Translate

Sunday, July 31, 2016

महान विभूतियों को प्रणाम

पिछला सप्ताह साहित्य, कला और संगीत के लिहाज से बेहद दुखद रहा । इन तीनों क्षेत्रों की तीन महान विभूतियों के महाप्रयाण से ये क्षेत्र विपन्न हुआ । मशहूर चित्रकार सैयद हैदर रजा, महान लेखिका महाश्वेता देवी और गायक और तबला वादक लच्छू महाराज के निधन ने साहित्य और कलाजगत को झककोर कर रख दिया । महाश्वेता देवी लिखती अवश्य बांग्ला में थीं लेकिन वो पूरे देश में समादृत थीं । महाश्वेता देवी के लेखन में समाज के हाशिए के लोगो की आवाज प्रमुखता से दिखाई देती थीं । महाश्वेता देवी के बारे में एक बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि वो आदिवासियों और दबे कुचले लोगों के जीवन के बीच जीवन गुजारकर जो जीवानानुभव होता था उसको अपने लेखन में समाहित करती थी । नतीजा यह होता था कि महाश्वेता देवी के लेखन में एक खास किस्म का यथार्थ दिखाई देता था जो कि गढ़े हुए यथार्थ से अलग होता था । वो जब बोलती थीं तो उनकी आवाज में ना तो बनावटीपन होता था और ना ही श्रोताओं को खोखला लगता था क्योंकि उन्होंने जो जिया वही लिखा । महाश्वेता देवी नक्सलियों के प्रति झुकाव रखती थीं और मौके बेमौके उनके समर्थन आदि में लेख आदि भी लिखते रहती थीं । मुझे याद है कि उन्नीस सौ सत्तानवे में 27 दिसंबर को महाश्वेता देवी ने सीपीआई एमएल को अपने हाथों से लिखा एक खत दिया था जिसमें उनसे रणबीर सेना द्वारा किए गए एक सामहूक नरसंहार का बदला लेने की बात कही गई थी । उनके उस पत्र के छपने के बाद महाश्वेता देवी पर हिंसा के लिए उकसाने का आरोप भी लगा था लेकिन वो अपने स्टैंड से टस से मस नहीं हुई थी । वो अपनी विचारधारा में सीपीएम के करीब थीं लेकिन जब नंदीग्राम में लोगों पर सीपीएम शासनकाल में अत्याचार हुआ तो वो बंगाल की सीपीएम सरकार के खिलाफ खड़ी हो गई थी। अपने जीवन के अंतिम समय में वो ममता बनर्जी के साथ खड़ी थीं । महाश्वेता देवी जितना साहित्य में सक्रिय थी उतनी ही सक्रियता से वो राजनीति के मसलों पर भी अपनी राय रखती थीं । उन्नीस सौ छब्बीस में ढाका में साहित्यक परिवार में पैदा हुई महाश्वेता के पिता मनीष घटक मशहूर कवि थे और चाचा ऋत्विक घटक मशहूर फिल्मकार । महाश्वेता देवी की हजार चौरासी की मां, अरण्येर अधिकार, झांसीर रानी, अग्निगर्भा आदि मशहूर कृतियां थी । हजार चौरासी की मां पर तो इसी नाम से फिल्म भी बनी और अग्निगर्भा पर रुदाली के नाम से फिल्म का निर्माण हुआ था । महाश्वेता देवी को ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, रोमन मैगसेसे अवॉर्ड समेत कई सम्मान मिल चुके थे । भारत सरकार ने उनको पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया था । मैं दो तीन बार महाश्वेता देवी से मिला था । पहली बार उनसे दो हजार तीन में साहित्य अकादमी के चुनाव के दौरान मुलाकात हुई थी । उस वक्त वो गोपीचंद नारंग के खिलाफ अकादमी के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रही थीं । उस दौरान मैंने उनके दो इंटरव्यू किए थे । उस वक्त उनपर आरोप लगा था कि वो अशोक वाजपेयी के दबाव में अकादमी का चुनाव लड़ रही थीं । पहले उन्होंने ऐलान किया था कि अगर वो निर्विरोध चुनी जाती हैं तभी अध्यक्ष बनेंगी लेकिन बाद में उन्होंने अपना विचार बदल लिया था । तब पहली बार उन्होंने मुझसे ही बातचीत में इस बात को स्वीकार किया था कि वो लोकतांत्रिक परंपरा का सम्मान करने की वजह से चुनाव मैदान में हैं । हलांकि महाश्वेता देवी वो चुनाव हार गई थीं । उसके बाद भी मैंने उनका एक इंटरव्यू किया था तब उनके दिल में चुनाव हारने की टीस तो थी ही इस बात का भी मलाल था कि हिंदी के कुछ लेखकों ने उनका इस्मेताल कर लिया था । उन्होंने खुलकर तो ये बात नहीं कही थी लेकिन ये अवश्य कहा था कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने की वजह से उन्हें बेवजह के कई आरोपों को झेलने पड़े थे । महाश्वेता के जाने से समाज के वंचितों की आवाज भी कमजोर होगी ।
महाश्वेता के जाने से साहित्य जगत की जो क्षति हुई है उतना ही बड़ा नुकसान सैयद हैदर रजा के निधन से कला क्षेत्र को हुआ है । रजा साहब भारत की चित्रकारी की त्रिमूर्ति- रजा ,सूजा और हुसैन- के आखिरी स्तंभ थे । उनके निधन से विश्व कला की दुनिया का एक कोना सूना हो गया है । रजा साहब की चित्रकारी में अद्वैत दर्शन को साफ तौर पर देखा जा सकता था । वो कहते भी थे कि दिव्य शक्तियों के सहयोग के बिना कला संभव नहीं है । उनकी कला के केंद्र में बिंदू का खास महत्व था और उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा भी था कि बिंदू की अहमियत को समझने में उनको करीब पचास साल लगे थे । रजा साहब का मानना था कि पूरी सृष्टि के केंद्र में बिंदू है । रजा की चित्रकारी में एक क्रमिक विकास दिखाई देता है जब पहले वो पीला और नारंगी रंग का इस्तेमाल करते हैं और कालांतर में उनकी चित्रकारी में काले रंग का प्रवेश दिखाई देता है । विशेषज्ञों का मानना है कि वो रंगों के माध्यम से भारतीय मिथकों के प्रतीकों का अपने चित्रों में इस्तेमाल करते हैं । रजा सहाब के बारे में मित्र चित्रकार मनीष पुष्कले से यदा कदा बातचीत होती रहती थी । हमने उनके साथ स्टूडियो में जाकर बातचीत का एक कार्यक्रम भी बनाया था लेकिन वो योजना परवान नहीं चढ़ सकी । मनीष बताते थे कि रजा साहब युवा चित्रकारों को सोचने के लिए उकसाते थे और हमेशा प्रश्नों के साथ उसका उत्तर ढूंढने के लिए छोड़ देते थे । संभव है ये उनकी युवाओं को सिखाने की अदा हो ।
महाश्वेता और रजा के अलावा इस सप्ताह बनारस के मशहूर तबला वादक और गायक लच्छू महाराज भी हमें छोड़कर चले गए । बनारस घराने के लच्छू महाराज ने आठसाल की उम्र से ही तबला बजाना शुरू कर दिया था । भले ही लच्छू महाराज ने बनारस घराने में ट्रेनिंग ली हो लेकिन वो तबले पर चारो घराने की थाप को उसी सहजता के साथ बजाते थे । लच्छू महाराज प्रचार प्रसार से दूर रहते थे और अपनी शर्तों पर ही संगत करते थे । लच्छू महाराज के तबला वादन की एक विशेषता ये भी थि उनकी थाप में दोहराव देखने को नहीं मिलता था । स्वभाव से ठेठ बनारसी लच्छू महाराज के जाने से भारतीय तबला वादन परंपरा में एक खास किस्म की खामोशी आई है । इन तीन विभूतियों को श्रद्धांजलि ।


नामवर के बहाने सियासत क्यों ?

हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष नामवर सिंह नब्बे साल के हो गए और दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में दिनभर एक समारोह का आयोजन किया गया । इस समारोह में गृह मंत्री राजनाथ सिंह और संस्कृति मंत्री महेश शर्मा के अलावा पूरे देशभर के कई अहम साहित्यकारों ने शिरकत की । इंदिरा गांधी कला केंद्र द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम को लेकर प्रगतिशील लेखकों के पेट में दर्द शुरू हो गया था । साहित्य में वामपंथ का डंडा-झंडा उठाने वाले साहित्यकारों ने नामवर जी से अनुरोध करना शुरू कर दिया कि वो इस कार्यक्रम में नहीं जाएं क्योंकि ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मोदी की गोद में जाकर बैठ जाने जैसा होगा । प्रगतिशीलता के नाम पर दुकानदारी चलानेवाले कुछ लेखकों ने उनके घर जाकर धरना आदि की धमकी भी दी । नामवर जी टस से मस नहीं हुए।  तय वक्त पर कार्यक्रम में गए, दिनभर वहां बैठे रहे । कार्यक्रम संपन्न हो गया । उनपर भाषण आदि हुए और किताबों-पत्रिकाओं का विमोचन भी हुआ । महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कृष्ण कुमार सिंह ने बहुवचन पत्रिका का नामवर सिंह पर केंद्रित अंक का संपादन किया जो इस मौके पर जारी किया गया ।नामवर सिंह पर केंद्रित ये अंक बेहतरीन है और कई ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त लेखकों ने नामवर जी पर इसमें लेख आदि लिखे हैं । राजनाथ सिंह और महेश शर्मा के अलावा कई घोर प्रगतिवादियों ने भी इस कार्यक्रम में शिरकत की । लेकिन जब नामवर सिंह के बोलने की बारी आई तो उन्होंने अपना अंदाज नहीं छोड़ा । नब्बे की उम्र में उनका यही अंदाज उनको नामवर बनाता है । नामवर सिंह ने बगैर राजनाथ सिंह और महेश शर्मा का नाम लिए मंच को संबोधित किया । साथ ही  भी कह डाला कि यहां हुई बातों को सुनने के बाद उनकी इच्छा सौ साल जीने की है ताकि वो इनकी छाती पर मूंग दल सकें । अब इस कथन के निहितार्थ को पकड़ने और व्याख्यायित करने की आवश्यकता है । कई लोग अपने अपने तरीके से इसको व्याख्यायित करते हुए नामवर सिंह को संघी करार दे रहे हैं । लेकिन नामवर सिंह का अपना तरीका है और वो उसी हिसाब से चलते हैं और हर मंच पर साहस के साथ अपनी बात कह भी देते हैं ।
इसी तरह का वाकया है जब हरिवंश राय बच्चन की किताबों का विमोचन हो रहा था । तत्कालीन इंदिरा गांधी मंच पर मौजूद थीं । नामवर जी भी मंच पर थे और जब उनके बोलने की बारी आई तो उन्होंने इंदिरा गांधी का नोटिस ही नहीं लिया । उन्होंने बोलना शुरू किया- आदरणीय बच्चन जी और सभागार में उपस्थित साहित्य प्रेमियो । मंच पर प्रधानमंत्री बैठी हों और उनका नोटिस नहीं लेना साहस का काम है । ये वाकया आज से करीब पैंतीस साल पहले का है लेकिन पैंतीस साल बीत जाने के बाद और नब्बे की उम्र पार करने के बाद भी वही साहस । मुझे तो हिंदी के अन्य प्रगतिशील लेखकों में इस तरह का साहस नजर नहीं आता है । स्नॉबरी अवश्य दिखाई देती है जहां सार्वजनिक रूप से नैतिकता की बड़ी बड़ी बातें करनेवाले लोग पर्दे के पीछे नेताओं की खुशामद में लगे रहते हैं । पद और कमेटियों में नामांकित होने की जुगत में दिखते हैं ।  
नामवर सिंह के नब्बे साल के होने पर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के आयोजन में उपस्थित होने के बाद प्रगतिशील लेखक संघ ने एलान किया और कहा कि वो अपने को नामवर सिंह से अलग करते हैं । प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव जावेद अली ने एक बयान जारी कर नामवर सिंह के कृत्यों से प्रलेस को अलग कर लिया । उस बयान में ये कहा गया है कि दो हजार बारह में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष पद से हटने के बाद नामवर सिंह संघ के किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए । प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव ने कहा है कि उनके संगठन के पास नामवर सिंह को रोकने का कोई अधिकार नहीं है लेकिन वो संगठन को नामवर सिंह से अलग तो कर ही सकते हैं । अब यहां ये देखना आवश्यक है कि प्रगतिशील लेखक संघ ने नामवर सिंह के लिए क्या किया । हिंदी पट्टी में प्रगतिशील लेखक संघ को मजबूत करने का काम नामवर सिंह ने अवश्य किया । सीपीआई के इस बौद्धिक प्रकोष्ठ को हिंदी के लेखकों के बीच लोकप्रिय बनाने में नामवर सिंह की भूमिका को नजरअंदाज किया जा रहा है । दरअसल प्रगतिशील लेखक संघ का यही चाल और चरित्र रहा है, चेहरा भले ही अलग रहा हो । दूसरी बात ये कि प्रगतिशील लेखक संघ अब भी नामवर सिंह के बहाने से ही अपनी सार्थकता सिद्ध करने में लगा है । अरे दोस्तो प्रगतिशील लेखक संघ को पूछता और जानता कौन है जो वो नामवर सिंह से खुद को अलग करने का एलान कर रहा है । अब तो नामवर सिंह के सहारे से राजनीति करना बंद कर दो । अली जावेद भले ही प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव हों लेकिन वामपंथी राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी प्रतीत होते हैं । तभी तो उन्होंने एक नॉन इश्यू को मुद्दा बनाकर अपने संगठन को खड़ा करने की कोशिश की । हलांकि इस काम में कथित प्रगतिशीलों को महारथ हासिल है । 
इसी तरह से खबर ये भी आई कि कुछ वामपंथी लेखकों ने नामवर सिंह को वहां जाने से रोकने के लिए बकायदा फोन किया और इशारों इशारों में उनके घर के बाहर धरना देने की धमकी भी दी । ये लोग शायद ये भूल गए कि नामवर किस मिट्टी के बने हैं । मिट्टी पुरानी भले ही हो गई है कमजोर नहीं हुई है कि इस तरह की धमकियों के आगे झुक जाए । दरअसल ये वही जमात है जो कि बिहार विधानसभा चुनाव के पहले पुरस्कार वापसी के वक्त सक्रिय दिखाई दे रही थी और अब नीतीश कुमार के लेखकों से मिलने के कार्यक्रम की जमीन तैयार करने में लगी है । इन लेखकों को ये समझना चाहिए नामवर सिंह के बाहने से वो जो राजनीति करना चाहते हैं वो पहले ही दिन से एक्सपोज्ड है । राजनीति करना बुरी बात नहीं है और पढ़े लिखे प्रोफेसरों का राजनीति में स्वागत भी किया जाना चाहिए। लेकिन जब ऐसे लोग खुद के लेखक होने की आड़ में राजनीति के खेल को अंजाम देते हैं तो बहुधा लेखक नाम की संस्था को अविश्वास के दायरे में खड़ा कर देते हैं । लेखकों की नैतिकता की आड़ में राजनीति के इन प्यादों की चालें बेहद खतरनाक होती है और भोली भाली जनता उनके झांसे में फंस जाती है । जनता को ये नहीं पता चल पाता है कि वो अपने राजनितिक आकाओं के कहने पर इस तरह के प्रपंच रचते हैं, कभी असहिष्णुता के नाम पर , कभी अभिव्यक्ति की आजादी के खतरे में होने की बात उठाकर तो कभी साहित्य सांस्कृतिक संस्थाओं पर भगवा कब्जा की बातें फैला कर । दरअसल होता यह है कि जबतक इनको लाभ मिलता रहता है तो ये खामोश रहते हैं लेकिन जैसे ही दूसरों को तवज्जो मिलने लगती है तो ये तिलमिलाने लगते हैं । इसका एक उदाहरण छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार का साहित्यक आयोजन- रायपुर साहित्य महोत्सव था। उस आयोजन में जिन प्रगतिशील लेखकों को नहीं बुलाया गया था उन्होंने बहुत छाती कूटी थी और साथी लेखकों को सवालों के कटघरे में खड़ा करने की कोशिशें की गई थीं । तब ये लगा था कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार के आयोजन में ये लेखक शिरकत नहीं करेंगे ।

छत्तीसगढ़ सरकार के आयोजन के दो साल भी नहीं बीते हैं और इस वक्त झारखंड सरकार के सहयोग से साहित्य पर एक बड़ा आयोजन रांची विश्वविद्यालय कर रही है । कथा पावस नाम के इस आयोजन में आमंत्रित लेखकों की सूची से साफ है कि तमाम क्रांतिकारी, प्रगतिशील और खुद को उच्च नैतिक मानदंड पर रखकर अपनी मार्केटिंग करनेवाले तमाम लेखक वहां जुटे हुए हैं । उन्हें इस वक्त ये याद नहीं आ रहा है कि झारखंड में गौरक्षकों ने सरेआम हत्या की थी, झारखंड में पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, भारतीय जनता पार्टी सरकार गौ रक्षा के नाम पर गुंडों को शह दे रही है आदि आदि । कथा पावस में शिरकत करते वक्त तमाम क्रांतिकारी ये भूल जाते हैं क्योंकि उनकी भागीदारी है । अब अगर यहां उनको नहीं बुलाया जाता तो फिर इनका विलाप देखने योग्य होता । इसमें से कई लेखक तो वैसे भी हैं जिन्होंने रायपुर के आयोजन पर सवाल खड़े हुए लेख लिखे थे, फेसबुक पर टिप्पणी की थी । प्रगतिशीलता के इस छद्म खेल को देश की जनता समझती है इस वजह से ही उनकी प्रासंगिकता खत्म हो गई है और विश्वसनीयता संदिग्ध । 

Saturday, July 23, 2016

अभिवयक्ति की आजादी के चौराहे

चंद दिनों पहले मद्रास हाईकोर्ट से प्रोफेसर पेरुमल मुरुगन के उपन्यास और उसके बाद उसके विरोध और लेखक के फेसबुक पर मरने के एलान के बाद की स्थितियों को लेकर दायर याचिका पर फैसला आया । मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस संजय किशन कौल के इस फैसले को अभिव्यक्ति की आजादी को मजबूती देनावाला करार दिया गया । मुझे लगता है कि इस फैसले को बगैर पूरा पढ़े अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियनों ने शोरगुल मचाना शुरू कर दिया । संजय किशन कौल इस तरह के फैसलों के लिए जाने जाते हैं । जब वो दिल्ली उच्च न्यायालय में थे तो उन्होंने एफ एम हुसैन के केस में इसी से मिलता जुलता फैसला दिया था । तब भी अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों ने ऐसा ही शोरगुल मचाया था । प्रो मुरुगन केस में मद्रास हाईकोर्ट ने अपने फैसले के एक सौ चौरासीवें पैरा में एक गाइडलाइन बनाने का सुझाव दिया गया है । इसके मुताबिक अब वक्त आ गया है कि सरकार इस तरह के मसले को सुलझाने के लिए विशेषज्ञों की एक कमेटी गठित की जानी चाहिए । इस कमेटी में साहित्य और कला के क्षेत्र के महारथियों को सदस्य बनाने का सुझाव दिया गया है । कोर्ट के मुताबिक इस तरह के लोगों की कमेटी प्रो मुरुगन जैसे मसलों में बगैर किसी पूर्वग्रह के अपनी बात को कह सकती है या अपनी राय दे सकती है । कोर्ट ने साफ कहा है कि इस तरह से साहित्य और कला के विवादित मसलों को हम सुर्फ पुलिस और स्थानीय प्रशासन के भरोसे छोड़ नहीं सकते हैं । इसके अलावा लेखकों, कलाकारों को सुरक्षा से लेकर इस तरह के मसलों को सुलझाने के लिए अफसरों को नियमित अंतराल पर ट्रेनिंग ने की बात भी की गई है ।
अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार जो अदालत के इस फैसले से बेहद खुश हो रहे हैं उनको अदालत द्वारा सुझाई गई इस गाइडलाइन पर भी विचार करना चाहिए । सवाल यह है कि जब कानून में इस तरह के मसलों से निबटने के लिए तमाम तरह की धाराएं मौजूद हैं तो फिर एक और कमेटी क्यों । सवाल यह भी है कि हमारे देश में कलाकार और लेखक भी राजनीति के हिस्सा रहे हैं । वो किसी ना किसी पार्टी या लेखक संगठन से जुड़े रहे हैं और ये लेखक संगठन पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ठ हैं यह बाद सार्वजनिक रूप से मान्य है । ऐसे में अगर अदालत किसी निरपेक्ष कमेटी की कल्पना कर रही है तो मेरी समझ से तो ये संभव नहीं है । और फिर अगर किसी सरकार को इसका गठन करना होगा तो फिर तो और भी संभव नहीं है क्योंकि सरकारें अपने हिसाब से इसमें अपने समर्थक लेखक और कलाकारों की नियुक्ति करेगी ।
अब जरा इस फैसले की पृष्ठभूमि में चलते हैं । तमिलनाडू के एक गांव के लोगों के विरोध से परेशान होकर उसी गांव के लेखक प्रो पेरुमल मुरुगन ने पिछले साल लिखना छोड़ने का एलान कर दिया था और कहा था कि एक लेखक की मौत हो गई है । मद्रास हाईकोर्ट के ताजा फैसले के बाद मुरुगन ने फिर से लिखना शुरू करने का एलान कर दिया है । दरअसल ये पूरा विवाद पिछले साल आई प्रोफेसर मुरुगन की किताब को लेकर उठा था । उनका उपन्यास मधोरुबगन जब छपा था तो उसकी थोड़ी सुगबुगाहट शुरू हुई थी लेकिन जब वो अंग्रेजी में वन पार्ट वूमन के नाम से छपा तो विरोध की चिंगारी ज्वाला में तब्दील में हो गई । इस उपन्यास में प्रोफेसर मुरुगन ने तमिल समाज में व्याप्त लैंगिंक और सामाजिक असामनता को कसौटी पर कसा गया था । उपन्यास के प्रकाशन के चार साल के बाद हुए विरोध की ध्वजा तमिल लेखक मुरुगन के गांव तिरुचेनगोडे के लोगों ने ही उठाई थी । जैसे जैसे विरोध बढ़ता गया वैसे वैसे मुरुगन पर दबाव भी बढ़ा और इसी दबाव की वजह से पीस कमेटी की एक बैठक में उन्हें बिना शर्त माफीनामा लिखना पड़ा था और उसके बाद उन्होंने लेखन की मौत का एलान कर दिया था । उसके बाद ये मामला मद्रास हाईकोर्ट में गया और कुछ संगठनों ने याचिका डालकर इस किताब पर पाबंदी लगाने की मांग की । मद्रास हाईकोर्टके चीफ जस्टिस संजय किशन कौल ने याचिका को खारिज करते हुए कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां की । अदालत ने साफ कह दिया कि किसी भी संगठन या संगठनों को  को स्वंयभू सेंसरशिप की इजाजत नहीं दी जा सकती है । विद्वान न्यायधीश संजयकिशन कौल ने याचिका खारिज करते हुए करीब एक सौ साठ पन्नों का फैसला दिया । उनका ये फैसला ऐतिहासिक कहा जा सकता है । ये इस मायने में ऐतिहासिक है कि किताबों पर पाबंदी लगाने की मांगों के बीच इसको नजीर के तौर पर देखा जा सकता है । फैसले में लेखकीय स्वतंत्रता को कायम रखने पर जोर देते हुए कहा गया है कि अगर कोई किसी किताब से इत्तफाक नहीं रखता है या उसमें लिखे हुए शब्दों से उसकी भावनाएं आहत होती हैं तो वो उसको अलग रख दे । फैसले में साफ कहा गया है कि कोई भी चीज जो पहले स्वीकार्य ना हो वो बाद में स्वीकार की जा सकती है । न्यायाधीश ने इस संबंध में लेडी चैटर्लीज लवर का उदाहरण भी दिया । उन्होंने टिप्पणी की कि- किसी किताब को पढ़ने या ना पढ़ने का विकल्प पाठकों के पास होता है । अगर कोई किताब पसंद नहीं हो तो उसे फेंक दीजिए । किसी किताब को पढ़ने की कोई मजबूरी नहीं है ।
अदालत ने अपने फैसले में अश्लीलता पर भी टिप्पणी की और कहा कि अगर किसी किताब में इरोटिका को उभारा गया है तो क्या गलत है । हमारे देश में इस तरह की परंपरा रही है ।
लेकिन इस फैसले को अंतिम सत्य मान लेनेवालों को एर अन्य फैसले को भी ध्यान में रखना चाहिए । मशहूर चित्रकार एम एफ गुसैन हुसैन के उन्नीस सौ सत्तर में बनाए गए सरस्वती और दुर्गा की नग्न तस्वीरों के एक मामले में दो हजार चार में दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस जे डी कपूर का एक फैसला आया था । जस्टिस कपूर ने आठ अप्रैल दो हजार चार के अपने फैसले में लिखा-
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि देश के करोड़ो हिंदुओं की इन देवियों में अटूट श्रद्धा है- एक ज्ञान की देवी हैं तो दूसरी शक्ति की । इन देवियों की नग्न तस्वीर चित्रित करना इन करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना तो है ही साथ ही उन करोड़ों लोगों की धर्म और उसमें उनकी आस्था का भी अपमान है । शब्द, पेंटिंग, रेखाचित्र और भाषण के माध्यम से अभिव्यक्ति की आजादी को संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा हासिल है जो कि हर नागरिक के लिए अमूल्य है । कोई भी कलाकार या पेंटर मानवीय संवेदना और मनोभाव को कई तरीकों से अभिव्यक्त कर सकता है । इन मनोभावों और आइडियाज की अभिव्यक्ति को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता है । लेकिन कोई भी इस बात को भुला या विस्मृत नहीं कर सकता कि जितनी ज्यादा स्वतंत्रता होगी उतनी ही ज्यादा जिम्मेदारी भी होती है । अगर किसी को अभिव्यक्ति का असीमित अधिकार मिला है तो उससे यह अपेक्षित है कि इस अधिकार का उपयोग अच्छे कार्य के लिए करे ना कि किसी धर्म या धार्मिक प्रतीकों या देवी देवताओं के खिलाफ विद्वेषपूर्ण भावना के साथ उन्हें अपमानित करने के लिए । हो सकता है कि ये धर्मिक प्रतीक या देवी देवता एक मिथक हों लेकिन इन्हें श्रद्धाभाव से देखा जाता है और समय के साथ ये लोगों के दैनिक धर्मिक क्रियाकलापों से इस कदर जुड़ गए हैं कि उनके खिलाफ अगर कुछ छपता है, चित्रित किया जाता है या फिर कहा जाता है तो इससे धार्मिक भावनाएं आहत होती है । किसी भी खास धर्म के देवी देवताओं की आपत्तिजनक या नीचा दिखाने वाले रेखाचित्र या फिर पेंटिंग समाज में वैमनस्यता और एक दूसरे के प्रति नफरत पैदा करते हैं ।  जस्टिस कपूर ने अपने फैसले में और भी कई सख्त टिप्पणियां की थीं । उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के भी कई फैसले इस तरह के मामलों में आ चुके हैं ।
अपने फैसले में जस्टिल कौल ने एक सौ सतासीवें पैरा में साफ कहा है कि प्रो मुरुगन ने अपने उपन्यास में साफ कहा है कि उन्होंने अपने शोध के आधार पर कुछ तथ्यों को सामने रखा है । इस फैसले से एक और बात साफ होती है कि इस तरह के मसलों पर विचार करते समय लेखक या चित्रकार की मंशा का भी ध्यान रखना चाहिए । उसके बगैर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं होता है । इस तरह के विवादित मसले का निबटारा अदालत से ही हो क्योंकि अगर कोई कमेटी बनती है तो उसका निष्पक्ष रह पाना मुमकिन नहीं है, सरकार द्वारा गठित कमेटी सरकार की रीतियों और नीतियों के हिसाब से चलती हैं, ऐसा पूर्व में देखा जा चुका है ।  



राजनीति से दूर क्यों कविता ?

गुरुवार को साहित्य अकादमी दिल्ली की लिटरेरी फोरम ने भारतीय भाषाओं के लेखकों के रचना पाठ का आयोजन किया था । हिंदी, अंग्रेजी और उड़िया के कथाकार और कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया । इस पाठ के बाद सवाल जवाब का दौर था । वो भी खत्म हो गया लेकिन जो सवाल अनुत्तरित रह गया या पूछा नहीं जा सका वो था कविता से समकालीनता का गायब होना । उड़िया के कवि मानस रंजन माहापात्र ने कई कविताएं सुनाईं । उन्होंने ओडिया के अलावा अंग्रेजी और हिंदी में अनूदित कविताएं भी सुनाई । ओडिया से हिंदी में सुजाता शिवेन द्वारा अनूदित कविता भी थी । महापात्र साहब की कविताओ से समकालीनता गायब नजर आ रही थी । वहां अब भी चांद, चिड़िया, मौसम आदि थे । संभव है कि उनकी कविताओं में इनके अलावा अन्य शेड्स भी मौजूद रहे हों लेकिन उन्होंने जिन कविताओं का उन्होंने पाठ किया उनमें समकालीनता गायब थी । पिता के अखबारों को पढ़ने को लेकर लिखी गई कविता में थोड़ी बहुत इस तरह की चीजें अवश्य आ रही थीं लेकिन वो बहुत कम थी। ओडिया कविता को लेकर बहुधा यह बात कही जाती है कि उसमें अब भी पौराणिकता और मिथक हावी रहते हैं । दरअसल इसकी जो वजह मुझे समझ आती है वो यह कि ओडिया के ज्यादातर लेखक अफसर रहे हैं । चाहे वो सीताकांत महापात्र हों, रमाकांत रथ, तरुणकांति मिश्रा, बिपिन बिहारी मिश्रा हों या फिर अभी हाल में अपनी कहानी संग्रह को लेकर चर्चा में आ पारमिता शतपथी हों  । ये सभी प्रशासनिक और पुलिस सेवाओं में रहे हैं । इनकी रचनाओं में व्यवस्था पर चोट नहीं दिखाई देता है तो बात समझ में आती हैं । क्योंकि अखिल भारतीय सेवाओं में रहते हुए सेवा शर्तों का पालन करना आवश्यक होता है ।  लेकिन जब प्रोफेसर रहीं प्रतिभा राय जैसी लेखिका भी अपनी रचनाओं में समकालीनता को विषय नहीं बनाती हैं या कम बनाती हैं तो उनके लेखन पर सवाल उठते हैं ।
हिंदी कविता में भी समकालीनता या समाज या राजनीति में हो रहे बदलाव को उकेरने की कोशिश कहां नजर आती हैं । एक जमाना था जब दिनकर, नागार्जुन, श्रीकांत वर्मा और रघुवीर सहाय अपने समय, समाज और राजनीति को अपनी कविताओं में बेहद शिद्दत के साथ उकेरते थे लेकिन पता नहीं क्यों इस वक्त के कवि राजनीति पर हाथ ही नहीं रखना चाहते हैं । या अगर इस तरह की कविताएं लिखी जा रही हैं तो उसके प्रकाशन का व्यापक प्रचार या उसको पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश नहीं की जा रही है । क्या कविता के समाज से या पाठकों से दूर होने की यही वजह है । इस बात पर कवि समाज को गंभीरता से विचार करना होगा । अगर कहीं छिटपुट राजनीतिक कविताएं लिखी भी जा रही हैं तो उसको पाठकों तक पहुंचाने के लिए यत्न क्यों नहीं हो रहा है ।

इस वक्त हिंदी में चार साहित्यक मासिक पत्रिकाएं – नया ज्ञानोदय, हंस, पाखी और कथादेश- निकल रही हैं । मेरे अपने आंकलन के मुताबिक चारों की संयुक्त प्रसार संख्या पचास हजार के आसपास होगी । इनमें भी अगर इल तरह की कोई कविता छपती है तो वो हिंदी के व्यापक समाज तक नहीं पहुंच पाती है । इम पत्रिकाओं के अलावा कवियों को ई पत्रिकाओ में अपनी रचनाएं छपवाने की कोशिश करनी होगी । कविता को अगर फिर से पाठकों के बीच लोकप्रियता हासिल करनी है तो उसको समकालीनता को अपनाना होगा । इस वक्त की राजनीति पर चोट कनी होगी । दिनकर और नागार्जुन की चरह कवि को अपनी कविताओं में नेताओं को चुनौती देनी होगी । अगर कवि ऐसा कर पाते हैं तो कविता को लोकप्रिय होने से कोई रोक नहीं सकेगा ।  

Sunday, July 17, 2016

मगही के ‘कबीर’ का स्मरण

साहित्य में इस बात पर बहुधा चिंता प्रकट की जाती है कि युवा साहित्य की ओर नहीं आ रहे हैं । युवाओं को जोड़ने की भाषा को समकालीन साहित्यकार विकसित नहीं कर पा रहे हैं । युवाओं की चाहतों और ख्वाहिशों को कहानी और उपन्यास में जगह नहीं मिल पा रही है । इस बात को लेकर भी साहित्य जगत में खूब मंथन होता है कि युवाओं को साहित्य की ओर कैसे लाया जाए । यह बात भी कई बार की जाती है कि साहित्यक पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता आदि छपने पर सिर्फ बुजुर्ग लेखकों की ही प्रतिक्रिया मिलती है । अपना अनुभव भी कुछ इसके ही आसपास का है । ऐसा बहुत कम होता है कि कोई कम उम्र का पाठक की ओर से ऐसी प्रतिक्रियया या सूचना हीमिलती हो कि उन्होंने अमुक लेख या अमुक रचना हंस या पाखी में पढ़ी । टेलीविजन की तरह पत्रिकाओं में इस तरह की कोई तकनीक विकसित नहीं हो पाई है जिससे पता लग जाए कि किस आयु वर्ग के पाठक कौन सी पत्रिका या अखबार पढ़ते हैं । सर्वे आदि से इसका अनुमान लगाया जाता है । साहित्यक पत्रिकाओं के लिए तो ये अनुमान भी नहीं लगाया जाता है । ये पता लगाना लगभग असंभव है कि कौन सी साहित्यक पत्रिका किस आयुवर्ग के पाठक पढ़ते हैं ।  पाठकों की मिलने वाली प्रतिक्रिया से और गोष्ठियों आदि में उपस्थित श्रोताओं की उम्र से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है । कितना सही या कितना गलत होगा ये कहना मुश्किल है ।
इतना तय है कि साठ और सत्तर के दशक में युवाओं में साहित्य को लेकर जो क्रेज था उसकी कमी आज दिखाई देती है । हिंदी साहित्य में इस कमी को कैसे दूर किया जाए इसपर गंभीरता से विचार होना चाहिए । इसकी अगर हम पड़ताल करें तो यह पाते हैं कि दशकों से हिंदी में यह परंपरा चल रही थी कि कविता कहानी और उपन्यास के अलावा साहित्येतर विषयों पर लेखन नहीं हो रहा था । नतीजा हम सबके सामने हैं हिंदी साहित्य से कई विधाएं लगभग गायब होती चली गईं और पाठक वही वही पढ़कर उबते चले गए । युवाओं में बेहद लोकप्रिय फिल्म और संगीत पर लिखनेवालों को हेय दृष्टि से देखने या फिर बुर्जुआ विचाधारा के पोषक माने जाने की वजह से नए लेखकों ने फिल्म पर संजीदगी से नहीं लिखा । इस वजह से भी पाठक तो खोते ही चले गए, युवा भी हिंदी साहित्य से दूर होकर अंग्रेजी की ओर बढ़ चला। कहानी और उपन्यास में एक खास किस्म की विचारधारा और यथार्थ को बढ़ावा देने की कोशिश ने भी युवाओं को साहित्य से दूर किया । इस शताब्दी की शुरुआत में ही कई युवा लेखकों ने इस ठस सिद्धांत पर अपनी रचनाओं के माध्यम से हमला किया लेकिन फिर भी बहुतायत में लेखक में उसी लीक पर चलते रहे । नतीजा युवा पाठक दूर होते चले गए ।
साहित्य संस्कृति के मामले में बिहार की भूमि उर्वरा रही है । पाठकों के मामले में भी बिहार को अव्वल स्थान हासिल है । पत्र-पत्रिकाएं सबसे ज्यादा बिहार में ही बिकती हैं चाहे वो अखबार हो या पाक्षिक पत्रिका या फिर साहित्यक लघु पत्रिकाएं । इन सबके पाठक सबके सबसे ज्यादा पाठक बिहार में ही हैं । इसी बिहार की धरती पर एक ऐसी शुरुआत हुई है जिसने युवाओं के साहित्य से दूर होते जाने की बात को थोड़ा ही सही निगेट किया है । बिहार में एक स्थान है बड़हिया, समृद्ध किसानों से लेकर काश्तकारों और जमींदारों का वहां बोलबाला रहा है । बड़हिया के लोग बिहार में अपनी दबंगई की वजह से जाने जाते हैं । एक बार अटल बिहारी वाजपेयी वहां चुनावी सभा में गए थे तो उन्होंने बड़हिया को अपने ही अंदाज में व्याख्यायित किया था । अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने उम्दा भाषण में कहा था कि बड़ा है जहां के लोगों का हिया बड़ा है वही है बड़हिया । हिया यानि दिल । यानि जहां के लोगों का दिल बड़ा है वही बड़हिया है ।
अभी उसी बड़े दिलवाले जगह बड़हिया में करीब सौ युवाओं ने एक अनूठी पहल की है । बड़हिया के ये सौ युवा नौकरी आदि की तलाश में अपने गांव से बाहर रहते हैं लेकिन बार बार लौट कर अपनी जड़ों की तरफ लौटते हैं । युवाओं के इस समूह ने बड़हिया ने साहित्य को लेकर एक बड़ा फैसला किया । उन्होंने तय किया कि बड़हिया में पैदा हुए मशहूर मगही कवि मथुरा प्रसाद नवीन की एक प्रतिमा वहां लगाई जाएगी । इस दौर में जब नेताओं से लेकर संविधान निर्माता अंबेडकर तक की मूर्तियां लगाने का चलन है, मायावती जैसी नेता खुद की मूर्तियां लगवा रही हैं वैसे माहौल में सौ युवाओं का एक समूह अगर ये फैसला लेता है कि एक कवि की मूर्ति लगानी है तो यह एक सुखद आश्चर्य से भर देता है । इन युवाओं ने ये तय किया कि मगही के महान कवि मथुरा प्रसाद नवीन की याद में जो मूर्ति लगाई जाएगी वो जन सहयोग से लगाई जाएगी । इसके लिए उन युवाओं ने फैसला किया कि बड़हिया के हर घर से एक एक रुपया चंदा लिया जाएगा । हर घर से एक रुपया चंदा लेने के पीछे ती सोच ये थी कि यह लगे कि सबके सहयोग से ये मूर्ति लगाई जा रही है । मुझे बताया गया कि जात-पात से उपर उठकर बड़हिया के ये उत्साही युवक हर घर में गए और वहां से एक एक रुपया इकट्ठा किया । किसी ने एक की जगह दस दिए तो किसी ने पांच तो किसी ने सौ । राशि जमा होने के बाद मथुरा प्रसाद नवीन की प्रतिमा समारोहपूर्वक स्थापित कर दी गई । यह अपनी तरह का अनूठा प्रयास है । मथुरा प्रसाद नवीन मगही के महान कवि हैं और उस अंचल में उनको मगही का कबीर भी कहा जाता है ।
मुझे ठीक से याद नहीं है लेकिन मथुरा प्रसाद नवीन हमारे आमंत्रण पर एक बार जमालपुर आए थे । सर्दियों के दिन थे और वो सर पर चादर लपेटे हुए जब जमालपुर रेलवे स्टेशन पर उतरे थे तो हमको लगा था कि कवि नहीं कोई किसान उतर रहा है । चादर को गांती की तरह बांधकर ठंड से मुकाबला कर रहे मथुरा प्रसाद नवीन जब अगले दिन कविता सुनाने लगे तो पूरा सभागार उनकी कविताओं पर मुग्ध था । करीब दो दशक पहले सुनाई गई उनकी एक कविता अब भी मेरे स्मरण में है – शब्द शब्द में शोला भरके तोहरे गीत सुनएबो हम, कसम खाहियो गंगाजी के कलम न कभी घुमैयबो हम, तोहरे खातिर सबकुछ करबो, भुक्खल भी मुस्कयबो हम, अत्याचार मिटैबे खातिर सुक्खल चना चबैवो हम । अब इन पंक्तियों में कवि जिस तरह से कहता है कि अत्याचार मिटाने की खातिर सूखा चना चबाने के लिए वो तैयार है उससे उनके तेवरों का अंदाजा लगाया जा सकता है ।
उन्नीस सौ अट्ठाइस में जन्मे मथुरा प्रसाद नवीन को अपने समय के सारे बड़े साहित्यकारों का स्नेह प्राप्त था जिसमें निराला से लेकर दिनकर तक शामिल थे । नवीन जी ने मगही के अलावा हिंदी में भी कविताएं लिखी – लो लिख लो मेरी बातों को, क्रांति के उत्पातों को / हो गए मूर्ख विद्वान यहां , गंजे हो गए महान यहां/दलाल लगे कविता करने, कविराज गए जंगल चरने/तिकड़म के लाखों गेट यहां, मालिश का ऊंचा रेट यहां/नेता से मुश्किल भेंट यहां, मंत्री का भारी पेट यहां । अब इस कविता में कवि रेंज को देखिए, चार पंक्तियों में उन्होंने साहित्य से लेकर समाज और राजनीति की विद्रूपताओं को बेनकाब कर दिया । कविता की उस वक्त की स्थिति पर कैसा प्रहार है । अपने समय पर प्रहार का सहास दिखानेवाले इस कवि मथुरा प्रसाद नवीन को हमारे हिंदी समाज ने लगभग भुला दिया है । बिहार में एक मगही अकादमी हुआ करती थी,शायद अब भी हो लेकिन वो क्या करती है ये शायद पटना के साहित्यकारों को भी ज्ञात नहीं है । जो इसके कर्ताधर्ता होंगे उनको सहूलियतें आदि मिल रही होंगी लेकिन अपने कवियों और लेखकों की रचानओं को सहेजने और उसको विकसित करने का काम ये अकादमियां नहीं कर पा रही हैं । संभव है कि इस कार्यक्रम में उनकी बागीदारी हो लेकिन पहल युवाओं की है।  साहित्य की इसी उदासीनता पर मथुरा प्रसाद नवीन जी ने तल्ख टिप्पणी की है – तुलसीदास तमाशा देखो, तिकड़म कैसन चल रहलो है/ पूजा पर बैठल बाबा जी खैनी-चूना मल्ल रहल हो । अब इस तरह की पंक्तियों को देखकर या पढ़कर बरबस कबीर की याद आ जाती है । कबीर भी इसी फक्कड़पने के अंदाज में इपनी बात कहा करते थे और समाज की विसंगतियों पर प्रहार करते चलते थे । कबीर की ही तरह मथुरा प्रसाद नवीन को भी जिंदगी में अपमानित होना पड़ा था। उनको उनके जीवन काल में वो सम्मान नहीं मिल पाया जिसके वो हकदार थे ।  मगही के इस कबीर को जिस तरह से वहां के युवाओं ने अपनी अनूठी पहल से याद किया है वो साहित्यप्रेमियों के लिए सुकून देनेवाला है और साहित्य अकादमियों को चुनैती भी ।


Wednesday, July 13, 2016

लेखकीय स्वतंत्रता और अदालत

अपने गांव के लोगों के विरोध से परेशान होकर तमिल लेखक प्रो पेरुमल मुरुगन ने पिछले साल लिखना छोड़ने का एलान कर दिया था । उस वक्त मीडिया में इस बात को लेकर व्यापक चर्चा हुई थी । इसको समाज में बढ़ती असहिष्णुता के तौर पर भी देखा और कहा गया था । जैसा कि बहुधा ये होता है कि उत्साह के तर्क हमेशा सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं और ऐसे ऐसे विशेषणों का इस्तेमाल हो जाता है कि वहां से वापस लौटने की गुंजाइश नहीं बनती है । मुरुगन के लेखन छोड़ने के एलान के वक्त भी कुछ ऐसा ही हुआ था । तब कई उत्साही लेखकों प्रोफेसर मुरुगन के इस कदम को एक लेखक की मौत तक करार दिया था । अब वही उत्साही लेखक खामोश हैं क्योंकि मुरुगन ने फिर से लिखना शुरू करने का एलान कर दिया है । दरअसल ये पूरा विवाद पिछले साल आई प्रोफेसर मुरुगन की किताब को लेकर उठा था । उनका उपन्यास मधोरुबगन जब छपा था तो उसकी थोड़ी सुगबुगाहट शुरू हुई थी लेकिन जब वो अंग्रेजी में वन पार्ट वूमन के नाम से छपा तो विरोध की चिंगारी ज्वाला में तब्दील में हो गई । इस उपन्यास में प्रोफेसर मुरुगन ने तमिल समाज में व्याप्त लैंगिंक और सामाजिक असामनता को कसौटी पर कसा गया था । उपन्यास के प्रकाशन के चार साल के बाद हुए विरोध की ध्वजा तमिल लेखक मुरुगन के गांव तिरुचेनगोडे के लोगों ने ही उठाई थी । जैसे जैसे विरोध बढ़ता गया वैसे वैसे मुरुगन पर दबाव भी बढ़ा और इसी दबाव की वजह से पीस कमेटी की एक बैठक में उन्हें बिना शर्त माफीनामा लिखना पड़ा था और उसके बाद उन्होंने लिखना बंद करने का एलान किया था । उसके बाद ये मामला मद्रास हाईकोर्ट में गया और कुछ संगठनों ने याचिका डालकर इस किताब पर पाबंदी लगाने की मांग की । संतोष की बात ये है कि मद्रास हाईकोर्टके चीफ जस्टिस संजय किशन कौल ने याचिका को खारिज करते हुए कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां की । अदालत ने साफ कह दिया कि किसी भी संगठन या संगठनों को  को स्वंयभू सेंसरशिप की इजाजत नहीं दी जा सकती है । विद्वान न्यायधीश संजयकिशन कौल ने याचिका खारिज करते हुए करीब एक सौ साठ पन्नों का फैसला दिया । उनका ये फैसला ऐतिहासिक कहा जा सकता है । ये इस मायने में ऐतिहासिक है कि किताबों पर पाबंदी लगाने की मांगों के बीच इसको नजीर के तौर पर देखा जा सकता है । फैसले में लेखकीय स्वतंत्रता को कायम रखने पर जोर देते हुए कहा गया है कि अगर कोई किसी किताब से इत्तफाक नहीं रखता है या उसमें लिखे हुए शब्दों से उसकी भावनाएं आहत होती हैं तो वो उसको अलग रख दे । फैसले में साफ कहा गया है कि कोई भी चीज जो पहले स्वीकार्य ना हो वो बाद में स्वीकार की जा सकती है । न्यायाधीश ने इस संबंध में लेडी चैटर्लीज लवर का उदाहरण भी दिया । उन्होंने टिप्पणी की कि- किसी किताब को पढ़ने या ना पढ़ने का विकल्प पाठकों के पास होता है । अगर कोई किताब पसंद नहीं हो तो उसे फेंक दीजिए । किसी किताब को पढ़ेन की कोई मजबूरी नहीं है ।

अदालत ने अपने फैसले में अश्लीलता पर भी टिप्पणी की और कहा कि अगर किसी किताब में इरोटिका को उभारा गया है तो क्या गलत है । हमारे देश में इस तरह की परंपरा रही है । इस फैसले में लेखकों की अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे को परिभाषित किया गया है । बावजूद इसके हमारे देश में जबतक आईपीसी की धारा 295 ए है तबतक लोगों की भावनाएं आहत होती रहेंगी । इस फैसले में अभिव्यक्ति की आजादी और विरोध प्रदर्शनों की समस्या को हल करने के लिए सरकार के स्तर पर भी विशेषज्ञों की कमेटी का सुझाव ऐसा है जिसपर व्यापक बहस की जरूरत है । क्योंकि लेखकीय स्वतंत्रता की भी एक सीमा तो होती ही है । 

Sunday, July 10, 2016

साहित्य के चुनावी हथकंडे

सांप्रदायिकता- ये एक ऐसा विषय है जो हमारे पढ़े लिखे समाज के एक वर्ग को हमेशा से मथता रहता है । हमारे इस बौद्धिक वर्ग को सांप्रदायिकता के खिलाफ बार-बार खड़ा भी होना पड़ता है । होना भी चाहिए ।  हमारे समाज का ये कथित बौद्धिक वर्ग सांप्रदायिकता को लेकर तब और भी उद्वेलित होने लगता है जब राज्यों या केंद्र में मनमाफिक सरकारें ना हों । एक विचारधारा विशेष के आवरण में लिपटे ये लोग सांप्रदायिकता तो कई बार असहिष्णुता तो कभी अभिवयक्ति की आजादी पर आसन्न खतरे को लेकर व्याकुल नजर आते हैं । इनकी ये व्याकुलता नाटकों, लेखों से लेकर पुरस्कार वापसी तक में नजर आती है । सांप्रदायिकता के इन चैंपियनों को ये विषय तब और परेशान करने लगता है जब देश के किसी हिस्से में चुनाव आदि की आहट सुनाई देने लगती है । ताजा मामला सामने आ रहा है कर्नाटक से जहां से खबर आ रही है कि थिएटर एक्टिविस्ट प्रसन्ना महात्मा गांधी की उन्नीस सौ नौ में लिखी किताब हिंद स्वराज के आधार पर एक नाटक तैयार किया है जिसका मंचन पूरे कर्नाटक में किया जाएगा । योजना के मुताबिक अलग अलग गांवों के अलावा इसका मंचन स्कूल और कॉलेजों में भी किया जाएगा । इस नाटक का उद्देश्य सांप्रदायिकता के खतरों से लोगों को आगाह करना है । हिंद स्वराज गांधी की ऐतिहासिक किताब है जिस पर पहले ब्रिटिश शासकों ने प्रतिबंध लगा दिया था । मूल रूप से गुजराती में लिखी गई इस किताब का बाद में अंग्रेजी में अनुवाद हुआ और फिर कई अन्य भाषाओं में अनुदित होकर छपा और लोगों को गांधी के इस विचार को जानने  समझने का मौका मिला ।
इस किताब के आधार पर तैयार किए गए नाटक को प्रसन्ना ने संपादित कर आधुनिक रूप देने की कोशिश की है । प्रसन्ना ने तो ये भी दावा किया है कि कुछ अंशों को जस का तस रखा गया है जैसा बापू ने लिखा था । इस नाटक में गांधी एक जगह कहते हैं – गाय को बचाने के लिए क्या मुझे किसी मुसलमान से लड़ना चाहिए या उसकी हत्या कर देनी चाहिए ? अगर हमने ऐसा किया तो हम मुसलमानों के दुश्मन बन जाएंगे और गायके भी । गाय संरक्षण का एकमात्र तरीका जो मैं जानता हूं, वह यह है कि मैं अपने मुसलमान भाइयों से हाथ जोड़कर अनुरोध करूं । अगर वो मेरी बात नहीं सुनते हैं तो मुझे गाय को छोड़ देना चाहिए, यह मानकर कि ये मामला मेरे वश का नहीं है । अब यहीं से चुनिंदा जानकारी देने का खेल शुरू होता है । मोहनदास करमचंद गांधी एक ऐसी शख्सियत थे जो अपने विचारों को लगातार परिमार्जित करते रहते थे । सत्य और अहिंसा दो ही ऐसी अवधारणा दिखाई देती है जिसका परिमार्जन बापू के लेखन में नहीं दिखाई देता है अन्यथा वो अपने विचारों को लगातार अपडेट करते रहे हैं । मैं जो कह रहा हूं वो अपने अध्ययन के आधार पर कह रहा हूं । बापू ने विपुल लेखन किया है औप उसको पूरा पढ़ने का दावा कम ही लोग कर सकते हैं ।
गोरक्षा पर बापू के विचार उन्नीस सौ नौ में जो थे उससे किसी को इंकार नहीं है । किसी भी स्तर पर किसी भी तरह की हिंसा अक्षम्य है और हिंसा करनेवाले को कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए । लेकिन बापू ने छह अक्तूबर उन्नीस सौ इक्कीस में यंग इंडिया में गोरक्षा पर क्या लिखा ये देखने की जरूरत है – हिन्दु धर्म की मुख्य वस्तु है गोरक्षा । गोरक्षा मुझे मनुय के सारे विकासक्रम में सबसे अलौकिक वस्तु मालूम हुई है । ...हिन्दुस्तान में गाय ही मनुष्य का सबसे सच्चा साथी, सबसे बड़ा आधार था । यही हिन्दुस्तान की कामधेनु थी । वह सिर्फ दूध ही नहीं देती थी, बल्कि सारी खेती का आधार स्तंभ थी । गाय दया धर्म की मूर्तिमंत कविता है । इस गरीब और शरीफ जानवर में हम केवल दया ही उमड़ती देखते हैं । यह लाखों करोड़ों हिन्दुस्तानियों को पालनेवाली माता है । इस गाय की रक्षा करना ईश्वर की सारी मूक सृष्टि की रक्षा करना है । जिस अज्ञात ऋषि या द्रष्टा ने गोपूजा चलाई उसने गाय से शुरुआत की । इसके सिवा कोई और ध्येय हो ही नहीं सकता है । गोरक्षा हिन्दू धर्म की दुनिया को दी हुई एक कीमती भेंट है । और हिंदू धर्म भी तभी तक रहेगा, जबतक गाय की रक्षा करनेवाले हिन्दू हैं ।‘  आखिरी पंक्ति पर ध्यान देने की जरूरत है । ईमानदारी तो यही होती कि गोरक्षा पर गांधी के विचारों को समग्रता में जनता के सामने रखा जाता । गांधी ने इसके बाद भी समय समय पर काल और परिस्थिति के हिसाब से गोरक्षा पर अपने विचार रखे हैं जो यंग इंडिया के सात जुलाई उन्नीस सौ सत्ताइस और हरिजन सेवक के इक्कीस सितंबर उन्नीस सौ चालीस के अंक में प्रकाशित हैं । सवाल फिर वहीं आकर खड़ा हो जाता है कि हम चुनिंदा तरीके से किसी बात को पेश करके हासिल क्या करना चाहते हैं । क्या ये बौद्धिक बेइमानी नहीं है । या फिर किसी खास मकसद से नहीं किया जा रहा है
कर्नाटक में दो हजार अठारह में विधानसभा चुनाव हैं । इलस वक्त वहां कांग्रेस की सरकार है और बीजेपी ने येदियुरप्पा को वहां की कमान सौंप कर अपने इरादे साफ कर दिए हैं । कर्नाटक में कांग्रेसी मुख्यमंत्री की कार्यशैली को लेकर उनकी खुद की ही पार्टी के लोग उको कठघरे में खड़े कर चुके हैं । देवगौडा की पार्टी जेडीएस अभी आंतरिक संघर्षों से ही जूझ रही है । ऐसे माहौल में हिंद स्वाराज का गांव-गांव में जाकर मंचन और सांप्रदायिकता के खिलाफ लोगो के जागरण के मंसूबों के एलान राजनीति के आंगन का नाच दिखाई देता है । इन नाटकों का मंचन कन्नड़ और अंग्रेजीमें होगा और एक कैंपेन की तरह से किया जाएगा ताकि कर्नाटक में संप्रदायिकता के खिलाफ लोग जागृत हो सकें । इल कैंपेन से जुड़े लोग जिस तरह की बोली बोल रहे हैं वो भी उनकी प्रतिबद्धता को साफ करते हैं । हिटलर, नाजी शासन आदि शब्दावली का उपयोग धड़ल्ले से हो रहा है । एक बार फिर से सवाल वही कि चुनाव के वक्त क्यों । क्या कर्नाटक में सांप्रदायिकता इस वक्त का मुद्दा है । क्या उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकता कोई मुद्दा नहीं है जहां दोनों पक्ष के लोग इस मसले को हवा देकर सियासी फसल काटने की कोशिश में जुटे हैं । यहां की सरकार को लेकर हमारे बौद्धिकों का एक वर्ग कमोबेश खामोश रहता है ।
पाठकों को याद होगा कि बिहार चुनाव के वक्त किस तरह से पुरस्कार वापसी को लेकर माहौल बनाने की कोशिश की गई थी । छोटे मोटे धरने आदि भी असहिष्णुता के खिलाफ दिए गए थे । मुंह पर काली पट्टी बांधे चंद लेखकों का साहित्य अकादमी के बाहर जमावड़ा भी हुआ था लेकिन चुनाव में बीजेपी की पराजय के बाद सब शांत हो गया । क्या देश की स्थिति, अगर खराब थी तो , ठीक हो गई । क्या असहिष्णुता समाप्त हो गई । क्या सांप्रदायिकता की जगह सांप्रदिक सौहार्द ने ले ली । नहीं । स्थिति कमोबेश वैसी ही है । मीडिया में इस तरह की भी खबरें हैं कि पुरस्कार वापसी के कुछ अगुवा बिहार सरकार से पद आदि की ख्वाहिश भी जता चुके हैं । खैर ये अवांतर प्रसंग होगा जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी । पानसरे, दाभोलकर और कालबुर्गी हत्याकांड की जांच की प्रगति को देखें तो येसाफ हो जाएगा कि कौन सी सरकार कितना आगे बढ़ा पाई है ।
दरअसल साहित्य, कला और संस्कृति को भी हमारे विचारधारा से सराबोर लेखकों ने राजनीति का अखाड़ा बना दिया है । इसके लिए बहुत हद तक लेखक संगठन जिम्मेदार हैं जो विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ठ की तरह काम करते रहे । नतीजा यह हुआ कि इन संगठन से जुडे लेखक उस राजनीतिक दल के कार्यकर्ता बनकर रह गए । मुझे याद है कि अस्सी के दशक में साहित्यक कार्यक्रमों में इस बात का उल्लेख किया जाता था कि अमुक लेखक सीपीआई का होल टाइमर या कार्ड होल्डर रहा है । और ये बात साहित्यक मंच पर बेहद गर्व से बताई जाती थी और हम जैसे नए लोगों से ये अपेक्षा की जाती थी कि उन होल टाइमर को बड़ा लेखक मानें । साहित्य को समाज के आगे चलनेवाली मशाल से राजनीति का पिछलग्गू बना देने की जिम्मेदारी इन लेखक संगठनों और इनके कर्ताधर्ताओं पर है । अब जब ये लेखक संगठन कमजोर हो गए हैं तो अलग अलग तरीके से व्यक्तिगत प्रयासों से राजनीति की जा रही है । कर्नाटक में सांप्रदायिकता के खिलाफ माहौल बनाना एक अच्छी पहल है । इसका स्वागत होना चाहिए लेकिन जिस तरीके से गांधी के गोरक्षा पर विचारों को समग्रता में पेश नहीं किया जा रहा है वो खतरनाक और चिंता की बात है । और यही बात उनकी मंशा को भी संदेहास्पद बनाती है ।    


Saturday, July 2, 2016

मन और मांग का साहित्य

इस बात पर हिंदी जगत में व्यापक और गंभीर विमर्श नहीं हुआ है कि सिनेमा और सिनेमा लेखन को लेकर हिंदी के साहित्यकार इतने उदासीन क्यों रहते हैं । किस वजह से सिनेमा के लिए गीत लिखनेवालों को हिंदी के कवियों में शुमार नहीं किया जाता है । वो कौन सी वजह से कि कविता की दुनिया में गुलजार को वो स्थान हासिल नहीं होता है जो कुंवर नारायण या केदारनाथ सिंह को है । प्रसून जोशी को हिंदी साहित्य की दुनिया में वो प्रतिष्ठा हासिल नहीं हो पाती है जो अरुण कमल या राजेश जोशी कवियों को मिली हुई है । यह सूची और भी लंबी हो सकती है लेकिन हमारा मकसद नामों को गिनाना नहीं है बल्कि हमारा मकसद हिंदी साहित्य और सिनेमा के संबंधों की पड़ताल करना है । एक तो रही ये बात दूसरी बात ये कि हिंदी साहित्य से जुड़े ज्यादातर लेखक फिल्मों में ज्यादा सफल क्यों नहीं हो पाए और वापस साहित्य की दुनिया की ओर लौट आए । प्रेमचंद, अमृत लाल नागर, उपेन्द्र नाथ अश्क, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, गोपाल सिंह नेपाली, सुमित्रा नंदन पंत जैसे साहित्यकार अपने शुरुआती दिनों में फिल्मों से जुड़े लेकिन जल्द ही उनका मोहभंग हुआ और वो वापस साहित्य की दुनिया में लौट आए । प्रेमचंद के सिनेमा से मोहभंग को रामवृक्ष बेनीपुरी ने अपने संस्मरण में लिखा है- 1934 की बात है । बंबई में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था । इन पंक्तियों का लेखक कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल होने आया ।  बंबई में हर जगह पोस्टर चिपके हुए थे कि प्रेमचंद जी का मजदूर अमुक तारीख से रजतपट पर आ रहा है । ललक हुई, अवश्य देखूं कि अचानक प्रेमचंद जी से भेंट हुई । मैंने मजदूर की चर्चा कर दी । बोले यदि तुम मेरी इज्जत करते हो तो ये फिल्म कभी नहीं देखना । यह कहते हुए उनकी आंखें नम हो गईं । और, तब से इस कूचे में आने वाले जिन हिंदी लेखकों से भेंट हुई सबने प्रेमचंद जी के अनुभवों को ही दोहराया है । अब ऐसा क्यों कर हुआ कि हमारे हिंदी साहित्य के हिरामन फिल्मों से इस कदर आहत हो गए । क्यों सुमित्रानंदन पंत जैसे महान कवि के लिखे गीतों को फिल्मों में सफलता नहीं मिल पाई, क्यों गोपाल सिंह नेपाली जैसे ओज के कवि को फिल्मों में आंशिक सफलता मिली । क्यों राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर जैसे शब्दों के जादूगर फिल्मों में अपनी सफलता का डंका बजाते हुए लंबे वक्त तक कायम नहीं रह सके । राजेन्द्र यादव की जिस कृति सारा आकाश पर उसी नाम से बनी फिल्म को समांतर हिंदी सिनेमा की शुरुआती फिल्मों में शुमार किया जाता है वो राजेन्द्र यादव बाद के दिनों में फिल्म से विमुख क्यों हो गए । दरअसल इसकी मुख्य वजह जो समझ में आती है वो ये कि साहित्यकार की आजाद ख्याली या उसकी स्वछंद मानसिकता फिल्म लेखन की सफलता में बाधा बनकर खड़ी हो जाती है । अपनी साहित्यक कृतियों में लेखक अंतिम होता है और उसकी ही मर्जी चलती है, वो अपने हिसाब से कथानक को लेकर आगे बढ़ता है और जहां उसे उचित लगता है उसको खत्म कर देता है । लेकिन फिल्मों में उसके साथ ये संभव नहीं होता है । फिल्मों में निर्देशक और नायक पर बहुत कुछ निर्भर करता है और फिल्म लेखन एक टीम की कृति के तौर सामने आता है वहीं साहित्यक लेखन एक व्यक्ति का होता है ।
प्रेमचंद के जिस दर्द को रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने अपने संस्मरणों में जाहिर किया है उससे तो कम से कम यही संकेत मिलते हैं । कुछ तो वजह रही होगी, कोई यूं ही बेवफा नहीं होता । प्रेमचंद जैसा लेखक ये कहने को मजबूर हो गया कि अगर तुम मेरी इज्जत करते हो तो इस फिल्म को कभी मत देखना । संकेत यही है कि कथानक से उनकी मर्जी के विपरीत खिलवाड़ किया गया । कुछ इसी तरह के संकेत सिनेमा के सौ बरस में लिखे अपने लेख मैंने तो तौबा कर ली में मस्तराम कपूर ने भी दिए हैं – मैंने महसूस किया कि फिल्मों की जरूरतों को ध्यान में रखकर लिखी गई रचना सही मायने में साहित्यक रचना नहीं बनती है । मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि फिल्म और टी वी का माध्यम साहित्य के अनुकूल नहीं है । फिल्म और टी वी के लिए लिखी गई रचना बाजार की मांग को ध्यान में रखकर लिखी जाती है जबकि साहित्यक रचना अपने अंधकार और अपने बंधनों से लड़ने की प्रक्रिया से निकलती है ।प्रेमचंद के दर्द और मस्तराम कपूर के अनुभवों से ये बात साफ हो जाती है कि हिंदी का साहित्यकार फिल्मों में ज्यादा लंबा क्यों नहीं चल पाता है ।

अब दूसरा मुद्दा कि हिंदी साहित्य में फिल्म लेखन को गंभीरता से क्यों नहीं लिया गया । इसकी कई वजहें हैं । विचारधारा के साहित्य और उनके साहित्यकारों की फिल्मों को लेकर मानसिकता तो मुख्य वजह है ही लेकिन उससे इतर साहित्यकारों का फिल्मी दुनिया से कड़वे अनुभव लेकर साहित्य की दुनिया में लौटना और उसको साथी साहित्यकारों से साझा करना भी एक अन्य वजह है । कड़वे अनुभवों से यह निकलकर आता है कि फिल्मों में लिखने वाले अपने मन की नहीं कर पाते हैं । उनका लेखन दवाब और वक्त की मांग का लेखन होता है । यह बात बहुत हद तक सही भी है । मौजूदा दौर में फिल्मी कहानियों और गीतों की रचना निर्देशकों की मर्जी और उनके द्वारा दिए गए सिचुएशन के हिसाब से की जाती है । इसलिए कई बार कहानी और गाने एक दूसरे के साथ घुलने मिलने की बजाए अलग से नजर आते हैं । अब तो आलम यह है कि म्यूजिक कंपनियां लेखकों से गीत लिखवाकर रख लेती हैं और फिल्मकारों को उनकी मांग के हिसाब से गीत उपलब्ध करवा देती हैं। कई बार संगीत के साथ तो कई बार बगैर संगीत के । अब जब इस तरह की व्यवस्था बढ़ने लगे तो साहित्य में प्रतिष्ठा हासिल करने में दिक्कत तो होगी । मांग के अनुसार लिखा जानेवाला साहित्य और मन के हिसाब से लिखे जाने वाले साहित्य में फर्क तो होता ही है । मन को हमेशा से मांग से उपर का स्थान हासिल होता है और वही साहित्य और सिनेमा लेखन में भी है । तात्कालिकता के दबाव और बाजार की मांग के अनुरूप लाभ कमाने के उद्देश्य से लिखा जानेवाला लेखन कालजयी नहीं हो पाता है । 

बयानों से बेनकाब चेहरे

फिल्म अभिनेता इरफान खान अपनी फिल्म मदारी के प्रमोशन में निकले थे और उस दौरान दिए उनके एक बयान से बवंडर खड़ा हो गया । दरअसल इरफान खान ने बकरीद के मौके पर बकरों की कुर्बानी पर सवाल खड़ा किया था । इरफान खान ने कहा कि दो बकरे खरीद कर उसका वध कर देना कोई कुर्बानी नहीं है । इससे कोई पुण्य नहीं मिलनेवाला है । कुर्बानी का अर्थ है कि हम अपनी कोई प्रिय वस्तु किसी को दे दें, जिसके साथ हमारा प्यार का संबंध हो । इरफान के इस बयान के बाद बवाल मच गया और कई मुस्लिम उलेमाओं और धर्मगुरुओं ने इरफान के बयान की लानत मलामत शुरू कर दी । एक मौलाना ने कहा कि इरफान को इस्लाम की जानकारी नहीं है और वो अपनी अज्ञानता में इस तरह के बयान दे रहे हैं । इरफान का जिस तरह से विरोध हो रहा है उसको देखते हुए लगता है कि आनेवाले दिनों में उनके खिलाफ फतवा भी जारी हो जाए । इरफान खान ने जो कहा है उसको लेकर गंभीर चर्चा के बगैर खारिज कर देना उचित नहीं होगा । इस्लाम में कुर्बानी की प्रथा बहुत पुरानी है और शरीयत के मुताबिक सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी का प्रावधान है । इरफान भी यही कह रहे हैं । लेकिन विवाद की शुरुआत तब हुई जब इरफान ने बकरीद के ठीक पहले ये बयान दे दिया कि बकरीद में दो बकरों को खरीद कर उसकी कुर्बानी के पुण्य नही मिलता है । दरअसल बकरीद पर बकरों की बलि की परंपरा बहुत पुरानी है और उस दिन कुर्बान किए गए बकरों का एक तिहाई जरूरतमंदों को, एक तिहाई दोस्तों को और तोहफे के तौर पर देने का रिवाज रहा है । बाकी बचा एक तिहाई हिस्सा कुर्बानी देनेवाला खुद रखता है । खैर हम इस परंपरा में औरर उसके पालन करनेवालों की श्रद्धा में नहीं उलझना चाहते हैं । सवाल यही है कि अगर इरफान खान ने कोई सवाल उठाया है तो बजाए उसकी लानत मलामत करने के उसपर विमर्श होना चाहिए । जिन भी उलेमाओं को उनके इस कथन से विरोध है वो अपनी बात तर्कों के साथ रखें । इरफान को मूर्ख और मूढ़ कहने और उनके खिलाफ आग उगलने से वही होगा जो इरफान अपेक्षा कर रहे थे । धर्मगुरुओं के विरोध पर इरफान खान ने अपने तेवर और सख्त कर लिए हैं । उन्होंने साफ तौर पर कहा कि वो धर्मगुरुओं से डरनेवाले नहीं हैं । इरफान ने ट्वीट किया- प्लीज भाइयो जो मेरे बयान से नाराज हैं वो या तो आत्मविश्लेषण करने को तैयार नहीं हैं या निष्कर्ष पर पहुंचने की जल्दबाजी में हैं । इरफान ने आगे लिखा कि – मेरे लिए धर्म निजी आत्मविश्लेषण की तरह है, यह मेरे लिए दया, विवेक और संयम का स्त्रोत है ना कि रूढ़िवादिता और कट्टरवाद का । धर्मगुरू मुझे डरा नहीं सकते हैं । थैंक गॉड में ऐसे देश में नहीं रहता हूं जिसे धर्म के ठेकेदार चलाते हैं । इरफान ने अपने इस ट्वीट में कई सारी ऐसी बातें कह दीं जो कि विचार करने को मजबूर करती है ।  
इरफान ने साफ तौर पर कहा है कि धर्म बेहद निजी मामला है लेकिन उसमें विरोधाभास दिखाते हुए वो धर्म को लेकर, उसकी परंपराओं को लेकर सार्वजनिक तौर पर अपनी बातें भी रख रहे हैं । संभव है कि वो अपने धर्म की कुछ बातों पर अपनी आपत्ति दर्ज करवाकर उसमें बदलाव की ख्वाहिश रखते होंगे । बकरों की कुर्बानी पर दिए उनके बयान को इस आलोक में देखा जाना चाहिए। लेकिन धर्मगुरुओं को नाराज होने और इरफान को उलजलूल कहने का हक क्यों होना चाहिए । जब इरफान पर हमले हो रहे हैं तो सवाल उठता है कि इस वक्त अभिव्यक्ति की आजादी के झंडाबरदार कहां हैं । समाज में बोलने की आजादी के अधिकार के निरंतर ह्रास को लेकर छाती कूटनेवाला समुदाय इस वक्त इरफान के पक्ष में क्यों नहीं मजबूती से खड़ा हो रहा है । इरफान को जिस तरह से घेरने की कोशिश की जा रही है उसको लेकर उसके पक्ष में कहीं से किसी तरह की हलचल दिखाई नहीं दे रही है । देश में असहिष्णुता को लेकर बयान देनेवाले शाहरुख खान भी बॉलीवुड के अपने साथी कलाकार इरफान के पक्ष में खड़े दिखाई नहीं देते । शाहरुख खान को इरफान को चुप करवा देने की कोशिशों में कोई असहिष्णुता अबतक नजर नहीं आई है । उन दिनों जब देश में असहिष्णुता के मुद्दे पर अवॉर्ड वापसी का कोलाहल था और उसके पक्ष विपक्ष में तर्क दिए जा रहे थे तब शाहरुख खान ने ट्वीट किया था कि – लोग बगैर सोचो समझे बयानबाजी करते हैं । धार्मिक असहिष्णुता...और इस देश में धर्मनिरपेक्ष नहीं होना एक देशभक्त के तौर पर सबसे बड़ा अपराध है । शाहरुख की बात सही है लेकिन अब जब इरफान ने जब इस्लाम की परंपरा पर सवाल खड़ा किया है और चंद मुस्लिम उलेमाओं द्वारा उनको खामोश करने की कोशिश हो रही है, तो पूरे देश को शाहरुख के उसी तरह के ट्वीट का इंतजार है । अगर धार्मिक असहिष्णुता उस वक्त गलत थी तो अब भी गलत होनी चाहिए । क्या धार्मिक असहिष्णुता का सवाल सिर्फ हिंदू कट्टरपंथियों के बयानों पर ही दिखाई देने लगता है । इसी तरह से बहुत संभव है कि आमिर खान को इरफान की आलोचनाओं के बाद भी डर नहीं लग रहा होगा और वो अपनी पत्नी से देश में डर लगने जैसी बातचीत नहीं कर रहे होंगे क्योंकि ये इस्लाम से जुड़ा मामला है । अगर ऐसा होता तो आमिख खान जरूर सामने आते और अपनी मन की बात को सामने रखते । तो क्या ये मान लिया जाए कि इस्लाम की परंपराओं की बात आते ही समाज के ये नायक खामोश हो जाते हैं । उनका ना तो देश में डर लगता है और ना ही देश की फिजां में कोई बुराई नजर आती है । मेरा मानना है कि ये मामला चूंकि एक धर्म विशेष से जुड़ा है लिहाजा हर कोई खामोशी की चादर ओढ़ कर सुविधा की नींद सो रहा है । अगर यही मामला हिंदी धर्म से जुड़ा होता तो अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियन अबतक उछलकूद मचा रहे होते । सवाल यही है कि क्या इरफान को भारतीय संविधान अभिव्यक्ति की आजादी नहीं देता है । क्या इरफान खान क खिलाफ मुस्लमि धर्मगुरुओं को लेकर दिए जानेवाले बयानों में किसी को भी असहिष्णुता नहीं दिखाई दे रही है । ये सब कई ऐसे प्रश्न हैं जो लगातार पूछे जाने चाहिए और सुविधा की खामोशी अख्तियार करनेवालों से तो अवश्य ही पूछे जाने चाहिए । दरअसल हमारे देश में अभिवयक्ति की आजादी आदि के मुद्दे पर हमारे चैंपियन अलग अलग धर्मों को लेकर अलग अलग रुख अपनाते रहे हैं । अब अगर इरफान ने इस्लाम की परंपराओं को लेकर कोई सवाल खड़ा किया है तो उसको धमका कर या विरोध का भय दिखाकर चुप करवा देना कहां तक जायज है । क्या इस्लाम में जारी परंपराओं पर बोलने का हक किसी को नहीं है और कोई बोले तो उसको ईशनिंदा की श्रेणी में डाल देना चाहिए । तब तो इरफान ने ठीक ही खुदा का शुक्रिया अदा किया है कि वो भारत जैसे देश में रह रहे हैं जहां धर्म के ठेकेदार देश नहीं चला रहे हैं । इरफान के बयान से एक बार फिर से सेलेक्टिव सेक्युलरिज्म का आंदोलन चलानेवालों के चहरे बेनकाब हो रहे हैं ।
कुछ लोगों का तर्क है कि इरफान अपनी फिल्म मदारी को हिट कराने के लिए जानबूझकर विवाद खड़ा करना चाहते हैं ताकि उनकी फिल्म को फायदा हो सके । हो सकता है ऐसी दलील देनेवालों के तर्क में दम हो । लेकिन अगर इरफान अपनी फिल्म को हिट कराने के लिए भी खुद को विवादित बना कर चर्चित होना चाहते हैं तब भी उनके अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को कोई कैसे रोक सकता है । संभव है कि इरफान को लगा होगा कि इस्लाम की परंपराओं के खिलाफ बयान देकर वो फिल्म को सफल करवा ले जाएंगे । अगर ऐसा है तो बजाए इरफान का विरोध करने के उनके इस डिजायन को उभारा जाना चाहिए । उलेमाओं को धर्म की दुहाई देकर उसकी परंपराओं और शरीया की आड़ में इरफान का विरोध करने की बजाय साफ कर देना चाहिए कि वो अपनी फिल्म को सफल बनाने के लिए इस तरह के हथकंडे अपना रहे हैं । बजाए इसके वो भी उल्टे भड़काऊ बयान देकर इरफान की रणनीति को सफल बना रहे हैं । इस विवादित बयान को लेकर भले ही कुछ दिनों में बयानों की जंग ठंडी पड़ जाए लेकिन इसका असर लंबे समय तक देखा जा सकेगा और मुझे लगता है कि ये कई तरह के गंभीर विमर्श को जन्म देने का पुख्ता आधार भी प्रदान करेगा ।


Friday, July 1, 2016

मानक बगैर कैसे लगे प्रदूषण पर लगाम ?

अदालतों के फैसले पर कयासबाजी उचित नहीं मानी जाती है, लेकिन जब शीर्ष अदालत के शीर्ष न्यायाधीश कोई संकेत दें तो फैसले के संकेत को साफ तौर पर समझा जा सकता है । दिल्ली में दो हजार सीसी से ज्यादा क्षमता की एसयूवी पर पाबंदी के खिलाफ सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने कुछ इसी तरह के संकेत दिए । तीन जजों की बेंच ने सुनवाई के दौरान अपनी टिप्पणी में कहा कि कोर्ट इस तरह की डीजल गाड़ियों की बिक्री पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाने पर विचार कर रही है । कोर्ट के मुताबिक बिक्री की अनुमति ग्रीन सेस लगाने के बाद ही किया जा सकेगा क्योंकि इन गाड़ियों के उपभोक्ताओं को यह समझना होगा कि ये पेट्रोल कार की तुलना में ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं । कार खरीदारों को यह जानना चाहिए कि वो अपेक्षाकृत ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाली गाड़ी इस्तेमाल करने जा रहे हैं हैं लिहाजा उनको ज्यादा भुगतान करना पड़ रहा है । सुप्रीम कोर्ट ने राजधानी में प्रदूषण के खिलाफ जंग में शानदार भूमिका निभाई है, भारी वाहनों पर प्रतिबंध से लेकर डीजल कारों पर लगाम लगाकर। पिछले साल दिसंबर में कोर्ट ने दो हजार सीसी से ज्यादा क्षमता वाली डीजल गाड़ियों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाया था लेकिन अब छूट के संकेत मिल रहे हैं । पहले भी भारी वाहनों के दिल्ली में प्रवेश को लेकर नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल ने कई शर्तें लगाई थी और अलग अलग वाहनों पर अलग अलग प्रवेश कर लगाया था । तब नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल ने कहा था कि इन वाहनों के प्रवेश कर से जमा धन को पर्यावरण को संवारने और बचाने के काम में खर्च किया जाएगा । अब सुप्रीम कोर्ट भी टैक्स लगाकर दो हजार सीसी से ज्यादा के एसयूवी की बिक्री से प्रतिबंध हटाने के संकेत दे रही है ।

सवाल यहीं से खड़े होते हैं कि पहले प्रतिबंध और फिर टैक्स लगाकर प्रतिबंध वापस या फिर उसमें ढील क्यों अगर किसी वाहन के राजधानी दिल्ली में प्रवेश से पर्यावरण पर खतरा है तो टैक्स लगा देने से वो खतरा कैसे दूर हो सकता है । अगर कोई वाहन अपेक्षाकृत ज्यादा प्रदूषण फैला रहा है तो हरित टैक्स लगाकर उसको मंजूरी क्यों दी जाती है । यह सही है कि टैक्स से जमा की गई राशि को प्रदूषण से बचाने के कार्यों में खर्च करने का आदेश होता है लेकिन आम आदमी के मन में प्रश्न उठता है कि वो काम ही क्यों हो जिसको सुधारने के लिए एक पूरा सिस्टम बनाना पड़े । आवश्यक वस्तुओं को लेकर आनेवाले ट्रकों को मंजूरी तो उचित है लेकिन अगर लक्जरी गाड़ियां प्रदूषण फैला रही हैं तो उनको मंजूरी की क्या जरूरत है । बजाए इन फौरी इंतजामात के हमें अपने देश के प्रदूषण के मानकों को ठीक करने की जरूरत है । हमारे देश में ऑटोमोटिव रिसर्च एसोसिएशन ऑफ इंडिया गाड़ियों के प्रदूषण मानकों की जांच करने के लिए अधिकृत एजेंसी है । एजेंसी ये देखती है कि बिक्री के पहले गाड़ी प्रदूषण के मानकों पर खरी उतरती है या नहीं । उसकी अनुमति के बाद ही गाड़ियों को बिक्री के लिए उतारा जाता है । लेकिन मानकों को लेकर ही भ्रम की स्थिति है । प्रदूषण के मानकों को तय करने की जरूरत है । ऑटोमोटिव रिसर्च एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने यूरो थ्री के मानकों में कई कामियां पाईं थी लेकिन उन कमियों को दूर करने के लिए क्या हुआ यह ज्ञात नहीं है । डीजल वाहनों की बिक्री के वक्त सुनवाई के दौरान ये बात भी सामने आई कि अबतक यूरो फोर के मानकों के लागू करने की जांच नहीं की जा सकी है जबकि पिछले साल दिसबंर में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सरकार ने मानक तय करने की अपनी कार्ययोजना का खुलासा किया था कि और बताया था कि बीएस कब कब पूरे देश में लागू किया जा सकेगा । भारत में यूरो के समकक्ष बीएस मानक चलते हैं ।अभी पिछले दिनों एक मशहूर कार कंपनी पर यूरोप में प्रदूषण मानकों से छेड़छाड़ के गंभीर आरोप लगे थे और कंपनी ने घपले की बात मान भी ली थी। सवाल फिर से वही खड़ा होता है कि यूरोप में, जहां प्रदूषण के मानक बिल्कुल तय हैं, गड़बड़ी हो सकती है तो फिर इस बात की क्या गारंटी है कि हमारे देश में, जहां मानकों को लेकर स्थिति बहुत साफ नहीं है, ये घपला नहीं होगा । कारों पर प्रतिबंध, फिर हरित टैक्स लगाकर उसमें छूट देना ये कदम अल्पकालीन हैं लेकिन अगर हमें गंभीरता से प्रदूषण से लड़ना है तो इसके मानक तय करने होंगे और उपभोक्ताओं को जागरूक करना होगा ।