Translate

Tuesday, January 28, 2014

अरविंद के नाम खुला खत

प्रिय अरविंद जी
दिसंबर की सर्दी की शुरुआत हो रही थी और दिल्ली का सियासी पारा अपने उबाल पर था । पिछले साल आठ दिसंबर को विधानसभा चुनाव के नतीजे आए थे । साफ हो गया था कि दिल्ली की जनता ने कांग्रेस के पंद्रह साल के विकास के दावों को नकार दिया था, भारतीय जनता पार्टी में अपना पूरा भरोसा नहीं जाहिर किया था । दिल्ली की जनता ने यह साफ कर दिया था कि आप की पार्टी में उनको भरोसा है, हलांकि सरकार चलाने का जनादेश आपको भी नहीं मिला था । कांग्रेस ने बिन मांगे आपको समर्थन दे दिया और उनकी सियासी चाल को भांपते हुए आपने चुनौती स्वीकार कर दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली । शपथग्रहण समारोह के बाद आपने किसी परंपरा की परवाह नहीं करते हुए वहां से जनता को संबोधित भी किया और तमाम वादे किए और अपने इरादे भी जाहिर किए । आपको और आपकी सरकार को लेकर दिल्लीवासियों का एक सपना था,अपेक्षा सातवें आसमान पर थी। पंद्रह साल से सूबे में और दस साल से केंद्र में कांग्रेस का राज देख चुका दिल्ली का आम आदमी, जिसकी नुमाइंदगी का आप दावा करते हैं और जिसने आपको दिल्ली की मुख्यमंत्री की गद्दी तक पहुंचाया, त्रस्त था । भ्रष्टाचार और महंगाई से विद्रोह की हद तक ऊब चुकी जनता के आक्रोश को आपने आवेग दी । जनता ने उसी आवेग से आपको वोट दिया । जनता की  बेहतर जिंदगी के लिए आजाद भारत के नेताओं ने अबतक सब्जबाग दिखाए थे लेकिन आपने सपना दिखाया और जनता ने आप के दिखाए उन सपनों पर यकीन कर लिया । चुनाव से पहले आपने दिल्ली के आम आदमी को पानी और बिजली के बिलों में राहत देने का वादा किया था । मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही आपने इन दोनों वादों को पूरा किया । हर सफल राजनेता से जनता की अपेक्षा होती है कि वो अपना वादा पूरा करे । दिल्ली में हर घर को आपने तकरीबन सात सौ लीटर पानी मुफ्त देने का अपना पहला वादा पूरा किया । अरविंद जी, जब मैंने दिल्ली में पानी वितरण की स्थिति का आकलन किया तो मेरे मन में कई सवाल खड़े होने लगे । पहला सवाल तो यही उठा कि क्या आपको सिर्फ उन्हीं लोगों ने वोट दिया था जिनके घर में पानी के मीटर लगे हैं या आपने मुफ्त पानी का वादा सिर्फ उन्हीं लोगों से किया था जिनके घर में मीटर लगे थे । माननीय मुख्यमंत्री जी जिस तत्परता से आपने मुफ्त पानी का अपना वादा पूरा किया उतनी ही तत्परता उन इलाकों में पानी पहुंचाने की भी होनी चाहिए जहां पीने का क्या नहाने का पानी भी उपलब्ध नहीं है । सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि दिल्ली के उन इलाकों में पानी कब पहुंचेगा जहां पानी उपलब्ध नहीं है । कब तक दिल्ली पानी के मामले में आत्मनिर्भर हो पाएगा और बार बार इसके लिए हरियाणा आदि का मुंह नहीं देखना पड़ेगा । पानी वितरण के विशेषज्ञों के मुताबिक दिल्ली में वितरण के दौरान बहुत पानी बरबाद होता है । लीकेज एक बड़ी समस्या है । पानी के पाइपलाइन कई इलाकों में इतने टूट फूट चुके हैं कि कई बार उनसे सीवर का पानी आने लगता है । पानी की पाइपलाइन बदलना बहुत ही मुश्किल कार्य है लेकिन आपकी प्राथमिकता में ये होना चाहिए । आपने दिल्ली में टैंकर माफिया को खत्म करने का वादा भी किया था । लोकलुभावन वादों को पूरा करने के चक्कर में इस बात का पता नहीं चल पा रहा है कि कब तक दिल्ली टैंकर माफिया से मुक्त हो पाएगी । आपने आते ही दिल्ली जल बोर्ड में बड़े पैमाने पर तबादले किए । उनके नतीजे दिखने शेष हैं । हलांकि महीने भर से शासन की बागडो़र संभालने वाली सरकार से इतनी अपेक्षाएं उचित नहीं है लेकिन अगर आप इन बुनियादी समस्याओं पर ध्यान देकर उनको दूर करने में अपना ध्यान लगाएंगे तो इतिहास पुरुष हो जाएंगे । अरविंद जी, आपसे इस तरह की अपेक्षाएं इस वजह से हैं कि आपने हमें एक अलग तरह की राजनीति की राह दिखाई जो राजनीति पारंपरिकता से अलहदा है ।
आपने दूसरा वादा किया था बिजली के बिलों को आधा करने का । चूंकि चुनावी वादा था और पूरा नहीं करने पर विरोधी आपको घेरते लिहाजा आपने सब्सिडी का शॉर्टकट चुना । यह संतोष की बात है कि आपने ये व्यवस्था सिर्फ तीन महीने के लिए लागू की है । बिजली पर सब्सिडी देने या जनता का मुफ्त बिजली देने का स्टंट काफी पुराना है । अंतत: इसका फायदा जनता को होता नहीं है और सब्सिडी का बोझ घूम फिरकर टैक्स के रूप में आम आदमी पर ही पड़ता है । सब्सिडी का दूसरा नुकसान यह है कि जिस पैसे से सड़क, स्कूल या अस्पताल जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा किया जा सकता था वो उन्हीं कंपनियों के खातों में जा रहा है जिसके आप खिलाफ हैं । सर्दियों के मौसम में तो बिजली नहीं आने से जनता नाराज नहीं होती लेकिन गर्मी में अगर सप्लाई में कटौती होती है तो जनता सड़कों पर उतर आएगी । दिल्ली में बिजली चोरी और वितरण के दौरान जेनरेशन लॉस की बात कहकर बिजली कंपनियां लगातार सरकार से वित्तीय सहायता लेती रहती हैं या लेने की जुगत में रहती हैं । इन बातों के मद्देनजर आपकी सरकार की तरफ से कोई योजना दिखाई नहीं दे रही है । बिजली के दोषपूर्ण मीटरों को लेकर आप जिस तरह से चुनाव अभियान के वक्त आक्रामक थे वैसी आक्रामकता बतौर मुख्यमंत्री नहीं दिखाई दे रही है । आपको जिस तरह की कार्रवाई करनी चाहिए थी वो भी नहीं हो पा रहा है । हो सकता है कि आप इन मुद्दों पर काम कर रहे हों लेकिन जब तक इजहार-ए-मोहब्बत नहीं होता है तो इश्क परवान नहीं चढ़ पाता है । तो केजरीवाल साहब आप तो जनता की सहभागिता और स्वराज की बात करते हैं तो अपनी जनता को इन फैसलों और योजनाओं, अगर बन रही हैं तो, में भागीदार बनाइए ।
अरविंद जी, एक बात और आपसे कहना चाहता हूं । आपमें और आपकी सरकार के मंत्रियों में पद संभालने के बाद एक खास किस्म की आक्रामकता आ गई है, जो विनम्रता और सहनशीलता आपकी ताकत और पहचान हुआ करती थी उसका सिरा आपलोगों के हाथों से छूटता नजर आ रहा है । अब आपमें अपनी आलोचना बर्दाश्त करने की क्षमता का भी क्षय होने लगा है । आपने अपने हालिया धरने के दौरान जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल देश के गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे के लिए किया उससे अच्छा संदेश नहीं गया । आप तो भारत माता की जयकार के साथ अपने भाषणों की शुरुआत करते हैं । देश की सभ्यता और संस्कृति का एहसास भी आपको है । हमारे देश में बड़ों से गाली गलौज की भाषा में बात करनेवालों को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता है । आपका यह बयान या तो किसी हताशा का प्रतीक था या फिर सत्ता के नशे का । दिल इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि अरविंद केजरीवाल पर सत्ता का नशा इतना हावी हो जाएगा कि वो सामाजिक और सार्वजनिक मर्यादा का पालन करना भूल जाएंगे । हो सकता है कि धरने के दौरान अपेक्षित भीड़ नहीं जुटने की हताशा में आप मर्यादा भूल गए हों । इस बीच आपके कानून मंत्री ने देश के एक बड़े वकील और भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता के मुंह पर थूकने वाला बयान दे दिया । यह बयान अवांछित और बेहद आपत्तिजनक था । दोनों ही शख्स की देशभर में प्रतिष्ठा है । लिहाजा चौतरफा दबाव की वजह से आम आदमी पार्टी को माफी मांगनी पड़ी लेकिन तबतक पार्टी और उसकी जितनी भद पिटनी थी वो पिट चुकी थी । पार्टी के माफी मांगने के बाद भी आपके कानून मंत्री को अक्ल नहीं आई है और उन्होंने सार्वजिनक रूप से एक पत्रकार से ही जानना चाहा कि उसे सवाल पूछने के लिए मोदी से कितने पैसे मिले हैं । ये किस तरह की मानसिकता है, कौन सा मनोविज्ञान है जो आपलोगों को आलोचना बर्दाश्त नहीं करने दे रहा है । जानकारों का मानना है कि ऐसे बयान सिर्फ हताशा में ही दिए जा सकते हैं । आपके मंत्री सोमनाथ भारती की हताशा तो समझ में आती है पर केजरीवाल जी आपकी विनम्रता और सहनशीलता तो आपकी ताकत थी, आपको क्या हुआ है । सोचिएगा ।
पत्र थोड़ा लंबा हो रहा है लेकिन केजरीवाल जी आपने सपने भी तो बड़े लंबे लंबे दिखाए हैं । आप दिल्ली की जनता की समस्याओं को देखने समझने के बजाए अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षा के चक्रव्यूह में फंसते नजर आ रहे हैं । दिल्ली में अपने को मजबूत करने के बजाए आप देशभर में अपनी पार्टी को छितराने में लगे हैं । कई राजनीतिक पंडितों का मानना है कि आप ऐसा करके कांग्रेस के बुने जाल में फंस रहे हैं । कांग्रेस आपके कंधे पर बंदूक रखकर मोदी का शिकार करना चाहती है । आप खुशी खुशी वो कंधा मुहैया करवा रहे हैं । कांग्रेस की रणनीति है कि वो मोदी के विजयरथ के पहिए में आम आदमी पार्टी का फच्चर फंसा दे । आप फच्चर बनने के लिए तैयार हैं । लोकसभा का चुनाव दिल्ली विधानसभा चुनाव से अलहदा होता है । यह बात आपको और आपके अनुभवी साथी अवश्य जानते हैं, बावजूद इसके देशभर में अपने उम्मीदवार खड़े करने की लालसा कहीं आपको तथाकथित रूप से सांप्रदायिकता के खिलाफ बने समूह में तो शामिल नहीं कर देगी । आपकी पार्टी के आला नेताओं के बयान से लग भी यही रहा है कि आम आदमी पार्टी का सियासी दुश्मन भारतीय जनता पार्टी ही है । अगर ऐसा होता है तो आप कांग्रेस को परोक्ष रूप से मदद करेंगे । अभी तो आपके विरोधी शीला सरकार के भ्रष्टाचार पर आपके धीमे चलने पर ही सवाल खड़े करने लगे हैं । लेकिन अगर आप सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस का दामन थामते हैं या फिर उसके हाथ को मजबूत करते हैं तो जनता को भी यही लगेगा । केजरीवाल साहब 77 में जब जनता का भरोसा टूटा तो 12 साल लगे थे वी पी सिंह के आंदोलन को खड़ा होने में, वी पी सिंह से भरोसा टूटा तो करीब पच्चीस साल बाद जनता ने आपमें अपना नायक देखा और अगर इस बार भरोसा टूटता है तो हमारी जिंदगी में तो ऐसा अवसर नहीं मिलेगा । इसलिए आप इस ऐतिहासिक मौके को अपनी महात्वाकांक्षा और कांग्रेस की सियासत का शिकार ना होने दें ।

Sunday, January 19, 2014

सर्द मौसम का विमर्श पर असर

जयपुर के दिग्गी पैसेल होटल परिसर में पांच दिनों तक चलनेवाले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की शुरुआत हो चुकी है । जनवरी की हा़ड़ कंपा देनेवाली सर्द सुबह में राज्यपाल मारग्रेट अल्वा और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन ने इसकी औपचारिक शुरुआत की । सात सालों से हर साल आयोजित होनेवाला ये लिटरेचर फेस्टिवल अब साहित्यक विमर्श के मंच से बहुत आगे जा चुका है । अब ये मेला पूरी तरह से कमर्शियल हो गया है । दिग्गी पैलेस के परिसर में अब एक पूरा मीना बाजार सजने लगा है । एक एख इंच खाली जमीन पर तरह तरह के समानों की दुकानें खड़ी हो गई हैं । राजस्थानी कपड़ों से लेकर हस्तशिल्प तक और सोने के गहनों से लेकर जूतियों और थैलों तक की दुकानें वहां लगने लगी हैं । किताबों की दुकानें कम अन्य चीजों की दुकानें ज्यादा हो गई हैं ।  मैं इस साहित्यक महफिल को इस वजह से मीना बाजार कहता हूं कि यहां वो पूरा माहौल है जो कि किसी भी मजमे को मीना बाजार बनाने के लिए काफी होता है । चाय और कॉफी के अलग अलग स्टॉल के अलावा बर्गर से लेकर लजीज व्यंजन तक अब वहां मौजूद हैं । इन सबसे आयोजकों को अच्छी खासी आय होती है । हस्तशिल्प और गहने तो विदेशी मेहमानों को ध्यान में रखकर लगाए गए हैं । कीमत भी उसी हिसाब से रखी गई हैं ।जयपुर के इस साहित्योत्सव में अब विमर्श कम भीड़ ज्यादा होती है । मुझे याद है कि छह साल पहले जब दिग्गी पैलेस के फ्रंट लॉन में साहित्यक विमर्श होता था तो साहित्य के गंभीर श्रोता और साहित्यप्रेमी ही वहां उपस्थित होते थे । ना कोई भीड़ भाड़ ना कोई तामझाम । अब तो कुल्हड़ की चाय का भी व्यावसायीकरण हो गया है । राजस्थानी साफा बांधे कुल्हड़ में चाय पीने के लिए कूपन लेनेवालों की लंबी कतार फ्रंट लॉन में लगती है ।
साहित्यप्रेमियों के अलावा बच्चे भी अच्छी खासी संख्या में इस मेले को देखने आते हैं । अब तो हालात यह है कि जिस तरह से किसी भी स्कूल से बच्चों को अप्पू घर ले जाया जाता है उसी तरह स्कूली बच्चे लाइन लगाकर स्कूल की यूनिफॉर्म में इस मीना बाजार में घूमने आते हैं । उनके साथ उनके शिक्षक भी होते हैं जो बच्चों को लाइनलगवाकर मेला दिखाते हैं और फिर बाहर ले जाते हैं । साहित्य प्रेमियों से ज्यादा भीड़ तमाशा और सेलिब्रिटीज को देखने और उनके साथ फोटो खिंचवानेवालों की होती है । आयोजकों ने भी इस आयोजन को लोकप्रिय बनाने और भीड़ के आकर्षण का केंद्र बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है । हर बार साहित्यक सुपरस्टार के साथ साथ लोकप्रिय फिल्मों के कलाकारों को भी यहां बुलाया जाता है ताकि आम जनता को आकर्षित किया जा सके । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को मशहूर करने में विवादों की भी बड़ी भूमिका है । जावेद शबाना से लेकर गुलजार और शर्मिला टैगोर तक यहां टहलते नजर आते रहे हैं । मुझे याद है कि पिछली बार जब राहुल द्रविड़ और राजदीप सरदेसाई का सेशन हुआ था तो फ्रंट लॉन को सेशन शुरू होने के पहले ही बंद कर देना पड़ा था । इतनी भीड़ थी कि सुरक्षाकर्मियों को उन्हें काबू में करने में दिक्कत हो रही थी । दिग्गी पैलेस के सामने सड़क तक लंबी कतार लगी हुई थी । ट्रैफिक पुलिस को गाड़ियों की भीड़ को काबू में करने के लिए खासी मशकक्त करनी पड़ी थी ।
पिछले दो सालों से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल विवादों की वजह से चर्चा में रहा है । पिछले साल समाजशास्त्री आशीष नंदी ने के पिछड़ों पर दिए गए बयान और आशुतोष के प्रतिवाद ने पूरे देश में एक विवाद खड़ा कर दिया था । आशीष नंदी ने कहा था कि इट इज अ फैक्ट दैट मोस्ट ऑफ द करप्ट कमन फ्राम दे ओबीसी एंड शेड्यूल कास्ट एंड नाऊ इंक्रीजिंगली शेड्यूल ट्राइब्स । आशीष नंदी के उस बयान का उस वक्त पत्रकार रहे और अब आम आदमी पार्टी के नेता आशुतोष ने जमकर प्रतिवाद किया था । दोनों तरफ के बयानों पर जमकर तालियां भी बजी थी और बाद में राजनीतिक रोटियां भी सेंकी गई थी । उस विवाद पर हफ्तों तक न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर लंबी बहसें चली थी । कुछ नेता भी इस विवाद में कूद पड़े थे और आयोजकों और आशीष नंदी पर केस मुकदमे भी हुए थे, वारंट जारी हुआ था । बाद में जब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और सुलझा तबतक लिटरेचर फेस्टिवल हर किसी की जुबां पर था । पूरे देश में लोग जान गए कि जयपुर में इस तरह का सालाना जलसा होता है । आशीष नंदी के बयान पर उठे विवाद के पहले पहले भारतीय मूल के लेखक सलमान रश्दी के जयपुर आने को लेकर अच्छा खासा विवाद हुआ था । कुछ कट्टरपंथी संगठनों ने सलमान के जयपुर साहित्य महोत्सव में आने का विरोध किया था । उनकी दलील थी कि सलमान ने अपनी किताब- सैटेनिक वर्सेस में अपमानजन बातें लिखी हैं जिनसे उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुई थी । उस वक्त उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होनेवाले थे लिहाजा सियासी दलों ने भी इस विवाद को जमकर हवा दी और नतीजा यह हुआ कि सलमान रश्दी को आखिरकार भारत आने की मंजूरी नहीं मिली । तीन चार दिनों तक चले उस विवाद में जयपुर साहित्य सम्मेलन खासा चर्चित हो गया था । उस विवाद की छाया लंबे समय तक जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को प्रसिद्धि दिलाती रही थी। चूंकि सलमान रश्दी विवाद के केंद्र में थे इसलिए इंटरनेशनल मीडिया में उसको खासी तवज्जो मिली । अब तो हालत यह है कि जयपुर साहित्य महोत्सव इंटरनेशनल लिटरेरी कैलेंडर में अपना एक अहम स्थान बना चुका है । इस बार अब तक किसी विवाद के संकेत नहीं मिल रहे हैं । हलांकि इस बार फ्रीडम जैसा उपन्यास लिखकर दुनियाभर में शोहरत पा चुके अमेरिकी उपन्यासकार जोनाथन फ्रेंजन ने यह कहकर आयोजकों को सकते में डाल दिया कि- जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसी जगहें सच्चे लेखकों के लिए खतरनाक है, वे ऐसी जगहों से बीमार और लाचार होकर घर लौटते हैं । अगर अपने इस वक्तव्य को थोड़ा विस्तार देते और बेहतर होता और उसपर विमर्श भी संभव था । जोनाथऩ का उपन्यास फ्रीडम खासा चर्चित रहा है और आलोचकों ने उसे वॉर एंड पीस के बाद का सबसे अहम उपन्यास माना है । इस वजह से उनकी बात को हल्के में भी नहीं लिया जा सकता है । इसके पहले नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन ने आम आदमी पार्टी के उभार को भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती के तौर पर पेश किया । उन्होंने आम आदमी पार्टी की तारीफ करते हुए कहा कि उन्हें अपेक्षा है कि भारत में एक ऐसी दक्षिणपंथी पार्टी की अपेक्षा है जो धर्मनिरपेक्ष हो । इसके पहले अमर्त्य सेन का नरेन्द्र मोदी विरोध काफी चर्चा में रह चुका है औपर अब वो आम आदमी पार्टी के बहाने से एक नया शिगूफा छोड़ गए हैं । वहीं अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल के नेत्रहीन लेखक वेद मेहता ने मोदी पर निशाना साधा और कहा कि अगर वो देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो वो भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए खतरनाक होगा । उनके मुताबिक मोदी के विचार हमेशा हिंदुओं और मुसलमानों को बांटनेवाले होते हैं । अस्सी वर्षीय मेहता ने अपने विचारों और वक्तव्य से स्पंदन पैदा करने की कोशिश की लेकिन उनके विचारों में मौजूद पूर्वग्रह साफ झलक रहा था लिहाजा लोगों ने उनको गंभीरता से नहीं लिया । साहित्योत्सव में हर बार इस तरह की कोशिशें होती रही हैं लेकिन मेरी समझ में नहीं आता है कि किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ पूर्वग्रह लेकर विमर्श में वस्तुनिष्ठता कैसे आ सकती है ।

लेकिन जयपुर साहित्य महोत्सव इस मायने में अहम भी है कि इसने भारत में इस तरह के साहित्यक उत्सवों की एक संस्कृति विकसित की है । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की देखादेखी आज देशभर में कई लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित होने लगे हैं । हर संस्थान इस तरह के आयोजन को करने के लिए लालायित नजर आ रहा है । अखबारों ने भी लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित करने में खासी रुचि दिखाई है । नतीजा यह हुआ है कि इस तरह के आयोजन महानगरों के अलावा सुदूर छोटे शहरों में भी होने लगे हैं । यह एक अच्छी बात है और साहित्य के लिए शुभ संकेत भी । इस तरह से आयोजनों और विमर्श से हमारे समाज में एक सांस्कृतिक संस्कार विकसित हो सकता है । इसके लिए यह जरूरी है कि इस तरह के उपक्रमों का व्यावसायीकरण ना हो, पैसे कमाने का उद्यम ना बने । इस तरह के आयोजनों में मंशा ज्यादा अहम होती है क्योंकि अगर मंशा साफ है तो नतीजे बेहतरीन मिलते हैं । 

Wednesday, January 15, 2014

बलात्कार, मीडिया और समाज

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने से लेकर उसके मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बंगले और मंत्रियों की गाड़ी पर मचे कोलाहल और शोरगुल के बीच राष्ट्रीय मीडिया ने कई बड़ी खबरों की या तो अनदेखी कर दी या फिर उस आवेग से उसको नहीं उठाया जिसकी वो खबरें हकदार थी । राष्ट्रीय मीडिया की अनदेखी की शिकार हुई पश्चिम बंगाल के मध्यमग्राम में नाबालिग से बलात्कार और उसे जिंदा जलाकर मार डालने मौत की दिल दहला देने वाली खबर । दिसंबर दो हजार बारह में जब दिल्ली में एक मेडिकल की छात्रा के साथ गैंगरेप हुआ था तो पूरे देश में बलात्कार जैसी घिनौनी वारदात के खिलाफ माहौल बनाने में मीडिया ने अहम भूमिका निभाई थी और लगातार कवरेज की वजह से सरकार बलात्कार के खिलाफ कडे कानून बनाने को मजबूर हुई थी । सोनिया गांधी से लेकर प्रधानमंत्री तक बयान देने को मजबूर हुए थे । अब मीडिया को आम आदमी पार्टी के उत्थान में ऐसी क्रांति दिखी कि बाकी सभी खबरें उससे छूटती चली गई । पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से चंद किलोमीटर दूर मध्यमग्राम में बिहार की एक सोलह साल की लड़की को अगवा कर गैंगरेप की वारदात को अंजाम दिया जाता है । अपराधियों के हौसले इतने बुलंद थे कि पीड़ित लड़की जब अपने परिजनों के साथ थाने में केस दर्ज करवा कर लौट रही थी उसके साथ दोबार रेप किया और उसे जिंदा जला दिया । पुलिस आरोपियों को पकड़ने की बजाए पीड़ित परिवार को कठघरे में खड़ा कर रही है । यह कोई मामूली घटना नहीं थी जिसे पुलिस रुटीन अपराध की तरह से लेती तफ्तीश करती । यह एक असाधारण अपराध था जिसमें पुलिस को असाधारण तरीके से कहर बनकर अपराधियों पर टूट पड़ना चाहिए था । वारदात और उसके दोहराव ने यह साबित कर दिया कि अपराधियों के मन में राज्यसत्ता, पुलिस और कानून का कोई भय नहीं था । पश्चिम बंगाल में पिछले दिनों औरतों के खिलाफ अपराध में भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई है । दरअसल अपराध पर होनेवाली राजनीति इसकी वजह हैं । बढ़ते अपराध को रोकने में नाकाम रही ममता सरकार इसके लिए विरोधी दलों को जिम्मेदार ठहराती रही है । आरोप प्रत्यारोप के खेल में पुलिस की नाकामी पर पर्दा पड़ता है पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता है । बंगाल के मध्यमग्राम बलात्कार कांड को भी सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस ने राजनीतिक रंग देकर अपनी नाकामी और अकर्मण्यता छुपाने की जोरदार कोशिश की है । ममता बनर्जी के सिपहसालार मकुल रॉय विपक्ष पर हमलावर दिखे और उनपर बलात्कार के बहाने सूबे की छवि खराब करने का आरोप लगाते हैं । मुकुल रॉय को यह बात समझनी होगी कि एक भी बलात्कार समाज पर धब्बा तो है ही सरकार के निकम्मेपन का भी प्रमाण है । एक ऐसे सूबे का जहां कि मुख्यमंत्री महिला हो वहां महिलाओं के खिलाफ होनेवाले अपराध में इजाफा चिंता का विषय है । चिंता का सबब तो कड़े बलात्कार के कानून के बावजूद ऐसे अपराधों पर अंकुश नहीं लग पाना भी है। दरअसल अगर हम गहराई में विचार करें तो बलात्कार हमारे समाज का एक ऐसा नासूर है जिसका इलाज कड़े कानून के अलावा हमारे रहनुमाओं की इससे निबटने की प्रबल इच्छा शक्ति भी है।
बलात्कार से निबटने के लिए समाज के रहनुमाओं की इच्छा शक्ति तो दूर की बात है जरा महिलाओं को लेकर उनके विचार देखिए । शिया धर्म गुरु कल्बे जव्वाद कहते हैं लीडर बनना औरतों का काम नहीं है, उनका काम लीडर पैदा करना है ष कुदरत ने अल्लाह ने उन्हें इसलिए बनाया हैवो घर संभाले और अच्छी नस्ल के बच्चे पैदा करें । रामजन्मभूमि न्यास के महंथ नृत्यगोपाल दास की बात सुनिए- महिलाओं को अकेले मठ, मंदिर और देवालय में नहीं जाना चाहिए । अगर वो मंदिर, मठ या देवालय जाती हैं तो उन्हें पति, पुत्र या भाई के साथ ही जाना चाहिए नहीं तो उनकी सुरक्षा को खतरा है । ये तो थी धर्म गुरुओं की बात । जरा महिलाओं को लेकर राजनेताओं के विचार जान लेते हैं- लंबे समय तक गोवा के मुख्यमंत्री रह चुके कांग्रेस नेता दिगंबर कामत ने कहा था- महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए क्योंकि इससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । राजनीति महिलाओं को क्रेजी बना देती है । समाज के बदलाव में महिलाओं कीमहती भूमिका है और उन्हें आनेवाली पीढ़ी का ध्यान रखना चाहिए । समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह का बयान- अगर संसद में महिलाओं को आरक्षण मिला और वो संसद में आईं तो वहां सीटियां बजेंगी । इस वक्त के केंद्रीय मंत्री ने तो सारी हदें तोड़ते हुए कहा था कि बीबी जब पुरानी हो जाती है तो मजा नहीं देती है । इन बयानों को देखकर ऐसा लगता है कि महिलाओं के प्रति हमारे समाज की जो सोच है वो धर्म, जाति, संप्रदाय से उपर उठकर तकरीबन एक है और ही सोच महिलाओं के प्रति होनेवाले अपराध की जड़ में है । धर्मगुरुओं और नेताओं के इस तरह के बयान से समाज के कम जागरूक लोगों में यह बात घर कर जाती है कि महिलाएं तो मजा देने के लिए हैं या मजा की वस्तु हैं । इस तरह के कुत्सित विचार जब मन में बढ़ते हैं तो वो महिलाओं के प्रति अपराध की ओर प्रवृत्त करते हैं । उन्हें इस बात से बल मिलता है कि उनके नेता या गुरु तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा देते ही नहीं हैं । जरूरत इस बात कि है कि समाज के जो आदर्श होते हैं ।

सुप्रीम कोर्ट भी समय समय पर बलात्कार के खिलाफ अपनी चिंता जता चुका है । कुछ वक्त पहले ही सर्वोच्च अदालत ने ये जानना चाहा था कि क्या समाज और सिस्टम में कोई खामी आ गई है या सामाजिक मूल्यों में गिरावट आती जा रही है या पर्याप्त कानून नहीं होने की वजह से ऐसा हो रहा है या फिर कानून को लागू करनेवाले इसे ठीक से लागू नहीं कर पा रहे हैं । पश्चिम बंगाल की घटना के मामले में तो साफ है कि कानून को लागू करनेवाले इसे ठीक से लागू नहीं कर पा रहे हैं । थाने से वारदात की शिकायत कर घर लौटते वक्त अगवा कर फिर से गैंगरेप और अभी तक सरकार की तरफ से लीपापोती की कोशिश- ममता सरकार के लिए शर्मिंदगी का सबब है।  बंगाल सरकार के प्रतिनिधि मामले को दबाने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं । उन्हें इस बात का तो दुख है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पीड़ित लड़की से मिलने के लिए अपने पुलिस अफसर को क्यों भेजा, नीतीश ने आर्थिक सहायता क्यों दी आदि आदि । बंगाल सरकार को अपनी छवि खराब होवे की फिक्र है लेकिन उस परिवार की सुध लेने की नहीं जिसकी नाबालिग बेटी के साथ दो बार गैंगरेप हुआ। सवाल तो उन लोगों पर भी उठेंगे जो हाथों में मोमबत्तियां लेकर इंडिया गेट पर खड़े होकर न्याय की मांग करते रहे हैं । क्या जबतक टीवी कैमरे नहीं पहुंचेगें मोमबत्तियां नहीं जलेंगी । अगर हमारा समाज इसी तरह से चुनिंदा होकर जगेगा तो फिर तो इतिहास इस नवजागरण को ही संदेह की दृष्टि से देखेगा  और आने वाली पीढियां हमें माफ नहीं करेंगी । 

Tuesday, January 7, 2014

Politics of Congress

modi-kejriwalIn view of the Lok Sabha elections news channels are in top gear discussing political topics. Before the results of the four state legislative assembly elections Narendra Modi, his personality and record were discussed threadbare. But after the announcement of results the scenario of political discourse/debate on news channels changed drastically. Aam Aadmi Party (AAP) came out triumphant winning twenty eight seats out of seventy in Delhi and changed the political landscape forever.This success of the AAP forced news channels to discuss the new phenomena. Newspapers started giving wide coverage to AAP and its leader Arvind Kejriwal. On second of this month Kejriwal proved his majority on the floor of the Delhi assembly with the help of eight Congress legislators. With less than four months to go for the general elections, the political game is at its peak.
On social media, right wing activists and BJP supporters started the smear campaign about the tacit understanding between AAP and Congress. In one of the discussions on a news channel BJP and AAP representatives were at loggerheads. Viewers were faced with the spectacle of six windows on the screen of the channel showing the representatives of AAP, BJP, Cong and two journalists along with the anchor of the show. In that six window AAP and BJP representative started fighting and firing salvos at each other. But this is not the story. The real story is the body language of the Congress leader.
While BJP and AAP representatives were fighting, the Congressman was smiling and kept mum. This screen shot of the news channels gave us some sign of the politics of the grand old party during the coming Lok Sabha election. It seems that Congress does not want a direct fight between its heir apparent Rahul Gandhi and BJP prime ministerial candidate Narendra Modi in the upcoming Lok Sabha elections. Rather, Congress will try its level best to make it Modi versus Kejriwal. Party insiders say that they are working overtime to make this happen. If this happens, the Yuvraj of the Congress will be saved of the embarrassment of losing the first electoral battle fought under his leadership.
Last December, when Congress announced the unconditional support to AAP after its massive defeat in Delhi, political pundits announced that this step will be disastrous for the party. Similarly, when Rahul Gandhi said that the party has to learn from the AAP after the defeat, political analysts termed that statement kiddish. Both the assessments of are somehow proving wrong.
In today’s scenario those two smart moves were made to defeat Modi or at least check his growing popularity. The result of assembly elections proved that there is a wave in favour of Modi and congress assessed that it is not in a position to stop the Modi wave. The new leadership of the Congress is seen as weak vis a vis Modi.
The credibility of Congress and the UPA government is at an all time low. Corruption and inflation played havoc for the Aam Aadmi. The people of this country started seeing a saviour in Modi and an able administrator and Vikas Purush. Modi’s publicity machinery, very smartly, created an atmosphere that Modi is the only saviour.
In this highly charged political situation Arvind Kejriwal’s success came as a ray of hope for the congress party. They grabbed this opportunity and announced unsolicited support to the AAP. Now, the question is whether this move will work in favour of the Congress in the coming months.
The fact of the matter is that Congress has used this trick in the past. The party used Charan Singh against Morarji Desai, Chandra Shekhar against VP Singh. Many a time Congress used this move of chess in Indian politics. The party used the pawn to check mate the Wajir or the King and came out successful. In the past congress successfully check-mated political opponents and stalwarts by its sheer political brilliance. By installing pawns at top positions.
By doing this Congress minimizes the anger of the masses towards the party. After some time it pulled the rug and created an atmosphere which led people to believe only the Congress can give a stable government. History repeats itself is an old saying and again Congress is trying to repeat history. But this time the game is slightly different. It seems the pawn is cleverer than ones in the past. AAP is not in the game of conventional politics and if it gives the impression that it can give an alternative then the political scenario of this country may have changed forever.
But it is for sure that Congress is going all out to curb Narendra Modi’s popularity. The old Hindi song – Ham toh doobe hain sanam tumko bhi le doobenge.

Saturday, January 4, 2014

‘आप’ बिगाड़ेगा मोदी का खेल ?

बीते साल दिल्ली के राजनीतिक क्षितिज पर अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के उदय के साथ साथ सिर्फ कैलेंडर ही नहीं बदला बल्कि ऐसा माहौल बना है जिससे ये प्रतीत होने लगा है कि भारत की सियासत का चेहरा भी बदलने लगा है । दिसंबर में विधानसभा चुनाव के पहले और उसके बाद 4 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की शानदार सफलता के बाद पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी देश की राजनीति के केंद्र में थे । उनकी विकास पुरुष और कुशल और कड़क प्रशासक की छवि का डंका पूरे में देश में बज रहा था और बजाया जा रहा था । राहुल गांधी पर नरेन्द्र मोदी के लगातार प्रहार और कांग्रेसियों को मोदी पर निशाना साधने के बाद ऐसा लगने लगा था कि इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव मोदी बनाम राहुल गांधी होगा । मोदीमय माहैल में राहुल गांधी का पलड़ा कमजोर दिख रहा था । एक तो नरेन्द्र मोदी जनता से बेहतर संवाद कायम करने की कला में राहुल गांधी पर भारी पड़ रहे थे । दूसरे नेन्द्र मोदी अपनी रैलियों में देश की ऐतिहासिक विरासत को नजरअंदाज करने का आरोप कांग्रेस पर लगाकर वाहवाही लूट रहे थे । मोदी ने अपनी ताबड़तोड़ रैलियों से और उन रैलियों को प्रसारित प्रचारित करने की शानदार योजना बनाकर जनता के बीच अपनी पहुंच बनाने की कोशिश की । मोदी को उसमें सफलता भी मिलने लगी थी । मीडिया कं कंधों पर सवार होकर मोदी का चुनावी रथ निर्बाध गति से दौड़ रहा था । चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत का सेहरा भी मोदी के सर ही बंधा । विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद यह साफ हो गया था कि दो हजार चौदह के आम चुनाव में मोदी का पलड़ा राहुल गांधी पर भारी है । राहुल गांधी यदा कदा अपनी एंग्री यंग मैन की छवि से खबरों में रहने की कोशिश करते थे लेकिन किसी भी मुद्दे पर वो इतनी देर से प्रतिक्रिया देते थे कि सारे किए कराए पर पानी फिर जाता था । दागी नेताओं के चुनाव लड़ने वाले अध्यादेश को जब कैबिनेट की मंजूरी मिल गई और ये तय हो गया था कि उसे अधिसूचित कर दिया जाएगा तो अचानक से प्रेस क्लब में राहुल गांधी का गुस्सा फूटा और उसको फाड़ कर कूड़ेदान में डालने की बात तक कह गए । कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह लगा था कि इससे जनता के बीच राहुल गांधी की छवि बेहतर होगी । संदेश ये जाएगा कि राहुल गांधी राजनीति में किसी तरह की गंदगी बर्दाश्त नहीं करते हैं । पर संदेश क्या गया । संदेश यह गया कि प्रधानमंत्री बेहद कमजोर हैं । संदेश यह गया कि सरकार और संगठन के बीच तालमेल नहीं है । संदेश यह गया कि राहुल गांधी की एक घुड़की के आगे पूरी सरकार नतमस्तक है । पता नहीं इससे राहुल गांधी की व्यक्तिगत छवि को कितना फायदा हुआ लेकिन सरकार की साख और उसकी हनक पर खासा असर पड़ा । विरोधियों को मनमोहन सिंह पर हमला करने का एक और मौका मिल गया । आम चुनाव के पहले जब सियासी वातावरण गरमाया हुआ है तो कांग्रेस पार्टी भ्रमित नजर आने लगी । राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर ही सवाल खड़े होने लगे । ऐसा प्रतीत होने लगा कि कांग्रेस ने मोदी के सामने हथियार डाल दिए हैं । लेकिन जैसा कि हमेशा कहा जाता है राजनीति अनंत संभावनाओं का खेल है । कांग्रेस की एक छोटी सी चाल चली और उसका असर यह हुआ कि उसने देश की राजनीति के खेल को बदलने की शुरुआत कर दी है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद देश के इकलौते सिटी स्टेट में किसी की सरकार नहीं बनी । अपने खिलाफ चुनाव लड़नेवाली नवजात पार्टी आम आदमी पार्टी को कांग्रेस ने बिना शर्त समर्थन का ऐलान कर दिया । जनता का मत जानने के बाद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बने । अब यहीं से सियासी खेल ने पलटी मारी । नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी की चुनावी जंग में अरविंद केजरीवाल नाम का एक शख्स घुस गया । एक ऐसा शख्स जिसी छवि भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़नेवाले योद्धा की है । जो अपरंपरागत राजनीति करता है । अब जनता के सामने एक ऐसा शख्स भी आ गया जो मुख्यमंत्री है लेकिन किसी तरह का तामझाम नहीं है । साधारण सी गाड़ी में चलता है । मुख्यमंत्री होने के बाद ट्रैफिक सिग्नल पर आम आदमी की तरह रुक कर इंतजार करता है । इस आम आदमी के जंग में आने से भारतीय जनता पार्टी का अंकगणित गड़बड़ाने की बात शुरू हो गई । इस तरह की आशंकाएं जताई जाने लगी कि आम आदमी पार्टी मोदी का खेल खराब कर सकती है । देश के शहरी मतदाता आम तौर पर भारतीय जनता पार्टी और मोदी के वोटर माने जाते हैं । पिछले चुनावों में यह बात बार बार साबित भी हुई है । अरविंद केजरीवाल भी शहरी वोटरों की ही पसंद हो सकते हैं । दिल्ली के नतीजे यही संकेत देते हैं । उत्साही विश्लेषक इस बात के कयास लगाने लग गए कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी लोकसभा चुनाव में चालीस से पचास सीटें जीत सकती हैं । इस आकलन का आधार यह है कि भ्रष्टाचार और महंगाई से आजिज आ चुके शहरी और सेक्युलर मतदाता आम आदमी पार्टी को समर्थन दे सकते हैं । अगर ऐसा होता है तो देश के कई बड़े शहरों की कुछ लोकसभा सीटों पर आम आदमी पार्टी को सफलता मिल सकती है । अगर शहरी मतदाताओं का वोट भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी के बीच बंट जाता है तो निश्चित रूप से मोदी के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती है । आम आदमी पार्टी भले ही सवा साल पहले बनी पार्टी हो लेकिन संतुलन बिगाड़ने में कामयाब हो सकती है । यह भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी के लिए चिंता का सबब हो सकती है ।

लेकिन हमें यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली का भूगोल और वहां रहनेवालों लोगों की मानसिकता पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं करती है । दिल्ली एक बहुत ही छोटा शहरी राज्य है जहां मतदाताओं की प्राथमिकताएं और पसंद अलहदा है । दिल्ली के वोटरों की पसंद के आधार बिहार या उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के मूडका आकलन करना या कयास लगाना भी उचित नहीं होगा ।इसी तरह से दिल्ली की राजनीति से मिल रहे संकेतों के आधार पर दक्षिणी या उत्तर पूर्व के राज्यों के वोटरों को भांपना मुश्किल है । उनकी समस्याएं अलग हैं । बिहार और उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म मतदाताओं के अंदर तक इतने गहरे तक घुसे हुए हैं कि अंत में सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं । मतदान के एक दिन पहले यह तय होता है कि अमुक उम्मीदवार अपनी जाति का है और सबकुछ भुलाकर लोग उसको वोट डाल आते हैं । बिहार में तो ऊंची जाति बहुल कई इलाकों में उम्मीदवारों ने हाथ में जनेऊ लेकर वोट मांगे हैं और रातों रात मतदाताओं का निर्णय बदल गया है । सारी समस्याओं के ऊपर जाति हावी होते देखा गया है । इसलिए जो विश्लेषक आम आदमी पार्टी को लेकर खासे उत्साहित हैं उन्हें अपने उत्साह को दरकिनार कर वस्तुनिष्ठता के साथ भारतीय समाज की विविधताओं के आधार पर आकलन करना होगा । यह सही है कि केजरीवाल की पार्टी का दिल्ली के अपने पहले ही चुनाव में तीस फीसदी वोट और चालीस फीसदी सीट हासिल करना किसी चमत्कार से कम नहीं है । लेकिन सिर्फ इस चमत्कार के आधार पर यह आकलन करना कि लोकसभा चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल हो जाएगा, थोड़ी जल्दबाजी होगी । हां इतना तय है कि अरविंद केजरीवाल के रूप में भारत की बजबजाती सियासी माहौल में जनता को एक विकल्प मिला है ।