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Wednesday, July 30, 2014

रेप का सामाजिक ताना-बाना

हाल ही में दो ऐसी खबरें सामने आईं जो कि किसी भी सभ्य समाज के मुंह पर तमाचे की तरह है । पहली खबर थी बेंगलोर के एक स्कूल में छह साल की मासूम के साथ स्कूल परिसर में वहीं के दो कर्मचारियों ने बलात्कार किया । दूसरी खबर रेप की वारदात की कोशिश और कत्ल की है । ये वारदात लखनऊ के पास मोहनलालगंज हुई जहां दो बच्चों की मां की साथ रेप की कोशिश और नाकाम रहने पर बहशियाना तरीके से पीट पीट कर हत्या करने के बाद एक स्कूल के पास बगैर कपड़ों के फेंक दिया गया । एक शख्स ने इस महिला के साथ दरिंदगी की सारी हदें पार कर दी । पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से जो सच सामने आया वो दिल दहलानेवाला है । आरोपी ने महिला के गुप्तांग समेत पूरे शरीर पर गहरे जख्म किए। पुलिस के मुताबिक जिस अस्पताल में महिला काम करती थी उसके पास की इमारत के गार्ड ने इस वारदात का अंजाम दिया । इन दोनों खबरों का सरोकार देश के हर सूबे से है। हर घर से है । हर माता पिता से है । बेंगलोर में छह साल की मासूम बच्ची के साथ स्कूल में बलात्कार की खबर के सामने आने के बाद वहां के अभिभावकों में यह चिंता बढ़ गई है कि पता नहीं स्कूल के वो कर्मचारी कब से और कितनी बच्चियों का यौन शोषण या फिर छेड़छाड़ कर रहे थे । क्या कुछ अन्य अभिभावकों को अपनी बच्चियों के साथ छेड़छाड़ की नापाक हरकतों की जानकारी थी और वो बदनामी के डर से मामले को छोटा मानकर भुला चुके थे । स्कूलों में बच्चों के साथ यौन शोषण के मामलों में बहुधा यह देखने में आता है कि जब माता पिता स्कूल में शिकायत लेकर जाते भी हैं तो स्कूल प्रशासन जांच की बात कहकर मामले को दबा देता है । परोक्ष रूप से अभिभावकों को भी स्कूल का नाम खराब होने की दुहाई या धमकी देकर मुंह बंद रखने की हिदायत दी जाती है । बच्चों के खिलाफ यौन शोषण को रोकने के लिए लागू हुए प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड अगेंस्ट सेक्सुअल ओफेंस एक्ट (पॉक्सो ) में आरोपियों को बचाने वालों या केस को दबाने की कोशिश करने या फिर केस बिगाड़नेवालों के लिए महज छह महीने की सजा का प्रावधान है लेकिन स्कूल या संस्थान के खिलाफ किसी कार्रवाई का प्रावधान नहीं है । इस वजह से स्कूल प्रशासन ज्यादातर ऐसे मामलों को आपसी समझौतों से दबा देने में ही बेखौफ होकर जुटा रहता है । समान्यतया अभिभावक भी बच्चों को स्कूल में आगे दिक्कत ना हो, यह सोचकर हालात से समझौता कर लेते हैं । इसी समझौते से अपराधियों को ताकत मिलती है । उसे लगता है कि स्कूल परिसर में अपराध करने से प्रशासन उसको दबाने में जुट जाएगा । लिहाजा वो इस तरह के अपराध के लिए स्कूल के कोने अंतरे को ही चुनता है । बैंगलोर के स्कूल में हुई इस वारदात में इस बात की भी पड़ताल होनी होनी चाहिए । क्या वहां बच्चियों के यौन शोषण या छेड़छाड़ की कोई शिकायत पहले आई थी और स्कूल प्रशासन ने कार्रवाई नहीं की थी । अगर ऐसी बात सामने आती है तो स्कूल के कर्ताधर्ताओं के खिलाफ भी पॉक्सो की धाराओं में मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए । इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि आरोपी ने स्कूल में बच्ची के साथ रेप किया तो स्कूल प्रशासन को इस बात की भनक लगी थी या नहीं और उसकी क्या भूमिका थी ।
स्कूलों में बच्चों के यौन शोषण की वारदात को अंजाम देनेवाले अपराधी दरअसल सेक्स कुंठा के शिकार होते हैं और मनानसिक रूप से विकृत भी । मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक ऐसे अपराधी सेक्सुअल प्लेजर के लिए बच्चों को अपना शिकार बनाता है । यह एक ऐसी मानसिकता जो अपराधी को वारदात अंजाम देने के बाद एक खास किस्म का रोमांच देता है । इस तरह के अपराधी ,आम अपराधियों से ज्यादा शातिर होते हैं । उन्हें इस बात का अंदाज होता है कि स्कूल उसके अपराध को तूल नहीं देगा । लिहाजा वो अपराध को स्कूल परिसर में अंजाम देने से नहीं हिचकता है । चंद महीने पहले दक्षिण दिल्ली के एक स्कूल के स्टाफरूम में कई बच्चियों के यौन शोषण की खबर आई थी। दिल्ली में ही एक कैब ड्राइवर महीनों तक एक बच्ची का यौन शोषण करता रहा था । सवाल यह है कि स्कूल की क्या जिम्मेदारी है । क्या कोई भी स्कूल यह कहकर पल्ला झाड़ सकता है कि अमुक शख्स ने वारदात को अंजाम दिया और कानून के हिसाब से उसको सजा मिलेगी । स्कूल की यह जिम्मेदारी भी है कि उसके परिसर में या फिर स्कूल आने और जाने के वक्त बस में बच्चे सुरक्षित रहें । बच्चों की समय समय पर काउंसलिंग भी होनी चाहिए ताकि उनके खिलाफ हो रहे इस तरह के अपराध उजागर हो सकें । बच्चों को इस तरह के अपराध के बारे में जागरूक करने के लिए स्कूल के साथ साथ अभिभावकों की भी जिम्मेदारी लेनी होगी । अभिभावकों को तो अपराध के बाद साहस के साथ सामने आना होगा । इस तरह के अपराध को रोकने के लिए कानून से ज्यादा जरूरी है जागरूकता । स्कूलों में एक नियमित अंतराल पर शिक्षकों के लिए भी काउंसलिंग की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि वो भी जागरूक हो सकें । कानून का भय और समाज में जागरूकता को बढ़ाकर ही हम बच्चों के खिलाफ इस तरह के घिनौने कृत्यों को रोक सकते हैं । इस काम में देश के हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि वो अपनी भूमिका निभाए । अगर हम ऐसा कर पाएं तो देश के भविष्य के बेहतर बना सकते हैं । बच्चों को देश में सुरक्षित माहौल देना हमारा दायित्व ही नहीं कर्तव्य भी है । 
मलेशियाई विमान हादसे में करीब तीन सौ लोगों के मारे जाने की खबर और अंतराष्ट्रीय स्तर पर मचे कोलाहल और शोरगुल के बीच दो दिनों तक राष्ट्रीय मीडिया इन दो खबरों को उस आवेग से नहीं उठा पाया जिसकी ये हकदार हैं । देर से ही सही मीडिया ने इस ओर ध्यान दिया। लखनऊ का हत्याकांड दिल्ली के निर्भया कांड जैसा ही जघन्य है । दिल्ली में निर्भया बलात्कार के वक्त इस घिनौनी वारदात के खिलाफ माहौल बनाने में मीडिया ने अहम भूमिका निभाई थी और लगातार कवरेज की वजह से सरकार बलात्कार के खिलाफ कडे कानून बनाने को मजबूर हुई थी । सोनिया गांधी से लेकर उस वक्त के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक को सामने आकर बयान देना पड़ा था । बलात्कारियों को सख्त से सख्त सजा के लिए जस्टिस जे एस वर्मा के सुझावों पर कानून में बदलाव किए गए थे पर चिंता का सबब तो कड़े बलात्कार के कानून के बावजूद ऐसे अपराधों पर अंकुश नहीं लग पाना भी है। दरअसल अगर हम गहराई में विचार करें तो बलात्कार हमारे समाज का एक ऐसा नासूर है जिसका इलाज कड़े कानून के अलावा हमारे रहनुमाओं की इससे निबटने की प्रबल इच्छा शक्ति का होना भी है।
बलात्कार से निबटने के लिए समाज के रहनुमाओं की इच्छा शक्ति तो दूर की बात है जरा महिलाओं को लेकर उनके विचार देखिए । शिया धर्म गुरु कल्बे जव्वाद कहते हैं – लीडर बनना औरतों का काम नहीं है, उनका काम लीडर पैदा करना है । कुदरत ने अल्लाह ने उन्हें इसलिए बनाया है कि वो घर संभाले और अच्छी नस्ल के बच्चे पैदा करें । रामजन्मभूमि न्यास के महंथ नृत्यगोपाल दास की बात सुनिए- महिलाओं को अकेले मठ, मंदिर और देवालय में नहीं जाना चाहिए । अगर वो मंदिर, मठ या देवालय जाती हैं तो उन्हें पति, पुत्र या भाई के साथ ही जाना चाहिए नहीं तो उनकी सुरक्षा को खतरा है । ये तो थी धर्म गुरुओं की बात । जरा महिलाओं को लेकर राजनेताओं के विचार जान लेते हैं- लंबे समय तक गोवा के मुख्यमंत्री रह चुके कांग्रेस नेता दिगंबर कामत ने कहा था- महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए क्योंकि इससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । राजनीति महिलाओं को क्रेजी बना देती है । समाज के बदलाव में महिलाओं की महती भूमिका है और उन्हें आनेवाली पीढ़ी का ध्यान रखना चाहिए । समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव का बयान- अगर संसद में महिलाओं को आरक्षण मिला और वो संसद में आईं तो वहां सीटियां बजेंगी । पूर्व कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने तो सारी हदें तोड़ते हुए कहा था कि – बीबी जब पुरानी हो जाती है तो मजा नहीं देती है । इन बयानों को देखकर ऐसा लगता है कि महिलाओं के प्रति हमारे समाज की जो सोच है वो धर्म, जाति, संप्रदाय से उपर उठकर तकरीबन एक है और ही सोच महिलाओं के प्रति होनेवाले अपराध की जड़ में है । धर्मगुरुओं और नेताओं के इस तरह के बयान से समाज के कम जागरूक लोगों में यह बात घर कर जाती है कि महिलाएं तो मजा देने के लिए हैं या मजा की वस्तु हैं । इस तरह के कुत्सित विचार जब मन में बढ़ते हैं तो वो महिलाओं के प्रति अपराध की ओर प्रवृत्त करते हैं । उन्हें इस बात से बल मिलता है कि उनके नेता या गुरु तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा देते ही नहीं हैं । 
सुप्रीम कोर्ट भी समय समय पर बलात्कार के खिलाफ अपनी चिंता जता चुका है । कुछ वक्त पहले ही सर्वोच्च अदालत ने ये जानना चाहा था कि क्या समाज और सिस्टम में कोई खामी आ गई है या सामाजिक मूल्यों में गिरावट आती जा रही है या पर्याप्त कानून नहीं होने की वजह से ऐसा हो रहा है या फिर कानून को लागू करनेवाले इसे ठीक से लागू नहीं कर पा रहे हैं । कानून लागू करनेवालों की बलात्कार को लेकर क्या राय है वो मुलायम सिंह यादव बता चुके हैं । मुलायम सिंह यादव बलात्कार के बारे में बहुत ही कैजुअल तरीके से कहते हैं कि लड़कों से गलतियां हो जाती हैं । उत्तर प्रदेश में जिस पार्टी की सरकार हो और उसके मुखिया कहें कि लड़कों से गलतियां हो जाती हैं तो फिर तो इस तरह की ‘गलतियों’ को पुलिस भी उसी आलोक में देखेगी और तफ्तीश करेगी । बलात्कार के खिलाफ कानून लागू करनेवालों के बारे में सुप्रीम कोर्ट का सवाल उचित है । इसके बारे में पूरे समाज को गंभीरता से विचार करना होगा । समाज के हर तबके के लोगों को बलात्कार के इस नासूर के खिलाफ एक जंग छेड़नी होगी ताकि हमारी बेटियां और बहनें महफूज रह सकें । राजनीतिक बिरादरी को संवेदनशीलता दिखाते हुए इस बारे में आगे आकर लीड लेनी होगी ।

Monday, July 28, 2014

सूत्र एक, आख्यान तीन

अपने उपन्यास कठगुलाब पर लिखते हुए मृदुला गर्ग ने कठगुलाब कैसे उगा शीर्षक से एक लेख लिखा था । उस लेख में मृदुला गर्ग ने माना था कि अपने परिवेश से सरोकार रखे बगैर कोई साहित्य नहीं रचा जा सकता। हां, यह परिवेश तात्कालिक समय और समस्या के दायरे में कैद नहीं होता । सब तरफ से कटा हुआ आदमी संन्यासी होता है और उसके मन में कोई द्वन्द्व नहीं होता । द्वन्द्व के बिना साहित्य का जन्म संभव नहीं है । उपन्यास में रचनाकार के द्वन्द्व को, उसके पात्र इस तरह से जज्ब कर लेते हैं कि वह, उससे ज्यादा, उसका द्वन्द्व बन जाता है । इसी तरह से मृदुला गर्ग की बहन और हिंदी साहित्य को अपने लेखन से झकझोर देनेवाली मंजुल भगत ने भी लिखा है कल्पना कितनी भी मर्मज्ञ क्यों न हो और कलम कितनी भी शक्तिशाली , लेखक को जीवन में भागीदार होना ही पड़ेगा । सच्चा लेखन, जीवन से जुड़कर, जीकर ही, संभव है । लेखक हर पल लेखक नहीं है । वह एक संवेदनशील व्यक्ति है, जिसके लिए जीना और लिखना, दोनों महत्वपूर्ण हैं, तभी तो जाने कब का जिया हुआ आज लिखा जाता है । बिसात- तीन बहनें, तीन आख्यान पढ़ते हुए मंजुल भगत और मृदुला गर्ग का लिखा उपरोक्त अंश अनायास ही जहन में कौध गया । हिंदी साहित्य में यह संयोग दुर्लभ है कि एक ही जिल्द में तीन कथाकार बहनों की एक ही थीम या चरित्र के इर्दगिर्द लिखी रचना उपलब्ध हो । बिसात: तीन बहनें तीन आख्यान में यह दुर्लभ संयोग घटित हुआ है । इस किताब में मंजुल भगत की रचना बेगाने घर में , मृदुला गर्ग का उपन्यास वंशज और अचला बंसल की कहानी कैरम की गोटियां प्रकाशित हैं । तीनों ही रचनाओं में परिवार है, घर है, घर का तनाव है, पिता है, पुत्र है, मां है, बहू है ,बच्चे हैं। मंजुल और मृदुला के उपन्यासों का तो परिवेश भी एक है । कोठी है, नौकर चाकर हैं, बाग बगीचे हैं, आदि आदि । वहीं अचला बंसल की कहानी में परिवेश अवश्य बदला हुआ है । वहां कोठी की जगह फ्लैट ने ले ली है । हवेली की लॉन की जगह पिता और बच्चों का कमरा है । लेकिन इन तीन रचनाओं में जो एक कॉमन थ्रेड है वह है पिता और पुत्र संबंध और उसके बीच का तनाव । जिंदगी की बिसात पर पिता और पुत्र के संबंध की कई गोटियां इधर से उधर होती रहती हैं कभी पात्रों के रूप में तो कभी स्थितियों के रूप में तो कभी घटनाओं के रूप में लेकिन यह सबंध और उसके बीच का द्वन्द्व स्थायी तौर पर हर जगह मौजूद रहता है ।
अगर हम इस द्वन्द्व के बारे में विचार करें तो मंजुल के उपन्यास बेगाने घर में पिता के मन में पुत्र के जिंदा नहीं होने की पीड़ा है । उपन्यास का केंद्रीय पात्र किशोरचन्द्र हवेली में अपने तमाम कारकुनों के साथ रहते हुए भी निजता के एकांत क्षणों में अपने दर्द को महसूसते रहते हैं । पत्नी की याद को संजोकर संदूक में रखते हैं । एक प्रसंग में उनका नौकर कहता है एक सन्दूक में मालकिन की तस्वीरें थीं, जो मालिक ने दीवारों पर से उतरवा दी थी,उन्हें सहन नहीं होती थी । एक में बड़े पलंग का बिस्तर, चादरें, मेजपोश बगैरह थे ।कितनों पर तो मालकिन के हाथ के बेल बूटे कढ़े थे । मालिक ने उन्हें अपने लिए कभी बिछाने न दिया । बेगाने घर में मंजुल भगत ने अपने समय के परिवेश के बहाने से समाज पर भी तल्ख टिप्पणी की है । जीते जी याद नहीं करनेवाले रिश्तेदार मरने के बाद गिद्धों कि तरह मंडराने लगते हैं क्योंकि उन्हें संपत्ति की गंध आकर्षित करती है । इस तरह का माहौल तब भी था अब भी है । हमारा समाज लाख दावा करे कि वो इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर गया है और आधुनिक होने कि होड़ में शामिल है, लेकिन संपत्ति की लालच उन्हें तमाम आधुनिकताओं से पीछे खींच लाती है । मंजुल भगत के इस उपन्यास की एक और खास बात है कि इसमें हवेली के नौकरों के बीच के संवाद बेहद दिलचस्प हैं । भाषा पर मंजुल का अद्भुत अधिकार है और जिस कथा को आगे बढ़ाने में संवाद का सार्थक उपयोग मंजुल ने अपने इस उपन्यास में किया है उससे पढ़ते समय संवाद की जेहन में सिर्फ छवि नहीं बनती बल्कि वो सुनाई भी देते हैं और आपको उस परिवेश में खींचकर ले जाते हैं । । इसे पढ़ते हुए गांव की पुरानी हवेलियां जेहन में उपस्थित हो जाती हैं । गनपत और रतनी के बीच के मूक प्रेम को भी मंजुल ने बेहद खूबसूरती के साथ दबा ही रहने दिया है लेकिन संकेत पर्याप्त दिए हैं । साहित्य में जीवन की सिर्फ बात ही नहीं करती थी मंजुल बल्कि उन्होंने अपने इस उपन्यास में ग्राम जीवन को उतार कर रख दिया है ।
इसीतरह से जब मृदुला गर्ग जिस द्वन्द्व की बात करती हैं वह उनके उपन्यास वंशज में काफी खुलकर सामने आता है । जज शुक्ला और उनके बेटे सुधीर के बीच जटिल संबंध है । इस संबंध की बुनियाद बचपन में ही पड़ गई थी । सुधीर की मां की अकाल मृत्यु और शुक्ला जी का बेटी रेवा पर अगाध स्नेह का असर सुधीर के बाल-मन पर पड़ता है और वो बचपन से ही विद्रोही हो जाता है । पिता अपने पुत्र को दिल की गहराइयों से चाहते हैं लेकिन जिस दौर की यह कहानी है उस दौर के सारे पिता आमतौर पर कड़कमिजाज होते थे । परवरिश और पिता के रहन सहन और मन मिजाज ने भी सुधीर को विद्रोही बनाने में मदद की । आजादी की लड़ाई के दौर में सुधीर का झुकाव संघ की ओर होता है और वो संघ की विचारधारा के प्रभाव में आकर अपने पिता को अंग्रेजों का पिट्ठू तक समझने लगता है । सुधीर का जो चरित्र मृदुला गर्ग ने उकेरा है वह बेहद जटिल और उलझा हुआ है । सुधीर के मनोविज्ञान का विश्लेषण करना आसान नहीं है । संघ की ओर झुकी आत्मा के आधार पर सुधीर अपने पिता से नफरत करता है लेकिन जब महात्मा गांधी की हत्या के बाद उसके कुछ दोस्त मिठाई बांटने के लिए उससे चलने का आग्रह करते हैं तो वह आक्रामक हो जाता है । पर सुधीर यहीं रुकता है । कालांतर में जब वो धनबाद में नौकरी करने जाता है या फिर अरनी फैक्ट्री लगाता है तो मजदूरों के हितों की वकालत करते हुए कॉमरेड नजर आता है । इतने जटिल चरित्र की रचना करते हुए भी मृदुला गर्ग उसको अंत तक संभालने में कामयाब रहती हैं । इस तरह से हम कह सकते हैं कि उपर से दिखने में यह उपन्यास भले ही पारिवारिक, पिता-पुत्र के संबंधों और द्वन्द्वों पर लिखा गया लगे लेकिन अगर गहनता और सूक्षम्ता से पड़ताल करें तो आजादी के पहले और उसके बाद के दौर की राजनीति और नौकरशाही पर भी यह टिप्पणी करता चलता है ।

अंत में अचला बंसल की एक अपेक्षाकृत छोटी कहानी कैरम की गोटियां हैं । इस कहानी का आकार भले ही छोटा है लेकिन कैनवस बड़ा है । जिस तरह से मंजुल और मृदुला ने अपने उपन्यासों में ग्रामीण परिवेश को कथा का आदार बनाया है, वहीं अचला ने शहरी परिवेश के आधार पर कहानी बुनी है  यहां पीढ़ियों के बदलाव का मनोविज्ञान है । कैरम की गोटियां दरअसल जिंदगी की काली सफेद गोटियां हैं जो पात्रों को चुनौती देती हैं । इन तीनों रचनाओं को पढ़ने के बाद सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि इन रचनाओं के लेखकों ने अपने समय का इतिहास नहीं लिखा है बल्कि अपने समय के इतिहास का इस्तेमाल किया है । नतीजा यह कि बदले हुए वक्त में भी येरचनाएं वर्तमान से कदमताल कर सकती हैं । 

Sunday, July 27, 2014

प्रेम के सन्नाटे को तोड़ती कहानियां

पिछले साल मई में आकांक्षा पारे काशिव ने अपना कहानी संग्रह तीन सहेलियां तीन प्रेमी दिया था । पढ तो उसी वक्त लिया था, लिखने का मन भी बनाया था, परंतु आलस्य की वजह से लिखना संभव नहीं हो पाया । आकांक्षा पारे की कहानियां पहले भी पत्र पत्रिाओं में छपकर खासी चर्चा बटोर चुकी है। अभी हाल ही में उनको जब हंसाक्षर ट्रस्ट का कहानी पुरस्कार देने का एलान हुआ तो बरबस आकांक्षा की कहानियों की ओर ध्यान चला गया । आज अगर हम हिंदी के परिदृश्य पर नजर डालें तो एक साथ कई पीढ़ियां कहानी लिख रही हैं, थोक के भाव लिख रही हैं । सारे कहानीकार के अपने अपने राम हैं जो उनका राज्याभिषेक करते चलते हैं । कहानी के बारे में मेरा मानना है कि अच्छी कहानी की पहली शर्त उसकी पठनीयता है । कोई भी कहानी तभी अच्छी हो सकती है जब वो पाठकों से खुद को पढ़वा ले जाए । अब भी हिंदी में कई कहानीकार यथार्थ के नाम पर नारेबाजी कर रहे हैं, विचारधारा का पोषण कर रहे हैं । आज कहानियों से प्रेम लगभग गायब है । चंद कहानीकार अपनी कहानियों में प्रेम को लेकर आते भी हैं तो वो उत्तर आधुनिक प्रेम में बदल जाता है । इस उत्तर आधुनिक प्रेम को ज्यादा व्याख्यायित करने की आवश्यकता नहीं है । तो कहा जा सकता है कि इस वक्त कहानी प्रेम के संकट से जूझ रही है । प्रेम का जो आवेग कहानी पढ़कर महसूस किया जाना चाहिए वह लगभग अनुपस्थित है । कई कहानीकार तो ऐसे हैं जो साहित्य की राजनीति के कोलाहल से दूर गंभीरता से रचनाकर्म में जुड़े हैं । इसी तरह की कथाकार हैं आकांक्षा पारे काशिव । आकांक्षा पारे काशिव की कहानी तीन सहेलियां, तीन प्रेमी के बारे में मन्नू भंडारी ने लिखा है यह कहानी दिलचस्प संवादों में चली है । उबाऊ वर्णन कहीं है ही नहीं । संप्रेषणीयता कहानी के लिए जरूरी दूसरी शर्त है । लेखक जो कहना चाह रहा है. वह पाठक तक पहुंच रहा है इस कहानी को पाठक को बात समझाने के लिए जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती । कहानियों को पढ़ने के बाद मन्नू भंडारी से असहमत होने की कोई वजह नजर नहीं आई । मैं इसमें सिर्फ ये जोड़ना चाहूंगा कि आकांक्षा की भाषा भी गजब की है । तीन अविवाहित सहेलियों के बीच का नैचुरल संवाद इस कहानी को एक अलग ही पायदान पर खड़ा कर देता है ।

आकांक्षा की एक और कहानी है पलाश के फूल । अद्भभुत प्रेम कहानी । इस कहानी में प्रेम का वही आवेग है जिसकी कमी समकालीन हिंदी कहानी में शिद्दत के साथ महसूस की जा रही है । प्रेम तो आकांक्षा की अन्य कहानियों में भी मौजूद है, लेकिन पलाश के फूल में संवेदना और कल्पनाशीलता के उत्स का जो मिश्रण है वह अन्यत्र कम देखने को मिलता है । इसमें शरारा की शोखी भी है और मौन का संगीत भी है, प्रेम का निराकार क्षितिज भी है । आकंक्षा की कहानियों में पौराणिक और मिथकीय संदर्भों का इस्तेामल उसको भीड़ से अलग करती है । पांचवीं पांडव में एक जगह संवाद के क्रम में आता है एक और उपेक्षित कौंतेय को दुर्योधन की तरह सच्चा साथी मिल गया । इस तरह के कई उदाहरण उसकी कहानियों में आते हैं । देर सबेर हिंदी साहित्य का ध्यान आकांक्षा पारे काशिव की कहानियों की तरफ जाएगा तो उसपर व्यपक चर्चा होगी और कहानी में प्रेम का सूना कोना फिर से गुलजार हो सकेगा ।

Thursday, July 24, 2014

कथा शिल्पी को सलाम

सितंबर दो हजार बारह में जब मैं विश्व हिंदी सम्मेलन में शामिल होने जोहिनसबर्ग गया था तो वहां कई किताबों की दुकान पर जाने का मौका मिला था। जोहानिसबर्ग, सनसिटी, केपटाउन, क्रूगर नेशनल पार्क की किताब की चार दुकानों का मेरा अनुभव बताता है कि वहां जानेवाले विदेशी सैलानी नेल्सन मंडेला की आत्मकथा के अलावा नोबेल पुरस्कार से सम्मानित उपन्यासकार नादिन गार्डिमर की कृतियों के बारे में पूछताछ कर रहे थे । स्थनीय पाठकों के बीच भी नादिन गार्डिमर की लोकप्रियता काफी थी । सनसिटी में किताब की ऐसी ही एक दुकान पर मैंने किताबें खरीद रहे जेम्स नाम के एक शख्स से बातचीत शुरू की तो पता चला कि वो जोहानिसबर्ग के किसी कॉलेज में शिक्षक हैं । उनसे बातचीत में पता चला कि दक्षिण अफ्रीका के बौद्धिक जगत के साथ साथ वहां की आम जनता भी अपनी प्रिय लेखिका नादिन गार्डिमर को बेहद प्यार करती है । जेम्स से काफी देर तक नादिन गार्डिमर के बारे में बात होती रही । उन्होंने ही बताया था कि वो जोहानिसबर्ग के एक उपनगर में रहती हैं । जेम्स ने किसी से फोन लगाकर बात की तो पता चला कि नादिन गार्डिमर उस दौरान कहीं बाहर गई हुई थी, लिहाजा हमारा उनसे मिलना नहीं हो सका । जेम्स से लगभग आधे घंटे तक नादिन के बारे में बात होती रही । जेम्स से बातचीत में जो सेंस मुझे मिला वो ये कि नादिन गार्डिमर पर दक्षिण अफ्रीका की जनता इस वजह से जान झिड़कती है कि वो श्वेत होने के बावजूद अफ्रीका के स्थानीय अश्वेत नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए संघर्ष का हिस्सा रही है । औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ संघर्ष में एक ओर वो अपने लेखन से रंगभेद पर जमकर हमले कर रही थी तो दूसरी ओर नेल्सन मंडेला के कंधे से कंधा मिलाकर अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की गतिविधियों में हिस्सा ले रही थी । उनके पहले उपन्यास द कंजरवेसनिस्ट में रंगभेद का बड़ा ही विद्रूप चेहरा सामने आया था । इसके बाद के उपन्यासों में भी नादिन गार्डिमर ने अफ्रीकी जनता की गुलामी और बेबसी को अपने लेखन के केंद्र में रखा था । रंगभेद के खिलाफ आंदोलन के दौरान नादिन गार्डिमर के उपन्यासों की लोकप्रियता से घबराकर ब्रिटिश शासकों ने उनके तीन उपन्यासों पर प्रतिबंध लगा दिया था । लेकिन इससे ना तो उनका लेखन बाधित हुआ और ना ही उनके संघर्ष में कमजोरी आई । दक्षिण अफ्रीका की आजादी के तीन साल पहले नादिन गार्डिमर को साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

नादिन गार्डिमर का जन्म इस्ट रैंड में उन्नीस सौ तेइस को हुआ था और पंद्रह साल की उम्र में उनकी पहली कहानी- द सीन फॉर क्वेस्ट गोल्ड प्रकाशित हुई थी । उसके बाद से वो लगातार लिखती रही और उनके खाते में सौ से ज्यादा कहानियां और तेरह चौदह उपन्यास हैं । कहानियों और उपन्यासों के अलावा नादिन गार्डिमर लगातार समसामयिक विषयों पर लेख भी लिखती रही थी । अफ्रीका की आजादी के बाद भी उनकी सक्रियता खत्म नहीं हुई थी और इन दिनों वो एड्स के खिलाफ मुहिम का हिस्सा थी । पिछले रविवार को जोहानिसबर्ग में ही नब्बे साल की उम्र में उनका निधन हो गया । एक साहित्यकार की समाज में क्या भूमिका हो सकती है , किस तरह से वो अपने लेखन के अलावा भी समाज को दिशा दिखाने में सक्रिय हो सकता है, नादिम गार्डिमर उसका बेहतरीन उदाहरण है । समाज के दबे कुचले लोगों के लिए संघर्षरत इस कथा शिल्पी को सलाम । 

Tuesday, July 22, 2014

इतिहास बोध की अज्ञानता

वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार वेद प्रताप वैदिक की मुंबई हमले के मास्टरमाइंड आतंकवादी हाफिज सईद से मुलाकात पर दो दिनों तक संसद से लेकर सड़क तक हंगामा मचा रहा । खबरिया चैनलों के स्टूडियो में भी गर्मागर्म बहसें हुई । वेदप्रताप वैदिक पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाने से लेकर उनकी गिरफ्तारी की मांग हुई । वेदप्रताप वैदिक लगातार कहते रहे कि उन्होंने आतंकवादी हाफिज सईद से एक पत्रकार के तौर पर मुलाकात की लेकिन खोजी पत्रकारों की टोली इस मुलाकात के पीछे सरकार से लेकर ट्रैक टू डिप्लोमेसी सूंघने को बेचैन रही । हद तो तब हो गई जब संसद में कांग्रेस के नेताओं ने सरकार से इस व्यक्तिगत मुलाकात पर सफाई पेश करने को कहा । विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से लेकर वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस मसले पर सफाई दी कि सरकार का वैदिक-हाफिज मुलाकात से कोई लेना देना नहीं है । सरकार की संसद में सफाई के बावजूद कांग्रेस के नेताओं को इसमें कोई गेम नजर आ रहा था । कांग्रेस के युवराज ने तो वैदिक को राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़ा बताकर संघ को भी सवालों के कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की । दरअसल वैदिक की मुलाकात पर हंगामा मचाकर देश की राजनीतिक जमात ने अपने दिवालियापन का सबूत दे दिया । वैदिक पर सवाल उठानेवाले कांग्रेस के नेता यह भूल गए कि हमारे देश के कई नामचीन पत्रकार समय समय पर आतंकवादियों से लेकर नक्सलियों तक से मुलाकात करते रहे हैं । कई पत्रकारों ने तो अपनी जान को खतरे में डालकर नगा विद्रोहियों से बात की थी । यब परंपरा सिर्फ भारकत में ही नहीं है विश्व के कई देशों में पत्रकार वहां के अपराधियों और वांटेड शख्सियतों से मुलाकात के लिए महीनों तक श्रम करते रहते हैं । कइयों को सफलता मिलती है तो कइयों को सालों तक सफलता नहीं मिलती है । क्या हमारे देश के पत्रकारों ने दाऊद इब्राहिम से लेकर अन्य अंडरवर्लेड सरगनाओं से बात नहीं की है । क्या देश के पत्रकारों ने उन नक्सली नेताओं से बात नहीं की जो सपरक्षा बलों के जवानों से लेकर आम जनता की मौत के जिम्मेदार रहे हैं । क्या पंजाब और कश्मीर के अलगाववादियों से बातचीत को इस देश ने नहीं देखा, पढ़ा है । तो वैदिक की हाफिज सईद से मुलाकात पर इतना हंगामा करने और उस मुलाकात को अलग सियासी रंग देने के पीछे की मंशा क्या है । दरअसल लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस से रणनीतिक तौर पर लगातार गलतियां हो रही हैं । वो हर छोटे बड़े मुद्दे पर सराकार को घेरने की कोशिश करने में लगे हैं । कांग्रेस के अलग अलग नेता एक ही मुद्दे पर अलग अलग राय रखते और प्रकट करते हैं । हमें तो चंद उन पत्रकारो की सोच पर भी क्षोभ होता है जो इस मुलाकात को राष्ट्रद्रोह की तरह देखते हैं । क्या हम पत्रकारों की जमात का इतिहासबोध एकदम से खत्म हो गया है । क्या अब वो ये चाहते हैं कि कोई भी पत्रकार किसी आतंकवादी, नक्सली, चरमपंथी , अलगाववादी या फिर अपराधियों से मिलने के पहले सरकार से इजाजत ले या सरकार को बताकर इंटरव्यू करे । वैदिक से यह सवाल अवश्य पूछा जाना चाहिए कि उनके मुलाकात के दौरान बातचीत को वो सार्वजनिक करें । अगर वैदिक की आतंकवादी हाफिज सईद से मुलाकात के बाद इस तरह का कोई संकेत भी जाता है तो वह पत्रकारिता के लिए काला दिन होगा ।

रही बात कांग्रेस की तो इस पार्टी के नेता यह भूल गए कि कांग्रेस के शासन के दौरान देश ने श्रीलंका के चरमपंथी संगठन लिबरेशन टाइगर ऑफ तमिल ईलम के सुप्रीमो प्रभाकरण की खातिरदारी भी देखी है । उस दौर में दिल्ली में पत्रकारिता करनेवालों को पता है कि किस तरह से प्रभाकरण को दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में रखा जाता था, उनकी खातिरदारी की जाती थी । प्रभाकरण से दोस्ती और उस खातिरदारी का हश्र देश को भगुतना पड़ा जब राजीव गांधी की हत्या कर दी गई । कांग्रेस पार्टी इस वक्त एक ऐसे दौर से गुजर रही हैं जहां उनके नेताओं को गहरे आत्ममंथन की आवश्यकता है । आरोप प्रत्यारोप की राजनीति से उपर उठकर कांग्रेस को जनता से जुड़े ठोस मुद्दे उठाने होंगे और एक रचनात्मक विपक्ष के तौर पर अपनी भूमिका को साबित करना होगा । पहले नेता विपक्ष के पद को लेकर फिर प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव की नियुक्ति का मुद्दा उठाकर कांग्रेस अपनी भद पिटवा चुकी है । वैदिक हाफिज की मुलाकात पर हंगामा खड़ा कर कांग्रेस ने बढ़ती महंगाई पर सरकार को घेरने का मौका गंवा दिया । संसद में बजाए इस मुद्दे पर हंगामा करने के कांग्रेस ने बेवजह वैदिक को लेकर हंगामा किया । आश्चर्य तो इस बात पर हुआ जब आमतौर पर मीडिया से बात करने में कतराने वाले कांग्रेस उपाध्यक्ष ने संसद भवन परिसर में इस मसले पर पत्रकारों के सवालों के जवाब दिए और वैदिक को संघ से जुड़ा बता दिया । राहुल गांधी के इस बयान के बाद तो कांग्रेस के अन्य नेताओं की कल्पना को पंख लग गए और वो निहायत ही उलजलूल आरोप हवा में उछालने लगे । दरअसल कांग्रेस संघ फोबिया से ग्रस्त है और हर घटना का जिम्मेदार संघ को ठहराने की जुगत में रहती है , ठीक उसी तरह जिस तरह से अस्सी के दशक में हर घचना के पीछे विदेशी हाथ होने की बात की जाती थी । कांग्रेस नेताओं को समझना चाहिए कि वक्त और संघ दोनों बदल चुके हैं । 

Monday, July 14, 2014

साहित्य का विकेन्द्रीकरण ?

मोदी सरकार के पहले बजट से साहित्य संस्कृति और कला क्षेत्र की अपेक्षाओं भी बढ़ी हुई थी । कला साहित्य और संस्कृति के प्रशासकों को उम्मीद थी कि इस बार उनके भी अच्छे दिन आएंगे । दिल्ली में मौजूद ऐतिहासिक दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी को भी अपनी बदहाली की दूर होने की उम्मीद थी तो जगह और धन की कमी से जूझ रहे राष्ट्रीय संग्रहालय को भी उम्मीद थी कि बजट में धन आवंटन से राहत मिलेगी। देशभर में सांस्कृतिक अड्डों और अखाड़ों की तरह चलनेवाली अकादमियों को भी उम्मीद थी कि सरकार इस बार उनके लिए बजट में ज्यादा धन का प्रावधान करेगी । साहित्यक और सांस्कृतिक माफिया की अपेक्षाओं पर यह बजट खरा नहीं उतरा । उन्हें इस बात की उम्मीद थी कि जिस तरह से शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए मानव संसाघन मंत्रालय का बजट काफी बढ़ा है उसी अनुपात में इन संस्थानों के धन का आवंटन भी बढ़ेगा । उनकी इन उम्मीदों और अपेक्षाओं पर मौजूदा बजट कितना खड़ा उतरा यह तो इन संस्थाओं के कर्ता-धर्ता जाने लेकिन मुझे लगता है कि सरकार ने बजट में धन आवंटन करते वक्त इन संस्थाओं में व्याप्त अनियमितताओं और साहित्यक माफियागीरी को ध्यान में रखा है । मार्कसवादी सांसद सीताराम येचुरी की अुवाई वाली कला और संस्कृति पर बनी संसदीय कमेटी ने संसद में पिछले साल पेश रिपोर्ट में इस बात के पर्याप्त संकेत दिए गए थे कि कला और साहित्य अकादमियों में काहिली और भाई भतीजावाद चरम पर है । इन अकादमियों के कामकाज पर गंभीर सवाल खड़े किए गए थे ।
हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय और उसकी प्रतिभाओं को सामने लाने के लिए काम करनेवाली संस्था साहित्य अकादमी के बजट में इस बार कटौती कर दी गई है । पिछले वित्तीय वर्ष में साहित्य अकादमी के लिए बाइस करोड़ छियानवे लाख रुपए दिए गए थे जबकि इस साल उसे घटाकर बाइस करोड़ अठहत्तर लाख कर दिया गया है । ऐसे वक्त में जब सरकार हिंदी को बढ़ावा देने के अपने इरादों को सार्वजनिक कर चुकी है, तब साहित्य अकादमी का बजट कम होना चौंकाता है । ऐसे में जब सरकार का कौशल विकास पर जोर है तब साहित्य अकादमी का बजट कम होना हैरान करता है । क्या यह साहित्य अकादमी की सरकार की प्राथमिकता से बाहर होने का संकेत है । यह कहना अभी जल्दबाजी होगी लेकिन अगर इसकी वजह की पड़ताल करें तो इसके लिए साहित्य अकादमी की स्थितियां और उसके प्रशासक जिम्मेदार रहे हैं । साहित्य अकादमी  के कामकाज में ढीलापन, किसी नए प्रयोग की बजाए पुरानी और बनी बनाई लीक पर चलने की जिद, नई प्रतिभाओं की बजाए बुजुर्गों और निष्क्रिय लोगों की अकादमी में नुमाइंदगी, अन्य भारतीय भाषाओं की कृतियों का हिंदी और हिंदी की कृतियों का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद के काम में दशकों लगना, आदि ऐसे कर्म हैं जिनके बिनाह पर किसी भी संस्थान का सरकार से ज्यादा बजट की अपेक्षा करना गलत है । साहित्य अकादमी में लंबे समय तक वामपंथी रुझान के लेखकों का कब्जा रहा । इस विचारधारा के लोगों को खूब बढ़ावा दिया गया । प्रगतिशील लेखक संघ ने देश में इमरजेंसी लगाने के इंदिरा गांधी के फैसले का समर्थन किया था और इनाम के तौर पर इंदिरा गांधी ने साहित्यक और सांस्कृतिक संस्थाओं को वामपंथी लेखकों के हाथों सौप दिया था । तब से ही वहां भाई भतीजावाद और विचारधारा को मानने वाले लोगों को बढ़ाने का काम शुरू हुआ । नतीजा यह हुआ कि प्रतिभा पृष्ठभूमि में और अनुयायी आगे आते चले गए ।  
उन्नीस सौ चौवन में जब साहित्य अकादमी का गठन हुआ था तो कौशल विकास और शोध प्रमुख उद्देश्य थे । छह दशक तक भटकने के बाद अब इस संस्थान का उद्देश्य अपने लोगों के रेवड़ी बांटने तक सीमित हो गया है । पुरस्कार, विदेश यात्रा, देशभर में गोष्ठियों का नाम पर पसंदीदा लेखक-लेखिखाओं के साथ पिकनिक के अलावा साहित्य अकादमी के पास कोई उल्लेखनीय काम नहीं है । साहित्य अकादमी में व्याप्त खेल का बेहतरीन उदाहरण है एक बड़े लेखक के साथ हुआ पुरस्कार का सौदा । यह वाकया कुछ सालों पुराना है, साहित्य अकादमी के चुनाव के वक्त हिंदी के एक वरिष्ठ लेखक ने उपाध्यक्ष का चुनाव लड़ने का एलान कर दिया। अध्यक्ष पद के उम्मीदवार ने उनको बुलाया और समझाया कि अगर आप उपाध्यक्ष बनेंगे तो साहित्य अकादमी का पुरस्कार नहीं मिल पाएगा । यह बात उनको समझ में आ गई और फिर समझौते के तहत उन्होंने उपाध्यक्ष पद से अपना नाम वापस लिया और अगले ही साल उनको साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिल गया । दरअसल अब वक्त आ गया है कि साहित्य अकादमी के कामकाज की पुर्नसनीक्षा की जाए और उसके गठन की प्रक्रिया पर गहन विमर्श हो । साहित्य अकादमी की गठन प्रक्रिया ही बेहद दोषपूर्ण है और वहीं से अकादमी में औसत प्रतिभा का जुटान होता है जो प्रतिभाशाली लेखकों विचारकों को अकादमी में आने में बाधा उत्पन्न करती है । अभी कई लेखकों ने इस बारे में संस्कृति मंत्री को पत्र लिखकर साहित्य अकादमी में व्यवस्थागत दिक्कतों को दूर करने के लिए प्रयास किए जाने का अनुरोध किया है । साहित्य अकादमी की सामान्य सभा के सदस्यों का चुनाव की प्रणाली दोषपूर्ण है । राज्य सरकारों और सांस्कृतिक संगठन के प्रस्तावित नामों पर पिछली सामान्य सभा के सदस्य हाथ उठाकर और शोर मचाकर फैसला कर देते हैं । इसमें भी सेटिंग-गेटिंग का खेल खेला जाता है । साहित्य अकादमी का संविधान इस मसले पर खामोश है । जरूरत इस बात की है कि संविधान को उचित तरीके से व्याख्यायित किया जाए और सामान्य सभा के सदस्यों का चुनाव मतपत्र के आधार पर हो । अकादमियों की कार्यप्रणाली में सुधार की सख्त आवश्यकता है । दरअसल अब वक्त आ गया है कि स्वायत्ता के नाम पर साहित्य अकादमी और अन्य संस्थाऩों में जारी खेल का सरकार आकलन करे और धन आवंटन को कौशल विकास के साथ जोड़ दे । आखिर कबतक स्वायत्ता के नाम पर प्रतिभाहीनता को बढ़ावा दिया जाता रहेगा । नई सरकार अगर ऐसा कर पाती है तो देश की कला संस्कृति के क्षेत्र में एक नए अध्याय की शुरुआत होगी ।
इसी तरह से दिल्ली के दिल में स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के बजट में भी इस बार कटौती की गई है । पूर्व प्रदानमंत्री इंदिरा गांधी के नाम पर बने इस संस्थान की गतिविधियां क्या हैं यह वहां से जुड़े लोग ही जानते हैं । चंद लोगों के बीच ही इस कला केंद्र की गतिविधियां सीमित हैं । इतने बड़े उद्देश्य को लेकर स्थापित किए गए इस केंद्र को इस तरह से अफसरों की एशगाह में तब्दील हो जाना दुखद है । इसी तरह से कला को बढ़ावा देने की केंद्रीय संस्था ललित कला अकादमी का किस्सा बहुत पुराना नहीं है। भ्रष्टाचार के आरोप में कुछ दिनों पहले वहां बहुत बवाल मचा था । तीन सदस्यों की जांच कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर कई लोगों के खिलाफ कार्रवाई हुई थी । साहित्य अकादमी से इतर कला अकादमी में अलग तरह की राजनीति चलती है । पिछले साल एक चित्रकार की प्रदर्शनी सिर्फ इस वजह से वहां नहीं लगने दी गई क्योंकि उसने चेयरमौन माओ पर चोट करते हुए एक चित्र बनाया था । स्वायत्ता और अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर भगवा ब्रिगेड को कोसेनेवाले इन वामपंथी फासीवादियों के इस चेहरे को भी उजागर किया जाना चाहिए । तमाम भ्रष्टाचार और खेमेबंदी के आरोपों के बावजूद ललित कला अकादमी के बजट में मामूली बढ़ोतरी की गई है । बजट में सरकार सबसे ज्यादा मेहरबान संगीत नाटक अकादमी पर दिखी जिसके बजट आवंटन में करीब छह करोड़ की बढ़ोतरी की गई है।

अकादमियों के अलावा हमारे देश के संग्रहालयों की हालत खस्ता है । ऐतिहासिक महत्व की धरोहर स्थानाभाव के अभाव में या तो खुले में पड़े हैं या किसी धूल भरे गोदाम में सड़ रहे हैं । मोदी सरकार ने अपने बजट में इस ओर ध्यान दिया है और दिल्ली के नेशनल म्यूजियम को करीब सैंतीस करोड़ रुपए ज्यादा आवंटित किए गए हैं । यह धनराशि पिछले वर्ष की तुलना में चौदह करोड ज्यादा है । सरकार ने दिल्ली की बदहाल मगर एतिहासिक दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के बजट आवंटन में चार करोड़ का इजाफा किया है । संभव है कि इस राशि से दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी को सुधारने में मदद मिले । दरअसल साहित्य कला संस्कृति पर इस बार के बजट आवंटन से जो संकेत मिलता है वह है कि सरकार इन क्षेत्रों में विकेन्द्रीकरण की ओर बढ़ रही है । केंद्रीय संस्थाओं के बजट में कटौती या मामूली बढ़ोतरी की गई है वहीं क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रो के बजट में कई गुणा इजाफा किया गया है । इस बार के बजट में क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रो के लिए एक सौ एक करोड़ पचास लाख का प्रावधान किया गया है जबकि पिछले वर्ष यह आवंटन सिर्फ उनतालीस करोड़ चालीस लाख था । अगर सरकार की मंशा सांस्कृतिक विकेन्द्रीकरण की है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए । 

Sunday, July 6, 2014

फिर आलोचना पर सवाल

अभी हाल में एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग ने कहा कि हिंदी का साहित्यक समाज भय और लालच, मुख्यत: दो ही चीजों से संचालित होता है । छपे हुए साक्षात्कार की आखिरी पंक्ति है । बेहतर होता कि इस विषय पर थोड़ा विस्तार से अपनी बात रखती । मृदुला गर्ग के साक्षात्कार के अलावा दूसरी वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने फेसबुक पर रचनाकारों के लिए लिखा -  तय करो कि तुम पाठकों के लिए लिखते हो या आलोचकों के लिए ? कबीर की मिसाल सामने है जिसने समाज के लिए कहा । तुलसी के लेखन की समीक्षा किसने की ? प्रेमचंद, निराला और रेणु को जिन्होंने पहले ही हल्ला पटक दिया, बाद में दांतें निपोरते दिखे । इन दिनों समीक्षकों की योग्यता क्या है ? दोस्ती और दुश्मनी की दलबंदी । पाठकों में ये दुर्गुण नहीं होता । दोस्त समीक्षक पीठ ठोंके और पाठक अपना माथा पीटें तो हमारी रचनाओं की जगह कूड़ेदान में होनी चाहिए । हिंदी की दो अलग अलग पीढ़ी की इन दो लेखिकाओं के स्वर लगभग एक हैं । मृदुला गर्ग ने दो पंक्तियों में अपनी बात कही है तो मैत्रेयी ने थोड़ा विस्तार से लेकिन तुलनात्मक रूप से तल्खी के साथ अपनी बात रखी है । इन दोनों के बातों पर फेसबुक पर पक्ष विपक्ष में टिप्पणियां तो चल रही है लेकिन यह विषय ऐसा है जो गंभीरता से विमर्श की मांग करता है ।

सवाल समीक्षा और आलोचना पर खड़े किए जा रहे हैं । मृदुला गर्ग ने एक तरफ जहां पूरे साहित्य समाज की प्रवृति पर टिप्पणी की है वहीं मैत्रेयी ने समीक्षा और समीक्षकों पर टिप्पणी की है । इन दोनों की इन टिप्पणियों को खारिज नहीं किया जा सकता है । इस बात की प्रबल संभावना है कि इनकी टिप्पणियों के पीछे इनके अनुभव की पृष्ठभूमि होगी । समीक्षा और समीक्षकों पर पहले भी कई बार सवाल खड़े होते रहे हैं । समीक्षा पर खेमेबंदी से लेकर रूढ़ होने के भी आरोप लगते रहे हैं । मैत्रेयी जी की तरह समीक्षा पर पहले भी मित्रों को स्थापित करने और विरोधियों को पछाड़ने के आरोप लगे हैं । यह होता भी रहा है । अब भी हो रहा है । पहेल भी और अब भी लेखकों और समीक्षकों के समूह और उपसमूह हैं जिनमें लेखक भी हैं और समीक्षक भी हैं । यह भी एक स्थिति है कि आलोचना और समीक्षा की लगातार आलोतना के बावजूद लेखक उनकी ओर ताकते भी हैं । ऐसी स्थिति में समीक्षा के वर्तमान परिदृश्य को सिर्फ इस आधार पर खारिज भी नहीं किया जा सकता है । अगर समीक्षा का वर्तमान परिदृश्य बहुत उत्साहजनक नहीं है तो स्थिति बहुत निराशाजनक भी नहीं है । कई समीक्षक बेधड़क, बगैर किसी लाभ लोभ के अपनी बात रखते हैं । हिंदी के लिए यह एक अच्छी स्थिति है कि एक विचारधारा के प्रभाव और वर्चस्व के बावजूद असहमति के लिए स्पेस है । मैत्रेयी जी ने निराला का नाम लिया है मैं बहुक विनम्रतापूर्वक उन्हें निराला का वह बयान याद दिलाना चाहता हूं जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि उनकी कविताएं रामचंद्र शुक्ल सुन रहे हैं तो तो जैसे समूचा हिंदी साहित्य सुन रहा है । आज हो सकता है कि रामचंद्र शुक्ल जैसा कोई आलोचक हिंदी में ना हो लेकिन विचार इसपर भी होना चाहिए कि क्या कोई निराला है । 

Friday, July 4, 2014

भरोसे का छलात्कार

एक पार्टी है जिसका नाम है आम आदमी पार्टी । उसके नेता हैं अरविंद केजरीवाल । दिल्ली विधानसभा चुनाव के वक्त देश के राजनीतिक क्षितिज पर धूमकेतु की तरह चमके थे । उसी चमक के आलोक में देश पर शासन का सपना देखने लगे थे । लोकसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस से ज्यादा लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए । जब चुनाव के नतीजे आए तो सबसे ज्यादा उम्मीदवारों की जमानत जब्त होने का रिकॉर्ड बना । पार्टी के बनने के दो साल के पहले ही राजनीति का ये सितारा अस्ताचल की ओर क्यों चल पड़ा है । यह गंभीर मंथन और चिंतन की मांग करता है । राजनीतिशास्त्र के छात्रों के लिए केस स्टडी भी है । आम  आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के व्यक्तित्व के इर्द गिर्द बनी यह पार्टी उनकी ही महात्वाकांक्षा, जिद और दूसरे की नहीं सुनने की आदत का शिकार हो गई । मैंने पहले भी आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल की सियासी चालों को परखते हुए कई लेख लिखे हैं । उन लेखों में इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि केजरीवाल की महात्वाकांक्षा और मैं सही बाकी सब गलत का एटीट्यूड पार्टी को ले डूबेगी । वही होता नजर आ रहा है । अरविंद केजरीवाल अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की उपज हैं । कई लोग उनको अन्ना हजारे के आंदोलन का रणनीतिकार भी मानते हैं । होंगे भी । अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली में हुए आंदोलन के दौरान से लेकर अगर अब तक अगर केजरीवाल के कदमों का विश्लेषण किया जाए तो साफ है कि पारदर्शिता की बात करनेवाले केजरीवाल सियासत के माहिर और शातिर खिलाड़ी हैं और उतनी ही बातें सामने लाते हैं जितनी बातों से उनको लाभ होता है । जब अन्ना हजारे का आंदोलन चल रहा था तब भी केजरीवाल मंच से लगातार पारदर्शिता का दावा करते थे । अनशन के वक्त रामलीला मैदान के अनशन मंच से बार बार ये एलान किया जाता था कि सरकार से पर्दे के पीछे कोई बात नहीं चल रही है । बाद में माना कि सरकार से बैक चैनल से बात हो रही थी । जनता को सरकार से अपनी बातचीत के हर कदम की चीख चीख जानकारी देनेवाले अरविंद जनता से बिना बताए सरकार से बात कर रहे थे, यह उनका खुद का खुलासा है जो हैरान करनेवाला है बाद में केजरीवाल ने अपनी इस सिसासी बिसात को और आगे बढ़ाया और कहा कि वो अहम फैसले जनता की राय से करेंगे । उन्होंने दिल्ली में कांग्रेस के साथ सरकार बनाने के पहले रायशुमारी का दांव चला था । जोर शोर से प्रचारित किया गया था कि भारत में ये अपनी तरह का अनूठा प्रयोग है । लेकिन उसके पहले भी वो एक बार जनता से इस बाबत पूछ चुके थे कि क्या उन्हें कांग्रेस या यूपीए के खिलाफ प्रचार करना चाहिए या नहीं । उस वक्त भी हरियाणा के हिसार में हुए उपचुनाव में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव प्रचार करने से पहले अरविंद केजरीवाल ने जनता से नहीं पूछा था उस वक्त भी केजरीवाल कंपनी ने बगैर जनता से पूछे हिसार के उपचुनाव को लोकतंत्र का लिटमस टेस्ट घोषित कर दिया था वहां कांग्रेस की हार को लोकतंत्र की जीत और भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस के खिलाफ जनता के गुस्से की परिणति के तौर पर पेशकिया था । दरअसल केजरीवाल या ये दोहरा रवैया बार बार दोहराया जाता रहा और बार बार जनता छली जाती रही । दिल्ली में सरकार बनाने से पहले रायशुमारी और छोड़ने का फैसला अकेले का । साथियों तक से न पूछा और ना उनकी राय मानी ।  
दरअसल अगर हम इस पूरे उठान और पतन का विश्लेषण करें तो देखते हैं कि अन्ना के दो अनशन की सफलता से उत्साहित टीम अन्ना को यह लगने लगा था कि पूरे देश की जनता उनके साथ है भ्रष्टाचार से तंग चुकी जनता को अन्ना में एक उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी थी नतीजे में लोग घरों से बाहर सड़कों पर निकले वह मध्यवर्ग घरों से निकला जिनके बारे में यह माना जाता था कि आमतौर पर वह ड्राइंगरूम में बहस कर संतोष कर लेता है । लोगों ने बदलाव का एक सपना देखा था । अन्ना में उन्हें एक ऐसा भारतीय नजर आया था जो मंदिर में रहता है, जिसका कोई परिवार नहीं है । गांधी टोपी पहनता है । बदलाव की अकुलाहट में जनता ने उनको समर्थन दिया । बाद में टीम अन्ना खंड खंड होकर बिखर गई । अलग होनेवाले सभी साथियों ने केजरीवाल पर तानाशाही रवैया अपनाने का आरोप लगाया था । जब केजरीवाल ने अन्ना से अलग होने का फैसला किया तो मीडिया का चतुराई से इस्तेमाल करते हुए टीम केजरीवाल नाम चलवा दिया । टूटी और बिखरी हुई टीम अन्ना के बरक्श टीम केजरीवाल खड़ी होने लगी । मीडिया के कैमरों और टेलीविजन के तरंगों पर सवार होकर टीम केजरीवाल और उनका संदेश घर घर तक पहुंचने लगा । कंसेंट मैन्युफैक्टर होने लगे । दिल्ली में बिजली पानी की बढ़ती कीमतों के खिलाफ केजरीवाल की मुहिम को समर्थन मिलने लगा । नेताओं को चोर लुटेरा कहने से बॉलीवुड फिल्मों की तरह उनकी सभाओं में तालियां बजने लगी थी । तालियों की गड़गड़ाहट ने केजरीवाल की महात्वाकांक्षाओं को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया । उन्हें लगने लगा कि ताकतवर लोगों को गाली देने से जनता उनपर खुश हो जाएगी । जनता की इसी खुशी को भुनाने के लिए केजरीवाल ने राजनीति के अलावा उद्योग जगत के लोगों को भी भ्रष्ट कहना शुरू कर दिया । पुराने उपलब्ध कागजातों के आधार पर सनसनीखेज खुलासों का दावा किया जाने लगा । अबतक मीडिया उनपर मेहरबान थी । बीजेपी नेता गडकरी अपने उपर लगे आरोपों के खिलाफ कोर्ट गए तो अपनी जिद में केजरीवाल को जेल जाना पड़ा । न्यायपालिका के आगे ना तो जिद चली और ना ही जेल जाने का सियासी ड्रामा हिट हो सका ।
दिल्ली का मुख्यमंत्री पद संभालने के बाद केजरीवाल की आक्रामकता बढ़ने लगी थी । फिल्म नायक का किरदार हकीकत में दिखाई देने लगा था । सियासत इतना क्रूर होता है कि वहां फिल्मी किरदार और लटके झटके चलते नहीं हैं । उसपर से उस वक्त केजरीवाल से एक रणनीतिक चूक हो गई । दिल्ली में लोकपाल के मुद्दे पर उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया । लोकसभा चुनाव खत्म होने तक अपने पद छोड़ने को जायज ठहराते रहे । चुनाव में पार्टी की और खुद की करारी हार के बाद सचाई को स्वीकारते हुए दिल्ली के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए जनता से माफी मांगते हुए कह रहे हैं कि एक बार और मौका दें अब पद नहीं छोड़ूंगा । उनचास दिन के कार्यकाल में कई विवाद उठे । उन विवादों के बावत सवाल पूछ जाने पर उन्होंने मीडिया पर भी बिकने का आरोप लगा दिया । केजरीवाल की सबको बेईमान बताने से जनता उबने लगी थी । सबको बेईमान कहने में यह छुपा होता था कि वो ही ईमानदार हैं । लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी की कथित ईमानदारी को भी कई लोगों ने देखा ।

अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी में जनता ने जो भरोसा दिखाया था उसके साथ पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने छलात्कार किया । अब ना केवल भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की हवा निकल गई है बल्कि केजरीवाल की राजनीति भी चौराहे पर खड़ी है उन्हें कहां जाना है इस बात को लेकर भ्रम में हैं । कभी दिल्ली में सरकार बनाने की कोशिश करते नजर आते हैं तो कभी चुनाव में जाने की बात करते हैं । अरविंद केजरीवाल को यह समझना होगा कि जनता भी उसी चौराहे पर खड़ी है जहां उनकी राजनीति खड़ी है । सबको बेईमान, चोर, लुटेरा कहने से राजनीति नहीं चलती । राजनीति का यथार्थ बेहद खुरदरा और रास्ता पथरीला होता है । अगर संभल कर नहीं चले तो लुढ़कने का खतरा रहता है, चुनाव नेता को करना होता है । 

Tuesday, July 1, 2014

प्रकाशकों से अच्छे दिन की उम्मीद

अभी कुछ दिनों पहले मन में ये बात आई कि वेदों को पढ़कर देखा जाए कि उसको संदर्भित कर जो बातें कही जाती हैं उनमें कितनी सचाई है । इसके अलावा यह जानने की इच्छा भी प्रबल थी कि नेद में तमाम बातें किस संदर्भ और किन स्थितियों में कही गई हैं । एक प्रकाशक मित्र ने चारो वेद के नौ खंड उपलब्ध करवा दिए । महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा किए गए हिंदी भाष्य को आर्य प्रकाशन दिल्ली ने छापा है । जब वेद को पढ़ना प्रारंभ किया तो इस बात का एहसास हुआ कि छपे गए अक्षर भी कापी पहले के हैं । ये ग्रंथ उस जमाने के छपे हुई हैं जब लीथो प्रेस, लेटर प्रसे आदि का इस्तेमाल होता होगा । बहुत संभव है कि उसी जमाने में छपाई के लिए बनाए गए निगेटिव का इस्तेमाव अब तक हो रहा है । ऋगवेद के पहले खंड में जो प्रकाशकीय वक्तव्य का पन्ना है वह अच्छे और साफ अक्षरों में छपा है । पढ़ने में आंखों को सहूलियत होती है लेकिन जैसे ही आप आगे बढ़ेंगे और अगले पन्ने पर पहुंचते हैं तो आपकी नजर को झटका लगेगा, आंखों को पढ़ने में मेहनत करी पड़ेगी क्योंकि छपाई पुराने अक्षरों में शुरू हो जाती है । इसी तरह से हिंदी की महान कृतियों को छापने वाली नागिरी प्रचारिणी सभा वाराणसी से छपी एक और किताब हाल ही में मैंने खरीदी । नागिरी प्रचारिणी सभा की शास्त्रविज्ञान ग्रंथमाला ऋंखला के अंतर्गत छपी किताब हिंदी शब्दानुशासन जिसे पंडित किशोरीदास वाजपेयी ने लिखा है । पंडित किशोरीदास वाजपेयी की लिखी यह किताब -हिंदी शब्दानुशासन हिंदी की इतनी अहम किताब है कि हिंदी के सभी छात्रों को इस किताब को पढ़ना चाहिए ।  छह सौ से चंद पन्ने ज्यादा की यह किताब लगभग अपठनीय है । कागज रद्दी और छपाई घटिया । यह हाल सिर्फ इन्हीं दो किताबों का नहीं है । साठ के दशक से पहले की छपी ज्यादातर किताबें इसी हाल में छप और बिक रही हैं ।  तकनीक के इस उन्नत दौर में इतनी अहम किताबों की यह दुर्दशा देखकर मन बेचैन हो उठा । मन में कई शंकाएं और सवाल खड़े होने लगे ।

सवाल यही कि हमारे देश में अपनी विरासत को संभालने के लिए गंभीर उद्यम क्यों नहीं होता है । मानव संसाधन विकास मंत्रालय का छियासठ हजार करोड़ से ज्यादा का बजट है । मंत्रालय की कई योजनाएं चलती रहती हैं । देश में अकादमी और हिंदी विश्वविद्लाय हैं जहां से किताबों का प्रकाशन होता है । नेशनल बुक ट्रस्ट जैसा भारी भरकम महकमा है । इन महकमों को भी सरकार से करोड़ों का अनुदान मिलता है । नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना का उद्देश्य देश में हिंदी, अंग्रेजी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के बेहतर साहित्य का प्रकाशन और कम कीमत पर उपलब्ध करवाना था । आजादी के दस साल बाद यानि 1957 में इसकी स्थापना हुई थी । इसका एक उद्देश्य देश में पुस्तक संस्कृति को विकसित करना भी था । पुस्तक संस्कृति के विकास का एक अहम कोष यह भी है कि हम पूर्व प्रकाशित अहम पुस्तकों को नए जमाने के हिसाब से छापकर उसको जनता तक पहुंचाने का उपक्रम करें । नेशनल बुक ट्रस्ट इस काम में आंशिक रूप से ही सफल हो पाया है । पुस्तक मेलों के आयोजन में तो उसने महारथ हासुल कर ली है लेकिन पुस्तकों को प्रकाशन या उसके संरक्षण और संवर्धन में वहां भी ढिलाई है । दूसरी तरफ साहित्य अकादमी अपने मूल उद्देश्यों से भटकती हुई पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में उतर तो गई लेकिन वहां इतना लंबा बैकलॉग है कि अनुवाजक से लेकर लेखक तक खिन्न हैं । अनुवादकों को पांच पांच साल पहले उनके मानदेय मिल चुका है लेकिन किताबों के प्रकाशन का पता नहीं है । ऐसे माहौल में उनसे पुरानी किताबों के संरक्षण की अपेक्षा व्यर्थ है । इस दिशा में निजी प्रकाशन संस्थानों से ही उम्मीद जगती है ।