानेवाला कदम करार दिया था ।
जब लंदन के भारतीय उच्चायोग ने विदेश मंत्रालय से धौनी के इस वर्ताव की शिकायत की तो भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड धौनी के बचाव में उतर आया । दरअसल भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड हमेशा अपनी सुविधा के अनुसार तर्क गढ़ता रहता है । जब उस संस्था पर मनोरंजन कर और इंकम टैक्स लगाने की बात होती है तो वह अपने आपको देश के गौरव से जोड़कर इन करों में रियायत की वकालत करता है । लेकिन जब यही अपेक्षा देश उनसे करता है तो वो अपने आपको निजी संस्था बताने में लग जाते हैं । इस तरह के कई वाकए हुए हैं जब बीसीसीआई ने अलग अलग वक्त पर अलग अलग स्टैंड लिया है । जहां तक मुझे याद है कि किसी मामले में अदालत में भी बीसीसीआई ने इस तर्क का सहारा लिया था कि वह एक निजी संस्था है और लोकहित के नाम पर उसपर दबाव नहीं बनाया जा सकता है । देश के लिए गौरव की बात करनेवाले क्रिकेट बोर्ड को देश के गौरव की अगर फिक्र होती तो धौनी और टीम इंडिया को उच्चायोग के डिनर में जाना होता । लेकिन खिलाड़ियों को भी लगता है कि जब बोर्ड को ही देश की फिक्र नहीं है तो उन्हें क्यों हो । हमारे क्रिकेट के खिलाड़ी सिर्फ और सिर्फ पैसा के लिए खेलते हैं । देश के गौरव का तो वो पैसा कमाने के लिए एक प्लेटफॉर्म की तरह इस्तेमाल करते हैं और यह सीख उन्हें उनके संस्था यानि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड से मिलती है । दरअसल क्रिकेट खेलनेवाले खिलाड़ी पैसा कमाने की अंधी दौड़ में इस कदर मुब्तिला हो चुके हैं कि उन्हें विदेशों में भी देश के गौरव और सम्मान की चिंता नहीं रहती । महेन्द्र सिंह धौनी देश के पिछड़े राज्यों में एक झारखंड से आते हैं और बेहद संघर्षों के बाद अपनी काबिलियत के बूते पर एक मुकाम हासिल किया लेकिन अब लगता है कि सफलता के शीर्ष पर पहुंचकर या तो वो असुरक्षा बोध से ग्रस्त हो गए हैं या फिर सफलता का ऐसा नशा उनपर चढ़ा है कि वो अपने आगे किसी को कुछ समझते ही नहीं है । ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब पद्म पुरस्कार वितरण समारोह में भी महेन्द्र सिंह धौनी नहीं पहुंचे थे । जिस दिन महामहिम राष्ट्रपति महेन्द्र सिंह धौनी समेत देश के अन्य विशिष्ट वयक्तियों को पद्म पुरस्कारों से नवाजनेवाली थी उस दिन धोनी साहब के किसी विज्ञापन फिल्म की शूटिंग में वयस्त होने की खबर आई थी । उस वक्त भी महेन्द्र सिंह धौनी के पद्म पुरस्कार नहीं लेने के लिए पहुंचने पर खासी आलोचना हुई थी । तब भी बीसीसीआई ने धौनी का बचाव किया था और अब भी वो लचर दलीलों के साथ अपने कप्तान का बचाव कर रही है ।
लेकिन ऐसा लगता है कि धोनी को पैसे के आगे ना तो अपनी प्रतिष्ठा का ख्याल है और ना ही देश और उसकी संवैदानिक मान्यताओं और संस्थाओं का । अब वक्त आ गया है कि देश के कर्ता-धर्ताओं को या भारत सरकार को बीसीसीआई को एकदम से नितांत निजी संस्था की तरह ट्रीट करना चाहिए और ना तो उन्हें टैक्स में किसी तरह की रियायत मिलनी चाहिए और ना ही आईपीएल के तमाशे में मनोरंजन कर में छूट मिलनी चाहिए । दरअसल इतना कड़ा स्टैंड हम तभी ले पाएंगे जब देश के शीर्ष नेतृत्व में दृढ राजनैति इच्छा शक्ति हो । अबतक बीसीसीआई पर उन्हीं लोगों का कब्जा है जो या तो सरकार में शामिल रहे हैं या फिर सरकार में शामिल लोगों के पिट्ठू रहे हैं । नतीजा यह होता है कि देश की एक निजी संस्था को पैसा कमाने के लिए देश का नाम का इस्तेमाल करने की छूट मिली हुई है । उनसे तत्काल यह छूट वापस ली जानी चाहिए और उन्हें भारतीय क्रिकेट टीम की बजाए बीसीसीआई की टीम माना जाना चाहिए । और सिर्फ देश की सरकार को नहीं बल्कि देश की जनता को भी क्रिकेटरों को किसी निजी संस्था के लिए खेलनेवाले खिलाड़ियों की तरह मानना चाहिए और उनके साथ भी उसी तरह का व्यवहार करना चाहिए । वो किसी क्लब के हीरो हो सकते हैं किसी देश के नहीं । देश का नायक होने के लिए देश की इज्जत, उसकी मान मर्यादा, उसकी मान्यताओं, उसकी परंपराओं में ना केवल विश्वास और आस्था होना जरूरी है बल्कि समय आने पर यह दिखाना भी पडता है कि मान्यताओं में आस्था और विश्वास भी है

Wednesday, August 3, 2011

आतंक के आका की जीवनी

पाकिस्तानके मिलिट्री शहर एबटाबाद में जब इस साल दो मई को दुनिया केसबसे दुर्दांत और खूंखार आतंकवादी को अमेरिकी नेवी सील्स ने मार गिरायातो पूरे विश्व में मौत के इस सौदागर ओसामा बिन लादेन के बारे में जाननेकी जिज्ञासा लोगों में बेतरह बढ़ गई । अमेरिकी कार्रवाई के बाद जिस रह सेएबटाबाद के ओसामा के ठिकाने से उसके और उसकी बेगम, उसके बच्चे, उसकेपरिवार और उसके रहन सहन के तौर तरीकों के बारे में खबरें निकल कर आ रहीथी उसने ओसामा और उसकी निजी जिंदगी में लोगों की रुचि और बढ़ा दी । पूरीदुनिया के लोग ये जानने के लिए बेताब हो रहे थे कि ओसामा का बचपन कहांबीता, उसका पारिवारिक जीवन कैसा था, उसकी परवरिश किस तरह के परिवेश मेंहुई, वो कैसे आतंकवादी बना, उसने कितनी शादियां की, कैसे उसनेअफगानिस्तान की तोरा बोरा की पहाड़ियों की गुफाओं में अपने दिन बिताए ।आदि आदि । ओसामा अपने जीते जी ही एक जिंदा किवदंती बन चुका था । उशने चारशादियों की और दर्जनों बच्चे पैदा किए । इतने बड़े परिवार को लेकर येशख्स आतंकवादी गतिविधियों को कैसे मैनेज करता था इसको लेकर तरह तरह कीहैरतअंगेज बातें छन छन कर बाहर निकलती थी । जब उसके आंतकवादी संगठन नेविश्व के सबसे ताकतवर देश अमेरिका में घुसकर 11 सितंबर जैसी दिल दहलादेनेवाली घटना को अंजाम दिया तो उसके बारे में जानने की जिज्ञासा और बढ़ीथी । उसके दिमाग को पढ़ने की ललक में कई लेखकों और मनोवैज्ञानिकों नेखासी मशक्कत की । मैं चौथी दुनिया के इस स्तंभ समेत कई जगहों पर पहले भीइस बात को कई बार कह चुका हूं कि अंग्रेजी के प्रकाशकों में पाठकों की इसजिज्ञासा को भांपने और फिर उसे पूरा करने की गजब की क्षमता और इच्छाशक्तिहै । जैसे ही कोई घटना होती है या फिर कोई बड़ी वारदात होती है उसे भीमार्केट करने की अद्भुत क्षमता अंग्रेजी के प्रकाशकों में है । यहां हमहिंदी जगत के लोग बेहद पिछड़े हुए नजर आते हैं । अब अगर हम ओसामा का हीउदाहरण लें तो पाते हैं कि उसके जीवन काल में और उसके मरणोपरांत अंग्रेजीमें उसको केंद्र में रखकर कई किताबें लिखी गई और पाठकों के बीच खासीलोकप्रिय भी हुई । खूब बिकी भी । लेकिन मेरे जानते हिंदी प्रकाशन जगत मेंओसामा को लेकर कोई हलचल ही नहीं हुई । आप दो मई के बाद के अखबार और न्यूजचैनलों को देख लीजिए वो ओसामा बिन लादेन के व्यक्तिगत जीवन से लेकर आतंकीसंगठन चलाने की उसकी क्षमता को लेकर भरे पड़े हैं । लेकिन अगर आप हिंदीप्रकाशकों की पुस्तक सूची देखें तो शायद ही ओसामा पर केंद्रित कोई किताबआपको नजर आए । इस तरह के कई उदाहरण आपको विश्व साहित्य में मिल जाएंगे ।चंद साल पहले की बात है ऑस्ट्रिया की एक दिल दहला देने वाली क्राइमस्टोरी दुनियाभर के अखबारों में सुर्खियां बनी थी । ऑस्ट्रिया में जोशफ्रिट्ज नाम के एक शख्स ने अपनी बेटी को चौबीस साल तक बंधक बनाकर रखा औरइस दौरान लगातार उसके साथ बलात्कार करता रहा । उसके अपनी बेटी से सातबच्चे भी पैदा हुए । यह एक साधारण अपराध की कहानी नहीं थी बल्कि यह एकऐसे जुर्म की दास्तां थी जिसने दुनियाभर के लोगों में पापी पिता के खिलाफघृणा भर दी । जब एमा डोनोग का उपन्यास-रूम- प्रकाशित हुआ तो उसे पश्चिमीदेशों के अखबारों ने जोश फ्रिट्ज के जुर्म से जोड़ दिया । उपन्यासकार परआरोप लगा कि उसने अपने उपन्यास का प्लॉट जोश फ्रिट्ज के जुर्म की कहानीसे उठाया है । इन आरोपों में चाहे जितना दम हो लेकिन प्रकाशकों ने पहलकरके-रूम- को जबरदस्त प्रचार दिलवाया । लेकिन हमारे हिंदी के प्रकाशककिसी तरह की कोई फॉर्वर्ड प्लानिंग नहीं करते । कारोबार को देसी अंदाजमें चलाते हैं, कारोबार को प्रोफेशनल तरीके से चलाने का चलन अभी हिंदीप्रकाशन जगत में है नहीं । जिस वक्त जो पांडुलिपि आ जाए उसे प्रकाशित करदेने का चलन ज्यादा है । खैर यह एक अवांतर विषय है जो विस्तार की मांगकरता है । इस पर फिर कभी बात होगी ।फिलहाल हम बात कर रहे थे ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद उस शख्सियत मेंपैदा हुए जन जिज्ञासा की । इसी जन जिज्ञासा के चलते दो हजार नौ मेंप्रकाशित ओसामा बिन लादेन की जीवनी को भारत में नए सिरे से लॉंच किया गयाहै । ओसामा की इस लगभग प्रामाणिक जीवनी को जीन सासन ने उसकी पहली पत्नीनजवा और उसके बेटे ओमर से बातचीत के आधार पर लिखा है । इस किताब के साथएक विडंबना है - दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी की यह जीवनी समर्पित है उनलोगों को जिनके अपने आतंकी हमले में मारे गए । उनलोगों को भी समर्पित हैयह किताब जो आतंकवादी वारदात के शिकार हुए ।दरअसल ओसामा के बारे में लिखना लगभग नामुमकिन था क्योंकि जब से आतंकीगतिविधियों में भाग लेना शुरू कर किया तो उसने खुद को जन-गतिविधियों सेदूर कर लिया । जब 1980 में सोवियत सेना ने अफगानिस्तान पर हमला किया तोओसामा और उसके रहनुमा अब्दुल्ला आजम ने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप सेमुजाहिदीनों की मदद शुरू कर दी । उस वक्त तक ओसामा आतंकी संगठनों कोसिर्फ आर्थिक मदद कर रहा था । इस तरह की कई कहानियां जो ओसामा से जुड़ीहैं वो लगभग ज्ञात हैं लेकिन इस जीवनी में उसके बेटे ओमर और उसकी पहलीपत्नी नजवा ने कई राज खोले हैं । मसलन ओसामा के बारे में यह धारणा है किवो इंजीनियर था लेकिन उसकी पत्नी नजवा ने ये खुलासा किया है कि ओसामा नेकभी भी इंजीनियरिंग की पढ़ाई नहीं की । ओसामा का पारिवारिक जीवन बेहदसंपन्न था । उसके पिता बहुत बड़े बिल्डर थे और 1966 में उन्होंने अपनापहला निजी विमान खरीदा था । ओसामा की इस जीवनी में उसके कई निजी प्रसंगोंको लेखक ने उसके बेटे और उसकी पत्नी से बातचीत और ईमेल से सवाल जबाव केआधार पर सामने लाकर कहानी की शक्ल दी है । अगर नजवा की माने तो ओसामा औरउसके बीच चौदह साल की उम्र के पहले ही प्यार हो गया था । नजवा को ओसामाकी आंखों में अपने लिए प्यार तो दिखता था लेकिन ओसामा उसको खुलकर बोलनहीं पाते थे । उसके मुताबिक ओसामा बेहद इंट्रोवर्ट था । नजवा ओसामा काचुप रहना बुरा भी लगता था। आखिरकार चौदह साल की उम्र में ओसामा ने अपनीअम्मी से अपने विवाह की इच्छा जाहिर कर दी । हलांकि नजवा की मां इस शादीके खिलाफ थी लेकिन परिवारवालों के दबाव के आगे दोनों के बीच शादी हुई ।ओसामा ने आगे चलकर तीन और शादियां की । नजवा और ओमर ने ओसामा को एकसंवेदनशील पारिवारिक इंसान से एक खूंखार आतंकवादी बनते देखा और उसे इसकिताब में बयान किया । अफगानिस्तान की तोरा-बोरा की पहाड़ी में एके 47 कीतड़तड़ाहट के बीच की जिंदगी को बेहद ही रोचक तरीके से पेश किया गया है ।ओसामा की इस जीवनी को उसकी पत्नी और बेटे से बातचीत के आधार पर एक सूत्रमें पिरोना बेहद मुश्किल काम था । जीन सासन ने काफी मशक्कत की है लेकिनकिताब के संपादन में उनसे चूक हो गई है उसमें से वेवजह के विस्तार और कुछघटनाओं के दोहराव को संपादित किया जा सकता था । शुरुआती अध्याय मेंमुस्लिम समाज में लड़कियों की स्थिति को बताने के लिए बेवजह का विस्तारदिया गया है । लगभग चार सौ पन्नों की यह किताब इस लिहाज से अहम है किइसमें ओसामा के बारे में उसके बेटे और बीबी ने विस्तार से बताया है जोलगभग प्रामाणिक माना जा सकता है ।

Tuesday, August 2, 2011

साहित्यिक “डॉन” का कारनामा

साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं को खरीदने के लिए अक्सर मैं दिल्ली के मयूर विहार इलाके में जाता हूं । जहां लोक शॉपिंग सेंटक के पास फुटपाथ पर तीन दुकानें लगती है । बिपिन के बुक स्टॉल पर मैं तकरीबन डेढ दशक से जा रहा हूं । इस बीच वहां पत्र-पत्रिकाओं की तीन दुकानें सजने लगी । जैसे ही मैं उसके पास पहुंचता हूं तो बिपन की दुनकान पर मौजूद शख्स मुझे या तो हंस या कथा देश या फिर पाखी पतड़ा देगा । जबतक मैं मयूर विहार इलाके में रहा तो उसकी दुकान पर नियमित जाता रहा । उसके बाद अब तो हफ्ते में एक बार ही जाना हो पाता है । वो भी इस वजह से कि इंदिरापुरम इलाके में कोई अच्छी दुकान नहीं हैं जहां साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध हो । यह एक बड़ी समस्या है । किस तरह से किसी खास पत्रिका या अखबार खरीदने के लिए दस बारह किलोमीटर जाना और फिर लौटना पड़ता है । खैर अगर मौका मिला तो इस विषय पर फिर कभी विस्तार से लिखूंगा । अभी तो जब मैं मयूर विहार के बुक स्टॉल पर गया तो उसने मुझे हंस शुक्रवार, समेत कई पत्र-पत्रिकाएं पकड़ा दिया । घर लौटकर जब उन पत्र-पत्रिकाओं को उलटना पलटना शुरू किया तो हंस के ताजा अंक पर छब्बीसवें वर्ष का पहला अंक देखकर चौंका । अगस्त दो हजार ग्यारह का अंक का मुखपृष्ठ गर्व से इसकी उद्घोषणा कर रहा था कि हमने अपने प्रकाशन के पच्चीस वर्ष पूरे कर लिए हैं । है भी यह गर्व की ही बात । जब हमारे देश में एक-एक करके सारी साहित्यिक पत्रिकाएं बंद हो रही थी तो उस माहौल में हंस ने अपने आपको शान से जिंदा रखा । ना केवल जिंदा रखा बल्कि हिंदी साहित्यिक पत्रिकाओं को सेठाश्रयी पत्रिकाओं की भाषा, कलेवर और तेवर तीनों से मुक्त कर एक नया रास्ता गढ़ा । नए रास्ते पर चलना हमेशा से खतरनाक माना जाता है । राजेन्द्र जी की इस बात के लिए तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने हंस के लिए ना केवल नया कास्ता तलाश किया बल्कि निर्भीक होकर, आलोचनाओं के तीर झेलते हुए उसे नए रास्ते पर ही चलाए रखा ।
हंस के छब्बीसवें वर्ष के पहले अंक को देखकर मैं थोड़ा नॉस्टेलिक भी हो गया । मुझे अपने कॉलेज के दिनों और अपने शहर जमालपुर की याद आ गई । हमाके शहर में रेलवे स्टेशन पर ए एच व्हीलर का स्टॉल ही हमारे लिए उम्मीद की एकमात्र किरण हुआ करता था । अस्सी के दशक के अंत में जमालपुर का व्हीलर स्टॉल इलाहाबाद के पांडे जी का हुआ करता था । वो साहित्यप्रेमी थे इस वजह से उनके स्टॉल पर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं मिल जाया करती थी । राजस्थान से निकलनेवाली पत्रिका मधुमती तक उनके पास पहुंचती थी, पहल, वसुधा इंद्रपर्स्थ भारती आदि-आदि तो आती ही थी । मैंने पहली बार हंस वहीं से खरीदा था । महीना और साल ठीक से याद नहीं है । लेकिन फिर तो हंस का हर अंक खरीदने लगा, पढ़ने लगा । मंडल आंदोलन के दौरान और उसके बाद राजेन्द्र यादव के स्टैंड से घनघोर असहमतियां रही लेकिन कभी हंस खरीदना बंद नहीं किया । जमालपुर में हंस की दस प्रतियां आती थी जो महीने ती सात या फिर आठ तारीख को पहुंचती थी । दिल्ली से प्रतियां वी पी पी से आया करती थी । इस पद्धति में डाकघर जाकर वहां पैसे जमा करने के बाद ही बंडल मिलता था । व्हीलर के हमारे पंडित जी के लिए हंस का बंडल भी अन्य किताबों के बंडल की तरह से होता था । जब वक्त मिलता था तो किसी को भेजकर डाकघर से बंडल मंगवा लेते थे । लेकिन होता ये था कि पटना में हंस रेल से आता था जो दो तीन दिन पहले आ जाया करता था । वहां से मित्रों का फोन आना शुरू हो जाता था कि हंस में फलां लेख या फलां कहानीकार की कहानियां देखी । जो हमारी बेचैनी बढ़ा दिया करती थी । मुझे याद है कि कई बार मैं खुद डाकघर जाकर हंस के बंडल छुड़वा कर व्हीलर के स्टॉल पर पहुंचाया करता था । बाद में हमने हमने हंस को जल्दी पाने का एक विकल्प निकाला । हमने डाकिया को पटाया और उससे अनुरोध किया कि वो अपनी साइकिल पर हंस के बंडल डाकघर से उठा लाया करे और व्हीलर के पंडित जी को सौंप दे । फायदा यह हुआ कि हंस जिस दिन हमारे शहर के डाकघर में आता उस दिन ही हमें उपलब्ध हो जाता था । लेकिन फिर भी पटना से लेट ही मिलता था । हंस को खरीदने की यह बेचैनी अबतक बरकरार है । महीने की 23-24 तारीख से ही राजेन्द्र जी के प्राण लेने लग जाता हूं कि हंस जनहित में कब जारी हो रहा है । जनहित का मतलब है कि बिक्री के लिए दिल्ली के स्टॉल्स पर कब पहुंच रहा है । कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि हंस लेने राजेन्द्र जी के दफ्तर या फिर घर तक पहुंच गया ।
हंस ने छब्बीसवें साल में कदम रखते हुए जो पहला अंक निकाला है उसमें हंस और साहित्यिक पत्रिकाओं पर अशोक वाजपेयी, रवीन्द्र कालिया, जनसत्ता के कार्यकारी संपादक ओम थानवी, पंकज बिष्ट, अखिलेश और शैलेन्द्र सागर के लेख छपे हैं । लगभग सभी लेखों का केंद्रीय भाव एक ही है । अशोक वाजपेयी ने लिखा है कि – इसे भी निसंकोच स्वीकार किया जाना चाहिए कि हिंदी में नारी विमर्श और दलित विमर्श की आज जो जगह है, लगभग केंद्रीय, उसे वह दिलाने में हंस ने बड़ी भूमिका निभाई है । ऐसा करके उसने ना सिर्फ हिंदी साहित्य में इन दोनों विमर्शों और उनसे जुड़ी और प्रेरित रचनात्मकता को स्थापित किया, पोसा और बढाया । आगे लिखते हैं- यह नोट करना सुखद है कि पच्चीस वर्षों तक चलने के बाद भी हंस एक पठनीय पत्रिका है, वह आज भी प्रासंगिक बनी हुई है । ज्ञानोदय के संपादक रवीन्द्र कालिया ने लिखा है – हंस के अवदान को नजरअंदाज किया ही नहीं जा सकता । हंस दीर्घजीवी ना होता तो आज हिंदी कहानी बुत पिछड़ चुकी होती । हिंदी कहानी को जिंदा रखने और बोल्डनेस को डिफेंड करने में राजेन्द्र जी की अपूर्व भूमिका है । .....राजेन्द्र जी ने यथास्थितिवाद पर लगातार प्रहार किए और दलित तथा नारी विमर्श को सामने लाने और निरंतर उसे गतिशीलता प्रदान करने में अपनी पूरी उर्जा लगा दी । तद्भव के संपादक अखिलेश भी यह मानते हैं कि- कह सकते हैं कि हंस ने हिंदी साहित्य का एजेंडा बदल दिया । दलित,स्त्री, पिछड़ा और अल्पसंख्यक यदि आज समाज और साहित्य के सरोकार बने हैं तो इसके पीछे हंस का भी पसीना है । तो हम यह देख रहे हैं कि हंस के बारे में हिंदी जगक की कमोबेश एक ही राय है । पिछले पच्चीस सालों में हंस ने हिंदी साहित्य को ना केवल एक नई दिशा दी बल्कि उसने दलित और स्त्री विमर्श के साथ-साथ तत्कालीन प्रासंगिक मुद्दों को उठाकर हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता का एक नया इतिहास भी लिखा और साहित्यिक पत्रकारिता के कुछ नए मानक भी स्थापित किए तरह की खुली बहस से दूसरी पत्रिका के संपादकों के हाथ पांव फूल जाते थे उसे राजेन्द्र यादव ने हंस में जोरदार तरीके से उठाया । खुद अपने संपादकीय में बिना किसी डर-भय और लाग लपेट के यादव जी ने अपनी बातें कहकर बहस में सार्थक हस्तक्षेप किया । अपने प्रकाशन के शुरुआती दिनों से ही हंस ने साहित्यिक माहौल को गर्मागर्म बनाए रखा और जो मुर्दनीछाप शास्त्रीय किस्म का माहौल था उसे सक्रिय करते हुए जुझारू तेवर भी प्रदान किए । इसके अलावा हंस ने कहानीकारों की कई पीढियां भी तैयार कर दी । हंस ने अपने प्रकाशन के शुरुआती वर्षों में ही उदय प्रकाश की तिरिछ, शिवमूर्ति की तिरिया चरित्तर, ललित कार्तिकेय का तलछट का कोरस, रमाकांत का कार्लो हब्शी का संदूक, चंद्रकिशोर जायसवाल की हंगवा घाट में पानी रे और आनंद हर्षुल की उस बूढे आदमी के कमरे में छापकर हिंदी कथा साहित्य में हलचल मचा दी थी । कालांतर में भी हंस में ही छपी उदय प्रकाश की चर्चित कहानियां – और अंत में प्रार्थना, पीली छतरी वाली लड़की, अरुण प्रकाश की जल प्रांतर, अखिलेश की चिट्ठी, स्वयं प्रकाश की अविनाश मोटू उर्फ..., सृंजय की कॉमरेड का कोट आदि कहानियों ने भी कथा साहित्य को झकझोर दिया था ।
तो हंस को पच्चीस साल पूरे करने पर बधाई और उसके संपादक की जिजिविषा और उनकी दृढ इच्छा शक्ति को सलाम । ईश्वर से प्रार्थना इस बात की कि राजेन्द्र यादव जी को लंबी उम्र मिले और हंस निर्बाध गति से निकलता रहे ।