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Saturday, July 28, 2012

दम तोड़ती साहित्यिक संस्थाएं

आजादी के बाद देश को जवाहरलाल नेहरू जैसा साहित्यप्रेमी और लेखक प्रधानमंत्री मिला जिसके दिमाग में देश में साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ावा देने की एक व्यापक योजना थी । नेहरू के वक्त में साहित्य और साहित्यकारों की काफी इज्जत थी । रामधारी सिंह दिनकर और मैथिलीशरण गुप्त के अलावा कई साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों को जवाहरलाल नेहरू ने राज्यसभा में मनोनीत कर संसद का मान और स्तर दोनों बढाया था । आजादी के बाद संविधान द्वारा स्वीकृत भारतीय भाषाओं में उत्कृष्ट लेखन को पुरस्कृत, संवर्धित और विकसित करने के एक बड़े उद्देश्य को लेकर 1954 में साहित्य अकादमी की स्थापना की गई थी । पररंतु अगर हम पिछले अट्ठावन साल की उपल्बिधियों पर गौर करें तो एक साथ विस्मय भी होता है और आश्चर्य भी । शुरुआती एक दशक के बाद से लगभग चालीस साल तक साहित्य अकादमी अपने उद्देश्य से भटकती रही । अस्सी और नब्बे के दशक में तो साहित्य अकादमी की प्रतिष्ठा बेहद धूमिल हुई । जिस तरह से हिंदी के कर्ताधर्ताओं ने उस दौरान पुरस्कारों की बंदरबांट की थी उससे साहित्य अकादमी की साख को तो बट्टा लगा ही उसकी कार्यशैली पर भी सवाल खड़े होने लगे थे । फिर साहित्य अकादमी के चुनावों में जिस तरह से खेमेबंदी और रणनीतियां बनी उससे भी वो साहित्य कम राजनीति का अखाड़ा ज्यादा बन गई थी । गोपीचंद नारंग और महाश्वेता देवी के बीच हुए अध्यक्ष पद के चुनाव के दौरान तो माहौल एकदम से साहित्य के आमचुनाव जैसा था । गोपीचंद नारंग के चुनाव जीतने के बाद साहित्य अकादमी की स्थिति सुधरी । वर्षों से विचारधारा के नाम पर अकादमी पर कुंडली जमाए मठाधीशों की सत्ता का अंत होने से तिलमिलाए लोगों ने नारंग पर कई तरह के आरोप लगाए । उनको हटाने की मांग की गई लेकिन उस दौर में अकादमी ने अपना भव्य स्वर्ण जयंती समारोह तो मनाया ही और कई बेहतरीन कार्यक्रम कर आलोचकों को मुंहतोड़ जवाब दिया । हाल के दिनों में जब से विश्वनाथ तिवारी साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष बने हैं तो अकादमी के कार्यक्रमों में विविध लेखकों की सहभागिता काफी बढ़ी हैं ।
साहित्य अकादमी के अलावा अगर हम अन्य राज्यों की हिंदी साहित्य, कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई अकादमियों पर विचार करें तो हालात बेहद निराशाजनक नजर आते हैं । दिल्ली की हिंदी अकादमी तो सरकार के सूचना और प्रसारण विभाग में तब्दील हो गया है । हिंदी अकादमी की संचालन समिति की पिछले कार्यकाल में एक भी बैठक नहीं हो पाई थी । दिल्ली सरकार हिंदी अकादमी का नियमित सचिव नियुक्ति नहीं कर पाई और एडहॉक सचिव से लंबे समय तक काम चलाती रही । इससे साहित्य को लेकर सरकार की गंभीरता का भी पता चलता है । नतीजा यह हुआ कि अकादमी के एडहॉक प्रशासनिक मुखिया के नेतृत्व में आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों में भी एक एडहकिज्म नजर आती रही । एक जमाने में लाल किले पर होनेवाली कवि गोष्ठी दिल्ली की हिंदी अकादमी का प्रतिष्ठित कार्यक्रम हुआ करती था लेकिन जिस तरह से बाद में कवियों के चयन में मनमानी और उपकृत करने की मनोवृत्ति सामने आई उससे लालकिले का आयोजन रस्मी होकर रह गया । उसके अलावा हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए ना तो कोई किताब छापी गई और ना ही अकादमी की साहित्यक पत्रिका की आवर्तिता बरकरार रखी जा सकी । जो किताबें छपी वो भी स्तरहीन और पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने वाली बनकर रह गई । हिंदी अकादमी की प्रतिष्ठित पत्रिका इंद्रप्रस्थ भारती का आज कहीं कोई नामलेवा नहीं रहा । दसियों साल से दिल्ली की हिंदी अकादमी दिल्ली के युवा लेखकों के प्रोत्साहन के लिए पुस्तक प्रकाशन योजना के तहत दस हजार रुपए का अनुदान देती है । लेकिन बदलते वक्त के साथ इस अनुदान राशि में कोई बदलाव नहीं किया गया । दिल्ली की युवा प्रतिभाओं को सामने लाने के अपने दायित्व को निभा पाने में कामयाब नहीं हो पा रही है और संघर्षरत युवा लेखकों को अपनी किताबें छपवाने में दर बदर भटकना पड़ रहा है ।
यह हाल सिर्फ दिल्ली की हिंदी अकादमी का नहीं है । हिंदी प्रदेशों में जितनी भी अकादमियां हैं वो सब राजनैतिक नेतृत्व की बेरुखी और उपेक्षा के अलावा लेखकों की आपसी राजनीति का शिकार हो गई हैं । मध्य प्रदेश एक जमाने में साहित्य संस्कृति का अहम केंद्र माना जाता था । अस्सी के दशक में मध्य प्रदेश में इतनी साहित्यिक गतिविधियां हो रही थी और सरकारी संस्थाओं से नए पुराने लेखकों के संग्रह प्रकाशित हो रहे थे कि अशोक वाजपेयी ने अस्सी में कविता की वापसी का ऐलान कर दिया था । ना सिर्फ साहित्य बल्कि कला के क्षेत्र में भी मध्य प्रदेश का सांस्कृतिक संस्थाओं की सक्रियता चकित करनेवाली थी । मध्य प्रदेश में कई जगहों पर मुक्तिबोध, प्रेमचंद और निराला के नाम पर साहित्य सृजन पीठ खोले गए थे और उन पीठों पर हिंदी के मूर्धन्य लोगों को नियुक्ति दी गई थी जिससे की उन पीठों की साख शुरुआत से ही कायम हो पाई ।  लेकिन बाद में लेखकों की विचारधारा की लड़ाई और राजनीतिक सत्ता का बदलने से मध्यप्रदेश में साहित्यिक सत्ता भी पलट गई । कालांतर में इन साहित्यक संस्थाओं की सक्रियता और काम करने का स्तर भी गिरा । संस्थाओं पर भाई भतीजावाद के आरोप लगे । उनकी नियुक्तियों में धांधली की शिकायतें सामने आई । विचारधारा की लड़ाई और सरकार की बेरुखी से नुकसान तो साहित्य का ही हुआ । मध्य प्रदेश के अलावा राजस्थान साहित्य अकादमी का भी बुरा हाल है । राजस्थान से निकलने वाली पत्रिका- मधुमती- का एक जमाने में हिंदी के पाठकों को इंतजार रहता था लेकिन अब मधुमती कब आती है और कब गायब हो जाती है उसका पता भी नहीं चल पाता । राजस्थान में नेहरू की पार्टी कांग्रेस का राज है लेकिन नेहरू के सपनों का भारत बनाने की वहां के राजनैतिक नेतृत्व को फिक्र नहीं है । सरकारी साहित्यिक संस्थाएं सरकारी की बेरुखी की वजह से दम तोड़ रही हैं ।
एक जमाने में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, बिहार ग्रंथ अकादमी और बिहार साहित्य सम्मेलन की देशभर में प्रतिष्ठा थी और उनसे रामधारी सिंह दिनकर, शिवपूजवन सहाय , रामवृत्र बेनीपुरी जैसे साहित्यकार जुड़े थे । लेकिन आज बिहार सरकार के शिक्षा विभाग की बेरुखी से ये संस्थाएं लगभग बंद हो गई हैं । बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के परिसर में सरकारी सहायता प्राप्त एनजीओ किलकारी काम करने लगी है । किलकारी पर सरकारी धन बरस रहा है लेकिन उसी कैंपस में राष्ट्रभाषा परिषद पर ध्यान देने की फुर्सत किसी को नहीं है । बिहार ग्रंथ अकादमी का बोर्ड उसके दफ्तर के सामने लटककर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है । उसके अलावा बिहार साहित्य सम्मेलन में तो हालात यह है कि आए दिन वहां दो गुटों के बीच वर्चस्व की लड़ाई को लेकर पुलिस बुलानी पड़ती है । साहित्य सम्मेलन का जो भव्य हॉल किसी जमाने में साहित्यक आयोजनों के लिए इस्तेमाल में लाया जाता था वहां अब साड़ियों की सेल लगा करती है । इन संस्थाओं के समृद्ध पुस्तकालय देखभाल के आभाव में बर्बाद हो रहे हैं । बिहार के शिक्षा विभाग पर इन साहित्यक विभागों को सक्रिय रखने का जिम्मेदारी है लेकिन अपनी इस जिम्मेदारी को निभा पाने में शिक्षा विभाग बुरी तरह से नाकाम है ।
दरअसल साहित्यक संस्थाओं को लेकर नेहरू के विजन वाला कोई नेता अब देश में बचा नहीं । नेताओं को पढ़ने लिखने से ज्यादा तिकड़मों और अपनी कुर्सी बचाने की फिक्र होती है । सरकार में शामिल लोगों की साहित्य का प्रति उदासीनता से इन संस्थाओं के खत्म होने का खतरा मंडरा रहा है । वक्त आ गया है कि सरकार अपनी समृद्ध साहित्यिक संस्थाओं को बचाने के लिए कोई ठोस कदम उठाए ।

Monday, July 23, 2012

दलित प्रतिभाओं का मेला

चौथी दुनिया के अपने स्तंभ में कुछ महीनों पहले मैंने एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था बिहार में सांस्कृतिक क्रांति । उस लेख के शीर्षक को लेकर मुझपर जमकर हमले किए गए । पटना के कुछ लेखकों ने मेरे उस लेख पर गंभीर एतराज जताते हुए बेवसाइट्स पर लेख लिए । चौथी दुनिया में मेरा स्तंभ बंद करवाने के लिए तमाम दंद फंद रचे । मुझे नीतीश सरकार का प्रशस्ति गायन करनेवाला लेखक करार दे दिया । एक बेवसाइट के मॉडरेटर ने मुझे भगवा समीक्षक करार दे दिया । मुझपर व्यक्तिगत हमले हुए । कालांतर में मुझ पर हमला करनेवाले लोग किन्ही गैर साहित्यिक वजहों से चर्चा में रहे । दिल्ली के एक कवि मित्र, जो पत्रकार भी हैं , ने फोन करके मेरी लानत मलामत की । वो मुझे फोन पर पत्रकारिता सिखाने की कोशिश करने लगे । बिहार के सांस्कृतिक संस्थानों की बदहाली गिनाने लगे । उनकी वरिष्ठता और वय को ध्यान में रखते हुए मैंने उनसे सिर्फ इतना कहा कि आप इस बात के लिए बिहार सरकार के संस्कति मंत्री या संस्कृति मंत्रालय की तारीफ कीजिए कि सूबे एक बार फिर से सांस्कृतिक गतिविधियां शुरू हो गई हैं जो पिछले दो दशक से बंद थी । मेरे इतना कहने के बाद वो बेतरह नाराज हो गए और कहा कि वो मंत्री को भी जानते हैं और मुझे भी । उसके बाद उन्होंने मुझपर कई तरह के उलजलूल आरोप मढे । जब कवि मित्र आपे से बाहर होने लगे तो उनके पास कोई तर्क बचा नहीं । इस तरह के बुद्धिजीवियों की दिक्कत यही है कि जब उनके पास कोई तर्क बचता नहीं है तो वो एक ही तर्क का सहारा लेते हैं कि आप तो संघी हैं आपसे बहस ही नहीं की जा सकती । नतीजा बातचीत खत्म हो जाती है । उस वक्त मैंने अपने इस कॉलम में अपना पत्र रखते हुए एक और लेख लिखा था । दरअसल लालू मोह में ग्रस्त कुछ लेखकनुमा लोग बिहार में हो रहे सांसकृतिक गतिविधियों और विकास के कामों को पचा नहीं पा रहे हैं । दलितों के नाम पर सालों से अपनी सांस्कृतिक दुकान चला रहे इन लोगों को लगता है कि अगर सरकारी स्तर पर कार्यक्रम या फिर किताबें प्रकाशित होने लगी तो उनकी दुकान बंद हो जाएंगी । लालू राज के दौरान इन संस्थानों और कार्यक्रमों में कुछ चुनिंदा लोगों की भागीदारी रहती थी । वो चंद लोग चुपचाप अपना हित साधते रहते थे क्योंकु उन्हें व्यक्तिगत लाभ लोभ के आगे सूबे की छवि या बिहार की समृद्धशाली परंपरा का ना तो अभिमान था और ना ही उन्हें प्रचारित करने में कोई रुचि । अब जब बिहार में सांस्कृतिक गतिविधियां होने लगी हैं । सरकारी स्तर पर प्रयास करके कई बेहतरीन किताबों का प्रकाशन होने लगा है तो लालू राज के दौरान काम कर रहे मठाधीशों को लगने लगा है कि अब उनकी दुकानदारी तो बंद हो गई । लिहाजा उन्होंने इस तरह के हमले शुरू किए ताकि सरकारी सांस्कृतिक पहल पर ब्रेक लगवा सकें ।
अभी जून के महीने में बिहार सरकार के संस्कृति मंत्रालय की पहल पर दस से पंद्रह तारीख के बीच पटना के प्रेमचंद रंगशाला मैं लोकोत्सव का आयोजन किया गया था इस लोकोत्सव में दलित संस्कृति के विभिन्न रूपों को समेकित रूप से प्रदर्शित किया गया था लोकोत्सव में बिहार के विभिन्न क्षेत्रों और दलित जातियों की विशिष्ट लोकगाथाओं हिरनी बिरनी, राजा सलहेस, सती बिहुला, रेशमा चूहडमल, दीना भदरी, और बहुरा गोढिन की सानदार प्रस्तुति भी पेश की गई थी हैरानी की बात है कि इन प्रस्तुतियों के दौरान प्रेमचंद रंगशाला खचाखच भरा रहता था लोकोत्सव में पहले दिन हिरनी विरनी की प्रस्तुति हुई हिरवी विरनी नट जातियों में प्रचलित है यह लोकगाथा अंग क्षेत्र से लेकर लेकर मध्य विहार तक में सुनी जाती है नारी मुक्ति पर केन्द्रित यह लोकगाथा हिरनी बिरनी दो बहनों के माध्यम से अपने अधिकारों के बारे में बात करती है दलित और स्त्री दोनों को समटे इस प्रस्तुति ने दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर जदिया हिरनी विरनी के अगले दिन विन्देश्वर पासवान और उनके दल ने राजा सलहेस को पेश किया मिथिलांचल के दलित जातियों में प्रचलित यह लोकगाथा अब अपनी जातीय सीमाओं से परे पूरे मिथिलांचल में समान रुप से पसंद की जाती है।  राजा सलहेस में सामंती अन्याय के खिलाफ उठ खड़े होने के संघर्ष दास्तां है बाद में छपरा के शिव जी और उनके दल ने सती बिहुला पेश कर दर्शकों का मन मोह लिया यह प्रस्तुति मुख्य रूप से हमारे समाज में महिलाओं के समर्पण और महत्व को रेखांकित करती है। रेशमा चौहरमल को जहानाबाद के बली राय और उनके ग्रुप ने एक अलग शैली में प्रस्तुत कर शहरी दर्शकों कों थिएटर का एक नया रूप दिखाया मध्य बिहार की दलित जातियों में प्रचलित यह लोकगाथा सामाजिक सौहार्द्र को रेखांकित करती है। लोकोत्सव में अनिल सदा ने अपने ग्रुप के साथ दीना भदरी की प्रस्तुति दी उस उत्सव का समापन बहुरा गोढिन की प्रस्तुति के साथ हुआ।  बेगुसराय के पवन पासवान और उनके दल ने बहुरा गोढिन को को जीवंत करते हुए दर्शकों को मोह लिया ।
लोकोत्सव में इन प्रस्तुतितियों के अलावा भी विचार विमर्श हुए जिसमें हर तरह की विचारधारा के लोगों को आमंतत्रित किया गया था । बिहार में लोकोत्सव हो, बिहार की प्रचलित लोकगाथाओं की बिहार के कलाकारों प्रस्तुति हो या क्या क्रांति से कम है । क्या क्रांति का रंग सिर्फ लाल ही होता है । क्या क्रांति समाज के दबे चुचले लोगों से जुड़ी लोकगाथाओं को प्रमुखता से मंच देना क्रांति नहीं है । मैं तो आज भी डंके की चोट पर कहता हूं कि इलस वक्त बिहार में जिस तरह से सांस्कृतिक गतिविधियां हो रही है वो तारीफ के काबिल हैं । क्या इनका विरोध करने वाले लोग वो दौर भूल गए जब कला और संस्कृति के नाम पर बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लौंडे का डांस करवाया करते थे और अपने तमाम कारकुनों के साथ सगर्व लौंडा डांस देखते हुए तस्वीरें खिंचवाया करते थे । ठीक है आपको शौक है आप लौंडा डांस देखिए लेकिन बिहार की गौरवशाली सांस्कृतिक परंपराओं को बचाए रखने का दायित्व का भी निर्बाह करिए ।
जिस तरह से इस बार दलित कलाकारों की भागीदारी से लोकोत्सव का आयोजन पचना में किया गया उसी तरह के आयोजन देश के अन्य भागों में भी होने चाहिए ताकि पूरे देश को बिहार की दलित प्रतिभा का पता चल सके और बिहार के कलाकारों को भी देश के अन्य भागों की कलाओं और कलाकारों से रू ब रू होने का मौका मिलेगा । मैं एक बार फिर से कह रहा हूं कि बिहार में जिस तरह से सांस्कृतिक गतिविधियों ने अंगड़ाई ली है और वो उठ खड़ी हुई है उसके बाद अब बिहार सरकार का दायित्व है कि बिहार की उन साहित्यकिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को जिंदा करने की जो पिछले दो दशक से लगभग मृतप्राय हैं । बिहार संगीत नाटक अकादमी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, मगही अकादमी आदि आदि को पुनर्जीवित करने की आवश्कता है । बिहार में प्रतिभा की कमी नहीं है, कमी है सिर्फ इच्छाशक्ति की । हाल के दिनों में सास्कृतिक गतिविधियों को लेकर जिस तरह से राजनैतिक नेतृत्व की इच्छाशक्ति दिखाई देती है उससे एक उम्मीद बंधी है कि बिहार एक बार फिर से देश के सांस्कृतिक नक्शे पर अपनी अहमियत मजबूती से दर्ज करवाएगा ।