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Saturday, August 28, 2021

विभाजन विभीषिका पर उदासीन साहित्य


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के एक दिन पहले एक ट्वीट किया। लिखा कि ‘देश के बंटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता। नफरत और हिंसा की वजह से हमारे लाखों बहनों भाइयों को विस्थापित होना पड़ा और अपनी जान तक गंवानी पड़ी। उन लोगों के संघर्ष और बलिदान की याद में 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के तौर पर मनाने का निर्णय लिया गया है।‘  केंद्र सरकार के इस फैसले पर राजनीति आरंभ हो गई है। हम राजनीति से इतर साहित्य सृजन के आइने में विभाजन की विभीषिका को परखने की कोशिश करते हैं। 1947 में हमारे देश का बंटवारा हुआ। उसके बाद के हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर नजर डालें तो इस विषय को केंद्र में रखकर बहुत कम लेखन नजर आता है। ले-देकर यशपाल की औपन्यासिक कृति ‘झूठा सच’ का दो खंड और भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ का नाम याद पड़ता है। बदीउज्जमा के उपन्यास ‘छाको की वापसी’ के अलावा सच्चिदानंद हीरानंद  वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, मोहन राकेश और कृष्णा सोबती ने कुछ कहानियां लिखी हैं। बहुत बाद में आकर कमलेश्वर ने भी लिखा। भीष्म जी को भी तमस लिखने में बीस साल से अधिक लगे। कथा साहित्य में तो कुछ रचनाएं मिलती भी हैं लेकिन कवियों ने तो इस ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया, प्रतीत होता है। अज्ञेय की ही एक कविता ‘शरणार्थी’ का स्मरण होता है। वामपंथी लेखक जिन मुक्तिबोध को अपना सबसे बड़ा कवि मानते और प्रचारित करते हैं उनकी रचनाओं में भी विभाजन की विभीषिका नहीं दिखाई देती है। दूसरी तरफ गुरुदत्त जैसे राष्ट्रवादी लेखकों ने विभाजन पर कम से कम आधा दर्जन उपन्यास लिखे। लेकिन गुरुदत्त को इन कथित प्रगतिशील लेखकों और आलोचकों ने साहित्य के परिदृश्य से ओझल कर दिया। उनकी विभाजन पर लिखी रचनाओं पर न तो आलोचनात्मक लेख लिखे गए और न ही किसी विमर्श में उनका नामोल्लेख किया जाता है। बावजूद इसके जब भी हिंदी में विभाजन पर लिखे साहित्य की बात होगी तो गुरुदत्त का नाम लेना ही पड़ेगा।  

स्वाधीनता के बाद हिंदी साहित्य में प्रगतिशीलता का झंडा लेकर घूमनेवाले लेखकों का बोलबाला रहा है। कई तरह के साहित्यिक आंदोलन चले लेकिन उन आंदोलनों में कहीं भी विभाजन की विभीषिका के दर्द और संघर्ष को जगह नहीं मिल पाई है। लाखों लोगों की जान गई, उससे अधिक लोग विस्थापित हुए। मरनेवालों के परिवार और विस्थापित समूहों के दर्द को हिंदी साहित्य के लेखक पकड़ नहीं पाए। पिछले दिनों मार्क्सवादी लेखक जगदीश्वर चतुर्वेदी से बात हो रही थी तो उन्होंने एक बेहद चौंकानेवाला तथ्य बताया। 15 अगस्त 1947 में जब देश स्वाधीन हुआ तो उसके अगले महीने यानि सितंबर में प्रयागराज (तब इलाहाबाद) में प्रगतिशील लेखक संघ की एक बैठक हुई। उस बैठक में उस वक्त के तमाम छोटे-बड़े लेखक शामिल हुए थे। सितंबर 1947 में हुए प्रगतिशील लेखक संघ की इस बैठक में 22 प्रस्ताव पास किए गए थे। इन 22 प्रस्तावों में कहीं भी विभाजन की चर्चा तो दूर की बात उसका उल्लेख तक नहीं था। ये वो दौर था जब पूरे देश में सिर्फ विभीषिका की चर्चा ही हो रही थी। यह तथाकथित प्रगतिशील लेखकों की अज्ञानता नहीं हो सकती है ये तो उदासीनता थी। बैठक के एक प्रस्ताव में एक या डेढ़ पंक्ति में सांप्रदायिकता की बात कही गई थी। ये चर्चा भी इस वजह से हुई कि प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक के एक दिन पहले शाम को प्रयागराज के मुस्लिम बहुल इलाके में छुरेबाजी की घटना हुई थी। जिसकी वजह से प्रस्ताव में सांप्रदायिकता का उल्लेख हुआ था। ये वही प्रगतिशील लेखक संघ है जिसने 1975 में इमरजेंसी लगाए जाने के बाद दिल्ली में हुई अपनी बैठक में उसका समर्थन किया था। इमरजेंसी के समर्थन में प्रस्ताव पास किया था। इसलिए यह तर्क नहीं दिया जा सकता है कि लेखक संघों की बैठक में राजनीतिक मसलों पर प्रस्ताव पास नहीं किए जाते थे। विभाजन का दर्द वैसे भी राजनीतिक मसला नहीं था बल्कि वो सामाजिक और मानवीय मसला था। मानवता के कलेजे पर भोंके गए इस खंजर का दर्द उस समनय के हिंदी के लेखक महसूस नहीं कर सके।  

दरअसल अगर हम समग्रता में विचार करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि जिन लेखकों की आस्था कम्युनिस्ट पार्टियों में थीं वो विभाजन को लेकर उदासीन रहे, उसके दर्द को लेकर खामोश रहे। अपनी इस उदासीनता को उन्होंने बहुत करीने से दबाए रखा। वो लगातार ये नारा लगा रहे थे कि ‘ये आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है’ । ये नारा नहीं कम्युनिस्टों की मानसिकता को दर्शा रहा था। स्वाधीनता का ये अस्वीकार क्यों था। ये एक अलग लेख की मांग करता है। जब एक संप्रभु राष्ट्र जन्म ले रहा था तो ये कम्युनिस्ट उसका स्वागत करने की बजाए उसपर प्रश्न खड़े कर रहे थे। जब देश में लोकतंत्र स्थापित हो रहा था तो ये भूख और गरीबी का नारा लगाकर लोकतंत्र का मजाक उड़ा रहे थे। इनको ये बुनियादी बात समझ नहीं आ रही थी कि अगर देश स्वतंत्र नहीं होगा तो भूख और गरीबी कैसे हटेगी। दरअसल ये कम्युनिस्ट मन से स्वाधीनता के विरोधी थे। ये अनायास नहीं था कि देश के स्वतंत्र होने के 74 साल बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने कार्यालय पर तिरंगा झंडा फहराया। जब मातृ संगठन की ये सोच होगी तो उससे संबद्ध लेखक संगठन और उन लेखक संगठनों से जुड़े लेखक भी तो इसी सोच के आधार पर सृजन करेंगे। हिंदी साहित्य में विभाजन की विभीषिका पर कहानी-कविता तो कम लिखी ही गईं कोई विमर्श भी नहीं हुआ। तो क्या ये माना जाए कि कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रभाव में ऐसा किया गया। 

दूसरा तर्क ये हो सकता है कि विभाजन के समय सक्रिय हिंदी के लेखकों की सोच का दायरा बहुत छोटा रहा। उनकी संवेदना में विभाजन का दर्द या विस्थापन की पीड़ा आ ही नहीं सकी। वो जिस भौगोलिक क्षेत्र में रहते थे वहां का विभाजन नहीं हुआ तो वो स्वतंत्र भारत की इस घटना को महसूस नहीं कर सके। पंजाब का विभाजन हुआ तो पंजाबी साहित्य में विभाजन को लेकर, उसके अलग अलग पहलुओं को लेकर विपुल लेखन हुआ। बंगाल का विभाजन हुआ तो बंगला में विभाजन पर, उसके असर को लेकर कई उत्कृष्ट कृतियां हैं। ये सही है कि हिंदी प्रदेश का भौगोलिक विभाजन नहीं हुआ लेकिन हिंदी प्रदेशों ने विभाजन की विभीषिका को तो बहुत करीब से देखा तो था ही। हिंदी के लेखकों की संवेदना क्यों नहीं झंकृत हुईं, ये आश्चर्य की बात है। इसी भौगोलिक प्रदेश के इतिहासकारों ने विभाजन को लेकर बहुत लिखा। भारत विभाजन के राजनीतिक पक्ष भी बहुत लिखा गया लेकिन हिंदी के लेखक अलग अलग विषयों में उलझे रहे। कहानी कविता से इतर आकर अगर आलोचना पर भी विचार करें तो वहां भी देश के बंटवारे को लेकर कोई डिस्कोर्स नहीं दिखता। रामविलास जी से लेकर नामवर सिंह तक के लेखन में इस विषय को प्रमुखता नहीं मिलती है। नामवर सिंह तो उर्दू के भी जानकार माने जाते हैं, उनको बंगला का भी ज्ञान था लेकिन उनके लेखन में भी विभाजन की बात नहीं आना हैरत में डालता है। बात घूम फिरकर वहीं पहुंचती है कि कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रभाव में रहनेवाले लेखकों को विभाजन का दर्द या तो समझ नहीं आया या फिर वो जानबूझकर उस वक्त हुए नरसंहार और विस्थापन को लेकर आंखें मूंदे बैठे रहे। अब अगर विभाजन विभीषिका दिवस की घोषणा हुई है तो एक बार फिर से हिंदी के लेखकों को अपनी इस ऐतिहासिक भूल पर विचार करना चाहिए और उसको सुधारने का उपक्रम भी। 


Sunday, August 22, 2021

भगत सिंह की हत्या का बदला


दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद चंपारण की धरती पर गांधी ने जो आंदोलन किया उसकी सफलता ने उनको देशभर में व्याप्ति दी। स्वाधीनता के संघर्ष में चंपारण की धरती से कई क्रांतिवीर निकले लेकिन इतिहासकारों ने गांधी और चंपारण को अपने लेखन में जिस तरह से रेखांकित किया उससे उस धरती के कई क्रांतिकारियों का योगदान धूमिल पड़ गया। आज जब देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है तो ऐसे सपूतों को याद करने का अवसर है जिन्होंने अपनि मातृभूमि के लिए अपनी जान न्योछावर कर दी। ऐसे ही एक क्रांतिकारी थे बैकुंठ सुकुल।

महात्मा गांधी के चंपारण पहुंचने के पहले मुजफ्फरपुर में एक ऐसी घटना घट चुकी थी जिसने बिहार समेत पूरे देश के मानस को झकझोर दिया था। ये घटना थी खुदीराम बोस को फांसी की। जब खुदीराम बोस को 1908 में मुजफ्फरपुर जेल में फांसी की सजा दी गई तो उसका उस इलाके के युवकों के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। समाचारपत्रों में युवकों ने पढ़ा कि खुदीराम को जब फांसी के लिए तख्ते तक ले जाया जा रहा था तब वो सीना ताने थे और मुस्कुरा रहे थे। इस समाचर ने वहां के युवकों को अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा दी। उस दौर में उत्तर बिहार में सक्रिय कुछ युवकों ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के बैनर तले युवकों को जोड़ने का काम आरंभ कर दिया। इस काम में जोगेन्द्र सुकुल, किशोरी प्रसन्न सिंह और बसावन सिंह के साथ एक और युवक था बैकुंठ सुकुल। बैकुंठ सुकुल के अंदर भी अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना तब और जोर मारने लगी जब एक दिन उसको पता चला कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के मृत्युदंड का जिम्मेदार शख्स उसी बिहार की धरती पर रह रहा है जहां ये लोग सक्रिय थे। दरअसल भगत सिंह और उनके साथियों को मृत्युदंड मिलने के पीछे फणीन्द्र नाथ घोष की गवाही थी। पहले फणीन्द्र नाथ घोष भी क्रांतिकारियों के साथ थे लेकिन जब लाहौर षडयंत्र केस चला तो वो सरकारी गवाह बन गए। उनकी गवाही की वजह से स्वाधीनता आंदोलन को तगड़ा झटका लगा था क्योंकि घोष ने कई गुप्त जानकारियां अपनी गवाही के दौरान सार्वजनिक कर दी थीं। लाहौर षडयंत्र केस (ताज बनाम सुखदेव तथा अन्य) में सात अगस्त 1930 को फैसला आया। उस फैसले में इस बात का भी उल्लेख है कि मनमोहन बनर्जी तथा ललित मुखर्जी ने भी क्रांतिकारियों के खिलाफ गवाही दी थी। पर उस फैसले को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट होता है कि फणीद्र नाथ घोष की गवाही बेहद अहम थी। यह घोष की गवाही ही थी जिसमें बेहद सूक्ष्मता और व्यापकता के साथ भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के क्रांतिकारी मंसूबों को उजागर किया गया था। उसकी गवाही इस वजह से भी इन क्रांतिकारियों की फांसी की सजा की वजह बनी क्योंकि वो पहले इनके साथ ही काम कर रहा था। जब इन तीनों को फांसी दे दी गई तो पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा बढ़ा। 

1932 में पंजाब के क्रांतिकारी साथियों ने बिहार के अपने साथियों को एक संदेश भेजा कि इस कलंक को धोओगे कि ढोओगे? इस संदेश का अर्थ ये था कि जिस घोष की गवाही पर लाहौर में सांडर्स को मारने के जुर्म में भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई वो बिहार के बेतिया का रहनेवाला था और सरकारी सुरक्षा में बेतिया में रह रहा था। पंजाब के क्रांतिकारी साथियों के संदेश के बाद बिहार में स्वाधीनता के लिए छटपटा रहे युवकों की एक बैठक हुई। इस बैठक में बैकुंठ सुकुल, अक्षयवट राय, किशोरी प्रसन्न सिंह आदि शामिल हुए। ये सभी फणीन्द्र नाथ घोष से बदला लेने का काम अपने हाथ में लेना चाहते थे। सभी चाहते थे कि स्वाधीनता के लिए अपनि जान देनेवाले अपने क्रांतिकारी साथियों की शहादत का बदला वो लें। लेकिन बैठक में जब कोई निर्णय नहीं लिया जा सका तो छह युवकों के नाम चिट पर लिखकर लाटरी निकाली गई। बैकुंठ सुकुल भाग्यशाली रहे और उनके नाम की चिट निकल आई और उनको फणीन्द्र नाथ घोष से बदला लेने की जिम्मेदारी मिली। अब बैकुंठ सुकुल ने अपने मित्र चंद्रमा के साथ मिलकर योजना बनाई। वो हाजीपुर से करीब सवा सौ किलोमीटर सायकिल चलाकर दरभंगा पहुंचे। दरभंगा में अपने एक साथी के साथ ठहरे। वहां एक भुजाली का इंतजाम किया और अपने साथी से एक धोती मांगकर मोतिहारी होते हुए बेतिया पहुंचे। 9 नवंबर 1932 की शाम, हल्का अंधेरा होने लगा था। फणीन्द्र घोष बेतिया बाजार में अपने एक दोस्त की दुकान पर बैठे हुए थे। उसी वक्त बैकुंठ सुकुल और चंद्रमा सिंह ने उनपर हमला कर बुरी तरह से जख्मी कर दिया। आठ दिन बाद उसकी मौत हो गई। 

ब्रिटिश हुकूमत लाहौर केस के गवाह पर हुए इस जानलेवा हमले के असर को समझ रही थी। लिहाजा बैकुंठ सुकुल और चंद्रमा सिंह की गिरफ्तारी के लिए चौतरफा घेरे बंदी की गई। करीब आठ महीने की मशक्कत के बाद अंग्रेजों ने चंद्रमा सिंह को कानपुर से और बैकुंठ सुकुल को सोनपुर से गिरफ्तार कर लिया। हमले के बाद जब ये दोनों वहां से गए थे तो अफरातफरी में उनकी गठरी वहीं छूट गई थी। गठरी से मिले सामान के आधार पर इनकी गिरफ्तारी हुई थी। फिर सात महीने केस चला और फरवरी में बैकुंठ सुकुल को फांसी की सजा सुनाई गई और मई 1934 में गया जेल में उनको फांसी दे दी गई। ये पूरा प्रसंग नंदकिशोर शुक्ल की पुस्तक स्वतंत्रता सेनानी बैकुंठ सुकुल का मुकदमा में उल्लिखित है। तमाम दस्तावेजों के आधार पर उन्होंने ये पुस्तक लिखी हैं। 

चंद्रमा सिंह को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया। नवंबर 1932 से लेकर बैकुंठ सुकुल की फांसी होने तक इस केस से जुड़ी गतिविधियों ने युवको के अंदर देश के लिए मर मिटने का ज्वार पैदा कर दिया था। बैकुंठ सुकुल ने अपने कृत्य से ये संदेश दे दिया था कि अंग्रजों से मिलने और क्रांतिकारियों से गद्दारी की सजा मौत है। हमारे स्वाधीनता संग्राम के कई ऐसे नायक हैं जिनके देशभक्ति के कृत्य इतिहास की पुस्तकों में दबा दी गई है या उनको वो अहमियत नहीं दी गई जिसके वो अधिकारी थे। बैकुंठ सुकुल उनमें से एक थे। 

Saturday, August 21, 2021

कुंठा की मीनार पर विचारशून्य शायर


पृथ्वीराज चौहान से बुरी तरह शिकस्त खाने के बाद मुहम्मद गोरी का लश्कर खैबर के दर्रे में दाखिल हुआ तो पराजित बादशाह को एक दीनदार नौजवान हिंदुस्तान की तरफ आता दिखाई दिया। बादशाह ने उस नौजवान को हाथ के इशारे से रोककर पूछा कि तू हिंदुस्तान किसलिए जा रहा है। नौजवान ने दृढ़ संकल्प का सहारा लेते हुए कहा कि मैं वहां इस्लाम फैलाने जा रहा हूं। बादशाह ने कहा कि पहले हमलोगों की हालत पर निगाह डाल और ये बात भी समझ ले कि हमलोग भी वहां इस्लाम के प्रचार के लिए गए थे लेकिन उनलोगों ने हिंदुस्तान से भागने पर मजबूर कर दिया। नौजवान ने फकीराना मुस्कुराहट होठों पर बिखेरते हुए कहा आपलोग वहां तलवार लेकर इस्लाम फैलाने गए थे इसलिए नाकाम और नामुराद लौटना पड़ रहा है। मेरे हाथों में सिर्फ कलामे इलाही है और दिल में इंसानियत का जज्बा है।  नौजवान कोई मामूली शख्स नहीं था। यह तो हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती थे।‘  ये अंश है पूर्व में मशहूर और इन दिनों भटके हुए शायर मुनव्वर राना की पुस्तक ‘मीर आ के लौट गया’ का। यहां मुनव्वर राना इस्लाम को तलवार की ताकत पर फैलाने को गलत ठहरा रहे हैं। ये पुस्तक 2016 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी। पांच साल में ही मुनव्वर राना अपनी ही कही कहानी से अलग जाकर अफगानिस्तान में तालिबानियों का समर्थन करते नजर आ रहे हैं। तालिबानी तो मुहम्मद गौरी से भी ज्यादा बर्बर हैं और अफगानिस्तान पर कब्जा जमाते ही इस्लामी राज की घोषणा कर देते हैं। लेकिन राना को तालिबानियों में शांति दूत नजर आते हैं और वो उनकी तुलना में ऐसी ओछी बातें कर देते हैं तो उनकी कुंठा को, धर्मांधता को और अज्ञानता को प्रदर्शित करता है।

अपनी इसी किताब में ही बड़े ही चुनौतीपूर्ण अंदाज में राना कहते हैं कि ‘दुनिया के हर गैर मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा है तो यही है कि इस्लाम तलवार के जोर से फैलाया गया मजहब है लेकिन दुनिया के तमाम इतिहासकार मिलकर भी इस बात को साबित नहीं कर सके कि दुनिया के किसी भी हिस्से में मुसलमान बे सबब हमलावर हुए या कत्ल और गारतगरी (तबाही) का बाजार गर्म किया। इस्लाम के सदाबहार दुश्मन यहूदियों और ईसाइयों ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से इस्लाम के खिलाफ प्रोपगंडा की जो मुहिम शुरू की थी वो आज भी सूरतें बदल-बदलकर दुनिया में मौजूद है।‘ वो यहां भी सामान्यीकरण के दोष के शिकार तो हो जाते हैं और अपनी अज्ञानता का सार्वजनिक प्रदर्शन करते नजर आते हैं। मुनव्वर राना छह साल पहले इस तरह की बातें लिखते हैं क्या उनको नहीं मालूम था कि 1996 में तालिबान ने अफगानिस्तान में किस तरह की क्रूरता की थी। क्या राना को यह मालूम नहीं था कि तालिबानियों के दौर में अफगानिस्तान में महिलाओं को किस तरह से प्रताड़ित किया गया था। या इस्लाम को मानने वाले दहशतगर्दों ने अमेरिका से लेकर फ्रांस और अन्य मुल्कों में किस तरह की तबाही मचाई। तब भी वो लिख रहे थे कि मुसलमान कभी भी हमलावर नहीं हुए और दुनियाभर के तमाम इतिहासकारों ने इस्लाम के खिलाफ दुश्प्रचार किया। अब भी उनको ये नजर नहीं रहा कि तालिबान अफगानिस्तान में क्या कर रहा है। किस तरह से लोगों की जान ले रहा है या किस तरह के अत्याचार वहां हो रहे हैं। मुनव्वर राना तालिबानियों के प्रेम में इतने डूब गए कि उनको अपने वतन की साख का भी ख्याल नहीं रहा। तमाम मर्यादा को तोड़ते हुए इस बुजुर्ग शायर ने अपने देश के अपराधियों के पास तालिबान से ज्यादा हथियार होने की बात कह डाली। इतना ही नहीं मुनव्वर राना ने अपने जाहिल होने का भी सबूत पेश किया। उनका कहना है कि तालिबानियों के यहां जितनी क्रूरता है उससे अधिक क्रूरता तो हमारे यहां है। मुनव्वर राना के बेटों ने जिस तरह का ड्रामा रचा था अगर वैसा ड्रामा वो अफगानिस्तान में रचते तो उनको पता चलता कि क्रूरता क्या होती है। राना ये भूल जाते हैं कि इस देश में संविधान का राज चलता है, कोई धार्मिक सत्ता नहीं। यहां तर्क और तथ्यों के आधार पर कानून की धाराएं तय होती हैं किसी अन्य तरीके से नहीं। 

मुनव्वर राना बार-बार अपनी मूर्खता का प्रमाण देते हैं। तालिबानियों पर बोलते हुए उनको महर्षि वाल्मीकि याद आ गए। मैं जान-बूझकर मूर्खता शब्द का उपयोग कर रहा हूं कि मुनव्वर राना को न तो महर्षि वाल्मीकि के अतीत के बारे में पता है और न ही उनके योगदान के बारे में। वाल्मीकि के बारे में जानने के लिए राना को न केवल वाल्मीकि रामायण पढ़ना पड़ेगा बल्कि स्कन्दपुराण आदि का अध्ययन भी करना पड़ेगा। इन ग्रंथों में वाल्मीकि के बारे में, उनकी जिंदगी के आरंभिक वर्षों के बारे में, उनके पेशे के बारे में विस्तार से उल्लेख मिलता है। बगैर पढ़े और सुनी सुनाई बातों के आधार पर राना की बातें बुढ़भस सरीखी हैं। राना पूरी तरह से न केवल विचार शून्य हैं बल्कि अपनी परंपराओं और पूर्वजों के बारे में भी उनको कुछ पता नहीं है। अगर पता होता तो वो वाल्मीकि की तुलना कभी भी तालिबानियों से नहीं करते। अब जब उनके खिलाफ मुकदमा हो गया है तो उनके होश ठिकाने आ गए हैं और उस बयान पर दाएं-बांए करते नजर आ रहे हैं। ऐसा वो पहले भी करते रहे हैं, ऊलजलूल बोल देते हैं और जब चौतरफा घिरने लगते हैं तो अपने बयान से पलट जाते हैं। 

मुनव्वर राना का अतीत इसी तरह की पलटीमार घटनाओं से भरी हुई हैं। ज्यादा पीछे नहीं जाते हुए अगर हम 2015 की ही बात करते हैं। उस वर्ष देश में कुछ लेखकों ने असहिष्णुता को आधार बनाकर सरकार को बदनाम करने की साजिश रची। साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने का प्रपंच भी रचा गया। मुनव्वर राना ने भी तब साहित्य अकादमी के अपने पुरस्कार को लौटाने के लिए एक न्यूज चैनल का मंच चुना। हलांकि इसके तीन चार दिन पहले एक अंग्रेजी अखबार में उनका बयान पुरस्कार वापसी के खिलाफ छपा था।  न्यूज चैनल पर पुरस्कार वापसी की घोषणा के बाद चैनल के कर्मचारी उनकी ट्राफी और चेक लेकर साहित्य अकादमी पहुंचे थे। चेक पर किसी का नाम नहीं लिखा था। पूरा ड्रामा फिल्मी था। उस वक्त न्यूज चैनलों में चर्चा थी कि राना ने एक बड़ी डील के तहत पुरस्कार वापसी को लेकर अपना स्टैंड बदला। अब डील क्या थी या उसकी सचाई क्या थी ये तो राना ही बता सकते हैं। पुरस्कार वापसी के अलावा राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी राना ने बेहद आपत्तिजनक बयान दिया था और सर्वोच्च न्यायालय पर आरोप लगाए थे। 

दरअसल राना की अपनी कोई विचारधारा नहीं है। उनका सार्वजनिक आचरण इस बात की गवाही देता है कि वो बेहद स्वार्थी व्यक्ति हैं और अपने स्वार्थ के आगे उनको कुछ नहीं दिखता है। वो लाभ के लिए स्टैंड लेते हैं और लाभ के लिए कभी अपने धर्म का तो कभी अपनी शायरी की आड़े लेते हैं। जब फंसने लगते हैं तो स्टैंड बदल देते हैं। राना जैसे लोगों के इस तरह के व्यवहार पर कथित प्रगतिशील खेमा भी खामोश रहता है। यहां तक कि बात बात पर प्रेस रिलिज जारी करनेवाला जनवादी लेखक संघ भी राना के तालिबान वाले बयान पर खामोश है। प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच को तो जैसे सांप सूंघ गया है। दरअसल इस तरह की खामोशी या कथित प्रगतिशीलता ही कट्टरता को सींचती है। आज अगर राना के बयानों का विरोध ये लेखक संगठन नहीं करते हैं तो फिर उनकी बची-खुची साख पर बड़ा सवालिया निशान लगता है।


सिनेमा के इतिहास के जरूरी पन्ने की याद


स्वतंत्रता के पहले जब फिल्में रिलीज होती थीं तो उस वक्त सिनेमाघरों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। फिल्में तैयार होने के पहले से फिल्म निर्माता देशभर के सिनेमाघरों की बुकिंग कर लिया करते थे। इसमें प्रतिद्वंदी निर्माताओं के बीच अलग अलग तरह के खेल भी होते थे। कई बार ऐसा होता था निर्माता अपनी फिल्मों के लिए पहले से सिनेमाघर बुक कर लिया करते थे ताकि दूसरे निर्माताओं को अपनी फिल्में रिलीज करने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़े। इसी दौर में दिल्ली में एक फिल्म निर्माता और फिल्मों को फाइनेंस करनेवाले सेठ जगत नारायण अपनी फिल्मों को रिलीज करने में परेशानी महसूस करने लगे थे। कई बार ऐसा होता था कि वो जिस फिल्म में पैसा लगाते थे उसको दिल्ली में रिलीज करने के लिए सिनेमा हाल सही समय पर नहीं मिल पाता था। इस परेशानी से उबरने के लिए सेठ जी ने दिल्ली में तीन सिनेमा हाल खरीद लिए। ये तीनों सिनेमा हाल पुरानी दिल्ली इलाके में थे। नावेल्टी सिनेमा पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास, जामा मस्जिद के पास जगत सिनेमा और कश्मीरी गेट में रिट्ज। उसके बाद सेठ जगत नारायण की परेशानी कुछ कम हुई। उन्होंने नावल्टी और जगत सिनेमा को आम जनता का हाल बनाया और उनकी ही रुचि की फिल्में यहां लगाया करते थे। रिट्ज को उन्होंने थोड़ा अपमार्केट बनाया और उसको अपर मिडिल क्लास की रुचियों के अनुसार न सिर्फ सजाया बल्कि फिल्में भी इस रुचि का ध्यान में रखकर ही लगाई जाती थीं।

अभी जब नावेल्टी सिनेमा की जमीन को लेकर जब राजनीतिक विवाद छिड़ा हुआ है तो अचानक से इस प्रसंग का स्मरण हो आया। कई पुस्तकों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि सेठ जगत नारायण के स्वामित्व में आने के पहले नावल्टी सिनेमा का नाम एलफिस्टन हुआ करता था। 1930 से 1940 के बीच कभी सेठ जगत नारायण ने इसका स्वामित्व हासिल किया था। कालांतर में सेठ जी के वारिसों ने इसको चलाया। जब से फिल्मों को दिखाने की तकनीक बदली और महानगरों में मल्टीप्लैक्स संस्कृति मजबूत होने लगी तो नावल्टी जैसे सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमा हाल के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया। एक तो तकनीक के साथ बदलाव की चुनौती, दूसरे दर्शकों का मल्टीप्लैक्स की ओर बढता रुझान, नावल्टी जैसे सिनेमाघरों की बंदी का कारण बना। अन्यथा एक जमाने में तो दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए नावल्टी सिनेमा सबसे पसंदीदा सिनेमा हाल हुआ करता था। कई बार तो विश्वविद्यालय के विभिन छात्रावासों में रहनेवाले छात्र पैदल ही नावल्टी में फिल्म देखने पहुंच जाते थे। आज दिल्ली क्या पूरे देश में सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर या तो बंद हो चुके हैं या बंद होने के कगार पर हैं।

Saturday, August 14, 2021

पर्दे पर शौर्य गाथाओं से निकलते संकेत


 पिछले वर्ष गांधी जयंती के अवसर पर एकता कपूर और करण जौहर समेत कई फिल्मकारों ने एक वक्तव्य जारी किया था। उसमें ये कहा गया था कि स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर भारतीय संस्कृति, भारतीय मूल्यों और शौर्य के बारे में फिल्मों का निर्माण किया जाएगा। अभी हाल में कुछ फिल्में आई हैं जिनमें भारतीय सैनिकों के साथ-साथ आम जनता के साहस की कहानी भी कही गई है। अजय देवगन की फिल्म ‘भुज, द प्राइड ऑफ इंडिया’ में 1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान भुज एयरबेस पर तैनात स्कावड्रन लीडर विजय कार्णिक के अदम्य साहस की कहानी कहता है। 1971 में पाकिस्तानियों ने भुज हवाई अड्डे पर हमला कर वहां की हवाईपट्टी को तबाह कर दिया था। इस हमले को युद्ध के इतिहास में भारत का ‘पर्ल हार्बर मोमेंट’ कहा जाता है। दिवतीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान ने अमेरिका के हवाई के पर्ल हार्बर में नौसेना अड्डे पर उस वक्त हमला किया था जब इसकी कल्पना नहीं की गई थी। उस हमले में करीब 180 अमेरिकी युद्धक विमानों को तबाह कर दिया गया था। उसी तरह जब भारत, पूर्वी पाकिस्तान सीमा पर युद्ध लड़ रहा था और पश्चिमी भारत में किसी हमले की आशंका नहीं थी तब पाकिस्तानी वायुसेना ने भुज हवाई अड्डे को निशाना बनाया था। हमले में कई विमान और हवाई पट्टी को नुकसान पहुंचा था। स्कावड्रन लीडर विजय कार्णिक की सूझबूझ और स्थानीय गांववालों की मदद से टूटी हवाई पट्टी को तीन दिन में चालू कर लिया गया था। कार्णिक के अलावा स्थानीय महिला सुंदरबेन की सांगठनिक क्षमता, रणछोरदास पगी और रामकरण नायर के शौर्य को भी चित्रित किया गया है। 

इस फिल्म में एक और खूबसूरत बात ये है कि इसमें हमें हिंदी के श्रेष्ठ शब्दों को सुनने का अवसर भी मिलता है। संवाद बेहद अच्छे हैं और समाज को एक संदेश देते हैं। सुंदरबेन अपने बच्चे को बचाने के लिए तेंदुए को मार डालती है और उसके बाद हाथ में तलवार लेकर हुंकार करती है। ‘जय हिंद और जय जय गर्वी गुजरात’ के घोष के बाद वो कहती है कि ‘भगवान कृष्ण कहते हैं कि हिंसा पाप है लेकिन किसी की जान बचाने के लिए की गई हिंसा धर्म है।‘ यहां भी भगवान कृष्ण हैं और जब स्कावड्रन लीडर विजय कार्णिक भुज की टूटी हुई हवाईपट्टी के मरम्मत के लिए गांववालों से मदद मांगने जाते हैं तो सुंदरबेन एक बार फिर भगवान कृष्ण और शंकर को याद करती है। गांववालों के अंदर के भय को खत्म करने और उनमें देशभक्ति का जोश भरने के लिए कहती हैं, ‘सारे जग का पालनहारा है कृष्ण कन्हैया, एक बाल भी बांका नहीं होने देंगे। आज अगर हमने अपने देश की मदद नहीं की तो सब साथ में जाकर जहर पी लेना, भगवान शंकर जहर पीने नहीं आएंगे। सबका चीरहरण होगा और भगवान कृष्ण चीर देने नहीं आएंगे।‘ संवाद लंबा है लेकिन अर्थपूर्ण है। वो आगे कहती है कि ‘लेकिन अगर आज हमने पांडवों की तरह अत्याचारियों के खिलाफ लड़ने का संकल्प ले लिया तो भगवान कृष्ण खुद हमारे सारथी बनकर आएंगे। सुंदरबेन के किरदार में जब सोनाक्षी सिन्हा ये कहती हैं तो लोगों में जोश भर जाता है।‘ 

धार्मिक प्रतीकों और अपने पौराणिक चरित्रों को हवाले से कथानक को आगे बढ़ाने का कौशल संवाद लेखकों ने दिखाया है। हिंदी फिल्मों में ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है। अबतक ज्यादातर फिल्मों में पौराणिक चरित्रों को मिथकों की तरह चित्रित करके उपहास उड़ाया जाता रहा है। धार्मिक फिल्मों को अगर छोड़ दिया जाए तो अन्य फिल्मों में कई बार नायक भगवान को कोसते नजर आते हैं। नायकों को भगवान से इस बात से खिन्न दिखाया जाता रहा है कि उन्होंने न्याय नहीं किया। लेकिन ‘भुज द प्राइड ऑफ इंडिया’ में फिल्मकार ने उपहास की इस मानसिकता को तोड़ने का साहस दिखाया। धर्म और नीति की भारतीय परंपरा का उपयोग कथानक में किया। इस लिहाज से अगर इस फिल्म पर विचार करें तो इसको संवाद लेखन की शैली में एक बदलाव के तौर पर भी देखा जा सकता है। इतना ही नहीं जब सुंदरबेन के नेतृत्व में सभी गांववाले भुज की टूटी हवाईपट्टी को ठीक करने का निर्णय लेते हैं तो वहां भी ‘जय कन्हैया लाल की हाथी घोड़ा पालकी’ का घोष उनके अंदर जोश भर देता है। इस फिल्म में गानों के बोल भी हिन्दुस्तानी से मुक्त और हिंदी की शान बढ़ानेवाले हैं। एक गीत है जिसमें ईश्वर के साथ साथ नियंता और घट, विघ्नहरण, करुणावतार जैसे शब्दों का उपयोग किया गया है। इस गाने को सुनते हुए 1961 में आई फिल्म ‘भाभी की चूड़ियां’ फिल्म का गीत ‘ज्योति कलश छलके’ की प्रांजल और सरस हिंदी का स्मरण हो उठता है। उस गीत को पंडित नरेन्द्र शर्मा ने लिखा था। भुज के गीतों को मनोज मुंतशिर, देवशी और वायु ने लिखा है। 

आज जब हम अपनी स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो ऐसे में संवाद लेखन और गीतों को बोल में अपनी भाषा का गौरवगान आनंद से भरनेवाला है। इसकी अनुगूंज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में लंबे समय तक सुनाई दे सकती है। यह हिंदी के उपहास की मानसिक दासता से मुक्ति का संकेत भी है। अब दूसरे अन्य फिल्मकारों को भी इस ओर ध्यान देना चाहिए। भाषा के अलावा धर्म को लेकर भी कोई ऐसी वैसी टिप्पणी नहीं की गई है जो पिछले दिनों ओटीटी पर आई वेबसीरीज में फैशन बन गई थी। यहां तो जब रणछोरदास पगी पाकिस्तानियों से लोहा लेने जाता हैं तो अपनी पगड़ी करणी माता के सामने रखकर शपथ लेते हैं कि जिस दिन लड़ाई जीतूंगा उस दिन पगड़ी पहनूंगा। ये दृश्य बहुत छोटा है लेकिन इसका संदेश बहुत बड़ा है। आजतक जब भी भारत में ये नारा गूंजता था कि जबतक सूरज चांद रहेगा तो इसके साथ व्यक्ति विशेष का नाम लगाकर कहा जाता था कि उनका नाम रहेगा। इस फिल्म में सुंदरबेन कहती हैं कि जब तक सूरज चंदा चमके, तब तक ये हिन्दुस्तान रहेगा। इसका भी संदेश दूर तक जा सकता है। इंटरनेट मीडिया पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक इस फिल्म के संवाद अभिषेक, रमन, रीतेश और पूजा ने लिखे हैं। 

दूसरी फिल्म ‘शेरशाह’ का मुगल बादशाह से कुछ लेना देना नहीं है बल्कि ये करगिल युद्ध के दौरान शहीद हुए कैप्टन विक्रम बत्रा की कहानी है। युद्ध के दौरान कैप्टन विक्रम बत्रा का कोडनेम ‘शेरशाह’ है। ये फिल्म विक्रम बत्रा के शौर्य की कहानी तो कहता ही है उनके प्रेम प्रसंग को भी उभारता है। इस फिल्म के संवाद लेखक बहुधा भटकते नजर आते हैं। आतंकवाद पर बात करते समय कश्मीर के लोगों का भरोसा जीतने की भी बात होती है और देशभक्ति की भी। पूर्व में बनी कई फिल्मों में कश्मीर के आतंकवाद और आतंकवादियों के चित्रण में संवाद लेखक दुविधा में दिखते हैं। ऐसा लगता है कि वो कुछ आतंकवादियों को भटका हुआ मानते हैं और उसी हिसाब से उसको ट्रीट करते हैं। जबकि संवाद में स्पष्टता होनी चाहिए। ‘शेरशाह’ में सिद्धार्थ मल्होत्रा ने कैप्टन विक्रम बत्रा का किरदार निभाया है लेकिन बेहतर अभिनेता को इस रोल के लिए चुना जाता तो फिल्म अधिक प्रभाव छोड़ सकती थी। ये सुखद संकेत है कि हिंदी के फिल्मकारों ने आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर उन कम ज्ञात नायकों को भी सामने लाने का बीड़ा उठाया है। आगामी दिनों में अक्षय कुमार की फिल्म ‘बेलबॉटम’ रिलीज होने के लिए तैयार है। बालाकोट एयर स्ट्राइक पर भी फिल्मों की घोषणा हुई है। इसके अलावा फील्ड मार्शल सैम मॉनकशा और क्रांतिवीर उधम सिंह पर भी फिल्में बनने के संकेत हैं। 


Saturday, August 7, 2021

अश्लीलता और मुनाफे का खेल


अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी के पति राज कुंद्रा इन दिनों अश्लील फिल्मों के बवंडर में घिरे हैं। थाना,पुलिस,कचहरी और जेल के चक्कर लगा रहे हैं। उनपर आरोप है कि वो एक एप के जरिए अश्लील फिल्मों का कारोबार करते हैं। यह पहली बार हो रहा है कि एक टॉप की अभिनेत्री के पति अश्लील फिल्मों के कारोबार में फंसे हैं। लेकिन ये पहली बार नहीं है कि शिल्पा के पति विवाद में आए हैं। राज कुंद्रा जब राजस्थान रॉयल्स के मालिकों में से एक थे तब उनपर मैच फिक्सिंग का आरोप लगे थे। उनकी गिरफ्तारी भी हुई थी और वो जेल भी गए थे। उनकी टीम राजस्थान रायल्स के खलने पर प्रतिबंध भी लगा था। उसके पहले जब राज कुंद्रा ने शिल्पा शेट्टी से शादी की थी तो उनकी पहली पत्नी और उनके बहनोई के रिश्तों को लेकर भी आरोप प्रत्यारोप का दौर चला था। इस बार राज कुंद्रा पहले के आरोपों से ज्यादा संगीन इल्जाम में फंसे हैं। उनकी पत्नी शिल्पा शेट्टी से भी पूछताछ की जा चुकी है। शिल्पा शेट्टी ने अपनी निजता को लेकर अपील भी की है, उनकी निजता का सम्मान होना चाहिए लेकिन अगर कहीं कानून तोड़ा गया है तो उसकी चर्चा तो स्वाभाविक है। उसमें निजता आदि की बात बेमानी हो जाती है। दरअसल अश्लील फिल्मों का कारोबार पिछले दस साल में कई गुणा बढ़ा है। तकनीक के फैलाव और इंटरनेट के घनत्व के बढ़ते जाने से अश्लीलता के कोष्ठक में रखी जानेवाली सामग्री का चलन काफी बढ़ गया है। अगर गहराई से इसपर विचार करें तो पाते हैं कि राज कुंद्रा पर जो दो आरोप लगे उन दोनों कारोबार में लागत कम और मुनाफा बहुत अधिक है। मैच फिक्सिंग और अश्लील फिल्मों के कारोबार में बहुत अधिक पैसा कमाया जा सकता है। धंधे में इसको ईजी मनी कहते हैं। अश्लील फिल्मों का कारोबार करना हमारे देश के कई कानून के अंतर्गत अपराध माना जाता है और आरोप सिद्ध होने पर दंड का भी प्राविधान है। 

राज कुंद्रा की गिरफ्तारी के बाद इंटरनेट माध्यमों पर उपलब्ध अश्लील सामग्रियों को लेकर देशव्यापी बहस होनी चाहिए। इंटरनेट पर उपलब्ध अश्लील सामग्री को रोक पाना लगभग असंभव है। भारत समेत दुनिया के कई देशों में अश्लीलता के खिलाफ कानून है। कई देशों में दिशा निर्देश है कि मनोरंजन या यथार्थ के नाम पर आप कितना दिखा सकते हैं और कितना छिपा सकते हैं। अमेरिका में फिल्मों में इतना खुलापन है कि वहां स्त्री-पुरुष के बीच के अंतरंग दृश्यों को दिखाया जाता है और उसपर कोई वैधानिक प्रतिबंध नहीं है। इसी तरह से कई यूरोपीय देशों में खुलापन है लेकिन जापान समेत कई देश फिल्मों में इस तरह के दृश्यों को लेकर सचेत हैं और वहां उन दृश्यों में अंगों को छिपाने का दिशा निर्देश है। हमारे देश में इस तरह से कोई स्पष्ट दिशा निर्देश नहीं है और ये अदालत या जांच एजेंसी के विवेक पर निर्भर करता है। कामुकता और अश्लीलता के बीच एक बहुत ही बारीक रेखा है। उसको परिभाषित करने की अपनी अपनी दृष्टि है। आज फेसबुक से लेकर कई अन्य इंटरनेट मीडिया माध्यमों पर इस तरह की सामग्रियां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी) पर भी अश्लील सामग्रियों की भरमार है। ओटीटी को लेकर नियमन जारी हो गया, संभव है कि उसको लेकर कार्यवाही भी आरंभ हो गई होगी लेकिन यहां उपलब्ध अश्लील सामग्री पर किसी तरह की रोक दिखाई नहीं देती। जितनी जुगुप्साजनक सामग्री पहले उपलब्ध थी वो अब भी है, बल्कि वो बढ़ ही रही है। 

अश्लील फिल्में या सामग्री दिखानेवाले निर्माता या प्लेटफॉर्म अधिक मुनाफा की चाहत में ऐसा करते हैं। पहले ‘सेक्रेड गेम्स’ में नायिका को टापलेस दिखाया गया, ‘लस्ट स्टोरीज’ में उससे एक कदम आगे बढ़ गए। बाद में आई वेब सीरीज में रति प्रसंगों को दिखाया जाने लगा। वेब सीरीज को लेकर किसी तरह की कोई पाबंदी या दिशा निर्देश नहीं होने की वजह से इन निर्माताओं का हौसला बढ़ता चला गया। अश्लीलता को दिखाने का एक अलग ही पैटर्न है। और कई फिल्म निर्माता इस पैटर्न को अपनाते हैं। पहली बार जितना दिखाया जाता है अगली बार उससे अधिक या आगे दिखाने की प्रवृत्ति काम करती है। ये प्रवृत्ति संक्रामक होती है जो दूसरे फिल्म निर्माताओं को भी अपनी चपेट में ले लेती है। अगर हम भारतीय फिल्मों के उदाहरण से इसको समझें तो ये पैटर्न साफ दिखता है। 1970 के बाद ही फिल्मों को लें तो बलात्कार जैसे दृश्यों को दिखाने के लिए पहले फूलों को मसलने से लेकर गिरगिट के फतंगे को खाने के दृष्य को प्रतीक के तौर पर उपयोग में लाया जाता था। फिर जब ये स्थापित हो गया तो निर्माता थोड़ा और आगे बढ़े और नायिका को जबरन पकड़ने और साड़ी आदि खींचने के दृश्य आ गए। अब तो ये प्रवृत्ति नग्नता तक चली गई है। इसका आधुनिकता और समाज के खुलेपन आदि से कोई लेना देना नहीं है बल्कि ये अश्लीलता का व्याकरण है जो इस नियम का पालन करता है जिसमें थोड़ा और, थोड़ा और करते हुए आगे बढ़ते हैं। 

चतुर निर्माता पहले थोड़ा दिखाते हैं और उन दृश्यों को दर्शकों की स्वीकार्यता की प्रतीक्षा करते हैं। उसको बोल्ड, खुलापन आदि कहकर एक सुंदर सा आवरण चढ़ाते हैं। अगर आप हिंदी फिल्मों में किसिंग सीन के विकास क्रम को देखें या नायिकाओं के बिकिनी या कम कपड़े पहनने के चलन के बारे में विचार करें तो निर्माताओं की चतुराई की प्रवृत्ति स्पष्ट दिखती है। ‘संगम’ फिल्म में वैजयंतीमाला के बिकिनी पहनने से फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ में मंदाकिनी के झरने में झीनी साड़ी में स्नान-दृश्य से लेकर फिल्म ‘जिस्म’ तक के दृश्यों में इसको रेखांकित किया जा सकता है। ये सब कहानी की मांग की आड़ में होता है। नायिकाओं के खुलेपन को दिखाने का भी एक कौशल होता है। राज कपूर की फिल्मों में ये कौशल दृष्टिगोचर होता है। वहां खुलेपन में भी एक कलात्मकता होती है या कह सकते हैं कि उस खुलेपन का एक सौंदर्यशास्त्र होता है। कालांतर में ये कलात्मकता गौण होती चली गई और उसका स्थान नग्नता ने ले लिया। यही हाल हिंसा का भी है। अगर आप 1970 के पहले की फिल्में देखें तो उसमें जिस तरह की हिंसा होती थी अपेक्षाकृत उसके बाद हिंसा बढ़ती चली गई। अब तो हालात ये है कि किसी की हत्या के बाद उसके शरीर को इस बुरी तरह के काटा जाता है कि आप चंद सेकेंड उस दृश्य को नहीं देख सकते। पहले पेट में चाकू मारकर हत्या की जाती थी, फिर गोलियों से भूना जाने लगा अब फाइट सीन के बाद खलनायक को नुकीली चीज पर टांग दिया जाता है या फिर धारदार हथियार से मारकर अंतड़ियां तक निकाल दी जाती हैं। परिवार के साथ बैठकर न तो खुलापन देख सकते हैं न ही हिंसा के दृश्य।  

कुछ निर्माताओं या निर्देशकों के बारे में कहा जाता है कि कई बार वो अपनी फिल्मों में निजी कुंठा का प्रदर्शन करते हैं। आप ओटीटी पर चलनेवाले कुछ वेब सीरीज के निर्माता या निर्देशक का नाम देखेंगे और उनके बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे तो ये और भी स्पष्ट हो जाएगा। मानसिक रूप से बीमार या कुंठित कुछ निर्माता यौनिकता के चित्रण में आनंद प्रात करते हैं। उनको जब दर्शक भी मिल जाते हैं तो उनका ये आनंद बढ़ जाता है। अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी के पति राज कुंद्रा की गिरफ्तारी के बाद एक बार फिर से मनोरंजन के नाम पर अश्लील सामग्री परोसने की या अश्लील फिल्मों के निर्माण को लेकर सख्त नियम बनाने की बात शुरू हो सकती है। इंटरनेट माध्यमों पर उपलब्ध नग्नता को काबू में करने की बात और मांग संभव है।