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Thursday, December 29, 2011

समीक्षा पर घमासान

विश्व की सबसे प्रतिष्ठित और पुरानी पत्रिकाओं में से एक लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स के पन्नों पर इन दिनों दो लेखकों में जंग चल रही है । दरअसल विवाद की जड़ में एक समीक्षा है । हॉवर्ड के प्रोफेसर और लोकप्रिय टेलीविजन इतिहासकार नायल फर्ग्युसन की किताब सिविलाइजेशन- द वेस्ट एंड द रेस्ट छपकपर आई । भारतीय मूल के लेखक और स्तंभकार पंकज मिश्रा ने उस किताब की लंबी समीक्षा लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में लिखी जो कि नवंबर की तीन तारीख के अंक में प्रकाशित हुई । अपनी किताब की समीक्षा देखकर नायल फर्ग्युसन बुरी तरह भड़क गए और अगले ही अंक में संपादक के नाम पत्र लिखकर साहित्यिक जंग का ऐलान कर दिया । सत्रह नवंबर के अंक में नायल का एक पत्र प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने पहले तो यह हाई मोरल स्टैंड लेते हुए कहा कि वो विध्वंसात्मक समीक्षा के खिलाफ सफाई देने के आदि नहीं हैं लेकिन अगर समीक्षा में व्यक्तिगत हमले हों तो फिर सामने आना हमारी मजबूरी है । फर्ग्युसन का आरोप है कि पकंज मिश्रा ने उसे रेसिस्ट बताया है जो कि निहायत ही गलत है । नायल के मुताबिक पंकज मिश्रा ने उनके लेखन की तुलना अमेरिकी रेसिस्ट सिद्धांतकात थियोडोर स्ट्रोड की 1920 में लिखी गई किताब- द राइजिं टाइड ऑफ कलर अगेंस्ट व्हाइट वर्ल्ड सुपरमेसी लेखन से की है, जो निहायत ही गलत है । नायल का यह भी आरोप है कि पंकज मिश्रा ने उनके लेखन को बगैर समझे और सही परिप्रेक्ष्य में देखे उसपर टिप्पणी कर दी । अपने पत्र में फर्ग्यूसन ने पंकज मिश्रा की समीक्षा छापने के लिए लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स की भी खासी लानत मलामत की है । उन्होंने एलआरबी पर लेखन में वामपंथी राजनीति को बढ़ावा देने और अपने दरबारियों को लगातार छापने का भी आरोप लगाया । आरोपों की बौछार करते हुए नायल यहीं नहीं रुके उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि पंकज मिश्रा की उक्त समीक्षा से एलआरबी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका की प्रतिष्ठा का ह्रास हुआ है । नायल ने पत्रिका और पंकज दोनों से माफी की भी मांग की। विवाद का किस्सा यहीं खत्म नहीं होता है और उसी अंक में पंकज ने नायल के आरोपों का तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया देकर अपने तर्कों को सही साबित किया है । माफी न तो पंकज ने मांगी न ही पत्रिका ने । हां पंकज ने इतना जरूर साफ कर दिया कि उन्होंने नायल पर रेसिस्ट होने का आरोप नहीं लगाया ।
अगले अंक में फिर दोनों के पत्र छपे जिनमें तर्कों और प्रति तर्कों के आधार पर दोनों ने अपना पक्ष रखा है । पंकज मिश्रा ने साफ तौर पर अपनी समीक्षा में वैज्ञानिक आधार पर नायल के लेखन की आलोचना की है । अगर बात सभ्यताओं की हो रही है तो भारत और चीन की सभ्यताओं को तो खासी तवज्जो देनी होगी । उन्होंने यह सवाल उठाया है कि क्या महात्मा गांधी के बिना पिछली सदी की सभ्यता का मूल्यांकन किया जा सकता है । क्या चीन की उत्पादन क्षमता और भारतीय टेक्नोक्रैट के योगदान को नजरअंदाज किया जा सकता है । पंकज मिश्रा ने तर्कों के आधार पर यह साबित भी किया है कि यह नहीं हो सकता ।लेकिन नायल अब भी पत्रिका और पंकज दोंनों से माफी की मांग पर अड़े हैं । कुछ दिनों पहले तो उन्होंने कोर्ट में जाने की धमकी भी दी थी । लेकिन लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स मजबूती के साथ पंकज मिश्रा के लेखन के साथ खड़ा है । दोनों माफी नहीं मांगने और अपने स्टैंड पर अड़े हैं ।
दरअसल साहित्य में इस तरह के विवाद नए नहीं हैं । नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखक वी एस नॉयपाल और अमेरिका के वरिष्ठ लेखक पॉल थेरू के बीच के लंबे विवाद को अब तक अंग्रेजी साहित्य में याद किया जाता है । इसके अलावा नायपॉल की महिला लेखिकाओं पर की गई टिप्पणियों पर भी खासा विवाद हुआ था । जब सर विदया ने जान ऑस्टिन के लेखन की संवेदनात्मक महात्वाकांक्षा की आलोचना करते हुए कह डाला था कि किसी महिला लेखक के लेखन में धार नहीं होती । उसी तरह विद्या ने ई एम फोस्टर को भी शक्तिहीन समलैंगिकों से अनुतिच लाभ लेने वाला बताकर और उनके उपन्यास अ पैसेज टू इंडिया को बकवास करार देकर अंग्रेजी साहित्य में भूचाल ला दिया था । जिसके बाद हेलन ब्राउन से लेकर एलेक्स क्लार्क तक जैसे लेखकों ने विदया पर जमकर हमले किए थे और विवाद काफी लंबा चला था । अंग्रेजी में इस तरह के विवाद सिर्फ साहित्य में ही नहीं बल्कि विज्ञान, दर्शन, राजनीतिक लेखन में लंबे समय से चलते रहे हैं । इन विवादों पर कई किताबें भी छप चुकी हैं ।
लेकिन इस बार नायल और पंकज मिश्रा के बीच का विवाद थोड़ा अलहदा है । यह विवाद इस मायने में थोड़ा अलग है कि एक तो इसमें रेसिज्म का आरोप लगा है और दूसरे अदालत में जाने की धमकी है । अंग्रेजी साहित्य पर नजर रखने वाले कई स्वतंत्र पर्यवेक्षकों इस साहित्यिक लड़ाई को एक दूसरे परिप्रेक्ष्य में भी देख रहे हैं । पिछले एक दशक से जिस तरह से एशियाई मूल के नए लेखकों ने अंग्रेजी साहित्य में अपनी दखल और पैठ दोनों बढ़ाई है उससे पश्चिमी लेखकों का एक खेमा काफी क्षुब्ध रहने लगा है । जब कई एशियाई मूल के लेखकों को पुलित्जर और मेन बुकर पुरस्कार मिलने लगे थे तो एक प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक ने एलेक्स ब्राउन ने मजाक में एक बार कहा था- वी फील थ्रेटन्ड । इन तीन शब्दों में पश्चिमी लेखकों की मानसिकता को समझा जा सकता है । वी फील थ्रेटन्ड की जो मानसिकता है है वही अपनी आलोचना बर्दाश्त करने से न केवल रोकता है बल्कि विरोधियों के प्रति आक्रामक भी बनाता है ।
दरअसल साहित्यिक विवादों के इतिहास पर अगर हम नजर डालें तो हिंदी में भी विवादों का एक समृद्ध इतिहास रहा है । पाडे बेचन शर्मा उग्र के लेखन के बाद उठे चॉकलेट विवाद में तो गांधी जी तक को दखल देना पड़ा था । कल्पना में उर्वशी विवाद लंबे समय तक चला था । हाल के दिनों में राजेन्द्र यादव के लेख होना सोना पर भी हिंदी साहित्य में बवाल मचा था । विभूति नाराण राय तो छिनाल विवाद में बुरी तरह फंसे ही थे । लेकिन साहित्य के मामले कोर्ट कचहरी तक नहीं पहुंचते हैं । काफी समय पहले उदय प्रकाश और रविभूषण के विवाद में भी कोर्ट कचहरी की धमकी दी गई थी ।

Thursday, December 22, 2011

खत्म होता नक्सलियों का खौफ

जनलोकपाल बिल पर सरकार और टीम अन्ना के बीच जारी बवाल, रिटेल में विदेशी निवेश पर सरकार, उसके सहयोगी दलों और विपक्ष के बीच मचे घमासान और गृहमंत्री चिंदबरम पर एक के बाद एक लग रहे आरोपों के बीच देश में कई अहम खबरें गुम सी हो गई । हर दिन या तो अन्ना हजारे कोई ऐलान करते हैं, कांग्रेस का कोई नेता अन्ना पर हमला करता है या फिर किसी न किसी वजह से संसद में हंगामा हो जाता है या फिर अदालत कोई ऐसा फैसला सुना देता है या फिर कोई टिप्पणी कर देता है जो सुर्खियां बन कर मीडिया में छा जाता है । देशभर में हुए हालिया उपचुनावों के नतीजों के कई गंभीर निहितार्थ निकले जिसपर मीडिया में न तो मंथन हो पाया और न ही ढंग से उसपर चर्चा हो सकी । अखबारों में कहीं किसी कोने अंतरे में वैसी खबरें दब गई और न्यूज चैनलों में तो तवज्जो ही नहीं मिल पाई । अगर हम ओडीशा विधानसभा के लिए हुए उपचुनावों के नतीजों का विश्लेषण करें तो साफ तौर पर यह देखा जा सकता है कि ओडीशा में माओवादियों का असर कम होना शुरू हो गया है । जिन इलाकों में माओवादियों को लंबे समय से आदिवासियों से हर तरह का समर्थन मिल रहा था वहां भी अब वो लगभग बेअसर होने लगे हैं ।ओडीशा के आदिवासी बहुल जिले नवरंगपुर के उमरकोट विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो नक्सलियों के समर्थन में आ रही इस कमी को साफ तौर पर परिलक्षित किया जा सकता है । चुनाव के ऐन पहले माओवादियों ने नक्सल प्रभावित उमरकोट विधानसभा में आदिवासियों से वोटिंग का वहिष्कार करने का फरमान जारी कर दिया । लेकिन नक्सलियों के फरमान को धता बताते हुए भारी संख्या में आदिवासियों ने मतदान किया और चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक पचहत्तर फीसदी से ज्यादा आदिवासियों ने वोट डाले । इसी विधानसभा के छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे रायगढ़ इलाके में, जो दशकों से माओवादियों का गढ़ माना जाता है, सबसे ज्यादा मतदान हुआ। गौरतलब है कि यह वही रायगढ़ है जहां बीजू जनता दल के विधायक जगबंधु मांझी की माओवादियों ने एक जनसभा के दौरान नृशंस तरीके से हत्या कर दी थी । मांझी की मौत के बाद हो रहे इस उपचुनाव में नक्सलियों के मतदान के बहिष्कार के फरमान के बावजूद इतनी बड़ी संख्या में वोटिंग होना उस इलाके में नक्सलियों के कमजोर पड़ने की निशानी है । इस पूरे इलाके में जबरदस्त वोटिंग का फायदा सत्तारूढ बीजू जनता दल के उम्मीदवार को हुआ जिसने तकरीबन बीस हजार वोटों से जीत हासिल की । माओवादियों ने वोट के बहिष्कार के साथ-साथ बीजू जनता दल के खिलाफ भी अपनी राय जाहिर की थी । जो लगभग बेअसर रही ।
उपचुनावों के नतीजों और नक्सलियों के वोट के बहिष्कार के अलावा भी ओडीशा में काफी कुछ घटित हो रहा है जिसको अगर रेखांकित किया जाए तो माओवादियों के लगातार कमजोर होते जाने की तस्वीर सामने आती है । माओवादियों के बड़े नेता किशन जी को जब पुलिस ने एनकाउंटर में मार गिराया था तो माओवादियों ने दो दिनों के बंद का ऐलान किया । इस बंद का भी ओडीशा और झारखंड के कई इलाकों में असर देखने को नहीं मिला । मलकानगिरी, जो ओडीशा का सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित क्षेत्र माना जाता है, में ये बंद लगभग बेअसर रहा । आदिवासी इलाकों के लड़के,लडकियां अपने स्कूल पहुंचे । बंद के दौरान छात्रों का ऐसा व्यवहार अबतक इस इलाके में कभी नहीं देखा गया था । मलकानगिरी जैसे नक्सलियों के गढ़ में तो बंद के ऐलान के बाद कर्फ्यू जैसे हालात हो जाते थे । सड़कों पर सन्नाटा और पूरे इलाके में कामकाज ठप । नक्सलियों का खौफ इतना ज्यादा होता था कि बंद के दौरान मां-बाप अपने बच्चों को घर से बाहर तक नहीं निकलने देते थे । यही हाल झारखंड के डाल्टनगंज और पलामू जिलों में देखने को मिला । दो दिन के बंद के दौरान स्कूलों में छात्र पहुंचे । लोग सड़कों पर निकले अपने कार्यालय पहुंचे। सड़कों पर गाड़ियां चलीं । सबसे आश्चर्यजनक बात तो ओडीशा के नुआपाड़ा में देखने को मिला । वहां नक्सलियों ने यातायात बंद करने के लिए पेड़ काटकर सड़क पर डाल दिया था । स्थानीय नागरिकों ने नक्सलियों से बगैर डरे सड़क से पेड़ हटाकर उसे यातायात के लिए खोल दिया । पहले यह काम सुरक्षा बल किया करते थे । स्थानीय जनता के इस कदम को भी नक्सलियों के घटते प्रभाव के तौर पर देखा गया ।
दरअसल यह सब दो वजहों से हो रहा है । एक तो राज्य और केंद्र सरकार खामोशी के साथ मिलकर उन इलाकों में नक्सलियों का प्रभाव कम करने की दिशा में काम कर रहे थे जिसका थोड़ा बहुत नतीजा अब दिखाई देने लगा है । नक्सल प्रभावित इलाकों में केंद्र और राज्य सरकारों ने मिलकर समग्र विकास के प्रयास किए । नक्सलियों को सत्ता के भय से मुक्त किया और उनके शोषण पर लगाम लगाकर उनका विश्वास हासिल करने में आंशिक सफलता भी हासिल की । अर्धसैनिक बलों ने नक्सल प्रभावित इलाकों में आदिवासियों का विश्वास जीतने के फॉर्मूले पर काम किया गया और बहुत हद तक सफलता भी पाई । सरकार के रणनीतिकारों का मानना है कि आदिवासियों का जितना भरोसा सरकार या सत्ता पर बढ़ेगा उतना ही नक्सलियों को समर्थन मिलना कम होगा ।
नक्सलियों का समर्थन कम होने की एक और जो सामाजिक वजह है वह यह कि अब इस आंदोलन में अपराधी तत्वों का प्रवेश हो गया है जो आंदोलन के नाम पर इलाके में वसूली करते हैं । पैसेवालों का अपहरण करके फिरौती वसूलते हैं । इस तरह की भी कई खबरें सामने आईं जहां पता चला कि माओवादियों ने लड़कियों को जबरन अपने साथ रखकर उनका बलात्कार किया । सिद्धांत और विचारों का स्थान लूटपाट और चोरी डकैती ने ले लिया । जबरन हफ्ता वसूली, फिरौती, लड़कियों और महिलाओं के साथ बढ़ती बदसलूकी, आंदोलन के नाम पर हत्या आदि जैसी वारदातों ने आम जनता के मन में नक्सलियों के प्रति नफरत का भाव पैदा कर दिया । जो आदिवासी नक्सलियों को तम मन धन से समर्थन दे रहे थे वो अब डर से समर्थन देने लगे । लेकिन डर, खौफ या भय से मिला समर्थन ज्यादा दिन चलता नहीं है और जैसे ही मौका मिलता है वही समर्थन विरोध का स्वर बनकर खड़ा हो जाता है । माओवादियों का साथ भी वही हुआ । जैसे ही आदिवासी इलाके की जनता का माओवादियों से मन टूटा और राज्य सत्ता में भरोसा कायम हुआ वैसे ही विरोध के स्वर उठने लगे और जब भी मौका मिला विरोध या तो मुखर या फिर मौन के रूप में सामने आया । अब जरूरत इस बात की है कि इस बदलाव की अहमियत को समझते हुए राज्य सत्ता आदिवासियों का भरोसा तो जीते ही उनके दिल को जीतने भी कोशिश करे ताकि नक्सल समस्या का जड़ से अंत किया जा सके । लेकिन ऐसा लगता है कि लोकपाल के शोरगुल में इस देश के शासक वर्ग और जनता दोनों का इस समस्या से ध्यान लगभग हट सा गया है । नक्सलवाद हमारे देश के लिए एक ऐसी समस्या है जो लगभग नासूर की शक्ल अख्तियार कर चुका है ।
ऐसे में इस समस्या में अगर थोड़ा भी सकारात्मक बदलाव दिखाई देता है तो उसका प्रचार प्रसार होना चाहिए । इसका फायदा यह होगा कि नक्सल प्रभावित दूसरे इलाकों में सरकार के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ेगा और नक्सलियों के प्रति भरोसा घटेगा । भरोसे के इसी घटत और बढ़त में इस समस्या का समाधान निकलेगा । लेकिन केंद्र में सरकार चला रही पार्टी कांग्रेस अपनी कामयाबियों को जनता तक पहुंचाने के लिए प्रयत्नशील ही नहीं है । कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता जनता से संवाद नहीं कर पा रहे हैं । अपनी कामयाबियों को जनता तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं । पहले पार्टी ने अपने दर्जनभर नेताओं की एक सूची जारी की जो मीडिया में पार्टी का पक्ष रखेंगे लेकिन उन नेताओं का कहीं अता पता नहीं है । नतीजा यह हुआ कि सरकार के प्रयत्नों से समाज में जो सकारात्मक बदलाव आए उसका प्रचार नहीं हो सका । वहीं विपक्ष और टीम अन्ना ने बढ़-चढ़कर सरकार की नाकामियों को मीडिया के जरिए जनता तक पहुंचाया । अभी हाल में सरकार के दस युवा मंत्रियों को सरकार की उपल्बधियों को जनता तक पहुंचाने का जिम्मा दिया गया । लेकिन ये युवा मंत्री भी गाहे बगाहे ही नजर आते हैं । नतीजा यह हो रहा है कि सरकार की उपल्बधियां जनता तक नहीं पहुंच पा रही है । लंबे समय से नक्सलियों का बडा़ हमला नहीं हुआ है, नक्सलियों का बड़ा नेता किशन जी को मारकर माओवादियों की कमर तोड़ दी गई । लेकिन इन कामयाबियों को नक्सल इलाकों में पहुंचाकर वहां की जनता का विश्वास जीतने का प्रयास नहीं किया जा रहा है । गरीबों के लिए खाने की गारंटी देनेवाला ऐतिहासिक कानून आनेवाला है जिसका बड़ा फायदा जंगलों में रहनेवालों को होगा यह बात भी उन इलाकों में नहीं पहुंच पा रही है । यूपीए सरकार अपने पहले कार्यकाल में हर छोटी बड़ी उपल्बधि का ढिंढोरा पीटती नजर आती थी वही अब आलस में डूबी नजर आ रही है । लेकिन वक्त आ गया है कि सरकार के कर्ताधर्ता सत्ता के मद से बाहर निकलें और जनता से संवाद स्थापित करें ताकि नक्सलवाद की समस्या को समूल खत्म किया जा सके ।

Saturday, December 17, 2011

संकट में हॉवर्ड की प्रतिष्ठा ?

दुनिया के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक हॉवर्ड युनिवर्सिटी इऩ दिनों विवादों में घिर गया है। विश्वविद्यालय के दो निर्णयों की दुनियाभर में आलोचना हो रही है । पहला निर्णय तो भारतीय राजनेता और अर्थशास्त्री सुब्रह्ण्यम स्वामी को गर्मी के दौरान चलने वाले अर्थशास्त्र के दो पाठ्यक्रम के शिक्षण से हटा देने का है । गौरतलब है कि सुब्रह्ण्यम स्वामी पिछले कई सालों से हॉवर्ड के समर स्कूल में अर्थशास्त्र पढ़ा रहे थे । स्वामी को वहां से निकालने के पीछे जो तर्क दिया गया है वह यह है कि उन्होंने एक लेख लिखा जिसकी वजह से एक खास समुदाय की प्रतिष्ठा धूमिल हुई और उस समुदाय के पवित्र स्थलों को लेकर अपमानजनक और हिंसा भड़कानेवाली टिप्पणी की गई । विश्वविद्यालय के शिक्षकों और वहां के कर्ताधर्ताओं के बीच हुई लंबी बैठक में गर्मागर्म बहस के बाद यह फैसला लिया गया कि हॉवर्ड युनिवर्सिटी का यह नैतिक दायित्व है कि वह किसी भी ऐसे व्यक्ति या संस्था के साथ नहीं जुड़े जो किसी अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ घृणा फैलाता हो । विश्वविद्यालय के शिक्षकों के बीच चली बहस में कई लोगों को इस बात पर आपत्ति थी कि स्वामी का लेख अभिवयक्ति की आजादी नहीं बल्कि घृणा की राजनीति का हिस्सा है, लिहाजा हॉवर्ड से स्वामी को हटा दिया जाना चाहिए ।
दरअसल यह पूरा विवाद सुब्रह्ण्यम सावमी के 16 जुलाई को लिखे एक लेख से शुरू हुआ जिसका शीर्षक था- हाउ टू वाइप आउट इस्लामिक टेरर । अपने उस लेख में स्वामी ने लिखा कि भारत को एक संपूर्ण हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाना चाहिए और वहां उन्हीं लोगों को वोट देने का अधिकार मिले जो यह ऐलान करें कि उनके पूर्वज हिंदू थे । स्वामी ने अपने लेख में यह भी लिखा कि हिंदू धर्म से किसी भी धर्म में धर्मांतरण की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। स्वामी इतने पर भी नहीं रुके और अपने लेख में उन्होंने मांग कर दी कि काशी विश्वनाथ मंदिर समेत तीन सौ अन्य स्थानों से विवादास्पद मस्जिदों को हटाया जाए । जब यह लेख प्रकाशित हुआ तो उसपर जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और पक्ष-विपक्ष में तर्क-वितर्क शुरू हो गया । हॉवर्ड ने भी पहले स्वामी के इस लेख को अभिव्यक्ति की आजादी माना और उनके ही साथ खड़ा दिखा । शुरूआत में हॉवर्ड प्रशासन को यह लेख फ्रीडम ऑफ स्पीच की कैटिगरी में दिखाई दिया । लेकिन चंद छात्रों ने स्वामी के खिलाफ विश्वविद्यालय में अभियान छेड़ दिया । उस अभियान में इस बात पर जोर दिया गया कि स्वामी ने हॉवर्ड की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचाया है लिहाजा विश्वविद्यालय स्वामी के साथ अपने संबंधों को खत्म करे ।
चंद छात्रों की इस मुहिम के आगे विश्व के इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय ने अपने सदियों पुराने सिद्धांतो से समझौता कर लिया । पहले जो लेख विश्वविद्यालय को फ्रीडम ऑफ स्पीच दिख रहा था वही लेख चंद छात्रों और दो तीन वामपंथी रुझान वाले शिक्षकों की अगुवाई वाले मुहिम के बाद घृणा फैलानेवाले लगने लगा । युनिवर्सिटी प्रशासन ने स्वामी के इस लेख को घृणा फैलानेवाले वैसा लेख माना जो हिंसा के लिए उकसाता है । यह सही है कि हॉवर्ड हमेशा से उस सिद्धांत के तहत काम करता है जहां विश्व में एक ऐसे समाज की कल्पना की जाती है जहां पूरी दुनिया के संस्कृति के लोग मिलजुलकर रह सकें । लेकिन वहीं हॉवर्ड में अभिवयक्ति की आजादी को सर्वोपरि भी माना जाता है । विश्वविद्यालय की जो फ्री स्पीच गाइडलाइंस है उसके अनुसार स्वामी के खिलाफ लिया गया निर्णय न सिर्फ अनुचित है बल्कि खुद हॉवर्ड के बनाए गए गाइडलाइंस का उल्लंघन भी है । 15 मई 1990 में हॉवर्ड में युनिवर्सिटी फ्री स्पीच गाइडलाइंस तैयार किया जो यह कहता है कि अभिव्यक्ति की आजादी विश्वविद्यालय के लिए इस वजह से बेहद अहम है क्योंकि हमारा समूह कारण और तर्कों पर आधारित डिस्कोर्स की वकालत करता है । अपने विचारों को बगैर किसी दवाब के सबके सामने रखना हमारी प्राथमिकता है । किसी भी व्यक्ति के विचारों को दबाना या फिर उसमें काट छांट करने से हमारी बौद्धिक स्वतंत्रता के विचारों को ठेस पहुंचा सकता है । यह किसी वयक्ति के उन विचारों को भी सामने आने से रोकता है जिसमें उसके विचार बेहद अलोकप्रिय हों और किसी समुदाय को पसंद नहीं आते हों । साथ ही उस खास समुदाय को भी अपनी आलोचना सुनने के अधिकार से वंचित करता है ।
विश्वविद्यालय के इस गाइडलाइंस में और भी बातें कही गई हैं जो बहुत ही मजबूती से विचारों को अभिव्यक्त करने की इजाजत देता है । लेकिन अपने ही गाइडलाइंस को दरकिनार करते हुए स्वामी को कोर्स से हटा देना कई सवाल खड़े करता है । सवाल तो इस बात पर भी खड़े हो रहे हैं कि सुब्रह्ण्यम स्वामी से इस बाबत कोई सफाई नहीं मांगी गई न ही उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका दिया गया । दशकों से हॉवर्ड का हिस्सा रहे एक भारतीय विद्वान के साथ इस तरह का व्यवहार बेहद अफसोसनाक और हॉवर्ड के प्रतिष्ठा के खिलाफ होने के साथ साथ न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत के खिलाफ भी है । हॉवर्ड में हर तरह के विचारों को जगह मिलती रही है । वहां के कई शिक्षकों ने एशियाई देशों के खिलाफ कई आपत्तिजनक लेख लिखे, हिंदू धर्म और देवी देवताओं के बारे में टिप्पणियां की, लेकिन कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई । शोध के नाम पर लिखे गए लेखों में भारतीय संस्कृति और सभ्यता की धज्जियां उड़ाई गई लेकिन उन सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आईने में देखा गया,कभी किसी लेखक के खिलाफ युनिवर्सिटी ने कोई कार्रवाई नहीं की । छात्रों और शिक्षकों के किसी समूह ने कोई विरोध नहीं किया ।
स्वामी ने भी भारत के एक अखबार में लिखकर अपने विचारों को प्रकट किया है । वो भारत को हिंदू राष्ट्र के तौर पर देखना चाहते हैं इसमें क्या बुराई है । ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं और अपने विचार बनाना और उसे प्रकट करना हर व्यक्ति का हक है । भारत और विदेशों में भी कई ऐसे लोग मिल जाएंगे जो भारत को हिंदू राष्ट्र के तौर पर देखना चाहते हैं । विवादास्पद मस्जिदों को मंदिर परिसरों से हटाने की वकालत तो भारत का प्रमुख विपक्षी दल भी करता है और भारत के एक बड़े समुदाय का यह मत भी है । तो अगर स्वामी ने अपने मत को जाहिर कर दिया तो क्या गुनाह कर दिया । तीसरी बात स्वामी ने धर्मांतरण के खिलाफ कही है वह भी उनका निजी विचार है और उसपर किसी भी तरह की पाबंदी लगाना जायज नहीं कहा जाएगा । आप उनको अपने विचारों को प्रकट करने से नहीं रोक सकते, असहमत हो सकते हैं । लेकिन असहमति का दंड लेखक को देना हॉवर्ड विश्वविद्यालय के खुद के गाइडलाइंस और फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन के सिद्धांत के खिलाफ है । हॉवर्ड ने तो स्वामी से बगैर कुछ पूछे, बगैर उनका पक्ष जाने उनको अपने कोर्स से हटा दिया ।
दूसरी अहम बात जो हॉवर्ड की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाता है वह यह है कि विश्वविद्यालय ने ऑक्यूपॉय मूवमेंट के आंदोलन के मद्देनजर विश्वविद्यालय के हॉवर्ड यॉर्ड को बाहरी गतिविधियों के लिए बंद कर दिया । यह एक ऐसी जगह थी जहां छात्र, पर्यटक,सामाजिक सूमह आते थे ,बैठते थे, बहस मुहाबिसे करते थे और चले जाते थे । दशकों से वहां ऐसी परंपरा चल रही थी और हॉवर्ड यार्ड कई आंदोलनों का गवाह भी रहा है । लेकिन आरोप है कि अमेरिका में जारी ऑक्यूपॉय मूवमेंट को रोकने के लिए विश्वविद्यालय ने यह कदम उठाया । इन दो कदमों से विश्वविद्यालय की अभिवयक्ति की आजाजदी के समर्थक की उस उस छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ठेस पहुंची है जिसके लिए वह जाना जाता है । जरूरत इस बात कि है कि विश्वविद्यालय अपने पुरानी परंपरा की ओर लौटे और विचारों को बैखौफ होकर अभिव्यक्त करनेवालों को मंच प्रदान करे । अंतराष्ट्रीय जगत को इस बात का इंतजार भी है कि हॉवर्ड अपनी गलतियों को सुधारे और स्वामी से माफी मांगे और हॉवर्ड यॉर्ड पर लगाई गई पाबंदी को हटाए ।

Friday, December 16, 2011

बढ़ती रहेगी महंगाई

हमारा देश आज दो बड़ी समस्याओं से जूझ रहा है । पहली बड़ी समस्या है महंगाई जो सुरसा की मुहं की तरह फैलती जा रही है । दूसरी बड़ी समस्या है भ्रष्टाचार, जिसको लेकर लोगों के मन में गुस्सा बढ़ता जा रहा है । बढ़ती महंगाई को लेकर सरकार के हाथ पांव फूले हुए हैं । हर तीसरे महीने या तो वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी या फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह महंगाई पर काबू पाने की एक डेडलाइन दे देते हैं । सरकार हर बार यह विश्वास दिलाती है कि फलां महीने तक महंगाई पर काबू पा लिया जाएगा लेकिन होता ठीक उसके उल्टा है । पेट्रोल के दाम बढ़ जाते हैं । मंहगाई दर और खाद्य महंगाई दर में बढ़ोतरी हो जाती है । बढ़ती महंगाई को लेकर विरोधी दल संसद में सक्रिय नजर आते हैं लेकिन आवश्यक वस्तुओं के बढ़ते दाम को लेकर विपक्षी दल अबतक कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर पाए हैं । भारतीय जनता पार्टी ने मंहगाई को लेकर देशव्यापी आंदोलन का ऐलान तो किया था लेकिन व्यापक जनसमर्थन नहीं मिल पाने की वजह से आंदोलन टांय टांय फिस्स हो गया था । भारतीय जनता पार्टी के महंगाई के खिलाफ आंदोलन का हश्र देखकर अन्य विपक्षी दलों के भी हाथ पांव फूल गए और उन्होंने कोई आंदोलन नहीं किया । लेकिन संसद के शीतकालीन सत्र के शुरूआती दिनों में विपक्ष ने मंहगाई को लेकर खासा बवाल किया । सदन में कामकाज भी ठप करवाया । महंगाई के खिलाफ जनता से समर्थन नहीं मिल पाने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी और बंगाल में अपनी प्रासंगिकता खो चुके वामदलों को संसद में एक अवसर दिखाई दिया । सवाल यह उठता है कि क्या संसद सत्र को ठप करके मंहगाई पर काबू पाया जा सकता है । क्या बहस से मंहगाई काबू में आ जाएगी । यह बात विपक्ष के कद्दावर नेताओं को समझ में नहीं आती । वो संसद में लंबे-लंबे भाषण करके देश के लोगों को यह दिखाना चाहते हैं कि बढ़ती कीमतों को लेकर वो चिंतित है । लेकिन जनता अब खाने और दिखाने के दांत के फर्क को समझ गई है ।
दरअसल विकास के पायदान पर उपर की ओर चढ़ रहे देश में बढ़ती मंहगाई पर काबू पाना लगभग नामुमकिन है । खुली अर्थवयवस्था में बाजार ही सबकुछ तय करती है और बाजार तो मांग और आपूर्ति के बहुत ही आधारभूत सिद्धांत पर चलता है । अगर हम भारत में ही देखें तो पिछले दो दशक में हमारे देश में हर चीज की मांग में जबरदस्त इजाफा हुआ है लेकिन उस अनुपात में आपूर्ति में बढो़तरी नहीं हुई है लिहाजा वस्तुओं के दाम बढ़े । किसी के कम तो किसी के ज्यादा । पिछले दो दशकों में भारतीय जनता की खर्च करने की क्षमता में भी तकरीबन दो गुना इजाफा हुआ है । नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के शोध- मॉर्केट इंफॉर्मेशन सर्वे ऑफ हाउसहोल्ड- से इस बात की पुष्टि भी हुई थी । इस सर्वे के मुताबिक आम भारतीय हाउसहोल्ड की खर्च करने की क्षमता 1985 के मुकाबले 2004 में दुगनी हो गई । नतीजा यह हुआ कि भारत में एक नए मध्यवर्ग का उदय हुआ जिसके पास पैसे थे । क्षमता बढ़ी तो खर्च करने की इच्छा भी बढ़ी । मैंकेजी के एक सर्वे के मुताबिक अगर भारत की विकास दर आनेवाले सालों में वर्तमान स्तर पर कायम रहती है तो भारतीय बाजार में और उपभोक्ताओं के नजरिए में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है । एक मजबूत और नए मध्यवर्ग का उदय संभव है जिसकी आय अगले दो दशक में लगभग तिगुनी हो जाएगी । इस विकास का फायदा सिर्फ शहरी मध्यवर्ग को नहीं होगा बल्कि अनुमान है कि ग्रामीण क्षेत्र के हाउसहोल्ड आय में भी बढ़ोतरी होगी । जिस ग्रामीण हाउसहोल्ड की आय 2.8 प्रतिशत है वो अगले दो दशक में बढ़कर 3.6 प्रतिशत हो जाने की उम्मीद है । जाहिर है शहरी और ग्रामीण दोनों उपभोक्ताओं की खर्च करने की क्षमता और ललक दोनों में बढ़ोतरी होगी । नतीजा यह होगा कि खाद्य पदार्थों से लेकर स्वास्थ्य, परिवहन पर लोगों का खर्च बढ़ेगा । लेकिन उस अनुपात में अगर उत्पादन नहीं हुआ तो मूल्य बढ़ोतरी को रोका नहीं जा सकता ।
महंगाई सिर्फ भारत में ही नहीं बढ़ रही है । विश्व के कई विकासशील और विकसित मुल्कों में जहां लोगों का जीवन स्तर बेहतर हो रहा है और उनकी आय और खर्च करने की क्षमता में बढ़ोतरी हो रही है वहां हर तरह की कमोडिटी के दामों में इजाफा हो रहा है । एक अंतराष्ट्रीय एजेंसी की सर्वे के आंकड़ों को मानें तो अगले बीस सालों में तीन अरब उपभोक्ता खरीदारी के बाजार में आएंगे । एक अनुमान के मुताबिक अगले दो दशक में विश्व में खाद्य पदार्थ से लेकर, बिजली, पानी, पेट्रोल और गाड़ियों की मांग बेहद बढ़ जाएगी । अभी की खरीदारी पैटर्न और ऑटोमोबाइल सेक्टर के ग्रोथ के आधार पर जो प्रोजेक्शन किया जा रहा है उसके मुताबिक दो हजार तीस तक विश्व में गाड़ियों की संख्या एक अरब सत्तर करोड हो जाने का अनुमान है । सिर्फ गाड़ियों में ही नहीं बल्कि हर तरह के कमोडिटी की खपत बढ़ने से कीमतों पर भारी दबाव पड़ सकता है । अंतराष्ट्रीय एजेंसी मैकेंजी की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कैलोरी खपत के बीस फीसदी बढ़ जाने का अनुमान लगाया जा रहा है जिसका असर साफ तौर पर खाद्य महंगाई दर पर पड़ेगा और इस सेक्टर की कमोडिटी महंगी हो जाएगी । इसी तरह चीन में भी प्रति व्यक्ति मांस के खपत में 60 फीसदी बढ़ोतरी का अनुमान लगाया गया है । वहां मांस की खपत प्रति व्यक्ति 80 किलोग्राम सालाना होना का अनुमान है । अगले बीस साल तक भारत में बुनियादी ढांचे पर भी खासा जोर दिए जाने की योजना है । अगर ये योजना परवान चढ़ती है तो निर्माण कार्य में खपत होनेवाली चीजों की खपत बढ़ेगी और अगर उस अनुपात में उत्पादन नहीं बढ़ा तो उसका दबाव भी मूल्य पर पडे़गा ।
ऐसा नहीं है कि कमोडिटी के खपत में इस तरह की बढ़ोतरी से भारत और विश्व का पहली बार पाला पड़ा है । बीसबीं शताब्दी में भी इस तरह का दबाव महसूस किया गया था जब पूरी सदी के दौरान विश्व की जनसंख्या तिगुनी हो गई थी और तमाम तरह की चीजों की मांग में 6000 से 2000 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिली थी । लेकिन उस वक्त कीमतों पर यह दबाव इस वजह से ज्यादा महसूस नहीं किया गया था क्योंकि उस सदी के दौरान बहुत सारी वैकल्पिक वस्तुओं की खोज के अलावा पूरे विश्व में खेती में जबरदस्त बदलाव हुआ था । नतीजे में खाद्य उत्पादन में हुई बढ़ोतरी ने मूल्य के दबाव को थाम सा लिया था और कीमतें बेकाबू नहीं हो पाई। लेकिन इस सदी में पिछली सदी के मुकाबले तीन तरह की दिक्कतें सामने आ रही हैं । कार्बन उत्सर्जन को लेकर मौसम पर पड़नेवाले असर को लेकर जिस तरह से पूरे विश्व में जागरूकता आई है उससे किसी भी प्रकार का अंधाधुंध उत्पादन संभव नहीं है । दूसरा यह कि अब कमोडिटी एक दूसरे से इस कदर जुड़ गए हैं कि एक दूसरे को प्रभावित करने लगे हैं । मसलन अगर पेट्रोल की कीमतों में इजाफा होता है तो उसका दबाव खाद्य पदार्थ के मूल्य पर भी पड़ता है । अब जरूरत इस बात की है कि सरकारें मूल्य को रेगुलेट करने की बजाए कमोडिटी के उत्पादन और मांग के मुताबिक सप्लाई बढ़ाने की नीति बनाए और इसमें आनेवाली बाधाओं को दूर करे तभी महंगाई पर काबू पाया जा सकता है और तभी डेडलाइऩ को प्राप्त किया जा सकता है अन्यथा हर तीन महीने पर भरोसे का बयान आता रहेगा और कीमतें बढ़ती रहेंगी ।

Wednesday, December 14, 2011

सिब्बल के सपने

अन्ना हजारे के खिलाफ सरकारी मुहिम के स्वयंभू अगुवा रहे कपिल सिब्बल लंबे समय से राजनीतिक परिदृश्य से गायब थे । विवादप्रिय नेता होने के बावदूद सिब्बल की मीडिया और विवाद से दूरी आश्चर्यचकित ही नहीं करती थी बल्कि चौंका भी रही थी । अन्ना हजारे की जनलोकपाल की मुहिम और उनके अनशन के दौरान कपिल सिब्बल के अडि़यल रुख और गैरराजनीतिक तरीकों ने सरकार की अच्छी खासी किरकिरी करवाई थी । कयास यह लगाए जा रहे थे कि उसके बाद सिब्बल को आलाकमान की तरफ से चुप रहने की सलाह दी गई थी । लेकिन एक बार जिसको विवादों का चस्का लग जाता है वह ज्यादा दिनों तक उससे दूर नहीं रह सकता है । कपिल सिब्बल ने एक बार फिर से उसको साबित भी कर दिया । इस बार सिब्बल बहुत दूर की कौड़ी लेकर आए हैं । उन्होंने इस बार सोशल मीडिया पर लगाम लगाने की कवायद शुरू की है । सिब्बल ने फेसबुक, गूगल और अन्य सर्विस प्रोवाइडर कंपनी के प्रतिनिधियों को अपने दफ्तर में बुलाकर उनको कंटेंट पर लगाम लगाने की हिदायत दी । अमेरिका के एक अखबार के मुताबिक सिब्बल ने फेसबुक और अन्य कंपनी के प्रतिनिधियों को बुलाकर साफ तौर पर कहा कि साइट्स पर सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह से जुड़ी आपत्तिजनक और अपमानजनक टिप्पणियों पर पाबंदी लगाने या फिर उसे रोकने का का इंतजाम करें । सिब्बल ने इसके साथ ही धार्मिक भावनाएं भड़कानेवाले चित्रों पर भी ऐतराज जताया और कहा कि इस तरह के आपत्तिजनक कंटेट वहां न हों । फेसबुक और अन्य कंपनियों ने सरकार की इस सलाह को मानने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि इन बेवसाइट्स पर यूजर्स अपनी सामग्री डालते हैं और अगर उसपर कोई पाबंदी लगाई गई तो इन बेवसाइट्स का मूल चरित्र ही खत्म हो जाएगा । इसके अलावा सिर्फ फेसबुक के पूरे विश्व में अस्सी करोड़ यूजर्स हैं और किसी भी कंपनी के लिए इतने बड़े उपभोक्ता वर्ग द्वारा डाले जाने वाले कंटेंट पर निगाह रखना मुमकिन नहीं है । ऐसा लगता है कि सिब्बल अपने इस कदम से सरकार और पार्टी के आला नेताओं को साधने में लगे हैं । मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की सैकड़ों आपत्तिजनक तस्वीरें नेट पर मौजूद हैं । क्या सिर्फ सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लगाम लगाकर सिब्बल सोनिया और मनमोहन की आपत्तिजनक और अपमानजनक तस्वीरें हटवाने में कामयाब हो जाएंगे । लेकिन अचानक से कांग्रेसी मंत्री कपिल सिब्बल को लोगों की धार्मिक भावनाओं की फिक्र कहां से होने लगी । सिब्बल को अब धर्म और धार्मिक भावनाएं भड़कानेवाली तस्वीरों की याद आ रही है लेकिन उस वक्त सिब्बल कहां थे जब एम एफ हुसैन कथित तौर पर धार्मिक भावनाएं भड़कानेवाले पेंटिग्स बना रहे थे । उस वक्त अगर हुसैन की पेंटिग्स उत्कृष्ट कला का एक नमूना और एक कलाकार की अभिवयक्ति थी तो अब भी जो कुछ नेट पर किया जा रहा है या हो रहा है उसे भी उसी स्पिरिट में देखा जाना चाहिए । हुसैन का विरोध करनेवाले अगर अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला कर रहे थे तो सिब्बल इस वक्त क्या कर रहे हैं, इसपर भी कांग्रेस और लेफ्ट दोनों को सिर्फ विचार ही नहीं करना चाहिए बल्कि आत्मावलोकन भी करना चाहिए ।
कपिल सिब्बल चाहे जो भी सफाई दें और जिस भी वजह की आड़ में सोशल साइट्स पर पाबंदी लगाने की कोशिश करें लेकिन इतना साफ है कि यह सबकुछ अन्ना हजारे की मुहिम को कमजोर करने के लिए किया जा रहा है । जब अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था तो सरकार ने माना था कि वो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर नजर नहीं रख पाई । लिहाजा इस बार सरकार ने अपनी इस भूल को सुधारने की कोशिश की और लगात है कि उसका जिम्मा दूरसंचार मंत्री होने के नाते सिब्बल को दिया गया है । फोसबुक और ट्विटर की ताकत से सरकार अंजान नहीं है । चाहे वो मिस्त्र में तहरीर स्कावयर पर लाखों लोगों के जुटने का मामला हो, चाहे वो ट्यूनीशिया में सरकार के खिलाफ आंदोलन हो, चाहे वो अमेरिका में चल रहा ऑक्योपॉय वॉल स्ट्रीट हो या फिर अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हो, सबमें फेसबुक और टि्वटर की बेहद ही अहम भूमिका रही है । उदाहरण के तौर पर अगर हम देखें तो फेसबुक पर पिछले साल नवंबर में इंडिया अगेंस्ट करप्शऩ का पेज बनाया गया और सालभर में तकरीबन साढे पांच लाख से ज्यादा लोग उसके सदस्य बन गए और इनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है । उसी तरह अगर हम ट्विटर को देखें तो जनलोकपाल के नाम से पिछले ही साल ट्विटर अकाउंट खोला गया । टि्वटर को रेटिंग देनेवाली एजेंसी ने जनलोकपाल को एक मजबूत ब्रांड के तौर पर रेटिंग दी और शुरुआत में ही उसे दसवें नंबर पर रखा । लेकिन महीने भर में ही जनलोकपाल टॉप फाइव में पहुंच गया । और तब से वो लगातार दूसरे तीसरे नंबर पर बना रहता है । बावजूद इसके कि जनलोकपाल को फॉलो करनेवाले महज दो लाख के करीब लोग है । सरकार के पास ये सब आंकड़े तो जाते ही हैं । इन आंकड़ों की वजह और पिछले दो अनशन के दौरान अन्ना हजारे को मिले जनसमर्थन से यूपीए सरकार के कान खड़े हो गए । अन्ना हजारे एक बार फिर से अनशन करने के लिए हुंकार रहे हैं और दूसरे वो यह भी ऐलान कर चुके हैं कि अगर लोकपाल बिल पास नहीं होता है तो वो आठ दिनों के अनशन के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव प्रचार करेंगे । उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की सक्रियता को लेकर कांग्रेस खासी सतर्क है । इस वजह से अन्ना के उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ प्रचार के ऐलान और राजनेताओं के खिलाफ साइबर दुनिया में बन रहे माहौल को देखकर ही सिब्बल उसपर लगाम लगाने की मंशा पाले बैठे हैं । लेकिन सिब्बल जैसे कानून के जानकार यह भूल जाते हैं कि इस देश का संविधान प्री सेंसरशिप की इजाजत नहीं देता । हमारे संविधान के मुताबिक कोई भी प्रचार प्रसार- दृश्य या श्रव्य अगर आपत्तिजनक दिखाई देता है तो उसके खिलाफ शिकायत होनी चाहिए और दोषी पाए जाने पर बनाने वाले और उसे प्रचारित प्रसारित करनेवालों पर कानून के हिसाब से कार्रवाई होनी चाहिए । लेकिन कहीं भी प्री सेंसरशिप की बात नहीं कही गई है ।
प्रीसेंसरशिप की बात दो बार कांग्रेस के शासनकाल में ही कही गई है । एक बार इमरजेंसी के दौरान, जब प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दिया गया था और इंद्रकुमार गुजराल को हटाकर विद्याचरण शुक्ला को सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई थी । पद संभालने के बाद शुक्ला अपने दफ्तर में अखबार के संपादकों को बुलाकर यह बताते थे कि अखबार में क्या छापना है । इमरजेंसी लगने और पद संभालने के फौरन बाद ही विद्याचरण शुक्ला ने 26 जून 1975 को दिल्ली में अखबार के संपादकों के साथ एक बैठक करके उन्हें सेंसरशिप समझाया था । कुछ अखबारों ने उस दिन के अपने अंक में लिख दिया था कि आज के अखबार की खबरें सरकार द्वारा सेंसर की गई हैं । जिसपर विद्याचरण शुक्ला ने संपादकों को खूब खरी खोटी सुनाई थी । सेंसरशिप का नतीजा कांग्रेस ने भुगता । इसलिए एक बार जब राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में फिर से सेंसरशिप की बात चली तो उसे लागू करने का साहस सरकार नगहीं कर पाई । सिब्बल की सोशल मीडिया पर सेंसरशिप पर ही एक वयक्ति ने ट्विट किया- 1975 में भी एक वकील सिद्धार्थ शंकर रे ने श्रीमती गांधी को सलाह दी थी जिसका नतीजा कांग्रेस ने भुगता और अब फिर से एक वकील सरकार की तरफ से मोर्चा संभाले हैं तो दूसरी श्रीमती गांधी को इस बात पर गौर करना चाहिए ।

Monday, November 21, 2011

सपने सच नहीं होते, काटजू साहब

इन दिनों मीडिया में प्रेस काउंसिल के टटके अध्यक्ष और दुनिया के प्रकांडतम विद्वानों में से एक, सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड न्यायाधीश जस्टिस मार्केंडेय काटजू के विवादास्पद बयानों पर बहस चल रही है । काटजू ने अपने बयानों में न्यूज चैनलों को निहायत ही गैरजिम्मेदार और समाज को बांटने वाला करार देकर विवाद को जन्म दिया । सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने के बाद जस्टिस काटजू को भारत सरकार ने फौरन ही प्रेस काउंसिल का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया । अपनी नियुक्ति से उत्साहित काटजू ने पद संभालते ही मीडिया को सुधारने का अपना अभियान शुरू कर दिया । उनको लगता है कि न्यूज चैनलों पर भडैंती के अलावा कुछ नहीं होता । उनको अपने ज्ञान के आगे सारे पत्रकार बौने लगते हैं । उनको लगता है कि पत्रकारिता मूर्ख लोगों के हाथों में है, जिन्हें ककहरा भी नहीं आता । जस्टिस काटजू ने जिस तरह से पूरे इलेक्ट्रानिक मीडिया को खारिज कर दिया है उससे उनके इरादों के साफ संकेत मिलते हैं । हर क्षेत्र की तरह पत्रकारिता में भी गलत लोग हो सकते हैं, हैं भी, लेकिन क्या चंद लोगों की बिना पर सारे लोगों को खारिज कर दिया जाना । क्या जस्टिस सौमित्र सेन और जस्टिस पी डी दिनाकरन पर लगे आरोपों की बिना पर हम पूरी न्यापालिका को कठघरे में खड़ा कर दे सकते हैं । नहीं । उसी तरह चंद लोगों और चंद चैनलों की बिना पर पूरी मीडिया को सवालों के घेरे में लेना उचित नहीं है ।
न्यूज चैनल में काम करते हुए मैं अपने अनुभवों से यह मानता हूं कि कुछ चैनलों ने गलतिया की हैं । खबरों के नाम पर मनोरंजन, खबरों के नाम फिक्शन, खबरों के नाम पर नाच गाना, खबरों के नाम पर मरते लोगों की तस्वीरें, खबरों के नाम पर फिल्मों के विवाद, खबरों के नाम पर ज्योतिष के कार्यक्रम आदि दिखाए गए और अब भी दिखाए जा रहे हैं। कुछ चैनलों पर ऐश्वर्या राय के बच्चे के जन्म को लेकर भी आपत्तिजनक और निजता का हनन करनेवाले कार्यक्रम दिखाए गए । उन कार्यक्रमों की आलोचना भी हुई और खुद मीडिया के लोगों ने उस पर आपत्ति उठाई । ना सिर्फ आपत्ति उठाई बल्कि उसको लेकर संपादकों के बीच जमकर बहस भी हुई । लेकिन ये बातें सार्वजनिक नहीं होती इस वजह से लोगों को लगता है कि न्यूज चैनलवाले तो बस खबरों के अलावा सबकुछ करते हैं । लोगों के बीच बन रहे इसी परसेप्शन का प्रतिरोध करने के लिए संपादकों की संस्था ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन ने ऐश्वर्या राय के बच्चे के जन्म को लेकर जो गाइडलाइन बनाई उसको जारी कर दिया । यह पहली बार नहीं हुआ है कि मीडिया ने खुद को नियंत्रित करने के लिए इस तरह की गाइडलाइन जारी की है । पहले भी कई बार इस तरह के गाइडलाइंस बने और उसका सभी ने पालन भी किया ।
कुछ चैनलों पर इस तरह के कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं तो कुछ चैनलों पर बुंदेलखंड में भूख से मरते किसानों की व्यथा, बुंदेलखंड में ही रोटी के लिए जिस्म बेचती औरतें, सूखे की भयावहता से परेशान किसानों पर स्पेशल सीरीज से लेकर समसामयिक मुद्दों पर घंटे घंटे भर के कार्यक्रम भी दिखाए गए हैं । लेकिन जब आपने तय कर लिया है कि न्यूज चैनल सिर्फ कूड़ा परोसते हैं तो फिर आपको ये कार्यक्रम नहीं दिखाई देंगे । पिछले तकरीबन साल भर से जिस तरह से न्यूज चैनलों ने भ्रष्टाचार को उजागर करने में आक्रामकता दिखाई है क्या वो भी भारतीय प्रेस परिषद के नवनियुक्त अध्यक्ष को दिखाई नहीं देता । न्यूज चैनलों पर जिंदगी लाइव जैसे कार्यक्रम भी आते हैं जहां समाज के उन तबके के लोगों के दुखदर्द शेय़र किए जाते हैं जिनकी और ना तो सरकार का और ना ही किसी और का ध्यान जाता है । पिछले गुरुवार को दिल्ली में समारोह पूर्वक जिंदगी लाइव अवॉर्ड्स दिए गए । जिन दस लोगों को इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया उनके बारे में, उनके अनुभवों के बारे में जस्टिस काटजू जैसे लोगों को बताना और जानना जरूरी है । मक्का मस्जिद धमाके का आरोपी कैसे करीब दो साल तक जेल में रहता है और फिर अदालत से बरी होने के बाद जब अपने परिवेश में वापस लौटना चाहता है तो समाज उसे अस्वीकार कर देता है । उसी दौर में जिंदगी लाइव के शो में उससे बातचीत होती है । कार्यक्रम में बातचीत के दौरान इमरान अपना दर्द, अपनी पीड़ा और समाज से अस्वीकार होने की व्यथा बयान करते है । उसने पुरस्कार को स्वीकार करते हुए यह बात बताई कि जिंदगी लाइव कार्यक्रम पर आने के बाद उसकी जिंदगी बदल गई । उसे न केवल समाज ने स्वीकार किया बल्कि उसे कॉलेज में वापस दाखिला भी मिला। पढ़ाई खत्म करते ही उसे नौकरी मिली और आज वो आतंकवादी होने के सदमे से उबर पाया है । जस्टिस काटजू साहब यही है मीडिया की ताकत और यही है मीडिया के सामाजिक सरोकार जिसका निर्वहन वो पूरी जिम्मदारी से कर रहा है । लेकिन जब अच्छी चीजों की तरफ से मुंह मोड़ लेंगे और सिर्फ वही देखना चाहेंगे जिसके बारे में राय बना चुके हैं तो जिंदगी लाइव जैसे कार्यक्रम आपको दिखाई नहीं देंगे । इसी कार्यक्रम में सामने आकर कई घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को अन्याय और शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत मिली । बाल यौन शोषण के शिकार लड़के की कहानी सुनकर इस अपराध के शिकार बच्चों को वाणी मि्ली और उन्होंने प्रतिकार करना शुरू कर दिया । दंगा पीड़तों के दर्द को भी इस मंच ने अपनी आवाज उठाने की सहूलियत दी । मुझे अब भी याद है कि 1984 के सिख दंगों की शिकार एक महिला किस तरह से कार्यक्रम के अंत में खड़ी होती हैं और भावनाओं के ज्वार में उसकी एंकर ऋचा से कहती हैं- जा बेटी जा ! तु्म्हें मेरी उमर लग जाए । आजतक किसी ने मेरी बात नहीं सुनी थी तुमने मेरा दर्द सुनकर कलेजा हल्का कर दिया । जस्टिस काटजू साहब अगर आपने दंगा पीड़ित उस महिला की वो आवाज सुनी होती तो आपकी राय बदल गई होती, शायद आंखें भी खुल गई होती । लेकिन क्या करें आपको तो सिर्फ राखी सावंत और नाच गाना ही दिखता है ।
काटजू ने एक और घोर आपत्तिजनक और निहायत ही गैरजिम्मदाराना बयान दे डाला । उन्होंने तहा कि मीडिया समाज को बांटने का काम कर रहा है । काटजू जैसे विद्वान और सुप्रीम कोर्ट जैसी सर्वोच्च गरिमामय संस्थान में रहने के बाद भी काटजू से इस तरह के हल्के बयान की अपेक्षा तो दूर की बात कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । अपने इस बयान के समर्थन में काटजू ने जो तर्क दिए वो भी बेहद हास्यास्पद और लचर थे । काटजू साहब को अयोध्या के बाबरी विवाद के समय इलाहाबाद होईकोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले के वक्त की न्यूज चैनलों की कवरेज भी याद नहीं रही । अयोध्य़ा विवाद के फैसले की जिस तरह से रिपोर्टिंग की गई या उसके पहले संपादकों और न्यूज चैनल में काम करनेवाले पत्रकारों ने माथापच्ची की उसका एहसास काटजू को नहीं है । होना भी नहीं चाहिए । क्योंकि ये तो हमारा काम है । लेकिन जब प्रेस काउंसिल का अध्यक्ष इस तरह का गैर जिम्मेदाराना बयाने देकर समाज में एक भ्रम का वातावरण तैयार करे तो उसका प्रतिकार और प्रतिरोध हर स्तर पर किया जाना चाहिए । प्रेस काउंसिल का अध्यक्ष बनने के बाद काटजू मुंगेरी लाल की तरह हसीन सपने भी देखने लगे हैं । वो मीडिया पर अंकुश लगाने और उसे डंडे के जोर पर चलाने की वकालत कर रहे हैं । सरकार से पद मिलने के बाद अब वो मीडिया पर अंकुश लगाने की ताकत भी पाना चाहते हैं । लेकिन जस्टिस काटजू यह भूल गए हैं कि सपने सपने ही होते हैं और वो कभी सच नहीं होते । काटजू तो मीडिया पर अंकुश लगाने का सपना दिन के उजाले में देख रहे हैं । काटजू जैसा विद्वान यह कैसे भूल सकता है कि इमरजेंसी के दौर को भी भारतीय मीडिया ने देखा और उस समय भी अपनी साख और प्रतिरोध की ताकत के बल पर अपने को बचाए रखने में कामयाब हो गया । इमरजेंसी के दौर में भी मीडिया पर अंकुश लगाया गया था । अंकुश लगाने का सपना देखने वाले तो इतिहास के पन्नों में गुम हो गए हैं लेकिन प्रतिरोध करनेवाले आज भी समाज के हीरो हैं । मीडिया पर अंकुश या उसे डंडे के जोर पर हांकने का दिवास्वपन देखना छोड़ दीजिए । रही बात न्यूज चैनलों की गलतियों की तो उसमें हर दिन सुधार किया जा रहा है । ब्रॉडकास्टर्स की आत्म नियंत्रण की एक संस्था है जिसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस वर्मा है । इसके अलावा संपादकों की संस्था बीईए ने भी इस दिशा में मजबूती से कदम उठाए हैं । जनता के प्रति हमारी जवाबदेही है और हम लोकतंत्र के प्रहरी के तौर पर इस जिम्मेदारी को बखूबी समझते हैं । आपके उपदेश की हमें जरूरत नहीं है ।

Monday, November 14, 2011

लेखको, माफी मांगो !

पिछले दिनों लखनऊ में हिंदी के महान रचनाकारों में से एक श्रीलाल शुक्ल जी का निधन हो गया । मैं श्रीलाल जी से दो बार मिला । एक बार राजकमल प्रकाशन के लेखक से मिलिए कार्यक्रम में और दूसरी बार राजेन्द्र यादव के जन्मदिन की पार्टी में । लेखक से मिलिए कार्यक्रम में तो बेहद ही औपचारिक सी मुलाकात थी । लेकिन कवि उपेन्द्र कुमार के घर पर हुई राजेन्द्र यादव की पार्टी में पर तो मेरा अनुभव एकदम ही अलहदा था । किस वर्ष की बात है ये ठीक से याद नहीं है । लेकिन इतना याद है कि नब्बे के दशक के उत्तर्राद्ध की बात है । यादव जी की पार्टी चल रही थी । दिल्ली का पूरा साहित्यिक समाज वहां मौजूद था । पार्क स्ट्रीट के बंगले में हो रही पार्टी में जमकर रसरंजन भी हो रहा था । रसरंजन के बाद खाने का इंतजाम था । पार्टी अपने शबाब पर थी । जमकर रसरंजन हो रहा था । नामवर जी, अजित कुमार, श्रीलाल शुक्ल एक ही टेबल पर जमे हुए थे । हमलोग खाना खाने पहुंचे तो देखा कि श्रीलाल जी भी आ रहे हैं । कतार में खड़े सभी लोगों ने श्रीलाल जी के लिए जगह छोड़ दी । शुक्ला जी ने खाना लिया और प्लेट लेकर गेट की ओर बढ़ चले । सभी लोग अपनी मस्ती में थे, रसरंजन का भी असर था । खाना लेकर श्रीलाल जी जब गेट से बाहर हो गए तो हम दो तीन लोग लपके । लेकिन श्रीलाल जी कहां मानने वाले थे वो तो सड़क पार करके जाकर डिवाइडर पर बैठ गए । अब सोचिए कि हिंदी का इतना बड़ा लेखक पार्टी से निकलकर डिवाइडर पर बैठकर खाना खा रहा है । पार्क स्ट्रीट पर ठीक-ठाक ट्रैफिक होता है । लेकिन पार्टी के शोरगुल से बेफिक्र श्रीलाल जी खाने में मगन थे । हम लोग उनके आसपास खड़े थे । मैं मंत्रमुग्ध सा उनको देख रहा था । हिंदी के इतने बड़े साहित्यकार से इतने नजदीक से मिलने का मौका । जब खाना खत्म होने लगा तो उन्होंने कहा कि सब्जी चाहिए । खैर हमारे कहने पर माने और खुद चलकर अंदर आ गए । लेकिन तबतक रसरंजन का असर काफी हो चुका था । किसी तरह हम उनको लेकर अंदर आए और फिर वहां बिठाया । यह मेरे लिए एक स्वपन सरीखा था । राग दरबारी जैसी कालजयी कृति के रचियता से बातचीत कर मैं धन्य हो रहा था । खैर पार्टी खत्म हो गई और हम अपने अपने घर चले गए । लेकिन तबतक कई लोगों से श्रीलाल जी के बारे में बात कर काफी जान चुका था । कई सालों बाद जब तद्भव के प्रवेशांक में श्रीलाल शुक्ल पर रवीन्द्र कालिया का संस्मरण पढ़ा तो यादव जी के जन्मदिन की घटना एक बार फिर से स्मरण हो आया । कालिया जी ने लिखा था- लखनऊ में मेरे एक आईएएस मित्र हैं, एक बार उनसे मिलने उनके निवास स्थान पर गया । बाहर एक चौकीदार तैनात था । मैंने उससे पूछा, साहब हैं ? हां हैं । क्या कर रहे हैं ? शराब पी रहे हैं । उसने निहायत सादगी से जवाब दिया । श्रीलाल शुक्ल जब इलाहाबाद नगर निगम के प्रशासक थे, तो अक्सर उनसे भेंट होती थी, उनका चौकीदार भी कुछ कुछ लखनऊ के मित्र के चौकीदार जैसा था । एक बार उनसे मिलने गया और चौकीदार से यह पूछने पर कि श्रीलाल जी घर पर हैं या नहीं, उसने बताया, साहब हैं । क्या कर रहे हैं- मैंने पूछा । बाहर बगीचे में बैठे हैं और टकटकी लगाकर चांद की तरफ देख रहे हैं । उसने बगीचे की ओर संकेत करते हुए कहा था । बाद में कालिया जी को श्रीलाल जी ने पत्र लिखकर उपरोक्त प्रसंग पर हल्की सी नाराजगी भी दिखाई थी और लिखा था कि काल्पनिक आईएएस मित्र की बजाए सीधे सीधे उनका नाम भी लिख देते तो कुछ नहीं हो जाता । तद्भव का वह अंक बेहतरीन था । लकिन वो अंक मेरे पास नहीं हैं , बाद में राजकमल से ही अखिलेश के संपादन में श्रीलाल शुक्ल की दुनिया के नाम से वो पुस्तकाकार छपा । श्रीलाल जी को जानने के लिए वो किताब मुकम्मल है । तकरीबन दस साल बाद लखनऊ जाना हुआ । श्रीलाल जी से मिलने के लिए उनके घर फोन किया । यह याद नहीं कि किसने उठाया लेकिन यह बताया गया कि उनकी तबियत खराब है और मुलाकात मुमकिन नहीं है ।
श्रीलाल जी के निधन से एक और हसरत मन में ही रह गई । दो हजार दो में मेरे श्वसुर (अब स्वर्गीय) प्रो प्रियवत नारायण सिंह जी ने मुझे रागदरबारी का पहला संस्करण भेंट किया । मेरे लिए यह एक अमूल्य भेंट थी । मेरे पास राग दरबारी का पेपर बैक संस्करण था । राग दरबारी का पहला संस्करण 1968 में राजकमल प्रकाशन प्रा लिमिटेड दिल्ली-6 से छपा था । उस संस्करण पर उपन्यास का मूल्य 15 रु अंकित है । पहले संस्करण का कवर रिफार्मा स्टूडियो, दिल्ली ने बनाया था । लेकिन जब मुझे राग दरबारी का पहला संस्करण मिला तो उसका कवर नहीं था । मैंने यूं ही राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक महेश्वरी को पहले संस्करण की प्रति के बारे में चर्चा की । उन्होनें सुनते ही प्रस्ताव रखा कि मैं उनको पहले संस्करण की प्रति दे दूं, बदले में वो मुझे राग दरबारी की पांच प्रतियां दे देंगे । मैंने विनम्रतापूर्वक उनके प्रस्ताव को मना कर दिया । थोड़ी निराशा उनके चेहरे पर अवश्य दिखी लेकिन मेरी भावनाओं को उन्होंने समझा । मेरे पास राग दरबारी का कवर नहीं था। मैंने अशोक जी से एक कवर मांग लिया । अब मेरे पास जो राग दरबारी है वो पहला संस्करण है लेकिन कवर बाद के संस्करण का है । मैं जब भी लखनऊ जाता था तो सोचता था कि इस बार श्रीलाल शुक्ल से मिलूंगा और उनसे किताब पर दस्तखत लूंगा और कवर के बारे में मालूम करूंगा । लेकिन श्री लाल जी के निधन के बाद ये इच्छा पूरी नहीं हो सकी ।
लेकिन श्रीलाल जी की बीमारी और उनके निधन के बहाने मैं एक और बात शिद्दत से उठाना चाहता हूं । जब श्रीलाल जी बीमार थे और लखनऊ के अस्पताल में भर्ती थे तो अचानक से एक दिन दिल्ली के कुछ लेखकों की ओर से एक अपील जारी हुई । जिसमें सरकार से श्रीलाल जी की बीमारी के मद्देनजर सरकार से उनके समुचित इलाज की व्यवस्था करवाने की अपील की गई थी । अपील पर दस्तखत करनेवालों में सर्वश्री अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र यादव, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, चंचल चौहान, पंकज विष्ट और रेखा अवस्थी के नाम प्रमुख हैं । इस मुहिम के अगुवा मुरली मनोहर प्रसाद थे । श्रीलाल जी वरिष्ठ आईएएस अफसर थे और उत्तर प्रदेश में प्रमुख सचिव के पद से रिटायर हुए थे । लिहाजा उनके पास सीजीएचएस की सुविधा होनी चाहिए । उसके अलावा उनका भरा पूरा समृद्ध परिवार है जो उनके इलाज के लिए स्वत सक्षम है । दिल्ली में 3 नवंबर को श्रीलाल जी की श्रद्धांजलि सभा का भव्य आयोजन हुआ था । उससे भी जाहिर होता है कि परिवार को कोई कमी नहीं है । लेखकों ने इस तरह की अपील जारी कर श्रीलाल जी का अपमान किया । बेवजह उनको दयनीय बनाने की कोशिश की गई । मुझे लगता है कि अगर जीते जी श्रीलाल जी को इस बात का पता चल गया होता तो तो वो बेहद नाराज होते । लखनऊ के उनके कई करीबी लोगों से मेरी बात हुई सबने यही कहा कि श्रीलाल जी बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे और अगर वो इसका प्रतिरोध करने की स्थिति में होते तो जरूर करते । मेरे हिसाब से सरकार से मदद की अपील अनावश्यक और गैरजरूरी थी । यह अपील जारी करके लेखकों ने श्रीलाल जी का घोर अपमान किया है और उसको माफी मांग कर अपनी गलती को सुधारना चाहिए । क्या अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र यादव, पंकज बिष्ठ, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह यह साहस दिखा पाएंगे और श्रीलाल जी और उनके परिवार से माफी मांग कर मिसाल कायम करेंगे । करना चाहिए । बड़प्पन इसी में है ।

Friday, October 28, 2011

उच्च मानदंड की अपेक्षा

जब टीम अन्ना की सहयोगी किरण बेदी पर हवाई यात्राओं के लिए ज्यादा पैसे वसूलने का आरोप लगा तो पहले ज्यादा पैसा लेने को लोगों की भलाई के लिए लिया गया पैसा करार देकर उसको जायज ठहराने की कोशिश की गई । बाद में किरण ने यह ऐलान कर अपनी ईमानदारी का परचम लहराने की कोशिश की कि वो उन संगठनों के पैसे वापस कर देंगी जिनसे ज्यादा पैसे वसूले गए थे। सवाल पैसे वापस करने का नहीं है । सवाल यह है कि टीम अन्ना की अहम और मुखर सदस्य किरण बेदी ने जिस तरह से अपनी यात्रा के लिए गैर सरकारी संगठनों से ज्यादा पैसे वसूले वो उनकी इंटेग्रेटी पर बड़ा सवाल खड़े करता है । सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और शुचिता का डंका पीटनेवाली किरण बेदी ने एक नहीं बल्कि कई संगठनों से अपनी हवाई यात्रा के एवज में ज्यादा धन लिया । उनपर आरोप है कि उन्होंने इकॉनामी क्लास में यात्रा की और बिजनेस क्लास के टिकट के बराबर भुगतान हासिल किया । अपने उपर लग रहे आरोपों से तिलमिलाई किरण बेदी कहा कि यात्रा टिकट से जो पैसे बचे वो लोगों की भलाई के लिए उन्होंने अपने एनजीओ में जमा करवा दिए । टेलीकॉम घोटाले में जेल में बंद तमिलनाडू के पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि की बेटी कनिमोड़ी ने भी अपने एनजीओ में ही धन लिया था । उनका संगठन भी लोगों की भलाई के ही काम करता है । तो क्या उनके भी गुनाह माफ कर दिए जाने चाहिए । लिहाजा किरण बेदी की इन दलीलों में दम नहीं है । जिस नैतिकता और शुचिता की बात करते हुए किरण बेदी ने हमारे देश के नेताओं को कठघरे में खड़ा किया था उन्हीं के भंवर में वो फंस गई हैं । इल्जाम इतने पर ही नहीं रुके । आरोप यह भी है कि उन्होंने एक ही शहर की यात्रा के लिए दो अलग अलग संगठनों से पैसे लिए । किरण बेदी को गैलेंटरी अवॉर्ड की बिनाह पर यात्रा में छूट मिलती है । किरण बेदी ने वो छूट भी हासिल की और फिर किराए का पूरा पैसा भी वसूला । यह तो सीधे तौर पर घपला है। सरकारी छूट भी हासिल करो उसको भुना भी लो ।ईमानदारी का डंका भी बजाओ और जहां मौका मिले वहां माल भी काट लो । इनके अगुवा अन्ना हजारे चूंकि मौन व्रत पर हैं इस वजह से उनके प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने किरण बेदी के समर्थन में मोर्चा संभाला और अपनी चिरपरिचित शैली में किरण का बचाव करते हुए कहा कि यह सब जनलोकपाल के मुद्दे से देश का ध्यान हटाने की साजिश के तहत किया जा रहा है । केजरीवाल पहली बार डिफेंसिव और दलीलों में लचर लग रहे थे । सिर्फ जनलोकपाल के मुद्दे से ध्यान हटाने की कोशिश की आड़ में किरण का बचाव करने में असमर्थ केजरीवाल ने आनन फानन में बुलाई अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में तो यहां तक कह डाला कि उन्हें पूरे मामले की जानकारी नहीं है । सवाल यह उठता है कि अगर आपको पूरे मामले की जानकारी नहीं थी तो फिर मीडिया के सामने आकर बयानबाजी क्यों कर रहे हैं । क्या बयान देने से पहले पूरे मामले की जानकारी हासिल करने की जरूरत नहीं समझी गई । जब सवालों के तीर ज्यादा चलने लगे तो अरविंद ने इशारों-इशारों में मीडिया को इस मामले में केस दर्ज करवाने की नसीहत दे डाली । सवाल अब भी सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ा है कि क्या किरण बेदी ने गलत नहीं किया । क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का एक तथाकथित बड़ा चेहरा छोटे से लाभ के लिए अपने रास्ते से भटक नहीं गया । क्या वीरता के लिए मिले छूट का बेजा इस्तेमाल नहीं किया । क्या लोगों की भलाई करने के लिए भ्रष्ट तरीके से पैसा जुटाना जायज है । अरविंद और अन्ना हजारे हमेशा से पारदर्शिता की बात करते रहे हैं लेकिन किरण बेदी के मामले में जो गड़बड़झाला है उससे उसकी हवा निकल जाती है ।
दूसरा संगीन इल्जाम लगा है टीम अन्ना के एक और अहम सदस्य डॉक्टर कुमार विश्वास पर । अन्ना आंदोलन के दौरान कुमार विश्वास बड़े जोश-ओ-खरोश के साथ रामलीला मैदान में मंच संचालन करते नजर आए थे । उसके बाद गाहे बगाहे खबरिया चैनलों ने भी उनको तवज्जो दी । कुमार विश्वास ने भी खुद को टीम अन्ना का प्रवक्ता साबित करने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । कुमार विश्वास ने खुद को टीम अन्ना के अहम सदस्य के तौर पर स्थापित भी कर लिया । लेकिन इन सबके बीच कुमार यह भूल गए कि वो गाजियाबाद के लाजपत राय कॉलेज में शिक्षक भी हैं । आरोप है कि बेईमानी के खिलाफ ईमानदारी का झंडा थामे कुमार विश्वास ने क्लास लेना बंद कर दिया । देश के लिए बड़ी जिम्मदारी निभाने वाला शख्स छात्रों के प्रति अपनी जिम्मेदारी भुला बैठा । छात्र कॉलेज आते रहे और शिक्षक के गैरहाजिर रहने पर मायूस होकर लौटते रहे । कॉलेज प्रशासन के मुताबिक कुमार विश्वास बगैर किसी जानकारी से अनुपस्थित रहते हैं । कुमार विश्वास कवि सम्मेलनों में जाकर ज्ञान का अलख जगा रहे हैं, पैसे भी कमा रहे हैं । पैसा कमाना गलत नहीं है लेकिन नौकरी करते हुए बगैर छुट्टी के आंदोलन में शामिल होना, चुनाव में दौरे पर जाना कितना जायज है । क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है कि जिस काम के लिए आपको पैसे मिलते हैं उसको आप उचित ढंग से नहीं कर रहे हैं । अरविंद केजरीवाल ने कुमार विश्वास के मसले पर भी सफाई देने की कोशिश की और इस मुद्दे को भी जनलोकपाल से ध्यान भटकाने वाला करार दिया । लेकिन क्या टीम अन्ना पर उठनेवाला हर सवाल जनलोकपाल से भटकाने के लिए उठाया जा रहा है । अरविंद जैसे समझदार आदमी से इस तरह के लचर तर्क की अपेक्षा नहीं थी। यहां यह जानना दिसचस्प होगा कि कुमार विश्वास ने अगर अपने कॉलेज से छुट्टी ली तो वजह क्या बताई । सवाल यह है कि टीम अन्ना अगर ईमानदारी और नैतिकता की बात करेंगे तो उन्हें पहले खुद ही उसका पालन करना होगा ।
टीम अन्ना ने जब भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का ऐलान किया था तो पूरे देश ने उन्हें सर आंखों पर बिठा लिया था । टीम अन्ना के हर सदस्य को लेकर, टीम अन्ना के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं को लेकर समाज में एक इज्जत बनी थी । जब दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना हजारे अनशन पर बैठे थे तो तिरंगा हाथ में लिए लोगों को, बाइक सवार युवकों को लोग अपनी गाड़ियां रोककर रास्ता देते थे । यह उसी प्रकार की श्रद्धा का प्रदर्शन था जैसा कि लोग कांवड़ियों को रुककर रास्ता देते वक्त करते हैं । कहने का मतलब यह कि देश की जनता के मन में टीम अन्ना और उसकी विश्वसनीयता की बेहद उंची जगह बनी थी । टीम अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ऐसे प्रतीक के तौर पर उभरी थी जिसपर पूरा देश आंख मूंदकर श्रद्धाभाव से यकीन कर रहा था । आंदोलन शुरू होने के बाद टीम अन्ना के कई सदस्यों पर संगीन इल्जाम लगने शुरू हो गए । सबसे पहले प्रशांत भूषण को नोएडा में फॉर्म हाउस के लिए जमीन आवंटन का मामला उछला । उस जमीन का आवंटन भी टेलीकॉम स्पेक्ट्रम की तरह पहले आओ पहले पाओ की नीति के तहत किया गया था । नोएडा की जमीन का मामला थमा भी नहीं था कि इलाहाबाद के उनके घर की रजिस्ट्री की फीस का मामला सामने आया । प्रशांत भूषण के बाद अरविंद केजरीवाल को इंकम टैक्स विभाग की तरफ से बकाया राशि चुकाने का नोटिस मिला । लेकिन जब ये आरोप लग रहे थे तो अन्ना आंदोलन अपने चरम पर था और लोगों को लगा कि सरकार और चंद लोग टीम अन्ना को बदनाम करने की साजिश रच रहे हैं । प्रशांत और अरविंद पर लग रहे आरोपों का असर उल्टा हुआ था । देश की जनता और मजबूती के साथ टीम अन्ना से जुड़ती चली गई ।
अब वक्त आ गया है कि टीम अन्ना को उन्हीं उच्च मानदंडों पर खरा उतरना होगा जिसके लिए वो आंदोलन कर रहे हैं । गांधी जब कोई बात कहते थे तो पहले खुद उसपर अमल करते थे । गांधी उपदेश कम देते थे मिसाल कायम करके जनता को वो काम करने के लिए प्रेरित ज्यादा करते थे । गांधी के अनुयायियों ने भी उसी सिद्धांत पर अमल किया । टीम अन्ना से भी देश उसी ईमानदारी और नैतिकता की अपेक्षा रखता है ।

Monday, October 24, 2011

अमिताभ का विरोध क्यों ?

हमारे देश के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार को लेकर विवाद पैदा किया जा रहा है । विवाद और आपत्ति इस बात को लेकर है कि शहरयार और अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार हिंदी फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन के हाथों दिया गया । इस बात को लेकर कई साहित्यकारों को घोर आपत्ति है कि हिंदी फिल्मों में नाचने गाने वाला कलाकार हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक को सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार देने योग्य कैसे हो गया । दरअसल ये हिंदी के शुद्धतावादी लेखकों की कुंठा है जो किसी ना किसी रूप में प्रकट होती है । मेरी जानकारी में सबसे पहले ये सवाल हिंदी के आलोचक वीरेन्द्र यादव ने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर उठाया । वीरेन्द्र यादव ने फेसबुक पर लिखा- हिंदी के दो शीर्ष लेखकों श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने का समाचार इन दिनों सुर्खियों में है । फिलहाल इस बात से ध्यान हट गया है कि ज्ञानपीठ में अब अमिताभ बच्चन का दखल हो गया है । अभी पिछले ही हफ्ते शहरयार को अमिताभ बच्चन ने यह पुरस्कार दिया है । यानि अब मूर्धन्य साहित्यकार बॉलीवुड के ग्लैमर से महिमामंडित होंगे । जिस सम्मान को अबतक भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और नेल्सन मंडेला जैसी विभूतियां देती रही हों उसकी यह परिणति दयनीय नहीं है । वीरेन्द्र यादव ने फेसबुक पर क्या नहीं की शक्ल में सवाल भी उछाला । वीरेन्द्र यादव एक समझदार और सतर्क आलोचक हैं । उनसे इस तरह की हल्की टिप्पणी की उम्मीद मुझे नहीं थी । अमिताभ बच्चन इस देश के एक बड़े कलाकार हैं और सिर्फ फिलमों में लंबू तंबू में बंबू लगाए बैठा और झंडू बाम का विज्ञापन कर देने भर से उनका योगदान कम नहीं हो जाता । क्या वीरेन्द्र यादव को अमिताभ बच्चन की उन फिल्मों का नाम गिनाना होगा जिसमें उन्होंने यादगार भूमिकाएं की । क्या वीरेन्द्र यादव को अमिताभ बच्चन के अभिनय की मिसाल देनी होगी । मुझे नहीं लगता है कि इसकी जरूरत पड़ेगी । अमिताभ बच्चन इस सदी के सबसे बड़े कलाकार के तौर पर चुने गए हैं । वीरेन्द्र यादव को यह समझना होगा कि हर व्यक्ति की अपनी आर्थिक जरूरतें होती हैं और वो जिस पेशे में होता है उससे अपनी उन आर्थिक जरूरतों को पूरा करने की कोशि्श करता है । अमिताभ बच्चन ने भी वही किया । सचिन तेंदुलकर और शबाना आजामी भी कई उत्पादों का विज्ञापन करते हैं तो क्या सिर्फ उन विज्ञापनों के आधार पर ही उनके क्षेत्र में उनके योगदान को नकार दिया जाए । अमिताभ बच्चन की तरह बिरजू महाराज भी झंडू बाम का विज्ञापन करते हैं तो इसी आधार परक उनके योगदान को कम कर दिया जाना चाहिए । लगता है वीरेन्द्र जी की नजर से यह विज्ञापन नहीं निकला वर्ना वो बिरजू महाराज को और उनके योगदान को खारिज कर देते । कई बड़े कलाकार विज्ञापन करते हैं ये बातें उनके पेशे से जुड़ी है । अमिताभ बच्चन पोलियो ड्राप का भी विज्ञापन करते हैं । वीरेन्द्र यादव की बहस में अमिताभ की इस बात के लिए भी आलोचना की गई है कि वो गुजरात के ब्रैंड अंबेस्डर हैं । उस गुजरात के जिसके मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं । लेकिन इस बात को छुपा लिया गया कि वही अमिताभ बच्चन उस जमाने में केरल के ब्रैंड अंबेसडर थे जब वहां वामपंथी सरकार थी । तो इस तरह के तर्क और इस तरह की समझ पर सिर्फ तरस आ सकता है ।
हिंदी के एक और लेखक अशोक वाजपेयी -जिनका दायरा और एक्सपोजर किसी भी अन्य लेखक से बड़ा है- ने भी अमिताभ बच्चन के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने को संस्थान की एक दयनीय कोशिश करार दिया है । अशोक वाजपेयी ने अपने साप्ताहिक कॉलम में लिखा कि – यह समझना मुश्किल है कि अब अपने को सिनेमाई चमक से जोड़ने की जो दयनीय कोशिश भारतीय ज्ञावपीठ कर रहा है, उसका कारण क्या है । अशोक वाजपेयी जी को यह समझना होगा कि ज्ञानपीठ की यह कोशिश अपने को सिनेमाई चमक से जोड़ने की नहीं बल्कि हिंदी के बड़े लेखक को एक बड़े कलाकार के हाथो सम्मानित करवाने की हो सकती है । मुझे नहीं मालूम कि ज्ञानपीठ की मंशा क्या थी । वो सिनेमाई चमक से जुड़कर क्या हासिल कर लेगा । इस मंशा और वजह को अशोक वाजपेयी बेहतर समझते होंगे । अशोक जी के मुताबिक ज्ञानपीठ का किसी अभिनेता को बुलाने का निर्णय किसी कलामूर्धन्य को बुलाने की इच्छा से नहीं जुड़ा है क्योंकि ऐसी इच्छा के ज्ञानपीठ में सक्रिय होने का कोई प्रमाण या परंपरा नहीं है । प्रसंगव श उन्होंने भारत भवन में कालिदास सम्मान के लिए तीन कलामूर्धन्यों को बुलाने की बात कहकर अपनी पीठ भी थपथपा ली । वाजपेयी जी के इन तर्कों में कोई दम नहीं है और ज्ञानपीठ की परंपरा की दुहाई देकर वो अमिताभ बच्चन के योदगान को कम नहीं कर सकते । अमिताभ का हिंदी के विकास में जो योदगान है उसे अशोक वाजपेयी के तर्क नकार नहीं सकते । अमिताभ बच्चन ने हिंदी के फैलाव में जिस तरह से भूमिका निभाई उसको बताने की कोई आवश्यकता नहीं है । लेकिन वह उनके आलोचकों को वह भी दिखाई नहीं देता । अमिताभ बच्चन हिंदी फिल्मों के एकमात्र कलाकार हैं जो हिंदी में पूछे गए सवालों का हिंदी में ही जवाब देते हैं । मुझे तो लगता है कि हाल के दिनों में जिस तरह से घोटालों के छीटें यूपीए सरकार पर पड़ रहे हैं उस माहौल में मनमोहन सिंह से बेहतर विकल्प तो निश्चित तौर पर अमिताभ बच्चन हैं । दरअसल अशोक वाजपेयी जैसा संवेदनशील लेखक जो कला और कलाकारों की इज्जत करते रहे हैं उनकी लेखनी से जब एक बड़े कलाकार के लिए छोटे शब्द निकलते हैं तो तकलीफ होती है । अशोक वाजपेयी को अमिताभ बच्चन के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार दिलवाने पर तो आपत्ति है लेकिन जब हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार उदय प्रकाश को कट्टर हिंदूवादी नेता योगी आदित्यनाथ अपने कर कमलों से पुरस्कृत करते हैं तो अशोक वाजपेयी चुप रह जाते हैं । अशोक वाजपेयी जैसे बड़े लेखक की जो ये सेलेक्टेड चुप्पी होती है वह साहित्य और समाज के लिए बेहद खतरनाक है ।
मुझे लगता है कि अशोक वाजपेयी का विरोध अमिताभ से कम ज्ञानपीठ से ज्यादा है । उसी विरोध के लपेटे में अमिताभ बच्चन आ गए हैं । जिस तरह से किसी जमाने में प्रतिष्ठित रहा अखबार ज्ञानपीठ के खिलाफ मुहिम चला रहा है उससे यह बात और साफ हो जाती है । अशोक वाजपेयी की देखादेखी कुछ छुटभैये लेखक भी अमिताभ बच्चन और ज्ञानपीठ के विरोध में लिखने लगे । अखबार ने उन्हें जगह देकर वैधता प्रदान की कोशिश की लेकिन अखबार के कर्ताधर्ताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि पाठक मूर्ख नहीं होते हैं । उन्हें प्रायोजित चर्चाओं में और स्वत:स्फूर्त स्वस्थ साहित्यिक बहस में फर्क मालूम होता है । वो यह भांप सकता है कि कौन सा विवाद अखबार द्वारा प्रायोजित है और उसके पीछे की मंशा और राजनीति क्या है । कहना ना होगा कि ज्ञानपीठ और अमिताभ को विवादित करने के पीछे की मंशा भी साफ तौर पर लक्षित की जा सकती है । इस विवाद को उठाने के पीछे की मंशा के सूत्र आप छिनाल विवाद से भी पकड़ सकते हैं । लेकिन इतना तय मानिए कि हिंदी के लोगों का फिल्म के कलाकारों को लेकर जो एक ग्रंथि है वो उनके खुद के लिए घातक है । फिल्म में काम करनेवाला भी कलाकार होता है और किसी भी साहित्यकार, गायक, चित्रकार से कम नहीं होता । मेरा तो मानना है कि अमिताभ बच्चन को बुलाकर ज्ञानपीठ ने एक ऐसी परंपरा कायम की है जिससे हिंदी का दायरा बढेगा । इस बात का विरोध करनेवाले हिंदी भाषा के हितैषी नहीं हो सकते । उनसे मेका अनुरोध है कि वयक्तिगत स्कोर सेट करने के लिए किसी का अपमान नहीं होना चाहिए ।

Sunday, October 23, 2011

क्यों मिलता अन्ना को समर्थन

पिछले दिनों जब दिल्ली में अन्ना हजारे का अनशन हुआ था तो रामलीला मैदान में उमड़ी भीड़ को देखकर अचंभा हुआ था । दिल्ली में लाख लोग एक जगह किसी खास मकसद को लेकर जमा हो जाएं ये लगभग अविश्वसनीय था । लेकिन वो हुआ और लोग खुद से अन्ना के आंदोलन को समर्थन देने चले आए । अन्ना के समर्थन में रामलीला मैदान में सिर्फ दिल्ली की जनता ही नहीं पहुंची थी बल्कि देश के अलग अलग हिस्सों से लोग वहां जमा हुए थे । वहां जाकर ये समझने की कोशिश की थी कि कौन सी वजह है जो लोगों को वहां खींच ला रही है । लोगों से बात कर कुछ समझ में आया लेकिन जिस निष्ठा और कनविक्शन के साथ लोग वहां पहुंच रहे थे उसको समझ नहीं पा रहा था । कई लोगों से बात की – एक मित्र ने बताया कि एक दिन उनकी पत्नी घर से उनके दफ्तर पहुंची और रिसेप्शन पर कार की चाबी के साथ एक चिट छोड़ा जिसमें लिखा था- मैं अन्ना हजारे के आंदोलन में शरीक होने के लिए रामलीला मैदान जा रही हूं । अगर तुमको वक्त मिले तो मुझे लेने आ जाना वर्ना मैं मेट्रो से घर आ जाउंगी । मैं उन दोनों, पति-पत्नी, को कई वर्षों से जानता हूं । पब्लिक ट्रांसपोर्ट से सफर करने के बारे में भाभी सोच भी सकती हैं यह मेरे समझ से परे था । मेरे मित्र ने बाद में बताया कि वो अन्ना इफेक्ट था । इस तरह के कई वाकए मेरे सामने आए तो मेरे मन में यह जानने की जिज्ञासा और प्रबल हो गई कि अन्ना में क्या जादू है जो लोग खिंचे चले जाते हैं । काफी लोगों से बात की, काफी लेख पढ़े लेकिन फिर भी वजह का पता नहीं चल पाया । लेकिन अचानक से मेरा ज्ञानचक्षु खुल गया । वाकया बेहद मजेदार है, आप भी सुनिए ।
तकरीबन चार महीने पहले किसी काम की वजह से स्टैंप पेपर खरीदना पड़ा था । गलत गणित की वजह से तकरीबन दस हजार रुपए के स्टैंप पेपर की ज्यादा खरीद हो गई । हमें लगा कि पैसे बर्बाद हो गए लेकिन हमारे वकील ने बताया कि स्टैंप पेपर वापस लौटाने का भी प्रावधान है । उसके लिए एडीएम के कार्यालय में जाना पड़ेगा । वकील साहब ने आनन- फानन में इस बाबत एक आवेदनपत्र तैयार कर दिया और कहा कि उसको जाकर एडीएम के दफ्तर में जमा करवा दीजिए । मैं रजिस्ट्रार के दफ्तर से एडीएम साहब के दफ्तर में पहुंचा । वहां संबंधित बाबू से मिला तो उन्होंने बताया कि जिस वेंडर से स्टैंप पेपर खरीदा गया है उससे प्रमाणित करवा कर लाना होगा कि उक्त स्टैंप पेपर उसने ही बेचा है । मैंने उनको ये बताने की कोशिश की कि स्टैंप पेपर के पीछे तो बेचनेवाले वेंडर की मुहर लगी है और उसका पूरा पता भी अंकित है लिहाजा फिर से प्रमाणित करवाने की आवश्कता नहीं है । लेकिन बाबू तो ठहरे बाबू । लकीर के फकीर । टस से मस नहीं हुए और फिर से वही दुहरा दिया । मेरे पास कोई विकल्प नहीं था । घर लौट आया । हफ्ते भर बाद जब दफ्तर से साप्ताहिक अवकाश मिला तो सुबह सुबह तकरीबन ग्यारह बजे रजिस्ट्रार के दफ्तर पहुंचा । वहां स्टैंप विक्रेता से मिला तो उसने कहा कि दो बजे आइए । मेरे पास इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं था । तपती दुपहरी में कचहरी परिसर में इंतजार करता रहा । ठीक दो बजे उनके पास पहुंचा तो उन्होंने वादे के मुताबिक स्टैंप पेपर पर लिख कर दे दिया । अब मैं विजेता के भाव से कचहरी परिसर से निकला और तीन चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित एडीएम के दफ्तर पहुंचा और वहां बाबू के टेबल पर उसी विजयी भाव से स्टैंप पेपर रखा और कहा कि चलिए इसको लौटाने की कार्रवाई शुरू करिए । मेरे उत्साह पर चंद पलों में पानी फेरते हुए उन्होंने कहा कि आप पोस्ट ऑफिस से एक रजिस्ट्री का लिफाफा खरीद कर और उसपर अपना पता लिखकर दे दीजिए । मैं भागकर नीचे पोस्ट ऑफिस पहुंचा् तबतक पोस्ट ऑफिस बंद हो चुका था । मैं हारे हुए योद्धा की तरह बाबू के पास पहुंचा । उनसे बताया कि पोस्ट ऑफिस बंद हो चुका है । बाबू साहब जल्दी में लग रहे थे । उन्होंने बेहद अनौपचारिक अंदाज में कहा कि कोई बात नहीं कल दे जाना । मेरे बहुत अनुरोध करने पर वो इस बात के लिए राजी हो गए कि मैं किसी और से वो लिफाफा भिजवा दूंगा । मैंने अपने एक मित्र से अनुरोध किया और उनको वो लिफाफा भिजवा दिया । मेरे मित्र को साहब बहादुर ने बताया कि अब तीन महीने बाद आकर रिफंड ले जाएं । मुझे संतोष हुआ कि चलो तीन महीने बाद पैसे मिल जाएंगे । तब तक कचहरी और एडीएम ऑफिस के चार चक्कर लग चुके थे ।
तकरीबन साढे तीन महीने बाद एक दिन मेरी पत्नी ने मुझे याद दिलाया कि हमें स्टैंप का कुछ रिफंड मिलना है । अगले ही साप्ताहिक अवकाश में मैं एडीएम साहब के दफ्तर पहुंचा । बाबू साहब अपनी सीट पर मौजूद थे । मैंने नमस्कार कर अपना नाम बताया । बेहद ही तत्परता से उन्होंने फाइल निकाली और कहा कि मैं अपने किसी परिचय पत्र की फोटो कॉपी उन्हें दूं । मैं मूर्ख अज्ञानी बगैर फोटो कॉपी लिए वहां चला गया था । खैर पास की ही एक दुकान से फोटो कॉपी करवाकर उनको सौंप दिया । उन्होंने भी मुझे स्टैंप पेपर के पीछे लिखकर दे दिया और कहा कि नीचे की मंजिल पर कोषागार कार्यालय है वहां जाकर जमा करवा दूं । जब मैं उठने को हुआ तो बाबू साहब ने मुझे पोस्ट ऑफिस की रजिस्ट्री वाला लिफाफा पकड़ाया और कहा कि रख लो तुम्हारे काम आएगा । मैं हैरान कि अगर वापस ही करना था तो फिर मंगवाया क्यों । लेकिन ये बात पूछने का साहस नहीं था सो लिफाफा लेकर नीचे उतर आया ।
नीचे आकर जब मैं कोषागार के काउंटर पर पहुंचा और वहां मौजूद साहब को स्टैंप पेपर देकर कहा कि मेरा रिफंड दे दीजिए । उन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैंने कोई जुर्म कर दिया है । उन्होंने कहा कि आपके रिफंड का चेक बनेगा । और चेक बनने के लिए आपको बैंक से अपने दस्तखत को प्रमाणित करवा कर लाना पड़ेगा । मैं झल्लाया और कहा कि अगर आप अकाउंट पेयी चेक बना रहे हैं तो दस्तखत को प्रमाणित करवाने की क्या जरूरत है । बाबू बहस करने के मूड में नहीं था । उन्होंने मुझे सहायक कोषाधिकारी के पास भेज दिया । वहां पहुंचा तो सफारी शूट में एक बुजुर्ग शख्स बैठे थे । मैंने उनसे अपनी व्यथा सुनाई और अनुरोध किया कि रिफंड का चेक बनवा दें । उन्होंने बड़े रौब से और अहसान जतानेवाले अंदाज में कहा कि कि बैंक से प्रमाणित करवा कर ला दीजिए तो दो एक दिन में चेक बनवा दूंगा । अब तक मेरा धैर्य मेरा साथ छोड़ने लगा था । मैंने सहायक कोषाधिकारी महोदय से पूछा कि किस नियम के तहत वो ऐसा कर रहे हैं, मुझे वो नियम दिखाएं । मेरे इतना पूछते ही वो भड़क गए । कहा पंद्रह साल पहले का शासनादेश है मैं कहां से लाउं । बहस होते होते गर्मागर्मी हो गई । मैंने कहा कि मैं आठ चक्कर लगा चुका हूं लेकिन अभी तक रिफंड नहीं मिला है । लिफाफे की बात भी उन्हें बताई । उनका तर्क था कि उनके विभाग में तो मैं पहली बार आया हूं, इसलिए मेरी नाराजगी नाजायज है । वो सरकारी नियमों का हवाला देकर बैंक से दस्तखत प्रमाणित करवा कर जमा करवाने पर अड़े रहे । इसी बहस के दौरान मैंने उनसे कहा कि आप जैसे लोगों की वजह से ही अन्ना हजारे को अनशन करना पड़ता है । इतना सुनते ही वो ऐसे भड़के जैसे सांड को लाल कपड़ा दिखा दिया हो । अन्ना के नाम पर ही वो अड़ गए, उनकी इच्छा थी कि मैं अन्ना वाली बात वापस लूं । लेकिन मैं उसपर कायम रहा । लाख बहस करने के बाद भी अधिकारी महोदय नहीं माने । मुझे दो चक्कर और लगाने पड़े । तब जाकर मुझे रिफंड का चेक मिला । मेरे घर से कोषागार कार्यालय की दूरी बारह किलोमीटर है । इस चक्कर में मैं बुरी तरह से खिन्न हो चुका था । लेकिन इस बात की खुशी थी कि मुझे मेरे प्रश्न का जवाब मिल चुका था कि अन्ना हजारे को समर्थन क्यों मिला और हर तबके के लोग उनके साथ क्यों जुडे़ । अन्ना का विरोध करनेवालों को ना तो ये वजह समझ आएगी और ना ही जनता का मिजाज ।

Saturday, October 15, 2011

संस्मरणों से बनता इतिहास

जब भगत सिंह औऱ उनके साथियों को फांसी दी गई तो महात्मा गांधी ने कहा था- भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दे दी गई और वो शहीद हो गए । उनकी मौत कई लोगों के लिए वयक्तिगत क्षति है । मैं भी इन तीन नौजवानों को श्रद्धांजलि देता हूं । लेकिन मैं देश के युवाओं को चेतावनी भी देना चाहता हूं कि वो उनके पदचिन्हों पर न चलें । हमें अपनी उर्जा, त्याग करने का जज्बा, अपनी मेहनत और अदम्य साहस को भगत सिंह और उनके साथियों की तरह इस्तेमाल नहीं करना है । हमें खून खराबा से आजादी नहीं मिल सकती है । - यह बात सर्वविदित है कि गांधी जी न केवल अहिंसा की वकालत करते थे बल्कि अहिंसक तरीके से काम करने में यकीन भी रखते थे । लेकिन कई ऐसे अवसर भी आए जब गांधी जी ने भी हिंसा का सहारा लिया और उसकी वकालत भी की । बहुत ही दिलचस्प वाकया है । 1895 में उनके डरबन के घर पर उनके दोस्त शेख महताब ने एक वेश्या को बुला लिया । गांधी को पता चला तो वो भड़क गए । ना केवल जबरदस्ती कमरे का दरवाजा खुलवाया बल्कि महताब की बांह मरोड़कर उन्हें घर से निकल जाने का हुक्म भी दिया । मेहताब के मना करने पर पुलिस बुलाने की धमकी भी दी । उसी तरह 1898 में जब बा से विवाद हुआ, बहस बढ़ गई और कस्तूरबा ने जवाब दे दिया तो गांधी उन्हें लगभग घसीटते हुए घर के गेट तक ले गए और धकेलते हुए वहां से निकल जाने का फरमान सुना दिया । तीसरा वाकया है जोहानिसबर्ग का जहां उनकी सेक्रेटरी सेलसिन ने उनके कमरे में सिगरेट सुलगा ली तो गांधी बिफर गए और उसको एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिया । इस तरह के कई उदाहरण मौजूद हैं जहां गांधी ने हिंसा का सहारा लिया । लेकिन इसके विपरीत उस तरह के भी अनकों उदाहरण मौजूद हैं जहां गांधी ने पिटने और घोर अपमानित होने के बावजूद बल प्रयोग नहीं किया । ये मोहनदास के वयक्तित्व के दिलचस्प पहलू हैं । गांधी ने क्यों ऐसा किया और फिर बाद में किस तरह से उन्होंने अपने को बदल लिया इस बात को और उनके उनके जटिल और बहुआयामी वयक्तित्व को परखा है उनके ही पौत्र गोपाल कृष्ण गांधी ने अपनी नई किताब में । आधुनिक भारत के इतिहास में या यों कहें कि बीसवीं शताब्दी के विश्व इतिहास में महात्मा गांधी एक ऐसी शख्सियत है जिसके व्यक्तित्व की गुत्थी सुलझाना विद्वानों के लिए एक बड़ी चुनौती है । महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के इतने आयाम हैं कि एक को पकड़ो तो दूसरा छूट जाता है । गांधी विश्व के इकलौते ऐसे शख्स हैं जिनकी मृत्यु के तिरसठ साल बाद भी उनपर और उनके विचारों और लेखन पर लगातार शोध और लेखन हो रहा है । खुद गांधी के परिवार के सदस्यों ने उनपर कई किताबें लिखी है ।
समीक्ष्य पुस्तक ऑफ अ सर्टेन एज ट्वेंटी लाइफ स्केचेज - गोपाल कृष्ण गांधी की नई किताब है । इस किताब में आधुनिक बारत की बीस हस्तियों के जीवन पर गोपाल कृष्ण गांधी ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर टिप्पणी की है । ये बीस लेखनुमा टिप्पणी समय समय पर लिखे गए हैं । इस किताब की भूमिका में लेखक ने स्वीकार किया है कि उनके ये लेख 1981 से 2001 के बीच लिखे गए हैं । अभी कुछ दिनों पहले ही इतिहासकार और स्तंभकार रामचंद्र गुहा की भी एक किताब-मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया प्रकाशिकत हुई थी । गुहा ने अपनी किताब में उन्नीस लोगों पर लिखा था । रामचंद्र गुहा के मुताबिक उन्होंने उन महिला और पुरुष नेता या सामाजिक कार्यकर्ता या समाज सुधारक को अपनी किताब में जगह दी जिन्होंने स्वतंत्रतापूर्व और स्वातंत्रोत्तर भारत को अपने लेखन और भाषण से गहरे तक प्रभावित किया । लेखक के मुताबिक ये उन्नीस भारतीय लोग सिर्फ राजनेता ही नहीं थे बल्कि उन्होंने अपने लेखन से भी समाज और देश को एक नई दिशा दी । लेकिन गोपाल कृष्ण के चयन का आधार अलहदा है, सैली भी जुदा और ज्यादा रोचक ।
गोपाल कृष्ण गांधी के संस्मरणों की इस किताब की विशेषता यह है कि इसमें आजाद भारत के प्रमुख हस्तियों के बारे में कुछ बेहद ही दिलचस्प और अज्ञात तथ्य सामने आते हैं । इस किताब में गांधी के बाद सबसे दिलचस्प संस्मरण या कहें कि जीवनीचित्र जयप्रकाश नारायण का है । जयप्रकाश नारायण को गांधी जी जमाई राजा मानते थे क्योंकि उच्च शिक्षा के लिए जयप्रकाश के अमेरिका चले जाने के बाद प्रभावती जी गांधी के साथ वर्धा में ही रहने लगी थी और बा और बापू दोनों उन्हें पुत्रीवत स्नेह देते थे । जयप्रकाश नारायण जब सात साल के बाद भारत आए तो अपनी पत्नी और गांधी से मिलने वर्धा गए । वहीं उनकी मुलाकात जवाहरलाल नेहरू से भी हुई । पहली मुलाकात में गांधी ने जयप्रकाश से देश में चल रहे आजादी के आंदोलन के बारे में कोई बात नहीं कि बल्किन उन्हें ब्रह्मचर्य पर उपदेश दिया । बताते हैं कि गांधी जी ने प्रभावती जी के कहने पर ही ऐसा किया क्योंकि प्रभावती जी शादी तो कायम रखना चाहती थी लेकिन ब्रह्मचर्य के व्रत के साथ । जयप्रकाश नरायण ने अपनी पत्नी की इस इच्छा का आजीवन सम्मान किया । तभी तो गांधी जी ने एक बार लिखा- मैं जयप्रकाश की पूजा करता हूं । गांधी जी की ये राय 25 जून 1946 के दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित भी हुई । गांधी से जयप्रकाश का मतभेद भी था, गांधी जयप्रकाश के वयक्तित्व में एक प्रकार की अधीरता भी देखते थे लेकिन बावजूद इसके वो कहते थे कि जयप्रकाश एक फकीर हैं जो अपने सपनों में खोए रहते हैं । मोहनदास करमचंद गांधी के बड़े बेटे हरीलाल पर भी गोपाल कृष्ण का आकलन कुछ ज्ञात और अज्ञात तथ्यों के साथ सामने आता है । हरीलाल गांधी न केवल अपने पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष कर रहे थे बल्कि उनके विकल्प के तौर पर भी उभर रहे थे और दक्षिण अफ्रीका में लोग उन्हें छोटे गांधी भी कहने लगे थे । लेकिन बाद में पिता पुत्र के बीच मतभेद गहरा गए। गांधी का अपने बेटे की जगह एक पारसी युवक सोराबजी को बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए भेजने का फैसला हरीलाल को चुभ गया । यह घाव इतना गहरा हुआ कि उसने बापू समते सबकुछ त्याग दिया । थोड़े समय के लिए इस्लाम भी स्वीकार कर लिया । यह तो ज्ञात तथ्य है और कई विद्वानों ने इसपर लिखा है । कुछ दिनों पहले मैंने दिनकर जोशी की किताब में महात्मा बनाम गांधी में इसपर विस्तार से पढ़ा था । लेकिन समीक्ष्य पुस्तक में हरीलाल के भाई देवदास का हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा संपादकीय भी है । देवदास ,गांधी जी के पुत्र थे और बाद में हिदुस्तान टाइम्स के संपादक भी रहे ।
इन तीन के अलावा गोपालकृष्ण गांधी ने और सत्रह लोगों पर लिखा है जिनमें खान अब्दुल गफ्फार खान, हरीलाल गांधी, प्यारेलाल, ज्योति बसु. पुपुल जयकर, रमलादेवी चट्टोपाध्याय, सुबुल्क्ष्मी,दलाई लामा, सिरिमाओ भंडारनायके, दलाई लामा ,आर वेंकटरमण और के आर नाराय़नण शामिल हैं । अपनी इस किताब के अंत में अपने बचपन के दिनों को भी गोपालकृष्ण गांधी ने शिद्दत के साथ याद किया है । सेंट स्टीफन से अंग्रेजी साहित्य में एम गोपाल कृष्ण गांधी की भाषा में एक प्रवाह है जो इन संस्मरणों को एक नई उंचाई देता है और महानुभावों के वयक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं को उद्घाटित भी करता है । अंग्रेजी में संस्मरण साहित्य की बेहद समृद्ध परंपरा है और मेरा मानना है कि गोपाल कृष्ण गांधी की ये किताब उसे और समृद्ध करेगी ।

Wednesday, September 28, 2011

वरिष्ठ संपादक की लचर किताब

लंबे समय तक कई अंग्रेजी अखबारों के संपादक रहे एस निहाल सिंह की संस्मरणात्मक आत्मकथा- इंक इन माई वेन- अ लाइफ इन जर्नलिज्म। उसमें देश पर इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए इमरजेंसी पर लिखते हुए निहाल सिंह ने जयप्रकाश नारायण को रिलक्टेंट रिवोल्यूशनरी (अनिच्छुक क्रांतिकारी)कहा है । एक लेखक को शब्दों के चयन में सावधान रहना चाहिए और अगर वो दो दशक से ज्यादा समय तक संपादक रहा है तो यह अपेक्षा और बढ़ जाती है । कोई भी क्रांतिकारी अनिच्छुक नहीं हो सकता । क्रांति का पथ तो वो खुद चुनता है तो फिर अनिच्छा कहां से । आगे निहाल सिंह लिखते हैं कि अगर इंदिरा गांधी बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री को हटाने और बिहार विधानसभा को भंग करने की मांग मान लेती तो जेपी संतुष्ट हो जाते । मुझे लगता है कि निहाल सिंह ने जयप्रकाश नारायण के आंदोलन और उनके विजन को बेहद हल्के ढंग से लिया है और दिल्ली में बैठकर अपनी राय बनाई है । जयप्रकाश नारायण को समझने की भूल अक्सर लोग कर जाते हैं । निहाल सिंह भी उसी दोष के शिकार हो गए हैं । ना तो उन्होंने संपूर्ण क्रांति आंदोन को समझा और ना ही जयप्रकाश के योगदान को । किस तरह से गुजरात के विद्यार्थियों ने उन्हें अहमदाबाद बुलाया था और उनसे मार्गदर्शन की अपील की थी ये सर्वविदित तथ्य है । निहाल सिंह की राय उसी तरह की है कि बगैर दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना हजारे के अनशन के मूड को महसूस किए लोग अन्ना पर टिप्पणी कर रहे हैं । जयप्रकाश नारायण के बारे में निहाल सिंह की चाहे जो राय हो लेकिन गांधी ने कहा था कि - जयप्रकाश एक फकीर हैं जो अपने सपनों में खोए रहते हैं । इसके अलावा 25 जून 1946 को लिखा कि मैं जयप्रकाश की पूजा करता हूं । इसके बाद कुछ कहने को शेष रहता नहीं है ।

लेखक मोरार जी देसाई से काफी प्रभावित लगते हैं । जब भी उनका कोई प्रसंग उठता है तो लेखक यह बताना नहीं भूलते हैं कि मोरार जी भाई बेहद शुद्धतावादी थे । जब वो प्रधानमंत्री थे तो उस वक्त का एक दिलचस्प प्रसंग है - उस वक्त के विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री के सामने ये प्रस्ताव रखा कि विजयलक्ष्मी पंडित की बेटी और लेखिका नयनतारा सहगल को रोम में राजदूत बना दिया जाए । लेकिन मोरार जी भाई ने कहा कि राजदूत बनने से पहले नयनतारा को मंगत राय से शादी करनी होगी । मंगत राय और नयनतारा उस वक्त लिव इन रिलेशनशिप में थे । नयनतारा ने यह बात मान ली लेकिन दुर्भाग्य से मोरार जी भाई की सरकार ही गिर गई और वो राजदूत बन ना सकी । लेकिन 27 अगस्त 1978 को रविवार के अंक में संतोष भारतीय का एक लेख छपा था जिसमें लिखा गया था- मोरार जी भाई का इतिहास एक अक्खड़ वयक्तिवादी और परंपरावादी शुद्धता के आवरण को ओढे हुए एक जिद्दी आदमी का इतिहास रहा है । संतोष भारतीय ने उस लेख में तर्कों के आधार पर अपनी बात साबित भी की है जबकि निहाल सिंह टिप्पणी करके निकल जाते हैं । शायद निहाल सिंह को यह मालूम हो कि जब जयप्रकाश नारायण देश के अग्रिम पंक्ति के नेताओं में शुमार हो चुके थे उस वक्त मोरार जी भाई अंग्रेजी सरकार में डिप्टी कलेक्टर थे । मोरार जी देसाई से ऑबसेस्ड लगते हैं । क्यों इस बात के संकेत भी इस किताब में हैं लेकिन वो अवांतर प्रसंग है ।

एस निहाल सिंह- पत्रकारिता का एक ऐसा प्रतिष्ठत नाम, एक ऐसा बड़ा संपादक जिसने लंबे समय तक देस विदेश में पत्रकारिता की । कईयों का कहना है कि उनके लिखे को पढ़कर उन्होंने पत्रकारिता सीखी । अपने छात्र जीवन के दौरान मैंने भी द स्टेट्समैन में निहाल सिंह के कई लेख पढ़े थे । स्कूल में हमें यह बताया जाता था कि अगर अंग्रेजी अच्छी करनी है तो स्टेट्समैन के लेख पढ़ा करो । उस जमाने से एस निहाल सिंह और उनके लेखन को लेकर मन में एक इज्जत थी । इमरजेंसी के दौरान उनके और उनके अखबार के स्टैंड के बारे में पढ़कर ये इज्जत और बढ़ गई थी । उनका कुछ भी लिखा हुलसकर पढता था । मैंने निहाल सिंह की किताब इंक इन माई वेन- अ लाइफ इन जर्नलिज्म इस उम्मीद से पढ़नी शुरू की कि उन्होंने आजादी के बाद के देश की राजनीति को परखा होगा और कुछ नए तरीके से उस कालखंड को व्याख्यायित भी किया होगा । पाठकों की भी यही अपेक्षा रही होगी कि निहाल सिंह देश की राजनीति के अपने कुछ ऐसे अनुभवों को लिखेंगे जो अबतक सामने नहीं आए थे । लेकिन पाठकों को इस किताब से घोर निराशा होगी, मुझे भी हुई ।

निहाल सिंह ने अपनी इस किताब को संस्मरणात्मक आत्मकथा बना दिया है जिस वजह से इसका कोई निश्चित स्वरूप नहीं बन पाया है । इस किताब के बहुत से पन्ने उन्होंने अपने, अपने परिवार और अपने परिवेश के बारे में निहायत गैरजरूरी विवरणों से भर दिया है । अब पाठकों को इन बातों से क्या लेना देना कि आपका पहला सेक्स एनकाउंटर किससे हुआ और उसने आपके अंगों की तुलना किन प्रतीकों से की । पाठक की इस बात में क्यों रुचि होगी लेखक बचपन में इतने खूबसूरत थे कि स्कूल के बाहर आइसक्रीम का ठेला लगानेवाला उनको गुलाब (द रोज) कहकर पुकारता था । इस तरह की कई बातें इस किताब में भरी पड़ी है। तकरीबन तीन सौ पन्नों की इस किताब में लगभग डेढ सौ पन्नों में निहाल सिंह के निहायत ही निजी और पारिवारिक प्रसंग हैं । जिसमें उनकी अमेरिका यात्रा, मास्को प्रवास के संस्मरण, खलीज टाइम्स के दौरान उनका रहना सहना, दिल्ली की पार्टियों में शराब और शबाब के किस्से आदि है । किताब के प्राक्कथन में निहाल सिंह लिखते हैं कि कोई भी व्यक्ति जब अपने बारे में लिखता है तो उसे यह विश्वास होता है कि उसका लेखन उसके परिचितों और मित्रों से अलग एक बृहत्तर समुदाय के लिए रुचिकर होगा । इसके अलावा आत्मकथा लेखन में एक और बात होती है कि लेखक जीवन और मृत्यु के अपने दर्शन के बारे में भी अपना मत प्रकट करता है । हो सकता है कि निहाल सिंह ये सोच रहे हों कि उनकी इस आत्मकथा में वृहत्तर पाठक वर्ग की रुचि होगी लेकिन उनकी इस सोच को अगर वस्तुनिष्ठता की कसौटी पर कसेंगे तो कम से कम आधी सोच गलत साबित होती है ।

लेकिन ऐसा नहीं है कि निहाल सिंह की इस आत्मकथा को पूरे तौर पर खारिज कर दिया जाए । जब भी निहाल सिंह अपनी व्यक्तिगत चीजें छोड़कर राजनीति और राजनीतिक घटनाक्रम पर आते हैं तो किताब पटरी पर लौटती नजर आती है । इमरजेंसी की घटनाओं पर निहाल सिंह ने विस्तार से लगभग एक पूरा अध्याय लिखा है । इस अध्याय में निहाल सिंह ने इंदिरा गांधी के बारे में उनके स्वभाव के बारे में कई जगहों पर बेहद संजीदगी से टिप्पणी की है । इंदिरा गांधी के साथ की अपनी मुलाकात का जिक्र भी किया है । जिक्र तो अतुल्य घोष, एस के पाटिल से लेकर बाबू जगजीवन राम तक का है । लेकिन निहाल सिंह की इस किताब में दो अध्याय अहम हैं - द इमरजेंसी और इंदिरा'ज पॉलिटिकल रिबर्थ । अहम इस वजह से कि इसमें लेखक के अपने कुछ विचार सामने आते हैं । इसके अलावा जो अन्य अध्याय है उसमें सामान्य बातें हैं । दूसरी जो कमजोरी इस किताब की है वो कि इसके लेखों में तारतम्यता का अभाव है । लंबे समय तक संपादक रहे निहाल सिंह की किताब को संपादन की सख्त आवश्यकता थी क्योंकि कई जगह घटनाएं गड्ड-मड्ड हैं, आगे-पीछे आती जाती है, जो पाठकों को कंफ्यूज करती है ।

Sunday, September 11, 2011

राजेन्द्र यादव की 'पाखी'

मैं जब स्तंभ लिखने बैठा तो एक बार फिर से राजेन्द्र यादव मेरे ध्यान में आए । लेकिन मैं अभी दो पहफ्ते पहले ही यादव जी के इर्द गिर्द दो लेख लिख चुका हूं । इस वजह से एक बार फिर से उनपर लिखते हुए सोचने को मजबूर हूं कि लिखूं या नहीं लिखूं । दरअसल पहला लेख तो हंस पत्रिका के पच्चीस वर्ष पूरे होने और छब्बीसवें वर्ष में प्रवेश करने पर था और दूसरा लेख दिल्ली में आयोजित हंस के सालाना गोष्ठी पर । लेकिन दोनों के ही केंद्र में राजेन्द्र यादव थे । साहित्य की दुनिया में हर वर्ष का जुलाई और अगस्त का अंतिम सप्ताह राजेन्द्र यादव के नाम ही होता है । जुलाई के अंत में हंस की सालाना गोष्ठी और अगस्त के अंत में राजेन्द्र यादव का जन्मदिन समारोह । इस साल भी हर वर्ष की भांति राजेन्द्र यादव का जन्मदिन दिल्ली में कांग्रेस के युवा सांसद संजय निरुपम के घर के लॉन में मनाया गया । पिछले वर्ष की तुलना में इस बार का आयोजन भव्य था । लोगों की उपस्थिति भी ज्यादा । रसरंजन करते टुन्न होते लोग भी ज्यादा । लेकिन इस बार मैं यादव जी के जन्मदिन समारोह पर नहीं लिख रहा हूं । जिक्र इस वजह से कि जिस पत्रिका पर लिखने जा रहा हूं वो पत्रिका मुझे यादव जी के जन्मदिन समारोह में मिली । पत्रिका का नाम है पाखी जिसके संपादक हैं- प्रेम भारद्वाज । प्रेम भारद्वाज जी से मेरी फोन पर कई बार बात हुई थी लेकिन कभी आमने सामने की मुलाकात नहीं थी । मुझे पता नहीं उन्होंने कैसे पहचाना और बेहद ही गर्मजोशी से मुझसे मिले । मिलने के बाद उन्होंने मुझे पाखी का राजेन्द्र यादव पर केंद्रित भारी भरकम अंक दिया जो कि एक दिन पहले ही लोकार्पित हुआ था । वहां तो कवर पर यादव जी की भव्य तस्वीर ही देख पाया । पाखी के इस अंक का विज्ञापन कई अंकों से संभावित लेखकों के नाम के साथ छप रहा था। इसके अलावा मैत्रेयी जी,भारत भार्दवाज जी से भी कई बार इस प्रस्तावित अंक पर बात हुई थी । यादव जी का वयक्तित्व इतना तिलिस्मी है कि वो मुझे बार बार खींचता है और जब भी उनके बारे में कुछ पढ़ता हूं या उनके आस पास के लोगों से बात होती है तो कुछ न कुछ नया मिल ही जाता है चाहे वो लोगों के अनुभव हो या फिर यादव जी के दिलचस्प कारनामे ।

जन्मदिन की पार्टी से जब घर लौटा तो पाखी को पढ़ना शुरू किया । कई लेख पुराने थे लेकिन नए लेखों की संख्या ज्यादा है । सबसे पहले मैंने संपादकीय पढ़ा। संपादकीय पहले पढ़ने का फायदा यह होता है कि अंक का अंदाजा लग जाता है । पाखी के इस अंक का संपादकीय अद्भुत है । नए तरीके से प्रेम भारद्वाज ने राजेन्द्र यादव के वयक्तित्व को राजकपूर से जोड़कर अनोखे तरीके से व्याख्यायित किया है । प्रेम भारद्वाज लिखते हैं- राज कपूर की पहली निर्देशित फिल्म आग की शुरुआत 6 जुलाई 1947 को होती है । राजेन्द्र यादव की पहली कहानी प्रतिहिंसा भी इसी साल कर्मयोगी में प्रकाशित होती है । आग दोनों में है- रचनात्मकता की । आग का नायक जीवन में कुछ नया कर गुजरना चाहता था । जलती हुई महात्वाकांक्षा उसका ईंधन बनी । क्या यही सच राजेन्द्र यादव का नहीं है । राजू को स्त्री की देह (अनावृत्त स्त्री) पसंद है जिसे चलती भाषा में नंगापन कहा जाता है । ......नंगापन को वह रचनाओं में दिखाता है...थोड़ा ज्यादा उम्र बढ़ने पर स्त्री सौंदर्य के प्रति उसका नजरिया मांसल हो जाता है सत्यम शिवम सुंदरम और राम तेरी गंगा मैली ....हासिल और होना सोना एक दुश्मन साथ ऐसी ही रचनाएं हैं । वह आवारा , छलिया, श्री 420 है । बहुत दिनों बाद नए तरीके से लिखा गया संपादकीय पढ़कर मजा आ गया । प्रेम भारद्वाज को बधाई देने के लिए फोन भी किया लेकिन फोन बंद था । खैर....

आमतौर पर ऐसे विशेषांकों में लेखक की प्रशस्ति करते लेखों को संग्रहित किया जाता है और वह लगभग अभिनंदन ग्रंथ बनकर रह जाता है । लेकिन पाखी का राजेन्द्र यादव पर केंद्रित यह अंक इस दोष का शिकार होने से बच गया । इसमें कई लेख ऐसे हैं जो यादव जी के वयक्तित्व की तो धज्जियां उड़ाते ही हैं उनके लेखन को भी कसौटी पर कसते हैं । पुराने लेखों की चर्चा मैं यहां नहीं करूंगा । लेकिन चाहे वो निर्मला जैन का लेख हो या फिर यादव जी के भाई भूपेन्द्र सिंह यादव या फिर उनकी बेटी रचना के लेख हों सबमें एक ही स्वर है कि यादव जी पारिवारिक वयक्ति नहीं हैं और उन्होंने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह नहीं किया । ये बातें जब बेटी और भाई कहें तो मान लेना चाहिए ।

मैत्रेयी पुष्पा को अबतक राजेन्द्र यादव की पसंदीदा लेखिका माना जाता था । दिल्ली के साहित्यिक हलके में यह बात बार-बार उठती रहती थी कि मैत्रेयी पुष्पा अब यादव जी के खेमे में नहीं रही और उन्होंने अशोक वाजपेयी के कैंप में अपनी जगह बना ली है । अफवाहों को नित नए पंख लगते रहे । लेकिन पाखी के इस अंक में मैत्रेयी पुष्पा ने साफ साफ ऐलान कर दिया है कि उन्हें अब राजेन्द्र यादव से कुछ लेना-देना नहीं । छिनाल विवाद के बाद जिस तरह से मैत्रेयी जी ने विभूति नारायण राय के खिलाफ मोर्चा खोला था उसमें यादव जी के साथ नहीं आने से आहत मैत्रेयी कहती हैं कि राजेन्द्र जी भरोसे को तोड़ा है । विभूति नारायण राय के खिलाफ उस वक्त मैत्रेयी ने मोर्चा खोला हुआ था लेकि साल भर बीतते बीतते हालत यह हो गई कि उनके बड़े से बड़े सिपहसालार ने राय का दामन थाम लिया । विरोध तो हवा में गुम ही गया कुछ तो राय साहब के प्रशंसक तक बन बैठे हैं । सुधा अरोड़ा का साक्षात्कार सामान्य है । दामोदर दत्त दीक्षित और भारत यायावर ने यादव जी को जरा ज्यादा ही कस दिया है । साहित्यिक पत्रकारिता के पच्चीस वर्ष पर प्रेम पाल शर्मा का छोटा लेकिन गंभीर लेख है । प्रेमपाल शर्मा चाहें तो उस लेख को और विस्तार दे सकते हैं, अभी उसमें काफी गुंजाइश है । इस अंक का जो सबसे कमजोर पक्ष है वो है संस्मरण । सभी में लगभग एक जैसी बात हैं और लोग अपने बारे में ज्यादा यादव जी के बारे में कम लिख रहे हैं । भारत भारद्वाज के संस्मरण में मृत्यु को लेकर लेखक और यादव जी का संवाद दिलचस्प है - भारत भारद्वाज पूछते हैं आप नहीं रहेंगे तो जनसत्ता में क्या शीर्षक छपेगा । पहले तुम बताओ । मैंने कहा खलनायक नहीं रहे । उन्होंने प्रतिवाद किया अच्छा और उपयुक्त शीर्षक रहेगा अब खलनायक नहीं रहे । दो रचनाकार अपनी मृत्यु को लेकर इतने खिलंदड़े अंदाज में बात कर रहे हों और मौत के बाद अखबार का शीर्ष तय कर रहे हों, कमाल है । पाखी के इस अंक में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि पिछले बीस सालों से हंस में प्रकाशित लोकप्रिय स्तंभ- समकालीन सृजन संदर्भ अब बंद हो गया है । अब लोग हंस को आगे से खोला करेंगे (काशीनाथ जी समेत कई लेखकों ने मुझसे वयक्तिगत बातचीत में कहा था कि वो हंस को पीछे से खोलते हैं )

पाखी का राजेन्द्र यादव पर निकला तीन सवा तीन सौ पृष्ठों का यह अंक हिंदी के पाठकों के लिए एक थाती है और उसे संभाल कर रखना चाहिए । हिंदी के नए पाठकों के लिए ये एक ऐसे वयक्ति के वयक्तित्व की परतें उघाड़ता है जो नए से नए लोगों को भी लिखने और पढ़ने के लिए लगातार प्रेरित करता है । इस अंके के लिए संपादक- प्रेम भारद्वाज- की मेहनत की जितनी भी सराहना की जाए वो कम है ।

Sunday, September 4, 2011

लोक से दूर लेखक

बचपन से सुनता था कि उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद कहा करते थे कि साहित्य समाज का दर्पण होता है । एक और बात सुनता था कि साहित्य राजनीति के पीछे नहीं बल्कि समाज के आगे चलनेवाली मशाल है । मैं इसे सुनकर यह सोचता था कि अगर साहित्य मशाल हैं तो साहित्यकार उस मशाल की लौ को लगातार जलाए रखने का काम करते हैं । भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का दिल्ली में ऐतिहासिक अनशन खत्म हो गया है । अब तमाम तरीके से लोग उस जन उभार और आंदोलन को मिले व्यापक जनसमर्थन का आकलन कर रहे हैं । यह वो वक्त था जब साहित्य और साहित्यकारों के सामने यह चुनौती थी कि वो साबित करे कि राजनीति के पीछे चलनेवाली मशाल नहीं है । लेकिन अन्ना के आंदोलन के दौरान कमोबेश साहित्यकारों का जो ठंडा या विरोध का रुख रहा उससे घनघोर निराशा हुई । हंस के संपादक और दलित विमर्श के पुरोधा राजेन्द्र यादव को को अन्ना के आंदोलन में आ रहे लोग भीड़ और उनका समर्थन एक उन्माद नजर आता है । उस भीड़ और उन्माद को दिखाने-छापने के लिए वो मीडिया को कोसते नजर आते हैं । उनका मानना है कि अन्ना के आंदोलन के पीछे व्यवस्था परिवर्तन का विचार कम और एक समांतर सत्ता कायम करने की आकांक्षा ज्यादा है । पता नहीं राजेन्द्र यादव को इसमें समानंतर सत्ता खड़ा करने के संकेत कहां से मिल रहे हैं, जबकि अन्ना हजारे और उनके लोग मंच से कई कई बार ऐलान कर चुके हैं कि वो चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं । अन्ना हजारे ने तो कई बार अपने साक्षात्कार में इस बात को दोहराया है कि अगर वो चुनाव लड़ते हैं तो उनकी जमानत जब्त हो जाएगी । टीम अन्ना भी हर बार व्यवस्था परिवर्तन की बात करती है । दरअसल ये जो सोच है वो अपने दायरे से बाहर न निकलने की जिद पाले बैठे है । राजेन्द्र यादव तो दूसरी शिकायत है कि अन्ना हजारे का जो आंदोलन है वो लक्ष्यविहीन है और जिस भ्रष्टाचार खत्म करने की बात की जा रही है वो एक अमूर्त मुद्दा है । उनका मानना है कि जिस तरह से आजादी का लड़ाई में हम अंग्रेजों की सत्ता के खिलाफ लड़े थे या फिर जयप्रकाश आंदोलन के दौरान इंदिरा गांधी की निरंकुश सत्ता के खिलाफ पूरा देश उठ खड़ा हुआ था वैसा कोई साफ लक्ष्य अन्ना के सामने नहीं है । भ्रष्टाचार के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी जा रही है वह अदृश्य है । करप्शन व्यापक रूप से समाज और नौकरशाही की रग रग में व्याप्त है, उसे खत्म करना आसान नहीं है । एक तरफ तो राजेन्द्र यादव कहते हैं कि ये समांतर सत्ता कायम करने की आंकांक्षा है तो दूसरी तरफ उन्हें कोई मूर्त लक्ष्य दिखाई नहीं देता है । राजेन्द्र यादव को अन्ना का आंदोलन बड़ा तो लगता है लेकिन इसके अलावा उन्हें सबसे आधारभूत आंदोलन नक्सलवाद का लगता है । उनका मानना है कि नक्सलवादी आंदोलन सारे सरकारी और अमानवीय दमन के बावजूद व्यवस्था परिवर्तन के लिए सैकड़ों लोगों को बलिदान के लिए प्रेरित कर रहा है । यादव जी को नक्सलवादी आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लगता है जबकि अन्ना का आंदोलन समांतर सत्ता कायम करने की आकांक्षा । क्या यादव जी यह भूल गए कि भारतीय सत्ता को सशस्त्र विद्रोह में उखाड़ फेंकने के सिद्धांत पर ही नक्सवाद का जन्म हुआ लगभग पांच दशक बाद भी नक्सलवादी उसी सशस्त्र विद्रोह के सिद्धांत के लिए प्रतिबद्ध हैं और उनका अंतिम लक्ष्य दिल्ली की सत्ता पर काबिज होना है । जबकि अन्ना का आंदोलन ना तो कभी सत्ता परिवर्तन की बात करते है और न ही हिंसा की ।

दरअसल राजेन्द्र यादव भी उसी तरह की भाषा बोल रहे हैं जिस तरह की माओवादियों की समर्थक लेखिका अरुंधति राय बोल रही हैं । अरुंधति राय को भी जनलोकपाल बिल में समानंतर शासन व्यवस्था की उपस्थिति दिखाई देती है । अन्ना के आंदोलन में पहले भारत माता की तस्वीर लगाने और उसके बाद गांधी की तस्वीर लगाने और वंदे मातरम गाने पर भी ऐतराज है । ऐतराज तो अन्ना के मंच पर तमाम मनुवादी शक्तियांयों के इकट्ठा होने पर भी है । लेकिन अन्ना के साथ काम कर रहे स्वामी अग्वनवेश और प्रशांत भूषण तो अरुंधति के भी सहयोगी हैं । अरुंधति को इस बात पर आपत्ति थी कि अनशन के बाद अन्ना एक निजी अस्पताल में क्यों गए । इन सब चीजों को अरुंधति एक प्रतीक के तौर पर देखती हैं और उन्हें यह सब चीजें एक खतरनाक कॉकटेल की तरह नजर आता है । पता नहीं हमारे समाज के बुद्धिजीवी किस दुनिया में जी रहे हैं । अन्ना के समर्थन में उमड़े जनसैलाब में दलितो,अल्पसंख्यकों और आदिवासियों को ढूंढने में लगे हैं । बड़े लक्ष्य को लेकर चल रहे अन्ना हजारे के आंदोलन में जिस तरह से स्वत: स्फूर्त तरीके से लोग शामिल हो रहे हैं वह आंखें खोल देनेवाला है । घरों में संस्कार और आस्था जैसे धार्मिक चैनलों की जगह न्यूज चैनल देखे जा रहे थे, जिन घरों से सुबह-सुबह भक्ति संगीत की आवाज आया करती थी वहां से न्यूज चैनलों के रिपोर्टरों की आवाज या अन्ना की गर्जना सुनाई देती थी। अन्ना के समर्थन में सड़कों पर निकले लोगों के लिए ट्रैफिक खुद ब खुद रुक जाता था और आंदोलनकारियों को रास्ता देता था । ये सब एक ऐसे बदलाव के संकेत थे जिसे पकड़ पाने में राजेन्द्र यादव और अरुंधति जैसे लोग नाकाम रहे । अन्ना हजारे के आंदोलन से तत्काल कोई नतीजा न भी निकले लेकिन इसके दूरगामी परिणाम होंगे जिसको समझने में राजेन्द्र-अरुंधति जैसे महान लेखक चूक गए ।

लेखकों के अलावा हिंदी में काम कर रहे लेखक संगठनों की भी कोई बड़ी भूमिका अन्ना के आंदोलन के दौरान देखने को नहीं मिली । अगर किसी लेखक संगठन ने चुपके से कोई प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी हो तो वह ज्ञात नहीं है । यह एक ऐतिहासिक मौका था जिसमें शामिल होकर हिंदी के मृतप्राय लेखक संगठन अपने अंदर नई जान फूंक सकते थे । लेकिन विचारधारा के बाड़े से बाहर न निकल पाने की जिद या मूर्खता उन्हें ऐसा करने से रोक रही है । समय को न पहचान पाने वाले इन लेखक संगठनों की निष्क्रियता पर अफसोस होता है ।प्रगतिशील लेखक संघ अपने शुरुआती सदस्य प्रेमचंद की बात को भी भुला चुका है । साहित्य समाज का दर्पण तो है पर आज के साहित्यकार उस दर्पण से मुंह चुराते नजर आ रहे हैं । जब लेखकों के सामने यह साबित करने की चुनौती थी कि साहित्य राजनीति का पिछलग्गू नहीं है तो वो खामोश रहकर इस चुनौती से मुंह चुरा रहे हैं । इस खामोशी से लेखकों और लेखक संगठनों ने एक ऐतिहासिक अवसर गंवा दिया है । ऐसा नहीं है कि हिंदी के सारे साहित्यकार अन्ना के आंदोलन के विरोध में हैं कई युवा और उत्साही लेखकों के अलावा नामवर सिंह और असगर वजाहत जैसे वरिष्ठ लेखकों को अन्ना का आंदोलन अहम लगता है । नामवर सिंह कहते हैं कि अन्ना का आंदोलन समाज को एक नई दिशा दे सकता है,यह सदिच्छा से किया गया आंदोलन है और इसका अच्छा परिणाम होगा । वहीं असगर वजाहत को भी लगता है कि अन्ना का आंदोलन एक नया रास्ता खोल रहा है । नामवर और असगर जैसे और कुछ लेखक हो सकते हैं, होंगे भी लेकिन बड़ी संख्या में जन और लोक की बात करनेवाले लेखक जन और लोक की आंकांक्षाओं को पकड़ने में नाकाम रहे ।

Wednesday, August 31, 2011

सपाट बयानी की कविता

बहुत ही दिलचस्प वाकया है । राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तकों की सूची उनके बेवसाइट पर जाकर देख रहा था । कई किताबें पसंद आई । यह सोचकर नाम लिखता गया कि उन पुस्तकों को मंगवाकर पढूंगा और अगर मन बना तो उनपर अपने स्तंभ में या अन्यत्र कुछ लिखूंगा भी । सूची बनाते बनाते एक किताब दिखाई दी- मरजानी, लेखिका वर्तिका नंदा । मैंने अशोक महेश्वरी जी को जो किताबों की सूची भेजी उसमें मरजानी का नाम भी भेज दिया। मेरे पत्र के कुछ दिनों बाद ही झा जी घर पर आकर किताबें दे गए । मैंने किताबें देखनी शुरू की । पलटते-पलटते मरजानी की बारी आई । जैसे ही मैंने किताब खोली तो हैरान रह गया । मरजानी, वर्तिका नंदा का नया कविता संग्रह निकला । अपनी अज्ञानता में मैंने उसे उपन्यास समझ कर मंगवा लिया था । मेरी ज्यादातर रुति उपन्यास या फिर कहानी संग्रह में ही रहती है । खैर हाल के दिनों में जिस तरह से वर्तिका नंदा ने अपने ताबड़तोड़ लेखन से हिंदी में सारा आकाश छेकने की कोशिश की है उसके बाद से ही उनके लेखन को लेकर पाठकों के मन में दिलचस्पी बढ़ी है । मेरे मन में भी । अखबारों में लगातार लेखन करके भी वर्तिका ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है । दो हजार दस में राजकमल प्रकाशन से ही नंदा की किताब टेलीविजन और क्राइम रिपोर्टिंग को मैं उलटपुलट कर देख चुका था, लिखना चाह रहा था लेकिन काहिली की वजह से लिख नहीं पाया । गद्य में मेरी रुचि है लेकिन पद्य में मेरी रुचि जरा कम या यों कहें कि बेहद कम है । मैं यह स्वीकार करता हूं कि मुझे पुराने कवियों जैसे दिनकर, अज्ञेय, निराला, नागार्जुन, आदि को पढ़ने में आनंद आता है । आनंद इस वजह से आता है कि वो कविताएं मेरी समझ में आती है । मुक्तिबोध को कोर्स में होने की वजह से पढ़ा, पहले अंधेरे में बहुत ही दुरूह कविता लगी थी लेकिन बाद में जब उस कविता पर कई आलोचकों की राय पढ़ी तो समझ में आई । लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह की कविता लिखी जा रही है वो उसको मेरी अल्पबुद्धि जरा कम ही समझ पाती है । समझने की बहुत कोशिश की, कई कवियों की कविताओं को पढ़ा भी लेकिन समझ ना पाने की वजह से उनपर लिख नहीं पाया । वर्तिका की इस किताब को पलटते हुए मैंने सोचा कि एक पत्रकार और अब पत्रकारिता के शिक्षक की कविताएं पढ़ लेनी चाहिए । संग्रह को दो बार पढ़ा ।
कवयित्री ने अपनी भूमिकानुमा लेख- कविता से पहले लिखा है –वैसे कविताएं निजी दस्तावेज की तरह होती है । आमतौर पर वो तकिए के नीचे छिपी रहती हैं या अकेलेपन का साथी बनती हैं और जब हवाओं का रुख आसमान की तरफ ले जा रहा होता है, तब भी ये घास की तरह जमीन पर रहकर मजबूत बनी रहती है । कवयित्री ने कविता को भावुकता की जमीन दे दी है – मन के करीब रहनेवाली, साथ साथ चलनेवाली, ओढनी बनी और तकिया भी । कविता को ओढनी बताने का उनका निहितार्थ क्या है इसके साफ संकेत कहीं नहीं मिल पा रहे हैं लेकिन प्रचलित अर्थ में ओढनी लड़कियां और औरतें अपने को ढकने के लिए इस्तेमाल करती है । मुझे ये समझ नहीं आया कि कविता ओढनी कैसे बन सकती है और किस लाज को ढ़कने के काम आ सकती है । कविता में शब्दों का चयन उसे चमका देती है लेकिन अगर वही शब्द अगर जबरदस्ती ठूंसे जाते हैं तो स्पीड ब्रेकर की तरह झटके भी देते हैं । अपनी कविता को लेकर इमोशनल कवयित्री इतने पर ही नहीं रुकती हैं- पाठकों से भी आग्रह करती है कि – इन्हें मैंने नजाकत से रखा था । आप भी इन्हें नजाकत से ही पढ़िएगा । कवयित्री का यह आग्रह उनकी कविताओं में एक जबरदस्त मोह के रूप में लामने आता है – ख्याल ही तो है- में वो कहती है – क्या वो कविता ही थी/ जो उस दिन कपड़े धोते-धोते/साबुन के साथ घुलकर बह निकली थी/एक ख्याल की तरह आई /ख्याल की ही तरह/धूप की आंच के सामने बिछ गई/पर बनी रही नर्म ही/ । यहां भी वर्तिका के लिए कविता नर्म और नाजुक है ।
एक कवयित्री का अपनी कविताओं को लेकर मोह तो जायज है लेकिन पाठक तो कविता को कविता की कसौटी पर कसेंगे ही । वर्तिका नंदा की कविताओं को पढ़ते हुए एक बार फिर से मेरे मन में पुराना सवाल कौंधा - कविता क्या है । जवाब में फिर से कविता के नए प्रतिमान में नामवर सिंह का लिखा याद आया- किसी काव्य कृति का कविता होने के साथ ही नई होना अभीष्ट है । वह नई हो और कविता ना हो, यह स्थिति साहित्य में कभी स्वीकार्य नहीं हो सकती । वर्तिका की कविताएं पढ़ते हुए मुझे कुछ भी नया नहीं लगा, ना तो कविता की भावभूमि और ना ही कथन और ना ही बिंब । इनकी कविताओं में अक्सर घूमफिर कर घर,परिवार और उनका पेशा और परिवेश आता रहता है और कवयित्री, लगता है, उसके ही चारो ओर चक्कर लगाती रहती है । वर्तिका की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे लगा कि अपनी कविताओं में वो कई बार बेहद सपाट हो जाती है और कविता और नारो के बीच का फर्क भी भूल जाती है । उदाहरण के तौर पर अगर हम उसकी कविता –क्यों भेजूं स्कूल को देखें- नहीं भेजनी अपनी बेटी मुझे स्कूल /नहीम बनाना उसे पत्रकार/क्या करेगी वह पत्रकार बनकर/अगर नाम कमा लेगी तो नहीं बन पाएगी पूरी औरत/ । यह एक कवि का अपने पेशे से मोहभंग की अभिवयक्ति है जो उसकी कविताओं में नारे की शक्ल में उपस्थित होता है । नारे भीड़ में जोश तो भर सकते हैं लेकिन जब वो कविता की जमीन पर पहुंचते हैं तो औंधे मुंह गिर जाते हैं । समीक्ष्य संग्रह में यह कई बार घटता है । इसके अलावा मरजानी की अन्य कविताओं में भी जो बिंब उठाए गए हैं वो भी पहली नजर में वास्तविकता को मूर्त करती प्रतीत होती है लेकिन अगर उसपर गंभीरता से विचार किया जाए तो वास्तविकता का अनावश्यक भार उठाते हुए कविताएं हांफती नजर आती है –चाहे वो टीवी एंकर और तुम हो या फिर कसाईगिरी । निष्कर्ष यह कि बिंब के बोझ तले कविता इतनी दब गई है कि वो उठ ही नहीं पाई ।
वर्तिका नंदा की छोटी बड़ी कविताओं को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इन कविताओं में जो भावुकता है या जो वैयक्तिकता है वह संरचना में शिथिलता और काव्यानुभूति की कमजोरी का परिणाम है । इस संग्रह में जिस तरह से तात्कालिक परिवेश की जमीन पर कवयित्री ने सपाटबयानी की है उससे भी उनकी कविताओं की दुर्बलता सामने आती है । घटनाओं को यथार्थपरकता की चाशनी में डुबाकर कविता गढ़ने की जो एक प्रवृत्ति हाल के दिनों में सामने आई हैं, वर्तिका की कविताएं उसका सर्वोत्तम उदाहरण है । वर्तिका नंदा का यह कविता संग्रह एक कमजोर और सपाट कविताओं का संग्रह है जो हिंदी साहित्य में जगत में अगर अननोटिस्ड रह जाए तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा । अंत में एक और चौंकाने वाली बात राजकमल प्रकाशन ने अब अपनी किताबों का मूल्य डॉलर में भी देना शुरू कर दिया है । इस संग्रह का दाम है आठ डॉलर ।
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Saturday, August 13, 2011

मंजिल से भटका सफर

आज देश आजादी का जश्न भले ही मना रहा हो लेकिन देश की जनता के बीच अपनी इस आजादी को लेकर एक संदेह, एक आशंका, एक रोष पैदा हो गया है । इस संदेह की वजह यह है कि पूर् देश में इस वक्त भ्रष्टाचार का बोलबाला है । समाज के सबसे निचले स्तर से लेकर देश के शीर्ष स्तर को भ्रष्टाचार की विषबेल ने जकड़ लिया है । चाहे वो पौने दो लाख करोड़ का टेलीकॉम घोटाला हो, सत्तर हजार करोड़ का कॉमनवेल्थ घोटाला हो, हजारों करोड़ का अंतरिक्ष घोटाला हो, चाहे देश के शहीदों के परिवारों को मिलने वाले घर का आदर्श घोटाला हो या फिर आईपीएल घोटाला । आज जिधर नजर दौड़ाइये घोटाले उधर ही मुंह बाए खड़े हैं । सारे घोटालों के केंद्र में या यों कहें कि हर भ्रष्टाचार की धुरी या तो कोई कांग्रेस का नेता है या फिर कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही केंद्र सरकार को समर्थन दे रही पार्टी का नेता । हर घोटाले के बाद कांग्रेस पार्टी यह दलील देती नजर आती है कि अमुक घोटाले के लिए फलां नेता और मंत्री जिम्मेदार है । लेकिन इस बात को लेकर कभी कोई सवाल नहीं उठता कि जिस मंत्रिमंडल के सदस्य घोटाले कर रहे हैं उनके मुखिया की कोई जिम्मेदारी बनती भी है या नहीं । हर कोई इस बात की दुहाई देता नजर आता है कि देश के प्रधानमंत्री बहुत साफ सुथरे छवि के हैं । उनके दामन पर दाग नहीं है । अरे भाई उस साफ सुथरी छवि को लेकर देश की जनता क्या करे । देश छवि से नहीं चलता । देश चलाने के लिए कड़े फैसले लेने होते हैं । उस भले और ईमानदार आदमी का हम क्या करें जिनकी नाक के नीचे घोटाले हो रहे हैं लेकिन वो और उनके कारिंदे कहते हैं ये सब उनकी जानकारी में नहीं हुआ । क्या हम यह मान लें कि आजादी के लगभग साढ़े छह दशक बाद प्रधानमंत्री नाम की संस्था को गठबंधन की राजनीति ने कमजोर कर दिया है । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बहुत ईमानदार हैं, होंगे, लेकिन जिस तरह उन्होंने भ्रष्टाचार की तरफ से आंखें मूंद ली है उससे एक संदेह का वातावरण तो उनके इर्द गिर्द भी बन ही जाता है । आप लाख ईमानदार हों लेकिन आपके सहयोगी भ्रष्टाचारी हैं तो उसके छींटे तो आपके दामन पर भी पड़ेंगें ही । अंग्रेजी में एक मशहूर कहावत है – अ मैन इज नोन बाइ हिज कंपनी, ही कीप्स ।
ऐसा नहीं है कि देश में सिर्फ कांग्रेस पार्टी और उसके नेता ही भ्रष्ट हैं । देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी में भी येदुरप्पा जैसे लोग हैं जिनका दामन दागदार है । येदुरप्पा पर जमीन घोटाले के आरोप लगे लेकिन बीजेपी को उनपर कार्रवाई करने में लोकायुक्त की रिपोर्ट का इंतजार करना पड़ा । सार्वजनिक जीवन में शुचिता और उच्च सामाजिक मानदंड की वकालत करनावली पार्टी बीजेपी, झारखंड में शिबू सोरेने के साथ मिलकर सरकार चला रही है । शिवू सोरेन पर पहले भी भ्रष्टाचार समेत हत्या और हत्य़ा की साजिश रचने के संगीन इल्जाम लग चुके हैं । उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की सरकार पर भी राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन समेत कई सरकारी योजनाओं में घपले घोटाले की जांच चल रही है । मायावती पर आय से अधिक संपत्ति का मुकदमा विचाराधीन है । उत्तर प्रदेश सरकार पर कैग की ताजा रिपोर्ट में बेहद गंभीर आरोप लगे हैं । तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता पर भी भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा है । समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और हरियाणा के चौटाला पिता पुत्र के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट में आय से अधिक संपत्ति का केस जारी है । लालू यादव और कई सूबों के और नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच चल रही है, यह सूची बहुत लंबी है । अभी-अभी आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी के बेटे जगनमोहन रेड्डी की संपत्ति की जांच के आदेश दिए हैं ।
यह अकारण नहीं है कि देश के तीस मुख्यमत्रियों की कुल संपत्ति करीब ढाई सौ करोड़ रुपये हैं । इस अनुमान के मुताबिक राज्यों के मुख्यमंत्रियों की औसत संपत्ति आठ करोड़ रुपये है । लेकिन अगर उसमें से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और तमिलनाडू के मुख्यमंत्री(अब पूर्व) करुणानिधि की संपत्ति हटा दी जाए तो देश के मुख्यमंत्रियों की औसत संपत्ति घटकर करीब चार करोड़ रुपए रह जाएगी । तकरीबन 87 करोड़ रुपये की संपत्ति के साथ उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और दलित नेता मायावती देश की सबसे अमीर मुख्यमंत्री हैं । दो हजार दस में मायावती ने बताया था कि उनकी संपत्ति तीन साल में 35 करोड़ रुपये बढ़ गई है यानि की तीन साल में बावन करोड़ से बढ़कर सत्तासी करोड़, तकरीबन सड़सठ फीसदी का इजाफा । केंद्रीय मंत्रियों की लिस्ट पर भी अगर नजर डालेंगे तो यह अमीरी नजर आएगी । कहां से आ रहे हैं ये पैसे, ये तो घोषित संपत्ति है, क्या कोई अघोषित संपत्ति भी है । इस तरह के सवाल पूरे देश को मथ रहे हैं । कोई कहता है कि उनके समर्थक चंदा देते हैं तो कोई अपने कारोबार के बूते करोड़पति बनने की बात कर रहा है । नतीजा यह हो रहा है कि पूरे देश में इस वक्त पॉलिटिकल क्लास को लेकर जनता के मन में एक गंभीर सवाल खड़ा हो गया है । आजादी के तकरीबन चौंसठ साल बाद भी आज देश की जनता अपने चुने हुए नेताओं पर भरोसा नहीं कर पा रही है तो यह लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक बात है । देश की आजादी की वर्षगांठ पर पॉलिटिकल क्लास के लोगों के लिए आत्ममंथन का भी वक्त है ।
इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि सत्ताधरी पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करनेवाली संस्थाओं पर ही हमले करने लगे हैं । जब सीएजी की रिपोर्ट में दिल्ली की मुख्यमंत्री के खिलाफ आता है तो कांग्रेस के प्रवक्ता उस संस्था को ही सवालों के घेरे में ले लेते हैं । उसके पहले टेलीकॉम घोटाले में कैग की रिपोर्ट की जांच कर रही संसद की लोकलेखा समिति पर भी कांग्रेस के लोगों ने इस तरह से ही सवाल खड़े कर दिए थे । भ्रष्टाचारियों को बचाने या फिर उनके समर्थन के लिए लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं पर हमले से ऐसा लगता है कि कांग्रेस को भ्रष्ट लोगों की ज्यादा चिंता है बजाए संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा की । आजादी के बाद जिस तरह से उन्नीस सौ पचास में सीएजी को बनाकर उसे संवैधानिक आजादी दी गई और जिसे जवाहरलाल नेहरू ने अपने शासनकाल में मजबूकी दी आज उसपर ही इस वक्त के कांग्रेसी उंगली उठा रहे हैं ।
पूरा देश यह भी देख रहा है कि किस तरह से अन्ना हजारे, जो कि आज भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के प्रतीक बन चुके हैं, को परेशान किया जा रहा है । उनकी आवाज को दबाने या फिर उनको या उनकी टीम को परेशान करने का कोई मौका सरकार नहीं छोड़ रही है । चाहे वो दिल्ली में अनशन करने देने के लिए जगह देना का मामला हो या फिर लोकपाल बिल में मनमानी करने का । अन्ना के खिलाफ खड़े होकर सरकार ने इतनी बड़ी गलती कर दी है जिसकी भरपाई निकट भविष्य में संभव नहीं है । दरअसल आज कांग्रेस के पास आजादी के आंदोलन से तपकर निकले जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, एस राधाकृष्णन और डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद जौसे नेता नहीं हैं जो एक नैतिक उदाहरण पेश कर सकें । अन्ना ने ईमानदारी की जो नैतिक चुनौती सरकार को दी है उसका जवाब देने के लिए कांग्रेस के पास कोई नेता नहीं है । कपिल सिब्बल हों या फिर चिदंबरम या फिर विवादित बयानों के लिए चर्चित दिग्विजय सिंह- इन सबमें वो नैतिक ताकत नहीं है जो अन्ना हजारे का मुकाबला कर सके । लेकिन उससे भी चिंता की बात यह है कि देश में इन भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ कार्रवाई ना होते देख जनता क्षुब्ध होने लगी है, उनका धैर्य जवाब देने लगा है । आज जश्ने आजादी के बीच पॉलिटिकल क्लास को जनता की इस नाराजगी का संज्ञान लेना चाहिए ।